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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
इसमें कवि का लक्ष्य दान की महिमा को प्रतिपादित करना रहा है। कथा की अखण्ड धारा के मध्य पात्रों का शील-निरूपण पटुता से किया गया है । कवि ने रसात्मक स्थलों को पहचाना है। उनमें अनुभूति की तीव्रता और भाव की अनेक भूमियों का स्फुरण है।
काव्य में प्रयुक्त प्रत्येक ढाल में संगीतात्मकता है। रागों में केदार, मारू, बसंत, भूपाल, आसावरी, सोरठ आदि का प्रयोग हआ है। इसमें अधिकांश स्थलों पर टेक शैली का प्रयोग भी दिखायी देता है ।
भाषा में ब्रजभाषा का माधुर्य और सौकुमार्य विद्यमान है; परन्तु उसमें राजस्थानी और गुजराती का भी पर्याप्त पुट है।'
श्रेणिक चरित
'श्रेणिक चरित' कवि लक्ष्मीदास की ढाल-बद्ध रचना है, जो चउवन ढालों में पूर्ण है । इसकी रचना विक्रम संवत् १७३३ में हुई। यह एक चरित्र-प्रधान प्रबन्धकाव्य है, जिसमें राजा श्रेणिक के चरित्र की झांकी है । राजा श्रेणिक तीर्थंकर महावीर की समवशरण सभा के प्रधान श्रोता थे, इसलिए जैन साहित्य में उनकी पात्रता विशेष गौरव की वस्तु मानी जाती है ।
प्रत्येक ढाल की रचना किसी राग विशेष को लेकर की गई है । मूलतः
१. रत्नपाल रासो, पद्य १४, ढाल १०, खण्ड १, पृष्ठ १७ । २. आमेर शास्त्रभण्डार, जयपुर से प्राप्त हस्तलिखित प्रति । ३. (क) इन ढालों में संगीत के रागों का माधुर्य संचरित है और ये गीति
तत्त्वों से ओतप्रोत हैं। (ख) ढालों में प्रबन्धकाव्य की रचना विशेष गौरव की बात है और इस
गौरव का वही कवि भागी होता है, जो संगीत के विविध परि
पाश्वों से अवगत है। * संवत सतरासे उपरि तेतीस जेठ सुपाष । पंचमी ता दिन पूर्ण लहि मंगलकारी भाष ॥
-वही, पद्य १७००, पृष्ठ ११४ ।
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