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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
कुबुद्धि जैसे पात्रों के माध्यम से प्रबन्ध का रूप देने का प्रयास किया है । कथानक में शिथिलता का दोष दिखायी देता है ।
काव्य का मुख्य उद्देश्य सुबुद्धि द्वारा चेतन को अपने मूल स्वरूप को पहचानने का संदेश देना है ।' यहाँ नारी पुरुष की पथ-प्रदर्शिका है और उसमें उसकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है ।
'शत अष्टोत्तरी' की भाषा अलंकारमयी प्रौढ़ ब्रजभाषा है । उसके मध्य में केवल दो-चार छन्दों में फारसी अरबी के शब्दों के बहुल प्रयोग के साथ खड़ी बोली का रूप संवारा गया है । समग्र काव्य की भाषा का लालित्य एवं माधुर्य अपनी समता नहीं रखता । वर्णिक और मात्रिक, दोनों प्रकार के कवित्तों का पूरे काव्य में अत्यन्त सफल प्रयोग हुआ है ।
१.
२.
सुनो जो सयाने नाहु देखो नैकु टोटा लाहु, कौन विवसाहु जाहि ऐसें लीजियतु है । दश द्योस विर्ष सुख ताको कहो केतो दुख,
परिकें नरकमुख कोलों सीजियतु है || तो काल बीत गयो अजहू न छोर लयो,
कहू तोहि कहा भयो ऐसे रीझियतु है । आपु ही विचार देखो कहिवे को कौन लेखो,
आवत परेखो तातें कह्यो कीजियतु है ||
-शत अष्टोत्तरी, पद्य १६, पृष्ठ ११ ।
नाहक विराने तांई अपना कर मानता है,
जानता तू है कि नाही अन्त मुझे मरना है | केतेक जीवन पर ऐसे फैल करता है, तेरा पूरा परना है ॥ साथ लगे,
तिनो को फरक किये काम तेरा सरना है ।
सुपने से सुख में पंज से गनीम तेरी उमर के
पाक वे ऐब साहिब दिल बीच बसता है,
तिसको पहिचान बे तुझे जो तरना है ॥
-शत अष्टोत्तरी, पद्य ६१, पृष्ठ २२ ।