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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
है । जैन धर्म और दर्शन के अनेक तत्त्वों के विधान का आग्रह भी उनमें झलकता है ।
एकार्थकाव्य
एकार्थकाव्यरूप महाकाव्य और खण्डकाव्य के बीच की कड़ी है । साहित्य दर्पण में विश्वनाथ कविराज ने भाषा या विभाषा में रचित, सर्गबद्ध समस्त सन्धियों से रहित एक कथा के निरूपक पद्यकाव्य को 'काव्य' की संज्ञा दी । ' उनका यही 'काव्य' शब्द एकार्थकाव्य है । 'एकार्थकाव्य' की उद्भावना का श्रेय आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र को है । उन्होंने विश्वनाथ कविराज की 'काव्य' विधा को 'एकार्थकाव्य' की अभिधा देते हुए ऐसी रचनाओं को महाकाव्य और खण्डकाव्य के बीच की रचनाएँ स्वीकार किया । उनके शब्दों में, 'एकार्थ की ही अभिव्यक्ति के कारण ऐसी रचनाएँ महाकाव्य और खण्डकाव्य के बीच की रचनाएँ होती हैं । इन्हें 'एकार्थकाव्य' या केवल 'काव्य' कहना चाहिए ।"
'सामान्यतया आठ या आठ से अधिक सर्गों वाले प्रबन्धकाव्यों को महाकाव्य और आठ से कम सर्गों वाले काव्यों को खण्डकाव्य माना जाता है, परन्तु यह वैज्ञानिक विभाजन नहीं है । महाकाव्य वही प्रबन्धकाव्य माना जायेगा जिसमें महदुद्देश्य, महच्चरित्र, समग्र युग-जीवन का चित्रण, गरिमामयी और उदात्त शैली आदि महाकाव्य के सभी गुण पाये जाएँ । जिन प्रबन्धकाव्यों में महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षण नहीं मिलते, वे चाहे आकार में बड़े हों या छोटे, चाहे आठ से कम सर्गों वाले हों या अधिक सर्ग वाले, महाकाव्य नहीं माने जायेंगे । ऐसे प्रबन्धकाव्य दो प्रकार के होते हैंएक तो वे जिनमें किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का चित्रण तो होता है, पर समग्र युग जीवन का चित्रण नहीं होता और न महाकाव्य के अन्य सभी लक्षण पाये जाते हैं । दूसरे वे जिनमें जीवन का खण्ड दृश्य चित्रित होता है और जो कथावस्तु की लघुता तथा उद्देश्य की सीमाओं के कारण वृहदाकार
१. विश्वनाथ कविराज : साहित्य दर्पण : ६ : ३२८-३२९ ।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : वाङ्मय विमर्श, पृष्ठ १४ ।
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