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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
वस्तुतः 'रीतियुग प्रतिभासम्पन्न कवियों का युग था।'' डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में-'एक और बिहारी जैसे सूक्ष्मदर्शी कवि की निगाह सौन्दर्य के बारीक से बारीक सकेत को पकड़ सकती थी, तो दूसरी ओर मतिराम, देव, धनानन्द, पद्माकर जैसे रस-सिद्ध कवियों की तो सम्पूर्ण चेतना ही जैसे रूप के पर्व में ऐन्द्रिय आनन्द का पान करके उत्सव मनाने लगती थी। नयनोत्सव का ऐसा रंग विद्यापति को छोड़कर प्राचीन साहित्य मे अन्यत्र दुर्लभ है ।२ भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से रीतिकालीन साहित्य समृद्ध और स्पृहणीय है । वह ब्रजभाषा के इतिहास में स्वर्णयुग है। वह हमारे लिए एक अतुल सम्पत्ति है जिससे अभी हमे बहुत कुछ लेना है। हमें ताजमहल की भांति इसे सुरक्षित रखना है। इस युग की कला पर प्रत्येक हिन्दी वाले को नाज होना चाहिए।'
निष्कर्षत: इस काल में केवल लौकिक शृंगार, काव्य-नीति और कला-कविताई का ही काव्य नहीं रचा गया, (यद्यपि इस प्रकार के काव्य की बहुलता अवश्य थी) वरन् हिन्दी साहित्य की पूर्व-प्रवृत्तियों का भी पोषण हुआ। वीर-प्रशस्ति, भगवद्-प्रेम, दार्शनिक चिन्तन, आध्यात्मिक साधना के अनुभव, व्यावहारिक उपदेश, लोक-नीति और प्रेमाख्यान आदि विषयों पर भी इस समय सुन्दर रचनाओं की धाराएँ प्रचुरता से प्रवाहित हो रही थीं। इनमें नीति, उपदेश और दैनिक जीवन की अनुभूतियों का साहित्य तो बहुत प्रभावशाली और लोकप्रिय है । इसमें सत्य और शिव का सुन्दर सम्मिश्रण है।"
१. डॉ० भगीरथ मिश्र : हिन्दी रीतिसाहित्य, पृष्ठ १४ । ३. डॉ० नगेन्द्र : रीतिकाव्य की भूमिका, पृष्ठ १७४ ।
सुधाकर पाण्डेय : हिन्दी साहित्य और साहित्यकार, पृष्ठ १०६ । डॉ० दीनदयाल गुप्त : 'रीतिकाल की महत्ता' लेख शीर्षक, रीतिकाव्यालोचन विशेषांक, साहित्य-संदेश, जुलाई-अगस्त, १९५६ ई०,
पृष्ठ १०४-१०५।