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आगम के अनमोल रत्न
हुए ललितांग देव की आयु का बहुत बड़ा भाग बीत गया। स्वयंप्रभा देवी की आयु समाप्त हो गई । वह वहां से चवकर अन्य गति में उत्पन्न हुई।
'स्वयंप्रभा' की मृत्यु से ललितांगदेव को वहाँ आघात लगा । वह देवी- के विरह में पागल की तरह इधर उधर घूमने लगा।
अपने पूर्व जन्म के स्वामी ललितांग को देवी के वियोग में पागल देखकर दृढ़धर्मा देव ललितांग के पास आयां और अपने पूर्व जन्म का परिचय देकर बोला-स्वामी ! आप महान् हैं फिर भी स्त्री के वियोग में आपकी यह स्थिति देखकर मुझे बड़ा अफसोस होता है। बुद्धिमान पुरुष स्त्रियों के पीछे पागल नहीं होते।
__ उत्तर में ललितांग ने कहा-बन्धुप्रवर ! तुम ठीक कह रहे हो किन्तु स्वयंप्रभा मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। जब तक वह न मिलेगी तब तक मुझे एक क्षण के लिए भी चैन नहीं मिलेगा। मैं अपने प्राण को छोड़ सकता हूँ किन्तु स्वयंप्रभा का वियोग एक क्षण भी नहीं सह सकता।
ललितांगदेव की यह स्थिति देख दृदधर्मा देव को बड़ा दुःखं हुआ। वह अवधिज्ञान से स्वयंप्रभा की उत्पत्ति के स्थल कोजान कर बोला-हे महासत्त्व ! आप चिन्ता न करें । स्वयंप्रभा का जीव इस समय कहां है और वह पुनः आपको कैसे प्राप्त हो सकती है मैं उपाय बताता हूँ।
- धातकीखण्ड के विदेह क्षेत्र में नन्दी नाम का एक छोटा सा गांव है। वहाँ नागिल नामका एक अन्यन्तं दरिद्र गृहस्थं रहता है उसकी दरिद्रता में वृद्धि करनेवाली नांगश्री नाम की स्त्री है । उसने एक के बाद एक ऐसी छह कुरूप कन्याओं को जन्म दिया । पहले ही वह दारिद्रय के दुख से पीडित था, इन कन्याओं के जन्म से उसका दु.खं असीमित हो गया । इस बीच उसकी पत्नी ने पुनः गर्भ