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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
प्रस्तुत काव्य मूलत: दोहा-चौपई शैली में लिखा गया है। स्थल-स्थल पर छप्पय, अडिल्ल, गीतिका, सवैया, पद्धड़ी, गीता, चाल, मरहट, कड़खा आदि छन्दों का प्रयोग बड़ी सुन्दरता से किया गया है।
एक बात और । भट्टारक वर्द्धमान कृत 'वरांग चरित्र' का पद्यानुवाद पाण्डे लालचन्द (विक्रम संवत् १८२७) ने भी किया है, जो भाव की मधुर एवं सशक्त अभिव्यंजना के कारण प्रस्तुत काव्य की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट है। जिनदत्त चरित' ___'जिनदत्त चरित' कवि वख्तावरमल का रोमांचक शैली का महाकाव्य है। इसकी रचना संवत १८६४ में हुई। संस्कृत में गुणभद्राचार्य ने चतुर्वर्ग फलों से युक्त 'जिनदत्त चरित' की रचना की थी, उसी को भाषान्तरित कर कवि ने प्रस्तुत प्रबन्धकाव्य के रूप में हिन्दी को एक कण्ठाभरण प्रदान किया है।
यह सरस महाकाव्य ६ संधियों में पूर्ण हुआ है। घटना और वर्णनों की प्रधानता है । भाषा प्रवाहयुक्त और प्रसाद-गुण-सम्पन्न है। १. जैन साहित्य शोध-संस्थान, आगरा से प्राप्त हस्तलिखित प्रति । २. जिनदत्त चरित, पद्य ११८, संधि ६, पृष्ठ ७६ ।
गुण भद्राचारज कहें, धर्म अर्थ अरु काम । मोक्ष सहत चतुवर्ग एह, उज्जल मुक्ता दाम ॥५॥ असी जिनदत्त सेठ की, कथा महारस लीन । मो मन बंछा अति भई, कंठाभरण सु कीन ॥६॥
-वही, संधि १, पृष्ठ २ । ४. केई महला तज सिंगार । वीथी प्रत दौड़ी तेह बार ॥
केई महल सिषर पै जाय । देषत दुलहा दुलहन आय ॥२२॥ केई नार मन धार उमंग । लषे कवर मुष कमल अभंग ।। केई भामन दौड़त भई । साड़ी उरझत भूमध ठई ॥२३॥ केइयन के गल टूटे हार । उत्कंठत सो ताह संभार ॥२४॥
-वही, संधि ३, पृष्ठ २२ ।