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परिचय और वर्गीकरण
आदिनाथ वेलि'
प्रस्तुत वेलि के रचनाकार मंडलाचार्य भट्टारक धर्मचन्द्र हैं । इसकी रचना महारौठपुर (जोधपुर-राजस्थान) में विक्रम संवत् १७३० में हुई।
इस काव्य में जैनों के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) के जीवन से सम्बद्ध प्रसंगों (पंच कल्याणक उत्सवों)३ का उद्घाटन बड़ी सरसता से हुआ है।
__ काव्य की भाषा मूलतः सरस ब्रजभाषा है। यत्र-तत्र राजस्थानी का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इसमें दोहा और सखी छन्द का प्रयोग हुआ है । कला-पक्ष की दृष्टि से रचना सामान्य है ।
रत्नपाल रासो
कवि सुरचन्द विरचित 'रत्नपाल रासो' की रचना विक्रम संवत् १७३२ में वर्धनपुर (वर्द्धमान नगर) में हुई। यह रास-परम्परा की अच्छी कृति है । इसमें ३ खण्ड, ३५ ढाल और १००३ पद्य हैं। प्रथम खण्ड में ढालों की संख्या १२, द्वितीय में १५ और तृतीय में ८ है ।
१. इसकी हस्तलिखित प्रति दिगम्बर जैन मंदिर (चौधरियों का) मालपुरा
(राजस्थान) के गुटका नं० ५० में सुरक्षित है। प्रति के आरम्भ के दो
पत्र अनुपलब्ध हैं। २. संवत सतरा सैतीस । मास असाढ़ नवमी से । महरौठपुर मंझारी । आदिनाथ भवियण तारी॥
-आदिनाथ वेलि, अन्तिम पृष्ठ । ३. प्रत्येक तीर्थंकर के पंच कल्याणक उत्सव-गर्भ, जन्म, तप, केवल ज्ञान ___ और मोक्ष के अवसरों पर इन्द्रादि देवों द्वारा मनाये जाते हैं। ४. जैन साहित्य शोध-संस्थान, जयपुर से प्राप्त हस्तलिखित प्रति । ५. संवत सतर वत्रिसा वर्ष, शुभ मुहूरत शुभ वार रे। आसो सुदी ग्यारस रवि दिन, वर्धनपुर मझार रे ॥
-रत्नपाल रासो, पद्य ७, ढाल ८, खण्ड ३, पृष्ठ ६३ ।