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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
की अवतारणा इस ढंग से है कि घटना घटा की भांति नीचे से ऊपर उठकर पात्रों के व्यक्तित्व एवं जीवन्त क्रिया पर छा गयी है; पात्र घटनाओं के पूर्जे प्रतीत होते हैं और पात्रों के स्वातंत्र्य ने घटनाओं का बन्धन स्वीकार कर लिया है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि उनमें कवि घटना-नियोजन और उनके चमत्कारपूर्ण वर्णन में ही खोया है, मनोभावों के सूक्ष्म विश्लेषण में नहीं।
___ इस प्रकार के प्रबन्धकाव्यों की विशेषता यही है कि पाठक उनके घटना वैचित्र्य एवं वैशिष्ट्य का ही रसास्वादन कर सकता है, पात्रों के साथ पूर्ण तादात्म्य लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। वहाँ पाठक नदी तट से दूर बैठे हुए एक द्रष्टा की भाँति दृश्य का उपभोक्ता है, उसमें पैठकर लीन होने का उसे कम ही अवसर मिलता है।
'यशोधर चरित', 'यशोधर चौपई' आदि प्रबन्धकाव्य इस वर्ग के अन्तर्गत लिये जा सकते हैं ।
भाव प्रधान
यद्यपि प्रबन्धकाव्य विषय प्रधान या वस्तुनिष्ठ अधिक और विषयी प्रधान या भावनिष्ठ कम होता है, फिर भी साहित्यिक जगत् में 'कामायनी' जैसी प्रबन्धकृतियाँ देखी जा सकती हैं, जिनमें विषयगत प्रमुखता के स्थान पर भावानुभूतियों या अन्तवत्तियों की अभिव्यंजना की प्रधानता है।
__ आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में कतिपय काव्य इसी प्रकार की विशेषताओं से सम्पुटित हैं। जिनमें कथावस्तु प्रशस्त नहीं है, वस्तुगत वर्णनों की न्यूनता है, भावानुभूतियों की सहज और सुकुमार अभिव्यंजना है, वाणी की तरलता, स्निग्धता और एकतानता है, भावावेशमयी अवस्थाओं का चित्रण है, अवाध कल्पना में असीम भावुकता का सन्निवेश है, उन्हें भाव-प्रधान प्रबन्धकाव्यों के अन्तर्गत रखा गया है ।
. ऐसे प्रबन्धकाव्यों में बुद्धि तत्त्व गौण और राग एवं कल्पना तत्त्व ही प्रमुख दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी भाव-राशि जितनी मधुर और सुकुमार