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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
यह विरहकाव्य है । इसमें राजकुमारी राजुल की वियोगजन्य स्थिति का मार्मिक चित्रण पाठकों को रस-विभोर किये बिना नहीं रहता। वियोगिनी बाला गजुल का विरह अनेक धाराओं में बहकर अन्ततः संसारत्याग-दीक्षा में पर्यवसित हो जाता है। वह 'संयमनाथ' से पाणिग्रहण कर, राग-द्वेषादि को जीतकर अपने पति के साथ शिवपुर में जा बसती है ।
यह गेय प्रबन्ध आद्यन्त सवैया छन्द में रचित है। ललित भाषा में कोमल भावों की अभिव्यक्ति एवं नाद-सौन्दर्य की दृष्टि से यह कृति अनुपमेय है।' नेमि-राजुल बारहमासा
यह कवि विनोदीलाल की भाव-प्रधान कृति है। इस पर रचनाकाल अंकित नहीं है । कवि की अन्य रचनाओं के आधार पर (जिनमें हमारे कतिपय आलोच्य काव्य भी हैं) इसका रचनाकाल १८वीं शती का पूर्वार्द्ध प्रतीत होता है।
' इस काव्य के प्राण हैं संवाद । इन्हीं संवादों के मध्य कथा जाह्नवी की पवित्र धारा के समान प्रवाहित हुई है। संवादों में कथा की तरतमता है।
१. नेमि-राजमती बारहमास सवैया, छन्द १३, पृष्ठ २१३ ।
फागुन में सखि फाग रमें, ... सब कामिनि कन्त बसन्त सुहायो । लाल गुलाल अबीरे उड़ावत, ,
तेल फुलेल चंपेल लगायो । चंग मृदंग उपंग बजावत,
गीत धमाल रसाल सुणायो । हूँ तो 'जसा' नहिं खेलूगी फाग,
वैरागी अज्यू मेरो नाह न आयो ॥
-नेमि राजमती बारहमासा सवैया, छन्द ८, पृष्ठ २१२ । १. जैन मन्दिर कुम्हेर, जिला भरतपुर (राजस्थान) से प्राप्त हस्तलिखित
प्रति ।