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परिचय और वर्गीकरण
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तथा महान् नहीं बन पाते। इनमें से प्रथम प्रकार के प्रबन्धकाव्यों को एकार्थकाव्य और दूसरों को खण्डकाव्य कहना उचित ही है ।"
वस्तुतः एकार्थकाव्य प्रबन्धकाव्य का एक महत्त्वपूर्ण भेद है । वह एक ऐसा काव्यरूप है जो महाकाव्य के गुण - लक्षणों से पूर्णत: प्रतिबन्धित नहीं होता । वह महाकाव्य के कतिपय गुणों को समेटते हुए नायक के सम्पूर्ण जीवन का ( समग्र युग जीवन का नहीं) चित्र होता है। कभी-कभी उसमें महाकाव्य के समस्त लक्षण (बाह्य) भी मिल जाते हैं किन्तु उसकी अन्तरात्मा में महाकाव्य का अभाव होने के कारण उसमें केवल महाकाव्याभास ही दृष्टिगोचर होता है ।
आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में 'यशोधर चरित', 'यशोधर चरित चोपई', 'सीता चरित', 'श्र ेणिक चरित' प्रभृति प्रमुख एकार्थकाव्य हैं ।
इन रचनाओं में महाकाव्य के कतिपय गुण - लक्षण उपलब्ध हैं । इनमें नायक के सम्पूर्ण जीवन का चित्र साकार हुआ है । चतुर्वर्ग फलों में से किसी एक प्रयोजन की सिद्धि ही इनका लक्ष्य है । कथावस्तु कहीं सर्गबद्ध और कहीं असर्गबद्ध है । अनेक स्थलों पर धर्म या दर्शन के तत्त्वों का समावेश है ।
खण्डकाव्य
खण्डकाव्य प्रबन्धकाव्य का ही एक ऐसा रूप है जिसमें जीवन का खण्ड रूप ही चित्रित होता है । इसके स्वरूप निर्धारण का प्रयास संस्कृत साहित्य में हमें रुद्र से प्राप्त होता है । रुद्रट ने प्रबन्धकाव्य के 'महत्' और 'लघु' दो उपभेद किये ।' उनका यह 'लघु' काव्य रूप प्रकारान्तर से खण्डकाव्य ही हो सकता है, यद्यपि स्वतन्त्र रूप से उन्होंने ' खण्डकाव्य' का नामोल्लेख नहीं किया है । सर्वप्रथम विश्वनाथ कविराज ने प्रबन्धकाव्य के तीन भेद
१.
२.
हिन्दी साहित्य कोश, पृष्ठ २४७ ॥
काव्यालंकार, १६ । ५ : ६ ।