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परिचय तथा वर्गीकरण
पद्धति आदि का ही प्रमुखतः विवेचन है। इन काव्यों में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि मानव जीवन का अन्तिम और महत्त्वपूर्ण लक्ष्य शिवत्व (परम पद) की उपलब्धि है। इसी की उपलब्धि में ही सच्चा सुख है। इस सुख के लिए विचार की शुद्धता के साथ आचार की शुद्धता भी अनिवार्य है। मिथ्याचार दु:खों का मूल और मुक्ति में बाधक है । हिंसा, वैर, राग-द्वेष, कषाय, परिग्रह, कुशील, चोरी, असंयम आदि सभी मिथ्यात्व के प्रतीक हैं। मिथ्यात्व में बन्धन और जड़ता है, अतः वह जीवन के लिए दुःखात्मक किंवा अभिशापात्मक है । इस मिथ्यात्व से बचने और आत्मकल्याण के लिए धर्म का मर्म समझना होगा; सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह, क्षमा, शील, दान, संयम, ब्रह्मचर्य, व्रत, उपासना, तप आदि सद्प्रवृत्तियों को अपनाना होगा।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि इस कोटि के प्रबन्धकाव्यों को दार्शनिक या आध्यात्मिक प्रबन्धकाव्यों से भिन्न वर्ग में क्यों रखा गया ? उत्तर में यही कहा जा सकता है कि इन काव्यों में दर्शन की गुत्थियों को ही नहीं सुलझाया गया है और न दर्शन को कोरी चिन्तना या विचार जगत् ही की वस्तु रखा गया है, अपितु उसे उपयोगितासिद्ध क्रियात्मक रूप देकर व्यवहार जगत् की वस्तु बनाया गया है। यहाँ तो दर्शन का गूढ़ रहस्य भी व्यवहारवाद के समाज सापेक्ष रूप में अभिव्यक्त हुआ है । सारांश यह है कि ये काव्य एक ओर दर्शन के सूक्ष्म धरातल का स्पर्श करते हुए प्रतीत होते हैं तो दूसरी ओर धार्मिकता और नैतिकता के विधेय रूप को।
इस श्रेणी के प्रबन्धकाव्यों में 'फूलमाल पच्चीसी', 'बंकचोर की कथा', 'शील कथा', 'यशोधर चरित', 'यशोधर चौपई' आदि को रखा जा सकता है । इनकी प्रमुख विशेषताएँ ये हैं : (१) धार्मिक या नैतिक प्रबन्धकाव्यों की कथावस्तु कहीं सर्गबद्ध और
कहीं असर्गबद्ध है। (२) उनमें वस्तु-वर्णन, प्रकृति-चित्रण एवं धार्मिक स्थल अत्यल्प मात्रा
में निवसित हैं।