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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन यह काव्य छः सन्धियों में पूर्ण है । प्रत्येक सन्धि के अन्त में दो-चार पंक्तियों में सन्धि-मार दिया गया है । इसमें प्रसंगानुसार यथेष्ट वस्तु-वर्णनों का विधान है।
यहां राजा यशोधर का अनेक जन्मों का चरित्र वर्णित है। इसमें पाप-पुण्य, हिंसा-अहिंसा तथा वैर-प्रीति आदि के परिणामों पर विशद प्रकाश डाला गया है।
यह कृति मुख्यतः दोहा-चौपई शैली में रचित है । सोरठा, अडिल्ल, सवैया आदि छन्दों के अलावा कुछ संगीतात्मक ढालों का प्रयोग भी यथावसर हुआ है।
भाषा मूलतः ब्रजभाषा है। उस पर यत्र-तत्र राजस्थानी का प्रभाव भी लक्षित होता है। पार्श्वपुराण
'पार्श्वपुराण' अठारहवीं शती का महाकाव्य है। इसकी रचना कवि भूधरदास ने विक्रम संवत् १७८६ में की। इसका कथानक रोचक और मर्मस्पर्शी है । इसमें पार्श्वनाथ (जनों के तेईसवें तीर्थंकर) का सांगोपांग चरित्र चित्रित हुआ है । इसमें क्रोध पर अक्रोध, वैर पर क्षमा और हिंसा पर अहिंसा की विजय दिखायी गयी है।
यह ग्रन्थ नौ अधिकारों में पूर्ण हुआ है। प्रत्येक के आरम्भ में तीर्थंकर पार्श्व की स्तुति का विधान है। यह रचना भक्ति-प्रसूत है । पंचकल्याणकों के अवसर पर इन्द्रादि देवताओं द्वारा भी तीर्थंकर की स्तुति कराई गई है ।
१. जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, गिरगांव, बम्बई द्वारा विक्रम
संवत् १९७५ में प्रकाशित । संवत सतरह से समय, और नवासी लीय । सुदि अषाढ़ तिथि पंचमी, ग्रन्थ समापत कीय ॥३३॥
-पाश्र्यपुराण, पृष्ठ १७६ ।