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आगम के अनमोल रत्न
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कारण हैं वे विषय हैं इसलिए विषयाभिलाषी प्राणी. प्रमादी वनकर शारीरिक और मानसिक बड़े बड़े दुःखों का अनुभव कर सदा परितप्त रहता है। मेरी माता, मेरे पिता, मेरे कुटुम्बी स्वजन, मेरे परिचित; मेरे हाथी घोड़े मकान मादि- साधन, मेरी धन-सम्पत्ति, मेरा' खानपान, वस्त्र इस प्रकार के अनेक प्रपंचों में फंसा हुआ यह प्राणी आमरण प्रमादी वनकर कर्म बन्धन करता है मानव की विषयेच्छा. अगाध समुद्र की तरह है । जिस तरह अनेक नदियों का अथाह जल मिलने पर भी समुद्र सदा अटल रहता है, उसी प्रकार अनन्त भोगसामग्री के मिलने पर भी : मानव सैदा भतृप्त ही रहता है। विषयाभिलाषी मानव भवान्तर में महा दुःखी होता है। अतः हे स्वामी !. विषयों से अपनी रुचि हटाकर अपने मन को धर्म-मार्ग की ओर लगा-- इये। कारण इस जीवन का कोई निश्चय नहीं,, कभी भी मृत्यु आ सकती है । इस सत्य को न समझ कर जीवन को शाश्वत समझने वाले लोग कहा करते हैं , कि धर्म - की आराधना फिर कभी कर लेंगे, अभी क्या जल्दी है ? ये लोग न पहले ही धर्म की आराधना कर पाते हैं न पीछे ही। यों कहते कहते ही इनकी आयु पूरी हो जाती है और काल आकर खड़ा हो जाता है । तब अन्त समय में केवल पश्चात्ताप ही उनके हाथ रह जाता है । अतः आप इस मानव भव को सफल बनाने के लिए शाश्वत धर्म की आराधना कीजिए।
स्वयंबुद्ध मन्त्री की असमय धर्म की बातें सुनकर महाराजा महाबल बोलें-मन्त्रीप्रवर ! तुमनेः धर्माचरण की जो बात कही है वह बिना अवसर के कही है। यह अवस्था धर्माचरण की नहीं है। यह बात सुनकर मन्त्री बोला-राजन् ! धर्माचरण के लिये कोई समय कार निर्धारण नहीं होता । मानव जीवन की असारता को देखते हुए प्रत्येक क्षण में धर्म का आचरण करना चाहिए। मैने जो आपको बिना अवसर के धर्माचरण की सलाह दी है उसका कारण भी सुनिये । मै भाज नन्दनवन में गया था। वहाँ मैंने दो चारण मुनियों को एक वृक्ष