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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
इसमें नाक, कान, आँख, जीभ आदि के मानवीकरण में कवि को बड़ी सफलता मिली है । काव्य में आद्यंत पंचेन्द्रियों की प्रशंसा और भर्त्सना का स्वर प्रबल है । अन्त में पंचेन्द्रियों के सरदार 'मन' को परमात्मतत्त्व की उपलब्धि का संदेश दिया गया है ।
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काव्य में दोहा, सोरठा, घत्ता और कतिपय ढालों का प्रयोग हुआ है । ढालों की सरसता स्पृहणीय है ।"
राजुल पच्चीसी'
आलोच्यकाल में छन्द - संख्या के आधार पर अनेक 'संख्या नामान्त' प्रबन्धकाव्यों की रचना हुई है । 'राजुल पच्चीसी' भी इसी प्रकार की काव्यकृति है, जो पच्चीस छन्दों में पूर्ण है । इसकी रचना कवि विनोदीलाल ने माघ सुदी २, गुरुवार, विक्रम संवत् १७५३ में साहिजादपुर में की, जबकि दिल्ली के सिंहासन पर सम्राट् औरंगजेब आसीन था ।
'राजुल पच्चीसी' कविवर का एक श्रेष्ठ और सरस खण्डकाव्य है ।
१. (ढाल - 'रे जिया तो बिन घड़ी रे छ मास' ए देशी । टेक - यतीश्वर जीभ बड़ी संसार, जपै पंच नवकार ।) दुरजन तें सज्जन करें जी, बोलत मीठे बोल ।
ऐसी कला न ओर पे जी, कौन आँख किह तोल || यतीश्वर० ॥ जीभहि तें सब जीतिये जी, जीभहि तें सब हार । जीभहि तें सब जीव के जी, कीजतु हैं उपकार || यतीश्वर० ॥ - पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ७४, ७५, पृष्ठ २४५ ।
२. प्राप्ति - स्थान – बद्रीप्रसाद जैन पुस्तकालय, बनारस सिटी ।
३.
सुन भविजन हो, सम्वत् सत्रह से पर त्रेपण जानिये । सुन भविजन हो, माघ सुदी तिथि दौज वार गुरु जानिये ॥ गुरुवार को सहजादपुर में रची सुख समाज में | शाह नोरंगजेब
आलमगीर
ताके राज में ॥
- राजुल पच्चीसी, पृष्ठ १३, छन्द २५ ।