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परिचय और वर्गीकरण
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(१२) उसका नामकरण स्वयं कवि अथवा चरित-नायक के नाम के
आधार पर होता है । सर्गों का नामकरण तत्सम्बन्धी कथावस्तु के अनुसार होता है।
महाकाव्यों के ये लक्षण थोड़े हेर-फेर के साथ रूढ़ और परम्परागत रूप से मान्य रहे हैं । किन्तु महाकाव्यविषयक सामान्य लक्षणों से अधिक उसमें महदनुष्ठान की योजना, महच्चरित्र का चित्रण, युग-जीवन का निदर्शन और सामाजिक संस्कारों की व्यापक अभिव्यंजना आवश्यक मानी गयी है।
उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर विवेच्य महाकाव्य दो हैं-(१) 'पार्श्वपुराण' और (२) 'नेमीश्वर रास' ।
अनूदित महाकाव्यों में पाण्डे लालचन्द कृत 'वरांग चरित', नथमल विलाला कृत 'जीवंधर चरित', बख्तावरमल कृत 'जिनदत्त चरित', सेवाराम कृत 'शान्तिनाथ पुराण', खुशालचन्द्र कृत 'हरिवंश पुराण', बुलाकीदास कृत 'पाण्डव पुराण' प्रभृति रचनाएं महत्त्वपूर्ण हैं । ये कृतियाँ हमारे पूर्ण अध्ययन का विषय नहीं है । उनका अनुशीलन भाषा-शैली के अन्तर्गत किया गया है।
यद्यपि जैन महाकाव्य भारतीय महाकाव्यविषयक अधिकांश लक्षणों की कसौटी पर पूरे उतरते हैं, तथापि उनमें जैन परम्परा का उभार अधिक है। चरित नायक का चयन 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों में से किया गया है। उनमें पौराणिक एवं रोमांचक शैली का समन्वय मिलता है । अलौकिक एवं अतिप्राकृत तत्त्वों का भी उनमें विनिवेश है । उनका प्रमुख रस शान्त है । महाकाव्यकारों का सारा प्रयास अर्थ और काम के लिए नहीं, धर्म
और मोक्ष के लिए है । कुछ काव्यों में नायक की पूर्व भवावलियों के चित्रण द्वारा कथा में रोचकता का आह्वान करते हुए आत्म-विकास की अनेक भूमियों को निदर्शित किया गया है। प्रायः सभी में पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक के चित्रों की बहुलता है। उनमें स्थल-स्थल पर धर्मभावना उभरी हुई मिलती
१. देखिए-डॉ० शम्भुनाथसिंह : महाकाव्य का स्वरूप विकास, पृष्ठ १०८।