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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
कवियों की संज्ञा दी है । इन कवियों के काव्य में भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों का सुन्दर समन्वय दिखलाई देता है ।
श्रृंगारकाव्य-धारा
श्रृंगार इस युग की विशेष काव्य-धारा है और शृंगारिक प्रवृत्ति के प्रामुख्य के कारण कतिपय विद्वान् इस काल को शृंगारकाल की संज्ञा देना अधिक उपयुक्त समझते हैं । अनेक कवि एवं आचार्यों ने अनेक शृंगारपरक रचनाएँ इस युग को दीं । रीतिग्रन्थों में, मुक्तक और प्रबन्धों में, यहाँ तक कि भक्ति में भी शृंगार का स्वर प्रबल हो उठा था । इस समय के अधिकांश कवि दरबारी थे, अत: वे अपने आश्रयदाताओं की अभिरुचि का ध्यान क्यों न रखते ? यही कारण था कि वे मनबहलाव और हृदय में माधुर्य के संचार के लिए विलास वर्णन को काव्य का एक आवश्यक उपकरण मान बैठे थे । और यह शृंगार भी उत्कृष्ट कोटि का श्रृंगार न था । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- 'रीतिकालीन काव्य यद्यपि श्रृंगार प्रधान है, पर इस श्रृंगार रस की साधना में जीवन की संतुलित दृष्टि का अभाव है । यह प्रेम शुरू से अन्त तक महत्त्वाकांक्षा से शून्य, सामाजिक मंगल के मनोभाव से प्रायः अस्पृष्ट, पिण्ड नारी के आकर्षक से हततेजा और स्थूल प्रेमव्यंजना से परिलक्षित है ।"
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एक बात और । इस काल के अधिकतर कवियों ने शृंगार का रसराजत्व सिद्ध करने का प्रयास तो किया, किन्तु वे उसकी युक्तियुक्त स्थापना करने में असफल रहे । उनकी सीमित दृष्टि शृंगार के बाह्य स्वरूप तक ही सीमित रही, उसके अन्तरतम में वह प्रवेश न पा सकी । श्रृंगारी कवियों ने अपने पूर्ववर्ती शृंगारी कवियों के काव्य की धारा को आगे बढ़ाने में योग तो दिया, किन्तु उसका मंगलोन्मुख स्वरूप प्रायः विलुप्त हो गया ।
१. देखिए - पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र : बिहारी, पृष्ठ ५८ ।
२.
वही, पृष्ठ ६३ ।
३.
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी : हिन्दी साहित्य, पृष्ठ ३०२ ।