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परिचय और वर्गीकरण
१०५ बाधा भी उपस्थित हुई है । कथा कहीं सन्धिबद्ध है, कहीं सन्धिरहित । भाव-व्यंजना सरल है । अपभ्रश की भाँति इनमें कवि की कल्पना का मेल तथा धार्मिकता का आवरण किन्हीं पौराणिक रूढ़ियों के साथ लक्षित होता है । लोक-मानस, सामाजिक रीति-नीति, व्रत-पद्धति तया रूढ़ियों की प्रबलता है; यथा-'बंक चोर की कथा', 'शीलकथा' आदि ।
वेलि नामान्त
'वेलि' नामान्त रचनाएँ प्रायः कथात्मक हैं। उनमें गीत-शैली की प्रधानता होते हुए भी प्रबन्धात्मकता का गुण सन्निहित है। मुक्तक के शरीर में प्रबन्ध की आत्मा का निवास उनकी विशेषता है । जैन कवियों द्वारा रचित वेलि काव्य ब्रजभाषा की अपेक्षा राजस्थानी तथा गुजराती में अधिक उपलब्ध होते हैं।
वेलिकारों ने अपने काव्यों के कथानक-स्रोत अधिकांशतः जैन पुराणों अथवा जैनागमों से ग्रहण किये हैं । त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों, अन्य महान् विभूतियों या सती नारियों का चरित्रांकन ही उनका लक्ष्य रहा है । उनमें प्रेम और शृंगारपरक चित्रों की बहुलता है और उनकी चरम परिणति दिखायी देती है-विराग, तप या निर्वाण में । उनका शिल्प-विधान अतिशय सुन्दर है । उनमें प्रयुक्त छन्दों में लय है। लोक गीतों की-सी सरसता है। वे प्रायः ढालों में रूपायित हैं और देशियों एवं संगीत के अनेक रागों से गुम्फित हैं । उदाहरणार्थ आलोच्ययुग की वेलि रचनाओं में भट्टारक धर्मचन्द्र रचित 'आदिनाथ वेलि' का उल्लेख किया जा सकता है ।
मंगल नामान्त
'मंगल' नामान्त काव्यों का सृजन जैन कवियों ने भी किया है और
देखिए-डॉ. देवेन्द्रकुमार : गुरुदेव श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ,
पृष्ठ ३३३ । २. देखिए-डॉ० नरेन्द्र भानावत : राजस्थानी वेलि साहित्य, पृष्ठ ५१ ।