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परिचय और वर्गीकरण है, भाषा उतनी ही ललित, कोमल और सरस । उनमें दर्शन, न्याय, विचारादि तत्त्व अत्यल्प मात्रा में विद्यमान हैं, भाव-माधुर्य चरमोत्कर्ष पर है और कृतिकारों की दृष्टि अन्तमुखी होने के कारण उनमें भावानुभूति तीव्र तथा घनीभूत रूप में प्रगट हुई है; यथा-'नेमिचन्द्रिका', 'राजुल पच्चीसी', 'नेमिनाथ मंगल', 'फूलमाल पच्चीसी', 'नेमिराजुल बारहमासा संवाद' आदि।
समन्वयात्मक
इस श्रेणी की प्रबन्ध रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है-काव्यगत सभी तत्त्वों के सन्तुलित विधान की। जिनमें वस्तु और भाव का, बुद्धिराग और कल्पना तत्त्व का समन्वय है, घटना और वर्णन में सन्तुलन है, वे समन्वयात्मक प्रबन्धकाव्य हैं। उदाहरणार्थ, 'शीलकथा', 'नेमिनाथ चरित', 'चेतन कर्म चरित्र', 'नेमीश्वर रास' आदि ।
काव्य-रूप की दृष्टि से वर्गीकरण .
काव्य-रूप के विचार से भी प्रबन्धकाव्यों का वर्गीकरण किया जाना उचित है । आलोच्य प्रबन्ध रचनाओं में महाकाव्य भी हैं, एकार्थकाव्य और खण्डकाव्य भी।
महाकाव्य
साहित्य के आदिम युग से लेकर अब तक कितने ही महाकाव्यों की रचना हुई है और उनके स्वरूप में न्यूनाधिक अन्तर उपस्थित होता रहा है। विद्वानों ने युगीन एवं पूर्ववर्ती महाकाव्यों को दृष्टि में रखकर उसके स्वरूप निर्धारण की चेष्टा की है, तथापि अपने विकसनशील स्वभाव के कारण महाकाव्य किसी परिभाषा विशेष में आबद्ध नहीं रह सका है।
संस्कृत साहित्य शास्त्र में महाकाव्यविषयक प्राचीनतम परिभाषा भामह की उपलब्ध होती है । तदनन्तर दण्डी, रुद्रट, हेमचन्द्र सूरि आदि आलंकारिक महाकाव्य सम्बन्धी परिभाषा में कुछ परिवर्तन एवं परिवर्धन