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आगम के अनमोल रत्न
वैभव दिखाकर बोला-निर्नामिके ! तुम मृत्यु के समय मेरा ध्यान करना ताकि तुम भर कर मेरी ही देवी बनो । ललितांगदेव की यह बात सुनकर पूर्व जन्म के स्नेह वश उसने वैसा ही किया और वह भर कर ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की देवी बनी।।
ललितांगदेव ने स्वयंप्रभा के साथ भोगविलास करते हुए अपनी आयु के शेष दिन विता दिये। उसकी मृत्यु नजदीक आ गई जिससे उसके वक्षस्थल पर पड़ी हुई पुष्पमाला भी म्लान हो गई । उसकी कान्ति मंद पड़ गई । मुख पर दीनता आगई । अन्ततः उसकी देवआयु जलते हुए कपूर की तरह समाप्त होगई । ___ललितांगदेव के स्वर्ग से च्युत हो जाने पर स्वयंप्रभादेवी की वही दशा हुई जो चकवे के विछोह में चकवी की होती है । वह रातदिन पति के वियोग में चुपचाप बैठी रहती। अन्ततः उसने अपने पति का ध्यान करते हुए अपनी देव-आयु समाप्त की । । ६-छठा भव-- . ,
• ईशान देवलोक का आयुष्य, समाप्त कर ललितांग देव का जीव महाविदेह क्षेत्र के पुष्कलावती विजय में स्थित लोहार्गल नगर के राजा स्वर्णजंघ की रानी लक्ष्मीदेवी, की कुक्षि से पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उसका नाम वज्रजंघ रखा गया। स्वयंप्रभा देवी का जीव इसी पुष्कलावती विजय में स्थित पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन की पुत्रीरूप से उत्पन्न हुआ । इसका नाम श्रीमती रखा गया। ___श्रीमती युवा हुई । एक समय वह अपने महल की छत पर. वैठी थी। उसी समय उस.भोर से कुछ देव विमान निकले । उन्हें देख कर उसे जातिस्मरण ज्ञान पैदा हो गया । उसे अपने पूर्वभव के पति ललितांग देव का स्मरण हो आया । उसने मन में दृढ़ संकल्प कर यह प्रण कर लिया कि जबतक मुझे अपने पूर्व भव का पति न मिलेग तब तक मैं किसी से.न बोलँगी । अतः उसने मौन धारण कर लिया।