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युग-मीमांसा
अनुवाद
किसी भी साहित्यिक परम्परा को जीवित रखने के लिए साहित्य में दो विधियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं। पहली विधि प्राचीन साहित्य से प्रेरणा ग्रहण करती हुई नयी परिस्थितियों के बीच विकसित और पुष्ट होती है तथा दूसरी प्रणाली में साहित्य के प्राचीन स्वरूप को तत्कालीन समाज से परिचित कराने के लिए अनुवाद की प्रथा का सहारा लिया जाता है।'
अनुवाद साधारण एवं असाधारण दोनों प्रकार की प्रतिभाओं के उपयोग की वस्तु है । सफल अनुवादक प्राचीन साहित्य की बहुमूल्य साहित्यिक सम्पत्ति को युगानुरूप भाषा में संजोता है और उसकी उपादेयता को असंदिग्ध बना देता है। अनेक अनुवादकों का कार्य मौलिक प्रतिभाओं के समान ही महत्त्वपूर्ण होता है।
आलोच्ययुगीन काव्य अनुवाद के क्षेत्र में विशेषतः संस्कृत साहित्य का, परन्तु अल्प मात्रा में प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य का भी ऋणी है।' महाकवि कालिदास, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, हाल, विदुर, शुक्र आदि कवियों ने इस युग के अनुवाद काव्य को प्रचुर सामग्री प्रदान की है।
इस युग में जैन कवि अनुवादकों की एक लम्बी सूची है । उन्होंने 'पद्मपुराण', 'हरिवंश पुराण', 'महापुराण' प्रभृति काव्यों के अतिरिक्त प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं के काव्यों से अनूदित रचनाओं का प्रणयन किया है।
संक्षेपतः इस समय पूर्ववर्ती रचनाओं का पूर्णानुवाद भी हुआ और खण्डानुवाद भी । इस अनुवाद कार्य द्वारा भूतकाल के गर्भ में आवृत
१. डॉ० बजनारायण सिंह : कवि पद्माकर और उनका युग, पृष्ठ ८१ ।
डॉ० अम्बाप्रसाद 'सुमन' : 'हिन्दी साहित्य में रीतिकाव्य का प्रारम्भ
और परम्परा' लेख शीर्षक, साहित्य-संदेश का रीतिकाव्यालोचन विशेषांक, पृष्ठ २० ।