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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
से है । लाक्षणिक अर्थ में पुराण का अभिप्राय 'प्राचीन आख्यान' से है ।" पुराणों के वर्णनों में अतिशयोक्ति अवश्य है; किन्तु ये आख्यान और कथाएं नितान्त काल्पनिक नहीं हैं । पुराण पद्य में हैं, किन्तु ये रचनाएँ केवल पद्यबद्ध वर्णन नहीं हैं; उनमें कवित्व का अंश भी पर्याप्त है । कवित्वपूर्ण होने के कारण उनमें अतिशयोक्ति स्वाभाविक है । ' ' इति इह आसीत' यहाँ ऐसा हुआ, ऐसी अनेक कथाओं का निरूपण होने से ऋषिगण इसे 'इतिहास', 'इतिवृत्त' और 'एतिह्य' भी मानते हैं ।'
" जैन पुराणों के प्रतिपाद्य विषय हैं - (१) क्षेत्र (तीनों लोकों की रचना ), ( २) काल (तीनों काल), (३) तीर्थ ( सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र), (४) सत्पुरुष और ( ५ ) उनकी पाप से पुण्य की ओर प्रवृत्ति आदि ।
'इन पुराणों का उद्देश्य है - संत पुरुषों के जीवन-चरित द्वारा जैन धर्म के गंभीर से गंभीर तत्त्वों को पाठकों अथवा श्रोताओं को समझा देना । इन ग्रन्थों में अनेक रोचक कथा-कहानियों को देकर ऐसा प्रिय बनाया गया है कि ये साधारण जनता को शुष्क मालूम न हो सकें । इन पुराणों का महत्त्व इसमें है कि एक ओर तो ये अति प्राचीन ऐतिहासिक एवं अर्ध ऐतिहासिक अनुश्रुतियों के खजाने हैं, तो दूसरी ओर जनप्रिय कथानकों के विशाल भण्डार ।*
विवेच्ययुग में पुराण नामान्त अधिकांश प्रबन्धकाव्य दिगम्बर जैन कवियों द्वारा रचे गये हैं । श्वेताम्बर परम्परा के जैन कवियों ने पुराण नामान्त काव्यों का प्रणयन प्रायः नहीं किया; उनके तो चरित, चौपई, रास, रासो नामान्त प्रबन्धकाव्य ही बहुलता से मिलते हैं और वे अधिकांशतः राजस्थानी और गुजराती भाषा में रचित हैं ।
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४.
डॉ० रामानन्द तिवारी : भारतीय दर्शन का परिचय, पृष्ठ १९६० - १६१ ।
महापुराण, प्रथम पर्व, श्लोक २५, पृष्ठ ८ ।
आदिपुराण, सर्ग २, श्लोक ३८ ।
पं० गुलाबचन्द्र : पुराणसार संग्रह, प्रस्तावना, पृष्ठ ५ ।