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परिचय और वर्गीकरण
७३ ने विक्रम संवत् १७४२ में की। इसमें कवि ने राजकुमार नेमिनाथ के विवाह का सर्वांग, किन्तु संक्षिप्त चित्र प्रस्तुत करते हुए अन्त में त्यागविरागमूलक भावों को अभिव्यंजित किया है। राजकुमार नेमिनाथ ही आगे चलकर अपने त्याग, तप के कारण तीर्थंकर की सिद्धि से विभूषित होते हैं ।
प्रस्तुत खण्डकाव्य नौ ढालों में पूर्ण हुआ है । वह गेय शैली में रचित है । भावों में भीनापन है और भाषा में लालित्य और माधुर्य । उसमें प्रयुक्त एक-एक शब्द रत्न की भाँति सुशोभित है।
नेमि-राजमती बारहमास सवैया
आलोच्य कवियों द्वारा विरचित सभी बारहमासा काव्य प्रबन्धकाव्य नहीं हैं । केवल एक-दो ऐसे बारहमासों को जिनमें कथा का बिन्दु प्रवाहित होता हुआ अन्त में महोद्देश्य में परिणत हो गया है, भाव-प्रबन्ध के अन्तर्गत रख लिया है। .
यह कृति जिनहर्ष की है । इस पर रचनाकाल अंकित नहीं है । अन्त: साक्ष्य के आधार पर यह अठारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की कृति है, क्योंकि यही कवि की साहित्य-साधना का समय है।"
१. अरी यह संवत सुनहु रसाला हाँ । अरी सत्रह से अधिक बयाला हाँ ॥
-नेमिनाथ मंगल, पृष्ठ ५। __ अरी सब घोरे सरस बनाये हाँ। अरी फूलन की पाषरि झारी हाँ॥ . अरी मषमल के जीन बनाये हाँ। अरी कुन्दन सो जरित जराये हाँ ।। कुन्दन सो जरित जराइ राषे हेमनाल मढ़ाईया । आन द्वारे करे ठाढ़े नमकुंमर चढ़ाईया ।।
-नेमिनाथ मंगल, पृष्ठ ३ । यह सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्सटीट्यूट, बीकानेर द्वारा प्रकाशित 'जिनहर्ष ग्रन्थावली' में संगृहीत है। देखिए-डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग ४, पृष्ठ ८५ तथा १११ ।