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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
कथात्मक कम और भावात्मक अधिक हैं । इनमें सभी भाव-रसों की योजना है । इनका शिल्प-विधान अधिक सशक्त और सुन्दर है ।
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कहना चाहिए कि रास साहित्य जनप्रिय साहित्य । यह केवल वीर एवं शृंगार रस के वर्णन के लिए ही प्रयुक्त हुआ हो, ऐसी बात नहीं है । जैन कवियों ने रास साहित्य में अध्यात्म एवं वैराग्य के भी खूब गीत गाये हैं ।' १३ वीं शती से लेकर १६वीं शती तक जैन कवियों ने सैकड़ों की संख्या में रास नामान्त रचनाओं का प्रणयन किया है। 'हिन्दी भाषा के क्रमिक अध्ययन की दृष्टि से भी ये ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं और इनके पठन-पाठन से हमें एक नयी दिशा मिल सकती है ।”
आलोच्यकाल में जैन कवियों द्वारा रास - रासो काव्यों का प्रणयन राजस्थानी एवं गुजराती में अधिक हुआ, ब्रजभाषा में बहुत कम । 'रत्नपाल रासो' और 'नेमीश्वर रास' इस दिशा की महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं ।
कथा नामान्त
जैन साहित्य में कथा नामान्त रचनाएँ जो पद्यवद्ध हैं, प्रबन्ध शैली में लिखी हुई मिलती हैं । मूलतः इस कोटि की अधिकांश कृतियों का उद्देश्य चरित्रांकन है । 'कथा' नाम से अभिहित ये रचनाएँ 'कथाकाव्य' से भिन्न लक्षित होती हैं और इन्हें वर्णनात्मक प्रबन्धकाव्यों की संज्ञा दी जा सकती है । जन- हृदय को किसी उपदेश, संदेश अथवा आदर्श से अनुप्राणित करने के दृष्टिकोण से इस श्रेणी के काव्यों में धर्म एवं नीति-तत्त्वों के साथ लोक तत्त्व का प्राधान्य मिलता है । इनमें कथा के भीतर कथा कहने की परम्परा का प्रायः निर्वाह हुआ है और इससे कहीं-कहीं रसात्मकता में
१. डॉ०
० कस्तूरचन्द कासलीवाल : 'रासा साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का योगदान' लेख शीर्षक, गुरुदेव श्री रत्नमुनि स्मृतिग्रन्थ, पृष्ठ ३४० 1 वही, पृष्ठ ३४९ ॥
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