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युग-मीमांसा
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किन्तु इसका यह आशय नहीं कि मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही चित्रकला का भी पतन हो गया ।
शाहजहाँ की उदासीनता, औरंगजेब की कला-विद्वेषता और आगे के मुगल सम्राटों की उपेक्षा वृत्ति के दो परिणाम हुए-(१) राजकीय संरक्षण के अभाव में चित्रकार विकेन्द्रित हुए और प्राय: समस्त भारत में फैल गये । उन्होंने हैदराबाद, मैसूर, पटना, बंगाल, अवध, लखनऊ, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, कोटा, बूदी, उदयपुर, नाथद्वारा आदि के राजाओं तथा नवाबों का आश्रय ग्रहण कर लिया। फलतः इन स्थानों पर चित्रकला अपनी शालीन भंगिमा के साथ नव-नव छवियों, नव-नव शैलियों और नव-नव रंगों में फूलती-फलती रही । (२) दूसरा परिणाम यह हुआ कि चित्रकला ने व्यवसाय का रूप ले लिया। चित्रकार जन-साधारण की रुचि एवं माँग के अनुकूल बहुलता से चित्र बनाने लगे । चित्रकार की तूलिका को मुक्त रंगस्थली न मिल पायी । फिर भी चित्रकला की अनेक शैलियों का विकास होता रहा । 'अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कांगड़ा की चित्रकारी देखने में आयी । इसकी एक शाखा टेहरी-गढ़वाल की चित्रकारी थी। कुशल आलोचकों ने इन कलाओं की बहुत प्रशंसा की है ।"
आलोच्य प्रबन्धकाव्य और चित्रकला
समीक्ष्य प्रबन्धकाव्यों में विकसित चित्रकला का विवेचन उपलब्ध होता है । महलों और मन्दिरों को नाना रंगों से युक्त नाना चित्रों से अलंकृत किया जाता था। वे भांति-भांति के मोहक चित्रों से चित्रकला-जगत में क्रान्ति उपस्थित करते थे । अनेक चित्रकारों की कला में सूक्ष्मतम भावों की अभिव्यंजना होती थी। चित्रकार की कल्पना से कवि-कल्पना में उतरा हुआ प्रस्तुत चित्र तत्कालीन चित्रकला के उत्कर्ष की ओर इंगित करता है :
१. डॉ० आशीर्वादीलाल : मुगलकालीन भारत, पृष्ठ ५८५ । २. विविध वरन सों बलयाकार । झलकै इन्द्र धनुष उनहार ॥ कहिं स्याम कहिं कंचन रूप । कहिं विद्रुम कहिं हरित अनूप ॥
-पायपुराण, पद्य ६८-६६, पृष्ठ १२८