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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૫૧
સારાવલિ
: દ્રવ્યસહાયક :
પૂજ્ય આ.શ્રીમદ્ વિજય રામચન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી સુમંગલાશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા
પૂજ્ય સાધ્વીજી સુદર્શનાશ્રીજી મ.સા. અને પૂજ્ય સાધ્વીજી સૌમ્યપ્રભાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી હીરામોતી ઉપાશ્રય, સાબરમતી, અમદાવાદના આરાધક શ્રાવિકાઓના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૮ ઈ.સ. ૨૦૧૨
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
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સંયોજક – શાહ બાબુલાલ સરેમલ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, રામનગર, સાબરમતી, અમદાવાદ-૦૫. (मो.) ८४२७५८५८०४ () २२१३ २५४3 (8-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯) – સેટ નં-૧
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्त: वेबसाट ५२थी upl st6नलोs FN Aशे. ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક પૃષ્ઠ | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी।
पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार 286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता ।
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
| पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
| पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. 007 अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 | शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 शिल्परत्नम् भाग-१
के. सभात्सव शास्त्री
322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 011 | प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमम्जरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई 015 शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत 016 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 | दीपार्णव उत्तरार्ध
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 018 જિનપ્રાસાદ માર્તડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા |
498 019 जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
502 020 हीरश हैन श्योतिष
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
226 022 दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा. 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
| श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454
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तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय- १ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - ५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્માન મહાકાવ્યમ્
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
પૂ. ભાવખ્યસૂરિનીમ.સા.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
પૂ. ભાવખ્યસૂરિનીમ.સા.
પૂ. ભાવયસૂરિની મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
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સંયોજક – શાહ બાબુલાલ સરેમલ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनार, साबरमती, महावा६-०५. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४3 (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com मही श्रुतज्ञानम् jथ द्धार - संवत २०५६ (. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्ता वेबसाईट ५२थी up SIGनती री शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા त्त-21511२-संपES પૃષ્ઠ | 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ सं पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 लारतीय श्रम संस्कृति सनेमन
४. पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसरि
202 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि
48 0608न संगीत रागमाला
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
306 | 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
322 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पु. मेघविजयजी गणि
516 064 | विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરીનુવાદ | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 मोहराजापराजयम्
| सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 072 जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748 सामुदिनां यथो
४४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी |
376
428
070
308
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જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રમ ભાગ-૨
075
076
077 संगीत नाटय उपावली
078 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧
079
080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग-१
081 बृह६ शिल्पशास्त्र भाग - २
082 बृह६ शिल्प शास्त्र लाग-3
083 खायुर्वेहना अनुभूत प्रयोगो लाग-१
084 ल्याए 5125
085 विश्वलोचन कोश 086
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
0875था रत्न झेश लाग-2 088 हस्तसञ्जीवनम હસ્તસગ્રીવનમ્
089
090
એન્દ્રચતુર્વિંશતિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવવતારિકા
शुभ.
शुभ.
गुभ.
शुभ.
गुभ.
शुभ.
शुभ.
४.
शुभ.
गुभ.
सं./हिं
शुभ
गुठ
सं.
सं.
सं.
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
श्री नंदलाल शर्मा
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजय
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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342 362
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हिन्दी | मुन्शाराम
316 224
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/ टीकाकार भाषा | संपादक / प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना | 92 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 95 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी सं. वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा
मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु
| हेमचंद्राचार्य जैन सभा
| 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
| सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४,५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी | 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि | पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा
| अरविन्द धामणिया | 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि | नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118| प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा | 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री
| फार्बस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा | 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल | 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल | 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
जिनविजयजी
जैन सत्य संशोधक
612 307 250 514 454 354 337
354 372 142 336
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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100 136 266 244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/ संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब
गुज. | साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब
| साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज
गुज.
| हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
| कुंवरजी आणंदजी | गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. ब्रज. बी. दास बनारस 133 | करण प्रकाश
ब्रह्मदेव
सं./अं. सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी
गुज. यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास | गुज.. गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास | गुज. गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१, २
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140| जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज.
| शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भास्वति
| शतानंद मारछता सं./हि एच.बी. गप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
| भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी । जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर
हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
| विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी । सं. ब्रीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274
168 282
182
गुज.
384
376 387 174
प्रा./सं.
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SÂRÂVALI
BY
KALYANAVARMAN
-
Doo
EDITED AND REVISED
BY
V. SUBRAHMANYA S'ASTRI, B. A. Superintendent, Mysore Government, General and
Revenue Secretariat, Bangalore.
Third Edition.
PUBLISHED
BY
PÂNDURANG JAWAJI,
PROPRIETOR OF THE “NIRNAYA SÂGAR" PRESS,
BOMBAY.
1928.
Price i} Rupees.
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[ All rights reserved by the publisher. ]
PUBLISHER:Pandurang Jawaji, PRINTER :-Ramchandra Yesu Shedge,
at the Nirnaya Sagar' Press, 26-23, Kolbhat Lane, Bombay.
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॥श्रीः॥ सारावली । श्रीमत्कल्याणवर्मविरचिता।
इयं
वे० सुब्रह्मण्यशास्त्री बी. ए. इत्येतैः
पाठान्तरैः संस्कृता ।
तस्येयं तृतीयावृत्तिः
मुम्बय्यां पाण्डुरङ्ग जावजी इत्यैतेः स्वीये निर्णयसागराख्यमुद्रणयत्रालये
संमुय प्राकाश्यं नीता ।
शाकः १८४९, सन १९२८.
मूल्यं १॥ सार्थ रूप्यकम्।
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PREFACE.
It was in tlie course of my study of Jatakaparijata five years ago that I became aware of the existence of the standard work on Astrology called Saravali. Vaidyanatha Dikshita, the learned compiler of Jatakaparijata expressly states that his astrological production is but an epitome of this great work. For he says:--ŠTE FITIZIE मुख्यतन करोम्यहं जातकपारिजातम् ॥
In my attempts to make out the ambiguous portion of certain slokas in Jatakaparijata, I had to refer to Brihat Jataka and its commentary by Bhattotpala to decide upon the right interpretation of the dubious passages. I found that Bhattotpala who lived in the time of Emperor Jehangir supported his explanations of the passages in Varahamihira's work by largely quoting from Saravali, because its authority on astrological points was undisputedly acknowledged in his time. Balabhadra who lived as a Court astrologer of Shah Shuja has embodied nearly one half of Saravali in his work entitled Horaratna; for almost in every page, he says:--a91 T FETAI (the author of Saravali). Mallinatha, the celebrated commentator mentions Kalyanavarman and Varahamihira giving quotations from their works Saravali and Brihat Jataka to explain certain astrological references in the Sisupalavadha Kavya of Magha. These facts made me long for a copy of the eminent work in order to improve my knowledge of Astrology. I wrote to several well-known booksellers, but could not get any copy of the work-Manuscript cr printed-from them. At last, it was my good fortune to get a loan of imperfect manuscripts of this work from the Government Oriental Library, Mysore, from Mr. Pandit Krishniengar of the Native College, Madura, from Mr. Narasimha Sastrial of Kankanhalli (Bangalore District) and from the Palace Library of His Highness the Maharaja of Mysore. And I take this opportunity of expressing my deep indebtedness to them all. From these four manuscripts I was able to piece out nearly the whole work. For in the colophon of the Kankanhalli manuscript, the last chapter is numbered
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IL
PREFACE.
the 56th. So the work must be in 56 chapters But I could collect from these manuscripts only 54 chapters. The missing two chapters should be sought in some manuscripts yet to be found. From my perusal of the work, I am able to say that they should relate to Nashta Jataka.
The author Kalyanavarman appears to have flourished between the ages of Varahamihira and Bhattotpala. The style of the work is chaste and flowing. The information is certainly more copious and valuable than can be found in any of the current astrological works.
To such of us as believe in the doctrine os metempsy. chosis, astrology is irresistibly attractive. For, by its aid, we can trace our condition in our past births. It reveals to us the forces that help or retard our progress hereafter and enables us to estimate with some precision the amount of exertion to be put forth to attain the summumbonum of life.
Being but a learner in astrology, I am unable to treat of the subject adequately. If the stray remarks that I have made will create an interest in the work now presented to the public and make it widely read, I would feel amply rewarded for my trouble. Chamarajendrapete, Bangalore City.
V. Subrahmanya Sastri. 15th February 1707.
PREFACE TO THE THIRD EDITION.
The publication of the Brihat Jataka with my translation and Notes, the printing of which is now practically complete and which will shortly be issued has been of great help to me in revising this work and making the present edition more complete. Gavipur Extension,
Basavangudi. Bangalore City.
V. Subrahmanya Sastri, 1st January 1928.
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सारावलीविषयानुक्रमः ।
श्लोकः
२ ५
४१ ३९
...
५२
१५
११७
३५
१.
१५
अध्यायः
विषयः __ शास्त्रावतारः
होराशब्दार्थचिन्ता होराराशिभेदः ... ग्रहयोनिभेदः ... मिश्रकाध्यायः ... कारकाध्यायः कारकाध्यायः आधानाध्यायः
सूतिकाध्यायः ... १० अरिष्टाध्यायः
चन्द्रारिष्टभडाध्यायः १२ अरिष्टभङ्गाध्यायः
चन्द्रविधि (सुनफा, अनफा, दुरुधुरायोगाः १४ वेशिवाश्युभयचरीयोगाः
द्विग्रहयोगाः ... ...
त्रिग्रहयोगाः ... १७ चतुर्ग्रहयोगाः ...
पञ्चग्रहयोगाः षट्ग्रहयोगाः ... प्रव्रज्याध्यायः ...
नाभसयोगाः ... २२ आदित्यचारदृष्टियोगः
चन्द्रचारदृष्टियोगः २४ अंशकदर्शने चन्द्रचारः
अङ्गारकचारः ... बुधचारः ... ... गुरुचारः ... ...
शुक्रचारः... ... २९ सौरचारः ... ...
भावाध्यायः ... धन्तरयोगाध्यायः
mor७०
१८
२१
mr m
.. १००
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श्लोकः ११२
पृष्ठं. ११३ . १२१ ... १२८
...
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W
-
.. १५४
२
*
३७
.. १६१
* v
-
.. १६५
9
9
अध्यायः
विषयः ३२ भाग्यचिन्ता ... कर्मचिन्ता
... ... लोकयात्रा... ...। राजयोगाध्यायः ... रश्मिचिन्ता ... पञ्चमहापुरुषयोगाः राजयोगभङ्गाध्यायः
आयुर्दायाध्यायः ... ४० मूलदशाफलम् ... ४१ अन्तर्दशाफलम् ... ४२ दशारिष्टफलम् ...
दशारिष्ट भङ्गाध्यायः ४४ उच्चादिचिन्तनम् ...
स्त्रीजातकफलम् ... निर्याणफलम् नष्टजातके लग्नगुणाः ...
होरागुणाः ...
द्रेष्काणगुणाः ... , नववर्गगुणचिन्ता नष्टजातकाध्यायः अष्टकवर्गाध्यायः ... ...
वियोनिजन्माध्यायः ... ५४ उपसंहाराध्यायः...
.. १७६
5
४५
v
.. १८३ .. १८७ ... १९०
-
v
v
११०
-
.. २०४
८ कर
२०७
५५
... २१२
२५२९
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श्रीः। श्रीगणेशाय नमः सारावली श्रीमत्कल्याणवर्मसूरिविरचिता ।
प्रथमोऽध्यायः । यस्योदये जगदिदं प्रतिबोधमेति
मध्यस्थिते प्रसरति प्रकृतिक्रियासु । अस्तं गते स्वपिति चोच्छुसितैकात
भावत्रये स जयति प्रकटप्रभावः ॥१॥ विस्तरकृतानि मुनिभिः परिहत्य पुरातनानि शास्त्राणि । होरातत्रं रचितं वराहमिहिरेण संक्षेपात् ॥ २॥ राशिदशवर्गभूपतियोगायुर्दायतो दॆशादीनाम् । विषयविभागं स्पष्टं कर्तुं न तु शक्यते यतस्तेन ॥३॥ अत एव विस्तरेभ्यो यवननरेन्द्रादिरचितशास्त्रेभ्यः । सकलमसारं त्यक्त्वा तेभ्यः सारं समुद्भियते ॥४॥ देवग्रामपुरप्रपोषणबलाद्ब्रह्माण्डसत्पञ्जरे
कीर्तिहर्सविलासिनीव सहसा यस्येह भात्यातता। श्रीमद्व्याघ्रपदीश्वरो रचयति स्पष्टां स सारावली
होराशास्त्रविनिर्मलीकृतमनाः कल्याणवर्मा कृती ॥५॥ होरातृष्णार्तानां शिष्याणां स्फुटतरार्थशिशिरजला । कल्याणवर्मशैलानदीव सारावली प्रसृता ॥ ६ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां शास्त्रावतारो
नाम प्रथमोऽध्यायः ॥
१ मात्रं. २ भानुः स एष जयति. ३ परिगृख. ४ गोचरदशानाम्. ५ वक्ष्ये सारं समुद्धृत्य. ६ सिंहविलासिनीव. ७ भक्त्वा .
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सारावली।
द्वितीयोऽध्यायः। विधात्रा लिखिता यासौ ललाटेऽक्षरमालिका । दैवज्ञस्तां पठेव्यक्तं होरानिमलचक्षुषा ॥१॥ आद्यन्तवर्णलोपाद्धोराशास्त्रं भवत्यहोरात्रम् । तत्प्रतिबद्धश्वायं ग्रहभगणश्चिन्त्यते यस्मात् ॥ २॥ कर्मफललाभहेतुं चतुराः संवर्णयन्त्यन्ये । होरेति शास्त्रसंज्ञा लग्नस्य तथाधराशेश्च ॥ ३ ॥ जातकमिति प्रसिद्धं यल्लोके तदिह कीर्त्यते होरा । अथवा दैवविमर्शनपर्यायः खल्वयं शब्दः ॥ ४ ॥ अर्थार्जने सहायः पुरुषाणामापदणवे पोतः । यात्रासमये मत्री जातकमपहाय नास्त्यपरः ॥ ५ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारा वल्यां होराशब्दार्थ
. चिन्ता नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥
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तृतीयोऽध्यायः । तमसावृते समन्ताजलभूते भूतले ततोऽकस्मात् । उदितो भगवान् भानुः प्रकाशयन् स्वप्रकाशेन ॥१॥ व्यसृजज्जगत्समस्तं ग्रहक्षसंघातकल्पितावंगतम् ।... द्वादशभेदैश्चित्रः कालः संप्रस्तुतस्तस्मात् ॥२॥ मेषवृषमिथुनकर्कटसिंहाः कन्या तुलार्थं वृश्चिककः । धन्वी मकरः कुम्भो मीनस्त्विति राशिनामानि ॥३॥ कुम्भः कुम्भधरो नरोऽथ मिथुनं वीणागदाभृन्नरो . - मीनौ मीनयुगं धनुश्च सधनुः पश्चाच्छरीरो हयः । एणास्यो मकरः प्रदीपसहिता कन्या च नौसंस्थिता
शेषो राशिगणः स्वनामसदृशो धत्ते तुलाभृत्तुलाम् ॥ ४ ॥ शीर्षास्यबाहुहृदयं जठरं कटिबस्तिमेहनोरुयुगम् । जानू जथे चरणौ कालस्याङ्गानि राशयोज्जाद्याः॥५॥ १ त्यहोरात्रात्. २ वयवम्. ३ ग्रहभवनाद्यैः; ग्रहदशभेदैः. ४ तुलाऽलयश्चैव. ५ जानुक.
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तृतीयोऽध्यायः । कालनरस्यावयवान्पुरुषाणां कल्पयेत्प्रसवकाले । सदसगृहसंयोगात्पुष्टान्सोपद्रवांश्चापि ॥६॥ मेषादीनां क्रियतावुरुजुतुमकुलीरलेयपाथोनाः ।। संज्ञास्तु जूककौर्पिकतौक्षाकोकेरहृदयरोगान्त्याः ॥७॥
ऋक्षं भवननामानि राशिः क्षेत्रं भमेव वा । . .
उक्तानि पूर्वमुनिभिस्तुल्यार्थप्रतिपत्तये ॥ ८॥ द्वादशमण्डलभगणं तस्यार्धे सिंहतो रविर्नाथः । कर्कटकाप्रतिलोमं शशी तथान्येऽपि तत्स्थानात् ॥ ९॥ भानोरर्धे विहगैः शूरास्तेजखिनश्च साहसिकाः। शशिनो मृदवः सौम्याः सौभाग्ययुताः प्रजायन्ते ॥ १० ॥ कुजभृगुबुधेन्दुरविशशिसुतसितरुधिरार्यमन्दशनिजीवाः । गृहपा नवभागानामजमृगटकर्कटाद्याश्च ॥ ११ ॥ भवनाधिपैः समस्तं जातकविहितं विचिन्तयेन्मतिमान् । एभिर्विना न शक्यं पदमपि गन्तुं महाशास्त्रे ॥ १२ ॥ वर्गोत्तमा नवांशास्तथादिमध्यान्तगाश्चरायेषु । सूतौ कुलमुख्यकरा द्वादश भागाः स्वराश्याद्याः ॥१३॥ खर्भसुतनवमभेशा रोक्काणानां क्रमाच होराणाम् । रविचन्द्राविन्दुरवी विषमसमेष्वर्धराशीनाम् ॥ १४ ॥ शरपञ्चाष्टमुनीन्द्रियभागास्त्रिंशांशकास्तु विषमेषु । युग्मेषूकमगण्याः कुजार्किजीवज्ञशुक्राणाम् ॥ १५ ॥ मेषालिमिथुनमृगहरिमीनतुलावृषभचापधरकी । घटधरकन्यापूर्वाः सप्तांशानां भवन्तीशाः ॥ १६ ॥ पष्टिोंरात्रिंशचूडपदानां द्विसप्ततिसमेता ।। लिप्तानामष्टादशशतानि परिवर्तनैः स्वगृहात् ॥ १७॥ लग्नादीनां लिप्ता ज्ञेयाः स्वगृहादिवर्गसंगुणिताः । अष्टादशशतभक्ताल्लब्धः स्यादीप्सितो वर्गः ॥१८॥ एतेषां गुणदोषान् विस्तरतो नष्टजातके वक्ष्ये । एभिः स्पष्टतरं तत्प्रत्यक्षपरीक्षणं यस्मात् ॥ १९ ॥ १ पाथेयाः. २ भगणः. ३ तुलकर्कटाश्चाद्याः.
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- सारावली।
अजादितः क्रूरशुभौ पुमांस्त्री चरः स्थिरो मिश्रतनुश्च दृष्टाः । कुलीरमीनालिगृहान्तसन्धिं वदन्ति गण्डान्तमिति प्रसिद्धम् २० जातो न जीवति नरो मातुरपथ्यो भवेत्स्वकुलहन्ता । यदि जीवति गण्डान्ते बहुगजतुरगो भवेद्भूपः ॥ २१ ॥ ऐन्द्राद्यं परिवर्तस्त्रितयं त्रितयं त्रिभिस्तु मेषाद्यैः । एभिर्दिक्षु निबद्धैर्यात्रादि विकल्पयेत्कार्ये ॥ २२ ॥ नरपशुवृश्विकजलजा यथाक्रमं प्राग्दिगादिगा बलिनः । निशि दिवसे सन्ध्यायां पशवः पुरुषो मृगालिकर्किझषाः॥२३॥
नक्तंबला मिथुनकर्किमृगाजगोश्वा __ युःश्रेष्ठका हरितुलालिघटान्त्यकन्याः । पृष्ठोदयाः समिथुना मिथुनं विहाय
शेषाः शिरोभिरुदयन्त्युभयेन मीनः ॥ २४ ॥ आत्मीयनाथदृष्टः सहितस्तेनैव तत्प्रयैर्वापि । शशिसुतजीवाभ्यामपि राशिर्बलवानचेच्छेषैः ॥ २५ ॥ तन्वर्थसहजबान्धवपुत्रारिस्त्रीविनाशपुण्यानि । कर्मायव्ययभावा लग्नाद्या भावतश्चिन्त्याः ॥ २६ ॥ शक्तिधनपौरुषगृहप्रतिभावणकामदेहविवराणि । गुरुमानभवव्ययमिति कथितान्यपराणि नामानि ॥ २७ ॥ संज्ञा वेश्माष्टमयोश्चतुरस्रं वै तपश्च नवमस्य । होरास्तदशजलानां चतुष्टयं कण्टकं केन्द्रम् ॥ २८॥ नामानि चतुर्थस्य तु सुखजलपातालबन्धुहिबुकानि । कर्माज्ञामेषूरणगगनाख्यं कीर्त्यते दशमम् ॥ २९ ॥ धर्मसुतयोस्त्रिकोणं सुतस्य धीस्त्रित्रिकोणमिति तपसः । द्यूनं जायास्तमयं जामित्रं सप्तमस्याख्याः ॥ ३० ॥ षट्कोणं रिपुभवनं तृतीयमथ कीर्तयन्ति दुश्चिक्यम् । रिफं द्वादशभवनं द्वितीयसंज्ञं कुटुम्बं च ॥ ३१ ॥
१ कार्यम्. २ कल्पखविक्रम. ३ मथ. ४ कुटुम्बसंज्ञं द्वितीयमथ परतः.
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चतुर्थोऽध्यायः ।
केन्द्रात्परं पणफरमापोक्किमसंज्ञितं तयोः परतः । बालयुवस्थविरत्वे क्रमेण फलदा ग्रहास्तेषु ॥ ३२ ॥ षदशभवदुश्चिक्यान्युपचयसंज्ञानि कीर्त्यते । खतनुसुखसुतास्ततपश्छिद्रव्ययसंज्ञितानि
चान्यानि ॥ ३३ ॥
सिंहवृषमेषकन्या कार्मुकभृत्तौलिकुम्भधराः । सूर्यादीनामेते त्रिकोणभवनानि कथ्यन्ते ॥ ३४ ॥ सूर्यादीनामुञ्चाः क्रियवृषमृगयुवतिकर्किमीनतुलाः । वोच्चगृहकथितभागा यथाक्रमेणैव परमोच्चाः ॥ ३५ ॥ दिग्वह्नयष्टाविंशतितिथिबाणत्रिघनविंशतयः । स्वोच्चात्सप्तमराशिनींचः स्यादंशकात्परमम् ॥ ३६ ॥ ह्रस्वास्तिमिगोजघटा मिथुनधनुः कर्किमृगमुखाश्च समाः । वृश्चिककन्यामृगपतिवणिजो दीर्घाः समाख्याताः ॥ ३७ ॥ एभिर्लग्नाधिगतैः शीर्षप्रभृतीनि वै शरीराणि । सदृशानि विजायन्ते युतगगनचरैश्च तुल्यानि ॥ ३८ ॥ भवनाधिपदिङ्नाम लव इति यवनैः प्रयत्नतः कथितः । तलवगो विनिहन्यादचिरेण महीपतिः शत्रून् ॥ ३९ ॥ लोहितसितशुकहरिताः पाटलपरिधूम्रपाण्डुचित्राश्च । कृष्णकनकाभपिङ्गाः कर्बुरबभ्रुत्वजादिवर्णाः स्युः ॥ ४० ॥ जन्मोदयगृहवर्णा तदधिपतेः पूजिता प्रतिमा । हन्ति हरेरिह शत्रूनिन्द्रध्वजिनीव देवरिपून् ॥ ४१ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां होराराशिभेदो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥
चतुर्थोऽध्यायः ।
आत्मा रविः शीतकरस्तु चेतः सत्वं धराजः शशिजोऽथ वाणी । ज्ञानं सुखं शुक्रगुरू मदश्च राहुः शनिः कालनरस्य दुःखम् ॥१॥ आत्मादयो गगन गैर्बलिभिर्बलवत्तराः ।
दुर्बलैर्दुर्बलास्ते तु विपरीतं शनेः फैलम् ॥ २॥
१ भवनानि.
२ देवगुर्मदश्च शुक्रः. ३ स्मृतम्.
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.सारावली।
यथायथा लग्नगृहाश्रयाणां समुद्गमो भूरिविकल्पनानाम् । तथातथा शैलनवाष्टसंख्याः क्रमेण कालावयवाः प्रसूताः॥३॥
लग्नात्तक्षणमुदितं वामाङ्गगमथाबलम् । . सव्यार्धादितरेत्तस्य नोद्गतं संबलं च तत् ॥ ४ ॥ मूर्धालोचनकर्णगन्धवहनं गण्डौ हनुश्चाननं
ग्रीवास्कन्धभुजं तु पाचहृदयक्रोडाश्च नाभिः पुनः। बस्तिर्लिङ्गगुदे च मुष्कयुगलं चोरुद्वयं जानुनी __ जर्छ पादयुगं विलग्नभवनात्पार्श्वद्वये कल्पिताः ॥ ५॥ पापा व्रणं लाञ्छनमेषु सौम्याः स्वांशे स्वराशावथवा स्थितेषु । कुर्वन्ति जन्मोत्थितमेषु चिह्नमेषु ग्रहास्तद्विपरीतसंस्थाः ॥६॥ राजा रविः शशधरस्तुं बुधः कुमारः
सेनापतिः क्षितिसुतः सचिवौ सितेज्यौ । भृत्यस्तयोश्च रविजः सबला नराणां
कुर्वन्ति जन्मसमये निजमेव सत्वम् ॥ ७॥ भानुः शुक्रः क्षमापुत्रः सैंहिकेयः शनिः शशी। सौम्यस्त्रिदशमत्री च प्राच्यादिदिगधीश्वराः ॥८॥ गुरुबुधशुक्राः सौम्याः सौरिकुजार्कास्तु निगदिताः पापाः । शशिजोऽशुभसंयुक्तः क्षीणश्च निशाकरः पापः ॥ ९॥ हेलिर्भानुः शशी चन्द्रः राक्षः क्षितिनन्दनः । आरो रक्तस्तथा वक्रो हेनो विद् ज्ञोऽथ बोधनः ॥ १० ॥ ईड्येज्यावङ्गिरा जीवो ह्यास्फुजिच्च सितो भृगुः ।
मन्दः कोणो यमः कृष्णो विद्यादन्यानि लोकतः ॥ ११॥ ताम्रसितारुणहरितकपीतविचित्रासिता इनादीनाम् । पावकजलगुहकेशवशक्रशचीवेधसः पतयः ॥१२॥ अर्कादिग्रहदैवतमन्त्रैः संपूज्य तामाशाम् । कनकगजवाहनादीन्प्राप्नोति गतोऽरितः शीघ्रम् ॥ १३ ॥
१ ममङ्गम. २ रतस्य. ३ सकलं. ४ गण्ड. ५ मेव. ६ मेष्य. ७ रश्च. ८ रूपम्. ९.निसर्गतः. १० क्रूरदृक्.
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चतुर्थोऽध्यायः। स्त्रीणां चन्द्रसितौ नपुंसकपती सोमात्मजार्कात्मजौ __पुंसां जीवदिवाकरक्षितिसुता विप्रस्य शक्रोऽङ्गिराः। राज्ञां सूर्यकुजौ विशां शशधरो मिश्रस्य मन्दो बुधः ... शूद्राणां शिखिभूखतोयमरुतां भौमादयः कीर्तिताः ॥१४॥ कटुलवणतिक्तमिश्रितमधुराम्लकषायरसविशेषाणाम् । सुरतोयाग्निविहारार्थशयनपांसूत्कराणां च ॥ १५ ॥ वस्त्राणां स्थूलाहतशिखिजलहतमध्यदृढसुजीर्णानाम् । ताम्रमणिहेममिश्रितरूप्यकमुक्तायसां वाऽपि ॥ १६ ॥ अयनक्षणदिवसर्तुकमासतदर्धशरदां दिनेशाद्याः । शिशिरादीनामीशाः शनिसितभौमेन्दुबुधजीवाः॥१७॥ लग्नाधिपतेस्तुल्यः कालो लग्नोदितांशकसमाख्यः । वक्तव्यो रिपुविजयो गर्भेषु च कार्यसंयोगे ॥ १८ ॥
ऋग्वेदाधिपतिर्जीवो यजुर्वेदपतिः सितः। सामवेदाधिपो वक्रः शशिजोऽथर्ववेदराट् ॥ १९ ॥ सुरपूज्यः शशिशुक्रौ दिनकरभौमौ बुधार्कजौ नाथाः । विबुधमनुष्यपितॄणां तिर्यङ्नरकाधिवासानाम् ॥ २० ॥ स्वल्पाकुञ्चितमूर्धजः पटुमतिर्मुख्यस्वरूपस्वनो
नात्युच्चो मधुपिङ्गचारुनयनः शूरः प्रचण्डः स्थिरः । रक्तश्यामतनुर्निगूढचरणः पित्तास्थिसारो महान्
गम्भीरश्चतुरस्रकः पृथुकरः कौसुम्भवासा रविः ॥ २१ ॥ सौम्यः कान्तविलोचनो मधुरवाग्गौरः कृशाङ्गो युवा
प्रांशुः सूक्ष्मनिकुञ्चितासितकचः प्राज्ञो मृदुः सात्विकः । चारुर्वातकफात्मकः प्रियसखो रक्तैकसारो घृणी
वृद्धस्त्रीषु रतश्चलोऽतिसुभगः शुभ्राम्बरश्चन्द्रमाः ॥ २२ ॥ हखः पिङ्गललोचनो दृढवपुर्दीप्ताग्निकान्तिश्चलो
मजावानरुणाम्बरः पटुतरः शूरश्च निष्पन्नवाक् ।
१ सुरग्रहकाग्नि. २ चन्द्रसुतः.
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सारावली ।
स्वाकुञ्चितदीप्तकेश तरुणः पित्तात्मकस्तामसचण्डः साहसिको पिघातकुशलः संरक्तगौरः कुजः ॥ २३ ॥ रक्तान्तायतलोचनो मधुरवाग्दूर्वादलश्यामल
स्त्वक्सारोऽतिरजोधिकः स्फुटवचाः स्फीतस्त्रिदोषात्मकः । हृष्टो मध्यमरूपवान्सुनिपुणो वृत्तः शिराभिस्ततः
सर्वस्यानुकरोति वेषवचनैः पालाशवासा बुधः ॥ २४ ॥ ईषत्पिङ्गललोचनश्रुतिधरः सिंहाच्छनादः स्थिरः
सत्वाढ्यः सुविशुद्धकाञ्चनवपुः पीनोन्नतोरस्थलः । खो धर्मरतो विनीतनिपुणो बद्धोत्कटाक्षः क्षमी स्यात्पीताम्बरधृक्कफात्मकतनुर्भेदः प्रधानो गुरुः ॥ २५ ॥ चारुर्दीर्घभुजः पृथूरुवदनः शुक्राधिकः कान्तिमान् ।
कृष्णाकुञ्चितसूक्ष्मलैम्बिचिकुरो दूर्वादलश्यामलः । कामी वातकफात्मकोऽतिसुभगश्चित्राम्बरो राजसो
लीलावान्मतिमान्विशालनयनः स्थूलांसदेशः सितः ॥ २६ ॥ पिङ्गो निम्नविलोचनः कृशतनुर्दीर्घः सिरालोऽलसः
कृष्णाङ्गः पवनात्मकोऽतिपिशुनः स्त्रावाततो निर्घृणः । मूर्खः स्थूलनखद्विजोऽतिमलिनो रूक्षोऽशुचिस्तामसो
रौद्रः क्रोधपरो जरापरिणतः कृष्णाम्बरो भास्करिः ॥ २७ ॥ मित्राणि सूर्याद्गुरुभौमचन्द्राः सूर्येन्दुपुत्रौ रविचन्द्रजीवाः । भानुः सशुक्रः शशिसूर्यभौमा मन्देन्दुजौ शुक्रबुधौ क्रमेण २८ शुक्रार्कजौ चन्द्रमसो न कश्चित्सौम्यः शशी शुक्रबुधौ रवीन्दू । सोमार्कवक्रा रवितस्त्वमित्रा मित्रारिशेषो न सुहृन्न शत्रुः ॥ २९ ॥
व्ययाम्बुधनखायेषु तृतीये सुहृदः स्थिताः । तत्कालरिपवः षष्ठसप्ताष्टकत्रिकोणगाः ॥ ३० ॥ हितसमरिपुसंज्ञा ये निसर्गान्निरुक्ता हिततमहितमध्यास्तेऽपि तत्कालमित्रैः ।
१ हिंस्रः. ६ लामदेहः.
२ भृत्क. ३ लम्बितकचो. ४ दूर्वाङ्कुरश्यामलः. ५ धिको.
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चतुर्थोध्यायः। रिपुसमसुहृदाख्याः सूतिकाले ग्रहेन्द्रा ___ अधिरिपुरिपुमध्याः शत्रुभिश्चिन्तनीयाः॥ ३१ ॥ संपश्यन्ति स्थानात्सदा ग्रहाश्वरणवृद्धितः सर्वे । . . त्रिदशत्रिकोणचतुरस्रसप्तमानां फलं क्रमेणैव ॥ ३२ ॥ पूर्णं पश्यति रविजस्तृतीयदशमं त्रिकोणमपि जीवः । चतुरस्र भूमिसुतो छूनं च सितार्कशशिबुधाः क्रमशः ॥ ३३॥ दिक्स्थानकालचेष्टाकृतं बलं सर्वनिर्णयविधाने । वक्ष्ये चतुःप्रकारं ग्रहस्तु रिक्तो भवेदबलः ॥ ३४ ॥ लग्ने जीवबुधौ दिवाकरकुजौ व्योनि स्मरे भास्करि
बन्धाविन्दुसितौ दिशाकृतमिदं खोचे स्खकोणे स्वभे । मित्रस्वांशकसंस्थितः शुभफलदृष्टो बलीयान्ग्रहः . स्त्रीक्षेत्रे शशिभार्गवौ नरगृहे शेषा बले स्थानजे ॥ ३५॥ जीवाप्स्फुजितोऽह्नि विच्च सततं मन्देन्दुभौमा निशि ___ होरामासदिनाब्दपाश्च बलिनः सौम्याः सितेऽन्येऽसिते । सङ्ग्रामे जयिनो विलोमगतयः संपूर्णगावो ग्रहाः
सूर्येन्दू पुनरुत्तरेण बलिनौ सत्योक्तचेष्टाबले ॥ ३६॥ उत्तरमयनं प्राप्ताः शुक्रकुजार्केन्द्रमत्रिणो बलिनः । याम्यं शशिरविपुत्रौ द्वयेऽपि शशिजः स्ववर्गस्थः ॥ ३७॥ स्त्रीपुंनपुंसकाख्याः क्षेत्रेष्वाद्यन्तमध्यसंप्राप्ताः।
सूर्यान्निर्गत्य सदा नवोदिता यवनराजमतम् ॥ ३८॥ प्राग्रात्रिभागेऽतिबलः शशाङ्कः शुक्रो निशार्धेऽवनिजो निशान्ते । प्रातर्बुधो मध्यदिने च सूर्यः सर्वत्र जीवोऽर्कसुतो दिनान्ते ॥३९॥
कृष्णारबुधगुरुसिताः शशिसूर्यावुत्तरोत्तरं बलिनः । साधारणबलमेतद्वलसाम्ये चिन्तयेत्प्राज्ञः ॥४०॥ .. इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां ग्रहयोनिभेदो
नाम चतुर्थोऽध्यायः।
१ सव्यं संपश्यन्ति. २ पुंस्त्री. ३ स्वाभाविक.
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सारावली।
पञ्चमोऽध्यायः। राशिप्रभेदसंज्ञः कथितो ग्रहयोनिभित्तिरध्यायः । सर्वव्यापकमधुना कथयिष्ये मिश्रकं नाम ॥१॥ दीप्तः स्वस्थो मुदितः शान्तः शक्तो निपीडितो भीतः। . विकलः खलश्च कथितो नवप्रकारो ग्रहो हरिणा ॥२॥ खोच्चे भवति च दीप्तः स्वस्थः स्वगृहे सुहृद्गृहे मुदितः। . शान्तः शुभवर्गस्थः शक्तः स्फुटकिरणजालश्च ॥३॥ विकलो रविलुप्तकरो ग्रहाभिभूतो निपीडितश्चैवम् । पापगणस्थश्व खलो नीचे भीतः समाख्यातः ॥४॥ दीप्ते विचरति पुरुषः प्रतापविषमाग्निदग्धरिपुर्वर्गः । लक्ष्म्यालिङ्गितदेहो गजमदसंसिक्तभूपृष्ठः ॥ ५॥ खस्थः करोति जन्मनि रत्नानि सुखानि कनकपरिवारान् । नृपतेर्दण्डपतित्वं गृहधान्यकुटुम्बपरिवृद्धिम् ॥६॥ मुदिते विलसति मुदितो विलासिनीकनकरत्नपरिपूर्णः । विजितसकलारिपक्षः समस्तसुखभाङ् नरो भवति ॥ ७॥ शान्ते प्रशान्तचित्तः सुखधनभागी महीपतेः सचिवः । विद्वान्परोपकारी धर्मपरो जायते पुरुषः ॥ ८॥ स्त्रीवस्त्रमाल्यगन्धैर्विलसति पुरुषः सदा विततकीर्तिः । दयितः सर्वजनस्य च शक्ताख्ये भवति विख्यातः ॥९॥ दुःखैर्व्याधिभिररिभिः प्रपीड्यते पीडिताख्ये तु । देशाद्देशं विचरति बन्धुवियोगाभिसंतप्तः ॥ १० ॥ बहुसाधनोऽपि राजा प्रध्वस्तबलः प्रपीडितो रिपुणा । नाशमुपयाति विजितो भीते दैन्यं परं प्राप्तः ॥ ११ ॥ स्वस्थानपरिभ्रष्टः क्लिष्टो मलिनः प्रयाति परदेशम् । विध्वस्तबलो विकले रिपुबलसंचकितचित्तश्च ॥ १२ ॥
१तिपीडितो. २ तः प्रपीडितः. ३ निचयः. ४ जनः ख्यातः. ५ सुभगः. ६ पीडिते सदा पुरुषः, ७ धनो.
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पञ्चमोऽध्यायः ।
११ स्त्रीभरणदुःखतप्तः समस्तधननाशकलुषितमनस्कः। . . न जहाति शोकभारं कथमपि खलसंज्ञिते पुरुषः ॥१३ ॥
उच्चराशौ विलोमे च बलं नान्यैरिहेष्यते । कालस्यातिबहुत्वाच्च तस्मात्स्वोच्चेऽतिवक्रिते ॥ १४ ॥ स्मोच्चाश्रिताः श्रेष्ठबला भवन्ति मूलत्रिकोणे स्वगृहे च मध्याः । इष्टक्षिता मित्रगृहाश्रिता वा वीर्य कनीयः समुपोद्वहन्ति ॥ १५ ॥
शुक्लप्रतिपद्देशक मध्यबलः कीर्त्यते यवनवृद्धैः । श्रेष्ठो द्वितीयदशके स्वल्पबलश्चन्द्रमास्तृतीये च ॥ १६॥ आहितकलासमूहः प्रसन्ननिजमण्डलः सुपरिपूर्णः। अप्रतिहतमिह कुरुते भूपतिबलमुडुगणाधिपतिः ॥ १७ ॥ चन्द्राध्यासितराशेर्नाथो लग्नाधिपोऽपि वा यस्य । केन्द्रे सुरगुरुमत्री वयसो मध्ये सुखं तस्य ॥ १८॥ राशेस्तदीश्वरस्य च बलेन परिकल्प्यमृक्षभेदफलम् । युगपत्फलोपलब्धेरवधृतिरेकस्य कर्तव्या ॥ १९॥ होराग्रहबलसाम्ये निसर्गजं चिन्तनीयमाचार्यैः । लग्नाधिपतेस्तुल्यं बलमिह चूडामणिर्वदति ॥ २० ॥ उच्चबलं कन्यायां बुधस्य तुङ्गांशकैः सदा चिन्त्यम् । परतस्त्रिकोणजातं पञ्चभिरंशैः स्वराशिजं परतः ॥ २१ ॥ उच्चं भागत्रितयं वृष इन्दोश्च त्रिकोणमपरेंऽशाः। द्वादशभागा मेषे त्रिकोणमपरे स्वभं तु भौमस्य ॥ २२ ॥ दशभागा ईज्यस्य च त्रिकोणमपरे स्वभं चापे । शुक्रस्य तु त्रिकोणं पञ्चभिरपरे स्वभं जूके ॥२३॥ विंशतिरंशाः सिंहे त्रिकोणमपरे स्वभवनमर्कस्य । कुम्भे त्रिकोणनिजभे रविजस्य यथा रवेः सिंहे ॥ २४ ॥ खोचस्थितः शुभफलं प्रकरोति पूर्ण
नीचर्लगस्तु विफलं रिपुमन्दिरेऽल्पम् । १ हरण. २ फलं. ३ हरिष्यते. ४ थवा. ५.सुरमन्त्री वा. ६. पेन तु.:.
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सारावली |
पादं शुभस्य हितभे स्वगृहे तदर्ध पादत्रयं गगनगः स्थितवांत्रिकोणे ॥ २५ ॥ नीचर्क्षगः सकलमेव करोति पापं न्यूनं च किंचिदरिभे विफलं स्वतु । पादत्रयं हितगृहे विहगोऽशुभस्य
स्वर्क्षे दलं च चरणं स्थितवांत्रिकोणे ॥ २६ ॥ औत्पातिकाः सवितृलुप्तकरा विरूक्षा
नीचं गता रिपुगृहं च नभश्चरेन्द्राः । युद्धे जिताः शुभफलानि विनाशयन्ति
पापानि यानि सुतरां परिवर्धयन्ति ॥ २७ ॥ उच्चबलेन समेतः परां विभूतिं ग्रहः प्रसाधयति । पुंसामथ साचिव्यं त्रिकोणबलवान् बलपतित्वम् ॥ २८ ॥ स्वर्क्षे बलेन सहितः प्रमुदितधनधान्यसंपदाक्रान्तम् । मित्रंबलेन च युक्तो जनयति कीर्त्यान्वितं पुरुषम् ॥ २९ ॥ तेजस्विनमतिसुभगं सुस्थिरविभवं नृपाच लब्धधनम् । निजहोराबलयुक्तो जनयति विक्रान्तमिति चिन्त्यम् ॥ ३० ॥ स्वद्रेक्काण बलेनाहीनो गुणभाजनं ग्रहः कुरुते । स्वनवांशकबलयुक्तः करोति पुरुषं प्रसिद्धं च ॥ ३१ ॥ सप्तांशकबलसहितः साहसिकं वित्तकीर्त्याढ्यम् । द्विरसांशबलसमेतः कर्मरतपरोपकारकं चैव ॥ ३२ ॥ त्रिंशांशबलेन तथा विकसत्सौख्यं गुणान्वितं कुर्यात् । शुभदर्शनफैलसहितः पुरुषं कुर्याद्धनान्वितं ख्यातम् । सुभगं प्रधानमखिलं सुरूपदेहं सुसौख्यं च ॥ ३३ ॥ पुंखीभवनबलेन च करोति जनपूजितं कलाकुशलम् । पुरुषं प्रसन्नचित्तं कल्यं परलोकभीरुं च ॥ ३४ ॥ स्थानबलेन समेतः स्थितिसौख्यसुहृच्च भागाढ्यः । धीरो निश्चलचित्तः स्वतत्रकर्मा भवेन्मनुजः ॥ ३५ ॥ १ मित्रमबलसंयुको. २ सुखिनं. ३ बल. ४ ममलं.
१२
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पञ्चमोऽध्यायः ।
आशावलसमुपेतो नयति खदिशं नभश्चरः पुरुषम् । नीत्वा वस्त्रविभूषणवाहनसौख्यान्वितं कुरुते ॥ ३६ ॥ ( आयनवलसमुपेतो दद्याद्विविधार्थसङ्गमं स्वदिशि ) ॥ ३७ ॥ क्वचिद्राज्यं कजित्पूजां क्वचिद्रव्यं क्वचिद्यशः । ददाति विगश्चित्रं चेष्टावीर्यसमन्वितः ॥ ३८ ॥ वक्रिणस्तु महावीर्याः शुभा राज्यप्रदा ग्रहाः । पापा व्यसनिनां पुंसां कुर्वन्ति च वृथाटनम् ॥ ३९ ॥ स्वस्थशरीरसमागमसुकरोद्भवजयबलेन विदधाति । शुभमखिलं विहगेन्द्रो राज्यं च विनिर्जितारातिम् ॥ ४० ॥ रात्रिदिवा बलपूर्णैर्भूगजलाभेन शौर्य परिवृद्ध्या ।
मलिनयति शत्रुपक्षं भजति च लक्ष्मीं नभश्चरैः पुरुषः ॥ ४१ ॥ द्विगुणा द्विगुणं दद्युर्वर्षाधिपमासदिवसहोरेशाः । क्रमपरिवृद्ध्या सौख्यं स्वदशासु धनं च कीर्ति च ॥ ४२ ॥ पक्षबलाद्रिपुनाशं रत्नाम्बरहस्तिसंपदं दद्युः । स्त्रीकनकभूमिलाभान्कीर्तिं च शशाङ्ककरधवलाम् ॥ ४३ ॥ सकलकरंभारभारितनिर्मलकरजालभासुराः सततम् । राज्यं ग्रहाः प्रदधुः सौख्यं च मनोरर्थांतीतम् ॥ ४४ ॥ आचारसत्यशुभशौचयुताः सुरूपा
स्तेजस्विनः कृविदो द्विजदेवभक्ताः ।
स्रग्वस्त्रगन्धजलभूषणसंप्रियाश्च
सौम्यग्रहैर्बलयुतैः पुरुषा भवन्ति ॥ ४५ ॥ लुब्धाः कुकर्मनिरता निजकार्यनिष्ठाः
साधुद्विषः सकलहाश्च तमोभिभूताः । क्रूराः सदा वर्धरता मलिनाः कृतघ्नाः पापग्रहैर्बलयुतैः पिशुनाः कुरूपाः ॥ ४६ ॥ स्वमित्रक्षेत्र संस्थानां ग्रहाणां बालसंज्ञिका । स्वत्रिकोणगतानां च कुमारा नाम संज्ञिता ॥ ४७ ॥
१३
१ स्पष्टवीर्य २ व्यसनदाः ३ पदाटनम् ४ द्विगुणं. ५ बलभारसहिता. ६ मनोरथादधिक्रम्. ७ वधकरा.
२ सारा०
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सारावली । ग्रहाणां खोचसंस्थानां युवराजाभिधा भवेत् । शत्रुक्षेत्रगतानां च वृद्धा नाम तथेरिता ॥४८॥ नीचगानां ग्रहाणां च दशा मरणसंज्ञिता । तत्तत्फलसमायुक्ता ग्रहाणां तु दशा भवेत् ॥४९॥ बालैः सुखी सुशीलश्च यौवनैरवनीश्वरः ।। वृद्वैाधिणे वृद्धिर्मरणे मरणं व्ययम् ॥ ५० ॥ पुराशिगैः शुभखगैीराः सङ्ग्रामरक्षिणो बलिनः । निश्चेष्टैः सुकठोराः क्रूरा मूर्खाश्च जायन्ते ॥ ५१ ॥ युवतिभवनस्थितेषु च मृदवः सङ्ग्रामभीरुकाः पुरुषाः । जलकुसुमवस्त्रनिरताः सौम्याः कल्याः स्वजनहृष्टाः ॥५२॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां मिश्रकाध्यायः पञ्चमः ।।
षष्ठोऽध्यायः । वक्षत्रिकोणतुङ्गस्था यदि केन्द्रेषु संस्थिताः । अन्योन्यं कारकास्ते स्युः केन्द्रेष्वेव हरेर्मतम् ॥१॥ रवितनयो जूकस्थः कुलीरलग्ने बृहस्पतिहिमांशू । मेषे कुजो गवि सितः परस्परं कारका एते ॥ २॥ तुङ्गसुहृत्स्वगृहां स्थिता ग्रहाः कारकाः समाख्याताः। मेषूरणे च रविरिति विशेषतो वक्ति चाणक्यः ॥३॥ लग्नस्थाः सुखसंस्था दशमस्थाश्चापि कारकाः सर्वे । एकादशेऽपि केचिद्वाञ्छन्ति न तन्मतं मुनीन्द्राणाम् ॥४॥ नीचकुले संभूतः कारकविहगैः प्रधानतां याति । क्षितिपतिवंशसमुत्थो भवति नरेन्द्रो न सन्देहः ॥ ५ ॥ कारकवेधो बलवान्मूलं योगेषु कीर्तितो हरिणा । तस्मात्फलनिर्देशः कारकवेधादिभिर्वाच्यः ॥ ६ ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां कारकाध्यायः षष्ठः ॥
१ बाले. २ स्यात्. ३ ने रजनी. ४ वृद्धे. ५ पुंराशिघु ग्रहेन्द्रैः. ६ संग्रामकाङ्क्षिणो बलिभिः । निःस्नेहा. ७ सदा. ८ रवियुतः. ९ भेदादिभिः.
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सप्तमोऽध्यायः ।
१५ सप्तमोऽध्यायः। रविचन्द्रभौमबुधजीवशुक्रसौरा दिनादिपतयश्च । मासे चाश्वयुजादौ दिनेश्वरोऽब्दे दिनपतेश्च ॥१॥ अब्दाधिपाश्चतुर्थाः क्रमेण षष्ठास्तु कालहोरेशाः । द्विद्वादशहोराः स्युर्दिवसास्त्वेकाधिकास्त्रिंशत् ॥ २ ॥ मासास्त्रिंशद्गुणिता गतैर्दिनैः सप्तभाजिता दिवसाः। अब्दाधिपाः प्रगण्या गतैर्दिनाद्यैः प्रयत्नतस्तु स्युः ॥ ३॥ एकत्रिंशद्भागैर्युक्तश्चैत्रादीनां ग्रहादीनाम् । क्रमशो विज्ञातव्या शुक्लप्रतिपत्प्रसंख्यायाम् ॥ ४ ॥ यस्य ग्रहस्य भावो यस्तस्य गृहे प्रशस्यते कर्म । तस्मिंश्योपचयस्थे तस्मिल्लग्ने गृहे चास्य ॥ ५ ॥ यत्कर्मग्रहदिवसे तदेव होराब्दभासकालेषु । पादविवृद्ध्या वा स्यात्तेषां कालस्य संपाकः ॥ ६॥ व्यालोणकशैलसुवर्णशस्त्रविषदहनभेपजनृपाश्च । म्लेच्छाब्धितारकान्तारकाष्ठमत्रप्रभुः सूर्यः ॥ ७ ॥ अपिकुसुमभोज्यमणिरजतशंखलवणोदकेपु वस्त्राणाम् । भूषणनारीघृततिलतैलकनिद्राप्रभुश्चन्द्रः ॥ ८॥ रक्तोत्पलताम्रसुवर्णरुधिरपारदमनःशिलाद्यानाम् । क्षितिनृपतिपतनमूछोपैत्तिकचोरप्रभुभीमः ॥ ९ ॥ श्रुतिलिखितशिल्पवैद्यकनैपुणमत्रित्वदूतहास्यानाम् । खगयुग्मख्यातिवनस्पतिस्वर्णमयप्रभुः सौम्यः ॥ १० ॥ माङ्गल्यधर्मपौष्टिकमहत्वशिक्षानियोगपुरराष्ट्रम् । यानासनशयनसुवर्णधान्यवेश्मपुत्रपोजीवः ॥११॥ वज्रमणिरत्नभूषणविवाहगन्धेष्टमाल्ययुवतीनाम् । गोमयनिदानविद्यानिधुवनरजतप्रभुः शुक्रः ॥ १२ ॥ त्रपुसीसकाललोहककुधान्यमृतबन्धुमन्दभृतकानाम् । नीचस्त्रीपण्यकदासदीनदीक्षाप्रभुः सौरिः ॥१३॥ १ दिनाब्दपतयस्तु. २ व्यालोत्कर्णकशैल. ३ कविकुसुम.
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सारावली । अर्कः कलिङ्गविषये यवनेषु च चन्द्रमाः । शुक्रः समतटे जातः सैन्धवेषु बृहस्पतिः ॥ १४ ॥ मगधेषु बुधो जातः सौराष्ट्रेषु शनैश्चरः । अङ्गारकस्तूजयिन्यां राहुः केतुश्च द्राविडे ॥ १५ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां कारकाध्यायः सप्तमः ।
अष्टमोऽध्यायः। राश्यादिफलविभागः कस्य विधेयो विना समुत्पत्तेः। आधानमथो वक्ष्ये कारणभूतं समस्तजन्तूनाम् ॥ १ ॥ अनुपचयराशिसंस्थे कुमुदाकरबान्धवे रुधिरदृष्टे । प्रतिमासं युवतीनां भवतीह रजो ब्रुवन्त्येके ॥२॥ इन्दुर्जलं कुजोऽग्निर्जलमसृगथवाग्निरेव पित्तं स्यात् । एवं रक्ते हीने पित्तेन रजः प्रवर्तते स्त्रीषु ॥३॥ एवं यद्भवति रजो गर्भस्य निमित्तमेव कथितं तत् । उपचयसंस्थे विपुलं प्रतिमासं दर्शनं तस्य ॥४॥ उपचयभवने शशभृदृष्टो गुरुणा सुहृद्भिरथवासौ । पुंसा करोति योगं विशेषतः शुक्रसंदृष्टः ॥ ५ ॥ चन्द्रे कुजेन दृष्टे पुष्पवती सह विटेन संयोगम् । राजपुरुषेण रविणा रविजेनाप्नोति भृत्येन ॥ ६ ॥ एकैकेन फलं स्यादृष्टे नान्यैः कुजादिभिः पापैः । सर्वैः स्वगृहं त्यक्त्वा गच्छति वेश्यापदं युवतिः ॥ ७॥ द्विपदादयो विलग्नात्सुरतं कुर्वन्ति सप्तमे यद्वत् । तद्वत्स्त्रीपुरुषाणां गर्भाधाने समादेश्यम् ॥ ८॥ अस्तेऽशुभयुतदृष्टे सरोषकलहं भवेद्राम्यम् । सौम्यं सौम्यैः सुरतं वात्स्यायनसंप्रयोगिकाख्यातम् ॥ ९॥ तत्र शुभाशुभमित्रैः कर्मभिरधिवासिता विषयवृत्तिः । गर्भावासे निपतति संयोगे शुक्रशोणितयोः ॥ १० ॥ १ समुत्पत्तिम्. २ मतो. ३ क्षुभिते. ४ विहितं. ५ विफलं. ६ दृष्टियुते.
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अष्टमोऽध्यायः । उपचयगौ रविशुक्रो बलिनौ पुंसः समांशसंप्राप्तौ । युवतेर्वा कुजचन्द्रौ यदा तदा गर्भसंभवो भवति ॥११॥ शुक्रार्कभौमशशिभिः खांशोपचयस्थितैः सुरेड्ये वा । धर्मोदयात्मजस्थे बलवति गर्भस्य संभवो भवति ॥ १२ ॥ मिथुनस्य मनोभावो यादृङ्मदलालसं भवति । श्लेष्मादिभिः स्वदोषैस्तत्तुल्यगुणो निषिक्तः स्यात् ॥ १३ ॥ विषमे विषमांशगता होराशशिजीवभास्करा बलिनः । कुर्वन्ति जन्म पुंसां समासमांशे युवैतिनरजन्म ॥ १४ ॥ ओजः गुरुसूयौँ बलिनौ पुंसः समे सितेन्दुकुजाः । कन्यानां जन्मकरा गर्भाधाने स्थिता बलिनः ॥१५॥ मिथुने चापेऽर्कगुरू बुधदृष्टौ दारकद्वयं कुरुतः । स्त्रीयुग्मं कन्यायां सितशशिभौमा झषे च बुधदृष्टाः ॥ १६ ॥ लग्नं मुक्त्वा विषमे शनैश्वरः पुरुषजन्मदो भवति । योगे विहगस्य बलं संवीक्ष्य वदेन्नरं स्त्रियं वाऽपि ॥ १७ ॥ अन्योन्यं रविचन्द्रौ विषमक्षगतौ निरीक्षते । इन्दुजरविपुत्रौ वा दृष्टौ बलिनौ नपुंसकं कुरुतः ॥ १८ ॥ पश्यति वक्रः समभे सूर्य चन्द्रोदयौ च विषमः । यद्येवं गर्भस्थः क्लीबो मुनिभिः समादिष्टः ॥ १९॥ ओजसमराशिसंस्थौ ज्ञेन्दू षण्ढं कुजेक्षितौ कुरुतः । नरभे विषमनवांशे होरेन्दुबुधाः सितार्किदृष्टा वा ॥ २० ॥ लग्ने समराशिगते चन्द्रे च निरीक्षिते बलयुतेन । गगनसदा वक्तव्यं मिथुनं गर्भस्थितं नित्यम् ॥ २१ ॥ समराशौ शशिसितयोर्विषमे गुरुवक्रसौम्यलग्नेषु । द्विशरीरे वा बलिषु प्रवदेत् स्त्रीपुरुषमत्रैव ॥ २२ ॥ द्विशरीरांशकयुक्तान् ग्रहान् विलग्नं च पश्यतीन्दुसुते । मिथुनांशे कन्यैका द्वौ पुरुषो त्रितयमेवं स्यात् ॥ २३॥
१ धर्मेऽथवात्मजे वा. २ समे. ३ तु युवतीनाम्. ४ पुत्र. ५ दये. ६ स्तदा दृष्टः. ७ नूनम्. ८ नियत.
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सारावली ।
द्विशरीरांशकयुक्तान् ग्रहान् विलग्नं च पश्यतीन्दुसुते । कन्यांशे द्वे कन्ये पुरुषश्च निषिच्यते गर्भे ॥ २४ ॥ मिथुने धनुरंशगतान् ग्रहान् विलग्नं च पश्यतीन्दुसुतः । मिथुनांशस्थश्च यदा पुरुषत्रितयं तदा गर्भे ॥ २५ ॥ कन्या मीनांशस्थान विहगानुदयं च युवतिभागगतः । पश्यति शिशिरगुतनयः कन्यात्रितयं तदा गर्भे ॥ २६ ॥ दिवसे मातापितरौ शुक्ररवी शशिशनी निशायां च । मातृभगिनीपितृव्यौ विपर्ययात् कीर्तितौ यवनैः ॥ २७ ॥ लग्नाद्विषमर्क्षगतः पितुः पितृव्यस्य खेचरः शस्तः । मातृभेगिनीजनन्योः समगृहगोऽन्ये तथा भेषु ॥ २८ ॥ मासेष्वाधानादिषु गर्भस्य यथा क्रमेण जायन्ते । सप्तसु कलिलाण्डकशाखास्थित्वग्रोमचेतनताः ॥ २९ ॥ मासेऽष्टमे च तृष्णा क्षुधा च नवमे तथोद्वेगः । दशमे त्वर्थं संपूर्णः पक्कमिव फलं पतति गर्भः ॥ ३० ॥ शुकारजीवर विशशिसौरिबुधविलग्नपोडुपादित्याः । मासपतयः स्युरेतैर्गर्भस्य शुभाशुभं चिन्त्यम् ॥ ३१ ॥ उत्पात क्रूरहते तस्मात् स्वस्याधिपे पतति गर्भः । लग्नगृहं वा हेतुयोगेशो गर्भपतनस्य ॥ ३२ ॥ अथवा निषेककाले विलग्नसंस्थौ यदा रुधिरमन्दौ । तहगतेऽथवेन्दौ तदीक्षिते वा पतति गर्भः ॥ ३३॥ हरेन्दुयुतेः सौम्यैस्त्रिकोणजायार्थखाम्बुसंस्थैर्वा । पापैस्त्रिला भयातैः सुखी च गर्भो निरीक्षिते रविणा ॥ ३४ ॥ क्रूरान्तःस्थः सूर्यश्चन्द्रो वा युगपदेव मरणाय । सौम्यैरदृष्टमूर्तिर्युवतीनां गर्भसहितानाम् ॥ ३५ ॥ उदयास्तगतैः पापैः सौम्यैरनवेक्षितैश्च मरणं स्यात् । उदयस्थितेऽर्क वा क्षीणेन्दौ भौमसंदृष्टे ॥ ३६ ॥
×૮
१ गर्भः. २ नृमिथुनधनु. ३ गतान्. ४ गर्भः ५ जननीभगिन्योः. ६ तथाविपूर्ण: ७ यथा.
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अष्टमोऽध्यायः । व्ययगेऽर्के शशिनि कृशे पाताले लोहिते सगी स्त्री । म्रियते तस्मिन्नथवा शुक्रे पापद्वयान्तःस्थे ॥ ३७॥ चन्द्रचतुर्थैः क्रूरैर्विलग्नतो वा विपद्यते गर्भः ।। होराछूने क्षितिजे म्रियते गर्भः सह जनन्या ॥ ३८॥ हिबुकगते धरणिसुते रिःफगतेऽर्के क्षपाकरे क्षीणे । गर्भेण सह प्रियते पापग्रहदर्शनं प्राप्ते ॥ ३९ ॥ लग्ने रविसंयुक्त क्षीणेन्दौ वा कुजेऽथवा म्रियते । व्ययधनसंस्थैः पापैस्तथैव सौम्यग्रहादृष्टैः ॥ ४० ॥ जामित्रे रॅवियुक्ते लग्नगते वा कुजे निषिक्तस्य । गर्भस्य भवति मरंणं शस्त्रच्छेदैः सह जनन्या ॥४१॥ बलिभिर्बुधगुरुशुक्रैदृष्टेऽर्केण च विवर्धते गर्भः। मासाधिपवलतुल्यैस्तैस्तैः संयुज्यते भावः ॥ ४२ ॥ मासि तृतीये स्त्रीणां दौहृदकं जायते तथाऽवश्यम् । मासाधिपस्वभावैर्विलग्नयोगादिभिश्चान्यत् ॥४३॥ निषेककाले चरराशिगेझै गर्भप्रसूतिर्दशमे चे मासे । एकादशे च स्थिरराशिसंस्थे स्यावादशे मास्युभयाश्रिते च ॥४४॥ गर्भाधाने चरे राशौ दशमासैः प्रसूयते । स्थिरेणैकादशे मासे उभये द्वादशे भवः ॥ ४५ ॥ गर्भप्रसवविधानं तात्कालिकलग्नवर्गतश्चिन्त्यम् । आधानाजन्मक्षं दशमं वाञ्छन्ति केचिदाचार्याः ॥ ४६॥ आधानोदयशशिनोः सप्तमभं बादरायणो ब्रूते । तस्मान्नैकान्तोऽयं सर्वेषां संमतं वक्ष्ये ॥४७॥ यस्मिन् द्वादशभागे गर्भाधाने स्थितो निशानाथः । तत्तुल्यः प्रसवं गर्भस्य समादिशेत्प्राज्ञः ॥४८॥ लग्ने शनैश्चरांशे शनैश्चरे द्यूनगे यदि निषेकः । वर्षत्रयेण सूतिर्द्वादशभिः स्याच्छशिनि चैवम् ॥ ४९ ॥ १ च शशिनि कृशे. २ सहगर्भा स्त्री. ३ जामित्रगेऽर्कदृष्टे. ४ दौहृदको. ५ दशमेऽथ. ६ सवः. ७ लग्नवचिन्त्यम्. ८ आधानजन्मनक्षं, आधाने जन्मङ्क्ष.
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सारावली ।
तात्कालिकदिवसनिशासंज्ञः समुदेति राशिभागो यः । यावानुदयस्तावान् वाच्यो दिवसस्य रात्रेर्वा ॥ ५० ॥ मुनिभागे दिवसनिशोर्जन्मनि लग्नं वदेद्युक्त्या । उदयगणात् प्रसवः स्यादिनपक्षमुहूर्तमाससंज्ञात् ॥ ५१ ॥ इत्याधाने प्रथमं प्रसूतिकालं सुनिश्चितं कृत्वा । जातकविहितं च विधिं विचिन्तयेत्तत्र गणितज्ञः ॥ ५२ ॥ स्यातां यद्याधाने रविशशिनौ सिंहराशिगौ लग्ने । दृष्टौ कुजसौरिभ्यां जात्यन्धः संभवति तत्र ॥ ५३॥ आग्नेयसौम्यदृष्टौ रविशशिनौ बुद्बुदेक्षणं कुरुतः । नयनविनाशोऽपि यथा तथाधुना संप्रवक्ष्यामि ॥ ५४ ॥ व्ययभवनगतश्चन्द्रो वामं चक्षुर्विनाशयति हीनः । सूर्यस्तथैव चान्यच्छुभदृष्टौ याप्यतां नयतः ॥ ५५ ॥ क्रूरैर्गृहसन्धिगतैः शशिनि वृषे भौमसौररविदृष्टे । मूकः सौम्यैदृष्टे वाचं कालान्तरे वदति ॥ ५६ ॥ क्रूरेषु राशिसन्धिषु शशी न सौम्यैर्निरीक्ष्यते च जडः । बुधनवमभागसंस्थौ शनिभौमौ यदि सदन्तः स्यात् ।। ५७ ॥ सौम्ये त्रिकोणसंस्थे लग्नाच्छेषग्रहैबलविहीनैः । द्विगुणास्यपादहस्तो योगेऽस्मिन्नाहितो भवति गर्भः ॥ ५८॥ वामनको मकरान्त्ये लग्ने रविचन्द्रसौरिभिदृष्टे । शशिनि विलग्ने कर्किणि कुजाकदृष्टेऽथवा कुब्जः ॥ ५९॥ मीनोदये च दृष्टे कुजार्किशशिभिः पुमान् भवति पङ्गुः । याप्या भवन्ति योगाः सौम्यग्रहवीक्षिताः सर्वे ।। ६०॥ क्रूरग्रहस्त्रिकोणे त्रिकोणलग्ने शुभेषु बलवत्सु । 'द्विशिरोड्रिबाहुयुग्मः शेषैरबलैर्भवति गर्भः ॥६१॥ इत्याधानविधानं प्रसूतिसमयेऽपि योजयेद्योग्यम् । आधाने यन्नोक्तं प्रसूतिविहितं तदपि चिन्त्यम् ।। ६२ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां आधानेष्टमोऽध्यायः॥
१ च ततो. २ संदृष्टे. ३ कुजार्कि. ४ तथा. ५ कुजार्कशशिभिः. ६ विशिरो.
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नवमोऽध्यायः ।
नवमोऽध्यायः ।
आधानं हि मयोक्तं प्रसूतिकालस्य निर्णयार्थपैरम् । तस्मिन् सुपरिज्ञाते जन्माध्यायं प्रवक्ष्यामि ॥ १ ॥ शीर्षोदये विल मूर्ध्ना प्रसवोऽन्यथोदये चरणैः । उभयोदये च हस्तैः शुभदृष्टे शोभनोऽन्यथा कष्टः ॥ २ ॥ भवनांशसदृशदेशे प्रसवो ज्ञेयः सदात्र युवतीनाम् । मिश्रगृहांशे वर्त्मनि स्थिरराश्यंशे तथा स्वगृहे ॥ ३ ॥ स्वगृहनवांशे लग्ने स्वगृहेऽन्यस्मिन्यदि प्रथमहम् । पितृमातृग्रहबलतैस्तत्तत्स्वजन गृहेषु बलयोगात् ॥ ४ ॥ प्राकारतरुनदीषु च सूतिनींचाश्रितैः सौम्यैः । नेक्षन्ते लग्नेन्दू यद्येकस्था ग्रहा महाटव्याम् ॥ ५ ॥ सलिलभवने च चन्द्रो जलराशौ वीक्षते तथा पूर्णः । प्रसवं सलिले विद्यात् बन्धूदयदशमगच यदा ॥ ६ ॥ सौम्यैर्लग्ने पूर्णे स्वगृहगते शशिनि सलिलसंयाते । पातालस्थैश्च शुभैर्जलजे लग्नेऽम्बुगेहगे शशिनि ॥ ७ ॥ वृश्चिककुलीरल सौरे चन्द्रेक्षिते खवटे | भवति प्रसवः स्त्रीणां वदन्ति यवनाः सह मणित्थैः ॥ ८ ॥ रविजे जलजविलग्ने क्रीडोद्याने बुधेक्षिते प्रसवः । रविणा देवागारे तथोपरे चैव चन्द्रेण ॥ ९ ॥ आरण्यभवनलग्ने गिरिवनदुर्गे तथा नवग्ने । रुधिरेक्षिते श्मशाने शिल्पकनिलयेषु सौम्येन ॥ १० ॥ सूर्येक्षिते गोनृपदेववासे शुक्रेन्दुजाभ्यां रमणीयदेशे । शड्यदृष्टे द्विजवह्निहोत्रे नरोदये सम्प्रवदन्ति सूतिम् ॥ ११ ॥ स्वोच्चे दशमे जीवे द्वित्रिचतुर्भूमि के गृहे प्रसवः । मन्दक्षशे साले चतुर्थदशमस्थितैः सौम्यैः ॥ १२ ॥ द्वौ द्वौ राशी मेपात् पूर्वदिषु संस्थितौ गृहविभागे । कोणेषु द्विशरीरा लग्नन्तु भवेद्धि तत्प्रमुखैः ॥ १३ ॥ १ आधाने २ करम्. तथान्यगृहे. ४ स्वगृहेऽन्यस्मिन् प्रतिद्वन्द्वे. ५ वर्गे. ६ चाश्रिते. ७ लग्ने. ८ लग्नस्य ९ प्रमुखे.
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सारावली ।
दिग्भागराशिमण्डलकेन्द्रेषु खगेषु तच्छाला | अर्थ मृगहयबलवत्त्वे गृहं विशालं त्रिशालं च ॥ १४ ॥ चित्रं नवं भृगुसुते च दृढं गुरौ च दग्धं कुजे दिनकरे परिपूर्णकाष्ठम् । चन्द्रे नवं च बहुशिल्पिकृतं बुधे च
जीर्णं भवेद्गृहमिहोष्णकरात्मजे च ॥ १५ ॥ वासगृहे द्यूनगतात् द्वारो दिक्पालकात् बलोपेतात् । भवनग्रहसंयोगैः प्रतिवेश्माश्चिन्तनीयाः स्युः ॥ १६ ॥ देवालयाम्बुपावककोशविहारास्तथोत्रो भूमेः । निद्रागृहं च भास्करशशिकुजगुरुभार्गवाकिंबुवयोगात् ॥ १७ ॥ खट्टास्थितिर्भवनवद्युतविहगसमानि तत्र चिह्नानि । आस्तरणानि च विद्यात् शुभदृष्टिकृतानि दैवज्ञः ॥ १८ ॥ प्राच्यादिगृहद्वितयं भद्वितयं राशयश्च गात्राणि । आजानुशिरः शयनं ग्रहतुल्यं लक्षणं तत्र ॥ १९ ॥ ग्रहयुक्तं वा नियतं विनतत्वं च द्विमूर्तिराशिषु च । षट्त्रिनवान्त्याः पादाः पर्यऽङ्गानि राशयः शेषाः ॥ २० ॥ नीचस्थे भूशयनं चन्द्रेऽप्यथवा सुखे विलग्ने वा । शशिलग्न विवरयुक्तग्रहतुल्याः सूतिका ज्ञेयाः ॥ २१ ॥ अनुदितचक्रार्धयुतैरन्तर्बहिरन्यथा वदन्त्येके । लक्षणरूपविभूषणयोगस्तासां शुभैर्योगात् ॥ २२ ॥ क्रूरैर्विरूपदेहा लक्षणहीनाः सुरौद्रमलिनाच | मिश्रैर्मध्यमरूपा बलसहितैः सर्वमेवमवधार्यम् ॥ २३ ॥ द्वादशभागच्छेन्ने वासगृहेऽवस्थिते सहस्रांशौ । दीपश्चरस्थिरादिषु तथैव वाच्यः प्रसवकाले ॥ २४ ॥ यावलग्नादुदितं वर्तिर्दग्धा तु तावती भवति । दीपः पूर्णे पूर्णः शशिनि क्षीणे क्षयस्तु तैलस्य ॥ २५ ॥ बलवति सूर्ये दृष्टे बहून् प्रदीपान् वदेत् कुपुत्रेण । अन्यैरपि गतवीर्यैः सूतौ ज्योतिस्तृणैर्भवति ॥ २६ ॥
१ झष. २ जीर्ण. ३ उपस्करस्थानम् ४ पर्यन्ते. ५ भागच्छिन्ने. ६ रपगत.
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नवमोऽध्यायः । सौरांशेऽथ जलांशे चन्द्रेऽर्कजसंयुतेऽथवा हिबुके । तदृष्टे वा कुर्यात्तमसि प्रसवं न सन्देहः ॥२७॥ होरामनीक्षमाणे शशिनि परोक्षस्थिते पितरि जातः । मेषूरणाच्युते वा चरभे भानौ विदेशगते ॥२८॥ युनिशोरकीसितयोः कुजेन सन्दृष्टयोः पिताप्यभवत् । चरराशौ परदेशे युक्तेक्षितयोस्तु तत्र मृतः ॥२९॥ पञ्चमनवमधूने पापैरर्कात्तु पापसंदृष्टैः । बद्धः पिताऽन्यदेशे राशिवशात् स्खेऽथवा मार्गे ॥३०॥ जायात्रिकोणसंस्थैः क्रूरैरानन्दवर्जितः प्रसवः । दशमचतुर्थोपगतैः सौम्यैः संपत्तयो विपुलाः ॥३१॥ पश्यति न गुरुः शशिनं लग्नं च दिवाकर सेन्दुम् । पापयुतं वा सार्क चन्द्रं यदि जारजातः स्यात् ॥३२॥ गुरुशशिरवयो नीचे सूतौ लग्नेऽथवार्कसूनुश्च । लग्नोडुपभृगुपुत्राः शुभैरदृष्टास्तथान्यजातश्च ॥ ३३॥ क्लेशो मातुः क्रूरैर्बन्ध्वस्तगतैः शशाङ्कयुक्तैर्वा । चन्द्रात् सप्तमराशौ पापा मरणाय वक्रसन्दृष्टाः॥ ३४ ॥ चन्द्राद्दशमे भानुर्मातुर्मरणं करोति पापयुतः। शुक्रात् पञ्चमनवमे सौरियुतस्तेन वा दृष्टः ॥ ३५॥ चन्द्रात्रिकोणराशौ रविजो मातुर्वधं दिशति रात्रौ । शुक्रात्तथैव दिवसे भौमः पापेन सन्दृष्टः ॥ ३६॥ कुजसौरयोस्त्रिकोणे चन्द्रेऽस्तगते वियुज्यते मात्रा । दृष्टे सुरेन्द्रगुरुणा सुखान्वितो दीर्घजीवी च ॥ ३७॥ म्रियते पापैदृष्टे शशिनि विलग्ने कुजेऽस्तगे त्यक्तः । लग्नात्स्वलाभगतयोर्वसुधासुतमन्दयोरेवम् ॥ ३८ ॥ पश्यति सौम्योबलवान् यादृग्गृह्णाति तादृशो जातः । शुभपापग्रहदृष्टे परैर्गृहीतोऽथवा म्रियते ॥ ३९ ॥ १ जातः स्यात्. २ मरणाय निर्दिष्टाः. ३ भवने. ४ सौरियुतोऽर्कोऽथ ५ गृहीतोऽपि स म्रियते.
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सारावली । एकांशस्थितयोर्वा यमारयोस्त्यज्यतेऽथवा मात्रा । लग्नात्सप्तमभवने भौमे शनिवीक्षिते नियतम् ॥४०॥ यादृक्पश्यति सौम्यस्तत्तुल्यगुणं सुतः समाधत्ते । पितृजननीसादृश्यं रवेः शशाङ्कस्य बलयोगात् ॥४१॥ सिंहाजगोभिरुदये जातो नालेन वेष्टितो जन्तुः । लग्ने कुजेऽथ सौरे राश्यंशसमानगात्रश्च ॥४२॥ भौमशनिद्रेक्काणे पापे लग्ने स्थिते शशियुते वा । व्येकादशगैः सौम्यैरभिवेष्टितको भुजङ्गेन ॥४३॥ सूर्यश्चतुष्पदस्थः शेषा द्विशरीरसंस्थिता बलिनः । कोशैर्वेष्टितदेहौ यमलौ खलु संग्रजायते ॥४४॥ लग्ननवभागतुल्या मूर्तिबलसंयुताद्रहाद्वापि । नवभागाद्वर्णोक्तिः शशियोगात्तत्र सूतस्य ॥ ४५ ॥ बहवो यदि बलयुक्ता मिश्रा मूर्तिस्तदा वाच्या । कुलजातिदेशपुरुषान् बुद्ध्वाऽऽदेशं समादिशेत्तज्ज्ञः ॥४६॥ त्रिंशद्भागे भानुर्ग्रहस्य यस्य स्थितो भवति । तत्तुल्याः प्रकृतिः स्यादेवं मुनयोऽध्यवस्यन्ति ॥४७॥ तत्कालसुहृदरित्वं बलं च नीचोच्चमध्यसंश्रितताम् । ज्ञात्वा ग्रहस्वभावांस्तेभ्यः संचिन्त्यमन्यदपि ॥४८॥ क्षीणे शशिनि सपापे माता म्रियते पिता रवौ तद्वत् । बलिभिदृष्टे मित्रैर्व्याधिः सौम्यैः शुभं भवति ॥४९॥ विपुलविमलमूर्तिः स्वोचगो वा स्वराशौ
गुरुसितयुत इन्दुर्बोधनेनानुदृष्टः । अतिशयशुभदाता पञ्चमे वाऽपि मातुः
पितुरपि खलु तद्वत् भास्करः सर्वदैव ॥ ५० ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां सूतिकाध्यायो नवमः ॥
१ एकांशावस्थितयोर्यमारयोस्त्यज्यते मात्रा. २ सुतम्. ३ सुते. ४ प्रसूयेते. ५ वर्ण. ६ यस्येह संस्थितो.
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दशमोऽध्यायः ।
दशमोऽध्यायः। आयुर्ज्ञानाभावे सर्वं विफलं प्रकीर्तितं यस्मात् । तस्मात्तज्ज्ञानार्थे रिष्टाध्यायं प्रवक्ष्यामि ॥१॥ ओजे स्थिताः पुमांसः शुक्लेऽहनि सूरिभिः समाख्याताः । युग्मभवनेषु सर्वे कृष्णे निशि योषितो बलिनः ॥ २॥ त्रिविधमिह शास्त्रकारा नियममनियमं च योगजं प्राहुः । योगसमुत्थं तावद्वक्ष्ये पश्चात्तु परिशेषौ ॥ ३॥ बृहस्पतिभौमगृहेऽष्टमस्थः सूर्येन्दुभौमार्कजदृष्टमूर्तिः । अब्दै स्त्रिभिर्भार्गवदृष्टिहीनो लोकान्तरं प्रापयति प्रसूतम् ॥ ४॥ वक्री शनिभौमगृहं प्रपन्नश्चन्द्रेऽष्टषष्ठेऽथ चतुष्टये वा। कुजेन सम्प्राप्तबलेन दृष्टो वर्षद्वयं जीवयति प्रजातम् ॥ ५ ॥ भास्करहिमकरसहितः शनैश्चरो मृत्युदः प्रसवकाले । वर्षेनैवभिर्यातैरित्याह ब्रह्मशौण्डाख्यः ॥ ६ ॥ भौमदिवाकरसौराश्छिद्रे जातस्य भौमगृहे । म्रियतेऽवश्यं स नरो यमकृतरक्षोऽपि मासेन ॥ ७॥ एकः पापोऽष्टमगः शुक्रगृहे पापवीक्षितो वर्षात् । मारयति नरं जातं सुधारसो येन पीतोऽपि ॥ ८ ॥ रविशशिभवने शुक्रो द्वादशरिपुरन्ध्रगैः शुभैः सर्वैः । दृष्टः करोति षभिवमरणं किमत्र चित्रं हि ॥ ९ ॥ कर्कटधामनि सौम्यः षष्ठाष्टमसंस्थितो विलग्नात् । चन्द्रेण दृष्टमूर्तिर्वर्षचतुष्केण मारयति ॥ १०॥ . तीव्रफलराजयोगा यवनाद्यैर्ये विनिर्मितास्तेषु । जायन्ते खलु कुलजा रिष्टं तेषु प्रसूतानाम् ॥ ११ ॥ केतुर्यस्मिन्नृक्षेऽभ्युदितस्तस्मिन्प्रसूयते यो हि । मासद्वयेन मरणं विनिर्दिशेत्तस्य जातस्य ॥ १२ ॥ गगनस्थो दिवसकरः पापैर्बहुभिर्निरीक्षितः सद्यः । मारयति भौमधामनि शनिभे च न संशयो भवति ॥ १३ ॥
१ नियतमनियतं च. २ यस्य शुक्रगृहे. ३ रन्ध्रगः. ४ षष्ठाष्टव्ययगतो. ५ बलिभिः.
३ सारा.
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सारावली।
लग्ने यद्रेक्काणा निगडाहिविहङ्गपाशधरसंज्ञाः । मरणाय सप्तवः क्रूरयुता न स्वपतिदृष्टाः ॥ १४ ॥ राहुश्चतुष्टयस्थो मरणाय निरीक्षितो भवति पापैः । वर्वदन्ति दशभिः षोडशभिः केचिदाचार्याः ॥ १५ ॥ पापास्त्रिकोणकेन्द्रे सौम्याः षष्ठाष्टमव्ययगताश्च । सूर्योदये प्रसूतः सद्यः प्राणांस्त्यजति जन्तुः ॥ १६ ॥ अंशाधिपजन्मपती लग्नपतिश्चास्तमुपगता यस्य । संवत्सरैस्तु मरणं निर्व्याजं कतिपयैरेव ॥१७॥ राशिप्रमितैर्वारयति विलग्नपो रिपुस्थाने । मासै,क्काणपतिर्दिवसैरंशाधिपो हन्ति ॥ १८ ॥ मारयति षोडशाहाच्छनैश्चरः पापवीक्षितो लग्ने । संयुक्तो मासेन तु वर्षाच्छुद्धस्तु मारयति ॥ १९ ॥ क्षीणशरीरश्चन्द्रो लग्नस्थः क्रूरवीक्षितः कुरुते । स्वर्गगमनं हि पुंसां कुलीरगोऽजान्परित्यज्य ॥२०॥ वर्षान्मारयति शशी षष्ठाष्टमराशिसंस्थितो लग्नात् । सद्यः क्रूरैदृष्टः सौम्यैरब्दाष्टकाच्चैव ॥२१॥ अशुभशुभैः सन्दृष्टे वर्षचतुष्केण निर्दिशेदन्तम् । अनुपातः कर्तव्यः प्रोक्ता(नैर्ग्रहैदृष्टे ॥ २२ ॥ सौम्याः षष्ठाष्टमगाः पापैर्वकोपसङ्गतैदृष्टाः। मासेन मृत्युदास्ते यदि नै शुभैस्तत्र सन्दृष्टाः ॥२३॥ लग्नाबादशधनगैः क्रूरैम्रियते च रन्ध्ररिपुयुक्तैः । शुभसम्पर्कमयातैर्मासे षष्ठेऽष्टमे वाऽपि ॥ २४ ॥ लग्नाधिपजन्मपती षष्ठाष्टमरिःफगौ प्रसवकाले । अस्तमितौ मरणकरौ राशिप्रमितैर्वदेद्वषैः ॥ २५॥ होराधिपति ने पापजितो मरणमेव विदधाति । मासेन जन्मनाथस्तद्वच्चन्द्रो न यदि शुभदृष्टः ॥ २६ ॥ चन्द्रः कुजरवियुक्तः स्वसुतस्थाने न चापि शुभदृष्टः । १ अशुभैः शुभैश्च दृष्टो. २ न्यूनग्रहैदृष्टः. ३ तेन शुमैस्तु. ४ रविदृष्टः.
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दशमोऽध्यायः। मरणं शिशोः प्रयच्छति वर्षे नवमे न सन्देहः ॥ २७ ॥ होरेश्वरस्तु मृत्यौ पापैः सकलैश्च दृश्यते बलिभिः । मासि चतुर्थे मरणं जातस्य करोति मुनिवाक्यम् ॥ २८॥ जन्माधिपतिः सूर्यः स्वपुत्रसहितोऽष्टमे भवति राशौ ।
वर्षे राशिप्रमितैमरणाय सितेन सन्दृष्टः ॥ २९ ॥ व्ययाष्टषष्ठोदयगे शशाङ्के पापेन युक्ते शुभदृष्टिहीने । केन्द्रेषु सौम्यग्रहवर्जितेषु प्राणैर्वियोगं व्रजति प्रजातः ॥ ३०॥
चक्रस्य पूर्वभागे पापाः सौम्यास्तथेतरे चैव ।। वृश्चिकलग्ने जाता गतायुषो वज्रमुष्टियोगेऽस्मिन् ॥ ३१ ॥ क्षीणे शशिनि विलग्ने पापैः केन्द्रेषु मृत्युसंस्थैर्वा । भवति विपत्तिरवश्यं यवनाधिपतेर्मतं चैतत् ॥ ३२॥ राश्यन्तगतैः पापैः सन्ध्यायां तुहिनरश्मिहोरायाम् । मृत्युः प्रत्येकस्थैः केन्द्रेषु शशाङ्कपापैश्च ॥ ३३॥ द्यूनचतुरश्रसंस्थे पापद्वयमध्यगे शशिनि जातः । विलयं प्रयाति नियतं देवैरपि रक्षितो बालः ॥ ३४ ॥ पापद्वयमध्यगते होरासप्ताष्टमस्थिते चन्द्रे । सौम्यैरबलैंदृष्टे जातो म्रियते ध्रुवं ह्यत्र ॥ ३५॥ यूनाष्टमगैः पापैः क्रूरग्रहवीक्षितैः सह जनन्या । म्रियते शुभसंदृष्टैः सत्यस्य मताद्वदेद्व्याधिम् ।। ३६ ॥ ग्रहणोपगते चन्द्रे सक्रूरे लग्नगे कुजेऽष्टमगे । मात्रा साध म्रियते चन्द्रवदर्के च शस्त्रेण ॥ ३७॥ क्षीणे शशिनि विलग्ने कण्टकनिधनाश्रितैस्तथा पापैः । सोम्यादृष्टे मृत्युः सद्यः सत्यस्य निर्देशः ॥ ३८ ॥ द्यूनगतेऽर्के लग्ने यमे कुजे वा विपर्यये वाऽपि । अन्यतरयुते वेन्दावशुभैदृष्टेऽचिरान्मृत्युः ॥ ३९ ॥ होरानिधनास्तगतैः पापैः क्षीणे व्ययस्थिते चन्द्रे ।
जातस्य भवेन्मरणं सद्यः केन्द्रेषु चदशुभाः ॥ ४० ॥ .. १ मूर्ती. २ पतेर्न सन्देहः. ३ वेलायां. ४ संस्थैः. ५ बालः. ६ निर्देशातू. ७ व्यवस्थिते. ८ चेन्न.
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२८
‘सारावली। लग्नान्त्यनवमनैधनसंयुक्ताश्चन्द्रसूर्यसौराराः । जातस्य वधकृतः स्युः सद्यो गुरुणा न चेदृष्टाः ॥ ४१ ॥ लग्ने चन्द्रेऽर्के वा पापा बलिनस्त्रिकोणनिधनेषु । . सौम्यैरदृष्टयुक्ताः सद्यो मरणाय कीर्तिता यवनैः ॥ ४२ ॥ शुक्रो रविशनिसहितो मारयति नरं सदा प्रसवकाले । दृष्टोऽपि देवगुरुणा नवभिवन सन्देहः ॥४३॥ यत्रस्थस्तत्रस्थो रुधिरार्कशनैश्चरेक्षितश्चन्द्रः। जननीमृत्युं कुर्यान्नतु सौम्यनिरीक्षितः सद्यः ॥ ४४ ॥ रुधिरशनैश्चरदृष्टो दिवसकरो दिवसजन्मनि तु यस्य । पापयुतो वा हन्यात् पितरं निःसंशयं जातः ॥ ४५ ॥ रहितो बुधगुरुशुऊर्जन्मनि रुधिराङ्गसौरसहितोऽर्कः । कथयति पितरमतीतं पितुरपि च शरीरकतारम् ॥४६॥ पापद्वयमध्यगतो दिवसकरो दिवसजन्मनिरतस्य । पापयुतो वा हन्यात् पितरं निःसंशयं जातः ॥ ४७॥ सूर्याद॑ष्टमराशौ यदि युक्तौ सौरलोहितौ प्रसवे । सौम्यादृष्टौ निधनं कुर्यातां सद्य एव पितुः ॥ ४८॥ पापग्रहसंयुक्तश्वरराशिगतो दिवाकरः प्रसवे । विषशस्त्रजलान्मृत्युं कथयत्यल्पायुषं पितरम् ॥४९॥ चन्द्रादष्टमराशौ नवमे वा सप्तमेऽपि वा पापाः । सर्वे तत्रान्यतमे हन्युर्जातं सह जनन्या ॥ ५० ॥ चरराशिगते सूर्ये दिनजन्मनि वीक्षिते कुपुत्रेण । कथयति विदेशयातं जातस्य शरीरकर्तारम् ॥ ५१॥ चरराशिगतं सौरं यद्यर्को रात्रिजन्मनीक्षेत । अत्रापि विदेशस्थं कथयति पितरं प्रसूतस्य ॥५२॥ रुधिरसहितस्तु सौरश्वरभवने रात्रिजन्मनिरतस्य । कथयति पितरमतीतं परदेशे नात्र सन्देहः ॥५३॥ यत्रस्थतत्रस्थः स्वपुत्ररुधिराङ्गसङ्गतः सूर्यः । १ वधं कुर्युः. २ सौम्यैरमिश्रदृष्टाः. ३ सूर्यात्सप्तम. ४ तु पुत्रेण.
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दशमोऽध्यायः। प्राग्जन्मनो निवृत्तं कथयति पितरं प्रसूतस्य ॥ ५४॥ जन्माष्टसप्तषष्ठद्वादशसंस्थेषु चैव पापेषु । माता सुतेन सार्धं म्रियते नास्त्यत्र सन्देहः ॥ ५५॥ जीवति माता म्रियते सूनुः षष्ठाष्टंमेषु पापेषु । जन्माष्टसप्तमेषु च जीवति सूनुम्रियेत तन्माता ॥५६॥ वको वा सौरो वा द्वादशसंस्थो नयनहन्ता । दक्षिणनयनं सौरो वाममथाङ्गारको हन्यात् ॥ ५७॥ युगपच्चन्द्रादित्यौ द्वादशभे विष्ठितौ ग्रहौ स्याताम् । कुरुतः प्रसूतमन्धं पापः षष्ठेऽथवा निधने ॥ ५८॥ अथवाप्यन्यतरयुते द्वादशभे वापि जायमानस्य । अत्रापि हरेन्नयनं दक्षिणमर्कः शशी सव्यम् ॥ ५९॥ स्वर्भानुनोपसृष्टा यदि होरा दिनकरश्च जामिने । जातस्तत्र मनुष्यो निःसन्दिग्धं भवत्यन्धः ॥ ६०॥ धनराशौ द्वादशभे चन्द्रः सूर्यश्च विष्ठितो यत्र । तत्रापि भवत्यन्धो यद्यष्टमषष्ठयोः पापौ ॥ ६१॥ रजनिकरः षष्ठगतो निधने सूर्यों रवेः सुतस्तु शुभे । वक्रः कुटुम्बराशावत्राप्यन्धो भवेज्जातः ॥ ६२॥ रुधिराङ्गसौरयुक्तश्चन्द्रो निधनेऽथवाऽपि षष्ठे वा । पित्तश्लेष्मविकारैदृष्टिं हन्यादशुभयुक्तः ॥ ६३॥ दक्षिणमष्टमसंस्थः सव्यं तु हरेत्समाश्रितः षष्ठम् । सौम्यैर्न वीङ्क्षिततनुः सद्यो नहरेत्तु पश्चाद्वा ॥ ६४ ॥ दिनकरसुतेन सहितो निधने चान्ये समाश्रितश्चन्द्रः । वातश्लेष्मविकारैदृष्टिं हन्यादशुभदृष्टः ॥ ६५ ॥ निधने दक्षिणनयनं त्यागे सव्यं हरेत्तु नियमेन । सौम्यैस्तु दृश्यमाने न हरेदथवा हरेत्पश्चात् ॥ ६६ ॥ एतेनैव तु विधिना सौरारदिवाकराश्रितश्चन्द्रः । १ षष्टान्त्यगेषु. २ निष्टितो. ३ भवेदन्धः. ४ निष्ठितो. ५ सुतो धनभे. । निरीक्षित. ७ नयनं हरेद्धरेत्पश्चात्. ८ न्यतरमाश्रितश्चन्द्रः. ९ मानो.
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सारावली ।
कुर्यादृष्टिविकारं नानारोगैर्ध्रुवं जन्तोः ॥ ६७ ॥ एकादशे तृतीये होरायां पापसंयुते शशिनि । कर्णविकलो नरः स्यात्पापग्रहवीक्षिते सद्यः ॥ ६८ ॥ नवमे पञ्चमराशौ पापग्रहवीक्षितौ ग्रहौ स्याताम् । श्रोत्रोपघातमतुलं कुर्यातां जातमात्रस्य ॥ ६९ ॥ नवमे दक्षिणकर्णं वामं वै पञ्चमे ग्रहो हन्यात् । अत्रैव सौम्यभे वा शुभदृष्टे वा शुभं वाच्यम् ॥ ७० ॥ राशौ होरान्तरं प्राप्य यो यस्मिन् व्याधिमाप्नुयात् । तस्य होराप्रसवे चन्द्रस्थानं च यद्भवेत् ॥ ७१ ॥ सव्यापसव्यभागे योगमथैव ग्रहास्तु संप्राप्ताः । कुर्युर्नृणां च चिह्नं व्यङ्गभयं पापवीक्षिताः सौम्याः ॥ ७२ ॥ विदित्वा त्रितयं तत् कृत्स्नस्य तु विशेषतः । शुभाशुभौ तु विज्ञेयौ ग्रहसंयोगकारणौ ॥ ७३ ॥ चन्द्रादित्यौ तृतीयस्थौ मीनक्षेत्रं स यस्य तु । व्याधिं तत्र विजानीयात् त्रिरात्रं तस्य जीवितम् ॥ ७४ ॥ अतस्तृतीये नक्षत्रे समस्ते व्यस्तगेऽपि वा ।
aौ रात्रिं परां जीवेच्चन्द्रे दशममाश्रिते ॥ ७५ ॥ सहितौ चन्द्रजामित्रे यस्याङ्गारकभास्करौ । जातस्य तस्य हि तदा भवेत्सप्ताहजीवितम् ॥ ७६ ॥ चतुरश्रस्थिताः पापा वामदक्षिणगा यदा । तदा यो व्याधिमाप्नोति दशरात्रं स जीवति ॥ ७७ ॥ त्रिकोणे दक्षिणे सूर्यचन्द्रो वामे यदा भवेत् । यस्तदा लभते व्याधिं द्वादशाहं स जीवति ॥ ७८ ॥ त्रिकोणस्थो यदा चन्द्रश्चतुरश्रेऽथ भास्करः । तदा दुर्व्याधिना पुत्रस्त्रिरात्रं नातिवर्तते ॥ ७९ ॥ यदा होरा चतुर्थस्थश्चन्द्रः षष्ठस्थितो रविः । अष्टादशाहं च नरस्तदा व्याधिसमन्वितः ॥ ८० ॥ १ तस्माच्च २ क्षेत्रस्य. ३ भास्करौ.
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दशमोऽध्यायः ।
रविर्यदा चन्द्रमसस्त्रिकोणस्थानमाश्रितः । विंशति दिवसान् जीवेत्तदा व्याधिभयादितः ॥ ८१ ॥ होराष्टमस्थितः सूर्यः सौरभौमनिरीक्षितः । यः पुमान् प्राप्नुयाद्व्याधिं न स जीवेद्विपद्यते ॥ ८२ ॥ होरायां कण्टके भौमो भवेद्यस्य प्रजायतः। न च केन्द्रगतो जीवो जायते मृत एव सः ॥ ८३ ॥ अथ होरागतः सूर्यो न च केन्द्रे बृहस्पतिः । निधने वा परः कश्चित् जातमात्रो विनश्यति ॥ ८४ ॥ होरायां कण्टके चन्द्रो न च केन्द्रे बृहस्पतिः। निधने वा परः कश्चित् जातमात्रो विनश्यति ॥ ८५॥ द्रेक्काणजामित्रगतो यस्य स्याहारुणग्रहः । होरागतः शशाङ्कश्च सद्यो हरति जीवितम् ॥ ८६ ॥ ग्रहाः समेयुर्वहवो निधने यस्य जन्मनि । मासं वा सप्तरात्रं वा तस्यायुः समुदाहृतम् ॥ ८७ ॥ शनैश्चरश्च होरायां निधने च महीसुतः । न च देवगुरुः केन्द्रे मृतगर्भः प्रसूयते ॥ ८८॥ यः प्राग्विलग्ने द्रेक्काणस्तत्समानो यदा ग्रहः । भवेत्रिकोणगाः पापास्तत्समानफलो भवेत् ॥ ८९ ॥ सौरे व्याधिमवाप्नोति मरणं धरणीसुते । सूर्ये स्याद्व्याधिवैकल्यं मरणं नात्र संशयः ॥ ९० ॥ अथ होरागतो भौमः केन्द्रस्थश्च भृगोः सुतः । स वै मरणमाप्नोति होरायां पुनरागते ॥९१॥ गुरुस्त्रिकोणे होरायां होरेशश्च महीसुतः । तस्यान्यतरकेन्द्रस्थः सद्यो जीवितनाशनः ॥ ९२ ॥ न नैधने य॒हः कश्चित् पापो होरागतोऽथवा । केन्द्रे वान्यतरे जीवो जीवत्यष्टशतोत्तरम् ॥ ९३ ॥ न केन्द्रे कश्चिदानेयो न त्रिकोणे न नैधने । गुरुशुक्रौ च केन्द्रस्थौ जीवेदष्टशताधिकम् ॥ ९४ ॥ १ विपत्स्यते. २ पापकः. ३ गुरुः. ४ केन्द्रेष्वन्यतमे.
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सारावली।
यदि होरागतः शुक्रः केन्द्रेष्वन्यतमे गुरुः ।। नैधने न च पापः स्यात् स विशं जीवते शतम् ॥ ९५ ॥ राशौ कर्कटहोरायां गुरुशुक्रौ समन्वितौ । गुरुश्चन्द्रयुतो वाऽपि निधने न च कश्चन ॥ ९६ ॥ न च केन्द्रगताः पापा न त्रिकोने न नैधने । तस्यायुरमरप्रख्यं निश्चयेन च कीर्त्यते ॥ ९७ ॥ निधनास्तव्ययलग्नत्रिकोणगाः क्षीणचन्द्रसंयुक्ताः । पापा बलिनः शुभदैरदृश्यमाना गतायुषः प्रायः ॥ ९८॥ योगे बलिनः स्थानं स्खं वा लग्नं गतेऽपि वा चन्द्रे । बलवति पापैदृष्टे वर्षान्ते मृत्युकालः स्यात् ॥ ९९ ॥ रविचन्द्रभौमगुरुभिः कुजगुरुसौरेन्दुभिस्तथैकस्थैः । रविशनिभौमशशाकैमरणं खलु पञ्चभिवः ॥१०० ॥ रविणा युक्तः शशिजः सौम्यैदृष्टो विनाशयति नूनम् । एकादशभिवषैर्देवाङ्केऽपि स्थितं जातम् ॥ १०१॥ लग्ने रविमन्दकुंजैः शुक्रगृहे सप्तमे शशी क्षीणः । दृष्टो न देवगुरुणा सप्तभिरब्दैविनाशयति ॥१०२॥ केन्द्रे रविमुषिततनुः क्षितिसुतमन्दावलोकितोऽथ युतः । वर्षचतुष्के चन्द्रो मारयति किमत्र गणितेन ॥ १०३ ॥ लग्नाधिपतेश्चन्द्रो मरणपदस्थोऽतिकृष्णतां यातः । क्रूरैः सकलैदृष्टो न शुभैः सर्वैस्त्रिभिस्तु मारयति ॥ १०४॥ लग्नाधिपतिः पापः शशिनोंशे रिःफगो यदि च चन्द्रात् ।
रैर्विलोक्यमानो मारयति शिशुं नवभिरब्दैः ॥ १०५ ॥ दर्शनभागे सौम्याः क्रूराश्चादृश्यके प्रसवकाले । राहुर्लग्नोपगतो यमक्षयं नयति पञ्चभिवः ।। १०६॥ राहुः सप्तमभवने शशिसूर्यनिरीक्षितो न शुभदृष्टः । दशभिर्द्वाभ्यां सहितैरब्दैर्जातं विनाशयति ॥ १०७॥
१ गुरुशुक्रसमन्विते. २ युषं प्रायः. ३ स्थाने. ४ रविशशियुक्तः. ५ कुजाः शत्रुगृहे.
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दशमोऽध्यायः ।
घटसिंहवृश्चिकोदय कृतस्थितिर्जीवितं हरति राहुः । पापैर्निरीक्ष्यमाणः सप्तमितैर्निश्चितं वषैः ॥ १०८ ॥ केतोरुदयं पूर्वः पचादुल्कादिपवननिर्घाताः । रौद्रे सापमुहूर्त प्राणैः सन्त्यज्यते जन्तुः ॥ १०९ ॥ क्षीणं यदा शशाङ्कं पश्येद्राहुः समागतं पापैः । मारयति तदा दिवसैर्निर्व्याजं कतिपयैरेव ॥ ११० ॥ कुम्भे दिशति शशाङ्को भागे मृत्युं तथैकविंशाख्ये । सिंहे च पञ्चमेशे वृ॑षे च नवमे तथैवोक्तः ॥ १११ ॥ अलिनि त्रिविंशयुक्ते मेषे च तथाष्टमे दिशति मृत्युम् । कर्कटके द्वाविंशे तुलिनि चतुर्थे मृगे विंशे ॥ ११२ ॥ कन्यायां प्रथमेशे धनुर्धरेऽष्टादशे झषे दशमे । मिथुने च द्वाविंशे शशी प्रसूतस्य मरणकरः ॥ ११३ ॥ ये भुक्ताः शशिनोंशा जन्मनि वर्षैर्गतैस्तु तावद्भिः । मरणं हि जन्मभाजामप्यन्तकबद्धरक्षाणाम् ॥ ११४ ॥ एवं सर्वप्रयत्नेन जायमानस्य देहिनः । होरास्थानांनि केन्द्राणि चिन्तनीयानि तद्यथा ॥ ११५ ॥ चिन्तयेज्जायमानस्य स्थानराशिषु नित्यशः । बृहस्पतिर्नृणां जीवस्तर्यं नित्यं बृहस्पतेः ॥ ११६ ॥ पञ्चदशषद्समेतश्चत्वारिंशत्तथैकविंशच्च ।
१३.३
शतमर्थ चत्वारिंशत् षष्टिस्त्रिंशत् क्रमायु होरायाः ॥ ११७ ॥ तृतीयचतुर्थपञ्चमसप्तमनवमदशमैकादशगृहेषु जीर्वस्थितौ वर्षाः ।
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अरिष्टाध्यायो दशमः ॥
१ सति च मुहूर्ते. २ तथैकविंशेंशे ३ क्रूरेण वृषे मृतिर्मरणभागे. ४ ये तूक्ताः. ५ स्थानेषु. ६ तस्मान्मृत्युं. ७ तथैव विंशश्च ८ त्रिंशच्चत्वारिंशत्. ९ पञ्चाशदेव यथोक्तहोरायाः. १० वोत्थिता. ११ प्रोक्ताः सहजे तुर्ये पञ्चम के सप्तमे च नवमे च । दशमे चैकादशके गृहेषु जीवस्थितौ वर्षाः ॥ ११८ ॥
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सारावली।
एकादशोऽध्यायः । संभूतारिष्टाख्या भङ्गस्तेषां यथा भवेद्योगैः । तानागमतो वक्ष्ये प्रधानभूता यतस्तेऽत्र ॥१॥ उडुपतिकृतरिष्टानां भङ्गस्तावन्निरूप्यते पूर्वम् । सम्यक् शेषाणामपि यथामतं ब्रह्मपूर्वाणाम् ॥ २॥ सर्वैर्गगनभ्रमणैदृष्टश्चन्द्रो विनाशयति रिष्टम् । आपूर्यमाणमूर्तिर्यथा नृपः सन्नयेद्वेषम् ॥ ३ ॥ चन्द्रः सम्पूर्णतनुः शुक्रेण निरीक्षितः सुहृद्भागे । रिष्टहराणां श्रेष्ठो वातहराणां यथा बस्तिः ॥४॥ परमोच्चे शिशिरतनुभृगुतनयनिरीक्षितो हरति रिष्टम् । सम्यग्विरेकवमनं कफपित्तानां यथादोषम् ॥ ५ ॥ चन्द्रः शुभवर्गस्थः क्षीणोऽपि शुभेक्षितो हरति रिष्टम् । फलमिव महातिसारं जातीफलवल्कलक्कथितम् ॥ ६ ॥ सप्ताष्टमषष्ठस्थाः शशिनः सौम्या हरन्त्यरिष्टफलम् । पापरमिश्रचाराः कल्याणघृतं यथोन्मादम् ॥ ७॥ युक्तः शुभफलदायिभिरिन्दुः सौम्यैर्निहन्त्यरिष्टानि । तेषामेव त्र्यंशे लवणसुतिपूरवच्छ्रवणरोगम् ॥ ८॥ आपूर्यमाणमूर्तिद्वादशभागे शुभस्य यदि चन्द्रः । रिष्टं नयति विनाशं तकाभ्यासो यथा गुदजम् ॥ ९॥ सौम्यक्षेत्रे चन्द्रो होरापतिना विलोकितो हेन्ति । रिष्टं न वीक्षितोऽन्यैः कुलाङ्गनाऽकुलमिवान्यगता ॥ १० ॥ क्रूरभवने शशाङ्को भवनेशनिरीक्षितस्तदनुवर्गे । रक्षति शिशुं प्रजातं कृपण इव धनं प्रयत्नेन ॥ ११ ॥ जन्माधिपतिर्बलवान् सुहृद्भिरभिवीक्षितः शुभैर्भङ्गम् । रिष्टस्य करोति सदा भीरुरिव प्राप्तसंग्रामः ॥ १२ ।। जन्माधिपतिर्लग्ने दृष्टः सर्वैर्विनाशयति रिष्टम् । घृष्टोषणविदलाभ्यां प्रत्येककृताञ्जनं यथा शुक्लम् ॥१३॥ १ भूतानतस्तत्र. २ सम्यक्. ३ शेषाणामपि पश्चात्. ४ सुनयविद्वेष्टन्. ५ पित्तकफानां. ६ दाडिम. ७ सवैर्निहन्त्यरिष्टानि. ८ शूलम्. ९ हरति. १० जन्मेशो लग्नेश्वरदृष्टः सर्व.
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द्वादशोऽध्यायः । खोच्चस्थस्वगृहेऽथवापि सुहृदां वर्गऽपि सौम्येऽथवा
संपूर्णः शुभवीक्षितः शशधरो वर्गे स्वकीयेऽथवा । शत्रूणामवलोकने न पतितः पापैरयुक्तेक्षितो
रिष्टं हन्ति सुदुस्तरं दिनपतिः पालेयराशिं यथा ॥ १४ ॥ शशिनोऽन्ये बुधसितयोराये क्रूरेषु वाक्पतौ गगने । दुरितं चातुर्थिकमिव नश्यति मुनिकुसुमरसनस्यैः ॥ १५ ॥ लग्नेश्वरस्य चन्द्रः षत्रिदशायहिबुकेषु शुभदृष्टः । क्षपयति समस्तरिष्टान्यनुयाँते नृपतिरोध इव ॥ १६ ॥ एको जन्माधिपतिः परिपूर्णबलः शुभैदृष्टः ।। हन्ति निशाकररिष्टं व्याघ्र इव मृगान् वने मतः ॥१७॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चन्द्रारिष्टभङ्गो नामैकादशोऽध्यायः ।।
द्वादशोऽध्यायः । सर्वातिशाय्यतिबलः स्फुरदंशुमाली
लग्ने स्थितः प्रशमयेत् सुरराजमन्त्री । एको बहूनि दुरितानि सुदुस्तराणि __ भक्त्या प्रयुक्त इव चक्रधरे प्रणामः ॥ १॥ सौम्यग्रहैरतिबलैर्विबलैश्च पापै
लग्नं च सौम्यभवने शुभदृष्टियुक्तम् । सर्वापदाविरहितो भवति प्रसूतः ।
पूजाकरः खलु यथा दुरितैर्ग्रहाणाम् ॥ २॥ पापा यदि शुभवर्गे सौम्यैदृष्टाः शुभांशवर्गस्थैः । निघ्नन्ति तदा रिष्टं पतिं विरक्ता यथा युवतिः ॥ ३॥ राहुस्त्रिषष्ठलामे लग्नात् सौम्यैर्निरीक्षितः सद्यः । नाशयति सर्वदुरितं मारुत इव तूलसंघातम् ॥ ४ ॥
१ स्वोच्चे वा. २ वर्गेथ. ३ सौम्येऽपि. ४ अनुयातो निरुप, रिष्टं वारयते. ५ शुभग्रहैदृष्ट : ६ मत्तान्. ७ सर्वानिमानतिबलः, सर्वातिगाम्यतिबला. ८ जालो. ९ शूलधरे. १० भवनं. ११ भृगुदृष्टिपुष्टम्. १२ युक्त. १३ सर्वापदाभिरहितो.
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सारावली ।
शीर्षोदयेषु राशिषु सर्वैर्गगनाधिवासिभिः सूतौ । प्रकृतिस्यैश्चारिष्टं विक्रियेते घृतमिवाग्निष्ठम् ॥ ५॥ तत्काले यदि विजयी शुभग्रहः शुभनिरीक्षितो वर्गे । तेर्जयति सर्वरिष्टं मारुत इव पादपान् प्रबलः ॥ ६ ॥ परिविष्टो गगनचरः क्रूरैश्च विलोकितो हरति पापम् । स्नानं सन्निहितानां कृतं यथा भास्करग्रहणे ॥ ७ ॥ स्निग्धमृदुपवर्नभाजो जलंदाच तथैव खेचराः शस्ताः । स्वस्थः क्षणाच रिष्टं शमयन्ति रजो यथाम्बुधारौघः ॥ ८ ॥ उदये चागस्त्यमुनेः सप्तर्षीणां मरीचिपुत्राणाम् । सर्वारिष्टं नश्यति तम इव सूर्योदये जगतः ॥ ९ ॥ अजवृषककिंविलग्ने रक्षति राहुः समस्तपीडाभ्यः । पृथ्वीपतिः प्रसन्नः कृतापराधं यथा पुरुषम् ॥ १० ॥ नेन भङ्गमपरे सरोजजन्मातिविस्मयं कुरुते । तज्ज्ञेः कष्टमनिष्टं समतटदेशे यथा किरंटः ॥ ११ ॥ बहवो यदि शुभफलदाः खेटास्तत्रापि शीर्यते रिष्टम् । सूर्यात् त्रिकोण इन्दौ यथैव यात्रा नरेन्द्रस्य ॥ १२ ॥ गुरुशुक्रौ च केन्द्रस्थौ जीवेद्वर्षशतं नरः । गृहानिष्टं हिनंस्त्याशु चन्द्रानिष्टं तथैव च ॥ १३ ॥ बन्ध्वास्पदोदयविलग्नगतौ कुलीरे
३६.
गीर्वाणनाथसचिवः सकलश्च चन्द्रः । जूके रवीन्दुतनयावपरे च लाभे
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दुश्चिक्यशत्रुभवनेष्वमितं तदायुः ॥ १४ ॥ एते सर्वे भङ्गा मया निरुक्ताः पुरातनाः सिद्धाः । यैज्ञातैर्देवविदो नरेन्द्र वाल्लभ्यमायान्ति ॥ १५ ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावत्यां अरिष्टभङ्गो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥
१. विलीयते २ वर्जयति. ३ हितायां. ४ पवनविरजो. ५ जलजा. ६ स्वस्थाः . १ शास्ति... ८ शमयति हि. ९ यथाम्बुधराः १० पूर्वाणां ११ यातैस्त्रिभागमपरैः.
११ तज्जः १३. सरदः १४ भिनत्त्याशु.
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त्रयोदशोऽध्यायः।
त्रयोदशोऽध्यायः। सुनफाऽनफादुरुधरा भवन्ति योगाः क्रमेण रविरहितैः । वित्तान्त्योभयसंस्थैः कैरववनबान्धवाद्विहगैः ॥१॥ एते न यदा योगाः केन्द्रग्रहवर्जितः शशाङ्कश्च ।
केमद्रुमोऽतिकष्टः शशिनि समस्तग्रहादृष्टे ॥२॥ सुनफानफासरूपास्त्रिंशद्योगा(३०)स्त्रिसंगुणा षष्टिः (१८०) संख्या दौरुधुराणां प्रस्तारविधौ समाख्याताः ॥ ३॥
श्रीमान् स्वबाहुविभवो बहुधर्मशीलः
शास्त्रार्थविद्वंहुयशाः स्वगुणाभिरामः । शान्तः सुखी क्षितिपतिः सचिवोऽथ वा स्यात्
सूतः पुमान् विपुलधीः सुनफाभिधाने ॥४॥ वाग्मी प्रभुर्द्रविणवानगदः सुशीलो - भोक्तानपानकुसुमाम्बरंभामिनीनाम् । ख्यातः समाहितगुणः सुखशस्तचित्तो _योगे निशाकरकृते त्वनफे सुवेषः ॥ ५॥ वाग्बुद्धिविक्रमगुणैः प्रथितः पृथिव्यां
स्वातन्त्र्यसौख्यधनवाहनभोगभोगी। दाता कुटुम्बंधनपोषणलब्धखेदः
सद्वृत्तवान् दुरुधुराप्रभवो धुरिस्थः ॥ ६ ॥ कान्तान्नपानगृहवस्त्रसुहृद्विहीनो ___ दारिद्यदुःखगददैन्यमलैरुपेतः । प्रेष्यः खलः सकललोकविरुद्धवृत्तिः
केमद्रुमे भवति पार्थिववंशजोऽपि ॥७॥ केन्द्रादिस्थैर्ग्रहयोगाः कीर्तिता येऽनफादयः । तान् प्रधानान् समानान् स्वांश्चन्द्ररूपान्विचिन्तयेत् ॥८॥ भौमादीनां बलं देशं जातस्य च कुलं बुधः । विज्ञाय प्रवदेत् सम्यक् सुनफादिकृतं फलम् ॥ ९॥ १ च सर्व. २ पृथु. ३ सुगुणो. ४ कान्तः. ५ कामिनीनाम्. ६ वित्तो. ७ भागी. ८ दान्तः. ९ जनपोषण. १० बन्धुगृहवस्त्र..
४ सारा० .
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सारावली । विक्रमवित्तप्रायो निष्ठुरवचनश्चमपतिश्चण्डः । हिंस्रो दम्भविरोधी सुनफायां भौमसंयोगे ॥ १० ॥ श्रुतिशास्त्रगेयकुशलो धर्मपरः काव्यकृन्मनस्वी च । सर्वहितो रुचिरतनुः सुनफायां सोमजे भवति ॥ ११ ॥ विद्याचार्य ख्यातं नृपतिं नृपतिप्रियं वाऽपि । सुकुटुम्बधनसमृद्धं सुनफायां सुरगुरुः कुरुते ॥ १२ ॥ स्त्रीक्षेत्रवित्तविभवश्चतुष्पदाढ्यः सुविक्रमो भवति । नृपसत्कृतः सुधीरो दक्षः शुक्रेण सुनफायाम् ॥ १३ ॥ निपुणमतिमपुरैर्नित्यं संपूजितो धनसमृद्धः । सुनफायां रविपुत्रे क्रियासु गुप्तो भवेद्धीरः ॥ १४ ॥
इति सुनफाँप्रकारः। चोरस्वामी धृष्टः स्ववंशो मानी रणोत्कटः क्रोधी । श्रेष्ठः श्लाघ्यः सुतनुः कुजेऽनफायां सुलाभश्च ॥ १५ ॥ गन्धर्वलेखनपटुः कविः प्रवक्ता नृपाप्तसत्कारः । रुचिरतनुस्त्वनफायां प्रसिद्धकर्मा बुधेन भवेत् ॥ १६ ॥ गाम्भीर्यसत्वमेधास्थानरतो बुद्धिमान् नृपाप्तयशाः । अनफायां त्रिदशगुरौ संजातः संत्वविद्भवति ॥ १७॥ युवतीनीमतिसुभगः प्रणयी क्षितिपस्य 'गोपतिः ख्यातः । कान्तः कनकसमृद्धस्त्वनफायां भार्गवे भवति ॥ १८॥ विस्तीर्णभुजो नेता गृहीतवाक्यश्चतुष्पदसमृद्धः । दुर्वनिताया भक्तो गुणसहितश्चार्कपुत्रेण ॥ १९॥
इत्यनफाप्रकरणम् । आनृतिको बहुवित्तो निपुणोऽतिशठोऽधिको लुब्धः । वृद्धासतीप्रसक्तः कुलाग्रणीः शशिनि भौमबुधमध्ये ॥ २० ॥ ख्यातः कर्मसु विभवी बहुजनवैरस्त्वमर्षणो हृष्टः । कुलरक्षी कुजगुर्वोः सङ्ग्रहशीलः शशिनि मध्ये ॥ २१ ॥ १ रतः. २ वित्तगृहवां. ३ प्रकरणम्. ४ वंश.५ सेव्य. ६ प्रगल्भश्च. ७ गान्धर्व. ८ शुभो. ९ सत्कविर्भवति. १० युवतिजनानां. ११ भोगवान् कान्तः. १२ कनकसमृद्धश्चण्ड. १३ भर्ता । दुर्वनितायां सक्तस्त्वनफायामर्कपुत्रेण. १४ गुणाधिको.
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त्रयोदशोऽध्यायः। उत्तमरामः सुभगो विवादशीलः शुचिर्भवेद्दक्षः । व्यायामी रणशूरः सितारयोर्मध्यगे चन्द्रे ॥ २२ ॥ कुत्सितयोषिमणो बहुसंचयकारको व्यसनतप्तः । क्रोधी पिशुनो रिपुमान् यमारयोः स्यादुरुधुरायाम् ॥ २३ ॥ धर्मपरः शास्त्रज्ञो वाचालः सत्कविर्धनोपेतः । त्यागयुतो विख्यातो बुधगुरुमध्ये स्थिते चन्द्रे ॥ २४ ॥ प्रियवाक् सुभगः कान्तः प्रवृत्तगेयादिषु प्रियो भवति । सेव्यः शूरो मत्री बुधसितयोर्दुरुधुरायोगे ॥ २५ ॥ देशाद्देशं गच्छति वित्तपरो नातिविद्यया सहितः । चन्द्रेऽन्येषां पूज्यः स्वजनविरोधी ज्ञमन्दयोर्मध्ये ॥ २६ ॥ धृतिमेधाशौर्ययुतो नीतिज्ञः कनकरत्नपरिपूर्णः । ख्यातो नृपकृत्यकरो गुरुसितयोर्दुरुधुरायोगे ॥ २७॥ सुखनयविज्ञानयुतः प्रियवाग्विद्वान् धुरंधरोऽप्यायः । शान्तो धनी सुरूपश्चन्द्रे गुरुभानुजान्तस्थे ॥ २८॥ वृद्धचरितं कुलाय्यं निपुणं स्त्रीवल्लभं धनसमृद्धम् । नृपसत्कृतं बहुधनं कुरुते चन्द्रः सितासितयोः ॥ २९ ॥
इति दुरुधुराप्रकरणम् । सूर्यात् केन्द्रादिगतो निशाकरः स्वल्पमध्यभूयिष्ठान् । कुर्यात्क्रमेण धनधीनैपुणविज्ञानविनयांश्च ॥ ३० ॥ औत्पातिकः कृशतनुर्निशि चाप्यदृश्यो
दृश्यो दिवा शिशिरगुर्भयशोकदः स्यात् । एवं स्थितः समफलं पृथिवीपतित्वं ___यातोऽन्यथा प्रकुरुते परिपूर्णमूर्तिः ॥ ३१ ॥ लग्नादुपचयसंस्थैः शुभैः समस्तैर्महाधनो द्वाभ्याम् । मध्यं चैकेनाधममेवं चन्द्रादपि तदूनः ॥ ३२ ॥
१ उत्तमरामा, उत्तमकामः. २ द्रविणो. ३ रिपुहा यमारयोः. ४ उत्पातिकः, अल्पात्मजः. ५ कृष्णे तु शीतकिरणो.
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: सारावली ।। अधियोगादयोऽन्येऽपि मयात्रैव न कीर्तिताः । नृपयोगां यतस्ते हि वक्ष्ये तत्रैव तानहम् ॥ ३३ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चन्द्रविधिर्नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥
चतुर्दशोऽध्यायः । सूर्याद्व्ययगैाशिद्वितीयगैश्चन्द्रवर्जितैवेशिः । उभयस्थितैर्ग्रहेन्द्रैरुभयचरी नामतः प्रोक्ता ॥१॥ मन्ददृशं स्थिरवचनं परिभूतपरिश्रमं नतोवंतनुम् । कथयति यवनाधिपतिर्वेशिसमुत्थं तथा पुरुषम् ॥ २॥ वसुसंचयवित्ससुहृत्स्याद्वेशौ सुरगुरौ भवति जातः । भीरुः कार्योंद्विग्नो लघुचेष्टो भृगुसुते पराधीनः ॥३॥ परिकर्मको दरिद्रो मृदुर्विनीतो बुधे सलजश्च । मार्गलघुः क्षितिपुत्रे परोपकारी नरो वेशौ ॥४॥ परदाररतश्चण्डो वृद्धाकारः शठो घृणी । भवेन्मनुष्यः सधनो याते वेशिं शनैश्चरे ॥ ५॥
इति वेशिप्रकरणम् ।। उत्सृष्टवचाः स्मृतिमानुद्योगयुतो निरीक्षते तिर्यक् । पूर्वशरीरे पृथुलो नृपतिसमः सात्विको वाशौ ॥६॥ धृतिसत्वबुद्धियुक्तो भवति गुरौ वाशिके पवनसारः। शूरः ख्यातो गुणवान् यशस्करो भार्गवे पुरुषः ॥७॥ प्रियभाषी रुचिरतनुर्वाश्यां स्याद्वोधने पराज्ञाकृत् । । सङ्ग्रामे विख्यातो भूमिसुते नान्यवाक्यश्च ॥ ८॥ वणिक् कुलस्वभावः स्यात्परद्रव्यापहारकः । गुरुद्वेषी सुनिस्त्रिंशो गते वाशिं शनैश्चरे ॥९॥ संनिरीक्ष्य रवेवीर्य ग्रहाणां चापि तत्त्वतः ।
राश्यंशसङ्गमात्सर्व फलं ब्रूयाद्विचक्षणः ॥ १० ॥ . १ येऽपि. २ वाशी तद्धनगैश्चन्द्रवर्जितैः. ३ र्वेशी. ४ कर्कशो. ५ मार्गनः. ६ वचनसारः. ७ बलवान्. ८ भाग्यश्च. .९ खल.
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पञ्चदशोऽध्यायः । सर्वंसहः सुभद्रः समकायः सुस्थिरो विपुलसत्वः । नात्युच्चः परिपूर्णो विद्यायुक्तो भवेदुभयचर्याम् ॥ ११ ॥ सुभगो बहुभृत्यधनो बन्धूनामाश्रयो नृपतितुल्यः । नित्योत्साही हृष्टो भुङ्क्ते भोगानुभयचर्याम् ॥ १२ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां वेशिवाश्युभयचर्यायां चतुर्दशोध्यायः ।.
पञ्चदशोऽध्यायः । यवनाचार्यैर्वृद्धैर्द्विग्रहयोगेषु यत्फलं प्रोक्तम् । तदहमपहाय मत्सरमधुना वक्ष्ये विशेषेण ॥१॥ युवतीनां वशगः स्यादविनीतः कूटवित्पृथुलवित्तः । आसवविक्रयकुशलो रव्युडुपत्योः क्रियानिपुणः ॥ २॥ ओजस्वी साहसिको मूल् बलसत्वसंयुतोऽनृतवाक् । पापमतिर्वधनिरतो रविकुजयोः स्यात् प्रचण्डश्च ॥३॥ सेवाकृदस्थिरधनो रविज्ञयोः प्रियवचा यशोर्थः स्यात् । आर्यः क्षितिपतिदयितः सतां च बलरूपवित्तविद्यावान् ॥ ४ ॥
बहुधर्मो नृपसचिवः समृद्धिमान्मित्रसंश्रयाप्तार्थः । सूर्ये बृहस्पतियुते भवेदुपाध्यायसंज्ञश्च ॥ ५॥ शस्त्रप्रहरणविद्याशक्तियुतो नेत्रदुर्बलश्वरमे । रङ्गज्ञो रविसितयोः स्त्रीसङ्गालब्धवन्धनः ॥६॥ धातुज्ञो धर्ममयः स्वधर्मनिरतः प्रणष्टसुतदारः । निजवंशगुणैः शुद्धः शनिरव्योरल्पशीलश्च ॥ ७ ॥ शूरो रणप्रतापी मल्लोऽसृग्वेदनातदेहश्च ।। मृचर्मधातुशिल्पी कूटज्ञश्चन्द्रकुजयोगे ॥ ८॥ काव्यकथास्वतिनिपुणः सधनः स्त्रीसंमतः सुरूपश्च । -स्मितवदनः शशिबुधयोधर्मरुचिः स्याद्विशिष्टगुणः ॥ ९ ॥
१ सुसमहक, २ परिपूर्णः सिंहग्रीवो भवेदुभयचर्याम्. ३ कूटकृत् प्रलघुचित्तः. ४ निष्ठो... ५ सुबुद्धिमान्.. .६ चरभे. ७ जनः. ८ खकर्म. ९ सिद्धाः १० वेदनाप्तदाह. ११ रतिः.
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सारावली ।
दृढसौहृदो विनीतः खबन्धुसंमानवर्धनेशश्च ।। गुर्विन्द्वोः शुभशीलः सुरद्विजेभ्यो रतो भवेत्पुरुषः ॥१०॥ स्रग्धौताम्बरयुक्तः क्रियाविधिज्ञः कुलप्रियोऽत्यलसः ।
क्रयविक्रयेषु कुशलः शशिभार्गवयोः सदा योगे ॥ ११॥ जीर्णवेधूजनरमणो गजाश्वसम्पादको विगतशीलः । वश्यो विधनः पुरुषः पराजितः स्याच्छशाङ्कशनियोगे ॥ १२ ॥ स्त्रीदुर्भगोऽल्पवित्तः सुवर्णलोहप्रकारकः स्थपतिः । दुष्टस्त्रीविधवानां कुजबुधयोरौषधक्रियानिपुणः ॥ १३॥ शिल्पश्रुतिशास्त्रज्ञो मेधावी वाग्विशारदो मतिमान् । अस्त्रप्रियप्रधानः सुरगुरुकुजयोः समागतयोः ॥ १४ ॥ पूज्यो गणप्रधानो गणितज्ञः परयुवतिभी रतो धूर्तः । द्यूतानृतशाठ्यरतो विटैश्च सितरुधिरसंयोगे ॥ १५ ॥ धात्विन्द्रजालकुशलः प्रवञ्चकस्तेयकर्मकुशलश्च । कुजसौरयोर्विधर्मः शस्त्रविषघ्नः कलिरुचिः स्यात् ॥ १६ ॥ . नृत्तविधेर्विज्ञाता प्राज्ञोऽपि च गेयशस्त्रविन्मनुजः । बुधगुरुयोगे मतिमान्सौख्ययुतो जायतेऽवश्यम् ॥ १७॥ अतिशयधनो नयज्ञो बहुशिल्पो वेदवित्सुवाक्यः स्यात् ।
गीतज्ञो हास्यरतिर्बुधसितयोर्गन्धमाल्यरुचिः ॥१८॥ ऋणवान् डॅम्भप्रायः प्रपञ्चकः सत्कविर्गमनशीलः । निपुणः शोभनवाक्यो बुधशनियोगे पुमान् भवति ॥ १९॥
जीवति विद्यावादैर्विशिष्टधर्मस्थितः प्रमाणयुतः । जीवसितयोर्मनुष्यो विशिष्टदारो भवेन्मतिमान् ॥ २० ॥ शूरो वित्तसमृद्धो नगराधिपतियशस्वी च । शनिजीवयोः प्रधानः श्रेणिसभाग्रामसंघानाम् ॥ २१ ॥
१ संमानकृद्धनेशश्च. २ हितो. ३ धूपां. ४ कवि. ५ वधूनां. ६ सम्पालको. ७ शिल्पी. ८ योगे. ९ युवतिको. १० विटः सिते रुधिरसंयुते भवति. ११ प्रपञ्चकस्तोयकर्म. १२ वाद्य. १३ गुणवान्. १४ दम्भ. १५ वेद. १६ भवेद्धनवान्, १७ नगराधिपतिः सुखी यशस्वी च.
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षोडशोऽध्यायः । दारुविदारणदक्षः क्षुरचित्राश्मादिकर्मशिल्पी च । मल्लोऽटनः पशुपतिः शनिसितयोगे पुमान् भवति ॥ २२ ॥ उक्तं फलं गगनगा यद्यन्योन्यगणस्थिताः । अधमादि विकल्पेन कुर्वन्ति विकृति तथा ॥ २३ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां द्विग्रयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥
षोडशोऽध्यायः। निर्लजः पापरतो यत्रज्ञः शत्रुदारणे शूरः । अश्मक्रियासु कुशलः सहस्थितैः सूर्यशशिभौमैः ॥ १॥ तेजस्वी निपुणमतिः शास्त्रकलागोष्ठिपानरतः । नृपकृत्यकरो धीरो रविशशिशशिजैः सहैकस्थैः ॥ २॥ क्रुद्धो मायानिपुणः सेवाकुशलो विदेशगमनरतः। मेधावी चपलमतिः सहस्थितैरर्कशशिजीवैः ॥३॥ परधनहरणे निपुणः परदाररतश्च शास्त्रनिपुणश्च । रविचन्द्रदैत्यपूज्यैरेकस्थैर्जायते मनुजः ॥४॥ कामे विवादकुशलो मूर्खः परतत्रगो दरिद्रश्च । सूर्यनिशाकररविजैरेकस्थैर्जायते मनुजः ॥ ५ ॥ भवति ख्यातो मलः साहसिको निष्ठुरो विगतलजः । धनसुतकलत्ररहितः सहस्थितैरर्ककुजसौम्यैः ॥ ६॥ वचसि निपुणो महार्थः क्षितिपतिमत्री च भूपतिर्वाऽपि । सत्यवचनः प्रचण्डः सहस्थितीमगुरुसूर्यैः ॥ ७॥ नयनातुरः कुलीनः सुभगो वाक्शल्यसंयुतो मनुजः । भृगुभौमदिवसनाथैः सहस्थितैः स्याद्विभवयुक्तः ॥८॥ विकलाङ्गो धनरहितो नित्यं रोगान्वितो मनुजः । खजनरहितोऽतिमूर्खः क्षितिजार्कजभानुभिः सहितैः ॥९॥ नेत्रातुरोऽतिधनवान् मूर्खः शास्त्रादिशिल्पकाव्यरतः । वाचस्पतिबुधसूर्यरेकेगतैर्लिंपिकरः पुरुषः ॥ १० ॥ १अखिल. २ रतो. ३ कामविवादे.४ चमूपतिः. ५ शास्त्रकथाकाव्यगोष्टिशिल्परतः.
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सारावली । अतितप्तो वाचाटो भ्रमणरुचिः प्रोषितो गुरुभिः ।। स्त्रीहेतोः सन्तप्तः शशिसुतरविभार्गवैः सहितैः ॥ ११ ॥ क्लीबाचारो द्वेष्यः सर्वजितो बन्धुभिः परित्यक्तः । सौरादित्येन्दुसुतैरेकस्थैर्जायते पुरुषः ॥ १२ ॥ दुर्बलचक्षुः शूरः प्राज्ञो निःस्वश्च भूपतेः सचिवः । परकार्यरतो नित्यं भार्गवगुरुभास्करैः सहितैः ॥ १३ ॥ असदृशकायः पूज्यः स्वजनद्वेष्यः सुदारसुतमित्रः । नृपतीष्टो विगतभयो जीवार्कजदिनकरैः सहितैः ॥ १४ । शत्रुभयात्सोद्वेगो मानकलाकाव्यवर्जितो मनुजः । कुत्सितचरितः कुष्ठी सितार्किरविसंयुतैर्भवति ॥ १५ ॥ पापकरा जायन्ते नीचाचाराः सुहृत्स्वजनहीनाः । आजीविनश्च पुरुषाः शशाङ्कबुधभूमिजैः सहितैः ॥ १६ ॥ विनताङ्गः स्त्रीलोलश्चोरः कान्तश्च संमतः स्त्रीणाम् । भौमशशाङ्कसुरेज्यैरेकस्थै श्वण्डरोषश्च ॥ १७॥ दुःशीलायाः पुत्रः पतिश्च तस्याः सदैव निर्दिष्टः । कुजभृगुशशिभिः सहितैर्धमणरुचिः शीतभीतश्च ॥ १८ ॥ बाल्ये मृतजननीकः क्षुद्रो विषमश्च लोकविद्विष्टः । जायेत नरो योगे भूसुतशशिभास्करसुतानाम् ॥ १९॥ धनवान्कल्यो वाग्मी तेजस्वी ख्यातिमान्विपुलकीर्तिः । बहुपुत्रभ्रातृयुतो बुधेन्दुसुरपूजितैर्युक्तैः ॥ २० ॥ विद्यासंस्कृतमतिरपि नीचाचारः पुमान्भवेजातः । सौम्यो धनप्रलुब्धो बुधभार्गवचन्द्रसंयोगे ॥ २१॥ अस्वस्थो विकलाङ्गः प्राज्ञो वाग्मी सुपूजितः क्षितिपः । भवति नरः संयोगे सौरेन्दुशशाङ्कपुत्राणाम् ॥ २२॥ साध्वीतनयः प्राज्ञः कलास्वभिज्ञो बहुश्रुतः साधुः । भार्गवगुरुशशियोगे जातः सुभगो भवेत्पुरुषः॥ २३॥ शास्त्रार्थतत्त्वबुद्धिवृद्धस्त्रीसङ्गतो विगतरोगः ।
शशिवाचस्पतिसौरैरेकस्थैर्यामवृन्दपतिः ॥ २४ ॥ -१ अभिशस्तो. २ व्रणिताङ्गः. ३ भीरुश्च. ४ से?.५ अस्वातच्यो विकलः. ६ रोषः.
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षोडशोऽध्यायः। लिपिकरपुस्तकवाचकपुरोधसां भवति जन्म सुकृतैश्च ।
दैवविदां पुरुषाणां शशिभार्गवसौरिसंयोगे ॥ २५ ॥ 'सुकविः क्षोणीनाथः सधुवतिपतिः परार्थ उद्युक्तः । गान्धर्ववेदकुशलः स्यादुधगुरुभूसुतैः सहितैः ॥ २६ ॥ अकुलीनो विकलाङ्गश्चपलो दुष्टश्च जायते मनुजः । मुखरो नित्योत्साही कुजबुधभृगुनन्दनैः सहितैः ॥ २७ ॥ प्रेष्यः श्यामलनेत्रः प्रवासशीलो भवेद्वदनरोगी। रमते प्रहसनशीलैबुंधार्किरुधिरैः सहैकस्थैः ॥ २८॥ नृपतीष्टः सत्सुतवान्विलासिनीभ्यः सदाप्तबहुसौख्यः । सकलजनानन्दकरो भार्गवगुरुभूमिजैः सहितैः ॥ २९ ॥ नृपसंमतः क्षताङ्गो नीचाचारो विगहितो मित्रैः । भवति नरो विगतघृणः सुरेज्यकुजसौरिसंयोगे ॥ ३०॥ चारित्रविहीनायाः पुत्रो भर्ता भवेत्सुखविहीनः । नित्यं प्रवासशीलः संयुक्तैः सौरिकुजशुक्रैः ॥३१॥ सुतनुः क्षपितारिगणो नृपतिः सुभगस्तथा पृथुलकीर्तिः । बुधगुरुशुक्रः सहितैर्भवति नरः सत्यवचनश्च ॥ ३२ ॥ स्थानधनैश्वर्ययुतं प्राज्ञं बहुभोगिनं स्वदाररतम् । धृतिसौख्यरतं सुभगं जनयन्ति बुधार्कजीवाख्याः ॥ ३३ ॥ मुखरो धूर्तोऽनृतवाक् परयुवतिरतो भवेद्विषमशीलः । बुधशुक्रसूर्यतनयैः कलास्वभिज्ञः स्वदेशरतः ॥ ३४॥ न्यूने कुलेऽपि जातो भवति नरो भूपतिर्विपुलकीर्तिः । गुरुभार्गवदिनकरजैरेकस्थैः शीलसम्पन्नः ॥ ३५॥ पापैर्युक्ते चन्द्रे मातुरभावः प्रकीर्तितप्रायः । सूर्ये पितुस्तथान्यैः शुभं वदेन्मिश्रितैर्मिश्रम् ॥ ३६॥ प्रायः शुभाः समेता धनभूतियशोन्वितं नृपतिचेष्टम् । उत्पादयन्ति मनुजं भूमण्डलमण्डनं श्रेष्ठम् ॥ ३७॥
१ विपुलकीतिः. २ मान. ३ युतं.
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४६
सारावली । पापास्त्रयोऽपि मिलिताः कुर्वन्ति नरं सुदुर्भगं लोके । दारिद्यदुःखतप्तं गर्हितरूपं विनयहीनम् ॥ ३८ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां त्रिग्रहयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥
सप्तदशोऽध्यायः। लिपिकरतस्करमुखरो रोगी मायाप्रपञ्चकुशलश्च । बुधरविभौमशशाकैरेकर्भगतैः पुमान्भवति ॥१॥ धनवान्वनितानिन्धस्तेजस्वी नीतिमान्विगतशोकः । कर्मसमर्थों निपुणः शशिकुजगुरुभास्करैः सहितैः ॥ २ ॥ आयोचितवाग्वृत्तिः सुखभाङ् निपुणोऽर्थसंग्रहणशीलः । विद्यासुतदारयुतः शशिकुजभृगुभास्करैः सहितैः ॥ ३॥ विषमशरीरो ह्रखो धनरहितो याचिताशनो मूर्खः । गम्यः सर्वस्य तथा रविशशिकुजसौरिसंयोगे ॥४॥ सौर्णिकः प्लुताक्षः शिल्पकरो वा महाधनो धीरैः । जातः स्यान्निरुजतनुः शशिज्ञगुरुभास्करैः सहितैः ॥ ५॥ विकलः सुभगो वाग्मी हस्खो नृपसंमतो मनुजः।। जातः स्यादेकस्थै रविशशिबुधभार्गवैः सहितैः ॥६॥ मातृपितृविप्रयुक्तो धनसौख्यविवर्जितो भ्रमणशीलः । भिक्षाशनोऽप्यनृतवाक् रवीन्दुसौम्यार्किभिर्नियतम् ॥ ७॥ सलिलमृगारण्यानां स्वामी स्यात्सौख्यभा भवति पूज्यः । शुक्रार्कगुरुशशाङ्करेकर्लगतैः पुमान् निपुणः ॥ ८॥ तामसनेत्रस्तीक्ष्णो बहुसुतवित्तो वराङ्गनासुभगः। सूर्येज्यचन्द्रसौरैरेकस्थैर्जायते पुरुषः ॥९॥ वनितासदृशाचारः पुरःसरोऽत्यन्तदुर्बलशरीरः । भीरुः सर्वत्र भवेदकेंन्दुसितासितैः सहितैः ॥ १० ॥ शूरोऽथ सूत्रकारश्चक्रधरो वा विपन्नदारधनः । दुःखार्णवोऽटनपरः सुसङ्गतैरर्कजीवबुधभौमैः॥ ११॥ । १ उग्रो हुतभुक्तीव्रः. २ सौवर्णकः. ३ वीरः, ४ गाम्भीर्यो रुचिर. ५ त्रस्ताक्षो भूपसंमतो, पिङ्गाक्षो भूपसंमतो. ६ नृपतिपूज्यः. ७ चरो.
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सप्तदशोऽध्यायः । परदाररतश्चोरो विषमाङ्गो दुर्जनो विगतसत्वः । भवति प्रसवे पुरुषो रविसितभौमेन्दुजैः सहितैः ॥ १२ ॥ योद्धा प्राज्ञस्तीक्ष्णो नीचाचारः कविप्रधानश्च । .. मन्त्री च भूपतिर्वा बुधार्ककुजसौरिसंयोगे ॥ १३ ॥ सुभगः पूज्यो लोके धनवान् नृपसंमतो भुवि ख्यातः । रविभौमजीवशुऊरेकस्थै नीतिमान्पुरुषः ॥१४॥ सोन्मादो गणमान्यः सिद्धार्थों बन्धुमित्रसंपृक्तः । भानुकुजजीवसौरैः संयुक्तैर्वा नृपाभिमतः ॥१५॥ विकलो नीचाचारो विषमाक्षो बन्धुविद्विष्टः । . सूर्यकुजशुक्रसौरैः पराभवं सर्वतो याति ॥ १६ ॥ धनवान्सुखप्रधानः सिद्धार्थों बन्धुमान् प्रकृष्टश्च । भानुबुधजीवशुऊर्भवति पुमानेकराशिगतैः ॥१७॥ क्लीवाचारो मानी कलहरुचिः सहजवान् निरुत्साहः । अर्कार्किबुधसुरेज्यैरेकस्थैर्जायते पुरुषः ॥ १८ ॥ मुखरः सुभगः प्राज्ञो मृदुसौख्यः सत्वशौचसंपन्नः । धीरो मित्रसहायो रविबुधसित सौरिसंयोगे ॥ १९ ॥ लुब्धः कविः प्रधानः कारुकनाथोऽधिपश्च नीचानाम् । आदित्यार्किसितायें राज्ञा जातो भवेदिष्टः ॥ २० ॥ शास्त्रकुशलो नरेन्द्रः सुमहामत्रोऽथवा महाबुद्धिः । शशिकुजसोमजजीवैरेकस्थैर्यः पुमाञ्जातः ॥ २१ ॥ कलहरुचिर्निद्रालुर्नीचः स्याद्वर्धकीपतिः सुभगः । बन्धुद्वेष्टा न सुखी शशिकुजबुधभार्गवैः सहितैः ॥ २२ ॥ शूरो विमातृपितृको दुष्कुलजो बहुकलत्रमित्रसुतः। भवति सुकर्माभिरतः शशिकुजबुधसौरिसंयोगे ॥ २३॥ विकलाङ्गः सुकलत्रः सकलसहोऽतीव मानसंयुक्तः। प्राज्ञो बहुमित्रसुखः शशिकुजगुरुभार्गवैः सहितैः ॥ २४ ॥ बधिरो धनवाशूरः सोन्मादो वाक्पटुः स्थिरप्रकृतिः । मतिमानुदारचित्तो भौमेन्दुशनैश्चरसुरेज्यैः ॥ २५ ॥ १ योधः. २ सहजवाङ्. ३ कष्टसहो.
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: सारावली । कुलटापतिः प्रगल्भः सर्पाक्षो नित्यमेव सोद्वेगः। जातः पुरुषोऽवश्यं कुजेन्दुयमभार्गवैर्भवति ॥ २६ ॥ विद्वान्विमातृपितृकः सद्रपो धनयुतोऽतिसुभगश्च । भवति नरो विगतार्बुिधगुरुशशिभार्गवैः सहितैः ॥ २७ ॥ कृतधर्मकीर्तिरग्र्यस्तेजस्वी बन्धुवल्लभो मतिमान् । नृपसचिवः प्रवरकविः शशिबुधजीवार्किभिः सहितैः ॥ २८ ॥ परदारगमनशीलो विशीलभार्यों विपन्नबन्धुश्च । प्राज्ञो लोकद्विष्टः स्यादिन्दुबुधार्किभृगुपुत्रैः ॥ २९ ॥ मात्रा रहितः सुभगस्त्वग्दोषी दुःखितो भ्रमणशीलः । बहुभाषी सत्यरतः शशिगुरुभृगुसौरिभिः सहितैः ॥ ३० ॥ स्त्रीकलहरुचिर्धनभाक्पूज्यो लोके च शीलसंपन्नः । भवति पुमान्निरुजतनुर्बुधारगुरुभांगवैः सहितैः ॥ ३१ ॥ शूरो विद्वान्वाग्मी धनरहितः सत्यशौचसंपन्नः । वादी द्वन्द्वसहिष्णुर्मतिमान्सहितैर्बुधारगुरुसौरैः ॥ ३२ ॥ स्यान्मल्लः परपुष्टः कठिनाङ्गो युद्धदुर्मदः ख्यातः । रमते च सारमेयैर्बुधारयमभार्गवैः सहितैः ॥ ३३॥ तेजस्वी वित्तयुतः स्त्रीलोलः साहसप्रियश्चपलः । भौमगुरुशुक्रसौरैरेकस्थैर्जायते कितवः ॥ ३४॥ मेधावी श्राद्धरतो रामासक्तो विधेयभृत्यश्च । । बुधजीवशुक्रसौरैरेकस्थैस्तीबसंयोगे ॥ ३५ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चतुर्ग्रहयोगः सप्तदशोऽध्यायः ॥
. अष्टादशोऽध्यायः। . दुःखी बहुप्रपञ्चो जायाविरहेण तापितशरीरः । भवति पुमानेकस्थै रवीन्दुकुजजीवचन्द्रसुतैः ॥ १॥ परकर्मरतो नित्यं बन्धुसुहृद्भिः कृतो विगतसत्वः । क्लीबैर्याति च सख्यं रवीन्दुकुजशुक्रसौम्यैश्च ॥ २॥
१ द्वेष्टा. २ रुचिर. ३ शस्त्र, शास्त्र. ४ कामाचारो. ५ बन्धुसुहृद्धिकृतो, बन्धुसुहृदुःखितो.
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अष्टादशोऽध्यायः।
४९ अल्पायुर्बन्धनभाग्दीनो भवतीह सर्वसुखहीनः । अकलत्रोऽसुतवित्तः सौरदिवाकरबुधेन्दुकुजैः ॥ ३॥ जात्यन्धो बहुदुःखी मातृपितृभ्यां सदैव सन्त्यक्तः । भवति नरो गेयरुचिः कुजेन्दुगुरुभार्गवाकैश्च ॥४॥ युद्धकुशलः समर्थः परवित्तहरः परोपतापी च । पिशुनश्चलश्च पुरुषः शनिशशिकुजजीवदिवसेशैः ॥ ५ ॥ मानार्थविभवहीनो मलिनाचारः पराङ्गनानिरतः। पञ्चभिरेकस्थैः स्यादिनेशशशिशुक्रशनिभौमैः ॥ ६॥ यत्रज्ञो बहुविभवो नृपसचिवो दण्डनायको वा स्यात् । ख्यातः शुभकीर्तियुतो बुधेन्दुरविजीवशुक्रैश्च ॥ ७॥ भीरुः प्रियसन्त्यक्तः सोन्मादो वञ्चनासु निपुणश्च । उग्रः परान्नभोजी बुधेन्दुगुरुसूर्यरविपुत्रैः ॥ ८॥ दीर्घो रोमशगात्रो मरणोत्साही सुखार्थसुतहीनः । स्यात्पञ्चभिरेकस्थै रविचन्द्रबुधार्किभृगुपुत्रैः ॥९॥ वाग्मीन्द्रजालनिरतश्चलचित्तः स्त्रीषु वल्लभो मतिमान् । बहुशत्रुर्विगतभयो रवीन्दुगुरुशुक्रमानुसुतैः ॥१०॥ कामी बहुतुरगनरः स्वीकृतसेनापतिर्विगतशोकः । राजप्रियोऽतिसुभगो बुधाररविजीवशुक्रैः स्यात् ॥ ११ ॥ नित्योद्विग्नो रोगी भिक्षां भुङ्क्ते गृहागृहं गत्वा । जीर्णमलीमसवासा रविकुजबुधजीवर विपुत्रैः ॥ १२ ॥ वधबन्धनरोगा? विद्वाँल्लोके सुपूजितो भवति । निःस्वो विकलशरीरः कुजशशिबुधशुक्रमन्दैः स्यात् ॥१३॥ व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तः स्थानभ्रष्टोऽतिदुःखसन्तप्तः । भ्रमति क्षुभितः पुरुषः कुजार्किरविशुक्रशशितनयैः ॥१४॥ प्रेष्यो मूर्खः क्लीबो मलिनाचारोऽतिदुर्भगो विकलः । भवति नरो धनरहितः शशिकुजगुरुशुक्ररवितनयैः ॥१५॥ जलयत्रधातुपारदरसायनेष्वतिपटुः पुमान् भवति ।
एभिः प्रसिद्धकर्मा क्षितिसुतरविजीवसितसौरैः ॥ १६ ॥ १ पिशुनः खलश्च. २ भिरतः, ३ स्फीतः सेनापतिः.
५सारा.
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सारावली । बहुशास्त्रज्ञानपटुर्मित्रहितः संमतो गुरूणां च । धर्मपरः कारुणिकः सूर्यासितशुक्रबुधजीवैः ॥१७॥ साधुः कल्यशरीरो विद्याधनसत्यसौख्यसम्पन्नः । बन्धुहितो बहुमित्रो बुधेन्दुकुजजीवभृगुपुत्रैः ॥ १८॥ तिमिरामयी दरिद्रः परान्नमभियाचते सदा दीनः । मलिनयति बन्धुवर्ग कुजार्किबुधजीवहिमकिरणैः ॥ १९ ॥ बहुशत्रुमित्रपक्षः परार्थहितकृद्विषमशीलः । एकस्थैरतिमानी बुधेन्दुकुजशुक्ररविपुत्रैः ॥२०॥ नृपमत्री नृपतिसमो गणनाथः सर्वलोकपूज्यश्च । एकः भवति नरश्चन्द्रेन्दुजजीवशनिशुक्रैः ।। २१ ॥ सुमनस्कः सोन्मादो राज्ञामतिवल्लभो विगतशोकः ।
निद्रातुरो दरिद्रः कुजगुरुबुधशुक्ररविपुत्रैः ॥ २२ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां पञ्चग्रहयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥
एकोनविंशोऽध्यायः। विद्याधनधर्मरतः क्षामो बहुभाषको विकृष्टमतिः । एकभवनोपयातैव॒धेन्दुरव्यारगुरुशुः ॥१॥ दाता परकार्यकरश्चलस्वभावो विशुद्धसत्वश्च । रमते विजनोद्देशे रवीन्दुवक्रज्ञगुरुरविजैः ॥२॥ चोरः परदाररतः कुष्ठी स्वजनैर्निराकृतो मूर्खः । स्थानभ्रष्टो विसुतो बुधेन्दुरव्यारशनिशुः ॥३॥ नीचः परकर्मरतः क्षयरोगी श्वासकासपरिभूतः । निन्द्यः स्याद्वन्धूनां सितेन्दुरव्यारगुरुरविजैः ॥४॥ मत्री नृपस्य सुभगः क्षान्तियुतो भवति शोकपरितप्तः । अकलत्रो धनरहितो रवीन्दुबुधजीवसितसौरैः ॥५॥ तीर्थेषु सदा रमते पुत्रैर्नित्यं धनेन रहितश्च ।
वनपर्वतोपसेवी बुधाररविजीवशनिशुक्रः ॥६॥ १ विशिष्ट. २ कर्मकरः. ३ खास.
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विंशोऽध्यायः॥ नित्यं शुचिः प्रतापी बहुयुवतिरतो नृपप्रियो मत्री । धनसुतसौभाग्ययुतः कुजार्किसितचन्द्रबुधजीवैः ॥ ७॥ प्रायो दरिद्रदुःखी मूर्खः षट्पञ्चसंयुतैर्विहगैः ।
अन्योन्यदर्शनादपि फलमेतत्कन्दलाः प्राहुः ॥ ८॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां षट्ग्रहयोगो नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥
विंशोऽध्यायः । योगा विभक्ताश्चतुरादिसंस्थैर्व्यासाद्रहैः कैरपि तापसानाम् । जन्मादि तेषामपरैर्मुनीन्द्रैः संवेदितं तत्कथयाम्यशेषात् ॥१॥ सूर्येन्दुशुक्रार्यमहीसुतेषु सूर्येन्दुसोमात्मजभूमिजेषु । एकस्थितेषु प्रभवेत्तपस्वी भान्वारमन्दज्ञसितेषु चैव ॥ २ ॥ कुजेन्दुसूर्यज्ञपुरोहितैश्च तीक्ष्णांशुचन्द्रार्किशशाङ्कजैश्च । सूर्येन्दुभूपुत्रशनैश्चरैः स्यादेकह्मगैः प्रव्रजितो मनुष्यः ॥ ३॥ आदित्यगुर्वार्किशशाङ्कपुत्रा भौमार्कचन्द्रात्मजसूरयश्च । एकर्भसंस्थास्तपसि स्थितानां कुर्वन्ति जन्मप्रसवे ग्रहेन्द्राः ॥४॥ सितार्कभौमार्कसुता महाबलाः सुरेज्यभूपुत्रकसौरसूरयः । कुजेन्दुवागीशशनैश्चरा इमे समं गता वै जनयन्ति तापसम् ॥५॥ कुजार्किसोमात्मजदेववन्दितैः कुजार्किचन्द्रात्मजसूर्यभार्गवैः । रवीन्दुभौमासितदानवप्रियैर्भवन्ति सूता व्रतसंयुता नराः ॥६॥ सितारसूर्यात्मजजीवभास्करैः कुजेन्दुदेवेड्यबुधार्कनन्दनैः । सितेन्दुपुत्रार्किशशाङ्कभूमिजैर्भवेत्तपस्वी वनपर्वताश्रयः ॥७॥ चन्द्रेन्दुपुत्रारसुरेड्यभास्करैः शशाङ्कसूर्येन्दुजशुक्रभूमिजैः । स्थितैरमीभिः सहितैसम्भवा भवन्ति वन्द्या मुनयोऽत्र दूषकाः ८ रवीन्दुभौमेन्दुजजीवभार्गवैः शशाङ्कभौमार्किबुधेड्यभास्करैः । कुजेन्दुसूर्यार्किसितेन्दुसम्भवैर्भवेदमीभिः सहितैनरो व्रती ॥९॥ सितेन्दुजीवार्कजसूर्यलोहितैः सितार्कभौमार्किशशाङ्कसोमजैः । एकत्र यातैर्गगनेचरैः सदा भवन्ति जाता मुनयो यशस्विनः॥१०॥ १ जन्माईतैषां. २ सौरयश्च.
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सारावली। कुजज्ञवागीशसितार्किभास्करैः सितार्किजीवेन्दुजचन्द्रभूमिजैः । बलप्रधानैः सहितैर्विहङ्गमैव्रजेत्प्रजातः पुरुषस्तपस्विताम् ॥११॥ रवीन्दुवागीशशनैश्चरैश्च शनैश्चरेन्द्वकसितैरवश्यम् । रवीन्दुपुत्रक्षितिजेन्द्रपूज्यैस्तपस्विनः स्युः फलमूलभक्षिणः ॥१२॥ वकार्कसोमात्मजदानवेड्या भौमेन्दुवागीशशशाङ्कपुत्राः । एकदंगा जन्मनि यस्य जन्तोर्भवेद्वती वल्कलचीरधारी ॥१३॥ शशीन्दुपुत्रक्षितिजापुत्रा बुधक्षमापुत्रसुरेड्यसौराः । एकदंगा जन्मनि यस्य सूतौ कुर्वन्ति तं तापसमेव शान्तम् ॥१४॥
चन्द्रार्कभार्गवशशाङ्कसुता बलस्था
भौमेन्दुपुत्रसितभास्करनन्दनाश्च । मन्देन्दुवाक्पतिसिता नियतं यतीनां
कुर्वन्ति जन्म फलपाककृताशनानाम् ॥ १५ ॥ रविकुजशशिशुक्रैश्चन्द्रभौमज्ञसूर्यै
गुरुसितरविमन्दैः शुक्रजीवेन्दुवकैः । कुजबुधसितचन्द्ररेभिरेकर्फयातै
भवति गिरिवनौकास्तापसः सर्ववन्धः ॥ १६ ॥ सितशशिकुजगुरुमन्दैश्चन्द्रेन्दुजभौमदेवगुरुशुकैः । रविशशिकुजबुधजीवैर्भवति यतिर्दुःखितो दीनः ॥ १७ ॥ कुजार्किदेवेड्यसितेन्दुपुत्रैः शनीनसोमात्मजचन्द्रभौमैः । समं गतैः स्युः सबलैर्यथोक्तैर्जटाधरा वल्कलधारिणश्च ॥१८॥
भान्विन्दुजेन्दुकुजजीवसुरारिपूज्यैः
सूर्येन्दुभौमगुरुशुक्रशनैश्चरैश्च । प्राप्नोत्यवश्यमिह तापसरूपमेभि
रेकर्फगैर्गगनवासिभिरेव जातः ॥ १९ ॥ प्रव्रज्येशे दिनकरगते भुक्तिमन्तोऽतिशक्ताः
प्रव्रज्यायाः सुबलसहितैः स्थैर्यमाहुग्रहेन्द्रैः । सम्पूर्णानां वशमनुगतैः प्रच्युतैस्तैर्बहुत्वे
वीर्योपेतैर्भवति बहुभिः सद्बलस्यानुपूर्व्यात् ॥२०॥ १ दिनकरगतैर्भक्तिमन्तो न शक्ताः. २ वधमुपगतैः. ३ प्रच्युतिस्तै. ..
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विंशोऽध्यायः। प्रव्रज्यायाः स्वामी रविमुषितत निरीक्षितो वाऽन्यैः ।
याचितदीक्षा भवति च यवनाधिपतेर्यथा वाक्यम् ॥२१॥ शशी दृकाणे रविजस्य संस्थितः कुजार्किदृष्टः प्रकरोति तापसम् । कुजांशके वा रविजेन दृष्टो नवांशतुल्यं कथयन्ति तत्पुनः॥२२॥ जन्माधिपः सूर्यसूतेन दृष्टः शेषैरदृष्टः पुरुषस्य सूतौ । आत्मीयदीक्षां कुरुते ह्यवश्यं पूर्वोक्तमत्रापि विचारणीयम् ॥२३॥ जन्मपतिर्विकलाङ्गः पश्यति सौरि चतुष्टये प्रबलम् । यस्य स भाग्यविहीनः प्रव्रज्यां प्राप्नुयात् पुरुषः ॥ २४ ॥ गुरुहिमगुरवीणामेक एवोदयस्थो __ गगनतलगतो वा रिःफगश्वाल्पमूर्तिः । अविकलबलभाजा सूर्यपुत्रेण दृष्टो
जनयति खलु जातं तापसं दुःखभाजम् ॥ २५ ॥ कुमुदवनसुबन्धुं सौम्यभागे बलस्थं
वियति गमनशीलान् स्वोच्चभस्थांश्च शेषान् । यदि दिनकरपुत्रः पश्यति प्राप्तवीर्यों __ भवति भुवननाथो दीक्षितश्च स्वतत्रः ॥ २६ ॥ अतिशयबलयुक्तः शीतगुः शुक्लपक्षे
बलविरहितरिक्तं प्रेक्षते लग्ननाथम् । यदि भवति तपस्वी दुःखितः शोकतप्तो
धनजनपरिहीनः कृच्छूलब्धान्नपानः ॥ २७ ॥ सौरिः शुभभागस्थः पश्यति चन्द्र ग्रहांस्तथैवान्यान् । कुम्भांशेषु प्राप्तान् जनयति दीक्षान्वितं पुरुषम् ॥ २८॥ एकदंगतैः सर्वैर्जन्माधिपतिर्निरीक्षितो यस्य । दीक्षा तस्यावश्यं भवतीति पुरातनैः कथितम् ॥ २९ ॥ अग्नीनां परिचारका गिरिनदीतीराश्रमे तापसाः
सूर्याराधनतत्परा गणपतेर्भक्ता उमायाश्च ये । गायत्री जपतां वने नियमिनां गङ्गाभिषेकार्थिनां
कौमारव्रतमिच्छतामधिपतिस्तेषां सदा भास्करः॥३०॥ १ रुचि. २ कुजार्क. ३ तं पुनः. ४ विपुलाङ्गः. ५ तुङ्गांशेषु.
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सारावली। वृद्धश्रावकभस्मधूलिधवलाः शैवव्रते ये स्थिता ___ बाह्याः पातकितां गता भगवतीभक्ताश्च निःसङ्गिनः । सिद्धान्ते खलु सोमनाग्नि निरताः कापालिका निष्ठुरा
स्तेषां नायकतां गतः शशधरः खट्वाङ्गपाणिद्युतिः॥३१॥ उपासका बुद्धसमाश्रयं गताः शिखां गताः पाण्डरभिक्षवश्व ये । सुवाससो रक्तपटा जितेन्द्रियाः प्रभुः सदैषां क्षितिजः प्रकीर्तितः॥३२
आजीविनां कुहकिनां समयाधिका ये
ये दीक्षितास्तनुभृतः खलु गारुडे च ।। तत्रे मयूरपिशिताशनयोश्च युक्ता- . ___ स्तेषां शशाङ्कतनयोऽधिपतिर्निरुक्तः ॥ ३३ ॥ एकं त्रीनथवा वहन्ति मुनयो दण्डान् कषायाम्बरा
वानप्रस्थमुपागताः फलपयोभक्षाश्च ये भिक्षवः । गार्हस्थ्येन तु संस्थिता नियमिनः सद्ब्रह्मचर्यं गता
स्तेषां दण्डपतिः सुरेन्द्रसचिवस्तीर्थेषु ये स्नातकाः ॥३४॥ पाशुपतयज्ञदीक्षाव्रतेषु ये नित्यमेव संयुक्ताः । वैष्णवचरकाणामपि तेषां नेता प्रकीर्तितः शुक्रः॥ ३५ ॥ पाषण्डव्रतनिरता दिगम्बरा भिक्षवो ये च । तेषामधिपतिरार्किः श्रावकतरुमूलिनश्च दुस्तपसः ॥ ३६॥ प्रकथितमुनियोगे राजयोगो यदि स्या
दशुभफलविपाकं सर्वमुन्मूल्य पश्चात् । जनयति पृथिवीशं दीक्षितं साधुशीलं
प्रणतनृपशिरोभिः स्पृष्टपादाब्जयुग्मम् ॥ ३७॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां प्रव्रज्यायोगो नाम विंशोऽध्यायः ॥
एकविंशोऽध्यायः । यवनाद्यैर्विस्तरतः कथिता योगास्तु नाभसा नाम्ना ।
अष्टादशशतगुणितास्तेषां द्वात्रिंशदिह वक्ष्ये ॥१॥ १ शिखां विना. २ समयाधिकारे. ३ सद्भिक्षवः. ४ समये. ५ घृष्ट.
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एकविंशोऽध्यायः ।
नौच्छत्रकूटकार्मुकशृङ्गाटक वज्रदामनीपाशाः । वीणासरोजमुसला वापीहलशरसमुद्रचक्राणि ॥ २ ॥ माला सर्पार्धेन्दू यवकेदारौ गदाविहगयूपाः । युगशकटशूलदण्डा रज्जुः शक्तिस्तथा नलो गोलः ॥ ३ ॥ सचराचरस्य जगतो योगैरेभिः प्रकीर्त्यते प्रसवः । आश्रयजातान् प्राहुर्माणिन्धा मुसलरज्जुनलयोगान् ॥ ४ ॥ -गोलयुगशूलपाशा वीणाकेदार दामनीसंज्ञाः । सप्तैते संख्याख्याः पूर्वाचार्यैः समुद्दिष्टाः ॥ ५॥ द्वे चार्धयोगसंज्ञे भुजङ्गमाले पराशरेणो के । आकृतिजाता विंशतिरपरैः कथिताश्च सावित्रे ' ॥ ६ ॥ आश्रययोगे जाता अमिश्रिते सौख्यलाभगुणयुक्ताः । अन्योन्यमिश्रिताश्चेद्विगतफलाः स्युस्तदा योगाः ॥ ७ ॥ नन्दन्ति स्वैर्भाग्यैर्नृपलब्धधना नृपप्रियाः ख्याताः । प्रायेण सौख्ययुक्ताश्वाकृतियोगेषु ये जाताः ॥ ८ ॥ परभाग्यलब्धसौख्या धनभाग्यैरेव जीवितास्तेषाम् । संख्यासंज्ञे जाता ये पुरुषाः सर्वतो विकलाः ॥ ९ ॥ कचित् स्वभाग्यैः क्वचिदेवमेवं कचित्पराद्भूपतितः फलं च । कचित्सुखं दुःखमतीव कष्टं समार्धयोगे पुरुषो लभेत ॥ १० ॥ होरादिकण्टकेभ्यः सप्तर्क्षगतैः क्रमेण योगाः स्युः । नौच्छत्रकूटकार्मुकनिर्देशाः पूर्वयवनेन्द्रैः ॥ ११ ॥ लग्नादिकण्टकेभ्यश्चतुर्गृहावस्थितैर्ग्रहैर्योगाः । यूपशरशक्तिदण्डाः सत्याचार्यप्रिया नित्यम् ॥ १२ ॥ सप्तर्क्षगैर्ग्रहेन्द्रैः केन्द्रादन्यत्र कीर्तितोऽर्धशशी । केन्द्रप्रत्यासन्नैर्भवनद्वयगैर्गदा नाम ॥ १३ ॥ लग्नास्तगतैः सौम्यैः पापैः सुखकर्मगैर्भवति वज्रम् | विपरीतैर्यवयोगो मित्रैः पद्मं बहिः स्थितैर्वापी ॥ १४ ॥ होरास्तगतैः शकटं चतुर्थदशमाश्रितैर्भवेद्विहगः । उदयान्त्यगैस्त्रिको हल इति शृङ्गाटकं सलग्ने तत् ॥ १५ ॥
१ सावित्रैः. २ परभाग्यैरेव जीवितं तेषाम्.
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. सारावली। राश्यन्तरितैर्लग्नात् षट्भवनगतैर्भवेचक्रम् । अर्थात्तथैव यातैश्चक्राकारो भवेजलधिः ॥ १६ ॥ इत्याकृतिजा एते विंशतिसंख्या मया समुद्दिष्टाः । आश्रयजातान् वक्ष्ये यथामतं वृद्धगार्ग्यस्य ॥ १७ ॥ उभयस्थिर चरसंस्थैः सर्वैर्नलमुसलरज्जवः क्रमशः । केन्द्रेषु सौम्यपापैर्माला सर्पश्च दलयोगौ ॥ १८ ॥ एकभवनादिसंस्थैः संख्याख्याः स्युर्यथाक्रमं योगाः । गोलयुगशूलसंज्ञाः केदारः पाशदामनीवीणाः ॥ १९॥ एतेषां फलयोगं कथयामि यथाक्रमं मुनिभिरुक्तम् । सर्वदशास्वपि फलदाः सकला एते बुधैश्चिन्त्याः ॥ २० ॥ सलिलोपजीवविभवा बह्वायाख्यातकीर्तयो दृष्टाः । कृपणा बलिनो लुब्धा नौसम्भूताश्चलाः पुरुषाः॥ २१॥ आनृतिककितवबन्धनपाला निष्किञ्चनाः शठाः क्रूराः । कूटसमुत्था नित्यं भवन्ति गिरिदुर्गवासिनो मनुजाः ॥२२॥ स्वजनाश्रयो दयावान् दाता नृपवल्लभः प्रकृष्टमतिः । प्रथमेऽन्ये वयसि नरः सुखभाग्ययुतः सितातपत्रः स्यात् २३ आनृतिकगुप्तिपालाश्चोराः कितवाश्च कानने निरताः । कार्मुकयोगे जाता भाग्यविहीना वयोमध्ये ॥ २४ ॥ सुभगाः सेनापतयः कान्तशरीरा नृपप्रिया बलिनः । मणिकनकभूषणयुता भवन्ति योगेऽर्धचन्द्राख्ये ॥२५॥ आद्यन्तवयंसि सुखिताः शूराः सुभगा विरोगदेहाश्च । भाग्यविहीना वज्रे जाताः स्वजनैर्विरुद्धाश्च ॥२६॥ व्रतनियममङ्गलपरा वयसो मध्ये सुखार्थसंयुक्ताः । दातारः स्थिरवित्ता यवयोगभवाः सदा पुरुषाः ॥ २७ ॥ स्फीतयशसो गुणाढ्याः स्थिरायुषो विपुलकीर्तयः कान्ताः । शुभयशसः पृथिवीशाः कमलभवा मानवा नित्यम् ॥२८॥ निधिकरणे निपुणधियः स्थिरार्थसुखसंयुताः सुरूपाश्च ।
नयनसुखसम्प्रहृष्टा वापीयोगे नरा जाताः ॥ २९॥ १ आद्यन्तवयःसुखिनः. २ सुतृष्णाश्च.
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एकविंशोऽध्यायः।
रोगार्ताः कुकलत्रा मूर्खाः शकटानुजीविनो निःस्वाः । खजनैमित्रहींनाः शकटे जाता भवन्ति नराः ॥३०॥ भ्रमणरुचयो निकृष्टा दूताः सुरतानुजीविनो धृष्टाः । कलहप्रियाश्च नित्यं विहगे योगे सदा जाताः ॥ ३१ ।। सततं मानार्थपरा यज्वानः शास्त्रयोगकुशलाश्च । धनकनकरत्नसम्पत्संयुक्ता मानवा गदायान्तु ॥ ३२॥ प्रियकलहसमरसाहससुखिनो नृपतेः प्रियाः सुभगकान्ताः । आढ्या युवतिद्वेष्याः शृङ्गाटकसंभवा मनुजाः ॥३३॥ बह्वाशिनो दरिद्राः कृषीवला दुःखिताश्च सोद्वेगाः । बन्धुसुहृत्सन्त्यक्ताः प्रेष्याहलसंज्ञिते पुरुषाः ॥ ३४ ॥ प्रणताशेषनराधिपकिरीटरत्नप्रभाच्छुरितपादः । भवति नरेन्द्रो मनुजश्चके यो जायते योगे ॥ ३५॥ बहुधनरत्नाः क्षितिपा भोगार्थयुता जनप्रियाश्चापि । उदधिसमुत्थाः पुरुषाः स्थिरचित्ताः सत्ववन्तश्च ॥ ३६ ।। आत्मनि रक्षानिरतस्त्यागयुतो वित्तसौख्यसम्पन्नः । व्रतनियमसत्यनिरतो यूपे जातो विशिष्टश्च ॥ ३७॥ इषुकरणदस्युबन्धनमृगयावनसेवनेतिसोन्मादाः। हिंस्राः कुशिल्पनिरताः शरयोगे सम्प्रसूताः स्युः ॥ ३८॥ धनरहितविकलदुःखितनीचालसपेलवायुषः पुरुषाः । सङ्ग्रामयुद्धनिपुणाः शक्त्यां जाताः स्थिराः सुभगाः ॥ ३९ ॥ हतपुत्रदारनिःस्वाः सर्वजनैय॑क्कृताः स्वजनाह्याः । दुःखितनीचाः प्रेष्या दण्डप्रभवा नराः सततम् ॥ ४०॥ नित्यं सुखप्रधाना वाहनवस्त्रार्थभोगसम्पन्नाः । कान्ताः सुबहुस्त्रीका मालायां सम्प्रसूताः स्युः ॥४१॥ विषमाः क्रूरा निःस्वा नित्यं दुःखार्दिताः सुदीनाश्च । परभुक्ताः पानरताः सर्प जाता भवन्ति नराः ॥ ४२ ॥
१ नीचा योनिनिकृष्टाः. २ गेय. ३ सुहृद्भिस्त्यक्ताः. ४ स्सशुभाः. ५ काराः. ६ हीनाः, ७ भवन्ति नराः. ८ परभक्तपापनिरताः, परवेश्मभक्ष्यनिरताः.
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सारावली ।
अटनप्रियाः सुरूपाः परदेशेष्वर्थभागिनो मनुजाः । क्रूराः खलस्वभावा रज्जुप्रभवाः सदा कथिताः ॥ ४३ ॥ मानधनज्ञानयुताः कर्मोद्युक्ता नृपप्रियाः ख्याताः । स्थिरचित्ता मुसलोत्था भवन्ति शूराः सदा पुरुषाः ॥ ४४ ॥ ऊनातिरिक्तदेहा धनसंचयभागिनोऽतिनिपुणाश्च । बन्धुहिताच सुरूपा नलयोगे सम्प्रसूयन्ते ॥ ४५ ॥ दारिद्यालस्ययुता विद्याज्ञामानवर्जिता मलिनाः । नित्यं दुःखितदीना गोले योगे भवन्ति नराः ॥ ४६ ॥ पाषण्डभागिनो वा धनरहिता वा बहिष्कृता लोके । सुतमान धर्मरहिता युगयोगे मानवा जाताः ॥ ४७ ॥ तीक्ष्णालसधनरहिता हिंस्राः सुबहिष्कृता महाशूराः । सङ्ग्रामलब्धशब्दाः शूले रौद्राः प्रजायन्ते ॥ ४८ ॥ सुबहूनामुपयोज्याः कृषीवलाः सत्यवादिनः सुखिताः । केदारे सम्भूताश्चलखभावा धनैर्युक्ताः ॥ ४९ ॥ पाशे बन्धनभाजः कार्योद्युक्ताः प्रपञ्चकाराश्च । बहुभाषिणो विशीला बहुभृत्याः सम्प्रसूताः स्युः ॥ ५० ॥ दामिन्यामुपकारी पशुगणयुक्तो धनेश्वरो मूढः । बहुसुतरत्नसमृद्धो धीरो विद्वान् प्रजातः स्यात् ॥ मित्रान्विताः सुवचसः शास्त्रपरा गेयवाद्यनिरताश्च । सुखभाजो बहुभृत्या वीणायां कीर्तिता मनुजाः ॥ ५२ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नाभसयोगो नामैकविंशोऽध्यायः ॥
५१ ॥
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द्वाविंशोऽध्यायः ।
सर्वस्य सर्वकालं ग्रहराशिसमुद्भवं फलं यस्मात् । कथयाम्यतः प्रयत्नात् शेषाचार्यान् समाश्रित्य ॥ १ ॥ शास्त्रार्थकृतिकलाभिः ख्यातो युद्धप्रियः प्रचण्डश्च । उद्युक्तो भ्रमणरुचिर्दृढास्थिबन्धः क्रिये श्रेष्ठः ॥ २ ॥
१ यत्स्यात्.
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द्वाविंशोऽध्यायः । साहसकर्माभिरतः पित्तासृग्व्याधिकान्तिसत्वयुतः ।। सूर्ये भवति नरेन्द्रः स्वतुङ्गराशौ नरो जातः ॥३॥ दानरतो बहुभृत्यो ललितो युवतिप्रियो मृदुशरीरः । कुजभवनगते सूर्ये चन्द्रेण निरीक्षिते भवति ॥४॥ सङ्ग्रामोत्कटवीर्यः क्रूरः संरक्तनेत्रकरचरणः । भौमगृहे कुजदृष्टे भानौ तेजोबलोपेतः ॥ ५॥ प्रेष्यः परकर्मरतो मन्दधनः सत्वहीनबहुदुःखः । भानौ बुधसंदृष्टे कुजभवने मलिनकायश्च ॥६॥ भूरिद्रविणो दाता नृपमत्री दण्डनायको वाऽपि । तरणौ सुरगुरुदृष्टे कुजभवने जायते श्रेष्ठः ॥ ७॥ कुत्सितरामाभर्ता बहुशत्रुः क्षीणबान्धवो दीनः । भौमगृहे सितदृष्टे दिवाकरे जायते कुष्ठी ॥ ८॥ दुःखपरिप्लुतदेहः कार्योन्मादी भवेद्विमूढमतिः । भौमः दिवसकरे रवितनयनिरीक्षिते मूर्खः ॥९॥ वदनाक्षिरोगतप्तः क्लेशसहिष्णुर्न चापि बहुशत्रुः । भक्तो व्यवहाररतो रैतिमान्वन्ध्याङ्गनाद्वेषी ॥ १० ॥ भोजनमाल्याच्छादनगन्धयुतो गेयवाद्यनृत्तज्ञः । दिवसकरे वृषसंस्थे भवति पुमान् सलिलभीरुश्च ॥ ११ ॥ वेश्यारतिम॒दुवचा बहुयुवतिसमाश्रयो भवति । दिननाथे सितभवने दृष्टे शशिना सलिलजीवी ॥ १२ ॥
शूरः सङ्ग्रामरुचिस्तेजस्वी साहसाप्तधनकीर्तिः । दिननाथे सितभवने कुजसंदृष्टे पुमान् विकलः ॥ १३ ॥ लिपिलेख्यकाव्यपुस्तकगेयादिविधावतीव निपुणमतिः । दिननाथे सितभवने बुधसंदृष्टे भवेत् सुतनुः ॥ १४ ॥ बहुशत्रुमित्रपक्षो नृपसचिवश्वारुलोचनः कान्तः । दिननाथे सितभवने गुरुणा दृष्टे सुतोपितो नृपतिः ॥१५॥ नृपतिर्नुपमत्री वा स्त्रीधनबहुयोगसंयुतो मतिमान् । दिननाथे सितभवने सितसंदृष्टे भवेद्भीरुः ॥ १६ ॥ १ कुत्सितरामासक्तः. २ कृशो न बहुपुत्रः. ३ मतिमान्. ४ सदोद्युक्तः, सदोद्विमः.
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सारावली । नीचोऽलसो दरिद्रो वृद्धस्त्रीसंगतो विषमशीलः । दिननाथे सितभवने शनिदृष्टे व्याधिसन्तप्तः ॥ १७ ॥ मेधावी वाङ्मधुरो वात्सल्यगुणैर्युतः श्रुताचारः । विज्ञानशास्त्रकुशलो बहुवित्त उदारचेष्टश्च ॥ १८ ॥ निपुणो ज्योतिषवेत्ता मध्यमरूपो द्विमातृकः सुभगः । मिथुनस्थे दिनभर्तरि जातः पुरुषो विनीतः स्यात् ॥ १९ ॥ रिपुबान्धवकृतपीडा विदेशगमनादितो बहुविलापी । बुधभवने दिनभर्तरि दृष्टे चन्द्रेण पुरुषः स्यात् ॥ २० ॥ रिपुभयकलहसमेतो रणापवादादिदुःखितो दीनः । बुधराशौ दिनभर्तरि कुजेक्षिते भवति सव्रीडः ॥ २१ ॥ भूपतिचरितः ख्यातो बान्धवसहितोऽरिभिश्च संत्यक्तः । बुधराशौ दिनभर्तरि बुधदृष्टेऽक्ष्यामययुतः स्यात् ॥ २२ ॥ बहुशास्त्रदारितमुखो राज्ञां दूतो विदेशगवण्डः । बुधराशौ दिनभर्तरि गुरुणा दृष्टे सदोन्मादः ॥ २३ ॥ धनदारपुत्रसुखितो मन्दस्नेहस्त्वनामयः सुखितः । बुधराशौ दिनभर्तरि सितसंदृष्टे भवेच्चपलः ॥ २४ ॥ बुहुभृत्योद्विग्नमना बहुबन्धुविपोषणे सदा निरतः । बुधराशौ दिनभर्तरि सौरेण निरीक्षिते कितवः ॥ २५ ॥ कर्मसु चपलः ख्यातो गुणैर्नृपाणां स्वपक्षविद्वेषी । स्त्रीदुर्भगः सुरूपः कफपित्तातः श्रमाभिसन्तप्तः ॥ २६ ॥ मद्यरुचिः समधर्मा मानी वरवाक्यदेशदिग्वेत्ता । सूर्ये कुलीरसंस्थे बहुस्थितिः पितृगणद्वेष्टा ॥ २७॥ राजा राजसमो वा जलपण्यधनस्थिरः क्रूरः । कर्कटके तीव्रकरे दृष्टे शशिना भवेत्पुरुषः ॥ २८॥ शोषभगन्दररोगैः सन्तप्तो बन्धुभिः सह विरक्तः । कर्कटके दिननाथे भौमेन निरीक्षिते पिशुनः ॥ २९॥ .
१ बुधेन दृष्टे कृशतनुः स्यात्. २ सहितो. ३ सुभगः. ४ खिन्नः. ५ मद्यप्रियः सधर्मो. ६ बहु. ७ स्थितिः. ८ शोफ. ९ विरुद्धः. १० विसुतः,
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द्वाविंशोऽध्यायः। विद्यामानयशोभिः ख्यातो नृपवल्लभो भवेनिपुणः । सूर्ये कुलीरराशौ बुधेन दृष्टे विगतशत्रुः ॥ ३०॥ श्रेष्ठो राज्ञो मन्त्री सेनानाथोऽथ सुप्रसिद्धश्च । सूर्ये शशिभवनस्थे गुरुणा दृष्टे कलाभ्यधिकः ॥ ३१ ॥ स्त्रीसेवी युवतिधनः परकार्यकरो रणे प्रचण्डश्च । कर्कटकस्थे सूर्ये शुक्रेण निरीक्षिते प्रियालापः ॥ ३२ ॥ कफमारुतरोगातः परस्वहारी विलोममतिचेष्टः । कर्कटकस्थे भानौ स्वपुत्रदृष्टे पुमान् पिशुनः ॥ ३३ ॥ रिपुहन्ता क्रोधपरो विशिष्टचेष्टो वनाद्रिदुर्गचरः । उत्साही सच्छूरस्तेजस्वी मांसभक्षणो रौद्रः ॥ ३४ ॥ गम्भीरः स्थिरसत्वो बधिरः क्षितिपालको धनसमृद्धः । सिंहस्थे दिवसकरे ख्यातः पुरुषो भवेजातः ॥ ३५ ॥ मेधावी सुकलत्रः कफार्दितो भूपवल्लभो मनुजः । आदित्य सिंहस्थे चन्द्रेण निरीक्षिते भवति ॥ ३६ ॥ परदाररतः शूरः साहसकारी कृतोद्यमो रौद्रः । दिवसकरे सिंहस्थ कुजेन दृष्टे प्रधानश्च ॥ ३७॥ विद्वान् लिपिलेख्यकरः कितवासेवी परिभ्रमति हीनः । सिंहस्थे दिवसकरे बुधेन दृष्टे न बहुसत्वः ॥ ३८ ॥ देवारामतटाकान् करोति सत्वाधिको विजनशीलः । सिंहे सहस्ररश्मौ सुरगुरुदृष्टे महाबुद्धिः ॥ ३९ ॥ दुनीमकुष्ठरोगैरभिभूतो निर्दयो विगतलजः । सिंहे तिमिरविनाशे शुक्रेण निरीक्षिते जातः ॥ ४० ॥ कार्यविनाशनदक्षः पण्डो जातः परोपतापकरः । सिंहस्थे दिवसकरे स्वपुत्रदृष्टे पुमान् भवति ॥ ४१ ॥ स्त्रीतुल्यतनुहीमान् लिपिवेत्ता दुर्बलश्च वल्गुकथः । मेधावी लघुसत्त्वो विद्वान् शुश्रूषकः सुरगुरूणाम् ॥ ४२ ॥ संवाहनादिकर्मसु दक्षः श्रुतिगेयवाद्यपरितुष्टः ।
१ प्रभन्नश्च. २ मुखरः. ३ सुगुणः.
६ सारा०
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' सारावली । कन्यायां दिवसकरे जातो मृदुदीनवाक्यश्च ॥४३॥ भगक्षयव्यया” विदेशमार्गादिलम्पटो द्विष्टः । नीचोपहतप्रीतिर्हिरण्यलोहादिपण्यजीवी च ॥४४॥ द्वेष्यः परकर्मरतः परदाररतिः पुमान् भवेन्मलिनः । सूर्ये तुलाधरस्थे नृपपरिभूतः प्रगल्भश्च ॥ ४५ ॥ अनिवारितरणवेगः श्रुतिधर्मरतो न सत्यवाङ्मूर्खः । प्रविनष्टदुष्टयुवतिः क्रूरः कुस्त्रीविधेयश्च ॥ ४६ ॥ क्रोधपरोऽसद्वृत्तो लोभिष्ठः कलहवल्लभोऽनृतवाक् । शस्त्राग्निविषग्रस्तः पितुर्जनन्याश्च दुर्भगः कीटे ॥४७॥ द्रव्यान्वितो नृपेष्टो जातः प्राज्ञः सुरद्विजानुरतः । शस्त्रास्त्रहस्तिशिक्षानिपुणो व्यवहारयोग्यश्च ॥४८॥ पूज्यः सतां प्रशान्तो धनवान् विस्तीर्णपीनचारुतनुः । बन्धूनां हितकारी सत्वयुतः कार्मुके सूर्ये ॥ ४९ ॥ वाग्बुद्धिविभवपुत्रैः समन्वितो नृपसमो विगतशोकः । वाक्पतिराशौ तपने दृष्टे चन्द्रेण सुशरीरः ॥ ५० ॥ संग्रामे लब्धयशाः स्फुटवचनो वित्तसौख्यसम्पन्नः । सूर्ये वाक्पतिराशौ भौमेन निरीक्षिते चण्डः ॥५१॥ मधुरवचनो लिपिज्ञः काव्यकलागोष्ठियानधातुज्ञः । गुरुमे सवितरि दृष्टे बुधेन जनसंमतो भवति ॥५२॥ विचरति नरेन्द्रभवने नृपतिर्वा वारणाश्वधनयुक्तः । सुरगुरुगृहे विवस्वति गुरुणा दृष्टे सदा विद्वान् ॥ ५३॥ दिव्यस्त्रीभोगयुतः सुगन्धमाल्यादिभिः सहितः । सुरगुरुभवने भानौ शुक्रेण निरीक्षिते शान्तः ॥ ५४॥ अशुचिः परान्नकासी नीचानुरतश्चतुष्पदक्रीडः । देवेज्यगृहे सूर्ये मन्देन निरीक्षिते भवति ॥ ५५ ॥ लुब्धः कुस्त्रीसक्तः कुकर्मसंवर्धितः सतृष्णश्च । बहुकार्यरतो भीरुर्विहीनबन्धुश्चलप्रकृतिः ॥ ५६ ॥
१ सङ्ग.
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त्रयोविंशोऽध्यायः। अटनप्रियोऽल्पसत्त्वः स्वपक्षविक्षोभनाशितसमस्तः ।। मकरस्थे दिवसकरे जातो बहुभक्षकः पुरुषः ॥ ५७ ।। मायापटुश्चलमतिः स्त्रीसङ्गान्नष्टधनसौख्यः । नक्रगृहे तीव्रकरे चन्द्रेण निरीक्षिते भवति ॥ ५८ ॥ व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तः परकलहात् शस्त्रविक्षतशरीरः । मन्दगृहे तिमिररिपौ भौमेन निरीक्षिते विकलः ॥ ५९ ॥ शूरः षण्डप्रकृतिः परस्वहारी नसारसर्वाङ्गः । नलिनीदयिते शनिभे बुधेन संवीक्षिते भवति ॥ ६०॥ शोभनकर्मा मतिमान् सर्वेषामाश्रयो विपुलकीर्तिः । कोणगृहे दिनभर्तरि गुरुणा दृष्टे मनस्वी च ॥ ६१ ॥ शङ्खग्रवालमणिभिर्जीवति वेश्याङ्गनाधनसमृद्धः । कोणभवने दिनपतौ भृगुणा दृष्टे सुखी जातः ॥ ६२ ॥ ध्वंसयति शत्रुपक्षं नरेन्द्रसन्मानवर्धिताश्वासः । भानौ शनैश्वरगृहे शनिदृष्टे सूयते योऽसौ ॥ ६३ ॥ हृद्रोगी बहुसत्त्वः सतां विगोऽतिरोषश्च । परदाराणां सुभगः कर्मस्विति निश्चितो भवति ॥ ६४ ॥ दुःखप्रायोऽल्पधनः शठश्चलितसौहृदो मलिनमूर्तिः । कुम्भधरेऽर्के जातः पिशुनः स्यात् दुष्प्रलापश्च ॥ ६५ ॥ सुहृदां संग्रहशीलः स्त्रीप्रीत्या लब्धसौख्यसंभारः । प्राज्ञो बहुशत्रुघ्नः क्षयोदयी भवति धनकी| ॥६६॥ सत्सुतभृत्याप्तयशा जलपण्यधनः सुवागनृतवादी ।
ऊर्जितगुह्यरुगा” बहुसहजो मीनसंस्थेऽर्के ॥ ६७ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यामादित्यचारदृष्टियोगो नाम द्वाविंशोऽध्यायः।
त्रयोविंशोऽध्यायः। सौवर्णाङ्गः स्थिरस्वः सहजविरहितः साहसी मानभद्रः
कामातः क्षामजानुः कुनखतनुकचश्वञ्चलो मानवित्तः ।
१ जयोदयी. २ सेवाविन्नः, ३ वानभद्रः.
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सारावली । पद्माभैः पाणिपादैर्विततसुतजनो वर्तुलाकारनेत्रः
सस्नेहस्तोयभीरुर्बणविकृतशिराः स्त्रीजितो मेष इन्दौ ॥१॥ अत्युग्रतरो नृपतिः प्रणतानां मार्दवं भजति जातः । धीरः सङ्ग्रामरुची रविणा दृष्टे शशिनि मेषे ॥ २ ॥ दन्ताक्षिरोगतप्तः 'शिखिवातादिक्षतशरीरः । माण्डलिकः स्यान्मेपे कुजदृष्टे शशिनि भृतार्तः ॥३॥ नानाविद्याचार्यः सद्वाक्यः स्यान्मनोभीष्टः । बुधदृष्टे मेषस्थे निशाकरे सत्कविर्विपुलकीर्तिः ॥४॥ बहुभृत्यधनसमृद्धो नृपतेः सचिवश्वमूपतिर्वाऽपि । मेषगृहे हिमरश्मौ दृष्टे गुरुणा पुमान् जातः ॥५॥ सुभगः सुतधनयुक्तो वरयुवतिविभूषणोऽल्पभोक्ता च । मेषे शिशिरमयूखे भृगुतनयनिरीक्षिते भवति ॥ ६॥ विद्विष्टो बहुदुःखो दारिद्यतनुर्मलीमसोऽनृतवाक् ।
मेषे शिशिरमयूखे रवितनयनिरीक्षिते भवति ॥ ७॥ व्यूढोरस्कोऽतिदाता धनकुटिलकचः कामुकः कीर्तिशाली
कान्तः कन्याप्रजावान् वृषसमनयनो हंसलीलाप्रचारः । मध्यान्ते भोगभागी पृथुर्कटिचरणस्कन्धजावास्यजङ्घः
सांकः पार्थास्यपृष्ठे ककुँदि शुभगतिः क्षान्तियुक्तो गवीन्दौ ८ कर्षकमतिकर्मकरं द्विपदचतुष्पदसमृद्धमत्याढ्यम् । प्रायोगिकं प्रकुरुते वृषभे रविवीक्षितश्चन्द्रः ॥ ९ ॥ अतिकामं कुजदृष्टो युवतिकृते नष्टदारमित्रजनम् । हृदयहरं नारीणां मातुर्न शुभं शशी वृषे कुरुते ॥ १० ॥ प्राज्ञं वाक्यविधिज्ञं प्रमुदितमिष्टं समस्तभूतानाम् । जनयति बुधेन दृष्टः शशी वृषेऽनुपमगुणैर्युक्तम् ॥११॥ स्थिरपुत्रदारसुहृदं मातापितृभक्तिमन्तमतिनिपुणम् । धार्मिकमतिविख्यातं गवि गुरुदृष्टः शशी कुरुते ॥ १२ ॥
१ वहति. २ विषशिखितापास्त्रवैकृतशरीरः. ३ मूत्रकृच्छ्रातः... ४ वामा विद्याचार्यः. ५ भोक्ता. ६ कर. ७ ककुद. ८ चतुष्पदैः समृद्धं च. ९ मातुरपथ्यं,
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त्रयोविंशोऽध्यायः।
भूषणयानगृहाणां शयनासनगन्धवस्त्रमाल्यानाम् । भागिनमुपभोक्तारं सितेक्षितो यदि शशी कुरुते ॥ १३॥ धनहीनमनिष्टकरं वृषभे द्वेष्यं सदा च युवतीनाम् । सुतमित्रबन्धुसहितं रविसुतदृष्टः शशी कुरुते ॥१४॥ पूर्वार्धे सम्भूतो जननीमृत्युं करोति न चिरेण ।।
पश्चादधैं वृषभे पितुर्वियोगं शशी कुरुते ॥१५॥ उन्नासश्यामचक्षुः सुरतविधिकलाकाव्यकृद्भोगभोगी ___ हस्ते मत्स्याधिपांको विषयसुखरतो बुद्धिदक्षः सिरालः । कान्तः सौभाग्यहास्यप्रियवचनयुतः स्त्रीजितो व्यायताङ्गो
याति क्लीबैश्च सख्यं शशिनि मिथुनगे मातृयुग्मप्रपुष्टः॥१६॥ प्रज्ञाधनं प्रकाशं मिथुने रूपान्वितं सुधर्मिष्ठम् । अतिदुःखितमल्पार्थ करोति सूर्येक्षितश्चन्द्रः ॥ १७॥ अतिशूरमतिप्राज्ञं सुखवाहनविभवरूपसम्पन्नम् । कुरुते मिथुने चन्द्रो वक्रेण निरीक्षितोऽवश्यम् ॥ १८॥ अर्थोत्पादनकुशलं कुरुते ह्यपराजितं सुधीरं च । पार्थिवमखण्डिताज्ञं मिथुने बुधवीक्षितश्चन्द्रः ॥ १९॥ विद्याशास्त्राचार्य विख्यातं सत्यवाचमतिरूपम् । मान्यं वाग्मिनमिन्दुः करोति गुरुवीक्षितो मिथुने ॥ २० ॥ वरयुवतिमाल्यवस्त्रैर्वरवाहनयानभूषणैर्मणिभिः । क्रीडां कुरुते पुरुषो भृगुदृष्टे शशिनि मिथुनस्थे ॥ २१ ॥ कुरुते बान्धवरहितं युवतिसुखविभूतिवर्जितं चापि । ' अधनं लोकद्वेष्यं जितुमे शनिनेक्षितश्चन्द्रः ॥ २२ ॥ युक्तः सौभाग्ययोगैर्गृहसुहृदटनज्योतिषज्ञानशीलैः । - कामासक्तः कृतज्ञः क्षितिपतिसचिवः सत्प्रमाणः प्रवासी । सोन्मादः केशकल्पो जनकुसुमरुचिर्दानिवृद्ध्यानुयातः प्रासादोद्यानवापीप्रियकरणरतः पीनकण्ठः कुलीरे ॥ २३ ॥
नरपतिपुरुषमधन्यं धनरहितं क्लेशकारकं वाऽपि । १ धनसुखहीनमनिष्टं मातुर्वृषभे करोति युवतीनाम्. २ पुरुषम्. ३ बुद्बुदाक्षः. ४ सौभाग्यधैर्यगृह. ५ लेखहारकं.
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सारावली । कुरुते स्वगृहे चन्द्रो रविदृष्टो दुर्गपालं च ॥ २४ ॥ शूरं विकलशरीरं मातुरनर्थावहं प्रियं दक्षम् । क्षितितनयवीक्षिततनुर्जनयति चन्द्रो नरं स्वगृहे ॥ २५ ॥ अविकलमतिं नयज्ञं जनयति बुधवीक्षितः शशी स्वगृहे । धनदारपुत्रवन्तं नृपसचिवं सौख्यवन्तं च ॥ २६ ॥ नृपतिं नृपगुणयुक्तं जनयति चन्द्रः सुरेज्यसंदृष्टः । स्वगृहे सुखितसुभायें नयविनयपराक्रमाक्रान्तम् ॥ २७॥ धनकनकवस्त्रयोषिद्रत्नानां भाजनं शशी कुरुते । कर्कटके सितदृष्टो वेश्याजननायकं कान्तम् ॥ २८॥ अटनमसुखं दरिद्रं मातुरनिष्टं प्रियानृतं पापम् ।
शनिना दृष्टः स्वगृहे करोति चन्द्रो नरं नीचम् ॥ २९ ॥ स्थूलोस्थिर्मन्दरोमा पृथुवदनगलो ह्रस्वपिङ्गाक्षियुग्मः
स्त्रीद्वेषी क्षुत्पिपासाजठररदरुजापीडितो मांसभक्षः । दाता तीक्ष्णो ह्यपुत्रो विपिननगरतिर्मातृवश्यः सुवक्षा विक्रान्तः कार्यलापी शश,ति रविभे सर्वगम्भीरदृष्टिः ॥३०॥ नृपतिसपत्नं कुरुते प्रोत्कृष्टगुणं महास्पदं वीरम् । रविणा दृष्टः सिंहे पापरतं विश्रुतं चन्द्रः ॥ ३१॥ सेनापति प्रचण्डं नरयुवतिसुतार्थवाहनोपेतम् । जनयत्युत्तमपुरुषं कुजेक्षितश्चन्द्रमाः सिंहे ॥ ३२॥ स्त्रीसत्वं स्त्रीललितं स्त्रीवश्यं युवतिसेवक सिंहे । कुरुते बुधेन दृष्टो धनसुखभोगान्वितं चन्द्रः ॥ ३३ ॥ अभिजातं कुलपुत्रं बहुश्रुतं गुणसमृद्धं च । कुरुते नरेन्द्रतुल्यं गुरुदृष्टश्चन्द्रमाः सिंहे ॥३४॥ प्रमदाविभवैर्युक्तं रोगिणमपि युवतिसेवकं कुरुते । सुरतविधिज्ञं प्राज्ञं शशी हरौ शुक्रसन्दृष्टः ॥ ३५ ॥ कर्षकमधनं कुरुतेऽनृतवाचं दुर्गपालकं सिंहे ।
रविजेन तथा दृष्टो युवतिसुखैहीनमल्पकं च शशी ॥ ३६ ॥ १ स्थूलास्यो मन्द. २ ऽल्पपुत्रो. ३ महाखनं धीरं.
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त्रयोविंशोऽध्यायः ।
स्त्रीलोलो लम्बबाहुर्ललिततेनुमुखश्चारुदन्ताक्षिकर्णी विद्वानाचार्यधर्मा प्रियवचनयुतः सत्यशौचप्रधानः । धीरः सत्वानुकम्पी परविषयरतः क्षान्तिसौभाग्यभागी कन्याप्रायप्रसूतिर्बहुसुं तरहितः कन्यकायां शशाङ्के ॥ ३७ ॥ नृपकोशकरं ख्यातं गृहीतवाक्यं विशिष्टकर्माणम् । कन्यायां रविदृष्टो भार्याहीनं शशी कुरुते ॥ ३८ ॥ शिल्पाचार्यं ख्यातं धनवन्तं शिक्षितं सुधीरं च । कन्यायां कुदृष्टो मातुरनिष्टं शशी कुरुते ॥ ३९ ॥ ज्योतिषकाव्यविधिज्ञं विवादकलहेषु विजयिनं सुतराम् । सातिशयं कन्यायां जनयति निपुणं बुधेक्षितश्चन्द्रः ॥ ४० ॥ बन्धुजनाढ्यं सुखिनं नृपकृत्यकरं गृहीतवाक्यं च । कन्यायां गुरुदृष्टो जनयति विभवान्वितं चन्द्रः ॥ ४१ ॥ कन्यायां बहुदारं विविधालङ्कार भोगिनमथाढ्यम् । सततमिहोर्जितमुदितं कुरुते भृगुणा निरीक्षितश्चन्द्रः ॥४२॥ अदृढस्मृतिं दरिद्रं सुखरहितममातृकं युवतिवश्यम् । कन्यायां यमदृष्टः स्त्रीभोग्यधनं शशी कुरुते ॥ ४३ ॥ उन्नासो व्यायताक्षः कृशवदनतनुर्भूरिदारो वृषाढ्यो
गोर्भूभ्यः शौचसारो वृषसमवृषणो विक्रमज्ञः क्रियेशः । भक्तो देवद्विजानां बहुविभवयुतः स्त्रीजितो हीनदेहो
धान्यादानैकबुद्धिस्तुलिनि शशधरे बन्धुवर्गोपकारी ॥४४॥ अधनं व्याधितमटनं परिभूतं भोगविप्रयुक्तं च । असुतमसारं जूके जनयति रविवीक्षितश्चन्द्रः ॥ ४५ ॥ तीक्ष्णं चोरं क्षुद्रं परयोषिद्गन्धमाल्यसंयुक्तम् । मतिमन्नयनातुरगं जनयति वक्षितश्चन्द्रः ॥ ४६ ॥ दृष्ट्टो बुधेन चन्द्रः कलाविदग्धं प्रभूतधनधान्यम् | शुभवाक्यं विद्वांसं देशख्यातं तुलाधरे कुरुते ॥ ४७ ॥
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१ तनुयुत. २ बहुसुरतहितः ३ सुभगम्. ४ गुयः.
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.. सारावली । जीवेक्षितस्तुलायां जनयति सर्वत्र पूजितं हिमगुः । क्रयविक्रयेषु कुशलं रत्नादिषु भाण्डजातेषु ॥४८॥ ललितमरोगं सुभगं समुपचिताङ्गं धनान्वितं प्राज्ञम् । विविधोपायविधिज्ञं कुरुते भृगुवीक्षितः शशी तुलके ॥४९॥ कुरुते शशी धनाढ्यं प्रियवाक्यं वाहनैयुतं जूके । विषयरतिं सुखरहितं भास्करिदृष्टो हितं मातुः ॥ ५० ॥ लुब्धो वृत्तोरुजङ्घः कठिनतरतनुर्नास्तिकः क्रूरचेष्टः
चोरो बाल्ये रुगा? हृतचिबुकनखश्चारुनेत्रः समृद्धः । कर्मोद्युक्तः प्रदक्षः परयुवतिरतो बन्धुहीनः प्रमत्तः
चण्डो राज्ञा हृतस्वः पृथुजठरशिराः कीटभे शीतरश्मौ॥५१॥ कुरुते लोकद्वेष्यं बुधमटनं चैव वित्तवन्तं च । दिनकरदृष्टोऽलिगतश्चन्द्रः सुखवर्जितं पुरुषम् ॥ ५२॥
अनुपमधैर्यं कुरुते नृपतिसमं वृश्चिके विभूतियुतम् । . .. . . शूरमजय्यं समरे प्रभक्षणं भूमिजेन संदृष्टः ॥ ५३॥
अचतुरममृष्टवाक्यं यमलापत्यं च युक्तिमन्तं च । ... जनयति बुधेन दृष्टः कूटकरं वृश्चिके च गीतज्ञम् ॥ ५४॥
कर्मासक्तं कुरुते लोकद्वेष्यं च वित्तवन्तं च । गुरुणा दृष्टोऽलिगतो निशाकरो रूपवन्तं च ॥ ५५ ॥ अतिमदमतीव सुभगं धनवाहनभोगललितमिह कीटे । युवतिविनाशितसारं जनयति भृगुवीक्षितश्चन्द्रः ॥ ५६ ॥
नीचापत्यं कृपणं व्याधितमधनं च सत्यहीनं च । ... जनयत्यन्तकदृष्टो नरमधनं चन्द्रमाः कीटे ॥ ५७ ॥ कुब्जाङ्गो वृत्तनेत्रः पृथुहृदयकटिः पीनबाहुः प्रवक्ता
दीघासो दीर्घकण्ठो जलतटवसतिः शिल्पिविद् गूढगुहः । शूरो दृष्ठोऽस्थिसारो विततबहुबलः स्थूलकण्ठोष्ठघोणो ... बन्धुस्नेही कृतज्ञो धनुषि शशिधरे संहताभिः प्रगल्भः ॥५८॥
१ अतिमति. २ वर..३ लालितं कीटे. ४ विदित.
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त्रयोविंशोऽध्यायः। नृपतिमथाढ्यं कुरुते शूरं विख्यातपौरुषं चापे । भास्करदृष्टश्चन्द्रस्त्वनुपमसुखवाहनोपेतम् ॥ ५९ ॥ सेनापतिं समृद्धं सुभगं प्रख्यातपौरुषं पुरुषम् । जनयत्यनुपमभृत्यं क्षितिसुतदृष्टः शशी धनुषि ॥ ६०॥ बहुभृत्यं त्वक्सारं ज्योतिषशिल्पक्रियादिनिपुणं च । बुधदृष्टो हिमरश्मिनग्नाचार्य हये कुरुते ॥ ६१ ॥ अनुपमदेहं कुरुते पृथ्वीपालस्य मत्रिणं चापे । त्रिदशगुरुदृष्टमूर्तिर्धनधर्मसुखान्वितं चन्द्रः ॥ ६२ ॥ सुखिनमतीव हि ललितं सुभगं पुत्रार्थकामवन्तं च । चापे सुमित्रभार्य भार्गवदृष्टः करोतीन्दुः ॥ ६३ ॥ प्रियवादिनं सुवाक्यं बहुश्रुतं सत्यवादिनं सौम्यम् ।
अभिजातं नृपपुरुषं जनयति सौरेक्षितः शशी धनुषि ॥६४॥ गीतज्ञः शीतभीरुः पृथुलतरशिराः सत्यधर्मोपसेवी
प्रांशुः ख्यातोऽल्परोषो मनसि भवयुतो निर्बुणस्त्यक्तलजः । चार्वक्षः क्षामदेहो गुरुयुवतिरतः सत्कविवृत्तजचो
मन्दोत्साहोऽतिलुब्धः शशिनि मकरगे दीर्घकण्ठोऽतिकर्णः६५ अधनं दुःखितमटनं परकर्मरतं मलीमसं कुरुते । मकरे कुँवलयनाथः शिल्पमतिं वीक्षितो रविणा ॥ ६६ ॥ अतिविभवमत्युदारं सुभगं धनसंयुतं मृगे पुरुषम् । वाहनयुतं प्रचण्डं करोति वक्रेक्षितश्चन्द्रः ॥ ६७॥ मूर्ख प्रवासशीलं गतयुवंतिं चञ्चलं मृगे तीक्ष्णम् । जनयति बुधेन दृष्टः सुखरहितं निर्धनं पुरुषम् ॥ ६८ ॥ भूपतिमनुपमवीर्यं नृपतिगुणैः संयुतं मृगे जातम् । बहुदारपुत्रमित्रं जनयति गुरुवीक्षितश्चन्द्रः ॥ ६९ ॥ व(प)रयुवतिधनविभूषणवाहनमालान्वितं नरं मकरे ।
सोपक्रोशमपुत्रं जनयति भृगुवीक्षितश्चन्द्रः ॥ ७० ॥ १ नाट्याचार्य. २ चार्वगः. ३ ऽतिदीर्घः. ४ कुविषयनाथं शश्यल्पमतिं निरीक्षितो.
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सारावली। अलसं मलिनं सधनं मदनात पारदारिकमसत्यम् । दिवसकरपुत्रदृष्टः करोति चन्द्रो नरं मकरे ॥ ७१ ॥ उद्घोणो रूक्षदेहः पृथुकरचरणो मद्यपानप्रसक्तः
सद्वेष्यो धर्महीनः परसुतजनकः स्थूलमूर्धा कुनेत्रः । शाठ्यालस्याभिभूतो विपुलमुखकटिः शिल्पविद्यासमेतो
दुःशीलो दुःखतप्तो घटभमुपगते रात्रिनाथे दरिद्रः ॥७२॥ अतिमलिनमति च शूरं नृपरूपं धार्मिकं कृषिकरं च । कुरुते दिनकरदृष्टो घटधरसंस्थः क्षपानाथः ॥ ७३ ॥ कुम्भेऽतिसत्यवाक्यं मातृगुरुधनैर्वियुक्तमलसं च । विषमं परकार्यरतं करोति भौमेक्षितश्चन्द्रः ॥ ७४ ॥ शयनोपचारकुशलं गीतविधिज्ञं प्रियं च युवतीनाम् । तनुविभवसुखं पुरुषं करोति बुधवीक्षितः शशी कुम्भे ॥७५॥ ग्रामक्षेत्रतरूणां वरभवनानां वराङ्गनानां च । कुरुते भोगिनमार्य साधुं गुरुवीक्षितः शशी कुम्भे ॥ ७६ ॥ नीचमपुत्रममित्रं कातरमाचार्यनिन्दितं पापम् । कुरुते शशी कुयुवतिं सितेक्षितो घटधरेऽल्पसुखम् ॥७७॥ नखरोमधरं मलिनं परदाररतं शठं विधर्माणम् ।
स्थावरभागिनमाढ्यं शशी घटे सौरसंदृष्टः ॥ ७८ ॥ शिल्पोत्पन्नाधिकारो हितजयनिपुणः शास्त्रविचारुदेहो
गेयज्ञो धर्मनिष्ठो बहुयुवतिरतः सौख्यभाक् भूपसेवी । ईषत्कोपो महत्कः सुखनिधिधनभाक् स्त्रीजितः सत्स्वभावो
यानासक्तः समुद्रे तिमियुगलगते शीतगौ दानशीलः ॥७९॥ तीचमदनं प्रकाशं सुखिनं सेनापतिं धनसमृद्धम् । जनयति दिनकरदृष्टः सुमुदितभार्य शशी मीने ॥ ८० ॥ परिभूतं सुखरहितं कुलटापुत्रं च पापनिरतं च ।
जनयति नक्षत्रपतिः क्षितिसुतदृष्टो झषे शूरम् ॥ ८१॥ ' १ घटभृदुपगते. २ अशनो. ३ सौम्यवाक्. ४ ज्ञाने सक्तः. ५ सुत. ६ पापरहितं.
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चतुर्विशोऽध्यायः । जनयति बुधेन दृष्टो मीनस्थश्चन्द्रमाः पुरुषम् । भूपतिमतीव सुखिनं वरयुवतिसमावृतं वश्यम् ॥ ८२ ॥ गुरुदृष्टो मीनस्थो ललितं चन्द्रोऽग्रमाण्डलिकम् । अत्याढ्यं सुकुमारं बहुभिः स्त्रीभिवृतं जनयेत् ॥ ८३ ॥ कुरुते शशी सुशीलं रतिमन्तं नृत्यवाद्यगेयरतम् । शुक्रेक्षितो झषस्थो हृदयहरं कामिनीनां च ॥ ८४ ॥ विकलमहितं जनन्याः कामात पुत्रदारमतिहीनम् । कुरुते रविसुतदृष्टो नीचविरूपाङ्गनासक्तम् ॥ ८५ ॥ राशिपतौ बलयुक्ते राशौ च बलान्विते तथा चन्द्रे ।
राशिफलं स्यात् सकलं नीचोचविधिना च संचिन्त्यम् ८६ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चन्द्रचारो नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥
चतुर्विंशोऽध्यायः। भौमेशे कुजदृष्टो निकर्तनश्चन्द्रमाः प्रचण्डैश्च । जनयति मायाबहुलं प्रवञ्चकं सूर्यजेन किल पुरुषम् ॥१॥ सूर्येण चोरघातकमथवाप्यारक्षकं शूरम् । जीवेन मनुजनाथं ख्यातं विद्वत्समाराध्यम् ॥ २ ॥ शुक्रेण नृपतिसचिवं धनान्वितं स्त्रीविलेपनानुरतम् । शीघ्रं वदन्ति चपलं सौम्येन निरीक्षिते चन्द्रे ॥३॥ सितभागे सितदृष्टे योषिद्वस्त्रान्नपानधनसौख्यम् । जनयति बुधेन चन्द्रो वाद्यज्ञं नृत्तगेयपरम् ॥४॥ गुरुणा कविप्रधानं नयशास्त्रविशारदं नृपतिसचिवम् । परदारदर्शनपरं कामिनमारेण बहुभृत्यम् ॥ ५॥ सूर्येण महामूर्ख प्रियंवदं सततमन्नपानरुचिम् ।
सौरेण वर्धकीनां गुणैश्च सदृशं दिशति चन्द्रः ॥ ६ ॥ १ परयुवति. २ भौमांशे. ३ नंच. ४ ण्डं च. ५ कलि. ६ धर्षण. ७ कामिनमस्त्रेण बहुमान्यम्.
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, सारावली । बुधभागे बुधदृष्टः शिल्पाचार्य कविं शशी जनयेत् । शुक्रेक्षितो विशालं गेयज्ञं वचनसाराढ्यम् ॥ ७॥ नृपमत्रिणं गुणाढ्यं गुरुणा दृष्टः प्रतिष्ठितं कान्तम् । भौमेक्षितोऽतिचोरं विवादकुशलं नरं रौद्रम् ॥ ८ ॥ शास्त्रार्थकाव्यबुद्धिं प्राज्ञं शिल्पिनमवेक्षितः शशिना । रङ्गचरं विख्यातं जनयति सूर्येक्षितश्चन्द्रः ॥ ९॥ स्वांशे दिनकरदृष्टः शशी कृशतनुमविक्षतशरीरम् । परधनरक्षणनिपुणं लुब्धं नितरां कुजेनापि ॥ १० ॥ सौरेणाकृत्यकरं वधबन्धविवादसन्तप्तम् । शुक्रेण स्त्रीद्वेष्यं जनयेदथवा नपुंसकाकारम् ॥ ११ ॥ नृपमत्रिणं नृपं वा जनयति गुरुणावलोकितश्चन्द्रः । सौम्येनाधर्मरतं निद्राबहुलं च सेततमध्वरतम् ॥ १२ ॥ रविभागे रविदृष्टे सुरोषणः समुपलब्धकीर्तिधनः । पापो निर्दय इन्दौ सौरेण प्राणिनां हन्ता ॥ १३ ॥ भौमेन सुवर्णधनं ख्यातं नृपसत्कृतं प्रचण्डतरम् । गुरुणा दृष्टो जनयति चमूपति वा नरेन्द्रं वा ॥ १४ ॥ शुक्रेण दृष्टमूर्तिः सुतार्थिनं मृतसुतं वाऽपि । सौम्येन दैवचिन्तकमितिहासरतं च निधिभाजम् ॥ १५ ॥ गुरुभागे गुरुदृष्टो विशदं नृपवल्लभं विपुलकीर्तिम् । जनयति शशी सितेन स्त्रीणां भोगैः सुसंयुक्तम् ॥ १६ ॥ बुधदृष्टो हास्यकरं नृपप्रियं नायकं वरूथिन्याः । अस्त्राचार्यं कुरुते कुजेक्षितः सर्वतः ख्यातम् ॥१७॥ दोपैर्विविधैः ख्यातं दिनकरदृष्टो नरं प्रमाणस्थम् । सौरेण वृद्धशीलं बलिभिश्च निराकृतं नीचम् ॥ १८ ॥ सौरांशे शनिदृष्टः कृपणं रोगान्वितं मृतसुतं वा ।
सूर्येणाल्पापत्यं व्याधिग्रस्तं विरूपततुम् ॥ १९ ॥ १ कार्य. २ तर्नु परिक्षयशरीरम्. ३ हरणे. ४ शुक्रेस्त्रीवेषधरं. ५ सतमस्कम्. ६ हृतसुतं. ७ प्रणाश्यं वा.
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पञ्चविंशोऽध्यायः ।
२१ ॥
भौमेन नरपतिसमं स्वाढ्यं स्त्रीदुर्भगं सुखैर्युक्तम् । शुक्रेण विषमशीलं युवतिभिरवधीरितं धीरंम् ॥ २० ॥ सौम्येन पापनिरतं कुत्सितचरितं शशी सदा दृष्टः । गुरुणा स्वकर्मनिरतं कुरुते पुरुषं न चोदात्तम् ॥ वर्गोत्तमे स्वकीये परकीयनवांशके च दृष्टिफलम् | पुष्टं मध्यं स्वल्पं विपरीतं स्यादनिष्टफलम् ॥ २२ ॥ राशिफलं यद् दृष्टं पूर्वैः कथितं ग्रहैः शशाङ्कस्य । तस्य निरोधो दृष्टो यद्यंशपतिर्बली भवति ॥ २३ ॥ अंशपतेश्चन्द्रस्य च फलं विनिश्चित्य दर्शनकृतानि । कथितानि यवनवृद्धाः फलानि सम्यग्व्यवस्यन्ति ॥ २४ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अंशकदर्शने चन्द्रचारो नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
पञ्चविंशोऽध्यायः ।
तेजस्वी सत्ययुतः शूरः क्षितिपोऽथवा रणश्लाघी । साहसकर्माभिरतश्चमूपुरग्रामवृन्दपतिः ॥ १ ॥ रामसिको दानरतः प्रभूतगोऽजाविधान्यकरः । भौमे किये प्रचण्ड बहुयुवतिरतो भवेत्पुरुषः ॥ २ ॥ साध्वीव्रत भङ्गकरः प्रभार्षणो मन्दधनपुत्रः । द्वेष्यो बहुभरणपरो विस्रम्भस्थितिविहीनश्च ॥ ३ ॥ प्रोद्धतवेषक्रीडो बहुदुष्टवचाः कुजे वृषभसंस्थे । सङ्गीतरतः पापो बन्धुविरुद्धः कुलोत्सादी ॥ ४ ॥ कान्तः क्लेशसहिष्णुर्बहुश्रुतः काव्यविधिनिपुणः । नानाशिल्पकलासु च निपुणो बहुशो विदेशगमनरतः ॥ ५ ॥ धर्मपरो निपुणमतिर्हितानुकूलः सुतेषु सुहृदां च । मिथुनस् क्षितिपुत्रे भवति प्रचुरक्रियासु रतः ॥ ६ ॥ परगृहनिवासशीलो वैकल्यरुगर्दितः कृषिधनश्च । बाल्ये च राजभोजन वस्त्रेप्सुः परगृहान्नाशी ॥ ७ ॥ १ जरठम् २ पाननिरतं. ३ नवांशकेन्दुद्दष्टिफलं. ४ जनः . ६ प्रभक्षणो.
५ रतः.
७ सारा०
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सारावली।
सलिलाशयतो धनवान् पुनः पुनर्वृद्धिवेदनार्तश्च । कर्कटके क्षितितनये भवति मृदुः सर्वतो दीनः ॥ ८॥ असहः प्रचण्डशूरः परस्वसन्तानसङ्ग्रहणशीलः । अटवीनिवासगोकुलमांसरुचिः स्यान्मृतप्रथमदारः ॥ ९॥ व्यालमृगोरगहन्ता न पुत्रवान् धर्मफलहीनः । भौमे हरौ सुसत्वः क्रियोद्यतः स्याद्वपुष्मांश्च ॥ १० ॥ पूज्यः सतामतिधनो रतिगीतधनो मृदुप्रियाभाषी । विविधव्ययोऽल्पशौर्यो विद्वान् भवति प्रणीतपार्श्वश्व ॥११॥ अहितेभ्योऽर्जनभीरुर्वेदस्मृतिधर्मवान् सुबहुशिल्पः । कन्यायां भूतनये स्नानविलेपनरतः कान्तः ॥ १२ ॥ अध्वनिरतः सुपुण्यग्रसक्तवाक्यो विकत्थनः सुभगः । हीनाङ्गः स्वल्पजनः सङ्ग्रामेप्सुः परोपभोगी च ॥ १३ ॥ योषिद्गुरुमित्राणां मनोरमो नष्टपूर्वदारश्च । शौण्डिकवेश्यानिकटे सम्प्राप्तधनक्षयस्तुलिनि भौमे ॥१४॥ व्यापारश्रुतिसत्यश्चोरसमूहाधिपः क्रियानिपुणः । युद्धोत्सुकोऽतिपापो बह्वपराधी च वैरशठः ॥ १५ ॥ द्रोहवधाहितबुद्धिः प्रसूचको भूमिपुत्रयुवतीशः । वृश्चिकगे भूपुत्रे विषाग्निशस्त्रव्रणैस्तप्तः ॥ १६ ॥ बहुभिः क्षतैः कृशाङ्गो निष्ठुरवाक्यः शठः पराधीनः । रथगजपदातियोधी रथेन शरधारकोऽथ परसैन्ये ॥ १७॥ विपुलश्रमैश्च सुखितः परस्परं क्रोधनष्टसुखवित्तः । कार्मुकसंस्थे वके गुरुष्वसेक्तः पुमान् भवति ॥ १८ ॥ धन्यो वित्ताहर्ता सुखभोगसमन्वितो भवति सुस्थः । श्रेष्ठमतिः प्रख्यातः सेनानाथो नरेन्द्रो वा ॥ १९ ॥ सद्यःप्रतिरणविजयी स्वबन्धुविषयस्थितः स्वतत्रश्च । आरक्षकः सुशीलः कुजे स्वतुङ्गे बहूपचाररतः ॥ २० ॥
१ वह्नि. २ अधिकभीरुः. ३ कुपण्य. ४ पुत्राणां. ५ सत्यः, ६ सयुवती रणविजयी.
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पञ्चविंशोऽध्यायः ।
प्रश्रयशौचविहीनो वृद्धाकारः सुदुर्गतिर्मरणे । मात्सर्यासूयानृतवाग्दोषैरपहृतार्थश्च ॥ २१ ॥ रोमशगात्रो विकृतो द्यूताद्याहृतधनः कुवेषधरः । दुःखसमाहृतवृत्तिः पानरुचिदुर्भगः कुजे कुम्भे ॥ २२ ॥ रोगार्तो मन्दसुतः प्रवासशीलः स्वबन्धुपरिभूतः । मायावञ्चनदोषैर्हत सर्वखो विषादी च ॥ २३ ॥ जिह्मोऽतितीक्ष्णशोको गुरुद्विजावज्ञकः सदा हीनः । ईप्सितवेत्ता ज्ञाता स्तुतिप्रियोऽन्त्ये कुजे ख्यातः ॥ २४ ॥ धनदारपुत्रवन्तं नृपसचिवं दण्डनायकं ख्यातम् । नृपतिमुदारं कुरुते दिनेश्वरनिरीक्षितः कुजः स्वर्क्षे ॥ २५ ॥ मातृरहितं क्षताङ्गं स्वजनद्वेष्यं च मित्ररहितं च । स्वगृहेऽसृक् शशिदृष्टः सेर्घ्यं कन्याप्रियं कुरुते ॥ २६ ॥ परधनहरणे निपुणं चानृतकं कामदेवभक्तं च । कुरुते व ज्ञदृष्टो द्वेष्यं वेश्यापतिं भौमः ॥ २७ ॥ प्राज्ञं मधुरं सुभगं मातृपितृवल्लभं धनसमृद्धम् । अनुपममीश्वरमाढ्यं त्रिदशगुरुनिरीक्षितोऽवनेः पुत्रः ॥ २८॥ स्वगृहेऽसृक् सितदृष्टः स्त्रीहेतोर्बन्धभागिनं कुरुते । असकृत् सकृच विभवं स्त्रीहेतोरार्जितं चापि ॥ २९ ॥ चोरविघाते शूरं निर्वार्य स्वजनपरिहीनम् । अन्यस्त्रीभर्तारं जनयति सौरेक्षितः स्वभे भौमः ॥ ३० ॥ ॥ स्वर्क्षगत भौमस्य दर्शनफलम् ॥
७५
वनपर्वतेषु रमते रामाद्विष्टो भवेद्बहुविपक्षः । सितभे रविणा दृष्टे प्रचण्डवेषेः कुजे धीरः ॥ ३१ ॥ मातुरपथ्यो विषमो बहुयुवतीनां पतिः प्रियस्तासाम् । शुक्रगृहे शशिष्टे रणभीरुर्जायते भौमे ॥ ३२ ॥ कलहप्रियो दुवचा मृदुकायो मन्दपुत्रधनः । सितभे भवति च भौमे बुधदृष्टे शास्त्रवित्पुरुषः ॥ ३३ ॥
१ स्त्री हेतोरार्जवं याति २ कोपः ३ मातुरपक्षी. ४ वेषत्रधूनां ५ बहु.
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सारावली। वादितगीतविधिज्ञः सौभाग्ययुतः स्वबन्धुदयितश्च । शुक्रभवने क्षितिसुते दृष्टे गुरुणा भवेत् स्फीतः ॥ ३४ ।। नृपमन्त्री नृपदयितः सेनानाथः प्रसिद्धनामा च । शुक्रगृहे भवति कुजे शुक्रेण निरीक्षिते सुखितः ॥ ३५ ॥ सुखभाक् ख्यातो धनवान् मित्रखजनैयुतः कुजे विद्वान् । श्रेणिपुरग्रामाणामधिपः सितभे च शनिदृष्टे ॥ ३६ ॥
॥इति भृगुभे दृष्टिः ॥ विद्याधनशौर्ययुतं गिरिवनदुर्गप्रियं महासत्वम् । बुधभवने रक्ताङ्गो जनयति दृष्टः सदा रविणा ॥ ३७॥ कन्यांपुररक्षकरं युवतिपतिं सद्विनीतमतिसुभगम् । ज्ञगृहे नृपगृहपालं जनयति चन्द्रेक्षितो भौमः ॥ ३८॥ लिपिगणितकाव्यकुशलं बहुभाषिणमनृतमधुरवाक्यं च । दूतं बहुदुःखसहं जनयति वक्रो बुधेक्षितो ज्ञः ॥ ३९ ॥ राजपुरुषं प्रकाशं दौत्येन विदेशगं नरं कुरुते । सर्वक्रियासु कुशलं बुधराशौ नायकं च गुरुदृष्टः ॥ ४० ॥ शुक्रण दृश्यमानः स्त्रीकृत्यकरं समृद्धसुभगं च । बुधभवने रक्ताङ्गः कुरुते वस्त्रान्नभोक्तारम् ॥४१॥ आकरगिरिदुर्गरतं कर्षकमतिदुःखभागिनं कुरुते । अतिशूरमति च मलिनं यमेक्षितो बुधगृहे विभवहीनम्॥४२॥
____॥ इति बुधभवने दृष्टिः ॥ पित्तरुगर्दितदेहस्तेजस्वी दण्डनायको धीरः । चन्द्रगृहस्थे भौमे दिनकरदृष्टे भवेत्पुरुषः ॥४३॥ बहुभिर्व्याधिभिरातों नीचाचारो विरूपदेहश्च । शशिराशौ भूतनये शशिना दृष्टे सशोकश्च ॥४४॥ मलिनः पापाचारः क्षुद्रकुटुम्बो बहिष्कृतः स्वजनैः ।
कर्कटके बुधदृष्टे क्षितितनये भवति निर्लजः ॥ ४५ ॥ १ सुखभाग्ययुत्तो. २ सुखिनं धनिनं कान्तं कन्यापुररक्षकं युवतिसत्वयुतम्. ३ दैन्येन विदेशगं. ४ अतिशूरमतिं मलिनं.......... ..
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पञ्चविंशोऽध्यायः। विख्यातो नृपमत्री विद्वांस्त्यागान्वितो भवेद्धन्यः । गुरदृष्टे शशिभवने भोगैश्च विवर्जितो व ॥ ४६॥ स्त्रीसङ्गादुद्विग्नः परिभूतस्त्रीकृतैस्तथा दोषैः । । कर्कटके क्षितिपुत्रे सितदृष्टे स्याद्विपन्नधनः ॥४७ ।। जलसंयानो विधनः क्षितिपालसैमानललितचेष्टश्च । शशिगृहसंस्थे भौमे यमेक्षिते स्यात् सदा कान्तः ॥४८॥
॥ इति चन्द्रगृहे दृष्टिः ॥ प्रणतानां हितकारी मित्रैः स्वजनैश्च संयुतश्चण्डः । गोकुलवनाद्रिचारी सिंहे भौमे तरणिदृष्टे ॥ ४९॥ मातुन शुभो मतिमान् कठिनशरीरो विपुलकीर्तिः । केसरिभवने भौमे शशिना दृष्टेऽङ्गनाप्रार्थ्यः ॥ ५० ॥ बहुशिल्पज्ञो लुब्धः काव्यकलालम्पटो विषमशीलः । पञ्चमभवने भौमे बुधेन दृष्टेऽतिनिपुणश्च ॥५१॥ भूपतिसमीपवर्ती विद्याचार्यों विशुद्धबुद्धिश्च । अवनिसुते सिंहस्थे गुरुणा दृष्टे चमूनाथः ॥ ५२ ॥ विविधस्त्रीभोगयुतः स्त्रीसुभगो नित्ययौवनो हृष्टः । लेयगृहे रक्ताङ्गे सितेन दृष्टे भवेजातः ॥ ५३॥ वृद्धाकारो निःस्वः परवेश्मभ्रमणशीलवान् दुःखी । दिनकरराशौ रुधिरे दिनकरतनयेन संदृष्टे ॥ ५४॥
॥ इति सिंहे दृष्टिः ॥ लोकनमस्यं सुभगं वनगिरिदुर्गेषु लॅब्धगृहवासम् । सुरगुरुभवने भौमः करोति रविणेक्षितः क्रूरम् ॥ ५५॥ विकलं कलहप्रायं प्राज्ञं रुधिरः करोति शशिदृष्टः । विद्वांसं गुरुभवने नृपतिविरुद्धं सदा पुरुषम् ॥ ५६ ॥ मेधाविनं सुनिपुणं शिल्पाचार्य बुधेन संदृष्टः । गुरुभवने क्षितितनयः करोति विद्वांसमत्यन्तम् ॥ ५७ ॥
१ स्त्रीसङ्गानष्टधनः. २ जलसंयानाप्तधनः. ३ क्षितिपालसमः पुमान् ल• लितचेष्टः. ४ अङ्गनाप्तार्थः. ५ सद्गृहावासम्. ६ शूरम्. ७ विकलांसमतिनिपुणम्.
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सासवली
अकलत्रं सुखरहितं रिपुभिरधृष्यं च वित्तवन्तं च । गुरुभवने गुरुंदृष्टो व्यायामपरं कुजः कुरुते ॥ ५८ ॥ कन्यानामतिदयितं चित्रालङ्कारभागिनमुदारम् । विषयपरमति च सुभगं गुरुभे काव्येक्षितः कुजः कुरुते ५९ गुरुभेऽसृक् शनिदृष्टः कुशरीरमुदारमाहवे पापम् । अटनं सुखलवरहितं परधर्मरतं कुजः कुरुते ॥ ६० ॥
॥ इति गुरुमे दृष्टिः ॥ अतिकृष्णतनुं शूरं योषिदपत्यार्थविस्तरैर्युक्तम् । सूर्येक्षितोऽतितीक्ष्णं सौरगृहे भूमिजः कुरुते ॥६१ ॥ चपलमहितं जनन्या यमभेऽलंकारभागिनमुदारम् । अस्थिरसौहृदमाढ्यं जनयति चन्द्रेक्षितो वक्रः ॥ ६२ ॥ अतिमधुरगमनमधनं रवितनयगृहे न निर्वृतमसत्वम् । कापटिकमधर्मपरं जनयति बुधवीक्षितो भौमः ॥ ६३ ॥
विरूपं मन्दगृहे नृपतिगुणसमन्वितं स्थिरारम्भम् । दीर्घायुषं क्षमाजो गुरुसंदृष्टः करोति बन्ध्वाप्तम् ॥ ६४॥ विविधोपभोगमाढ्यं शनिभे स्त्रीपोषणानुरतमेव । शुक्रेण दृश्यमानो जनयति कलहप्रियं वक्रः ॥ ६५ ॥ नृपतिमतिवित्तवन्तं युवतिद्वेष्यं बहुप्रजं प्राज्ञम् । सुखरहितं रणशौण्डं करोति शनिभे शनीक्षितो भौमः ॥६६॥
॥ इति शनिभे दृष्टिः ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अङ्गारकचारो नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥
पड़िशोऽध्यायः । प्रियविग्रहस्तु वेत्ताचार्यों विटधूर्तचेष्टकृशगात्रः । सङ्गीतनृत्तनिरतो न सत्यवचनो रतिप्रियो लिपिवित् ॥१॥ कूटकरो बह्वाशी बहुश्रमोत्पन्ननष्टधनः । 'बह्वणबन्धनभागी चलस्थिरः स्यात् क्रिये बुधे कितवः ॥२॥
१ सुखधनरहितं. २ अतिमधुरमटन. ३ अतिरूपम्.
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पड्विंशोऽध्यायः ।
दक्षः प्रगल्भदाता ख्यातो विज्ञातवेदशास्त्रार्थः । व्यायामाम्बरभूषणमाल्याभिरतः स्थिरप्रकृतिः ॥३॥ स्फीतधनस्त्रीसहितः प्रियवल्गुकथो गृहीतवाक्यश्च । गान्धर्वहास्यशीलो रतिलोलो वै बुधे वृषभे ॥४॥ शुभवेषः प्रियभाषी प्रख्यातधनो विकत्थनो मानी। प्रोज्झितसुखकोल्परतिस्त्रिीपुत्रो विवादरतः ॥ ५॥ श्रुतिकल्पकलाभिज्ञः कविः स्वतत्रः प्रियः प्रदानरतः । कर्मठबहुसुतमित्रो नरमिथुनस्थे बुधे भवति ॥६॥ प्राज्ञो विदेशनिरतः स्त्रीरतिगेयादिसक्तचित्तश्च । चपलो बहुप्रलापी स्वबन्धुविद्वेषवादरतः ॥७॥ स्त्रीवैरान्नष्टधनः कुत्सितशीलो बहुक्रियाभिरतः । सुकविः कर्कटसंस्थे स्ववंशकीर्त्या प्रसिद्धश्च ॥ ८॥ ज्ञानकलापरिहीनो लोकख्यातो नसत्यवाक्यश्च । अल्पस्मृतिश्च धनवान् सत्वविहीनः सहजहन्ता ॥९॥ स्त्रीदुर्भगः स्वतत्रो जघन्यकर्मा बुधे भवंति पुरुषः । प्रेष्योऽप्रजस्तु सिंहे स्वकुलविरुद्धो जनाभिरामश्च ॥ १०॥ धर्मप्रियोऽतिवाग्मी चतुरः स्याल्लेख्यकाव्यज्ञः। .. विज्ञानशिल्पनिरतो मधुरः स्त्रीवल्पवीर्यश्च ॥ ११ ॥ ज्येष्ठः पूज्यः सुहृदां नानाविनयोपचारवाँदरतः । ख्यातो गुणैरुदारः कन्यायां सोमजे बलवान् ॥ १२ ॥ शिल्पविवादाभिरतो वाक्चतुरोऽर्थार्थमीप्सितव्ययकृत् । नानादिपण्यरतिर्विप्रातिथिदेवगुरुभक्तः ॥ १३ ॥ कृतकोपचारकुशलः सुसम्मतो देवभक्तश्च । सप्तमभवने शशिजे शठश्वलक्षिप्रकोपपरितोषः ॥ १४ ॥ श्रमशोकानर्थपरः सद्वेष्योऽत्यन्तधर्मलेजश्च । मूों न साधुशीलो लुब्धो दुष्टाङ्गनारमणः ॥ १५ ॥ पारुष्यदण्डनिरतश्छलकृद्विद्विष्टकर्मसु निरुद्धः ।
ऋणवान्नीचानुरुचिः परवस्त्वादानवान् कीटे ॥१६॥ १ गभीर. २ युवतिरूपः. ३ मानी. ४ दार. ५ वर्जश्च.
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: सारावली । विख्यातोदारगुणः शास्त्रश्रुतिशौर्यशीलसमधिगतः । मत्री पुरोहितो वा कुलप्रधानो महापुरुषः ॥ १७ ॥ यज्ञाध्यापननिरतो मेधावी वाक्पटुव्रती दाता। . लिपिलेख्यदानकुशलः कार्मुकसंस्थे बुधे जातः ॥ १८॥ नीचो मूर्खः षण्ढः परकर्मकरः कुलादिगुणहीनः । नानादुःखपरीतः स्वप्नविहारादिशीलश्च ॥ १९ ॥ पिशुनस्त्वसत्यचेष्टो बन्धुविमुक्तोत्यसंस्थितात्मा च । मलिनो भयसञ्चलितो दिष्टो मकरे बुधे पुरुषः ॥२०॥ वाग्बुद्धिकर्मनिरतः प्रकीर्णधर्मावर्जविहितार्थः । परपरिभूतो न शुचिः शीलविहीनस्ताऽज्ञश्च ॥ २१ ॥ अतिदुष्टदारशत्रु गैस्त्यक्तो घटे विवाग्भवति । अतिदुर्भगोऽतिभीरुः क्लीबो मलिनो विधेयश्च ॥ २२॥ आचारशौचनिरतो देशान्तरगोऽप्रजो दरिद्रश्च । शुभयुवतिः कृतिसाधुः सतां च सुभगो विधर्मरतः ॥ २३॥ सूच्यादिकर्मकुशलो विज्ञानश्रुतिकलावियुक्तश्च । परधनसंचयदक्षो मीने शशिजेऽधनः प्रकीर्णश्च ॥ २४ ॥ सत्यवचनं सुखाढ्यं भूपतिसत्कारसत्कृतं मनुजम् । कुरुते बुधोऽर्कदृष्टो बन्धुजने सुक्षमं कुजभे ॥ २५ ॥ रजनीकरण दृष्टो युवतिजनमनोहरं क्षितिजराशौ । अतिसेवकमतिमलिनं चन्द्रसुतो हीनशीलं च ॥ २६ ॥ अनृतप्रियं सुवाक्यं कलहसमेतं च पण्डितं कुजभे । जनयति कुजेन दृष्टः प्रचुरधनं क्षितिपवल्लभं शूरम् ॥२७॥ सुखिनं कुजभे शशिजः स्निग्धाङ्गं रोमशं सुकेशं च । जीवेक्षितोऽतिधनि जनयत्याज्ञपिकं पापम् ॥ २८ ॥ नृपकृत्यकरं सुभगं गणनगरपुरोगमं चतुरवाक्यम् । प्रत्ययिकं सितदृष्टः कुजमे स्त्रीसंयुतं शशिजः ॥ २९ ॥
१ शिल्प. २ विभवः. ३ शब्द, शास्त्र. ४ निष्ठो. ५ रहितः ६ लज्ज. ७ विहितात्मा. ८ कलाज्ञश्च. ९ विज्ञातः. १० रतं. ११ प्रत्ययिनं. १२ युजं,
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पडिशोऽध्यायः ।
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रुधिरगृहे शनिष्ट हिमकिरणसुतोऽतिदुःखितं जनयेत् । उग्रं हिंसाभिरतं कुलजनहीनं नरं नित्यम् ॥ ३० ॥
॥ इति कुजभे दृष्टिः ॥ दारिद्र्यदुःखततं व्याधितदेहं परोपचाररतम् । दिनकरदृष्टः सौम्यः कुरुते जनधिक्कृतं सित ॥ ३१ ॥ प्रत्ययितं धनवन्तं दृढभक्तिमारोगिणं दृढकुटुम्बम् । ख्यातं नरेन्द्रसचिवं ज्ञश्चन्द्रनिरीक्षितः सितभे ॥ ३२ ॥ व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तं क्लिष्टं भूपावमानसन्तप्तम् । जनयति विंदसृग्दृष्टो बहिष्कृतं सर्वविषयेभ्यः ॥ ३३ ॥ प्राज्ञं गृहीतवाक्यं देशपुरश्रेणिनायकं ख्यातम् । त्रिदशगुरुदृष्टमूर्तिर्जनयति सौम्यः सितगृहस्थः ॥ ३४ ॥ सुभगं ललितं सुखिनं वस्त्रालङ्कारभोगिनं सितभे । हृदयहरं कन्यानां कुरुते शुक्रेक्षितः सौम्यः ॥ ३५ ॥ शुक्रगृहेऽर्कजदृष्टः सुखरहितं बन्धुशोकसंक्लिष्टम् । व्याधितमनर्थबहुलं सौम्यः कुरुते नरं मलिनम् ॥ ३६ ॥
॥ इति शुक्रगृहे बुधस्य दृष्टिः ॥
अवितथकथनं मधुरं नृपवल्लभमीश्वरं ललिनचेष्टम् । दयितं करोति लोके रविणा दृष्टो बुधः खगृहे ॥ ३७ ॥ सुमधुरमतिवाचाटं कलहरतं शास्त्रवत्सलं सुदृढम् । जनयति शशिना दृष्टो बुधः शुभं सर्वकार्येषु ॥ ३८ ॥ विक्षतगात्रं मलिनं प्रतिभायुक्तं नरेन्द्रभृत्यं च । वल्लभमतीव कुरुते स्वगृहे रुधिरेण सन्दृष्टः ॥ ३९ ॥ पार्थिवमत्रिणमग्र्यं प्रतिरूपमुदारविभवपरिवारम् । यूपध्वजेन दृष्टो जनयति शूरं स्वभे सौम्यः ॥ ४० ॥ प्राज्ञं नरेन्द्रभृत्यं दूतं वा सन्धिपालकं शशिजः । स्वगृहे सितेन दृष्टो जनयति नीचाङ्गनासक्तम् ॥ ४१ ॥
१ बुधोऽसृग्दृष्टः २ शस्त्रवत्सलं. ३ अविहृतगात्रं.
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सारावली। सततोत्थितं विनीतं सफलारम्भं परिच्छदसमृद्धम् । सौम्यः स्वगृहे दृष्टो रविजेन नरं सदा कुरुते ॥ ४२ ॥
॥इति खगृहे दृष्टिः॥ रजकं मालाकारं ग्रहवास्तुशं तथा च मणिकारम् । जनयति रविणा दृष्टो बुधो गृहं शिशिरगोश्च गतः॥४३॥ युवतिविनाशितसारं युवतिनिमित्तं च दुःखितशरीरम् । कर्कटके शशिदृष्टो जनयति सुखवर्जितं सौम्यः ॥४४॥ स्वल्पश्रुतमतिमुखरं प्रियानृतं कूटकारिणं चोरम् । वक्रेक्षितः शशिगृहे कुरुते सौम्यः प्रियालापम् ॥ ४५ ॥ मेधाविनमतिदयितं भाग्ययुतं वल्लभं नरेन्द्राणाम् । गुरुणा दृष्टः शशिभे विद्यानां पारगं बुधः कुरुते ॥ ४६॥ कन्दर्पसदृशरूपं प्रियंवदं गीतवादनविधिज्ञम् । सुभगं शशिभे ललितं कुरुते शुक्रेक्षितः सौम्यः ॥ ४७॥ दम्भरुचिं पापरतं बन्धनभाजं गुणैर्वियुक्तं ज्ञः । द्वेष्यं सहजाचार्यैः कुरुते सौरेक्षितः शशिभे ॥४८॥
॥ इति कर्कटके दृष्टिः ॥ सेव्यं दिनकरदृष्टो धनगुणवृद्धं नरं बुधः कुरुते । हिंस्रं क्षुद्रं सिंहे चञ्चलभाग्यं विगतलज्जम् ॥४९॥ रूपान्वितमतिचतुरं काव्यकलागेयनृत्तरतिमिनभे । धनिनं सुशीलवेषं कुरुते चन्द्रेक्षितः सौम्यः ॥ ५० ॥
ज्ञो नीचं रविभवने दुःखात विक्षताङ्गसमरूपम् । ....... अचतुरलीलाकान्तं नपुंसकं भौमसन्द्रष्टः ॥५१॥
सुकुमारमतिप्राज्ञं रविभे वागीश्वरं त्वतिख्यातम् । परिचारवाहनयुतं कुरुते गुरुवीक्षितः सौम्यः ॥ ५२ ॥ अतिशयरूपं ललितं प्रियंवदं वाहनाढ्यमतिधीरम् । जनयति सितेन दृष्टो मत्रिणमथ पार्थिवं सिंहे ॥ ५३॥ व्यायतगात्रं रूक्षं सुविरूपं स्वेदनोग्रगन्धं च । . अतिदुःखितं रविगृहे जनयति सुखवर्जितं रविजदृष्टः ॥५४॥
॥ इति सिंहे दृष्टिः ॥ १ मधुरं. २ सेj. ३ भावं. ४ कल्पिताङ्ग. ५ च विख्यातम्. ६ शुचिरूपं.
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षाडशोऽध्यायः ।
शूरं प्रमेहपीडितमश्मर्योपहतमातुरं शान्तम् । जनयति रविणा दृष्टो जीवगृहे चन्द्रजः पुरुषम् ॥ ५५ ॥ लेखकमतिसुकुमारं प्रत्ययितं संमतं गुरुगृहस्थः । सुखभागिनमत्याढ्यं कुरुते चन्द्रेक्षितः सौम्यः ॥ ५६ ॥ श्रेणीभृतिनगराणां चोराणां विपिनवासिनां चापि । कुरुते लिपिकरमधिपं सौम्यो गुरुमन्दिरे रुधिरदृष्टः ॥ ५७ ॥ स्मृतिमतिकुलसम्पन्नं गुरुभे प्रतिरूपमार्थविज्ञानम् । नृपमत्रकोशपालं लिपिकरमिह वीक्षितो गुरुणा ॥ ५८ ॥ कन्याकुमारकाणां लेख्याचार्यं धनान्वितं कुरुते । गुरुभे भृगुसुतदृष्टः सुकुमारं शौर्यसंयुतं शशिजः ॥ ५९ ॥ दुर्गारण्याभिरतं बह्वशनं दुष्टशीलमतिमलिनम् । कुरुते रविसुतष्टो बुधो नरं सर्वकार्यविभ्रष्टम् ॥ ६० ॥ ॥ इति गुरुभे दृष्टिः ॥ मलमतिसारयुक्तं बहुभक्षं निष्ठुरं प्रियालापम् | जनयति रविणा दृष्टः सौरगृहे बोधनः ख्यातम् ॥ ६१ ॥ जलजीविनं समृद्धं पुष्पसुराकन्दवणिजं वा । भीरुस्वरूपमचरं शनि चन्द्रेक्षितः कुरुते ॥ ६२ ॥ वाक्चपलमतिसुसौम्यं व्रीडालसमन्थरं सुखाधारम् । कुरुते भूसुतो रवितनयगृहे बुधः पुरुषम् ॥ ६३ ॥ बहुधनधान्यसमृद्धं ग्रामपुरश्रेणिपूजितं सुखिनम् । कुरुते गुरुणा दृष्टः सौरगृहे बोधनः ख्यातम् ॥ ६४ ॥ नीचापतिं विरूपं बुद्धिविहीनं च कामवश्यं च । अतिसुतजननं कुरुते भार्गवदृष्टो बुधः शनिभे ॥ ६५ ॥ पापकरं सुदरिद्रं कर्मकरं चातिदुःखितं दीनम् । कुरुते शनिना दृष्टः सौरगृहे बोधनः पुरुषम् ॥ ६६ ॥ ॥ इति शनिभे दृष्टिः ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां बुधचारो नाम षड्विंशोऽध्यायः
१ प्रत्ययिकं . २ सुखाधीनम्.
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: सारावली ।
सप्तविंशोऽध्यायः। वादिगुणैः सम्पन्नः प्रयत्नरत्नाभरणंसंसर्गः । सत्वात्मजार्थबलयुक् प्रगल्भविख्यातकर्मा च ॥१॥ ओजस्वी बहुशत्रुर्बहुव्ययार्थः क्षताङ्कितशरीरः । चण्डोग्रदण्डनाथो जीवे क्रियगे भवेत्पुरुषः ॥२॥ पीनो विशालदेहः सुरद्विजगवां च भक्तिमान् कान्तः । सुभगः स्वदारनिरतः सुवेषकृषिगोधनाढ्यश्च ॥३॥ सद्वस्तुभूषणयुतो विशिष्टवाङ्मतिगुणो नयज्ञश्च । वृषभे गुरौ विनीतो भिषक् प्रयोगाप्तकौशलकः ॥ ४ ॥ आहितधनः सुमेधा विज्ञानविशारदः सुनयनश्च । वाग्मी दाक्षिण्ययुतो निपुणः स्याद्धर्मशीलश्च ॥५॥ मान्यो गुरुबन्धूनां मण्डनमाङ्गल्यलब्धवरशब्दः । मिथुनस्थे देवगुरौ क्रियारतिः सत्कविश्चैव ॥ ६ ॥ विद्वान् सुरूपदेहः प्राज्ञः प्रियधर्मसत्स्वभावश्च । सुमहद्बलो यशस्वी प्रभूतधान्याकरधनेशः ॥७॥ सत्यसमाधिसुयुक्तः स्थिरात्मजो लोकसत्कृतः ख्यातः । नृपतिर्जीवे शशिभे विशिष्टकर्मा सुहृज्जनानुरतः ॥ ८॥ दृढवैरसत्वधीरः सुबहुस्नेहः सुहृजने विद्वान् । आढ्यः शिष्टाभिजनो नृपो नृपतिपौरुषः सभालक्ष्यः ॥९॥ त्रिदशगुरौ सिंहस्थे समस्तरोषोद्धृतारिपक्षश्च । सुदृढव्यस्तशरीरो गिरिदुर्गवनालये जातः ॥ १० ॥ मेधावी धर्मपरः क्रियापटुर्धर्मवान्युवतिराशौ । प्रियगन्धपुष्पवस्त्रः कृत्येषु विनिश्चितार्थश्च ॥ ११॥ शास्त्रार्थशिल्पकार्यैर्धनवान् दाता विशुद्धशीलश्च । स्याद्देवगुरौ निपुणश्चित्राक्षरविद्धनसमृद्धः ॥ १२ ॥ मेधावी बहुपुत्रो विदेशचर्यागतः प्रभूतधनः ।
भाषाप्रियो विनीतो नटनर्तकसंगृहीतधनः ॥ १३॥ १ सभासङ्गः. २ समेतः, ३ भूषाप्रियो.
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सप्तविंशोऽध्यायः। कान्तः श्रुताभिनिरतो महत्तरः सार्थवाहवणिजां हि । वणिजीन्द्रमत्रिणि गते सुरातिथीज्यारतः प्राज्ञः ॥ १४ ॥ बहुशास्त्राणां कुशलो नृपतिर्बहुभाष्यकारको निपुणः । देवालयपुरकर्ता सद्बहुदारोऽल्पपुत्रश्च ॥ १५ ॥ व्याध्यातः श्रमबहुलः प्रसक्तदोषो गुरौ भवत्यलिनि । दम्भेन धर्मनिरतो जुगुप्सिताचारनिरतश्च ॥ १६ ॥ आचार्यों व्रतदीक्षायज्ञादीनां स्थिरार्थश्च ।। दाता सुहृत्स्वपक्षः प्रियोपकारश्रुताभिरतः ॥ १७॥ माण्डलिको मन्त्री वा धनुर्धरस्थे भवेत्सदा जीवे । नानादेशनिवासी विविक्ततीर्थायतनबुद्धिः ॥१८॥ लघुवीर्यों मकरस्थे बहुश्रमक्लेशधारको जीवे । नानाचारो मूर्यो दुरन्तनिःस्वः परप्रेष्यः ॥ १९ ॥ माङ्गल्यदयाशौचस्वबन्धुवात्सल्यधर्मपरिहीनः । दुर्बलदेहो भीरुः प्रवासशीलो विषादी च ॥ २० ॥ पिशुनो न साधुशीलः कुशिल्पतोयाश्रमेषु कर्मरतः । मुख्यो गणस्य सुतरां नीचाभिरतो नृशंसश्च ॥ २१ ॥ लुब्धो व्याधिग्रस्तः स्ववाक्यदोषेण नाशितार्थश्च । प्रज्ञादिगुणैीनो घटे गुरौ स्याद्गुरुस्त्रीगः ॥ २२ ॥ वेदार्थशास्त्रवेत्ता सुहृदां पूज्यः सतां च नृपनेता । श्लाघ्यः सधनोऽधृष्यो बहीनदर्पस्थिरारम्भः ॥२३॥ राज्ञः सुनीतिशिक्षाव्यवहाररणप्रयोगवेत्ता च । ख्यातः प्रशान्तचेष्टो स्थिरसत्वयुतश्च मीनगे जीवे ॥ २४ ॥ धर्मिष्ठमनृतभीरुं विख्यातसुतं महाभाग्यम् । भौमगृहे रविदृष्टो ह्यतिरोमचितं गुरुः कुरुते ॥ २५ ॥ इतिहासकाव्यकुशलं बहुरत्नं स्त्रीषु भाजनं कुरुते । कुजगेहे शशिदृष्टस्त्रिदशगुरुः पार्थिवं प्राज्ञम् ॥ २६ ॥
१ हर्म्य. २ रोषो. ३ समः स्थिरार्थश्च. ४ हार. ५ नीचा. ६ वास. ७ स्त्रीकः. ८ विशत्रुगर्वस्थिरारंभः. ९ मीनयुगे भवति ना.
८ सारा.
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सारावली । नृपपुरुषशूरमुग्रं नयविनयसमन्वितं च विधनं च । अविधेयभृत्यदारं जनयति वक्रेक्षितो जीवः ॥२७॥ अनृतं वञ्चनपापं परविवरान्वेषणेषु निपुणं च । सेवाविनयकृतज्ञं कापटिकं सौम्यसंदृष्टः ॥ २८ ॥ गृहशयनवसनगन्धैर्माल्यालङ्कारयुवतिभिर्विभवैः । समुचितमतीव भीरुं कुरुते शुक्रेक्षितो जीवः ॥ २९ ॥ मलिनं लुब्धं तीक्ष्णं साहसिकं संमतं च सिद्धं च । अस्थिरमित्रापत्यं त्रिदशगुरुः सौरसंदृष्टः ॥ ३०॥
॥ इति जीवस्य कुजभे दृष्टिः ॥ । द्विपदचतुष्पदभागिनमत्यटनं व्यायताङ्गमिह पुरुषम् । प्राज्ञं नरेन्द्रसचिवं करोति सूर्येक्षितो जीवः ॥ ३१ ॥ अतिधनमतीव मधुरं जननीदयितं प्रियं च युवतीनाम् । अत्युपभोगं कुरुते चन्द्रेण निरीक्षितो जीवः ॥ ३२॥ दयितं बालस्त्रीणां प्राशं शूरं च धनसमृद्धं च । सुखिनं नरेन्द्र पुरुषं भृगुभे जीवो रुधिरदृष्टः ॥ ३३॥ प्राज्ञं चतुरं मधुरं सुधनं विभवान्वितं गुणसमृद्धम् । सुरुचिरशीलं कान्तं जनयति बुधवीक्षितो जीवः ॥ ३४ ॥ अतिललितमति च धनिनं परभूषणधारिणं मृजाशीलम् । वरशयनं वरवसनं भृगुभे भृगुवीक्षितो जीवः ॥ ३५ ॥ प्राज्ञं बहुधनधान्यं महत्तरं ग्रामनगरपुरुषाणाम् । मलिनमरूपमभार्यं कुरुते सौरेक्षितो जीवः ॥ ३६॥
॥ इति जीवस्य भृगुभे दृष्टिः ॥ आय ग्रामश्रेष्ठं कुटुम्बिनं दारपुत्रधनयुक्तम् । बुधभे दिनकरदृष्टस्त्रिदशगुरुमानवं कुरुते ॥ ३७॥ चन्द्रक्षितस्तु कुरुते वसुमन्तं मातृवर्लभं धन्यम् ।
सुखयुवतिपुत्रवन्तं सुरगुरुरतिरूपमनुपमं बुधभे ॥ ३८ ॥ १ धनिनं. २ त्याढ्यं. ३ ङ्गिनं पुरुषम्. ४ सुभगं. ५ दारपुत्रगृहयुक्तम्. ६ मातृवत्सलं.
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सप्तविंशोऽध्यायः ।
शाश्वतसुलब्धविषयं चिंत्रितगात्रं धनान्वितं कुरुते । धरणिसुतेक्षितदेहस्त्रिदशगुरुः संमतं लोके ॥ ३९ ॥ कुरुते ज्योतिषकुशलं बहुसुतदारं च सूत्रकारं च । अतिशयविरूपवाक्यं बुधमे सौम्येक्षितो जीवः ॥ ४० ॥ देवप्रासादानां कृत्यकरं वेशदारभोक्तारम् । हृदयहरं नारीणां कुरुते शुक्रेक्षितो जीवः ॥ ४१ ॥ श्रेणीगणराष्ट्राणां पुरोगमं ग्रामपत्तनानां च । जनयति शनिना दृष्टः सुतनुं जीवो नरं बुधभे ॥ ४२ ॥ ॥ इति जीवस्य बुध दृष्टिः ॥
૮
रविष्टः शशिभवने विख्यातं ह्यग्रगं समूहानाम् । सुखधनदारविहीनं पश्चादाढ्यं गुरुः कुरुते ॥ ४३ ॥ अत्यर्थं द्युतिमन्तं नृपतिं बहुकोशवाहनसमृद्धम् । उत्तमयुवतीपुत्रं जनयेच्छशिभे गुरुर्हिमगुदृष्टः ॥ ४४ ॥ कौमारदारमाढ्यं हेमालङ्कारभागिनं प्राज्ञम् । शूरं सव्रणगात्रं रुधिराङ्गनिरीक्षितो गुरुः कुरुते ॥ ४५ ॥ बान्धवमात्रनिमित्तं धनिनं कलहान्वितं विगतपापम् । जनयति बुधेन दृष्टः प्रत्ययिनं मत्रिणां जीवः ॥ ४६ ॥ बहुदारं बहुविभवं नानालङ्कारभागिनं सुखिनम् । भृगुतनयदृष्टमूर्तिः सुभगं पुरुषं गुरुः कुरुते ॥ ४७ ॥ सौरेण दृष्टमूर्तिर्महत्तरं ग्रामसैन्यनगराणाम् । वाचाटं बहुविभवं वार्धक्ये भोगभागिनं जीवः ॥ ४८ ॥ ॥ इति कटके जीवदृष्टिः ॥
सिंहे दयितं ख्यातं सतां च नृपतिं महाधनसमृद्धम् । जनयति दिनकरदृष्टस्त्रिदशगुरुर्नरमतीव हि सुशीलम् ॥४९॥ अतिसुभगमति च मलिनं स्त्रीभाग्यैरतिसुभगमत्याढ्यम् । लेये चन्द्रसुदृष्टो जितेन्द्रियं जनयति सुरेज्यः ॥ ५० ॥
१ विजयं . २ विकृत ३ प्रसादसुमुखं. ४ प्रत्यायकसमन्त्रिणं. ५ स्त्रीभाग्यैरुपचितार्थमत्याढ्यम्.
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सारावली ।
सत्यं सतां गुरूणां विशिष्टकमीणमुंग्रमतिनिपुणम् । शुद्धं शूरं क्रूरं गुरुरिह भौमेक्षितः सिंहे ॥ ५१ ।। गृहवास्तुज्ञानरतं विज्ञानगुणान्वितं रुचिरवाक्यम् । सिंहे मत्रिणमय्यं बुधेक्षितो विश्रुतं जीवः ॥५२॥ दयितं स्त्रीणां सुभगं भूपतिसत्कारसत्कृतं पुरुषम् । सितदृष्टः सुरपूज्यो जनयति सिंहे महासत्वम् ॥ ५३॥ बहुकथनमधुरवचनं सुखरहितं चित्रभागिनं तीक्ष्णम् । अमरस्त्रीतुल्यसुखं सिंहगुरुः सौरसन्दृष्टः ॥ ५४ ॥
॥ इति सिंहस्थजीवदृष्टिः ॥ नृपतिविरुद्धं जनयति विबुधगुरुः संस्थितः स्वगृहे । रविदृष्टः परितप्तं धनबन्धुजनेन परिमुक्तम् ॥ ५५ ॥ नानाविधसौख्ययुतं स्वगृहे चन्द्रेक्षितो जीवः । अतिसुभगं युवतीनां मानधनैश्वर्यगर्वितं कुरुते ॥ ५६ ॥ सङ्ग्रामे विकृताङ्गं क्रूरं वधकं परोपताकरम् । जनयति कुजेन दृष्टो देवगुरुनष्टपरिवारम् ॥ ५७ ॥ मत्रिणमथ नृपतिं वा सुतधनसौभाग्यसौख्यसम्पन्नम् । स्वगृहे बुधेन दृष्टः सकलानन्दं गुरुः कुरुते ॥ ५८ ॥ सुखिनं धनिनं प्राज्ञं व्यपगतदोषं चिरायुषं सुभगम् । स्वगृहे सितेन दृष्टो लक्ष्मीपरिवेष्टितं गुरुः पुरुषम् ॥ ५९॥ मलिनमतीव च सुभगं ग्रामपुरश्रेणिधिकृतं दीनम् । स्वगृहगुरुः शनिदृष्टो जनयति सुखभोगधर्मपरिहीनम् ॥६०॥
॥ इति खगृहे दृष्टिः ॥ प्राज्ञं पृथिवीपालं सौरगृहे भानुना च संदृष्टः । प्रकृतिसमृद्धं जनयति बहुभोगसमन्वितं सुविक्रान्तम् ॥६१॥ पितृमातृभक्तमायें कुलोद्भवं प्राज्ञमाढ्यमादेयम् । चन्द्रक्षितस्तु जीवः सुशीलमतिधार्मिकं शनिभे ॥ ६२ ॥
१ मय्य. २ परोपकारपरम्. ३ दृष्टः स्वगृहगुरुः. ४ सभयं. ५ प्रकृतिसमुत्थं. ६ सुख.
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अष्टाविंशोऽध्यायः। शूरं नरेन्द्रयोधं गर्वितमोजस्विनं सुवेपं च । विख्यातमार्यमान्यं शनिभे वक्रेक्षितो जीवः ॥ ६३॥ कामरतिं गणमुख्यं मानवमथ सार्थवाहमाढ्यं वा । ख्यातमतिमित्रवन्तं बुधसंदृष्टो गुरुः शनिभे ॥ ६४ ॥ भोज्यान्नपानविभवं वरगृहशयनासनोत्तमस्त्रीकम् । आभरणवसनमन्तं शनिभे शुक्रेक्षितो जीवः ॥ ६५ ।। अनुपमविद्यावृत्तं महत्तरं देशपार्थिवं शनिभे । द्विपदचतुष्पदमाढ्यं भोगिनमथ सौरवीक्षितो जीवः ॥६६॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां गुरुचारो नाम सप्तविंशोऽध्यायः ।
अष्टाविंशोऽध्यायः। नैशान्धो बहुदोषो विरोधशीलः पराङ्गनाचोरः । वेश्यावनाद्रिचारी स्त्रीहेतोबन्धनं प्राप्तः ॥१॥ क्षुद्रः कठोरचोरश्वमूपुरश्रेणिवृन्दनाथश्च । मेष स्याद्भगुतनये नो विश्वासी प्रगल्भश्च ॥ २ ॥ बहुयुवतिरत्नसहितः कृपीवलो गन्धमाल्यवस्त्रयुतः । गोकुलजीवी दाता स्वबन्धुभर्ता सुमूर्तिश्च ॥३॥ आत्यस्त्वनेकविद्यो बहुप्रदः सत्वहितकारी । वृषभे गुणैः प्रधानः परोपकारी सिते भवति जातः ॥ ४ ॥ विज्ञानकलाशास्त्रः प्रथितः सततं सुमूर्तिगः कामी । आलेख्यलेख्यनिरतः काव्यकरः स्यात् प्रियः साधुः ॥५॥ धृतगीतनृत्तविभवः सुहृजनाढ्यः सुरद्विजानुरतः । संरूढस्नेहो वै मिथुनस्थे भार्गवे भवति ॥ ६ ॥ रतिधर्मरतः प्राज्ञो बली मृदुर्गुणवतां प्रधानश्च । आकासितैः सुखार्थैर्युक्तः प्रियदर्शनः सुनीतिश्च ॥ ७॥ योषित्पानप्रभवाधिभिरधिकं प्रपीडितो मनुजः । शुक्रे कर्कटसंस्थे स्ववंशभवदोषसन्तप्तः ॥ ८॥
मति, २ विज्ञानकलाशास्त्रप्रतीतसत्यस्थितो वाग्मी. ३ स्मृति.
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सारावली ।
युवतिजनोपासनको लब्धसुखद्रविणसम्प्रमोदश्च । लघुसत्वः प्रियबन्धुर्विचित्रसौख्यश्च दुःखी च ॥ ९ ॥ उपकारी च परेषां गुरुद्विजाचार्यसंमतो निरतः । सिंहस्थे भृगुतनये बहुचिन्तास्वनभियोगः स्यात् ॥ १० ॥ लघुचिन्तो मृदुनिपुणः परोपसेवी कलाविधिज्ञश्च । स्त्रीसम्भाषणमधुरः प्रणयनगणनार्थकृतयत्नः ॥ ११ ॥ नारीषु दुष्टरतिषु प्रणयी दीनो न सौख्यभोगयुतः । कन्यायां भृगुतनये तीर्थसभापण्डितो जातः ॥ १२ ॥ श्रमलब्धधनः शूरो विचित्रमाल्याम्बरो विदेशरतः । नैपुणरक्षणकुशलः कर्मसु चपलः सुदुष्करेषु तथा ॥ १३ ॥ आढ्यो रुचिरसुपुण्यो द्विजदेवार्चनविलब्धकीर्तिश्च । शुक्रे तुलाधरगते भवति पुमान् पण्डितः सुभगः ॥ १४ ॥ विद्वेपरतिनृशंसो विमुक्तधर्मा विकत्थनोऽतिशठः । सहजविरक्तो धन्यो विपन्नशत्रुस्तथा पापः ॥ १५ ॥ आर्यः कुलटाद्वेषी वधनिपुणो बह्वृणो दरिद्रश्च । अलिनि सिते भवति पुमान् गर्हितशीलः सुगुह्यगदः ॥ १६ ॥ सद्धर्मकर्मधनजैः फलैरुपेतो जगत्प्रियः कान्तः । आर्यः कुलब्धशब्दो विद्वान् गोमानलंकरिष्णुश्च ॥ १७ ॥ सद्वित्तसारसुभगो नरेन्द्रमन्त्री सुचतुरोऽपि । पीनोचतनुः पूज्यः सतां समूहस्य धनुषि कवौ ॥ १८ ॥ व्ययभयपरिसन्तप्तो दुर्बलदेहो जराङ्गनासक्तः । हृद्रोगी धनलुब्धो लोभानृतवञ्चनो निपुणः ॥ १९॥ क्लीबो विपन्नचेष्टः परार्थचेष्टः सुदुःखितो मूढः । मकरे दानवपूज्ये क्लेशसहो जायते पुरुषः ॥ २० ॥ उद्वेगरो गतप्तः कर्मसु विफलेषु सर्वदाभिरतः । परयुवतिगो विधर्मा गुरुभिः पुत्रैश्च कृतवैरः ॥ २१ ॥
१ जनोपासनया. २ कुलार्थ.
३ दार.
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अष्टाविंशोऽध्यायः । स्नानोपभोगभूषणवस्त्रादिनिराकृतो मलिनः । कुम्भधरे भृगुपुत्रे भवति पुमान्नात्र सन्देहः ॥ २२ ॥ दाक्षिण्यदानगुणवान् महाधनोऽधःकृतारिपक्षश्च । लोके ख्यातः श्रेष्ठो विशिष्टचेष्टो नृपतिदयितः ॥ २३॥ वाग्बुद्धियुतोदारः सज्जनपरिलब्धविभवमानश्च । स्वादेयवचा मीने वंशधरो ज्ञानवान् शुक्रे ॥ २४ ॥ स्त्रीहेतोदुःखात युवतिनिमित्ताद्विनष्टधनसौख्यम् । कुजभवने रविदृष्टो जनयति शुक्रो नृपं प्राज्ञम् ॥ २५ ॥ उद्वन्धनमतिचपलं कामातुरमधमयुवतिभर्तारम् । जनयति भृगोरपत्यं रजनीकरवीक्षितं कुजभे ॥ २६ ॥ धनसौख्यमानरहितं परकर्मकरं मलिनचेष्टम् । जनयति रुधिरक्षेत्रे रुधिरेण निरीक्षितः शुक्रः ॥ २७ ॥ मूर्ख धृष्टमनार्य स्वबन्धुपरिवादकं विनयहीनम् । चोरं क्षुद्रं क्रूरं बुधदृष्टो भार्गवः कुरुते ॥ २८॥ सुनयनमुदारदानं सुशरीरं व्यायतं बहुसुतं च । त्रिदशगुरुदृष्टमूर्तिर्जनयति रुधिरालये शुक्रः ॥ २९ ॥ अतिमलिनमलसमटनस्वभिमतजनसेवकं कुरुते । भृगुतनयो रुधिरगृहे दिनकरपुत्रेण वीक्षितश्चोरम् ॥ ३०॥
॥इति कुजभे दृष्टिः ॥ दिनकरदृष्टः शुको वरजायाभोगिनं धनसमृद्धम् । जनयत्युत्तमपुरुषं स्त्रीहेतोनिर्जितं स्वगृहे ॥ ३१ ॥ परमकुलीनापुत्रं सुखधंनदानैः सुखैरुपेतं च । अत्यार्यमतिं कान्तं स्वगृहे चन्द्रेक्षितः शुक्रः ॥ ३२ ॥ दुःशीलाभतीरं प्रमदाहेतोश्च नष्टगृहदारम् । जनयति भृगुनन्दकरो मदनवशं वक्रसन्दृष्टः ॥ ३३ ॥ कान्तं मधुरं सुभगं सुखधृतिमतिसंयुतं विपुलसत्वम् ।
जनयति बुधेन दृष्टः सर्वगुणसमन्वितं ख्यातम् ॥ ३४ ॥ १ दारं. २ मधन. ३ सुखधनमानैः सुतैरुपेतं. ४ अति च कान्तं.
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सारावली ।
प्रमदापुत्रगृहाणां भागिनमथ यानवाहनानां च ।
खः गुरुसन्दृष्टः कुरुते भृगुरिष्टचेष्टानाम् ॥ ३५ ॥ स्वल्पसुखं स्वल्पधनं दुःशीलं वर्धकीपतिं चैव । सौरेक्षितस्तु जनयेत् व्याधितदेहं नरं शुक्रः ॥ ३६ ॥
॥ इति स्वगृहे दृष्टिः ॥ नृपजननीपत्नीनां कृत्यकरं पण्डितं धनिनम् । दिनकरदृष्टः शुक्रो जनयति सुखभागिनं बुधभे ॥ ३७॥ कृष्णनयनं सुकेशं शयनासनयानभागिनं कान्तम् । सुकुमारमिन्दुदृष्टो जनयति शुक्रो नरं सुभगम् ॥ ३८ ॥ कामपरमति च सुभगं युवतिकृते चार्थनाशनं कुरुते । वक्रेक्षितस्तु शुक्रो बुधभवनमुपाश्रितः प्रसवे ॥ ३९ ॥ प्राज्ञं मधुरं धनिनं वाहनपरिवारभागिनं सुभगम् । गणपतिमर्थेशं वा बुधदृष्टो भार्गवो बुधभे ॥ ४० ॥ बुधभवनगतः शुक्रस्त्रिदशगुरुनिरीक्षितः कुरुते । अतिसुखमतीव दीनं प्रतिरूपकरं ज्ञमाचार्यम् ॥ ४१ ॥ दिनकरसुतेन दृष्टो बुधभवनगतोऽतिदुःखिनं शुक्रः । जनयति खलु परिभूतं चपलं द्वेष्यं च मूर्ख च ॥ ४२ ॥
॥ इति दुधभवने दृष्टिः ॥ कर्मपरां शुद्धाङ्गी नृपतिसुतां रोषणां धनोपेताम् । भार्यां ददाति शुक्रश्चन्द्रगृहे भानुसन्दृष्टः ॥४३॥ मातृसपत्नीजननं कन्यापूर्वग्रजं बहुसुतं च । सुखिनं सुभगं ललितं कुरुते चन्द्रक्षितः शुक्रः ॥४४॥ सुकलाविदमत्याढ्यं स्त्रीहेतोर्दुःखितं सुभगम् । भौमेक्षितस्तु जनयद्वृद्धिकरं बन्धुवर्गस्य ॥ ४५ ॥ पण्डितभार्यापतिकं बन्धुनिमित्तं च दुःखितं नित्यम् । अतिसुखधनिनं प्राज्ञं करोति शशिभे बुधेक्षितः शुक्रः॥४६॥ भृत्यैर्धनैश्च पुत्रैर्वाहनभोगैश्च बान्धवैर्मित्रैः ।
कुरुते नरमिह युक्तं नरपतिदयितं च गुरुदृष्टः ॥४७॥ १ बन्धकीपतिं. २ परिभोग. ३ गणपतिमथेश्वरं वा. ४ लघुपरिभूतं. ५ अतिरुचिरां शुक्लाङ्गीं. ६ असुखिनमटनं.
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अष्टाविंशोऽध्यायः।
९३ स्त्रीनिर्जितं दरिद्रं पतितमरूपं तथैव चपलं च । जनयति सुखैर्विहीनं शशिभे शनिवीक्षितः शुक्रः ॥४८॥
॥ इति चन्द्रगृहे दृष्टिः ॥ सेयं कन्यादयितं कामात युवतिकारणं धनिनम् । भागिनमथ करभाणां जनयति सिंहे रवीक्षितः शुक्रः ॥४९॥ मातृसपत्नीजननं युवतिकृते दुःखितं विभववन्तम् । सिंहे नानामतिकं करोति चन्द्रेक्षितः शुक्रः ॥ ५० ॥ नृपपुरुषं विख्यातं युवतिकृते वल्लभं धनसमृद्धम् । सुभगं परदाररतं सिंहे वक्रेक्षितः शुक्रः ॥ ५१ ॥ संग्रहनिरतं लुब्धं स्त्रीलोलं पारदारिकं शूरम् । शठमानृतिकं धनिनं सिंहे बुधवीक्षितः शुक्रः ॥ ५२ ॥ वाहनधनभृत्ययुतं बहुदारपरिग्रहं रविक्षेत्रे । कुरुते नरेन्द्रमत्रिणमिन्द्रगुरुनिरीक्षतः शुक्रः ॥ ५३॥ नृपतिं नृपतिप्रतिमं विख्यातं कोशवाहनसमृद्धम् । रण्डापति सुरूपं दुःखयुतं सौरसन्दृष्टः ॥ ५४ ।।
॥ इति सिंहे दृष्टिः ॥ अतिरौद्रमतिं च शूरं गुरुभे प्राज्ञं च धनिनमतिदयितम् । रविणा दृष्टो जनयति विदेशगमनं नरं शुक्रः ॥ ५५ ॥ ख्यातं नरेन्द्रपुरुषं भोगैरशनैः समन्वितं विपुलैः । कुरुते ह्यनुपमसारं गुरुभे चन्द्रक्षितः शुक्रः ॥ ५६ ॥ अधिकद्वेष्यं स्त्रीणां विचित्रसुखदुःखमर्थवन्तं च । कुरुते गोधनमय्यं गुरुमे भौमेक्षितः शुक्रः ॥ ५७ ॥ आभरणभूषणानां भागिनमपि चान्नपानानाम् । बुधदृष्टो भृगुतनयः कुरुते गुरुभेऽर्थवाहनसमृद्धम् ॥ ५८ ॥ गजतुरगगोधनाढ्यं बहुपुत्रकलत्रमतिसुखिनम् । गुरुणा दृष्टो गुरुभे जनयति शुक्रो महाविभवम् ॥ ५९॥
१ युवतिकारणाद्धनिनं. २ समैः.
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सारावली ।
नित्यं च धनप्रायं सुखिनं भोगान्वितं धनसमृद्धम् । गुरुभवने शनिदृष्टः कुरुते शुक्रो नरं सुभगम् ॥ ६०॥
॥ इति गुरुभे दृष्टिः ॥ स्तिमितं वृषभं स्त्रीणां महाधनं सत्यसौख्यसंपन्नम् । सौरगृहे रविदृष्टः कुरुते शुक्रो नरं शूरम् ॥ ६१॥ ओजस्विनमतिशूरं स्वाट्यं वपुषान्वितं सुभगम् । कुरुते शशिना दृष्टो रविजगृहे भार्गवः कान्तम् ॥ ६२ ।। जायाविनाशकारणमनर्थबहुलं च रोगिणं शुक्रः । कुरुते श्रमाभितप्तं पश्चात्सुखिनं च कुजदृष्टः ।। ६३ ॥ प्राज्ञं धनचयनिरतं निधानरुचिमतिशयेन विद्वांसम् । जनयति बुधेन दृष्टो भृगुतनयः सत्यसौख्यसम्पन्नम् ॥ ६४॥ प्रियवस्त्रमाल्यगन्धं सुकुमारं गीतवादितविधिज्ञम् । जनयति गुरुणा दृष्टो भृगुपुत्रः सत्कलत्रयुतम् ॥ ६५ ॥ सौरगृहे शनिदृष्टः शुक्रो नरवाहनार्थभोगयुतम् । मलिनं श्यामशरीरं सुरुचिरगानं महादेहम् ॥ ६६ ॥
॥ इति सौरगृहे दृष्टिः ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां शुक्रचारो नामाष्टाविंशोऽध्यायः ।
एकोनत्रिंशोऽध्यायः । व्यसनपरिश्रमतप्तः प्रचण्डशीलः स्वबन्धुपक्षघ्नः । निष्ठुरधृष्टातिवचा विगर्हितो निर्धनः कुवेषश्च ॥१॥ मेषेऽर्कजे सुरोषो जघन्यकर्मा च लब्धदोषोऽपि । प्रियवैरो नैकृतिको नृशंसकोऽसूयकः पापः ॥ २॥ अर्थविहीनः प्रेष्यो न युक्तवाक्यो न सत्यकर्मा च । वृद्धस्त्रीहृदयहरः कुसुहृत् स्त्रीव्यसनसंसक्तः ॥३॥ सौरे वृषभं याते भवति च जातः पराङ्गनाप्रेष्यः ।
नैकृतिकः स्फुटदृष्टो बहुक्रियासङ्गतो मूढः ॥ ४ ॥ १ अतिरूपं. २ प्रपञ्चशीलः.
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एकोनत्रिंशोऽध्यायः । बढणबन्धनतप्तः श्रमान्वितो दाम्भिकोऽनुमत्री च । शाख्यगुणैः सन्त्यक्तः सदैव गुह्यश्च कामशीलश्च ॥५॥ छलकृच्च मन्युदुष्टः क्रियातिशायी शठः कुशीलश्च । बन्धनविहारसक्तो बाह्यक्रीडानुगो मिथुने ॥६॥ सुभगान्वितो दरिद्रो बाल्ये रोगातिपीडितः प्राज्ञः । जननीरहितोऽतिमृदुर्विशिष्टनिरतः सदातुरश्चापि ॥ ७ ॥ परवाधको विशिष्टो बन्धुविरुद्धो विलोमशीलश्च । मध्ये भूपतितुल्यः परिभोगविवर्धितः शशिभे ॥ ८॥ लिपिपाठ्यपरोऽभिज्ञो विगर्हितो विगतशीलश्च । स्त्रीवियुतो भृतिजीवी स्वपक्षरहितो मुदा हीनः ॥ ९॥ नीचक्रियासु निरतो विवृद्धरोषो मनोरथैदन्तिः । भाराध्वश्रमदुःखैः प्रकीर्णदेहो यमे सिंहे ॥ १० ॥ घण्डाकारोऽतिशठः परान्नवेश्यारतोऽल्पमन्त्रश्च । शिल्पकथास्वनभिज्ञो विकृत्यचेष्टो लसत्सुतार्थश्च ॥ ११ ॥ अधनः परोपकारी कन्याजनदूषकः क्रियानुरतः । कन्यायां रवितनये ह्यवेक्ष्यकारी पुमान् जातः ॥ १२ ॥ अर्थपरश्चारुवचा नरो विदेशाटनाप्तमानधनः । नृपतिः सुबोधनो वा स्वपक्षगुप्तस्थितार्थः स्यात् ॥ १३ ॥ वृन्द समानां ज्येष्ठो बयाप्रकर्षात्कृतास्पदः साधुः । कुलटानटीविटस्त्रीरमणो रविजे तुलायाते ॥ १४ ॥ द्वेषपरो. विषमो वा विषशस्त्रघ्नः प्रचण्डकोपश्च । लुब्धो दृप्तोऽर्थयुतः परस्वहरणे समर्थश्च ॥ १५ ॥ बाह्यो मङ्गलवाद्यैर्नृशंसकर्मा ह्यनेकदुःखः स्यात् । अष्टमराशौ रविजे क्षयव्ययव्याधिभिस्तप्तः ॥ १६ ॥ व्यवहारबोध्यशिक्षाश्रुतार्थविद्याभिधानुकूलमतिः । पुत्रगुणैर्विख्यातः स्वधर्मवृत्तैश्च शीलैश्च ॥ १७ ॥
१ पुंगुह्य. २ कुशिल्पश्च. ३ भ्रान्तः. ४ वकृत्य. ५ अशठः. ६ स्थिरार्थ.
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सारावली । अन्त्ये वयसि च लक्ष्मी भुनक्ति परमां प्रलब्धमानस्तु । अल्पवचा बहुसंज्ञो मृदुर्यमे कार्मुकस्थे स्यात् ॥ १८॥ परयोषिक्षेत्राणां प्रभुः श्रुतिगुणैर्युतश्च बहुशिल्पः । श्रेष्ठश्च वंशजातैः पूज्यः परवृन्दसत्कृतः ख्यातः ॥ १९ ॥ स्नानविभूषणनिरतः क्रियाकलाज्ञः प्रवासशीलश्च । कोणे मृगभे जातः प्रजातशौर्योपचारः स्यात् ॥ २० ॥ बह्वनृतः सुमहान्स्यान्मद्यस्त्रीव्यसनसम्प्रसक्तश्च । धूर्ती वञ्चनशीलः कुसौहृदो ह्यतिदृढश्चण्डः ॥ २१ ॥ ज्ञानकथास्मृतिबाह्यः पराङ्गनार्थः सुकर्कशाभाषी । रवितनये कुम्भस्थे बहुक्रियारम्भकृतयत्नः ॥ २२ ॥ प्रिययज्ञशिल्पविद्यः खबन्धुसुहृदां प्रधानशान्तश्च । संवर्धितार्थसुनयो रत्नपरीक्षासु कृतयत्नः ॥ २३॥ धर्मव्यवहाररतो विनीतशीलो गुणैः समायुक्तः । मीने भास्करतनये पश्चाद्भावास्पदं पुरुषः ॥ २४ ॥ कर्षणनिरतमथाढ्यं गोमहिपाजाविसंयुतं धन्यम् । सूर्येण दृश्यमानो जनयति कर्मोद्यतं सौरिः ॥ २५ ॥ चपलं नीचप्रकृतिं नीचविरूपाङ्गनासु संसक्तम् । शनिरिन्दुदृष्टमूर्तिः सुखधनरहितं नरं कुरुते ॥ २६ ॥ प्राणिवधपरं क्षुद्रं कुरुते चोराधिपं सुविख्यातम् । प्रिययुवतिमांसपानं सौरो वक्रेक्षितः कुजभे ॥ २७ ॥ आनृतिकमधर्मपरं बह्वाशं तस्करं प्रकाशं च । कौजे शनिदृष्टः सुखविभवविनाकृतं पुरुषम् ॥ २८॥ सुखधनसौभाग्ययुतं नृपमत्रिणमग्रगं च सचिवानाम् । गुरुदृष्टो रवितनयः कुजगेहे मानवं कुरुते ॥ २९ ॥ अतिचपलमतिविरूपं पराङ्गनापण्ययुवतिसंसक्तम् । कुजभवने भृगुदृष्टो जनयति रविजो विवर्जितं भोगैः ॥३०॥
॥ इति कुजभवने दृष्टिः ॥ ... 5 धूर्तकवञ्चनकुशलः. २ बहुवाचं.
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एकोनत्रिंशोऽध्यायः। स्फुटवाक्यं विगतधनं विद्वांसं परगृहेषु भोक्तारम् । रविणा दृष्टः सौरिः सितभे परिपेलवं पुरुषम् ॥ ३१ ॥ युवतिजनजनितसारं नृपमत्रिपुरस्कृतं युवतिकान्तम् । शशिना दृष्टः सौरिः कुरुते सितभे कुटुम्बपरिवारम् ॥३२॥ संग्रामकथाभिज्ञं संग्रामपलायिनं सुबहुवाक्यम् । भृगुभे कुजसन्दृष्टो जनधनपरिवेष्टितं सौरः ॥ ३३॥ नित्यं विहसनशीलं क्लीबतरं युवतिसेवकं नीचम् । बुधदृष्टो रवितनयः शुक्रगृहे मानवं कुरुते ॥ ३४ ॥ परविषयदुःखसुखिनं परकार्यकरं प्रियं च लोकस्य । कुरुते गुरुणा दृष्टो दातारं सोद्यमं सौरिः ॥ ३५॥ मद्यस्त्रीकृतसौख्यं रत्नानां भाजनं महासत्वम् । शुक्रगृहे सितदृष्टो जनयति सौरो नृपतिदयितम् ॥ ३६॥
॥ इति शुकगृहे दृष्टिः ॥ सुखरहितमथात्यन्तं धनरहितं धार्मिकं जितक्रोधम् ।
शसहिष्णुं धीरं बुधभे रविवीक्षितः सौरिः ॥ ३७॥ नृपतुल्यं स्निग्धतनुं नारीभ्यः प्राप्तविभवसत्कारम् । स्त्रीणां वा कृत्यकरं सौरश्चन्द्रक्षितो बुधमे ॥ ३८॥ विख्यातमलमोहितमतिभारवहं तथा विकृतगात्रम् । रुधिराङ्गवीक्षिततनुर्जनयति सौरो नरं बुधभे ॥ ३९ ॥ धनिनं नियुद्धकुशलं नृत्ताचार्यं च गीतकुशलं च । शिल्पकमतीव निपुणं बुधभे बुधवीक्षितः सौरः ॥ ४० ॥ प्रात्ययिकं राजकुले सर्वगुणसमन्वितं सतामिष्टम् । गुणगुह्यधनं कुरुते गुरुणा दृष्टः शनैश्वारी ॥४१॥ स्त्रीमण्डलेषु कुशलं योगाचार्यमथ योगिनं वॉऽपि । शुक्रेक्षितोऽर्कपुत्रः स्त्रीणामिष्टं नरं बुधभे ॥ ४२ ॥
॥ इति वुधभवने दृष्टिः ॥
१ सितमे वन्नान्नकुसुमपरिवार. २ क्लीबकर. ३ विकृष्टमतिम्. ४ मण्डनेषु. ५ चापि.
९ सारा०
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सारावली ।
पित्रा रहितं बाल्ये दिनपतिदृष्टः शनैश्चरः शशिभे । धनसुखदारविहीनं कदशनतुष्टं नरं पापम् ॥४३॥ जन्मनि मातुरनिष्टं धनवन्तं सहजपीडितं चैव । शशिदृष्टः शशिभवने दिनकरपुत्रो नरं कुरुते ॥४४॥ नृपतिसमर्पितविभवं विकलाङ्गं कनकरत्नपरिवारम् । कुजदृष्टः शशिभवने कुवन्धुपत्नीरतं सौरिः ॥ ४५ ॥ निष्ठुरमतिप्रवाचं शमितारातिं च दाम्भिकं चापि । जनयत्युत्तमचेष्टं बुधदृष्टो भास्करिः शशिभे ॥४६॥ क्षेत्रगृहाणां सुहृदां पुत्राणां भागिनं नरं कुरुते । धनरत्नदारवन्तं शशिभे गुरुवीक्षितः सौरः ॥४७॥ आयतकुलजातानां रूपविलासैः सुखैश्च रहितानाम् । कुरुते जन्म नराणां भृगुदृष्टः कर्कटे सौरिः ॥४८॥
॥ इति कर्कटके दृष्टिः ॥ सुखधनहीनमनार्य प्रियानृतं पानसक्तकुतनुं च । भृतकं दुःखिनमेकं सिंहे सूर्यक्षितः सौरः ॥४९॥ नानारत्नधनानां युवतीनां भाजनं विपुलकीर्तिम् । शिशिरगुदृष्टः सिंहे सौरो नृपवल्लभं पुरुषम् ॥ ५० ॥ प्रतिदिनमटनमधन्यं चोरं गिरिदुर्गवासिनं क्षुद्रम् । भार्यापुत्रविहीनं सिंहे सोरो रुधिरदृष्टः ॥५१॥ नैकृतिकमलसमधनं स्त्रीकर्मकरं मलीमसं दीनम् । जनयति बुधेन दृष्टो दिनकरभवनाश्रितः सौरिः ॥ ५२ ॥ ग्रामपुरश्रेणीनां पुरोगमाव्यं च पुत्रवन्तं च । गुरुदृष्टः प्रात्ययिकं सिंहे सौरः सुशीलं च ॥ ५३॥ युवतिद्वेष्यं कान्तं मन्थरसुखभागिनं धनसमृद्धम् । शुक्रेक्षितस्तु कुरुते भानुगृहे रविसुतः स्वन्तम् ॥ ५४॥
॥ इति सिंहे दृष्टिः ॥
१ पत्नीश्वरं.
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एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।
परपुत्राणां पितरं गुरुभे सूर्येक्षितः सौरः । तेभ्यो धनं च लभते नाम ख्यातिं च पूजां च ॥ ५५ ॥ मातृरहितं सुशीलं नामद्वयसंयुतं वेस्तनयः । कुरुते शशिना दृष्टो भार्यासुतवित्तसम्पन्नम् ॥ ५६ ॥ वातव्याधिगृहीतं लोकद्वेष्यं चे पापशीलं च ।
क्षुद्रं निन्दितशीलं गुरुभे भौमेक्षितः सौरः ॥ ५७ ॥ जनयति गुरुमवनस्थो नृपतिसमं सौख्यवन्तमाचार्यम् । मान्यं धनिनं सौम्यं सुभगं सौम्येक्षितः सौरः ॥ ५८ ॥ नृपतिं नृपतुल्यं वा मत्रिणमथ नायकं च सेनायाः । जनयति गुरुणा दृष्टः संवीपद्वर्जितं सौरः ॥ ५९ ॥ कुरुते द्विमातृपितृकं विपिनाद्रिषु जीविनं विविधशीलम् । जनयति सितेन दृष्टो रवितनयः कर्मसम्पन्नम् ॥ ६० ॥ ॥ इति गुरुभे दृष्टिः ॥
-९९
रोगिणमरूपभार्यं परान्नभोगिनमतीव दुःखसहम् । अटनरतं भारसहं सौरः सूर्येक्षितः स्वगृहे ॥ ६१ ॥ चपलमसत्यं पापं मातुरनिष्टं प्रियानृतं खाढ्यम् । उत्पन्नाटनदुःखं खगृहे चन्द्रेक्षितः सौरः ॥ ६२ ॥ अतिशूरं विक्रान्तं विख्यातगुणं महाजनपुरोगम् । तीक्ष्णं साहसनिरतं स्वगृहे वक्रेक्षितः सौरः ॥ ६३ ॥ भारसहं तामसिकं शोभनमटनज्ञमल्पवित्तं च । धन्यं जनयति शनिभे बुधेन संवीक्षितः सौरः ॥ ६४ ॥ समुदितगुणं नरेन्द्रं नृपवंशकरं चिरायुषमरोगम् । त्रिदशगुरुदृष्टमूर्तिर्जनयति सौरः स्वगृहसंस्थः ॥ ६५ ॥ धनिनं परदाररतं सुभगं सुखिनं च वित्तवन्तं च । उत्पन्नपानभक्ष्यं स्वगृहे शुक्रेक्षितः सौरः ॥ ६६ ॥
॥ इति स्वगृहे दृष्टिः ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां सौरचारो नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥
१ प्रवासशीलं. २ शनिः सचिवमर्थवर्जितं गुरुमे.
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सारावली ।
त्रिंशोऽध्यायः ।
मूर्त्यादयः पदार्था जायन्ते येन सर्वजन्तूनाम् । तस्मादधुना वक्ष्ये भावाध्यायं विशेषेण ॥ १ ॥ लग्नेऽर्केऽल्पचः क्रियालसमतिः क्रोधी प्रचण्डोन्नतो मानी लोचनरूक्ष कर्कशतनुः शूरोऽक्षमो निर्घृणः । स्फोटाक्षः शशिभे किये सतिमिरः सिंहे निशान्धः पुमान् दारिद्योपहतो विनष्टतनयो जातस्तुलायां नरः ॥ २ ॥ द्विपदचतुष्पद' भागी मुखरोगी नष्टविभवसौख्यश्च । नृपचोरमुपितसारः कुटुम्ब स्याद्रवौ पुरुषः ॥ ३ ॥ विक्रान्तो बलयुक्तो विनष्टसहजस्तृतीयके सूर्ये । लोके मंतोऽभिरामः प्राज्ञो जितदुष्टपक्षश्च ॥ ४ ॥ वाहनबन्धुविहीनः पीडितहृदयश्चतुर्थके सूर्ये । पितृगृहधननाशकरो भवति नरः कुनृपसेवी च ॥ ५ ॥ सुखसुतवित्तविहीनः कर्षणगिरिदुर्गसेवकश्चपलः । मेधावी धनरहितः स्वल्पायुः पञ्चमे तपने ॥ ६ ॥ प्रबलमदनोदराग्निर्बलवान् षष्ठं समाश्रिते भानौ । श्रीमान् विख्यातगुणो नृपतिर्वा दण्डनेता वा ॥ ७ ॥ निःश्रीकः परिभूतः कुशरीरो व्याधितः पुमान् द्यूने । नृपबन्धनसन्तप्तोऽमार्गरतो युवतिविद्वेषी ॥ ८ ॥ विकलनयनोऽष्टमस्थे धनसुखहीनोऽल्पजीवितः पुरुषः । भवति सहस्रमयूखे स्वभिमतजन विरहसन्तप्तः ॥ ९॥ धनपुत्रमित्रभागी द्विजदैवतपूजनेऽतिरक्तश्च । पितृयोषिद्विद्वेषी नवमे तपने सुतप्तः स्यात् ॥ १० ॥ अतिमतिरतिविभवबलो धनवाहनबन्धुपुत्रवान् सूर्ये । सिद्धारम्भः शूरो दशमेऽधृष्यः प्रशस्यश्च ॥ ११ ॥ सञ्चयनिरतो बलवान् द्वेष्यः प्रेष्यो विधेयभृत्यश्च । एकादशे विधेयः प्रियरहितः सिद्धकर्मा च ॥ १२ ॥
१ भोगी. २ मनो. ३ व्याधितो रवौ द्यूने. ४ भक्तश्च ५ विभृत्यश्च.
१००
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त्रिंशोऽध्यायः।
१०१ विकलशरीरः काणः पतितो वन्ध्यापतिः पितुरमित्रः । द्वादशसंस्थे सूर्ये बलरहितो जायते क्षुद्रः ॥ १३ ॥
॥ इति रविः॥ दाक्षिण्यरूपधनभोगगुणैः प्रधान
श्चन्द्रे कुलीरवृषभाजगते विलग्ने । उन्मत्तनीचबधिरो विकलश्च मूकः
शेषे नरो भवति कृष्णतनुर्विशेषात् ॥ १४ ॥ अललितसुखमित्रयुतो धनैश्च चन्द्रे द्वितीयराशिगते । सम्पूर्णेऽतिधनेशो भवति नरोऽल्पप्रलापकरः ॥ १५ ॥ भ्रातृजनाश्रयणीयो मुदान्वितः सहजगे बलिनि । चन्द्रे भवति च शूरो विद्यावस्त्रान्नसङ्ग्रहणशीलः ॥ १६ ॥ बन्धुपरिच्छदवाहनसहितो दाता चतुर्थगे चन्द्रे । जलसंचारानुरतः सुखासुखोत्कर्षपरिमुक्तः ॥१७॥ चन्द्रे भवति न शूरो विद्यावस्त्रान्नसङ्ग्रहणशीलः । बहुतनयसौम्यमित्रो मेधावी पञ्चमे तीक्ष्णः ॥ १८॥ प्रचुरामित्रस्तीवो मृदुकायाग्निर्मदालसश्चन्द्रे । षष्ठे वृकोदरभवै रोगैः सम्पीडितो भवति । रजनिकरे स्वल्पायुः षष्ठगते भवति संक्षीणे ॥ १९ ॥ सौम्यो धृष्यः सुखितः सुशरीरः कामसंयुतो छूने । दैन्यरुगर्दितदेहः कृष्णे संजायते शशिनि ॥ २० ॥ अतिमतिरतितेजस्वी व्याधिविबन्धक्षपितदेहः । निधनस्थे रजनिकरे स्वल्पायुर्भवति संक्षीणे ॥ २१ ॥ दैवतपितृकार्यपरः सुखधनमतिपुत्रसंपन्नः । युवतिजननयनकान्तो नवमे शशिनि प्रियतमोद्योतः ॥२२॥ अविषादी कर्मपरः सिद्धारम्भश्च धनसमृद्धश्च । शुचिरतिवलोऽथ दशमे शूरो दाता भवेच्छशिनि ।॥ २३॥ धनवान् बहुसुतभागी बह्वायुः स्विष्टभृत्यवर्गश्च
इन्दौ भवेन्मनस्वी तीक्ष्णः शूरः प्रकाशश्च ॥ २४ ॥ १ बालाशयानुरक्तः. २ षष्टे नर उदरभवैः. ३ प्रियसमाक्षः.
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सारावली। द्वेष्यः पतितः क्षुद्रो नयनरुगार्तोऽलसो भवेद्विकलः । चन्द्रे तथान्यजातो द्वादशगे नित्यपरिभूतः ॥ २५ ॥
॥ इति चन्द्रः ॥ क्रूरः साहसनिरतः स्तब्धोऽल्पायुः स्वमानशौर्ययुतः । क्षतगात्रः सुशरीरो वक्र लग्नाश्रिते चपलः ॥ २६ ॥ अधनः कदशनतुष्टः पुरुषो विकृताननो धनस्थाने । कुजनाश्रयश्च रुधिरे भवति नरो विद्यया रहितः ॥२७॥ शूरो भवत्यधृष्यो भ्रातृवियुक्तो मुदान्वितः पुरुषः । भूपुत्रे सहजस्थे समस्तगुणभाजनं ख्यातः ॥ २८॥ बन्धुपरिच्छदरहितो भवति चतुर्थेऽथ वाहनविहीनः । अतिदुःखैः संतप्तः परगृहवासी कुजे पुरुषः ॥ २९॥ सौम्यार्थपुत्रमित्रश्चलमतिरपि पञ्चमे कुजे भवति । पिशुनोऽनर्थप्रायः खलश्च विकलो नरो नीचः ॥ ३० ॥ प्रेबलमदनोदराग्निः सुशरीरो व्यायतो बली षष्ठे । रुधिरे सम्भवति नरः स्वबन्धुविजयी प्रधानश्च ॥३१॥ मृतदारो रोगार्तोऽमार्गरतो भवति दुःखितः पापः । श्रीरहितः सन्तप्तः शुष्कतनुर्भवति सप्तमे भौमे ॥ ३२ ॥ व्याधिप्रायोऽल्पायुः कुशरीरो नीचकर्मकर्ता च । निधनस्थे क्षितितनये भवति पुमान् शोकसन्तप्तः ॥ ३३॥ अकुशलकर्मा द्वेष्यः प्राणिवधपरो भवेन्नवमसंस्थे । धर्मरहितोऽतिपापो नरेन्द्रकृतगौरवो रुधिरे ॥ ३४ ॥ कर्मोद्युक्तो दशमे शूरो धृष्यः प्रधानजनसेवी । सुतसौख्ययुतो रुधिरे प्रतापबहुलः पुमान् भवति ॥ ३५॥ एकादशगे धनवान् प्रियसुखभागी तथा भवेच्छूरः। धनधान्यसुतैः सहितः क्षितितनये विगतशोकश्च ॥ ३६ ॥ नयनविकारी पतितो जायाघ्नः सूचकश्च रौद्रश्च । द्वादशगे परिभूतो बन्धनभाक् भवति भूपुत्रे ॥ ३७॥
॥ इति कुजः ॥ १ सौख्यार्थमित्ररहितश्चञ्चलमतिरपि च पञ्चमे रुधिरे. २ प्रबलोदराग्निपुंस्त्वः. ३ स्त्रीरहितो विगततनुः सप्तमभवनस्थिते भौमे.
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त्रिंशोऽध्यायः।
अनुपहतदेहबुद्धिर्देशकुलाज्ञानकाव्यगणितज्ञः । अतिमधुरचतुरवाक्यो दीर्घायुः स्यादुधे लग्ने ॥ ३८ ॥ बुद्ध्योपार्जितविभवो धनभवनगतेऽन्नपानभोगी च । शोभनवाक्यः सुनयः शशितनये मानवो भवति ॥ ३९ ॥ श्रमनिरतः परिदीनस्तृतीयराशौ बुधे भवति जातः । निपुणः सहजसमेतो मायाबहुलो नरश्चलितः ॥ ४० ॥ पण्डितमाहुः सुभगो वाहनयुक्तो बुधे हिवुकसंस्थे । सुपरिच्छदः सुबन्धुर्भवति नरः पण्डितो नित्यम् ॥ ४१ ॥ मन्त्राभिचारकुशलो बहुतनयः पञ्चमे सौम्ये । विद्यासुखप्रभावैः समन्वितो हर्षसंयुक्तः ॥ ४२ ॥ वादविवादे कलहे नित्यजितो व्याषितो बुधे षष्ठे । अलसो विनष्टकोपो निष्ठुरवाक्योऽतिपरिभूतः ॥४३॥ प्रज्ञां शुचारवेषां नातिकुलीनां च कलहशीलां च । भार्यामनेकवित्तां छूने लभते महत्त्वं च ॥४४॥ विख्यातनामसारश्चिरजीवी कुलधरो निधनसंस्थे । शशितनये भवति नरो नृपतिसमो दण्डनायको वाऽपि ॥४५॥ नवमगते भवति पुमानतिधनविद्यायुतः शुभाचारः । वागीश्वरोऽतिनिपुणो धर्मिष्ठः सोमपुत्रे हि ॥४६॥ प्रवरमतिकर्मचेष्टः सकलारम्भो विशारदो दशमे । धीरः सत्वसमेतो विविधालारसत्वभाक् सौम्ये ॥४७॥ धनवान् विधेयभृत्यः प्राज्ञः सौख्यान्वितो विपुलभोगी । एकादशे बुधे स्याद्वह्वायुः ख्यातिमान् पुरुषः ॥४८॥ सुगृहीतवाक्यमलसं परिभूतं वाग्मिनं तथा प्राज्ञम् । व्ययगः करोति सौम्यः पुरुषं दीनं नृशंसं च ॥४९॥
॥ इति बुधः ॥ होरासंस्थे जीवे सुशरीरः प्राणवान् सुदीर्घायुः ।
सुसमीक्षितकार्यकरः प्राज्ञो धीरस्तथार्यश्च ॥ ५० ॥ १ श्रुतिनिरतः परिभूतः. २ नरस्सचलः. ३ विद्यासुखप्रतापैः. ४ सफलारम्भो. ५ सत्य.
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सारावली ।
धनवान् भोजनसारो वाग्मी सुवपुः सुवाक् सुवक्रश्च । कल्याणवपुस्त्यागी सुमुखो जीवे भवेद्धनगे ॥ ५१ ॥ अतिपरिभूतः कृपणः संदाजितो मानवो भवति जीवे । मन्दाग्निस्त्रीविजितो दुश्चिक्ये पापकर्मा च ॥ ५२ ॥ स्वजनपरिच्छदवाहनसुखमतिभोगार्थसंयुतो भवति । श्रेष्ठः शत्रुविषादी चतुर्थसंस्थे सदा जीवे ॥ ५३ ॥ सुखसुतमित्र समृद्धः प्राज्ञो धृतिमांस्तथा विभवसारः । पञ्चमभवने जीवे सर्वत्र सुखी भवति जातः ॥ ५४ ॥ सन्नोदराग्निपुंस्त्वः परिभूतो दुर्बलोऽलसः षष्ठे । स्त्रीविदितो रिपुहन्ता जीवे पुरुषोऽतिविख्यातः ॥ ५५ ॥ सुभगः सुरुचिरदारः पितुरधिकः सप्तमे भवति जातः । वक्ता कविः प्रधानः प्राज्ञो जीवे सुविख्यातः ॥ ५६ ॥ परिभूतो दीर्घायुर्भृतको दासोऽथवा निधनसंस्थे । स्वजनप्रेष्यो दीनो मलिनस्त्रीभोगवान् जीवे ॥ ५७ ॥ दैवतपितृकार्यरतो विद्वान् सुभगो भवेत्तथा नवमे । नृपमत्री नेता वा जीवे जातः प्रधानश्च ॥ ५८ ॥ सिद्धारम्भो मान्यः सर्वोपायः कुशलसमृद्धश्च । दशमस्थे त्रिदशगुरौ सुखधनजनवाहनयशोभाक् ॥ ५९ ॥ अपरिमितायद्वारो बहुवाहनभृत्यसंयुतः साधुः । एकादशभे जीवे न चातिविद्यो न चातिसुतः ॥ ६० ॥ अलसो लोकद्वेष्यो ह्यपगतवाग्दैवपक्षभग्नो वा । परितः सेवानिरतो द्वादशसंस्थे गुरौ भवति ॥ ६१ ॥
॥ इति गुरुः ॥
सुनयनवदनशरीरं सुखितं दीर्घायुषं तथा भीरुम् । युवतिजननयनकान्तं जनयति होरागतः शुक्रः ॥ ६२ ॥ प्रचुरान्नपानविभवं श्रेष्ठैविलासं तथा सुवाक्यं च । कुरुते द्वितीयराशौ बहुधनसहितं सितः पुरुषम् ॥ ६३ ॥
१ सहजातो, सहज जितो. २ सुजन प्रेष्यो.
३ शिष्ट.
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त्रिंशोऽध्यायः। सुखधनसहितं शुक्रो दुश्चिक्ये स्त्रीजितं तथा कृपणम् । जनयति मन्दोत्साहं सौभाग्यपरिच्छदातीतम् ॥ ६४ ॥ बन्धुसुहृत्सुखसहितं कान्तं वाहनपरिच्छदसमृद्धम् । ललितमदीनं सुभगं जनयति हिबुके नरं शुक्रः ॥ ६५ ॥ सुखसुतमित्रोपचितं रतिपरमतिधनमखण्डितं शुक्रः । कुरुते पञ्चमराशौ मत्रिणमथ दण्डनेतारम् ॥ ६६ ॥ अधिकमनिष्टं स्त्रीणां प्रचुरामित्रं 'निराकृतं विभवैः । विक्लवमतीव नीचं कुरुते षष्ठे भृगोस्तनयः ॥ ६७ ॥ अतिरूपदारसौख्यं बहुरूपं कलहवर्जितं पुरुषम् । जनयति सप्तमधामनि सौभाग्यसमन्वितं शुक्रः ॥ ६८ ॥ दीर्घायुरनुपमसुखः शुक्रे निधनाश्रिते धनसमृद्धः । भवति पुमान् नृपतिसमः क्षणे क्षणे लब्धपरितोषः ॥६९॥ सममायततनुवित्तो दारयुवतिसुखसुहृज्जनोपेतः । भृगुतनये नवमस्थे सुरातिथिगुरुप्रसक्तः स्यात् ॥ ७० ॥ उत्थानविवादजिताः सुखरतिभावार्थकीर्तयो यस्य । दशमस्थे भृगुतनये भवति पुमान् बहुमतिख्यातः ॥७१॥ प्रतिरूपदासभृत्यं बह्वायं सर्वशोकसन्त्यक्तम् । जनयति भवभवनगतो भृगुतनयः सर्वदा पुरुषम् ॥७२॥ अलसं सुखिनं स्थूलं पतितं मृष्टाशिनं भृगोस्तनयः । शयनोपचारकुशलं द्वादशगः स्त्रीजितं जनयेत् ॥७३॥
॥ इति शुकः ॥ खोचस्वकीयभवने क्षितिपालतुल्यो । - लग्नेऽर्कजे भवति देशपुराधिनाथः । शेषेषु दुःखगदपीडित एव बाल्ये
दारिद्यर्कर्मवशगो मलिनोऽलसश्च ॥ ७४ ॥ विकृतवदनोऽर्थभोक्ता जनरहितो न्यायकृत्कुटुम्बगते ।
पश्चात्परदेशगतो जनवाहनभोगवान् सौरे ॥ ७५ ।। - १ विनाकृतं. २ बहुविभवं. ३ उत्थानविवादार्जितसुखरतिमानार्थकीर्तयो. ४ कामवशगो.
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सारावली |
मलिनः संस्कृतदेहो नीचोऽलसपरिजनो भवति सौरे | शूरो दानानुरतो दुश्चिक्यगते विपुलबुद्धिः ॥ ७६ ॥ पीडितहृदयो हिबुके निर्बान्धववाहनार्थमतिसौख्यः । बाल्ये व्याधितदेहो नखरोमधरो भवेत् सौरे ॥ ७७ ॥ सुखसुतमित्रविहीनं मतिरहितमचेतसं त्रिकोणस्थः । सोन्मादं रवितनयः करोति पुरुषं सदा दीनम् ॥ ७८ ॥ प्रबलमदनं सुदेहं शूरं बह्वाशिनं विषमशीलम् । बहुरिपुपक्षक्षपितं रिपुभवनगतोऽर्कजः कुरुते ॥ ७९ ॥ सततमनारोग्यतनुं मृतदारं धनविवर्जितं जनयेत् । द्यूनेऽर्कजः कुवेपं पापं बहुनीचकर्माणम् ॥ ८० ॥ कुष्ठभगन्दर रोगैरभितप्तं ह्रस्वजीवितं निधने । सर्वारम्भविहीनं जनयति रविजः सदा पुरुषम् ॥ ८१ ॥ धर्मरहितोऽल्पधनिकः सहजसुतविवर्जितो नवमसंस्थे । रविजे सौख्यविहीनः परोपतापी च जायते मनुजः ॥ ८२ ॥ धनवान् प्राज्ञः शूरो मन्त्री वा दण्डनायको वाऽपि । दशमस्थे रवितनये वृन्दपुरग्रामनेता च ॥ ८३ ॥ बह्वायुः स्थिरविभवः शूरः शिल्पाश्रयो विगतरोगः । आयस्थे भानुसुते धनजनसम्पद्युतो भवति ॥ ८४ ॥ विकलः पतितो मुखरो विषमाक्षो निर्वृणो विगतलजः । व्ययभवनगते सौरे बहुव्ययः स्यात् सुपरिभूतः ॥ ८५ ॥
॥ इति शनिः ॥
पापा निघ्नन्ति मूर्त्यादीन् भावान् पुष्णन्ति शोभनाः । विपरीतं रिपूरन्ध्रव्ययेषु सदसत्फलम् ॥ ८६ ॥ योगों ये बलयोगाः सौम्यसुहृद्रिपुनिरीक्षणाञ्चैव । उच्चादिभवन संस्थैर्ग्रहैश्च फलमन्यथा भवति ॥ ८७ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां भावाध्यायस्त्रिंशः ॥
१ विचेतसं. २ ऽपथरतः ३ शिल्पाश्रितो. ४ योगाश्रय. ५ योगात्सौम्य.
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एकत्रिंशोऽध्यायः।
एकत्रिंशोऽध्यायः। होराचतुर्थसप्तमदशमेषु यथा द्वयोर्द्वयोर्ग्रहयोः । भवति फलसम्प्रयोगो जातस्य तथायमुपदेशः ॥ १॥ मातृपितृदुःखतप्तः सूर्येन्द्वोरुदयसंस्थयोर्मनुजः । मानसुतविभवहीनः परिभूतो जायते दुःखी ॥२॥ बान्धवसुतसुखहीनो दारिद्ययुतो महाजडप्रकृतिः । चन्द्रे रसातलस्थे भास्करसहिते पुमान् जातः॥ ३॥ मित्रैः सुतैश्च हीनः परिभूतो युवतिभिः सदा पुरुषः । चन्द्रे सप्तमभवने दिनकरसहिते भवेद्दीनः ॥ ४ ॥ सुशरीरं बलनाथं राजसिकं निर्दयं विषमशीलम् । सूर्येन्दू गगनस्थौ कुरुतः क्षपितारिपक्षं च ॥५॥ रविभौमयोर्विलग्ने पित्तप्रकृतिर्महाहवे शूरः । क्रोधी विक्षतगात्रः क्रूरश्च शठः कठोरः स्यात् ॥ ६ ॥ वन्धुजनवित्तहीनः समस्तसुखवर्जितः क्षुभितः ।। कुजसूर्ययोश्चतुर्थे भवति पुमान् सर्वतो द्वेष्यः ॥ ७॥ स्त्रीविरहदुःखखिन्नः स्त्रीहेतोः परिभवं सदा प्राप्तः । रविरुधिरयोयुवत्यां विदेशगमने रतो भवति ॥८॥ विफलारम्भो भृतको नित्योद्विग्नः प्रधाननृपसेवी । भूतनयदिवाकरयोः कर्मणि गतयोर्भवेद्विकलः ॥ ९॥ प्राज्ञो बहुप्रलापी कठिनाङ्गः शूरवल्लभो मतिमान् । लग्ने बुधदिनकरयोर्दीर्घायुः संभवेत्पुरुषः ॥ १० ॥ नृपतिसमो विख्यातो गृहीतकाव्यः कुबेरसमविभवः । रविशशितनयौ हिबुके स्थूलतनुर्वक्रनासश्च ॥११॥ वधबन्धनकृन्मृत्युगृहीतवाक्यो न चातिधनलुब्धः । स्त्रीरतिहीनश्चोरो छूने बुधसूर्ययोर्भवति ॥ १२ ॥ त्रिषु लोकेषु ख्यातो गजाश्वनाथो भवेन्महीपालः । दिनकरबुधयोर्दशमे न नीचराशिस्थयोरेव ॥१३॥ १ मित्रहीनः, विभवहीनः. २ अज्ञो.
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सारावली ।
जीवार्कयोर्गुणयुतो मन्त्री बलनायकोऽथवा साधुः । लग्नस्थयोः प्रसूतौ विद्याधनभोगवान्ख्यातः ॥ १४ ॥ श्रुतिनीतिकाव्यनिरतं भव्यं जनसम्पदं प्रियालापम् । हिबुके सुरेज्यसूयौं निभृताचारं नरं कुरुतः ॥ १५ ॥ जीवार्कयोर्युवत्यां मदनवशात्स्त्रीजितः पितृद्वेषी । कनकमणिरजत मौक्तिकसमन्वितः शुभशरीरः स्यात् ॥ १६ ॥ कीर्तिसुखमानविभवैः समन्वितः पार्थिवो भवेन्नभसि । रविदेवपुरोहितयोर्निन्द्येऽपि कुले नरो जातः ॥ १७ ॥ प्रियकलहस्त्वविनीतो मलिनाचारः सुदुःखितो नीचः । लग्ने रविभृगुसुतयोरत्यर्थकलत्र सम्परित्यक्तः ॥ १८ ॥ आदित्ये हिबुकस्थे भार्गवसहिते भवेन्नरो जातः । परभृत्यः शोकार्तो लोकद्वेष्यो दरिद्रश्च ॥ १९ ॥ स्त्रीभिः सम्परिभूतो द्रविणविहीनो वृहत्तनुर्द्वष्यः । शैलवनेषु च विचरति रविसितयोः सप्तमस्थाने ॥ २० ॥ कर्मणि दिनकरसितयोर्व्यवहाररतो नरेन्द्रसचिवः स्यात् । शास्त्र कला निपुणमतिर्धन वाहन सौख्यसम्पन्नः ॥ २१ ॥ निन्दितजननीपुत्रः कुत्सितवृत्तिः सदा मलिनबुद्धिः । लग्ने सूर्यार्कजयोः पापाचारो भवेत्पुरुषः ॥ २२ ॥ सौरिश्चतुर्थराशौ भास्करसहिते पुमान् भवति नीचः । दारिद्र्यविहितमूर्तिः खबन्धुभिश्चापि परिभूतः ॥ २३ ॥ भान्वर्कजयोर्मदने मन्दालसदुर्भगाश्च जायन्ते । युवतिधनैः सन्त्यक्ता मृगयाभिरता महामूखीः ॥ २४ ॥ भानुः स्वपुत्रसहितो गगने भृतकं विदेशगं जनयेत् । नृपतेः कचिदाप्तधनैश्चोरैर्मुषितं सदश्वधनम् ॥ २५ ॥ रक्ताग्निपित्तदोषैरभिभूतो जायते नरो राजा । क्षोणीसुतहिमकरयोर्लने तीक्ष्णस्वभावश्च ॥ २६ ॥ सक्लेशो निद्रव्यः सुखसुतधनबन्धुहीनश्च । पाताले कुजशशिनोर्विकलश्च भवेत्तथा जातः ॥ २७ ॥ १ पित्तरोगैः.
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एकत्रिंशोऽध्यायः। क्षुद्रः परधनलुब्धो बहुप्रलापो न सत्यवचनश्च । ईर्ष्यायुक्तो मनुजः कुजशशिनोः सप्तमस्थाने ॥ २८ ॥ तुरगगजपत्तिसम्पत्समाकुलं तुहिनगुर्नरं कुरुते । रुधिरेण समायातो गगनतले विक्रमैर्युक्तम् ॥ २९ ॥ सुखबुद्धिसत्वयुक्तः सुभगः कान्तो विलग्नगे शशिनि । बुधसहिते भवति नरो वाचालश्चातिनिपुणश्च ॥ ३० ॥ बन्धुसुहृत्तनयसुखप्रतापकनकाश्वरत्नसंयुक्तम् । वान्धवराशाविन्दुर्जनयति बुधसंयुतः सुभगम् ॥ ३१ ॥ द्यूने बुधसंयुक्तो जनयति चन्द्रः प्रतापिनं पुरुषम् । नृपसंमतं नृपं वा विख्यातं सत्कविं ललितम् ॥ ३२ ॥ दशमे बुधहिमकरयोर्मानी धनवानतिख्यातः । नृपसचिवो वयसोऽन्ते दुःखी स्याद्वन्धुपरिहीनः ॥३३॥ लग्ने सुरेज्यशशिनोः क्षितिपः पृथुपीनवक्षाः स्यात् । बहुतनयमित्रभार्यः सुशरीरो बन्धुभिर्जुष्टः ॥ ३४ ॥ मन्त्री राजप्रतिमः सुखबन्धुसमन्वितो महाविभवः । बहुशास्त्राक्षतबुद्धिर्हिबुके स्याजीवशशिनोश्च ॥ ३५ ॥ जायाभवने कुरुतः सुप्राज्ञं पार्थिवं कलाकुशलम् । वाणिजकं जीवेन्दू नृपवल्लभमर्थवत्स्फीतम् ॥ ३६॥ कर्मणि सुरेज्यशशिनोविद्यादानार्थमानकीर्तियुतः । सौम्यः प्रलम्बबाहुः सर्वनमस्यो नरो भवति ॥ ३७॥ वेश्यास्त्रीकृतसौख्यः कान्ततनुः संमतो गुरूणां च । माल्याम्बरगन्धयुतो लग्ने शशिशुक्रयोर्भवति ॥ ३८॥ पाताले शशिशुक्रौ स्त्रीजनसुखभागिनं नरं कुरुतः । जलसंयानाप्तधनं जनप्रियं भोगसम्पन्नम् ॥ ३९ ॥ जामित्रे सितशशिनोबहुयुवतिरतो न चातिधनपुत्रः । स्त्रीजननो मेधावी भूपर्तिचरितो भवेत्पुरुषः ॥४०॥ मानाज्ञाविभवयुतः कर्मणि शुक्रे शशाङ्कयुते ।
राज्ञो मन्त्री ख्यातः क्षमान्वितः स्याद्बहुजनश्च ॥४१॥ १ कल्पतरुः. २ भूपतिरजितो.
१० सारा
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सारावली । दासाः खलाः सुरौद्रा भवन्ति लुब्धाश्च मानवा हीनाः । भास्करसुतहिमकरयोलग्ने निद्रालसाः पापाः ॥ ४२ ॥ जलमुक्तामणिपोतैर्जीवन्ति नरास्तथा खननवृत्त्या । हिबुके शशिरविसुतयोः श्रेष्ठा जनसंमता जाताः ॥ ४३ ॥ नगरग्रामपुराणां महत्तरा राजपूजिताः पुरुषाः। जायन्तेऽर्कजशशिनोर्जायाभवने युवतिहीनाः ॥४४॥ प्रचुरतुरंगमदलितारातिः ख्यातः कुयोषितः पुत्रः । भवति नराणामधिपः शशिशनियोगे खमध्यगते ॥४५॥ सौम्यग्रहसंयुक्तः प्रायेण शुभावहो भगणनाथः । भौमार्कियुतो दृष्टो दशमे च चमूपतिं कुर्यात् ॥ ४६॥ हिंस्रोऽग्निकर्मकुशलो धातोर्वादे कृतश्रमो दूतः । भौमबुधयोर्विलग्ने गुप्त्यधिकारी भवेत्पुरुषः ॥ ४७ ॥ बान्धवरहितः सहितो मित्रैश्च धनान्नभोगवाहनवान् । हिबुके बुधभूसुतयोः स्वजनेषु निराकृतो जातः ॥४८॥ भ्रमति च देशाद्देशं कर्मकरो नीचपरिभूतः । भौमेन्दुजयो ने सुविवादकरो मृतप्रथमदारः ॥४९॥ सेनाधिपतिः शूरः शठस्वभावो भवेदतिक्रूरः। बुधकुजयोराकाशे राज्ञोऽभिमतो नरो धीरः ॥ ५० ॥ मत्री गुणप्रधानो धर्मक्षेत्रे प्रलब्धपरिकीर्तिः । जीवकुजयोर्विलग्ने नित्योत्साही भवेत्पुरुषः ॥ ५१ ॥ बन्धुसुहृत्सम्पन्नः स्थिरचित्तः सौख्यभाक् भवेद्धिबुके । भौमामरपूजितयोपसेवी देवगुरुभक्तः ॥ ५२ ॥ गिरिदुर्गतोयकाननविचरणशीलः सुबान्धवः शूरः । कुजजीवयोयुवत्यां जायाहीनः पुमान्भवति ॥ ५३॥ त्रिदशगुरुभूमिसुतयोराकाशे पार्थिवो विपुलकीर्तिः । बहुधनजनपरिवारः कर्मसु निपुणो भवेत्पुरुषः ॥ ५४॥ शुक्रकुजयोर्विलग्ने वेश्यानिरतः कुशीलकर्मा च ।
स्त्रीहेतोर्नष्टधनो न तु चिरजीवी भवेत्पुरुषः ॥ ५५ ॥ 1 नेटो. २ स्थिरवित्तः. ३ कुशिल्प.
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एकत्रिंशोऽध्यायः । बन्धुसुतमित्रहीनो मानसपीडाभिरर्दितः पुरुषः । भौमसितयोश्चतुर्थे नानादुःखैर्भवेत्तप्तः ॥ ५६ ॥ स्त्रीलोलुपः कुचरितः स्त्रीहेतोः प्राप्तवान्महादुःखम् । भौमसितयोर्युक्त्यां हीनाचारो भवेत्पुरुषः ॥ ५७ ॥ अस्त्राचार्यों मतिमान् विद्याधनवस्त्रमाल्यवान्भवति । ख्यातो नरेन्द्रसचिवः सितकुजयोयोनि संस्थितयोः॥५८|| संग्रामलब्धविजयो जननीद्वेष्यो भवेत्पुरुषः । भौमार्कजयोलग्ने ह्रस्वायुः क्षीणभाग्यश्च ॥ ५९ ॥ पानान्नसौख्यरहितः स्वजनैत्यक्तो भवति जातः । भौमार्कजयोर्हिबुके मित्रैश्च विवर्जितः पापः ॥ ६० ।। जायासुखसुतहीनो दैन्यपरो व्याधितो व्यसनशीलः । भौमार्कजयोरस्ते जनपरिभूतो भवेत्कृपणः ॥ ६१॥ राज्ञः सम्प्राप्तधनो महापराधाच दण्डितस्तेन । भौमार्कजयोर्दशमे न सत्यवचनो नरो भवति ॥ ६२ ॥ शुभमूर्तिः शुभशीलो विद्वान्नृपसत्कृतो विषयनाथः । बुधजीवयोर्विलग्ने वाहनसुखभोगवान् भवति ॥ ६३ ॥ बन्धुसुहृत्सुखसहितः स्त्रीधनसौभाग्यसम्पन्नः । बुधजीवयोश्चतुर्थे निपुणो नृपसंमतो भवति ॥ ६४ ।। सुकलत्रो हतशत्रुर्बहुजनमित्रार्थसत्त्वसम्पन्नः । बुधजीवयोर्युवत्यामतीत्य पितृपक्षमधिकः स्यात् ।। ६५ ।। बोधनगुर्वोदशमे नरेन्द्रमन्त्री नृपोऽथवा भवति । मानाज्ञाख्यातियुतः श्रौतार्थपरो विनीतश्च ॥६६॥ बुधशुक्रयोर्विलग्ने सुशरीरः पण्डितः सतां सुभगः । नृपपूजितोऽतिधन्यो द्विजसुरभक्तो भवेत्ख्यातः ॥ ६७ ।। बुधशुक्रौ हिबुकस्थौ पुत्रसुहृद्वन्धुसंयुतं सुभगम् । मत्रिणमथवा नृपतिं कुरुतः कल्याणसम्पन्नम् ॥ ६८॥ बुधशुक्रयोर्युवत्यां सद्बहुयुवतिपरिवेष्टितः पुरुषः ।
भोगधनैश्वर्ययुतो भवति सुखी संमतो राज्ञाम् ॥ ६९ ॥ १ बहुसंमतो.
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११२
सारावली ।
बोधनसितयोः कर्मणि नीतिज्ञो भवति भूपतिः साधुः । नीचाश्रयो न चाढ्यः सफलारम्भः समर्थश्च ॥ ७० ॥ मलिनशरीरः पापी विद्याधनवाहनैः परित्यक्तः । सौम्यार्कजयोर्लग्ने ह्रस्वायुः क्षीणभाग्यश्च ॥ ७१ ॥ पानान्नबन्धुरहितः स्वजनेषु तिरस्कृतो भवति मूढः । सौम्यार्कजयोर्हिबुके मित्रैश्च विवर्जितः पापः ॥ ७२ ॥ ईश्वरभृतको मूर्खः परोपकारी न साधुरतिमलिनः । सौम्यार्कजयोरस्ते न सत्यवचनो नरो भवति ॥ ७३ ॥ प्रशमितसमस्तशत्रुः स्वजनसुहृद्वाहनार्थसम्पन्नः । सौम्यार्कजयोदशमे द्विजगुरुसुरपूजितो भवति ॥ ७४ ॥ जीवसितयोविलग्ने गुरूपदेशो भवेत्क्षमानाथः । ब्राह्मणकुलसंभूतोऽप्यनुकूलो भवति नृपतुल्यः ॥ ७५ ॥ प्रशमितसमस्तशत्रुः स्वजनसुहृद्वाहनार्थसम्पन्नः । जीवसितयोश्चतुर्थे द्विजगुरुसुरपूजितो भवति ॥ ७६ ॥ सुस्त्रीरत्नार्थयुतः स्त्रीजननो लब्धसौख्यकीर्तिश्च । गुरुशुक्रयोयुवत्यां वरवाहनभोगवान्भवति ॥ ७७॥ गगनस्थौ गुरुशुक्रौ मानाज्ञाविभवविस्तरैः सहितम् । जनयेतां पृथिवीशं बहुभृत्यधनं सुशीलं च ॥ ७८ ॥ लग्ने जीवार्कजयोर्मदालसा निष्ठुराः समभिजाताः । विद्वांसो धनसाराः किञ्चित्सुखिता भवन्ति खलाः ॥७९॥ नृपसचिवो निरुजतनुर्जयोदयी बान्धवैः सुहृद्भिश्च । पातालेऽर्कजगुर्वोः प्रीतिधनः सौख्यवान्भवति ॥ ८०॥ स्त्रीवैरान्नष्टधनः शूरो व्यसनी शठो न शुभमूर्तिः । द्यूने सुरेज्ययमयोः पितृधनलुब्धश्च जायते मूर्खः ॥ ८१ ॥ दशमे भास्करिजीवौ नरेन्द्रदयितं च भूपतिं कुरुतः । अल्पापत्यं नचलं गोकुलबहुवाहनार्थ च ॥ ८२ ॥ रमते सर्ववधूभिः कान्तशरीरः सुखार्थभोगयुतः । . लग्ने भृगुसुतयमयोबहुभृत्यः शोकसन्तप्तः ॥ ८३॥
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द्वात्रिंशोऽध्यायः।
११३ मित्रेभ्यो धनलाभं बन्धुभ्यः सत्क्रियाः समाप्नोति । शनिशुक्रयोश्चतुर्थे नृपतेश्च तथाप्ततां याति ॥ ८४॥ स्त्रीरत्नानि सुखानि च धनानि कीर्तिं च भूतिमखिलां च । मन्दसितयोर्युक्त्यां प्राप्नोति पुमान्विषयलाभम् ॥ ८५ ॥ सर्वद्वन्द्वविमुक्तो लोके ख्यातो विशिष्टकर्मा च । मेधूरणे सिताक्योर्नृपतेर्मत्री भवेदधिकः ॥ ८६ ॥ एवं त्रिभिश्चतुर्भिः पञ्चभिरथ सप्तभिश्च षड्भिर्वा ।
वक्तव्यं केन्द्रस्थैर्ग्रहयोगफलं विचिन्त्य धिया ॥ ८७॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां यन्तरयोगो नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ॥
द्वात्रिंशोऽध्यायः। सर्वमपहाय चिन्त्यं भाग्यक्षं प्राणिनां विशेषेण । भाग्यं विना न जन्तुर्यस्मात्तद्यनतो वक्ष्ये ॥१॥ लग्नान्निशाकराद्वा यन्नवमं तद्गृहं भवेद्भाग्यम् । अनयोर्यो बलयुक्तो भाग्यगृहं चिन्तयेदस्मात् ॥२॥ भाग्यक्षपतिः कस्मिन्नेको भाग्यक्षमाश्रितो विहगः ।। बलवान्मन्दबलो वा तस्याधिपतेस्तु कारको ज्ञेयः॥३॥ खस्वामिदृष्टयुक्तं स्वदेशफलदायकं मुनिभिरुक्तम् । अन्येन सहितदृष्टं परदेशफलप्रदं भवति भाग्यम् ॥४॥ दुश्चिक्यगतो भाग्यं पञ्चमभवनस्थितो ग्रहः पश्येत् । होरागतश्च बलवान् येषां ते मानवाः श्रेष्ठाः ॥५॥ देवगुरौ भाग्यस्थे मन्त्री रविवीक्षिते नृपतितुल्यः । भोगी कान्तः शशिना काञ्चनमा भवति भौमेन ॥६॥ सौम्येन धनी ज्ञेयः सितेन गोवाहनार्थसंयुक्तः। सौरेण स्थावरभाक् दृष्टे खरमहिषसंयुक्तः ॥७॥ ऐश्वर्यरत्नकाञ्चनसाहसभागुत्तमश्च वीर्येण ।
रविरुधिराभ्यां दृष्टे वाहनपरिवारवान्पुरुषः ॥ ८॥ १ यनवमक्षं गृहं. २ कस्मिन् को वा. ३ भाग्.
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११४
सारावली ।
चन्द्रार्काभ्यां दृष्टे सुसमृद्धो वल्लभः पितृजनन्योः । ख्यातो नरेन्द्रतुल्यो बहुदारसमन्वितः पुरुषः ॥ ९ ॥ ललितः कान्तः सुभगो वरयुवतिविभूषणार्थसम्पन्नः । बुधसूर्याभ्यां दृष्टे काव्यकलापण्डितः प्राज्ञः ॥ १० ॥ उत्सवसमाजशीलो गोमहिषाजवरवारणोपेतः । रविसितदृष्टे जीवे भाग्यस्थे स्याद्विनीतश्च ॥ ११ ॥ अर्कार्किभ्यां दृष्टे देशपुरश्रेणिनायकः ख्यातः । प्राज्ञो गुणवान्सधनो निधिनाथः संग्रहणशीलः ॥ १२ ॥ सेनाचार्यः स्फीतो मत्री वा जायते गुरौ भाग्ये । दृष्टे कुजचन्द्राभ्यां नानाविधसौख्यभाजनं सुभगः ॥ १३ ॥ उत्तमगृहशयनानां भोगी तेजोन्वितः क्षमाप्रतिमः । चन्द्रबुधाभ्यां दृष्टे जातः पुरुषोऽतिमतियुक्तः ॥ १४ ॥ आढ्यः कर्मोद्युक्तः शूरः परदारवान् सुतविहीनः । इन्दुसिताभ्यां दृष्टे भाग्यगृहे स्यागुरौ जातः ॥ १५ ॥ मदबहुलः स्थिरजीवी परदेशरतो विवादशीलः स्यात् । अनृतवचनो गुणोनः शशियमदृष्टे गुरौ भाग्ये ॥ १६ ॥ सुप्राज्ञोऽतिसुशीलः सुगुणो विद्वान्गृहीतवाक्यश्च । सुरुचिरवेषो जीवे कुजबुधदृष्टे भवेद्भाग्ये ॥ १७ ॥ धनवान्विद्यायुक्तो विदेशगः सात्विकोऽतिनिपुणश्च । क्षितितनयभार्गवाभ्यां दृष्टे क्रूरो नरो जातः ॥ १८ ॥ नीचः पिशुनो द्वेष्यो विदेशगश्चलजनैः समायुक्तः । भौमार्किभ्यां दृष्टे भाग्यगृहे सुरगुरौ जातः ॥ १९ ॥ शिल्पज्ञोऽतिसुशीलो विद्वान्सुभगो गृहीतवाक्यश्च । सुरुचिरवेषो जीवे बुधसितदृष्टे भवेद्भाग्ये ॥ २० ॥ सुभगो विद्वान्वक्ता ललितः शूरः सुखी विनीतश्च । जी भाग्योपगते बुधाहि पुमान्भवति ॥ २१ ॥ देवगुरौ भाग्यस्थे काव्यार्कजवीक्षिते पुमान्भवति । राजेश्वरराष्ट्राणां पुरोगमो धनसमृद्धश्च ॥ २२ ॥
१ सुभगो.
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द्वात्रिंशोऽध्यायः ।
राश्यधिपेन च दृष्टे जीवे भाग्याश्रिते नृणां ज्ञेयम् । एभिः कथितैर्दृष्टे फलमिदमन्यैरसन्दृष्टे ॥ २३ ॥ उत्तमरूपो गुणवान् तेजस्वी पार्थिवो महाविभवः । देवगुरौ भाग्यस्थे सर्वग्रहवीक्षिते भवति ॥ २४ ॥ भाग्ये शुभगगनसदो बलिनो राज्यप्रदास्तु विज्ञेयाः । स्थावरधनधान्यकरा धर्मायुर्वर्धनाश्चैव ॥ २५ ॥ नीचारिराशिसंस्थाः पापा भाग्ये न सौम्यसंदृष्टाः । दुर्बलमधनं कुर्युर्विगतख्यातिं नरं मलिनम् ॥ २६ ॥ स्वे स्वे भवने पुंसां क्रूरा भाग्यर्क्ष संस्थिता ये स्युः । ज्ञेयास्त उत्तमशुभा बहुतरगुणसंयुताः शुभैर्दृष्टाः ॥ २७ ॥ पूर्णेन्दुयुते भाग्ये वार्किबुधाः प्रधानवीर्याश्च । व्यस्ता वाऽथ समस्ताः प्रधाननृपसंभवो ज्ञेयः ॥ २८ ॥ सकलगगनगेहाः खोच्चगा भाग्यराशौ धनकनकसमृद्धं श्रेष्ठमुत्पादयन्ति । अथ शुभविहगेन्द्रैस्तत्र दृष्टे नरेन्द्रं
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विनिहतरिपुपक्षं दिव्यकान्ति सुकीर्तिम् ॥ २९ ॥ सूर्यश्चन्द्रसहायो भाग्ये स्वल्पायुषं नरं कुरुते । नयनव्याधितमाढ्यं सुभगं कलहप्रियं चापि ॥ ३० ॥ भानुर्वकसमेतो नानादुःखान्वितं नरं कुरुते । कलहप्रियं प्रचण्डं शूरं नृपवल्लभं निपुणम् ॥ ३१ ॥ रविसहितः शशितनयो निपुणं दुःखान्वितं बहुविपक्षम् । जनयति भाग्ये पुरुषं नानारोगैः परिगृहीतम् ॥ ३२ ॥ सुरगुरुसहितः सूर्यो भाग्ये कुर्याद्धनान्वितं पुरुषम् । पितरं च धनसमृद्धं दीर्घायुषमार्यमतिशूरम् ॥ ३३ ॥ शुक्रसहायः सूर्यो व्याधितदेहं नरं कुरुते । प्रियगन्धमाल्यभूषणवस्त्रालङ्कारसंयुतं भाग्ये ॥ ३४ ॥ सूर्यः सौरसहायो धनिनं नेत्रातुरं कलहनिष्ठम् । व्याधितपितरं कुरुते भाग्ये स्वल्पायुषं पुरुषम् ॥ ३५ ॥
१ खेटा:.
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- सारावली। चन्द्रो रुधिरसहायो भाग्यं समुपेत्य मातरं हन्यात् । कुर्याच विकलगात्रं सव्रणदेहं समृद्धं च ॥ ३६॥ चन्द्रः स्वसुतसमेतः शास्त्रज्ञं पण्डितं विकलदेहम् । जनयत्युत्तमपुरुष बहुवाचं विश्रुतं चैव ॥ ३७॥ सुरगुरुसहिते चन्द्रे भाग्ये प्रवरः प्रसूयते पुरुषः । सौभाग्यधनसमृद्धः सर्वत्र सुखान्वितो धीरः ॥ ३८॥ चन्द्रो भार्गवसहितो भाग्यगृहे व्याधितं नरं कुरुते । कुलटापति समृद्धं मातृसपत्नीप्रदं सचिववश्यम् ॥ ३९ ॥ रविसुतसहितश्चन्द्रो नवमे राशौ विकृष्टधर्माणम् । जनयति मनुजं पापं माता च कुलच्युता भवति ॥ ४० ॥ रुधिरः सोमजसहितो भाग्यः जनयति प्रधानं च । नित्योद्विग्नं सुभगं भोगयुतं शास्त्रकुशलं च ॥४१॥ भौमः सुरगुरुयुक्तो भाग्ये धनधान्यभागिनं पुरुषम् । पूज्यव्याधितदेहं क्लिष्टं व्रणदीक्षितं प्रसवे ॥ ४२ ॥ भार्गवसहितः क्षितिजः परदेशरतं विवादिनं क्रूरम् । स्त्रीद्वेषिणं कृतघ्नं जनयति मिथ्याप्रधानं च ॥४३॥ पापं मलिनाचारं परदाररतं विनष्टधनसौख्यम् । कुजरविजौ भाग्यगृहे स्वजनविहीनं नरं कुरुते ॥४४॥ सौम्यः सुरगुरुसहितः शास्त्रज्ञं पण्डितं धनसमृद्धम् । प्रियवादिनं कलाशं प्रभविष्णुमहत्तरं भाग्ये ॥४५॥ भृगुसुतसहितः सौम्यः ख्यातं च सुपण्डितं धीरम् । सुभगं वचनसमर्थं जनयति नीतिप्रियं भाग्ये ॥ ४६॥ सूर्यजसहितः सौम्यो व्याधितमाढ्यं प्रियान्वितं निपुणम् । जनयति भाग्ये पुरुषं सद्वेष्यं बहुकथं चैव ॥४७॥ शुक्रः सुरगुरुसहितो भाग्यगृहस्थो नराधिपं कुरुते । चिरजीविनं सुवाक्यं नानाविधसौख्यसम्पन्नम् ॥ ४८॥ जीवः सौरसहायो भाग्ये धनरत्नभागिनं कुरुते ।
पूज्यं व्याधितदेहं स्वजनविहीनं सदा पुरुषम् ॥ ४९ ॥ १ गीतप्रियं.
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द्वात्रिंशोऽध्यायः ।
सौरसहायः शुक्रो व्याधितदेहं नरं कुरुते । बहुपुत्रं नृपतीष्टं यशखिनं शीलसम्पन्नम् ॥ ५० ॥ एवं स्थानविशेषैर्दृष्टिविशेषैश्च निपुणमधिगम्य । ब्रूयात्फलनिर्देशं शास्त्रादनुरूपतः प्राज्ञः ॥ ५१ ॥ सत्रणगात्रं रूक्षं मृतपितरं मातृवर्जितं कुर्युः । बाल्ये क्षुद्रं द्वेष्यं हिंस्रं शशिरुधिरभानवो भाग्ये ॥ ५२ ॥ रविचन्द्रबुधा भाग्ये क्लीबाकारं सुदुःखितं कुर्युः । सर्वजनानां द्वेष्यं विक्रान्तं सत्यवचनं च ॥ ५३ ॥ चन्द्रदिवाकरगुरवो नवमे पुरुषस्य सम्भवे यस्य । स भवत्युत्तमपुरुषो वाहनधनसौख्यसम्पन्नः ॥ ५४ ॥ रविचन्द्रसिता नवमे स्त्रीकल हैर्नष्ट सर्वधनसौख्यम् । नृपसंमतं नयज्ञं जनयन्ति नरं प्रियालापम् ॥ ५५ ॥ सूर्यनिशाकरसौरा नवमे राशौ नरं सदा कुर्युः । प्रबलं चण्डाचारं परभृत्यं लोकविद्विष्टम् ॥ ५६ ॥ रविभौमबुधा नवमे कुर्वन्ति नरं प्रियालापम् । भुजगमिवातिक्रुद्धं समरपरं निष्ठुरं प्रवासतरम् ॥ ५७ ॥ रविगुरुवका नवमे जनयन्ति नरं सदोद्युक्तम् । देवपितृपूजनरतं समृद्धदारं गुणोपेतम् ॥ ५८ ॥ कलहप्रियं कुलीनं कन्यानां दूषकं च चपलं च । दिवसकरवकशुका नवमे द्वेष्यं नरं कुर्युः ॥ ५९ ॥ साहसिकमतिक्षुद्रं लोकद्वेष्यं प्रियानृतं क्रूरम् । पित्रा रहितं बाल्ये कुर्युर्वक्रार्किभानवो नवमे ॥ ६० ॥ रविबुधगुरवो नवमे भाग्यसमेतं धनान्वितं सुभगम् । नृपतिप्रियं सुवेषं जनयन्ति नरं सुधीरं च ॥ ६१ ॥ रविबुधशुका भाग्ये जनयन्ति नरं प्रकाशिनं कान्तम् । रिपुपक्षपरिक्षीणं नृपतिसमं सारवन्तं च ॥ ६२ ॥ परदाररतं पापं प्रवासशीलं च निपुणमतिधृष्टम् । आनृतिकमदैवपरं रविबुधसौरा नरं भाग्ये ॥ ६३ ॥ १ बहुवित्तं. २ सुभगमथा. ३ प्रवासार्तम्.
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सारावली ।
भाग्यगृहे रविशुक्रौ जीवश्च नरं सुपण्डितं कान्तम् । बहुविषयपतिं वीरं जनयन्ति सुमेधसं प्राज्ञम् ॥ ६४ ॥ त्रिदशगुरुसौरसूर्या नवमे यस्येह जायमानस्य । स भवेदुत्तमवीर्यो राजा धनवान्गुणैः समृद्धश्च ॥ ६५ ।। कान्तिविहीनं मलिनं भूपतिपरिदण्डितं विभवहीनम् । जनयन्ति नरं भाग्ये रविशुक्रशनैश्चरा मूर्खम् ॥ ६६ ॥ धनकनकरत्नभाजं जनयन्ति शशिज्ञभूमिजाः पुरुषम् । प्रथमे वयसि च तप्तं भाग्यगृहे सर्वनाशेन ॥ ६७॥ भौमनिशाकरजीवाः कुर्वन्ति नरं जितेन्द्रियं प्राज्ञम् । गुरुदेवभक्तिनिरतं विद्याधनमागिनं सुभगम् ॥ ६८॥ व्रणिताङ्गमरूपं वा प्रेभेदिनं स्त्रीप्रियं युवतिवश्यम् । युवतिविनाशितसारं भृगुशशिवक्रा नरं नवमे ॥ ६९ ॥ व्यापन्नमातृवंशं क्षुद्रं बाल्ये निराकृतं मात्रा। सौरो भौमश्चन्द्रो जनयन्ति नराधमं नवमे ॥ ७० ॥ गुरुबुधचन्द्रा नवमे कुलवंशविवर्धनं कुर्युः। आचार्य बहुमित्रं नृपतिं बहुसाधनोपेतम् ॥ ७१ ॥ मातृसपत्नीजनकं प्रमुदितमानान्वितं प्रचुरमित्रम् । कुर्वन्ति सामशीलं भृगुबुधचन्द्रा नरं भाग्ये ॥ ७२ ॥ शशिबुधसौरा नवमे कूराचारं सुविक्रमं मलिनम् । जनयन्ति कुत्सितधियं संग्रामपराङ्मुखं दीनम् ॥ ७३॥ चन्द्रबृहस्पतिशुक्रा नवमे यस्येह जायमानस्य । स भवति महीपतुल्यो नृपतिकुले भूपतिश्चैव ।। ७४ ॥ शशिगुरुसौरा नवमे कुर्वन्ति नरं प्रियालापम् । सत्यव्रतं सुशीलं विख्यातं सर्वशास्त्रकुशलं च ॥ ७५ ॥ शुक्रेन्दुयमा नवमे कृषिवृत्तिं योनिपोषणानुरतम् । कुर्युर्मनुजमपापं कृतकृत्यं लोकविख्यातम् ॥ ७६॥ तेजस्विनं विशोकं विद्वांसं वाक्स्थिरं विशिष्टं वा ।
कुजबुधजीवा नवमे कुर्वन्ति च मण्डलाधिपतिम् ॥ ७७॥ १ भावेन. २ प्रभक्षणं. ३ मनुजं पापम्.
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द्वात्रिंशोऽध्यायः ।
बहुविषयपतिं ख्यातं नरेन्द्रसत्कारसत्कृतं चण्डम् | कुजबुधशुका भाग्ये कुर्वन्ति नरं सतां सत्यम् ॥ ७८ ॥ परवञ्चनासु निपुणं तमोधिकं सर्वशास्त्रमतिबाह्यम् । बुधभौमयमा नवमे कुर्युः परतर्कसंमूढम् ॥ ७९ ॥ बुधगुरुशुका भाग्ये जनयन्ति नरं सुरोपमं विशदम् । विख्यातं नरनाथं विद्वांसं धर्मशीलं च ॥ ८० ॥ शुक्रशनैश्चरशशिजा नवमस्था जातकं प्रकुर्वन्ति । मेवाविनं प्रकाशं सुरुचिरवाक्यं सुखोपेतम् ॥ ८१ ॥ शनिशुक्रामरगुरवो भाग्यगृहस्था नरं प्रकुर्वन्ति । प्रचुरान्नपानविभवं सुभगं सुखितं सुरूपं च ॥ ८२ ॥
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The following combinations of planets taken four at a time are treated of in Slokas 83-108 to be found only, in the OL. MS.
रविचन्द्रभौमशशिजा जन्मनि भाग्यर्क्षगा नरं कुर्युः । धनिनं विद्याकुशलं सुभगं नृपसंमतं चैव ॥ ८३ ॥ शुक्रेन्दुभौमरवयो मायाचतुरं स्वदारसन्तुष्टम् । जनयन्ति सदा भाग्ये पुरुषं बहुनीचकर्माणम् ॥ ८४ ॥ शशिसुरगुरुबुधरवयो जन्मनि भाग्यर्क्षमाश्रिताः कुर्युः । पुरुषं प्रधानमचलं नरेन्द्रपूज्यं तथा दृष्टम् ॥ ८५ ॥ चन्द्रबुधशुक्ररवयो धनेश्वरं धार्मिकं समृद्धं च । जनयन्ति नवमसंस्थाः पुरुषं प्रियवादिनं शान्तम् ॥ ८६ ॥ तरणिबुधचन्द्रसौरा जन्मनि नवमाश्रिता नरं कुर्युः ।
॥ ८७ ॥
रवि गुरुबुधभूतनया जन्मनि नवमे नरं प्रकुर्वन्ति । देवपितृपूजनपरं समृद्धदारं गुणोपेतम् ॥ ८८ ॥ शुक्रज्ञभौमसूर्या नवमे जनयन्ति निष्ठुरं सुभगम् । साहसनिरतं विधनं रिपुपक्षक्षपितविभवं च ॥ ८९ ॥ रविसौरिचान्द्रिभौमा नवमे यस्येह जायमानस्य । स भवति परदाररतो विनष्टकोशः सदा दीनः ॥ ९० ॥
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१२०
सारावली ।
शुक्रगुरुभौमरवयो लोके द्वेष्यं पिपासार्तम् । जनयन्ति नवमसंस्थाः कन्यानां दूषकं चपलचित्तम् ॥९१॥ गुरुभौमसौरसूर्या नवमे सुखवर्जितं सदोद्युक्तम् । जनयन्ति नरं चण्डं विक्रमयुक्तं महासत्वम् ॥ ९२ ॥ * रविबुधजीवसिताः स्युर्नवमे यस्येह जायमानस्य । स भवत्युत्तम पुरुषो धनकनकैश्वर्यसम्पन्नः ॥ ९३॥ भानुजरविबुधगुरवो नवमे जनयन्ति मानवं निधनम् । पापं परदाररतं विद्विष्टं नीचकर्माणम् ॥ ९४ ॥ बुधरविजरविसिताः स्युर्भाग्यस्थाने नरं सुभगम् । जनयन्ति धनसमेतं सत्यरतं लोकविख्यातम् ॥ ९५ ॥ रविगुरुसितभानुसुता जन्मनि नवमक्षेगा नरं कुर्युः । सत्यत्रतं सुवाक्यं गुरुद्विजातिथिषु भक्तम् ॥ ९६ ॥ चन्द्रज्ञकुजसुरेज्या जनयन्ति नरं परिच्छदसमृद्धम् । बाल्ये मातृवियुक्तं धनान्वितं संस्थिता भाग्ये ॥ ९७ ॥ भौमसितशशिजचन्द्रा भाग्ये जनयन्ति तापसं ख्यातम् । वाग्मिनमतिदातारं परलोकपरं महाप्राज्ञम् ॥ ९८ ॥ रविजबुधचन्द्रभौमा जनयन्ति नरं पराङ्मुखं दीनम् । क्षुद्रं मायाचतुरं परदाररतं स्थिता भाग्ये ॥ ९९ ॥ भौमेन्दुशुक्रजीवा नृपवंशकरं प्रधानमतिशूरम् | विद्याधनसुसमृद्धं विख्यातं लोकसंमतं चैव ॥ १०० ॥ शशिवकाकिंसुरेज्या जनयन्ति नरं पिपासार्तम् । कलहप्रियं च नवमे सौभाग्यपरिच्छदातीतम् ॥ १०१ ॥ चन्द्रारभानुजसिता नवमे जनयन्ति निष्ठुरं पापम् । मायाविनं च पुरुषं शौचाचारैर्विहीनं च ॥ १०२॥ सितगुरुशशिजशशाङ्का जन्मनि भाग्यर्क्षमाश्रिता धनिनम् । जनयन्ति धर्मसक्तं नरं कलासु प्रसिद्धं च ॥ १०३ ॥
*Sloka 92 is found in P. L. and K. N. MSS. f Sloka 100 is found in the P. L. M. S..
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त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।
१२१ प्राज्ञं नृपतिं कुलजं प्रधानमतिवित्तसंयुतं कान्तम् ।
सौम्येन्दुशुक्रजीवा जनयन्ति नरं तु विख्यातम् ॥ K. N. M. S reads the same sloka thus.
गुरुसौम्यशुक्रचन्द्रा भाग्ये युक्ताः प्रजायमानस्य । यस्य स भाग्ये युक्तो लोके पुरुषोत्तमो ज्ञेयः॥ भानुजबुधगुरुचन्द्रा जनयन्ति नरं परं सुनयम् । भाग्यस्थिताः समृद्ध नीतिज्ञं चारुवेषं च ॥ १०४॥ शनिशुक्रबुधशशाङ्का जन्मनि भाग्यस्थिता नरं कुर्युः । मेधाविनं प्रचण्डं जननीतिविशारदं धन्यम् ॥ १०५॥ चन्द्रशनिशुक्रजीवा जन्मनि नवमस्थिताः प्रकुर्वन्ति । मायाविनं प्रचण्डं नरेष्वजेयं नरं धीरम् ॥ १०६ ॥ भौमज्ञसूरिशनयो नवमस्थानोपगा नरं कुर्युः । रिपुपक्षपरिक्षीणं रणप्रचण्डं सुधीरं च ॥ १०७ । भौमज्ञशुक्रशनयः कुर्वति दशानुगतं सुशीलं च । जनयन्ति नवमसंस्था धनयुक्तं भक्तियुक्तं च ॥ १०८॥ भौमभृगुजीवरविजा जनयन्ति नरं धनैः परित्यक्तम् । क्षुद्रं दयाविरहितं विहीनसत्वं स्थिता भाग्ये ॥ १०९॥ त्रिचतुःपञ्चखगेन्द्रास्तथा च षट् सप्त संस्थिता भाग्ये । प्रात्ययिकं धनवन्तं कुर्युनृपतिं च बुधसहिताः ॥ ११० ॥ जनयन्ति भाग्यसंस्था गुरुसौम्यविवर्जिता ग्रहाः पुरुषम् । व्याधिप्रायमकान्तं जनहीनं बन्धनार्तमतिदीनम् ॥१११॥ उक्तं बहुप्रकारं भाग्यगृहे बादरायणादिकृतम् ।
ग्रहयोगेक्षणभावैर्विचिन्त्य बुद्ध्या वदेदन्यत् ॥ ११२ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां भाग्यचिन्तानाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ।।
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः। लग्नादशमे राशौ कर्मफलं यत्प्रकीर्तितं मुनिभिः ।
राशिग्रहखभांगैहदृष्टया तदहमपि वक्ष्ये ॥१॥ *Reading of sloka 103 in the P. L. M. S. १ भावै.
११ सारा.
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१२२
सारावली। होरेन्द्रोबलयोगाद्यो दशमस्तत्स्वभावजं कर्म । तस्याधिपपरिवृद्ध्या वृद्धि याऽन्यथा हानिः ॥ २॥ जाङ्गलमथवानूपं तथोभयं वा गृहं परीक्षेत । ग्राम्यमथारण्यं वा सौम्या पापभवनं वा ॥३॥ द्विपदचतुष्पदरूपं सरीसृपं वा तथोभयं चैव । यद्रूपं तद्भवनं यादृशकं यत्स्वभावं च ॥४॥ प्रवदेत्तत्समदेशे कर्मप्राप्तिं नरस्य तत्सदृशीम् । तस्माद्दशमं भवनं प्रसवे बुध्येत यत्नेन ॥ ५॥ दशमे नक्षत्रपतेर्लग्नात्पुरुषस्य कर्म संभवति । सर्वारम्भे वृत्तिं विनिर्दिशेत्तस्य जातस्य ॥ ६ ॥ घ्यन्तरयोगाध्याये कथितं कर्मस्थितैग्रहर्लग्नात् । चन्द्रादत्र विशेषो ग्रहैः स्थितैयक्तमिह वक्ष्ये ॥ ७ ॥ चन्द्रादशमे सूर्यः सिद्धारम्भ धनैः समृद्धं च । जनयत्युत्तमसत्वं नृपतिमुदग्रं धनाश्रयं पुष्टम् ॥८॥ भौमः साहसनिरतं प्रत्यन्तनिवासिनं विषयलुब्धम् । क्रूरं निषादचरितं जनयति दशमे स्थितः पुरुषम् ॥ ९॥ विद्वांसं धनवन्तं बहुश्रुतं नृपतिनायकं ख्यातम् । जनयति सौम्यो दशमे पुरुषं बहुशिल्पिनं प्राज्ञम् ॥१०॥ गुरुरपि दशमस्थाने सिद्धार्थं धार्मिकं धनसमृद्धम् । जनयत्युत्तमचरितं नरेन्द्रसचिवं नरं ख्यातम् ॥ ११ ॥ शशिनो दशमे शुक्रः सुभगं ललितं च वित्तवन्तं च । जनयति सिद्धारम्भं धनिनं नृपपूजितं पुरुषम् ॥ १२॥ सौरो व्याधितदेहं निःखं दुःखान्वितं प्रजाहीनम् । कर्मसु नित्योद्विग्नं जनयति दशमे स्थितः पुरुषम् ॥१३॥ भानुभॊमसमेतः कर्मकरान्कासशोषगदबहुलान् । ज्योतिर्विदः प्रकुर्याल्लाक्षणिकांस्तार्किकांश्चापि ॥१४॥
१ तत्स्वभावं. २ यस्य. ३ सिद्धिं. ४ जनाश्रयं. ५ सितं. ६ नृपतिसंमतं. ७ कामशोकमदबहुलान्.
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त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।
१२३
सूर्यः सौम्यसमेतो वस्त्रालङ्कारभागिनं वणिजम् । जनयति मेषूरणगः पुरुषं जलजीविनं वाऽपि ॥ १५ ॥ जीवसहायः सूर्यः सिद्धारम्भान्नरेन्द्रमान्यांश्च । जनयति दशमे पुरुषान् वीरान्शूरान्सुविख्यातान् ॥१६॥ सूर्यसहायः शुक्रो दशमे खजनाश्रितं नरं कुरुते । स्त्रीसंश्रयात्समृद्धं सुभगं नृपवल्लभं चापि ॥ १७॥ सूर्यः स्वपुत्रसहितो दशमे वधवन्धभागिनं भृतकम् । जनयति दीनं कृपणं चोरैर्मुषितं प्रलापकरम् ॥१८॥ भौमः सोमजसहितो जनयति दशमे नरं बहुविपक्षम् । अस्त्रकलावेत्तारं कौशलमतिजीविनं महाशूरम् ।। १९ ॥ भौमः सुरगुरुसहितो दशमे कुरुते बलस्य नेतारम् । मित्रेभ्यो लब्धधनं तदाश्रयाजीवितं धन्यम् ॥ २० ॥ जनयति विदेशनिरतं काञ्चनमुक्तादिभिर्वणिग्वृत्त्या । भौमः शुक्रसमेतो दशमे स्त्रीसंश्रयाद्वाऽपि ॥ २१ ॥ भौमः सौरसहायो जनयति दशमे स्थितो नरं प्रसवे । साहसशीलं क्षुद्रं कर्मायुक्तं रूँजा सहितम् ॥ २२ ॥ सेधनं नरेन्द्रपूज्यं धर्मिष्ठं वृन्दनायकं ख्यातम् । जीवः सौम्यसहायो जनयति मेषूरणे पुरुषम् ॥ २३॥ सौम्यः शुक्रसहायो जनयति दशमे सुहृजनोपेतम् । विद्यास्त्रीधनसौख्यं नृपसचिवं विषयनाथं वा ॥ २४ ॥ सौम्यः सौरसहायो मृद्भाण्डकरं करोति दशमस्थः । ख्यातं विद्याचार्य पुस्तकलिपिलेख्यकारं च ॥ २५ ॥ वचसां पतिः सितयुतः कर्मणि कुरुते नरेन्द्रवरभृत्यम् । ब्राह्मणपतिं विशोकं विद्याचार्य समर्थं च ॥ २६ ॥ सुरराजगुरुः सार्किर्दशमे नीचं परोकाररतम् । कुरुते प्रवृद्धचेष्टं स्थिरास्पदं सुस्थिरारम्भम् ॥ २७ ॥ शुक्रः सौरसहायश्चित्रकरं गन्धजीविनं वैद्यम् ।
जनयति दशमे पुरुषं नीलकरं चूर्णकारं च ॥ २८॥ १ धीरान्. २ नृशंसं. ३ कर्मोद्युक्तं. ४ प्रजाहीनम्. ५ षण्डं. ६ तापकर.
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१२४
सारावली।
रविभौमचन्द्रपुत्राश्चन्द्रादशमस्थिता नरं धन्यम् । जनयन्त्युत्तमपुरुषं नृपतिसमं सर्वजनपूज्यम् ॥ २९ ॥ रविभौमदेवपूज्या दशमस्थाने नरं सुभगम् । शत्रूणां हन्तारं जनयन्ति समृद्धिसंयुक्तम् ॥ ३० ॥ चन्द्रादशमे भानुभूपुत्रो भार्गवश्च जनयन्ति । क्रूरं साहसनिरतं पुरधनकरणेऽतिनिपुणमतिम् ॥ ३१ ॥ भानुजरविभूपुत्रा दशमस्थाः क्रूरकर्मनिरतं तु । उत्पादयन्ति मनुजं मूढं पापं दुराचारम् ॥ ३२॥ रविबुधगुरवो दशमे विद्वांसं रूपसंयुक्तम् । उत्पादयन्ति पुरुषं धर्मिष्ठं बन्धुवल्लभं चैव ॥ ३३॥ बुधसूर्यभार्गवसुता यशस्विनं धार्मिकं विगतरोषम् । जनयन्त्यपराभूतं सौभाग्यपरिच्छदसमृद्धम् ॥ ३४ ॥ रविबुधशनयो दशमे क्रूरं चपलं नरं विशीलं च । उत्पादयन्ति नियतं शस्त्राग्निपरिक्षताङ्गं च ॥ ३५ ॥ रविभृगुजदेवपूज्या दशमस्थानोपगा नरं कुर्युः । सुभगं विद्याप्तधनं धर्मरतं भोगभागिनं नित्यम् ॥ ३६॥ त्रिदशगुरुमन्दसूर्या दशमे युक्ता नरं प्रकुर्वन्ति । प्रायेण लोकमान्यं चारित्रविलोपिनं धीरम् ॥ ३७॥ भार्गवरविभानुसुता दशमस्थानोपगा नरं कुर्युः । लोभान्वितमतिचपलं समस्तजगविप्रयुक्तं च ॥ ३८ ॥ भौमेन्दुजसुरपूज्या धर्मिष्ठं बहुकुटुम्बपरिवारम् । जनयन्ति दशमसंस्था विद्याधनमागिनं पुरुषम् ॥ ३९ ॥ शोभनशिल्पाभिरतान्मालाकारान्सुवर्णकारांश्च । कुर्युर्बुधभृगुवका दशमस्थाः सर्वलोकदयितांश्च ॥ ४०॥ भौमबुधसूर्यपुत्रा जनयन्ति तथा नै धर्मशीलं च । निद्रानिरतं प्रखलं दशमस्थानोपगा नरं मलिनम् ॥ ४१ ॥ भार्गवसुरेज्यभौमा दशमस्थानाश्रिता नरान्कुयुः ।
धनसंयुक्तान्शूरान्देवद्विजपूजनानुरतान् ॥ ४२ ॥ १ जेतारं. २ परधनहरणे च निपुणमतिम्. ३ सुधर्म.
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त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।
१२५ विद्याधनजनहीनान्कापुरुषान्सौख्यवर्जितान्विकलान् । जीवाङ्गारकसौरा दशमे कुर्युनरान्नीचान् ॥ ४३॥ सचिवानुत्तमपुरुषान्वनधर्मरतांश्च धनिनश्च । भौमभृगुसूर्यपुत्राः कुर्वन्ति नराननेककर्मरतान् ॥ ४४ ॥ शुक्रबृहस्पतिसौम्या दशमे पुरुषस्य शुक्रराशिस्थाः । बहुविधमिष्टं कुर्युर्व्याधि चाप्यन्यगृहसंस्थाः ॥ ४५ ॥ लिपिलेख्यकाव्यनिरतं धनवन्तं बहुविधेयभृत्यं च । अटनप्रियं सुरूपं बुधगुरुसौरा नरं दशमे ॥४६॥ दशमे विज्ञानयुतान्मल्लान्परदेशनिरतांश्च । कुर्युर्बुधभृगुरविजाः कर्मोद्युक्तं सदा दान्तम् ॥ ४७॥ विद्वांसं धर्मरतं दयान्वितं सत्यवन्तं च । भानुजगुरुभृगुपुत्रा दशमस्थानोपगा नरं कुर्युः॥४८॥ एवं व्यादिषु वाच्यं जन्मनि पुंसां फलं हि कर्मोत्थम् । त्र्यादिग्रहसंयोगेऽत्र विशेषस्तमपि वक्ष्ये ॥४९॥ रविभौमबुधसुरेड्या दशमस्थानोपगा नरं कुर्युः । शूरं विक्षतगात्रं दातारं सर्वकर्मरतम् ॥ ५० ॥ वक्रार्कशुक्रसौम्याश्चन्द्राद्दशमं समाश्रिताः प्रसवे । कुर्युनिर्माल्यकराँल्लेख्यकरांश्चापि चित्रकर्मकरान् ॥ ५१ ॥ रविकुजबुधभानुसुता दशमस्थानस्थिताः प्रसवकाले । उत्पादयन्ति पुरुषं धनवाहनवारणोपेतम् ॥ ५२ ॥ रविजीवशुक्रसौम्या जनयन्ति नभःस्थिता नरान्सौम्यान् । कुत्सितवृत्तीनामपि सुतान्वरान्कर्षणोपेतान् ॥ ५३॥ रविजीवसौम्यसौरा दशमस्थानस्थिताः कुर्युः । पुरुषं मायानिपुणं क्रूरं परवञ्चनानुरतम् ॥ ५४॥ रविसितबुधभानुसुताश्चन्द्राद्दशमस्थिता नरं कठिनम् । उत्पादयन्ति सुभगं वाग्मिनमथ कर्षणानुरतम् ॥ ५५ ॥ रविगुरुभार्गवशनयो मेषूरणसंस्थिताः प्रसवकाले ।
उत्पादयन्ति मनुजं प्रवासशीलं विविधचेष्टम् ॥ ५६ ॥ } परधर्म. २ कुर्युर्मालाकारं लेख्यकरं चापि वास्तुकर्मरतम्.
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१२६
सारावली। भौमसितबुधसुरेड्या जन्मनि दशमक्षगा नरं निपुणम् । उत्पादयन्ति चतुरं शूरं समरेष्वधृष्यं च ॥ ५७ ॥ भौमबुधमन्दगुरवो जन्मनि दशमस्थिता नरं मलिनम् । जनयन्ति नरोद्युक्तं संग्रामे रिपुविनाशकरम् ॥ ५८॥ भौमबुधशुक्रसौरा नभःस्थले संश्रिताः प्रसवकाले । विद्याबहुलं शूरं जनयन्ति नरं विशालाङ्गम् ॥ ५९ ।। भौमगुरुशुक्रमन्दाश्चन्द्रान्मपूरणलंगाः प्रसवे । जनयन्ति नरं धीरं कुटुम्बयुक्तं धेनोपेतम् ॥ ६० ॥ बुधगुरुभार्गवशनयो जन्मनि दशमस्थिताः कुर्युः। पुरुषं शान्तमनस्कं सुमेधसं लोकदयितं च ॥ ६१ ॥ पापैनभःस्थलस्थैः सौम्यग्रहवीक्षितैः प्रजायन्ते । वैद्यपुरोहितगणकाश्चण्डाः परवञ्चनानुरताः ॥ ६२ ॥ एते समस्तयोगाः सौम्यग्रहवीक्षिताः प्रशस्यन्ते । पापग्रहदृष्टियुताः प्रायेण न भद्रकाः प्रोक्ताः ॥ ६३ ॥ पापास्तृतीयषष्ठा होरेन्दुस्थानतो नृणामिष्टाः। नेष्टा निधनान्त्यगता लग्नोपगता विशेषेण ॥ ६४ ॥ होराशशिनोबलवान्यस्तस्मात्कर्मभेन वा कथयेत् । यो बलयुक्तो वर्गस्तदधिपतेर्वाऽऽदिशेद्वृत्तिम् ॥ ६५ ॥ आरामपुत्र( बुद्धि)सेवाकृषिरसवणिगर्कदूतकार्येण । जीवन्ति नरा नित्यं मेषगणे दशमराशिस्थे ॥६६॥ वृषभगणे दशमस्थे शकटचतुष्पदविहङ्गमृगजीवी । धान्यादिसङ्ग्रहेण च जाङ्गलदेशे फलं प्रायः ॥ ६७ ॥ जलवणिजः सुसमृद्ध्या मुक्ताशङ्खप्रवालभाण्डैश्च । लिपिगणितलेख्यजीवी नृमिथुनवर्गे दशमसंस्थे ॥ ६८॥ शस्त्राग्नियोनिपोषणमुक्तसिंख्योपजीवनं चैव । आखेटकवृत्त्या वा कर्किणि वर्ग च दशमस्थे ॥ ६९॥
१ सदोद्युक्तं. २ जनोपेतम्. ३ चन्द्रातू. ४ भाव. ५ जादि. ६ शल्यो. ७ आहिण्ड.
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त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।
संन्नाहका मणीनां पाषाणस्वर्णरूप्यकूटाश्च । कर्षणनिरता लेये गोजीवा धान्यवाणिजकाः ॥ ७० ॥ शाकटिका मणिकारा हैरण्या गन्धविक्रये निपुणाः । गान्धर्वशिल्पलेख्यैः कन्यावर्गे सदा विभवाः ॥ ७१ ॥ प्रायोज्यानुपदेशाद्धिरण्यपरिवर्तनाच मित्राय । जायन्ते च मनुष्या नानाव्यवहारभागिनः सततम् ॥७२॥ वाणिज्यविपणिजीवा गोजीवा महिषजीवाश्च । नानापण्यसमृद्धाः सलिलोद्भवपण्यवृत्तयः ख्याताः ॥७३॥ धनधान्यमूलवणिजः फलमूलकृषीवलाश्चैव । जायन्ते घटवर्गे दशमस्थानस्थिते कलावृत्ताः ॥ ७४॥ स्त्रीसम्पर्कजविभवा जायन्ते कर्षणानुनिरताश्च । नित्योधुक्ताश्चोराः पृथिवीपतिसेवकाः पापाः ॥ ७५ ॥ देहचिकित्सानिरता लोहकरा जीविनोऽलिसंज्ञः । वर्ग नभस्तलगते धान्यानां चोपजीविनो नित्यम् ॥ ७६ ॥ नृपसचिवदुर्गपालनगोजीवनवाजिकाष्ठशकुनैश्च । यत्रोपस्करगणितजीवन्ति नराश्चिकित्सया धनुषः ॥ ७७ ॥ दशमे कुरङ्गवर्गे जलपण्यधनो भवेन्महाविभवः । खट्वारोमारोपणरसायनैर्वर्तते जातः ॥ ७८ ॥ शस्त्रदहनप्रभेदैश्चौर्येणं च वर्तते खननवृत्त्या । दशमे घटधरवर्गे भारवहस्कन्धबाहुबलात् ॥ ७९ ॥ शस्त्रात्सलिलाद्योनिप्रपोषणादश्वविक्रयाद्वाऽपि । वर्गे मीनप्रभवे दशमस्थे जायते वृत्तिः ॥ ८० ॥ दिवसकराद्यैः खस्थैः शशिहोराभ्यां भवन्त्याढ्याः । पितृमातृशत्रुहितजनसहजस्त्रीभृत्यवर्गेभ्यः ॥ ८१ ॥ होरागतैर्धनगतैरायगृहस्थैश्च चिन्तयेदर्थम् । बलसंयुतैर्ग्रहेन्द्रैरनेकधा दृष्टमाचार्यैः ॥ ८२ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां कर्मचिन्ताध्यायस्त्रयस्त्रिंशः ॥
१ संव्यूहकाः. २ कुल्यानाम्. स्वर्णकूटकल्पानां. ३ दुप. ४ मित्राच. ५ विपण. ६ भिषज. ७ कृषिबलाञ्चैव. ८ रताः. ९ वामा. १० शौर्येण. ११ पृष्टम्.
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१२८
सारावली।
चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। रविदृष्टे प्राग्लग्ने विक्रान्तास्त्रीषु रोषणः क्रूरः । पितृपक्षलब्धविभवो नरेन्द्रसेवी भवेजातः ॥१॥ स्त्रीणां वश्यः सुभगो दाक्षिण्यमहोदधिः प्रचुरकोशः । चन्द्रेक्षिते विलग्ने मार्दवजलपण्यवान्भवति ॥२॥ साहससङ्ग्रामरुचिश्चण्डस्फुटबान्धवोऽतिधर्मरतः । उदये कुजसन्दृष्टे भवति नरः स्थूलशेफश्च ॥ ३ ॥ बुधदृष्टे प्राग्लग्ने शिल्पकलाविद्यया समभिपूर्णः । भवति नरो विपुलमतिः कीर्तिकरो मानसंयुक्तः ॥४॥ इज्याव्रतनियमपरा नृपपूज्याः ख्यातकीर्तयो मनुजाः । लग्ने सुरगुरुदृष्टे सजनगुर्वतिथिसंयुक्ताः ॥५॥ वेश्यास्त्रीजनबहुलास्तरुणाः सम्पन्नभोगधनसौख्याः । शुक्रेक्षिते विलग्ने भवन्ति मनुजाः सुरूपाश्च ॥ ६ ॥ भाराध्वरोगतप्ताः क्रुद्धा वृद्धस्त्रिया युता विसुखाः । मन्देक्षिते विलग्ने मलिना मूर्खाश्च जायन्ते ॥७॥ पश्यन्ग्रहः स्खलग्नं सर्वं विदधाति सौख्यमर्थं च । प्रायो नृपप्रियत्वं पापः पापं शुभं च शुभः॥८॥ एकेनापि न दृष्टं समस्तगुणवर्जितं लग्नम् । खगृहस्वभावसहितं जनयति खलु केवलं नित्यम् ॥ ९॥ द्व्यादिग्रहसन्दृष्टं प्रायेण सुखार्थदं भवति लग्नम् । एकेनापि शुभेन च न तु पापैरिष्यते सद्भिः ॥ १० ॥ सर्वैर्गगनभ्रमणैर्दृष्टे लग्ने भवेन्महीपालः । बलिभिः समस्तसौख्यो विगतभयो दीर्घजीवी च ॥ ११ ॥ लग्ने त्रयो विगतशोकविवर्द्धितानां
कुर्वन्ति जन्मशुभदाः पृथिवीपतीनाम् । पापास्तु रोगभयशोकपरिप्लुतानां
बह्वाशिनां सकललोकतिरस्कृतानाम् ॥ १२ ॥
१ प्रदूषणख्यातः. २ निपुणमतिः. ३ सुभगाः. ४ सुखावहं.
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चतुस्त्रिंशोऽध्यायः।
१२९ लग्नात्षष्ठमदाष्टमे यदि शुभाः पापैर्न युक्तेक्षिताः
मत्री दण्डपतिः क्षितेरधिपतिः स्त्रीणां बहूनां पतिः । दीर्घायुर्गदवर्जितो गतभयो लग्नाधियोगे भवेत् ___ सच्छीलो यवनाधिराजकथितो जातः पुमान्सौख्यभाक् १३ खगृहोचसौम्यवर्गे ग्रहः फलं पुष्टमेव विदधाति । नीचक्षरिपुगृहस्थो विगतफलः कीर्तितो मुनिभिः ॥ १४ ॥
॥इति लग्नचिन्ता॥ रविरविजभूमितनयाः कुटुम्बसंस्था विलोकनाद्वाऽपि । कुर्वन्ति धनविनाशं क्षीणेन्दुनिरीक्षिता विशेषेण ॥ १५॥ रविभौमौ धनसंस्थौ त्वग्दोषदरिद्रताकरौ कथितौ । मन्दः कुरुते शुद्धो महार्थयुक्तं बुधेक्षितस्तत्र ॥ १६ ॥ रविरपि विधनं जनयति यमेक्षितः शस्यतेऽन्यदृष्टश्च । सौम्याः कुटुम्बराशौ बहुप्रकारं धनं दद्युः ॥ १७ ॥ बुधदृष्टस्त्रिदशगुरुः कुटुंबराशौ च निखतां कुरुते । सोमतनयोऽपि शशिना निरीक्षितो हन्ति सर्वधनम् ॥१८॥ चन्द्रोऽपि धनस्थाने क्षीणोऽपि बुधेक्षितः सदा कुरुते । पूर्वार्जितार्थनाशं निरोधमपि चान्यवित्तस्य ॥ १९ ॥ शुक्रः कुटुम्बभवने चन्द्रेण निरीक्षितः प्रधनदाता। सौम्यग्रहेण दृष्टा स एव धनदः सदा ज्ञेयः ॥ २० ॥
॥ इति धनचिन्ता ॥ पापभवनं तृतीयं समस्तपापैर्युतं सहजहन्तुं । विपरीतमितः श्रेष्ठं संख्यां तेषां प्रवक्ष्यामि ॥ २१॥ यावन्तो नवभागा यदागताः सहजराशौ तु । तत्संख्यां कुर्वन्ति च दृष्टास्त्वन्यैस्तथा बहवः ॥ २२ ॥ तत्र स्थितो रविसुतः कुजेन दृष्टो विनाशयति जातान् । शुक्रो गुरुसंदृष्टः पुष्णाति सदैव दायादान् ॥ २३॥
१ विविधं. २ सहजहन्ता.
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१३०
सारावली ।
सौम्यो भास्करदृष्टः सुहृदां परिसंक्षयं सदा कुरुते । भावाध्याये कथितं शेषं परिकल्पयेदत्र ॥ २४ ॥ ॥ इति सहजचिन्ता ॥
सुतभवनं शुभयुक्तं शुभदृष्टं वा शुभर्क्षमिह येषाम् । तेषां प्रसवः पुंसां भवत्यवश्यं न विपरीते ॥ २५ ॥ एकतमे गुरुवर्गे शुभराशाँवैौरसो भवेत्पुत्रः । लग्नाच्चन्द्रादथवा बलयोगाद्वीक्षितेऽपि वा सौम्यैः ॥ २६ ॥ संख्या नवांशतुल्या सौम्यांशे तावती सदा दृष्टा । शुभ तद्विगुणा क्लिष्टा पापांशकेऽथवा दृष्टे ॥ २७ ॥ सौर सौरगणो बुधो गुरुकुजार्कहग्घीनः । क्षेत्रजपुत्रं जनयति बौधोऽपि गणो रविजदृष्टः ॥ २८ ॥ मान्दं सुतर्क्षमिन्दुर्निरीक्षिते यदि शनैश्वरेण युतम् । दत्तकपुत्रोत्पत्तिः क्रीतश्च बुधस्य चैवं स्यात् ॥ २९ ॥ सप्तमभागे कौने सौरयुते पञ्चमे सदा भवने । कृत्रिमपुत्रं विन्द्याच्छेषग्रह दर्शनान्मुक्ते ॥ ३० ॥ वर्गे पञ्चमराशौ सौरे सूर्येण वाऽत्र संयुक्ते । लोहितदृष्टे वाच्यो जातस्य सुतोधमप्रभवः ॥ ३१ ॥ चन्द्रे भौमांशगते धीस्थे मन्दावलोकिते भवति । गूढोत्पन्नः पुत्रः शेषेग्रहदर्शनाभावे ॥ ३२ ॥ तस्मिन्नेव च भौमे शनिवर्गस्थे निरीक्षिते रविणा । पुरुषस्य भवति पुत्रोऽपविद्ध इति करुणमुनिवचनात् ॥३३॥ शनिवर्गस्थे चन्द्रे शनियुक्ते पञ्चमे सदा भवने । शुकरविभ्यां दृष्टे पुत्रः पौनर्भवो भवति ॥ ३४ ॥ चूडायदार्कसत्वात्कलादृतस्यैव पञ्चमे गेहे ।
रविष्टेऽप्यथ सहिते कानीनः संभवति पुत्रः ॥ ३५ ॥
१ अङ्गारक. २ सुतभवनमथ शुभयुतं ३ शुभराशौ सौरसो भवेत्पुरुषः, चौरसो भवेत्पुत्रः ४ सौम्यर्क्षे. ५ नगुरुभौम ६ शुभर्क्ष. ७ वा स्याज्जातस्य, ८ हि बीजजः पुत्रः, यतोऽधमः पुत्रः सुतोधमापुत्रः, सुतोधनप्रसवः, सुतोधमप्रसवः ९ दर्शनायाते.
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चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।
वर्गे रविचन्द्रमसोः सुतगेहे चन्द्रसूर्यसंयुक्ते । शुक्रेण दृष्टमात्रे पुत्रः कथितः सहोदश्च ॥ ३६ ॥ पापैर्बलिभिर्युक्ते पापर्क्षे पञ्चमे सदा राशौ । जातोऽपुत्रः पुरुषः सौम्यग्रहदर्शनातीते ॥ ३७ ॥ शुक्रवांशे तस्मिन्शुक्रेण निरीक्षिते त्वपत्यानि । दासप्रभवानि वचन्द्रादपि केचिदाचार्याः ॥ ३८ ॥ सितशशिवर्गे धीस्थे ताभ्यां दृष्टेऽथवाऽपि संयुक्ते । प्रायेण कन्यकाः स्युः समराशिगणेऽपि चान्यथा पुत्राः ३९ लग्नाद्दशमे चन्द्रे सप्तमसंस्थे भृगोः पुत्रे | पापैः पातालस्यैवंशच्छेत्ता भवेज्जातः ॥ ४० ॥ भौमः पञ्चमभवने जातं जातं विनाशयति पुत्रम् | दृष्टे गुरुणा प्रथमं सितेन नच सर्वसंदृष्टः ॥ ४१ ॥ धनजनसुखहीनः पञ्चमस्थैश्च पापै
र्भवति विकल एव क्ष्मासुते तत्र जातः । दिवसकरसुते च व्याधिभिस्तप्तदेहः सुरगुरुबुधशुक्रैः सौख्यसंपद्धनाढ्यः ॥ ४२ ॥
॥ इति पुत्रचिन्ता ॥
रिपुभावे क्षितिसूनुर्मन्देन निरीक्षितो दिशति शत्रून् । शुभयुक्तः शुभदृष्टः शत्रुभयं चैव नात्यन्तम् ॥ ४३ ॥ क्षेत्र ग्रहेन्द्रतुल्यां संख्यां तेषां विनिर्दिशेत्प्राज्ञः । भावाध्यायेऽभिहितं विस्तरतश्चिन्तयेच्छेषम् ॥ ४४ ॥
॥ इति शत्रुचिन्ता ॥
शुक्रेन्दुजीवशशिजैः सकलैस्त्रिभिश्च
द्वाभ्यां कलत्रभवने च तथैककेन ।
एषां गृहेऽपि च गणेऽपि विलोकिते वा सन्ति स्त्रियो भवनवर्गखगस्वभावाः ॥ ४५ ॥
१३१
१ चन्द्रसूर्ययोर्गेहे. २ दृष्टि. ३ शुक्रे दृष्टे, शुक्रसुदृष्टे बहून्यपत्यानि. ४ क्षेत्रगृहेश. ५ गणेऽथ.
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१३२
सारावली ।
एवं क्रूरैर्नाशो लग्नाच्चन्द्राद्भवेच्च बलयोगात् । शशिरविजयोः कलत्रे भार्या पुंसां पुनर्भूः स्यात् ॥ ४६ ॥ भवनाधिपांशतुल्या भवन्ति नार्यो निरीक्षणाद्वाऽपि । एकैव रविकुजांशे गुरुबुधयोश्चापि जामित्रे ॥ ४७ ॥ प्रायेण चन्द्रसिंतयोर्वर्गे युक्तेऽथवापि जामित्रे | दृष्टे वा बहुपत्यो भवन्ति शुक्रे विशेषेण ॥ ४८ ॥ गुरुशुक्रयोः स्ववणी रविकुजशशिभानुजैर्भवन्त्यूनाः । शुक्रे वेश्याप्रायश्चन्द्रेऽपि वदन्ति केतुमालाख्याः ॥ ४९ ॥ भौमे कलत्रसंस्थे नित्यं वियुतो भवेत् स्त्रिया पुरुषः । म्रियते वा शनिटे योषिदवश्यं न दृष्टेऽन्यैः ॥ ५० ॥ द्यूने कुजभार्गवयोर्जातः पुरुषो भवेद्विकलदारः । धीधर्मस्थितयोर्वा परिकल्प्यं पण्डितैरेवम् ॥ ५१ ॥ लग्नाद्व्ययरिपुगतयोः शशाङ्कभान्वोर्वदन्ति पुरुषस्य । प्रभवं समस्तमुनयः क्रमेण पत्या सहकननयस्य ॥ ५२ ॥ लग्नस्थे रवितन गण्डान्ते भार्गवे कलत्रगते । वन्ध्यापतिस्तदा स्याद्यदि न सुतक्ष शुभैर्युक्तम् ॥ ५३ ॥ लग्नव्ययमदनस्थैः पापैः क्षीणे निशाकरे धीस्थे । स्त्रीहीनो भवति नरः पुत्रैश्च विवर्जितो नूनम् ॥ ५४ ॥ यमभूमिजयोर्वर्गे द्यूनस्थे तदवलोकिते शुक्रे । जातो भवत्यवश्यं पल्या सह पुंश्चलः पुरुषः ॥ ५५ ॥ बुध भार्गवयोरस्ते स्त्रीहीनो जायते ह्यपुत्रश्च । दृष्टे शुभैश्च वाच्याः परिणतवयसः सदा प्रमदाः ॥ ५६ ॥ भार्गववाक्पतिसौम्यैः प्रमदाभवने शशाङ्कयुक्तैश्च । एकैकेन हि तेषां पुरुषस्य विभूतयो बेहुलाः ॥ ५७ ॥
॥ इति कलत्रचिन्ता ॥
१ वर्गयुतेभे, बलयुक्ते वा. २ सवर्णा. ३ नित्यवियुक्तो. ४ तदा. ५ मारयति मन्ददृष्टे. ६ लग्नव्ययषष्टगयोः. ७ शनिभार्गवयोः, शशिभास्करयोर्वदन्ति ८ व्ययदशमस्यैः ९ विपुलाः.
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चतुत्रिंशोऽध्यायः ।
१३३ रविदृष्टे युक्ते वाऽप्यायक्षेत्रे भवेत्सदा नृपतेः । भवति धनं युद्धाद्यैश्चोरधनचतुष्पदाद्यैश्च ॥ ५८॥ स्त्रीजनहस्तिप्रायं शशाङ्कवर्गे शशीक्षिते युक्ते । क्षीणे क्षयोऽथ पूर्णे वृद्धिः स्यादायगे वृत्तेः ॥ ५९॥ हेमप्रवालभूषणमाणिक्यधनं कुजे भवेदेवम् । साहसगमनागमनैः पावकशस्त्रैश्च वक्तव्यम् ॥ ६०॥ आये बुधेऽपि वर्गे दृष्टे युक्तेऽथवा भवेन्नित्यम् । शिल्पादिलेख्यकाव्यैर्युक्तिप्रायं तथा सुतराम् ॥ ६१॥ नगरजनयोगभोगैः क्रतुभिश्च तथा विशिष्टपुण्यैश्च । हेमप्रायं वित्तं जीवेऽपि तुरङ्गमाकीर्णम् ॥ ६२ ॥ वेश्यास्त्रीसंयोगैर्गमनागमनैर्धनं भवति पुंसाम् । आये सितेऽपि चैवं मुक्तारजतादि भूयिष्ठम् ॥ ६३॥ नगरपुरवृन्दयोगैः स्थावरकर्मक्रियाभिरपि वित्तम् । लोहखरर्वृन्दबहुलं रविजेऽपि तथाऽस्य वर्गे च ॥ ६४ ॥ एवं फलनिर्देशः सौम्यैदृष्टे विशेषतो वाच्यः । क्रूरैश्च समुपघातो मिर्मिश्रस्तदा पुंसाम् ॥ ६५ ॥ संर्वग्रहयुतदृष्टे बहुप्रकारेण निर्दिशेद्वित्तम् । बलवान्यस्तत्र भवेदतिरिक्तं सम्प्रयच्छति च ॥६६॥ मित्रस्वगृहगतोध स्वोचे पूर्ण तथास्तगः किञ्चित् । शत्रुगृहस्थश्चरणं ददाति विहगस्तदाये तु ॥ ६७॥ आजन्मतो नराणां भवति धनं निश्चितं यवनवृद्धैः । क्षितिपतिमाण्डलिकानामपरिमितं प्राह लोकाक्षः ॥ ६८ ॥
॥ इत्यायचिन्ता ॥ भानौ क्षीणे चन्दौ व्ययभवने भूपतिहरति वित्तम् । भौमे बुधसंदृष्टे बहुप्रकारो भवेन्नाशः ॥ ६९॥
१ वन. २ जल. ३ थ युते. ४ यानयोगः, ५ सुते. ६ महिषबहुलं. ७ सदा च भवे, सदाये तु.
१२ सारा
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१३४
सारावली |
गुरुचन्द्रदानवेज्या व्ययभवने वित्तपोषणं कुर्युः । भूमितनयेन दृष्टा भावाध्यायोक्तमन्यच्च ॥ ७० ॥ ॥ इति व्ययचिन्ता ॥
लग्ने बुधद्रेक्काणे शशि ( नि ? ) ना दृष्टे चतुष्टयस्थाने । जातो नृपतिकुलेष्वपि शिल्पी स्यान्निश्चितं मुनिभिः ॥७१॥ नीचे सौरवांशे शुक्रेऽन्त्ये रविशशाङ्कयोर्मदने । मन्देन विलोकितयोर्माता दासी महाकुलेऽपि स्यात् ॥७२॥ सूर्याद्वितीयराशौ भास्करतनये मध्य चन्द्रे | भौमे सप्तमभवने विकलोऽस्मिन्सर्वदा जातः ॥ ७३ ॥ मध्ये पापग्रहयोश्चन्द्रे मदनस्थितेऽर्कजे जन्तोः । श्वासक्षयविद्रधिना गुल्मप्लीहातिपीडितस्सुभगः ॥ ७४ ॥ सूर्यांशे यदि चन्द्रश्चन्द्रांशे भास्करो यदि लेष्मी । सममेकराशिगतयोर्दुर्बलदेहः सदा पुरुषः ॥ ७५ ॥ निधनधनारिव्ययगा रविचन्द्रकुजार्कजा नियतम् । नयनविघातं कुर्युर्बलवग्रहदोष संभूतम् ॥ ७६ ॥ धर्मायसहजसुतगाः पापाः सौम्यैर्न वीक्षिता जन्तोः । श्रवणविनाशं कुर्युः सप्तमसंस्थाश्च दन्तानाम् ॥ ७७ ॥ उदये दिनकरपुत्रे त्रिकोणभवने कुजे च सोन्मादः । क्षीणे शशिनि ससैौरे याते वा व्ययगृहे जातः ॥ ७८ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां लोकयात्रा नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
राजोपयोगिशास्त्रं यस्मात्प्रभवो विशेषतस्तेषाम् । सञ्चिन्त्या नृपयोगास्तानेवाहं वक्ष्यामि ॥ १ ॥ स्वोच्च त्रिकोणगृह गैर्वलसंयुतैश्च च्याद्यैर्नृपो भवति भूपतिवंशजातः ।
१ टक्का. २ प्लीहादि. ३ स्य भवः ४ यदा शोषी. ५ एकतर. ६ यथायोगं. ७ नयन. ८ मदने. ९ वातः
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः। पञ्चादिभिर्जनपदभवोऽपि सिद्धो
हीनैः क्षितीश्वरसमो न तु भूमिपालः ॥२॥ अशुभगगनवासैः स्वोच्चगैः क्रूरचेष्टं
कथयति यवनेन्द्रो भूपति विक्रमोत्थम् । न तु भवति नरेन्द्रो जीवशर्मोक्तपक्षे ___भवति नृपतियोगैः सत्कृतो राष्ट्रपालः ॥३॥ एष्विह भवन्त्यवश्यं भूपतियोगेषु नीचकुलपुरुषाः ।
तानग्रतः प्रवक्ष्ये यथामतं शास्त्रकाराणाम् ॥४॥ स्वोच्चस्थै रविभौमसौरगुरुभिः सर्वैस्त्रिभिश्चैकगै
लग्ने षोडशवृद्धतापसगणैः सन्दर्शिताः पार्थिवाः । द्वाभ्यां चैकतमोदये स्वभवने चन्द्रे पुनः षोडशः
सर्वो नीचकुलोद्भवोऽपि वसुधां पात्येव वाटीमिव ॥५॥ गणोत्तमे लग्ननवांशकोद्तो निशाकरश्चापि गणोत्तमेऽथवा । चतुर्घहैश्चन्द्रविवर्जितैस्तदा निरीक्षितः स्यादधमोद्भवो नृपः॥६॥
उदयगिरिनिविष्टैर्मेषसंस्थैग्रहेन्द्रैः
शशिरुधिरसुरेड्यैर्जायते पार्थिवेन्द्रः। जलनिधिरशनायाः पालकः सर्वभूमे
हंतरिपुपरिवारः सर्वतः फूत्करोति ॥ ७॥ खोचे गुराववनिजे क्रियगे विलग्ने
मेषोदये च सकुजे वचसामधीशे । भूपो भवेदिह स यस्य विपक्षसैन्यं
तिष्ठेत जातु पुरतः सचिवा वयस्याः ॥८॥ निशाभर्ता चाये भृगुतनयदेवेड्यसहितः
कुजः प्राप्तः स्वोच्चे मृगमुखगतः सूर्यतनयः। विलग्ने कन्यायां शिशिरकरसूनुर्यदि भवेत्
तदाऽवश्यं राजा भवति बहुविज्ञानकुशलः ॥९॥ वः नक्षत्रनाथः स्फुटकरनिकरालङ्कृतः प्राप्तलग्नो
यूने सोमस्य पुत्रो यदि रिपुभवनं भास्करः संप्रयातः । १ जनपदेऽपि वदन्ति. २ भे. ३ पालेक. ४ द्गमे. ५ भवेनृपः. ६ तिष्ठेन्न.
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सारावली ।
पाताले दानवेड्यो गुरुरपि गगने सौरभौमौ तृतीये सद्भूपालो भवेद्यः शशिकरधवलं चामरं राजलक्ष्मीम् ॥ १०॥ वर्गोत्तमगते चन्द्रे लग्ने वा चन्द्रवर्जिते । चतुराद्यैर्ग्रदृष्टे जातो नरपतिर्भवेत् ॥ ११ ॥
शिशिर किरणे स्वोचे लग्ने पयोम्बुनिधेः समे
घटधरगते भानोः पुत्रे मृगाधिपतौ रविः । अलिगृहगतो वाचां नाथः स्फुरत्करराजितो यदि नरपतिः स्फीतश्रीकस्तदा बहुवाहनः ॥ १२ ॥ मृगे मन्दे लग्ने कुमुदवनबन्धुश्च तिमिग
स्तथा कन्यां त्यक्त्वा बुधभवनसंस्थः कुतनयः । स्थितो नार्यां सौम्य धनुषि सुरमन्त्री यदि भवेत्
तदा जातो भूपः सुरपतिसमः प्राप्तमहिमा ॥ १३ ॥ उदयति मीने शशिनि नरेन्द्रः सकलकलाढ्यः क्षितिसुत उच्चे । मृगपतिसंस्थे दशशतरश्मौ घटधरगे स्याद्दिनकरपुत्रे ॥ १४ ॥ कुजे विलग्ने च शशी यदाऽस्ते स्फुटांशुसम्भारविराजिताङ्गः । राजा तदा शत्रुभिरप्रधृष्यो वेदार्थविद्धेतुशैतानुवादैः ॥ १५॥ करोत्युत्कृष्टोद्यद्दिनकृदमृताभीशुसहितः
स्थितस्ताग्रूपं सकलनयनानन्दजननः । अपूर्वोऽयं स्मृत्या नयनजलसिक्तोऽपि सततं
रिपुस्त्रीशोकाग्निर्ज्वलति हृदयेऽतीव सुतराम् ॥ १६ ॥ शुक्रो घटे कुजो मेषे खोचे देवपुरोहितः । यदि राजा भवेन्नूनं स्वयशोधौतदिङ्मुखः ॥ १७ ॥ उदयति गुरुरुचे तप्तहेमप्रभावो
हरिततुरगनाथो व्योममध्यावगाही | गवि शशिशुका यस्य सूतौ नरस्य स्वभुजविजितभूमिः सर्वतः पार्थिवेन्द्रः ॥ १८ ॥
१ सदानुभावैः.
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।
धनुषि सुरेड्यः शशभृदुपेतो मृगमुखसंस्थः क्षितितनयश्च । उदयति तुङ्गे सुररिपुवन्धः शशितनयो वा यदि नृपतिः स्यात्१९ चापाघे भगवान्सहस्रकिरणस्तत्रैव ताराधिपो
लग्ने भानुसुतोऽतिवीर्यसहितः स्खोचे च भूनन्दनः । यद्येवं भवति क्षितेरधिपतिः सश्चिन्त्य शौर्यं भयात्
दूरादेव नमन्ति यस्य रिपवो दग्धाः प्रतापाग्निना ॥२०॥ षष्ठं धूनमथाष्टमं शिशिरगोः प्राप्ताः समस्ताः शुभाः
क्रूराणां यदि गोचरे न पतिता भान्वालयाद्दूरतः । भूपालः प्रभवेत्स यस्य जलधेर्वेलावनान्तोद्भवैः ।।
सेनामतकरीन्द्रदानसलिलं भृङ्गैर्मुहुः पीयते ॥ २१ ॥ न प्राप्नोति जरामाशु नो भजत्यरितो भयम् । जातः स्यादधियोगेऽस्मिन्धृतिसौभाग्यसौख्यभाक् ॥२२॥ बुधः स्वोच्चे लग्ने तिमियुगलगावीड्यशशिनौ
मृगे मन्दः सारो जितुमगृहगो दानवसुहृत् । य एवं कुर्यात्स क्षितिभृदहितध्वंसनिरतो __निरालोकं लोकं चलितगजसङ्घातरजसा ॥ २३ ॥ केसरिगो महेन्द्रसचिवो दिनकरसहितः ___ कुम्भगतोऽर्कजः शशधरः खलु भवति वृषे । वृश्चिकभे क्षितेस्तु तनयो मिथुन इन्दुसुतो
मेषलग्नसमुदयो यदि स तु मनुजपतिः ॥ २४ ॥ कार्मुके त्रिदशनायकमन्त्री भानुजो वणिजि चन्द्रसमेतः । मेषगस्तु तपनो यदि लग्ने भूपतिर्भवति सोतुलकीर्तिः ॥ २५ ॥ वाकेन्द्रेषु यातैर्गुरुबुधभृगुजैर्मन्दभान्वारयुक्तैः
खोचे चन्द्रोऽधितिष्ठञ्जनयति नृपतिं कीर्तिशुक्लीकृताशम् । अत्युच्चे लग्नसंस्थो रविरपि भगवान्पार्थिवं क्रूरचेष्टं
यातायातैः समस्तं चतुरुदधिजलं यस्य सेनाः पिबन्ति॥२६॥
१ स्वरूं. २ समन्ताच.
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१३८
सारावली ।
उदकचरनवांशकेघु पष्ठः कमलरिपुः सकलाभिराममूर्तिः । उदयति विहगे शुभे स्वलग्ने भवति नृपो यदि केन्द्रगान पापाः२७
आपूर्णमण्डलकलाकलितं शशाकं
पश्यन्ति शुक्रसुरपूजितसोमपुत्राः । लग्नाधिपोऽतिबलवान्पृथिवीश्वरः स्यात्
वर्गोत्तमश्च नवमः खलु चेद्विलग्ने ॥ २८ ॥ वर्गोत्तमे त्रिप्रभृतिग्रहेन्द्राः केन्द्रस्थिता नो शुभसंयुताश्च । नो रूक्षधूमो न विवर्णदेहाः कुर्वन्ति राज्ञः प्रसवं प्रसन्नाः ॥२९॥ एक एव खगः स्खोचे वर्गोत्तमगतो यदि ।
बलवान्मित्रसंदृष्टः करोति पृथिवीपतिम् ॥ ३० ॥ शीर्पोदयःषु गताः समस्ता नीचारिवर्गे स्वगृहे शशाङ्कः । सौम्येक्षितोऽन्यूनकलो विलग्ने दद्यान्महीं रत्नगजाश्वपूर्णाम् ३१ उपचयगृहसंस्थो जन्मपो यस्य चन्द्रात्
शुभगृहमथवांशे केन्द्रयाताश्च सौम्याः । सकलबलवियुक्ता ये च पापाभिधानाः
स भवति नरनाथः शक्रतुल्यो बलेन ॥ ३२ ॥ अत्युच्चस्था रुचिरवपुषः सर्व एव ग्रहेन्द्रा
मित्रैदृष्टा यदि रिपुदृशां गोचरं न प्रयाताः । कुर्युनूनं प्रसभमरिभिर्गर्जितैारणाय्यैः ।। __सेनाश्वीयैश्चलति चलितैयस्य भूः पार्थिवेन्द्रम् ॥३३॥ परमोचे स्थितश्चन्द्रो यदि शुक्रेण दृश्यते । कुर्यान्महीपतिं पूर्ण पापैरापोक्लिमोपगैः ॥ ३४ ॥ दृश्येते शुभदैः स्वकेन्द्रभवने मित्रैश्च पापैस्तथा
युद्धे नो रिपुभिर्जितौ बलयुतौ जन्मोदयाधिपौ । भूपः स्यान्निजराशिनाथनवमे चन्द्रोदये चेद्यशो
यस्येभस्रुतदानलुब्धमधुपैश्चातुर्दिशं गीयते ॥ ३५ ॥ उच्चराशिर्भवेद्धोरा यस्यासौ कुरुते नृपम् । १ सुखस्थः. २ ग्रहः. ३ सौम्येक्षितः पूर्णकलो.
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
१३९ खांशेऽथ सुहृदुचांशे दृष्टः केन्द्रोपगैः शुभैः ॥३६ ॥ स्थितो भानोः पुत्रो विरचितबलः पश्चिमाधै मृगस्य
रविः सिंहे शुक्रस्तुलिनि रुधिरो मेषगः कर्किणीन्दुः । .. कुमारी सम्प्रासो यदि भवति वा शर्वरीनाथसूनुः
ग्रजातो भूपालश्छदयति महीमेकशुक्लातपत्राम् ॥ ३७॥
वर्गोत्तमस्वभवनेषु गता ग्रहेन्द्राः ___ सर्वे यदा रुचिररश्मिशिखाकलापाः । उत्पद्यते जगति सीममती धरित्रीं ___ यः पालयेत्क्षितिपतिर्जितशत्रुपक्षः ॥ ३८॥ केन्द्रे विलग्ननाथः सुहृद्भिरभिवीक्षितो विहगैः । लग्नस्थिते च सौम्ये भूपतिरिह जायते पुरुषः ॥ ३९ ॥ सुरपतिगुरुः सेन्दुर्लग्ने वृषे समवस्थितो ___यदि बलयुतो लग्नेशश्च त्रिकोणगृहं गतः । रविशनिकुजैर्वीर्योपेतैर्न युक्तनिरीक्षितो ___भवति स नृपः की| युक्तो हताखिलकण्टकः॥४०॥ न नीचगृहसंस्थिता न च रिपोर्गृहं संगताः
स्वराशिमथवांशकानुदयगोचमशं यदि । कलाभिरतिभूषिते कुमुदषण्डबोधप्रदे
सुहृद्भिरभिवीक्षिताः क्षितिपतिं विदध्युग्रहाः ॥४१॥ यो यः पूर्ण शिशिरकिरणं प्राप्तवर्गोत्तमांशं
सुस्पष्टार्चिगगनगमनः पश्यति स्वोच्चसंस्थम् । स क्षोणीशं जनयति दशां प्राप्य सौम्यः स्वकीयां
ख्यातं लोके यदि बलयुताः कण्टकस्था न पापाः ॥४२॥ जन्मोदयभवनपती बलसहितौ केन्द्रभेऽथ हिबुके वा । इन्दुर्जलगृहगश्चेत्रिकोणगो वा महीपालः ॥४३॥ स्वगृहे मित्रभागेषु स्वांशे वा मित्रराशिषु । कुर्वन्ति च नरं सूतौ सार्वभौमं नराधिपम् ॥४४॥ १ श्विरमवति गामेक. २ वर्ग:. ३ विहगनाथैः. ४ नियतम्. ५ संस्थः.
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- सारावली । परमोच्चगताः सर्वे खोचांशे यदि सोमजः ।
त्रैलोक्याधिपतिं कुर्युर्देवदानववन्दितम् ॥४५॥ यस्योत्तरस्यां भगवान्वसिष्ठो बृहस्पतिः प्रागपरे च भार्गवः । अगस्त्यनामा खलु दक्षिणस्यां स नष्टशत्रुश्च भवेन्नराधिपः॥४६॥
शशी पूर्णः स्वांशं स्वगृहमथवा खोचमं वा प्रयातो
दिवः पातुर्मत्री दितिजगुरुणा वीक्षितः केन्द्रसंस्थः । रविर्लग्ने स्वांशं यदि बलयुतः पश्यति स्यात्स भूपः
प्रभग्नं यस्येभैश्चतुरुदधिभूशल्लकीनामरण्यम् ॥४७॥ कुमुदगहनबन्धौ वीक्ष्यमाणे समस्तै
गगनगृहनिवासैदीर्घजीवी नरः स्यात् । फलमशुभसमुत्थं नैव केमद्रुमोत्थं
भवति मनुजनाथः सार्वभौमो जितारिः ॥४८॥ उच्चाभिलाषी सविता त्रिकोणे स्वः शशी जन्मनि यस्य जन्तोः । स शास्ति पृथ्वी बहुरत्नपूर्णां बृहस्पतिः कर्कटके यदि स्यात्॥४९॥
तुङ्गेषु पड्विबुधमार्गचरा उपेताः
स्वांशे मयूखनिकरैः परिपूरितोङ्गाः । उत्पादयन्ति कुलिशाङ्कितपाणिपादं
पृथ्वीपतिं सगरवेनययातितुल्यम् ॥ ५० ॥ शुभभवनसमेतैः सौम्यभागेषु सौम्यैः __ स्फुटरुचिरकराद्यैः प्रस्फुरद्भिर्विलग्ने । रविमुषितमयूखैस्तैश्च पापैरमिथै
गिरिगहननिवासी तापसः स्यान्नरेन्द्रः ॥५१॥ शुभपणफरगाः शुभप्रदा उभयगृहे यदि पापसंचयः ।
स्वभुजहतरिपुर्महीपतिः सुरगुरुतुल्यमतिः प्रकीर्तितः॥५२॥ विलग्ननाथः खलु लग्नसंस्थः सुहृद्गृहे मित्रदृशां पथि स्थितः ।
करोति नाथं पृथिवीतलस्य दुर्वारवैरिघ्नमिहोदये शुभे ॥ ५३॥ सम्पूर्णमूर्तिभगवान्शशाङ्को मेषांशकस्थो गुरुणा च दृष्टः । नीचेन कश्चिन्न च वीक्षितोऽन्यैः प्राह क्षितीशं यवनाधिराजः ५४ १ कर्कटकोपगश्चेतू. २ परिपूरिताशाः. ३ इह.
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
१४१
लग्नाच्छशी त्रिरिपुलाभनभःस्थलेषु
सूतावखण्डितवपुः पृथिवीश्वरः स्यात् । दृष्टः सुरेन्द्रगुरुणा न च वीक्षितोऽन्यै__ जन्माधिपो दशमगः स्मरगोऽथवा स्यात् ॥ ५५॥ बिभ्रद्रश्मिकरालपूर्णपरिधिनक्षत्रसम्पालक
स्तुङ्गांशे समवस्थितैश्च सकलैः प्रोद्वीक्षितो व्योमगैः । कुर्याद्भूमिपतिं यशस्यचरितं हस्त्यश्वसैन्यं जगत्
योव्याच्छेषफणीन्द्रतुल्यमखिलोर्वीभारखिन्नः श्वसन्॥५६॥ सुधामृणालोपमबिम्बशोभितः शशी नवांशे नलिनीप्रियस्य । यदि क्षितीशो बहुहस्तिपूर्णः शुभाश्च केन्द्रेषु न पापयुक्ताः ॥५७॥
शशिबुधरुधिराङ्गैः स्वांशकस्थैर्न नीचै
घ्यगृहसहजस्थैर्नापि सूर्यप्रविष्टैः । तनयभवनसंस्थे वाक्पतौ चन्द्रयुक्ते
भवति मनुजनाथः कीर्तिशुक्लीकृताशः ॥ ५८॥ नीचारिवर्गरहितैविहगैस्त्रिभिस्तु ___ स्वांशोपगैर्बलयुतैः शुभदृष्टिदृष्टैः । गोक्षीरशङ्खधवलो मृगलाञ्छनश्च
स्याद्यस्य जन्मनि स भूमिपतिर्जितारिः ॥ ५९॥ कुमुदगहनबन्धुं श्रेष्ठमंशं प्रपन्नं
यदि बलसमुपेतः पश्यति व्योमचारी । उदयभवनसंस्थः पापसंज्ञो न चैवं
भवति मनुजनाथः सार्वभौमः सुदेहः ॥६०॥ जलचरराशिनवांशक इन्दौ तनुभवने शुभदः स्वकवर्गे । अशुभकरः खलु कण्टकहीनो भवति नृपो बहुवारणनाथः ॥६१॥ वर्गोत्तमे हिमकरः सकलः स्थितोऽशे
कुर्यान्महीपतिमपूर्वयशोभिरामम् । यस्याश्ववृन्दखुरघातरजोभिभूतो
भानुः प्रभातशशिनोऽनुकरोति रूपम् ॥ ६२॥
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१४२
सारावली। सर्वग्रहकृते योगे चक्रवर्तीश्वरो भवेत् ।। एकैकेन तथा जाता मण्डलानामधीश्वराः ॥ ६३॥ एकोऽपि विहगः कुर्यात्पञ्चमांशगतो नृपम् । समस्तबलसम्पन्नश्चक्रवर्तिनमेव च ॥ ६४ ।। यदि पश्यति चन्द्रमसं विबुधगुरुर्वृषभसंस्थितः प्रसवे । अवति पृथिवीमुदग्रां स्फुरन्मणिद्योतितदिगन्ताम् ॥ ६५॥ कुर्यात्तुङ्गे त्रिकोणे वा स्वराशिस्थो विलोकयन् । ग्रहस्तुषारकिरणं निषादमपि पार्थिवम् ॥६६॥ स्वगृहे तृतीयभागे शशी स्थितः पार्थिवं यदा कुरुते । परिपूर्णबलः शुभदो यदि प्रसूतौ महाराजम् ॥ ६७॥ स्वांशे दिवाकरो यस्य स्वक्षेत्रे च क्षपाकरः । स राजा गजदानौघशीकरोक्षितभूतलः ॥ ६८ ॥ लग्ने रविपुत्रसंयुते देवेज्येऽस्तगते नवोदिते । दृष्टेऽसुरराजमत्रिणा ग्रामीणो नृपतिर्भवेदिह ॥ ६९ ॥ उदयेऽसुरमत्रिवरो गुरुमे गुरुदृष्टिपथं च गतः । कुरुते नियतं सनृपं यदि तुङ्गगतश्च बुधः ॥ ७० ॥ शुक्रभास्करेन्दवो भावमेकमाश्रिताः।
जीवदृष्टमात्रकाः स्यात्तदा महीपतिः ॥ ७१ ॥ लग्नगाः सितशशाङ्कजभौमाः सप्तमे शशिनि वाक्पतियुक्ते । तिग्मरश्मितनयेन च दृष्टे जायते पृथुयशाः पृथिवीशः ॥ ७२ ॥ विबुधगुरुयदि भौमनवांशे रुधिरनिरीक्षितपूर्णबलश्च ।
जनयति कुत्सितजन्ममहीपं क्रियपरिसंस्थितकर्मगतोऽर्कः ॥७३॥ तृतीयगाः शुक्रशशाङ्कभास्कराः कुजोऽस्तसंस्थो नवमे बृहस्पतिः । गुणोत्तमो लग्नगृहांशकोद्गमो यदा तदा हीनकुलो महीपतिः॥७४॥
जीवो बुधो भृगुसुतोऽथ निशाकरो वा
धर्मे विशुद्धतनवः स्फुटरश्मिजालाः । मित्रैर्निरीक्षितयुता यदि सूतिकाले
कुर्वन्ति देवसदृशं नृपतिं महान्तम् ॥ ७५ ॥ १ संस्थितं. २ सितयुक्ते. ३ गृहेन चोदिते. ४ भाग.
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१४३
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः। तपोगृहं यस्य भवेत्तदुच्चकं ग्रहेण तेनाथ युतं निरीक्षितम् । ग्रहद्वयं स्खोचगतं यदा भवेत्तदा कुटुम्बी नियतं महीपतिः ७६ सुतभवने शशिदेवनमस्यौ भवनपतिप्रसमीक्षितदेहौ । भृगुतनयो यदि मीनसमेतो भवति नृपः खलु कुत्सितवंशः ७७
चन्द्रस्त्रिपुष्करस्थः स्खोचे वचसां पतिः सलक्ष्मीकम् । उत्पादयति स्वामिनमुत्तैमपात्रं समग्रभुवः ॥ ७८॥ केन्द्रस्वोच्चमुपेतः सुरगत्री दशमगो यदा शुक्रः । नूनं स भवति पुरुषः समस्तपृथ्वीश्वरः ख्यातः ॥ ७९ ॥
स्वर्खे शशी विपुलरश्मिशिखाकलापाः ___ स्वांशे स्थिता वुधबृहस्पतिदानवेज्याः । पातालगा दिनकरेण निरीक्षिताश्च
संसूचयन्ति नृपतिं दिजमुख्यजातम् ॥ ८० ॥ रविनभस्थः स्वत्रिकोणगोऽपि वा स्वराशिसंस्थाः सितजीवचन्द्राः । तृतीयषष्ठायगताश्च चन्द्रात्कुर्वन्ति गोपालमिह क्षितीशम् ॥ ८१ ॥
सप्तमभवने सौम्या मित्रांशगताः सुहृद्भिरिह दृष्टाः । उच्चे कुजो यदि नृपः समस्तनृपपालकः श्रेष्ठः ॥ ८२ ॥ रविशशिबुधशुक्रॉग्नि मित्रांशकस्थै
न च रिपुभवनस्थैर्नाप्यदृश्यैर्न नीचैः । स तपसि भृगुपुत्रे भूपतिः स्यात्प्रयाणे ___ गजमदजलसेकैलीयते यस्य रेणुः ॥ ८३॥ स्वोचे भानुः प्रकटितबलो व्योममध्ये सजीवः
शुक्रो धर्मे यदि बलयुतः खं नवांशं प्रपन्नः । लग्ने वर्गे शुभगगनगो राजपुत्रेण दृष्टः
पृथ्वीपालो धवलितजगत्स्यात्सितैः स्वैर्यशोभिः ८४ वृषे शशी लग्नगतः सुपूर्णः सितेन दृष्टो वणिजि स्थितेन । बुधोऽपि पातालगतो यदि स्यात्तदान्यजातो भवति क्षितीशः ८५
१ यदि देवनमस्यो. २ देहः. ३ नतमनसं. ४ शनिः , यदा. ५ नृप.. ६ वरैः. ७ विध्यते. ८ कुजयुतः.
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१४४
सारावली ।
क्षमासुतः स्वोच्चमुपाश्रितो यदा
रवीन्दुवाचस्पतिभिर्निरीक्षितः । भवेन्नरेन्द्रो यदि कुत्सितस्तदा
समस्तपृथ्वीपरिरक्षणे क्षमः ॥ ८६ ॥ जायतेऽभिजिति यः शुभकर्मा
भूपतिर्भवति सोऽतुलवीर्यः । नीचवेश्मकुलजोऽपि नरोऽस्मिन्
राजयोग इति न व्यपदेशः ॥ ८७॥ गण्डान्तविष्टिपरिघव्यतिपातजात__ स्ताराधिपः समुदये यदि कृत्तिकायाम् । क्रीडेत्कृपाणफलकाहितचण्डवेग
प्रोत्थापिताहितशिरोगुलिकाभिरीशः ॥ ८८॥ बुधोदये सप्तमगे बृहस्पती ___चन्द्रे कुलीरे सुखराशिगेऽमले । वियद्गते भार्गवनन्दने गृहे
प्रशास्ति पृथ्वीं मनुजो निराकुलः ॥ ८९ ॥ एकान्तरगैर्विहगैः पनिश्चक्रं क्षितीश्वरं कुर्यात् । अत्रैव शुभे लग्ने सकलमहीपालको नृपतिः ॥ ९० ॥ अयमेव समुद्राख्यो द्वौ लग्ने यदि संस्थितौ । करोति भूभुजां नाथं सौम्यैः केन्द्रेषु संस्थितैः ॥ ९१॥
निरन्तरं यदि भवनेषु षटूसु ___ ग्रहाः स्थिता उदयगृहात्समस्ताः । खपतिदन्नरपतिमेव कुर्यु
___ श्चतुष्टयन्नरपतिमत्रिणं च ॥ ९२ ॥ सुतसुखदुश्चिक्यगता यदि कर्मणि कीर्तयन्ति यवनाद्याः । बन्धुसुतार्थगजाढ्यो बहुभृत्यो जायते क्षितिपः ॥ ९३॥
कर्मास्तजलहोरासु ग्रहाः सर्वे प्रतिष्ठिताः ।
कुर्वन्ति नगरं नाम यत्र स्यात्पृथिवीपतिः ॥ ९४ ॥ १ बली. २ जगति. ३ सव्यपदेशः. ४ वैधृतगृह. ५ स करोति भुवो.
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
सुखतनुमदगाः शुभाः समग्राः कुजरविरविजास्त्रिधर्मलाभसंस्थाः । यदि भवति महीपतिः प्रशान्तो यवनपतिकृतो ह्ययं महीपयोगः ।। ९५ । लाभधर्मस्थिताः सौम्याः पापाः कर्मणि संस्थिताः । नृपतीनामयं योगो भवेत्कलशसंज्ञितः ॥ ९६ ॥ यो ग्रहा भ्रातृसुतायसंस्थास्तथा शुभौ द्वौ रिपुसङ्गतौ च । कलत्रलग्नं च गतौ च शेषौ नृपस्य योगः खलु पूर्णकुम्भः ॥९७॥ सुविस्तरं नीचकुलोद्भवा मया विचित्ररूपाः कथिताः क्षितीश्वराः । अतः परं पार्थिववंशजन्मनां
भवन्ति योगा मुनिभिः प्रकीर्तिताः ॥ ९८ ॥ सिंहोदये दिनकरो मृगलाञ्छनोजे' कुम्भस्थितो रविसुतः स्वगृहे सुरेज्यः । स्वोच्चेऽपि भूमितनयः पृथिवीश्वरस्य
जन्मप्रदः सकललोकनमस्कृतस्य ॥ ९९ ॥ शुभे लग्नं याते बलवति तथा धर्मराशिक्रमेण
शुभैः शेषैर्लग्नं धनगृहमथ न्यायषट्कर्मगैश्च । महीपालः श्रीमान्भवति नियतं यस्य मातङ्गसङ्घाः प्रयाणे मेघानां स्रुतमदजलै भ्रीन्तिमुत्पादयन्ति ॥ १०० ॥ सुरपतिगुरुर्बन्धुस्थाने स्ववेश्मगतो यदा
१ वा.
१४५
तुहिन किरणः सम्पूर्णाङ्गस्तपःसमवस्थितः । त्रितनुभवनप्राप्ताः शेषा ग्रहा यदि भूपतिः
भवति धृतिमान्स्फीतश्रीकस्तथा बहुवाहनः १०१ स्वोच्चोदये कृतपदः कुमुदस्य बन्धुजीवोऽर्थगो वणिजि दानवपूजितश्च । कैन्याजसिंहगृहगा बुधभौमसूर्या
चन्द्रांशुनिर्मलयशा भवति क्षितीशः ॥ १०२ ॥
२ दनुजपगुरु. ३ शेषाश्च मत्स्ययुगले यदि चेद्रहेन्द्राः ।
१३ सारा०
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१४६
सारावली ।
नक्षत्रनाथसहितः सविता नभःस्थः _ सौरिविलग्नभवने हिबुके सुरेज्यः । देवारिपूज्यबुधभूमिसुतैः सलाभैः
ख्यातो महीपतिरिह स्वगुणैर्नरः स्यात् ॥१०३॥ मृगराशिं परित्यज्य स्थितो लग्ने बृहस्पतिः । करोत्यवश्यं नृपतिं मत्तेभपरिवारितम् ॥ १०४॥ लग्ने भौमो रविजसहितस्तीक्ष्णरश्मिः खमध्ये __वाचां स्वामी मदनगृहगो भार्गवो धर्मसंस्थः । आये हेम्नः शिशिरकिरणो बन्धुराशिं प्रपन्नो
। यद्येवं स्याद्विपुलयशसो जन्म भूपालकस्य ॥१०५॥ न्यूनोऽपि कुमुदबन्धुः स्वोच्चस्थः पार्थिवं करोति नरम् । किं पुनरखण्डमण्डलकरनिकरप्रकटितदिगन्तः ॥१०६॥
लग्नं विहाय केन्द्रे सकलकलापूरितो निशानाथः । विदधाति महीपालं विक्रमधनवाहनोपेतम् ॥ १०७॥ यदि पश्यति दानवार्चितं वचसामधिपस्तदा भवेत् । नृपतिर्बहुनागनायको भुजगेन्द्र इव प्रतापवान् ॥ १०८ ॥ दिवौकसां पतेमंत्री कुर्यात्पश्यन्बुधं नरम् । शिरोभिः शासनं तस्य धारयन्ति नृपाः सदा ॥१०९॥ लग्नाधिपतिः स्वोचे पश्यन्मृगलाञ्छनं नृपं कुरुते । बहुगजतुरगबलौषैः क्षपितविपक्षं महाविभवम् ॥११० ।। इन्दुः स्खोचे पश्यन्करोति बुधभार्गवौ नरं नृपतिम् । प्रणतारिपक्षमुच्छ्रितयशसं सौभाग्यवन्तं च ॥ १११॥ अधिमित्रांशगश्चन्द्रो दृष्टो दानवमत्रिणा । अनिशं कुरुते लक्ष्मीस्वामिनं भूपतिं नरम् ॥ ११२ ॥ खांशेऽधिमित्रभावे वा गुरुणा यदि दृश्यते । शशी महीपतिं कुर्यादिवसे नात्र संशयः ॥११३॥ जन्माधिपतिः केन्द्रे बलपरिपूर्णः करोति परमर्द्धिम् ।
ब्राह्मणकुलेऽपि नृपतिं किं पुनरवनीशसंभूतम् ॥ ११४॥ १ विमल. २ क्षीणोऽपि. ३ खोच्चगतः. ४ वारणो. ५ यदा. ६ गुरुभार्गवी.
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
रविरप्यधिमित्रस्थो यदि चन्द्रसमीक्षितः ।
अङ्गदेशाधिपं कुर्याद्धर्मार्थसहितं नृपम् ॥ ११५ ॥ उच्चस्थः शशितनयः कुमुदाकरबन्धुना च समधिगतः । जनयति मगधाधिपतिं गजमदगन्धेन वासितदिगन्तम् ॥ ११६ ॥ प्रधानबलसंयुक्तः सम्पूर्णः शशलाञ्छनः । एकोऽपि कुरुते जातं नराधिपमरिंदमम् ॥ ११७ ॥ केन्द्रे विलग्ननाथः श्रेष्ठबलो मानवाधिपं कुरुते । गोपालकुलेऽपि नरं किं पुनरवनीश्वराणां च ॥ ११८ ॥ कर्कटसंस्थः केन्द्रे बृहस्पतिर्दशेमधामगः शशिनः । चतुरुदधिमेखलायाः स्वामी भूमेर्भवति जातः ॥ ११९ ॥ मेषे सहस्ररश्मिः सह शशिना संस्थितः करोतीशम् । केरलकर्णाटान्ध्रद्रविडानां चोलकस्यापि ॥ १२० ॥ उच्चस्थ स्त्रिदशगुरुः कैरववनबन्धुसङ्गमं प्राप्तः । काश्मीरमण्डलभुवां करोति पुरुषाधिपमवश्यम् ॥ १२१ ॥ तुङ्गायखगृहोदय कण्टकनवमेषु यस्य शुक्रगुरू ।
सोवश्यं भवति नरो राजांशसमुद्भवो नृपतिः ॥ १२२॥ दिक्स्थानकालादिबलैरुदाराः शुभाः पुनः केन्द्रमुपागताश्च । कुर्वन्ति पापैरविमिश्रचाराः पृथ्वीभुजं त्रिप्रभृतिग्रहेन्द्राः ॥ १२३ ॥ खेर्द्वितीये बुधजीव भार्गवा नचाशुभैर्दृष्टयुता नॅ वार्कगाः । स्फुरत्करौघस्फुटपिञ्जरीकृता नरं प्रकुर्युस्त्रिसमुद्रपालकम् ॥ १२४ ॥ कुन्दाब्जकाशधवलः परिपूर्ण मूर्ति
र्जन्माधिपेन कॅविना शुभदेन दृष्टः । स्त्रीमानभङ्गनिपुणं दयितं क्षपायाः
प्रख्यातकीर्तिसुनयं कुरुते नरेन्द्रम् ॥ १२५ ॥ देवमन्त्री कुटुम्बस्यो भार्गवेण समन्वितः । जनयेद्वसुधापालं निर्जितारातिमण्डलम् ॥ १२६ ॥ कारकयोगे जाता भवन्ति पृथ्वीभुजो नरास्तेषाम् ।
१ सहितः २ र्मृगगतश्च सितः ३ राजांग. ४ चार्क. ५ बलिना.
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सारावली ।
गजतुरगपत्तिविचलितरंजोवितानं भवेद्गगनम् ॥ १२७ ॥ कुजे विलग्ने तरणेश्च नन्दने रसातले शुक्रबृहस्पतीन्दुजाः । मृगोदये मन्दनवांशकस्थिते
रसातलेशो भवतीह पार्थिवः ॥ १२८ ॥ स्वोच्चे गुरुस्तनुगतः स्वगृहे शशाङ्कः शुक्रो झषे परममुच्चमितोऽसितश्च । मेषे तथैव भगवान्सविता कुजः स्व
वर्गाधिपो यदि भवेन्नृपतिः प्रजातः ॥ १२९ ॥ शक्रेड्यः ससितः शुचिस्तिमियुगे स्वोच्चे च पूर्णः शशी दृष्टस्तीत्रविलोचनेन दिनकृन्मेषे यदासौ नृपः । सेनायाश्चलनेन रेणुपटलैर्यस्य प्रनष्टे रवा
वस्तभ्रान्तिसमाकुला कमलिनी सङ्कोचमागच्छति ॥ १३० ॥ क्रूरैनींचे रिपुभवनगैः षष्ठदुश्चिक्यगैवी
सौम्यैः स्वोच्चं परमुपगतैर्निर्मलैः केन्द्रगैश्च । आज्ञां यात शिशिरकिरणे कर्कटस्थे निशाया
मेकच्छत्रं त्रिभुवनमिदं यस्य स क्षत्रियेशः ॥ १३१ ॥ होरालेखामुपेतः स्फुटकरनिकरैः पूरिताङ्गः सुरेज्य
चन्द्रः शुक्लार्धदेहो भवभवनगतः खेन पुत्रेण दृष्टः । चन्द्रानुर्द्वितीये यदि भवति तदा नैव दृष्टः कुजेन
पाता जायेत भूमेर्बहुगजतुरगक्षुण्ण भूपृष्ठपीठः ॥ १३२॥ रविशशिकुजै लग्ने सिताकिंबुधैर्वृषे
धनुषि नवमे देवेज्ये च स्वभांशमुपागते । रविरपि यदि स्वोच्चे वर्गे प्रधानबलोदयो
भवति नृपतिः सिंद्धाज्ञातो हतारिरणोद्भवः ॥ १३३ ॥ सितशशिसुतजीवैः पञ्चमस्थैर्नभोगे
रविरपि रिपुराशौ स्वोचगे भूमिपुत्रे |
१ पांसु. २ च स्वर्गाधिपो; च द्वीपाधिपो ३ खगेन चैव ४ भानुस्तृतीये. विद्वानुजातो.
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।
तपसि च रविपुत्रे जायते पार्थिवेन्द्रः
प्रथितविमलकीर्तिर्दानधर्मप्रतापैः ॥१३४॥ त्रिदशगुरो रविर्हिमकरस्य भृगोस्तनयो
रवितनयः कुजस्य खलु दृष्टिपथं च गतः । भवति विलग्नगो यदि चरोदयराशिगतः
प्रथितयशा भवेत्क्षितिपतिः क्षपितारिगणः ॥ १३५ ।। बुधः कन्यालग्ने सुरपतिगुरुश्चैव तिमिगः
स्थितः क्षोणीपुत्रः प्रसवसमये वीर्यसहितः । शनिः शत्रुस्थाने त्रिदशरिपुपूज्यश्च हिबुके
यदैवं स्यात्सूतौ स्वभुजविजयी भूपतिरिह ॥१३६॥ यमे विलग्ने मकरप्रतिष्ठिते
दिवाकरे यूनगते सितेऽष्टमे । कुजेलिगे कर्कटगे निशाकरे
भवेत्प्रसिद्धो जगतीश्वरो नृपः ॥१३७॥ मृगोदये भूमिसुते सुनिर्मले शनैश्चरे धर्मगृहे व्यवस्थिते । दिवाकरे सप्तमगे सहेन्दुना चलस्वभावो नृपतिः प्रजायते ॥१३८॥
शनैश्चरे लग्नगते सचन्द्रे बृहस्पतौ सप्तमराशिगे च । शुक्रेण दृष्टे शशिजे स्वतुङ्गे जायेत पृथ्वीपतिरप्रधृष्यः ॥१३९॥
चापे भवेत्सुरगुरुहूं तदृष्टिशुद्धो ____ लग्ने सुरारिदयितः शशिनि स्वराशौ । वापीतडागसुरवेश्मकरो नरोत्र
- जायेत मानवपतिर्द्विजदेवभक्तः ॥ १४० ॥ एकः स्वोच्चे शुभगगनगः संस्थितो निर्मलांशुः
केन्द्रे भानुः प्रकटितकरः केवलः पूर्णवीर्यः । दृष्टः कुर्यादमरगुरुणा पञ्चमस्थेन जातं
भूमे थं बहुगजपतिं सर्ववन्धं कृतार्थम् ॥१४१॥ षष्ठे कुजार्किरवयः सहजेऽथवाऽपि
सिंहे सुरारिसचिवोऽथ भवर्भसंस्थः । १ प्रथमभवने. २ पापाभवे सुरपुरोहितदृष्टिशुद्धा.
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सारावली । दृष्टः शुभैर्दिनकरेन्दुविहीनदृष्टिः
कुर्यानृपं स्वभुजनिर्जितशत्रुपक्षम् ॥१४२॥ वहति मृदुसमीरो निर्मलव्योममध्ये
विमलनिरुपसर्गाः खेचरा वृत्तवैराः । उदयति सुरवन्ये मण्डले मातृकाणां ___ यदि वृषभगृहस्थो भार्गवः स्याक्षितीशः॥१४३॥ शशिबुधरुधिराख्यैः स्वांशकस्थैर्न नीचै
य॑यगृहसहजस्थैर्नापि सूर्यप्रविष्टैः । तनयभवनसंस्थे वाक्पतौ चन्द्रयुक्ते
भवति मनुजनाथः कीर्तिशुक्लीकृताशः॥ १४४ ॥ अधिमित्रगते केन्द्रे जन्माधिपतिर्विलग्नपतियुक्तः । पश्यति बलपरिपूर्णो लग्नं स्यात्पुष्कलो योगः ॥ १४५ ॥ पुष्कलयोगे पुरुषा जायन्ते भूमिपालका नित्यम् । सुचिरं भ्रमन्ति हतरियुगजमदगन्धेन वासितदिगन्ताः॥१४६॥
राश्यादौ लग्नपतिः करोति जातं नरेन्द्रदण्डपतिम् । मध्ये मण्डलनाथं ग्रामपतिं चैव भवनान्ते ॥ १४७॥ पौष्णे फाल्गुन्यां वा मूले पुष्ये च भास्करः कुरुते । लग्नगतो नरनाथं योजनशतमात्रके देशे ॥१४८॥ कृत्तिकारेवतीस्वातीपुष्यस्थायी भृगोः सुतः। करोति भूभुजां नाथमश्विन्यामपि संस्थितः ॥ १४९ ॥ विदधाति सार्वभौमं लग्नांशपतिः स्वतुङ्गगः केन्द्रे । नृपति लग्नाधिपतिर्जन्माधिपतिर्धनसमृद्धम् ॥ १५० ॥ मीने निशाकरः पूर्णः सुहृद्हनिरीक्षितः । सार्वभौमं नरं कुर्यात्सिद्धाज्ञानान्न संशयः ॥ १५१ ॥ याते भौमे कर्मस्थानं ____ शिशिरकरभृगुसुतैस्तपः समवस्थितैः । आये स्खोचे प्राप्तो भानु
स्त्रिदशपतिसचिवसहितो यदि प्रेसवे भवेत् ॥ १५२॥ १ शरीरे. २ गृहे. ३ लग्ने. ४ सिद्धाज्ञाकं न. ५ प्रभवे.
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
१५१ क्षोणीभर्ता याने यस्य . अविचलिततुरगरजसा दिशः परितो गतः । एवं कर्तुर्भूयो भूयो ___ धरणितलपरिमलसुखं प्रयान्ति रखेहयाः ॥१५३॥ शशिसहिते केन्द्रस्थे शनैश्चरे भवति जारजातस्तु ।
राजा भुवि गजतुरगग्रामधनैर्वर्धितश्रीकः ॥१५४॥ शुक्रवाक्पतिबुधैर्धनसंस्थैर्दूनगैः शशिरविक्षितिपुत्रैः । जायते क्षितिपतिः पृथुवक्षाः सर्वतः क्षपितशत्रुसमूहः ॥१५५॥ . भानुः प्राणी शशिगृहयुतः शीतरश्मिश्च तस्मि
नेकः स्वोचे यदि गगनगो निर्मलः पूर्णरश्मिः । लग्नं प्राप्तः सुरपतिगुरुः षष्ठगः स्यात्क्षितीश____ श्छन्नो यस्य प्रचलितचमूरेणुभिव्योममार्गः॥१५६॥ कुम्भस्याष्टमभागे त्रिकोणसंस्थे (पि च) निशानाथे । जातो भवत्यवश्यं राजा शुभदः समस्तलोकस्य ॥ १५७॥ मेषस्य सप्तमांशे करोति पृथ्वीसुतः स्थितो नृपतिम् । सिंहस्य पञ्चमांशे नरमिथुनांशे भवेद्भूपः ॥१५८॥ कुम्भस्य पञ्चदशके भागे चन्द्रः स्थितो महीपालम् । कर्कटकस्य च दशमे करोति पुरुषं सदा प्रभवे ॥ १५९ ।। धनुषि च विंशे जीवः करोति नृपतिं स्थितो जनख्यातम् । सिंहस्य पञ्चमांशे तथा च हेलिबुंधो ज्ञेयः ॥ १६०॥ एकस्मिन्पञ्चकृतौ पञ्चदशवास्थितश्चन्द्रः । भागेषु वीरनृपतिं करोति भुजलब्धपृथ्वीकम् ॥१६१॥ मकरस्य पञ्चमांशे करोति पुरुषं नरेश्वरं सुनयम् । योगे भूतलतिलकं धर्मज्ञं शास्त्रनिरतं च ॥ १६२॥ कर्कटके शशिजीवौ पञ्चसु भागेषु संस्थितौ कुरुतः । भूमिपतिमप्रधृष्यं रविरिव सर्वग्रहगणस्य ॥१६३॥
चन्द्रः पुष्ये नृपतिं वर्गोत्तमकृत्तिकाश्विनीसंस्थः। १ गतैः. २ परिभ्रम. ३ जातोत्र. ४ एकाधिकविंशेशे. ५ त्रिंशे. ६ रविजो. ७ सुभगम्.
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.सारावली। विदधाति सार्वभौमं त्रिपुष्करे वाऽपि परिपूर्णः ॥ १६४ ॥ अश्विन्यनुराधास्थः स्थितः श्रविष्ठासु पार्थिवं भौमः । कुरुते खोचमुपगतो वर्गोत्तमगश्च नान्यत्र ॥ १६५ ॥ व्योनि शंखधवलो निशाकरो भार्गवस्तपसि संस्थितः शुचिः। आयगाश्च यदि सर्व एव ते स्यान्महीपतिरतुल्यपौरुषः॥१६६॥
चन्द्रादुपचयसंस्था गगनसदः सर्व एव यदि सूतौ । जायेत माननिलयः समस्तपृथ्वीपतिः पुरुषः ॥१६७॥ जीवनिशाकरसूर्याः पञ्चमनवमतृतीयगा वक्रात् ।
यदि भवति तदा राजा कुबेरतुल्यो धनैर्वासौ ॥ १६८ ॥ रविस्तृतीये भृगुनन्दनः सुखे बुधस्य चान्ये यदि पञ्चमे स्थिताः। न नीचराशौ न च शत्रुवेश्मगा भवेन्नरेन्द्रस्त्रिसमुद्रपारगः॥१६९॥ बृहस्पते मदिवाकरेन्दवो गता द्वितीयाम्बुनभःस्थलं क्रमात् । विपक्षराशौ परिशेषखेचरा यदा तदा भूमिपतिर्नृपात्मजः॥१७०॥ भृगोरपत्यादुधभास्करात्मजौ चतुष्टयस्थौ परिशेषखेचराः। तृतीयलाभक्षगतास्तु ते यदा महीपतिं कुर्युरसंशयं तदा ॥१७१॥
शुक्रबुधौ रवितनयाकेन्द्रे वाचस्पतिर्भवेदुच्चे । सिंहासनाधिशायी यदि राजा स्वोचगाश्च परिशेषाः॥१७२॥ सवितुस्तृतीयपञ्चमलाभक्षुसमाश्रिताः सदा यस्य । सर्वे ग्रहाः स नृपतिर्मत्री सेनापतिर्वाऽपि ॥ १७३ ॥ लग्नपतेः स्फुटरश्मेः पापा लाभे शुभाश्च केन्द्रस्थाः । यदि भवति तदा नृपतिः स्वभुजार्जितसर्वभूमितलः॥१७४॥ लाभे तृतीयषष्ठे यदि पापा जन्मपस्य शुभदृष्टाः । भवति तदा धरणीशः समस्तनृपवन्दितः साधुः ॥ १७५ ॥ विचरति सुरपूज्यो मेषभेऽथापि सिंहे
दहनकिरणदृष्टे भूमिपुत्रे स्वराशौ । · न च गगनविचारी कश्चिदेकोऽपि नीचे
यदि नृपतिसमुत्थो जायते पार्थिवेन्द्रः ॥ १७६ ॥
१ सूर्य. २ पालकः. ३ सुरश्मौ.
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पञ्चस्त्रिंशोऽध्यायः ।
चन्द्राद्रहर्निगदिताः सुनफादयश्च
केन्द्रस्थितैर्यदि भवन्ति च तेऽत्र योगाः। विश्वम्भराधिपकुलेषु महत्सु जाता
योगेषु तेषु मनुजेश्वरतां लभन्ते ॥ १७७॥ केन्द्रगौ यदि तु जीवशशाङ्कौ यस्य जन्मनि च भार्गवदृष्टौ । भूपतिर्भवति सोऽतुलकीर्तिींचगो यदि न कश्चिदिह स्यात् १७८
उदयशिखरिसंस्थो भार्गवो यत्र तत्र
बुधरविसुतदृष्टः स्वांशकस्थोऽतिवीर्यः । जनयति नरनाथं वाक्पतौ पञ्चमस्थे
भुजबलहतशत्रु सार्वभौमं गजाढ्यम् ॥ १७९ ॥ सिंहे कमलिनीनाथः कुलीरस्थो निशाकरः । दृष्टौ द्वावपि जीवेन पार्थिवं कुरुतस्तदा ॥ १८० ॥ बुधः कर्कटमारूढो वाक्पतिश्च धनुर्धरम् । सूर्यभूसुतदृष्टौ च यदि स्फीतो महीपतिः ।। १८१ ॥ शफरीयुगले चन्द्रः कर्कटे च बृहस्पतिः । शुक्रः कुम्भे यदा शक्तस्तदा राजा भवेदिह ॥ १८२ ॥ सितदृष्टः शनिः कुम्भे पभिनीदयितो भवे । चंद्रे जलचरे राशौ यदि जातो नृपो भवेत् ॥ १८३ ॥ कुजोऽलिगोऽथ मेषे वा रविजीवनिरीक्षितः । वृषे ज्ञो जीवंसंदृष्टस्तदाऽपि पृथिवीपतिः ॥ १८४ ॥ अमलवपुरवक्रः कैरवाणां विकासी
स्वगृहमथ नवांशं स्वोच्चमांशं गतो वा ॥ हितगगननिवासैः पञ्चभिदृश्यमानो
जनयति जगतीशं नीचभे नो यदि स्यात् ॥१८५॥ लाभे मन्दो गुरुभृगुसुतावुद्गमे खे शशाङ्को
बन्धावर्को बुधकुतनयौ वक्रगौ चेत्स भूपः ।
१ दयितोदये. २ शुक्र. ३ तन-यावर्थगौ.
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. सारावली। यत्सेनायास्ततमदजलक्षोभतो वारणेन्द्र
भूयः सेतोः स्मरति सहसा क्षोभितान्तोऽम्बुराशिः १८६ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां राजयोगाध्यायो नाम पञ्चत्रिंशः॥
षत्रिंशोऽध्यायः। रश्मिप्रधानमेतद्यस्माच्छास्त्रं वदन्ति माणिन्धाः । तस्मात्प्रयत्नतोऽहं कथयामि यथामतं तेषाम् ॥ १॥ स्वोचस्थे दश सूर्ये नव चन्द्रे पञ्च भूमितनये च । पञ्चेन्दुजे सुरेड्ये सप्ताष्टौ भार्गवे शनौ पञ्च ॥२॥ एवं महेन्द्रशास्त्रे मणिन्धमयबादरायणप्रोक्ते ।। सप्त प्रत्येकस्था निर्दिष्टा रश्मयो ग्रहेन्द्राणाम् ॥ ३॥ सर्वे प्रमाणमेते मुनिवचनात्किन्तु सप्तसंख्यैव । बहुवाक्यादस्माकं नीचगतः स्याद्विगतरश्मिः ॥४॥ अभिमुखरश्मिींचाद्दष्टः स्वोच्चात्पराङ्मुखो ज्ञेयः । अन्तरगतेऽनुपातो यथा तथा संप्रवक्ष्यामि ॥५॥ न्यूने मण्डलशोध्यश्चक्राषड्भवनतो यदाभ्यधिकः । आत्मीयरश्मिगुणितात्षड्भक्ताद्रश्मयस्तस्मात् ॥ ६॥ मित्रद्वादशभागे द्विगुणास्त्रिगुणाः स्वके च दीधितयः । वक्रे पुनस्तथोचे स्वराशिगे तद्भवत्येव ॥ ७॥ द्विगुणाः स्युर्दीधितयो वक्रस्थेऽप्येवमेव स्युः । वैरिद्वादशभागे नीचे च भवन्ति षोडशांशोनाः ॥ ८॥ अस्तं गतो विरश्मिः शनिसितवर्ज ग्रहो ज्ञेयः । वक्रान्तस्थे द्विगुणा वक्रत्यागेऽष्टभागहीनाश्च । एवं रश्मिविधानं पूर्वाचार्यैः समुद्दिष्टम् ॥ ९ ॥ एकादि पञ्च यावद्रश्मिभिरतिदुःखिताः कुलविहीनाः । परतत्रका दरिद्रा नीचरता संभवन्ति नराः ॥१०॥
परतो दशकं यावद्भुतकादीनां विदेशगमनरताः। १ नीचविहीनः. २ ताप.
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पत्रिंशोऽध्यायः।
जायन्तेऽत्र मनुष्याः सौभाग्यपरिच्युता मलिनाः ॥११॥ ऊवं पञ्चदशाप्ति-वत्तावद्बहुश्रुताः सुजनाः । धर्माभिरताः सुमुखाः कुलस्य तुल्याः प्रजायन्ते ॥ १२ ।। आविंशतेर्भवेयुः कुलाधिका धनयुता जनख्याताः। कीर्तिकराश्च मनुष्या यथाक्रमं स्वजनसम्पूज्याः ॥१३॥ पूज्याः सुभगा धीराः कृतिनो भूपास्तु शरकृतिर्यावत् । परतो भवन्ति मनुजाः संसाधितसकलकरणीयाः ॥१४॥ अत उत्तरेण चण्डा नृपाश्रिता नृपतिलब्धधनसौख्याः। त्रिंशद्यावत्सचिवाः पूज्याश्च भवन्ति भूपानाम् ॥ १५ ॥ एकत्रिंशद्भिस्तु प्रवराः ख्याता महीभुजामिष्टाः। द्वात्रिंशद्भिः पुरुषाः पञ्चाशद्रामपतयः स्युः ॥ १६ ॥ ग्रामसहस्राधिपतिं त्रिंशत्यधिका करोति रश्मीनाम् । त्रिसहस्रग्रामाणां पुरुषं सूतौ चतुस्त्रिंशत् ॥ १७ ॥ परतो मण्डलभाजो बहुकोशपरिग्रहा महासत्वाः । प्रख्यातकान्तियशसो भवन्ति सुभगाश्च लोकानाम् ॥१८॥ त्रिंशत्पड्भिः सहिता रश्मीनां यस्य जन्मसमये स्यात् । सार्धं भुनक्ति लक्षं स ग्रामाणां पुमान्नियतम् ॥ १९ ॥ त्रिंशन्मण्डलसहिता रश्मीनां सम्भवे भवेद्येषाम् । लक्षत्रितयपतित्वं ग्रामाणां जायते तेषाम् ॥ २० ॥ त्रिंशत्सनवा गावो जन्मनि येषां ग्रहोत्थिताः सन्ति । ते तोषितसकलजना भवन्ति पृथ्वीश्वराः पुरुषाः ॥ २१ ॥ दशजलधिगुणाया रश्मिसंख्या नराणां
दिशति पृथुलभूमेः पालकत्वं च तेषाम् । हतरिपुवनिताभिर्गीयतेऽतीव कीर्तिः
करुणरुदितगर्भेरुद्यदाक्रोशशब्दैः ॥ २२ ॥ शशिजलनिधिसंख्यै रश्मिभिः श्रूयते यो
जलनिधिरशनायाः पार्थिवः स्यात्स भूमेः ।
१ जन. २ धन. ३ सत्साधित. ४ पञ्चदशग्राम.
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सारावली । द्विजलधिरशनायाः पक्षवेदाख्यसंख्यै
स्त्रिजलधिरशनाया वह्निवेदैस्तथैव ॥ २३॥ वेदाब्धिसंख्यैश्च मयूखजालैर्जाता नरेन्द्राः खलु सार्वभौमाः । सौम्याः सुरब्राह्मणभक्तिशीला दीर्घायुषः सत्वयुता भवन्ति ॥ २४ ॥
परतः परतः किरणैर्वीपान्तरपालका निरुपसर्गाः । सर्वनमस्याः सुभगा महेन्द्रतुल्यप्रतापाश्च ॥ २५ ॥ चत्वारिंशद्युक्ता पञ्चादिभिरत्र यस्य सूतौ स्यात् । ज्ञेयं तस्यारिष्टं सर्वक्षितिपालकं मुक्त्वा ॥ २६ ॥ भुवनभरसहिष्णोः सर्वतः क्षीणशत्रो
स्त्रिदशपतिमहिम्नः सर्वलोकस्तुतस्य । विदधति विहगानां रश्मयोऽतीव दीप्ता
स्तुरगकृतिसमानाश्चक्रवर्तित्वमेव ॥ २७ ॥ अभिमुखकरप्रवाहाः फलं प्रयच्छन्ति पुष्टतरमाशु । तद्विपरीतं पुंसां पराङ्मुखास्तु ग्रहेन्द्राणाम् ॥ २८ ॥ जन्मसमये ग्रहाणां रश्मीनां संक्षये क्षयो भवति ।
वृद्धेवर्धिष्णूनामधमोत्तमता क्रमेणैव ॥ २९॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां रश्मिचिन्ता नाम षट्रस्त्रिंशोऽध्यायः ॥
सप्तत्रिंशोऽध्यायः। श्रीदेवकीर्तिराजा पञ्चमहापुरुषलक्षणान्नृपतीन् । कथयति यांस्तानहमपि कथयामि निराकुलीकृत्य ॥१॥ स्वक्षेत्रे च चतुष्टये च बलिभिः स्वोचस्थितैर्वा ग्रहैः __शुक्राङ्गारकमन्दजीवशशिजैरेतैर्यथानुक्रमम् । मालव्यो रुचकः शशोऽथ कथितो हंसश्च भद्रस्तथा
सर्वेषामपि विस्त॑रं मतिमतां संक्षिप्यते लक्षणम् ॥२॥ महीसुतात्सत्वमुदाहरन्ति गुरुत्वमिन्दोस्तनयाद्गुरोश्च ।
स्वरं सितास्नेहमिनेश्च वर्णं बलाबलं पूर्णलघूनि चैषाम्॥३॥ १ चत्वारिंशद्वित्ता. २ सर्वक्षितिपालकानुक्ताः (?) २ मति. ४ विस्तरान्मुनिमतात्संकल्प्य ते. ५ बलैः.
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सप्तत्रिंशोऽध्यायः ।
मृदुर्दयालुर्बहुदारभृत्यः स्थिरस्वभावः प्रियसत्यवादी । सुरद्विजोपास्तिकरः सहिष्णुर्भवेन्नरः सत्वगुणप्रधानः ॥ ४ ॥ शूरः कलाकाव्यनिधिः सुबुद्धिः स्त्रीभोगैसंसक्तमनाः प्रवीणः । अडम्बरी हास्यतिः प्रगल्भो गयाक्षविद्राजसिकः प्रदिष्टः ॥ ५ ॥ मूर्खोऽलसो वञ्चयिता परेषां क्रोधी विषण्णः पिशुनः क्षुधातः । आचारहीनो न शुचिर्मदान्धो लुब्धः प्रमादी तमसाभिभूतः ॥ ६ ॥ भारो भवति नृपाणां भूम्यर्थं भुञ्जतां मनुष्याणाम् । येषां भोगे त्वधं सकलमहीपालकास्ते स्युः ॥ ७ ॥ समाः खरैः सिंहमृदङ्गदन्तिनां रथौघभेरीवृपतोयदायिनाम् । समस्तभूमण्डलरक्षणक्षमा भवन्ति भूपा जितशत्रवो नराः ॥ ८ ॥ स्निग्धैर्भवन्ति भूपा जिह्वात्वग्दन्तनेत्रनखकेशैः । रूक्षैरेभिर्निःस्वाः स्वरैश्च ते जातके कथिताः ॥ ९ ॥ स्निग्धस्तेजोयुक्तः शुद्धो वर्णः प्रकीर्तितो नृपतेः ।
विपरीतः क्लेशभुजां सुखार्थसुखभागिनां मध्यः ॥ १० ॥ व्योमाम्बुवताग्निमहीस्वभावा जीवासुरेड्यार्किमहीजसौम्यैः । छायामरुत्पित्तकफस्वरूपा मिश्रैस्तु मिश्रा बलिभिर्नरस्य ॥ ११ ॥ शब्दार्थविन्यायपटुः प्रगल्भो विज्ञानयुक्तो विवृतास्यभागः । चित्राङ्गसन्धिः कृशपाणिपादो व्योमप्रकृत्या पुरुषोऽतिदीर्घः ॥ १२॥ लावण्यवाही बहुभारवाही प्रियादिभाषी दैवभोजनश्च ।
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चलखरूपो बहुमित्रपक्षः क्षोणीपतिर्नातिचिरप्रगल्भः ॥ १३ ॥ सत्वेन वायोः पुरुषः कृशाङ्गः क्षिप्रं च कोपस्य वशं प्रयाति । कृत्यैकबुद्धिभ्रमणे रतश्च दाता सितो भूपतिरप्रधृष्यः ॥ १४ ॥ शूरः क्षुधार्तश्चपलोऽतितीक्ष्णः प्राज्ञः कृशो गौरतनुर्विरोधी । विद्वान्सुपौणिर्बहुभक्षणश्च वह्निस्वभावः पुरुषोऽतिकायः ॥ १५ ॥ कर्पूरजात्युत्पलपुष्पगन्धो भुनक्ति भोगान् स्थिरलब्धसौख्यः । सिंहाभ्रघोषः स्थिरचित्तवृत्तिर्महीस्वभावः पुरुषः संसत्वः ॥ १६ ॥
१ दास २ निविष्टबुद्धिः ३ सक्तचित्तः क्रतुषु . ४ रतः ५ गोपोक्षविद्रा, वेदार्थविद्रा. ६ प्रसिद्धः ७ दात. ८ भूराश्य, भूत्यर्ध. ९ भाराध्यर्धं. ११ ध्रुव. १२ तृष्णः १३ सुमानी. १४ सुसत्वः.
१० कफानु.
१४ सारा०
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सारावली।
स्फटिकोपलसङ्काशा स्वच्छा गगनोत्थिता भवेच्छाया । निधिरिव पुंसां धन्या त्रिवर्गफलसाधनी सौम्या ॥ १७ ॥ स्निग्धा सिता च हरिता कान्ता मातेव सर्वसुखजननी । सौभाग्याभ्युदयशुभान्करोति जलसम्भवा छाया ॥१८॥
असितजलदकान्तिः पापगन्धोऽतिमूढो
मलिनपरुषकायः शोकसन्तापतप्तः । स वहति वधदैन्यव्याध्यनर्थार्थनाशान्
विचरति पवनोत्था यस्य कान्तिः शरीरे ॥ १९ ॥ कमनदहनदीप्तिश्चण्डदण्डोऽतिहृष्टः
प्रणतसकलशत्रुर्विक्रमाक्रान्तभूमिः । भजति मणिसुवर्ण सर्वकार्यार्थसिद्धिं
प्रशमितगतशोको वह्निजायां प्रभायाम् ॥ २०॥ आद्याम्बुसिक्तवसुधागरुतुल्यगन्धः
सुस्निग्धदन्तनखरोमशरीरकेशः ।। धर्मार्थतुष्टिसुखभाग्जनसम्प्रियश्च
च्छाया यदा भवति भूमिकृता मनुष्ये ॥ २१ ॥ शीताततॊ बहुभाषको द्रुतगति वस्थितः कुत्रचित्
शूरो मत्सरवान्रुजाकररुचिौँर्भाग्ययुक्तोऽनयः । दन्तान्खादति नातिसौहृदमतिर्गान्धर्ववेत्ता कृशो मित्राणां समुपार्जनेऽतिनिपुणः स्वप्ने च खे गच्छति॥२२॥ अपगतधृतिरूक्षश्मश्रुकेशः कृतघ्नः __ स्फुटितचरणहस्तः क्रोधनो नष्टकान्तिः । विलपति च निबन्धी वित्तसंक्षारकारी __ भवति पुरुष एवं मारुतैकप्रधानः ॥२३॥ दुर्गन्धी लघुतापनो विपुलधीः क्षिप्रप्रसादः पुनः
पीनो रक्तनखाक्षिपाणिचरणो वृद्धाकृतिर्दाहवान् ।
१ भवति. २ गदकोपो. ३ दन्तात्खादति. ४ घटित. ५ न निबन्ध, ६ चित्तसंहारकारी.
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सप्तत्रिंशोऽध्यायः। मेधावी युधि निर्भयो हिमरुचिब्रूते निगृह्यापरान् नो भीतः प्रणयं प्रयाति बहुभिः कुर्यान्नतानां प्रियम् ॥२४॥ स्वप्नेऽभिपश्यति सुवर्णदिनेशदीपान्
दावाग्निकिंशुकजपामणिकर्णिकारान् । रक्ताब्जषण्डरुधिरौषतटित्समूहान्
पित्ताधिको निगदितः खलु लक्षणज्ञैः ॥ २५ ॥ श्रीमान् श्लिष्टाङ्गसन्धिधृतिबलसहितः स्निग्धकान्तिः सुदेहो
ग्राही सत्वोपपन्नो हतमुरजघनध्वानघोषः सहिष्णुः । गौरो रक्तान्तनेत्रो मधुररसरुचिर्बद्धवैरः कृतज्ञः क्लेशे चास्यादखिन्नः सकलजनसुहृत्पूजको वा गुरूणाम् ॥२६॥
सुप्तस्तु पश्यति समुद्रनदीसरांसि
मुक्ताफलप्रकरहंससिताब्जशलान् । नक्षत्रकुन्दकुमुदेन्दुतुषारपातान्
श्लेष्माधिको मुनिवरैः कथितः क्रमेण ॥ २७॥ बलरहितेन्दुरविभ्यां युक्तैौमादिभिर्ग्रहैमिश्राः । न भवन्ति महीपाला दशासु तेषां सुतार्थयुताः ॥२८॥ न स्थूलोष्ठो न विषमवपुर्नातिरक्ताङ्गसन्धि
मध्ये क्षामः शशधररुचिर्हस्तिनादः सुगन्धः । सन्दीप्ताक्षः समसितरदो जानुदेशाप्तपाणि
लिव्योऽयं विलसति नृपः सप्तैतिर्वत्सराणाम् ॥२९॥ वक्रं त्रयोदशमितानि दशाङ्गुलानि
दैर्येण कर्णविवरं दशविस्तरेण । मालव्यसंज्ञमनुजः स भुनक्ति नूनं लाटान्समालवससिन्धुसपारियात्रान् ॥ ३० ॥
॥ इति मालव्ययोगफलम् ॥ दीर्घास्यः स्वच्छकान्तिर्बहुरुचिरबलः साहसावप्तिकार्य
श्चारुभ्रूनीलकेशश्चरणरणरतो मत्रविचोरनाथः । __१ नो. २ हस्तिसार. ३ वयः. ४ सप्ततिं वत्सराणाम्. ५ दाप्त.
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सारावली। रक्तश्यामोऽतिशूरो रिपुबलमथनः कम्बुकण्ठः प्रधानः क्रूरो भर्ता नराणां द्विजगुरुविनतः क्षामसज्जानुजङ्घः ॥३१॥ खट्वाङ्गपाशवृषकार्मुकवज्रवीणा
रेखाङ्कहस्तचरणश्च शताङ्गुलश्च । मत्राभिचारकुशलस्तुलया सहस्रं
मध्ये च तस्य कथितं मुखदैर्ध्यतुल्यम् ॥ ३२ ॥ विन्ध्याचलसह्यगिरीन् भुनक्ति सप्ततिसमा नगरदेशान् । शस्त्रानलकृतमृत्युः प्रयाति देवालयं रुचकः ॥ ३३॥
॥ इति रुचकः ॥ तनुद्विजास्यो द्रुतगः शशोऽयं शठोऽतिशूरो निभृतप्रतापः । वनाद्रिदुर्गेषु नदीषु सक्तः कृशोदयी नातिलघुः प्रसिद्धः ॥३४॥
सेनानाथो निखिलनिरतो दन्तुरश्चापि किंचित्
धातोर्वादे भवति निरतश्चञ्चलः कोशनेत्रः । स्त्रीसंसक्तः परधनगृहो मातृभक्तः सुजको
मध्ये क्षामो बहुविधमती रन्ध्रवेदी परेषाम् ॥३५॥ पर्यशङ्खहरिशस्त्रमृदङ्गमाला
वीणोपमा यदि करे चरणे च रेखाः । वर्षाणि सप्ततिमितानि करोति राज्यं प्रत्यन्तिकः क्षितिपतिः कथितो मुनीन्द्रैः ॥ ३६॥
॥ इति शशः ॥ रक्तास्योन्नतनासिकः सुचरणो हंसः प्रसन्नेन्द्रियो
गौरः पीनकपोलरक्तकरजो हंसस्वरः श्लेष्मलः । शङ्खाब्जाङ्कुशदाममत्स्ययुगलः खदाङ्गचापाङ्गद
श्चिह्नः पादकराङ्कितो मधुनिभे नेत्रे च वृत्तं शिरः ॥ ३७॥ सलिलाशयेषु रमते स्त्रीषु न तृप्तिं प्रयाति कामातः । षोडशशतानि तुलितोऽङ्गुलानि दैर्येण षण्णवतिः ॥ ३८॥
१ श्लक्ष्णः श्यामो. २ चक्रासि. ३ पीत. ४ मणः. ५ क्रत्वङ्गमालांघटैः.
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अष्टत्रिंशोऽध्यायः
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पातीह देशान्खलु शूर सेनान्गान्धारगङ्गायमुनान्तरालान् । जीवेदनूनां शतवर्षसंख्यां पश्चाद्वनान्ते समुपैति नाशम् ॥ ३९ ॥
॥ इति हंसः ॥
शार्दूलप्रतिमाननो द्विपगतिः पीनोरुवक्षःस्थलो लम्बापीन सुवृत्तबाहुयुगलस्तत्तुल्यमानोच्छ्रयः । कामीकोमलसूक्ष्मरोमनिकरैः संरुद्धगण्डस्थलः
प्राज्ञः पङ्कजगर्भपाणिचरणः सत्वाधिको योगवित् ॥४०॥ शङ्खासिंकुञ्जरगदाकुसुमेषुकेतुचक्राब्जलाङ्गलविचिह्नितपाणिपादः । यात्रागुरुद्विपमदप्रथमाम्बुसिक्तभूकुङ्कुमप्रतिमगन्धतनुः सुघोणः ॥४१ शास्त्रार्थ विद्धृतियुतः समसंगतभ्रुर्नागोपमो भवति चाथ निगूढगुह्यः । सत्कुक्षिधर्मनिरतः सुललाटशङ्खो धीरः स्थिरस्त्वसितकुञ्चितकेश भारः स्वतन्त्रः सर्वकार्येषु स्वर्जनप्रीणनक्षमी |
भुज्यते विभवश्चास्य नित्यं मंत्रिजनैः परैः ॥ ४३ ॥ भारस्तुलायां तुलितो यदि स्याच्छ्रीमध्यदेशेष्वधिपस्तदासौ । यख्यादिपुष्ठैः सहितः सभद्रः सर्वत्र राजा शरदामशीतिः ॥ ४४ ॥
॥ इति भद्रः ॥
॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां पञ्चमहापुरुषलक्षणं नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥
अष्टत्रिंशोऽध्यायः ।
विस्तरतो निर्दिष्टाः क्षितिपतियोगा विचित्रसंस्थानाः । भङ्गश्च भवति तेषां यथा तथा सम्प्रवक्ष्यामि ॥ १ ॥ कुजार्कजीवार्किभिरत्र नीचैर्द्वाभ्यां त्रिभिर्वैकतमे लिने | निशाकरे वृश्चिकराशिसंस्थे विशीर्यते राजकरो हि योगः ॥ २ ॥ अन्त्याष्टभादिभागे चरराश्यादिषु शशी यदा क्षीणः । एकेनापि न दृष्टो ग्रहेण भङ्गस्तदा नृपतेः ॥ ३ ॥
१ जीवेन्नवघ्नां दश. २ तोरण. ३ चाति, चापि ४ खजनं प्रति. ५ क्षमः. ६ अर्थि, मित्र. ७ कान्यकुब्जाधिपतिः ८ हस्त्यादि मुख्यैः.
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सारावली ।
सर्वे क्रूराः केन्द्रे नीचारिगता न सौम्ययुतदृष्टाः । शुभदा व्ययरिपुरन्ध्रे तदाऽपि भङ्गो भवेन्नृपतेः ॥ ४ ॥ लग्नं गणोत्तमोनं न खेचरैर्दृश्यते तदा भङ्गः । भवति हि नृपयोगानां दारिद्याय प्रजातस्य ॥ ५ ॥ घटोदये नीचगतैस्त्रिभिग्रहैर्बृहस्पतौ सूर्ययुते च नीचगे । एकोऽपि नोचे तु शुभेन सङ्गताः प्रयान्ति नाशं शतशो नृपोद्भवाः ६ शून्येषु केन्द्रेषु शुभैर्नवेन्दावस्तं गतैनचमथ प्रयातैः । चतुवीsपि गृहे रिपूणां प्रणश्यति क्ष्माधिपतेस्तु योगः ॥ ७ ॥ स्वांशे रखौ शीतकरे विनष्टे पाँपैश्च दृष्टे शुभदृष्टिहीने । कृत्वाऽपि राज्यं च वने मनुष्यः पश्चात्सुदुःखं लभते गताशः ॥ ८ ॥ शिशिरकिरणशत्रुर्लग्नॅपश्चन्द्रदृष्टः
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सहजरिपुमदस्था भानुभूपुत्रमन्दाः । शुभविरहित केन्द्रैरस्तगैर्वाऽपि सौम्यैर्नृपतिजननयोगा यान्ति नाशं क्षणेन ॥ ९॥
पञ्चभिर्निम्नगैः खेटैरस्तं यातैरथापि वा ।
प्रयान्ति विलयं योगा भूभुजां ये प्रकीर्तिताः ॥ १० ॥ उल्कायाः पतने चैव निर्घातव्यतिपातयोः । केतोच दर्शने चैव यान्ति नाशं नृपोद्भवाः ॥ ११ ॥ अन्यैः क्रूरोत्पातैस्त्रिशङ्कतारा यदोदयं यान्ति । सद्यः प्रयान्ति विलयं नृपयोगा भानुजो यदि विलग्ने ॥ १२ ॥ कर्तारो नृपतीनां गगनसदो युद्धकाङ्क्षिणो मलिनाः । रूक्षा जर्जरदेहा विघ्नं जनयन्ति राजयोगस्य ॥ १३ ॥ परनीचं गते चन्द्रे क्षीणो योगो महीपतेः । नाशमायाति राजेव दैवज्ञप्रतिलोमगः ॥ १४ ॥ तुलायां पद्मिनीबन्धुस्त्रिंशांशे दशमे स्थितः । हन्ति राज्यं यथा लोभः समस्तगुणसञ्चयम् ॥ १५ ॥ जूकस्य दशमे भागे स्थितः कमलबोधनः ।
१ त्वशुभेन. २ लग्नवच्चन्द्रदृष्टः.
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एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः। सहस्रं राजयोगानां मन्दमेव करोत्यसौ ॥ १६ ॥ स्वत्रिकोणगृहं केचित्स्योचं याताः स्वमन्दिरम् । अतिनीचे रविश्थैको न तेषां फलसंभवः ॥१७॥ गुरुमृगे विलग्नस्थो दुःखैः सन्तापयेन्नरम् । कामातमधनं वेश्या यद्वदिन्दुन चेत्स्वभे ॥ १८ ॥ एकेनापि शशाङ्को ग्रहेण केमद्रुमे यदि न दृष्टः ।। विघ्नयति राजयोगं मलिनाचारः प्रसूतः स्यात् ॥ १९ ॥ भिक्षामटति व्यायनींचदंगतैः सुदुःखितो मलिनः । सकलमहीभृत्पुत्रः परिभूतो जायते निःस्वः ॥ २० ॥ अत्यरिभवनं प्राप्तैः पञ्चादिभिरस्तगश्च गगनचरैः । नाशं प्रयाति राजा यदि रविचन्द्रौ न तुङ्गस्थौ ॥ २१ ॥ सचिवो दानवेन्द्रस्य नीचांशे समवस्थितः । संप्राप्तमतुलं राज्यं नरैर्हापयते ध्रुवम् ॥ २२ ॥ राजयोगाः समाख्यातास्तेषां भङ्गश्च दारुणः । परीक्ष्य यत्नतः प्राज्ञः फलं ब्रूयाद्बलाबलात् ॥ २३ ॥ कमलभवनबन्धुः कन्ययालिङ्गिताङ्ग
स्त्वलिनि कुजसुरेड्यौ चन्द्रमा मेषसंस्थः । न च यदि परिशेपैदृश्यते स्यात्स भूपः
प्रचलितगजमेघच्छादिताशानभोभ्रः ॥ २४ ॥ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां राजयोगभङ्गो नामाष्टत्रिंशोध्यायः ॥
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः। अस्मिन्नायुर्दाये यस्माद्धान्तः समस्तलोकोऽयम् । तस्मात्पूर्वागमतः कथयामि निराकुलीकृत्य ॥१॥ अशोद्भवं विलग्नात्पैण्ड्यं भानोनिसर्गजं चन्द्रात् । एतेषां यो बलवानेकतमस्तस्य कल्पयेदायुः ॥ २ ॥
लग्नदिवाकरचन्द्रास्त्रयोऽपि बलरिक्ततां यदा यान्ति । १ वश्य मिन्दुः.
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सारावली। परमायुषः स्वरांशं ददति खगा जीवशर्मोक्तम् ॥३॥ विलग्नादिकला भाज्या व्योमशून्ययमैः समाः । लभ्यन्तेऽर्कहताः शेषाः स्वमानगुणितांशकाः ॥ ४ ॥ होरा सर्वबलोपेता राज्ञितुल्या नियच्छति । वर्षाण्यन्यानि मासादिभागैस्त्रैराशिकात्पुनः ॥ ५॥ वर्गोत्तमे स्वभवने स्वद्रेक्काणे नवांशके । द्विगुणं सम्प्रयच्छन्ति त्रिगुणं वक्रतुङ्गयोः ॥६॥ यदा तूपचयः सर्वः स्वराश्यादिस्थितैग्रहैः । समस्तवर्गणा तत्र कर्तव्या शास्त्रचिन्तकैः ॥७॥ केन्द्रादिसंस्थिते खेटे सकलद्विगुणैककाः । शंसन्ति वर्गणां केचिन्नं च चूडामणेर्मतम् ॥ ८॥ बहुताडेंनसम्प्राप्तौ यां करोत्येकवर्गणाम् । वराहमिहिराचार्यः सा न दृष्टा पुरातनैः ॥ ९॥ रिपुराशौ त्रिभागोनम(नं निग्नगास्तगाः । दायं ग्रहाः प्रयच्छन्ति नास्तगौ सितभानुजौ ॥ १० ॥ सर्वमधू तृतीयांशश्चतुर्थः पञ्चमस्तथा । षष्ठश्चाशः क्षयं याति व्ययाद्वामं ग्रहे स्थिते ॥ ११ ॥ सौम्ये चार्धमितो याति नाशं बहुभिरेकगैः। एक एव बली हन्ति स्वायुषः सर्वदा ग्रहः ॥ १२॥ एकोनविंशतिर्भानोः शशिनः पञ्चविंशतिः । तिथयः क्षितिपुत्रस्य द्वादशैव बुधस्य तु ॥ १३ ॥ गुरोः पञ्चदशाब्दानि शुक्रस्याप्येकविंशतिः । विंशती रविपुत्रस्य पिण्डायुः खोचसंस्थितेः ॥ १४ ॥ खोचसिद्धो ग्रहः शोध्यः षड्राश्यूनो भमण्डलात् । स्वपिण्डगुणितो भक्तो राशिमानेन वत्सराः ॥१५॥ पूर्वोक्तं चिन्तयेत्सर्वं वक्र मुक्त्वारिराशिषु ।
१ हतात् , नताः. २ शेष. ३ नाम. ४ ताः खकाः. ५ स्थिते. ६ प्रहे. ७ गाम् , काम्. ८ तच्च ननु, तत्तु. ९ वर्गण. १० शुद्धो. ११ भादि.
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चत्वारिंशोऽध्यायः।
१६५ क्षयस्तत्र प्रकर्तव्यो नीचेऽधं वृद्धिरुचगे ॥१६॥ लग्नदायोंऽशतुल्यः स्यादन्तन्रे चानुपाततः । तत्पतौ बलसंपन्ने राशितुल्यं स्वभाधिपे ॥१७॥ लग्नांशलिप्तिका हत्वा प्रत्येकं विहगायुषा । भक्त्वा मण्डललिप्ताभिर्लब्धं वषाद्विशोधयेत् ॥ १८ ॥ स्वायुषो लग्नगे क्रूरे लब्धस्यार्धं शुभेक्षिते । एवमेव प्रकर्तव्यं जीवशर्मोक्तचन्द्रजे ॥ १९ ॥ विंशतिरेकं द्वितयं नव धृतिरिह विंशतिश्च पञ्चाशत् । वर्षाणामपि संख्याः सूर्यादीनां निसर्गभवाः ॥ २० ॥ मीनोदयेंऽशे नवमे पञ्चविंशतिलिप्तिके ।। गवि सौम्यैः स्वतुङ्गस्थैः शेपैरायुः परं भवेत् ॥२१॥ कर्किलग्ने गुरुः सेन्दुः केन्द्रगौ बुधभार्गवौ । शेपैस्त्रिलाभषष्ठस्थैरमितायुर्भवेन्नरः ॥ २२ ॥ द्विघ्नाः षष्ठिनिशाः पञ्च परमं नरदन्तिनाम् । द्वात्रिंशद्वाजिनामायुश्छागादीनां तु षोडश ॥ २३ ॥ खरोष्ट्रयोः पञ्चवर्ग एकोऽपोह्यं वृषादिषु । शुनां तु द्वादश प्रोक्तं गणितं परमायुषम् । तत्तत्परं प्रमाणेन हत्वैषामायुरादिशेत् ॥ २४ ॥
पथ्याशिनां शीलवतां नराणां __ सद्वृत्तभाजां विजितेन्द्रियाणाम् । एवंविधानामिदमायुरत्र
चिन्त्यं सदा वृद्धमुनिप्रणीतम् ॥ २५ ॥ ॥इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां आयुर्दायो नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥
चत्वारिंशोध्यायः। आयुषो येन यद्दत्तं सा दशा तस्य कीर्तिता ।
खदोषगुणयोगेन स्वदशासु फलप्रदा ॥१॥ १ युक्ते, पृक्ते. २ वर्षादि. ३ परमे. ४ भव. ५ एका. ६ वृद्धि समाप्नोति मुनिप्रवादः, निसं सदा वृद्धमुनिप्रवादः.
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१६६
सारावली।
दिवारात्रिप्रसूतस्य रविशुक्रपुरःसराः । मणित्थस्त्वाह तज्ज्ञानं फलसाम्ये न तद्दशाः ॥२॥ लग्नार्कशीतरश्मीनां यो बली तस्य चाग्रतः । तत्केन्द्रादिस्थितानां च दशाः स्युः सत्यभाषिते ॥३॥
होरादिनेशशशिनां प्रबलो भवेद्य___स्तत्कण्टकादिषु गताः कथिता दशेशाः । पूर्वा दशाऽतिबलिनः सदृशेऽब्दवृद्धेः
साम्ये भवेच्च शरदां प्रथमोदितस्य ॥४॥ लग्नार्कशीतरश्मीनां यदि पूर्णवलं भवेत् । तदा सत्यमतं श्रेष्ठमन्यदा त्वपरा दशा ॥५॥ स्वोचखराशिनिजभागसुहृगृहस्थाः ___ सम्पूर्णवीर्यरुचिरा बलिनः स्वकाले । मित्रोच्चभागसहिताः शुभदृष्टियुक्ताः
श्रेष्ठां दशां विदधति खवयःसु खेटाः ॥ ६ ॥ नीचशत्रुगृहं प्राप्ताः शत्रुनिम्नांशसूर्यगाः । विवर्णाः पापसंबन्धा दशां कुर्युरशोमनाम् ॥ ७ ॥ तुङ्गाच्युतस्य हि दशा सुहृदुच्चांशेऽवरोहिणी मध्या । नीचाद्रिपुनीचांशे ग्रहस्य चारोहिणी कष्टा ॥ ८॥ सविता दशाफलानां पाचयिता चन्द्रमाः प्रपोषयिता । राशिविशेषेणेन्दोरतः फलोक्तिर्दशारम्भे ॥९॥ मूलदशायामिन्दोः कन्यासु प्रेक्षिते चन्द्रे । पण्याङ्गनाभिरनिशं समागमं प्राहुरिह यवनाः ॥ १० ॥ सौम्यस्त्रीधनलाभः कुलीरगेन्दौ भवेद्दशारम्भे । कन्यां दूषयति नरः कुजभवने हन्ति वा युवतिम् ॥११॥ विद्याशास्त्रज्ञानं मित्रप्राप्तिं करोति बुधराशौ । शौकेऽन्नपानमतुलं सौख्यं चन्द्रे विनाशं च ॥१२॥ सुखधनमानाज्ञाप्तिं जीवगृहे दिशति शीतांशुः ।
परिणतवयसमरूपां सौरगृहे वर्धकी वाऽपि ॥ १३॥ १ साम्यं न सा दशा. २ पूर्णवलो. ३ चन्द्रेऽरिनाशं. ४ वञ्चकी.
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चत्वारिंशोऽध्यायः ।
१६७ दुर्गारण्यनिवासं कर्षणगृहकर्मसेतुकर्मान्तम् ।। सिंहे शशी प्रकुरुते स्त्रीपुत्रविवादमरतिं च ॥ १४ ॥ बन्ध्वर्थक्षयरोगाः कुजसौराभ्यां बुधेन पाण्डित्यम् । दृष्टे तद्योनिसमैः शेषैश्चन्द्रे निशाफलोगः ॥ १५ ॥ पाकस्वामिनि लग्ने सुहृदां वर्गेऽथवाऽपि सौम्यानाम् । श्रेष्ठदशायां सूतिर्लग्नादुपचयगृहस्थैर्वा ॥ १६ ॥ मित्रोचोपचयस्थाने त्रिकोणे सप्तमे तथा । पाकेश्वरात्स्थितश्चन्द्रः कुरुते स्वफलां दशाम् ॥ १७ ॥ विपरीते स्थिते चन्द्रे दशादौ पर्यवस्थिते । स्वोचगस्यापि खेटस्य दशा न प्रतिपूजिता ॥ १८॥ शत्रुनीचनवांशेषु शस्ते राशौ ग्रहस्य च । दशा मिश्रफला रिक्ता विबलस्य दशा मता ॥ १९ ॥ द्रेक्काणे च दशा मूर्तेः पूजिता मध्यमाधमा । चरे मिथप्रतीपा च स्थिरे पापेष्टमध्यमाः ॥ २० ॥ चन्द्रावनेयसोमजसितजीवदिवाकरार्किहोराणाम् । क्रमशो दशापरिग्रह इष्टो नैसर्गिकश्चैव ॥ २१ ॥ वोचस्वकालबलिनः सम्पूर्णबलस्य वा निसर्गभवा । उत्तमशुभफलदासौ ग्रहस्य नित्यं दशा भवति ॥ २२॥ स्वराशौ स्वत्रिकोणे च स्वांशे च शुभमध्यमा । स्वोच्चाभिलाषिणश्चैव मित्रराश्यादिसंस्थिते ॥ २३॥ शुभाधमदशा ज्ञेया विपरीतमतस्थिते । अनेनैव विधानेन विज्ञेया पापदा दशा ॥२४॥ भानुदशायां लभते नवौषधावविषदौस्थ्यनरर्थ्यात् । गिरिदन्तचर्मवह्निक्रौर्य नरेन्द्राहवाद्यैश्च ॥ २५ ॥ नृपतेरर्धावीप्तिं धैर्य भूयस्तथोद्यमं तैक्ष्ण्यम् ।
१ स्फूर्तिः. २ गृहस्थो, गृहस्थे. ३ सुफलां, सफलां. ४ विपरीतमतश्चन्द्रे ५ द्रेकाणैश्च, द्रेकाणस्य. ६ मिश्रे. ७ अनुपम. ८ स्याद्र. ९ पौरुषमेधावविषयकालनैरर्थान्, १० द्वैरंभूयो.
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सारावली । ख्यातिं प्रतापवृद्धिं श्रेष्ठत्वं भूपतित्वं च ॥ २६ ॥ भृत्यार्थचोरचक्षुःशस्त्राग्युदकक्षितीश्वराद्वाधाः । सुतपत्नीबन्धुजनैर्निपीडितः स्याच पापरतिः ॥ २७ ॥ क्षुत्तृष्णार्तिः शोको हृत्पीडा पैत्तिकास्तथा रोगाः । गावच्छेदो भवति हि सूर्यदशायामनिष्टायाम् ॥ २८ ॥ चन्द्रदशायां वित्तं स्त्रीसंगममार्दवात्पथि विहारात् । जलतुहिनक्षीररसैरिक्षुविकारैस्तथा क्रीडा ॥ २९ ॥ द्विजमन्त्राणां लब्धिः पुष्पाम्बरसेवनं मधुरता च । अर्थविनाशमकस्माद्भपसदो (?) द्वेष्यतां लभते ॥ ३० ॥ तैष्ण्यादवाप्तसिद्धिः पूजां प्राप्नोति गुरुनृपाभ्यां च । मेधाधृतिपुष्टिकरी चन्द्रदशा शोभना नित्यम् ॥ ३१ ॥ कुरुते भयं कुलस्य च चन्द्रदशा स्वकुलविग्रहं कष्टम् । निद्रालस्यं स्त्रीणां भयजननी शोकदा रतिदा ॥ ३२ ॥ भौमदशायां लभते नृपाग्निचोरप्रयोगरिपुमर्दैः । व्यालविषशस्त्रबन्धनसुतैक्ष्ण्यकूटैश्च धनलाभम् ॥ ३३ ॥ क्षित्याजाविकतांत्रिकस्वर्णावश्यादिभिस्तथा द्यूतैः ।।
आसवकषायकटुकै रसैश्च धनधान्यभाग्भवति ॥ ३४ ॥ मित्रकलनविरोधो भ्रातृसुतैर्विग्रहश्च तृष्णा च । मूर्छा शोणितदोषः शाखाच्छेदो व्रणश्चापि ॥ ३५॥ परदाररतिद्वेष्यो गुरुसत्यानामधर्मनिरतश्च । पित्तकृतैरपि दोरैरभिभूतो मानवो भवति ॥ ३६॥ सौम्यदशायां प्राप्ते मित्रादाब्याद्धनस्य सम्प्राप्तिः । दीक्षितनृपते ताद्वणिग्जनाच्चापि सम्भवति ॥ ३७॥ वेसरमहीसुवर्ण शुक्तिद्रव्यं यशः प्रशंसा च । दूत्यं सौख्यमतुल्यं सौभाग्यं मतिचयख्यातिः ॥ ३८॥ धर्मक्रियासु सिद्धिर्हास्यरतिः शत्रुसंक्षयो भवति ।
गणितालेख्यालिपीनां कौतुकभागी सदा पुरुषः ॥ ३९ ॥ १ ताम्रकसुवर्ण. २ ताक्षी. ३ पुत्रान्.
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चत्वारिंशोऽध्यायः।
पीडां धातुत्रितयात्पारुष्यं बन्धनं तथोद्वेगम् । मानसशोकं वाऽपि बुधस्य कष्टा दशा कुरुते ॥४०॥ त्रिदशपतिगुरुदशायां मत्री नृपनृत्यनीतिभिर्वित्तम् । मानगुणानां लब्धिरतिप्रतापः सुहृद्विवृद्धिश्च ॥४१॥ कान्तासुवर्णवेसरगजाश्वभोगी सदा पुरुषः । माङ्गल्यपौष्टिकानां लाभो द्विषतां विनाशश्च ॥४२॥ लाभो भवति नराणां प्रीतिः सद्भूमिपैः सार्धम् । जनताया नृपवक्रात्पण्याग्राद्गुरुजनाच्च धनलाभः ॥ ४३ ॥ व्यजनातपत्रसुमनोवस्त्रध्वजपेयभक्षणादीनाम् । गात्रश्वथपृथुशोकं पङ्गुत्वं गुल्मकर्णरोगांश्च । पुंस्त्वविनाशं मेदःक्षयं नृपतितो भयं समाप्नोति ॥४४॥ शुक्रदशायां विजयः क्ष्माभवनविलासशयनपत्नीनाम् । माल्याच्छादनभोजनयशःप्रमोदो निधिप्राप्तिः ॥ ४५ ॥ गेयरतिः स्त्रीसङ्गो नृपतेः कृषितो धनस्य सम्प्राप्तिः । ज्ञानेष्टसौख्यसुहृदां मन्मथयोग्योपकरणानाम् ॥४६॥ कुलगुणवृद्धर्वादो यानासनसंभवानि पापानि । स्त्रीनृपतिकृतावश्यं लोकविरुद्धैः सह प्रीतिः ॥४७॥ सौरर्दशां प्रपन्नः प्राप्नोति पुमान्खरोष्ट्रमहिषाद्यान् । कुलटां जरदङ्गी वा कुलित्थतिलकोद्रवादींश्च ॥ ४८॥ वृन्दग्रामपुराणामधिकारभवं च सत्कारम् । लोहत्रपुकादीनां स्वकीयपक्षस्थिरास्पदं चैव ॥४९॥ वाहननाशोद्वेगस्त्वरतिः स्त्रीस्वजनविप्रयोगश्च । युद्धेष्वपजयदोषो मद्यद्यूतोद्भवो मरुत्कोपः ॥ ५० ॥ पुण्येष्वसिर्द्धिकलह बन्धनतन्द्रीश्रमं तथा व्यङ्गम् । भृत्यापत्यविरोधो भवति च कष्टा यदा दशा सौरेः॥५१॥ सौम्ये पापफलं प्रोक्तं सामान्यं स्वदशास्विदम् । विशेषेण प्रवक्ष्यामि प्रत्येकं फलभेदतः ॥ ५२॥
१ भोगो. २ विशेषतः क्षीणः. ३ चमत्कारं. ४ सिद्ध.
१५ सारा.
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सारावली ।
स्वोच्चनीच त्रिकोणक्षं केन्द्रं शत्रुगृहं तथा । पञ्चप्रकारसंयुक्ता दशा भानोः प्रकीर्तिताः ॥ ५३ ॥ राज्यं ददाति विपुलं दशा रखेर्लग्नसंस्थितस्य नृणाम् । केन्द्रस्थितस्य दद्यात्कटिंगल नेत्र प्रकोपमरिगस्य ॥ ५४ ॥ नीचस्य दशा भानोरक्ष्णोर्नाशं ज्वरं शिरोरोगम् । बन्धनमन्याश्च रुजः कुष्ठामयदर्शनं चिह्नम् ॥ ५५ ॥ स्वोच्चप्राप्तस्य दशा ददाति राज्यं सहस्रकिरणस्य । तुरगातपत्रचामरकरीन्द्रसंवर्धितं सम्यक् ॥ ५६ ॥ सवितुर्दशा च पुसो विदधाति पुरा त्रिकोणसंस्थस्य । उत्तमविषयपतित्वं विध्वस्ताशेषदुःखस्य ॥ ५७ ॥ शत्रुगृहेऽर्कदशायां नयनविनाशो भवेच्च कुब्जत्वम् । ज्वालावऋजरोगा भवन्ति कृमयः परिभवाश्च ॥ ५८ ॥ अष्टमगतस्य भानोर्दशा क्षयं नयति सर्वगात्रं च । भ्रमयति देशाद्देशं प्रमापयत्यपि च विक्लिष्टम् ॥ ५९ ॥ सामान्यतश्च षोढा चन्द्रदशा भिद्यते समासेन । स्वोच सुहृच्छत्रुगृहे नीचे क्षीणे प्रपूर्णे च ॥ ६० ॥ तत्रोच्चदशा राज्यं नीचदशा मरणमरिदशा बन्धम् । कथयति नलिनीशत्रोर्मित्रदशा स्वजनसम्प्राप्तिम् ॥ ६१ ॥ क्षीणेन्दुदशायोगे चिह्नान्येतानि लक्षयेद्विद्वान् । उदरामयज्वरशिरोनयनोत्कोपप्रतिश्रयाच्चापि ॥ ६२ ॥ बलिनः परिपूर्णस्य च शशिनः कुरुते सदा दशा पुंसाम् । दयितासहस्रपरिवृतमन्तःपुरमुत्तमस्त्रीकम् ॥ ६३ ॥ भवति नरस्य भ्रंशो विषयस्यान्तःपुरस्य भृत्यानाम् । अष्टमचन्द्रदशायां म्रियते च स्वजनपरिभूतः ॥ ६४ ॥ यत्रतृणकाष्ठगोमयवंशकरञ्जीफलोदकाजीवी । भवति कदन्नकुचेली नृपोऽपि भृतकोऽरिगृहदशायाम् ॥ ६५॥ लग्नगृहगस्य हि दशा मण्डललाभं तथोच्चगस्यापि । केन्द्रस्थितस्य कुरुते धनवाहनदेशसम्प्राप्तिम् ॥ ६६ ॥
१ स्वरा . २ कुनयः .
१७०
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एकचत्वारिंशोऽध्यायः ।
१७१
केष्टदशा व्यसनकरी मरणं च करोति नैधनस्थदशा । अस्तमितग्रहपाको बन्धनमात्रेण पीडयति ॥ ६७ ॥ वक्रोपगस्य हि दशा भ्रमयति च कुलालचक्रवत्पुरुषम् । व्यसनानि रिपुविरोधं करोति पापस्य न शुभस्य ॥ ६८ ॥ रिक्तातिरिक्तनिम्नातिनिम्न रिपुह तिरिपुगृहदशासु । पृथ्वीपतिरपि भूत्वा स्वभृत्यभृत्यो भवेत्पुरुषः ॥ ६९ ॥ देशत्यागो व्याधिभ्रंशोत्थानं मुहुर्मुहुः कलहः । बन्धनमरातिजनितं रिपुराशिगतस्य हि दशायाम् ॥ ७० ॥ महितकरिगलितमदजलसेकक्ष्मापीठवारितरजस्कः । राजा कष्टसहायो रिक्तदशायां ध्रुवं भ्रमति ॥ ७१ ॥ अङ्गप्रत्यङ्गानां छेदं विदधाति षष्ठशत्रुदशा | कोणद्यूनारिदशा निधनारिदशा शिरश्छेदम् ॥ ७२ ॥ रिपुभयविदेशगमनं बन्धनरोगादिपीडनं भवति । नीचस्थ ग्रहपाके राजाभिभवो ध्रुवं पुंसाम् ॥ ७३ ॥ चिन्ता स्वाप्नानुभवैः परिणमति फलं विहीनवीर्यस्य । पञ्चमहापुरुषोक्ताध्यायांस्तांस्तान्नियोजयेदत्र ॥ ७४ ॥ आदौ दशासु फलदः शीर्षोदयराशिसंस्थितो विहगः । उभयोदये च मध्ये स्वान्त्ये पृष्ठोदये च नीच ॥ ७५ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां मूलदशाफलं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
एकचत्वारिंशोऽध्यायः ।
अर्धमेकस्थितो भागं त्रिभागं सुतधर्मयोः । सप्तमे सप्तमं भागं चतुर्थं चतुरेंश्रयः ॥ १ ॥ मूलं दशाधिनाथस्य कृत्वांशं स्वगुणैर्ग्रहः । करोत्यन्तर्दशां सत्यां बली हरति भागशः ॥ २ ॥ शुभस्य शुभदः पूर्णः क्रूरस्याशुभदो भवेत् । केन्द्रादिविधिना चान्ये केचित्पाकक्रमेण तु ॥ ३ ॥
१ षष्ठदशा . २ व्यसनानि. ३ तुच्छातितुच्छ. ४ चतुरश्रये. ५ भागभाक्.
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सारावली ।
सत्योक्तं तृच्यते कश्चिद्ददाति बलवान्ग्रहः । नित्यं पाठक्रमात्कार्यः शेषास्तु परिपाकदाः ॥ ४ ॥ भागाः सदृशाः सहिता दशाब्दपिण्डस्य भागहारोऽयम् । प्रत्यंशताडितः स्यात्पृथक्पृथक्त्वन्तरदशाः स्युः ॥ ५ ॥ एकर्क्षसंस्थितदशा प्रदिशति बन्धं स्वनाशं वा । जनयति कण्टकसहिता त्रिकोणसंस्थस्य सुखमतुलम् ॥ ६ ॥ एकद्वित्रिचतुर्णां नक्षत्रे रिपुदशा ग्रहाणां स्यात् । व्याधिक्लेशविवादान्नृपतेश्च भयं तदां जनयेत् ॥ ७ ॥ दारमरणं च जनयति सप्तमगान्तर्दशा प्रणाशं वा । शत्रोर्दासीकरणं परपुरुषेणोपभोगं वा ॥ ८ ॥ अन्तर्दशा ग्रहाणामष्टमधानि प्रमापयेत्पुरुषम् । कुरुते च धनविनाशं शत्रुगता बन्धनं च विध्वंसम् ॥ ९ ॥ अन्तर्दशा यदा ( स्यात् ) द्वित्रिचतुर्णामेकराशिसंस्थानाम् । बन्धनविनाशदैन्ये विदधात्यशुभं ग्रहाणां तु ॥ १० ॥ चतुर्थस्थानसंस्थस्य ग्रहस्यान्तर्दशा भवेत् । मित्रारोग्यकरं नित्यं सौख्यमानविवर्धनम् ॥ ११ ॥ शमयति रिपुप्रतापं नीरोगत्वं करोति धनलाभम् । भानुदशायां चन्द्रः प्रविशंस्तन्नास्ति यन्न शुभम् ॥ १२ ॥ विद्रुमसुवर्णमणयः सङ्ग्रामजयः प्रचण्डता पुंसः । असृजो दशाप्रवेशे सूर्यदशायां भवति सौख्यम् ॥ दविचर्चिकाद्यैः पाम्ना कुष्ठैश्च गर्हितशरीरः । तरणिदशायां प्रविशति बुधो यदा स्यादरेवृद्धिः ॥ १४ ॥ व्याधिभिररिभिर्व्यसनैः पापैश्च विमुच्यते तथाऽलक्ष्म्या । अनुयाति धर्मपदवीं जीवस्यान्तर्दशा यदा भानोः ॥ १५ ॥ शिरसो रुग्गलरोगरिछद्रं सहसा ज्वरः शूलम् । तपनदशायां शुके देशत्यागो भवेदरिभिः ॥ १६ ॥ आदित्यस्य दशायां शनैश्चरान्तर्दशा यदा भवति । नृपपरिभूतो दीनो विपक्षसार्थेन हतशक्तिः ॥ १७ ॥ १ चान्तर. २ तथा. ३ दैन्यं. ४ करी. ५ वर्धनीम्.
१३ ॥
१७२
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एकचत्वारिंशोऽध्यायः।
१७३ क्षयरोगभयं शौर्य नृपप्रभावं सदा विभवम् । चन्द्रदशायां पुंसो भानुः कुरुतेऽर्थलाभं च ॥ १८॥ पित्तासृग्वह्निभयं क्लेशं रोगं करोति वक्रदशा । चन्द्रदशायां च भयं प्रमोषणं चैव चोरैश्च ॥ १९॥ चन्द्रदशायां ज्ञदशाप्रवेशने चिह्नमुत्तमो लाभः । गजवाजिनां धनानां सम्प्राप्तिः सौख्यमतुलं च ॥ २० ॥ चन्द्रदशायां प्राप्ता त्रिदशेड्यदशा करोति धनलाभम् । यत्नोपात्तमकस्माद्वस्त्रालङ्कारविविधहस्त्यश्वम् ॥ २१ ॥ तुहिनकरस्य दशायां प्रविशत्यन्तर्दशा यदाऽऽस्फुजितः । जलयानहारभूषणबहुपत्नीभिः समागमं कुरुते ॥ २२ ॥ स्वजनायासवियोगं रोगाभिभवं तथा महाव्यसनम् । चन्द्रदशायां सौरिः करोति निःसंशयं पुंसाम् ॥ २३ ॥ चण्डं साहसनिरतं नरेन्द्रसंग्रामपूजितं धांच्याम् । विविधधनागमयुक्तं भौमदशायां करोति रविः ॥ २४ ॥ विविधधनागमलाभं सौख्यं बहुमित्रसम्प्राप्तिम् । वक्रदशायां चन्द्रः करोति मुक्तामणिप्रभृतीन् ॥ २५॥ दिशति भयं शत्रुभ्यो वाजिगजानां प्रमोषणं चोरैः । दाहं च यदा प्रविशति भौमदशायां बुधस्य दशा ॥२६॥ वऋदशायां च गुरोः सुचरितकरणेन शुभधर्मा । नृपतिर्विशुद्धचेताः पुण्यानि करोत्यनन्तानि ॥ २७ ॥ रुधिरदशायां शुक्रप्रवेशने भवति सङ्गरभयार्तिः । व्याधिव्यसनायासैर्धनापहारः प्रवासैश्च ॥ २८॥ व्यसनानि व्यसनानां भवन्त्युपर्युपरि जनविनाशश्च । वक्रदशायां रविजे प्रविशति चान्तर्दशायां हि ॥२९॥ इन्दुसुतस्य दशायां प्रविशति सूर्यो यदा तदा चिह्नम् । कनकाश्वविद्रुमगजान् विदधाति श्रियमकस्माच ॥३०॥ प्रविशन्ती चन्द्रदशा बुधस्य कण्डूं करोति कुष्ठं च ।
क्षयरोगमङ्गभङ्गं गजाद्भयं वाहनविनाशम् ॥ ३१ ॥ १ प्रमापणम्. २ धन्यं.
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१७४
सारावली । रिपुरोगपापमुक्तः पुण्यानि करोति भूपतेर्मत्री । जीवे चरति दशायां बुधस्य पुरुषो भवेन्नियतम् ॥ ३२॥ मस्तकशूलनिरोधैर्नानाक्लेशैश्च युज्यते जन्तुः। इन्दुसुतस्य दशायां भौमस्यान्तर्दशा यदा भवति ॥३३॥ गुरुविबुधातिथिभक्तो वस्त्रालङ्कारपुष्पगन्धरुचिः । इन्दुसुतस्य दशायां शुक्रस्यान्तर्दशा यदा भवति ॥ ३४ ॥ पण्डमुखकामसेवी विलुप्तधर्मार्थभोगसुतवित्तः । भवति नरोऽत्र दशायां बुधस्य मन्दो यदा चरति ॥३५॥ रिपुभयकलहैमुक्तः प्रयाति गुरुतां नरेन्द्रस्य । विक्रमसाहससौख्यैर्जीवदशायां रवौ चरति ॥ ३६॥ पत्नीसहस्रभर्ता जितरोगरिपुः परोन्नतिं लभते । प्रकटयति राजचिह्नं चन्द्रदशा गुरुदशायां हि ॥ ३७॥ तीक्ष्णः परोपतापी शूरो रणलब्धकीर्तिधनः । सौख्यमनन्तं लभते जीवदशायां कुजे चरति ॥ ३८॥ वेश्यामद्यव्यसनैः परिभूतो भवति निर्धनः सोऽपि । सौम्ये जीवदशायां विलुप्तधर्मो भवेत्पुरुषः ॥ ३९ ॥ व्याधिविनाशं सौख्यं मित्रैः सह सङ्गतिं तथा पूजाम् । मातापित्रोभक्तिं जीवदशायां बुधे लभते ॥ ४० ॥ रिपुभयविनाशदुःखैरभिभूतो ब्राह्मणोपजीवी च । जीवदशायां शुक्र प्रविशति नित्यं भवेत्पुरुषः ॥४१॥ वेश्यामद्यधूतैरभिभूतो महिषखरयुक्तः । सौरे जीवदशायां विलुप्तधर्मों भवेत्पुरुषः॥४२॥ गण्डोदराक्षिरोगैः क्षितिपतितो बन्धनादिभिस्तप्तः । शुक्रदशायां सूर्ये विचरति नूनं भवेत्पुरुषः ॥४३॥ अन्तर्दशा दशायां सितस्य शशिनो यदा भवति चिह्नम् । नखदशनशिरोरोगैः सह भवति च कामिलारोगः ॥ ४४ ॥ पित्तामुक्कृतरोगो भूलाभः संश्रयो नृपतितश्च ।
शुक्रदशायां भौमे मन्दोत्साहः पुमान्भवति ॥ ४५ ॥ १ विरोधैः. २ निर्धनो भवति. ३ बुधो.
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एकचत्वारिंशोऽध्यायः ।
शुक्रदशायां पुंसां बुधस्य चान्तर्दशा यदा भवति । युवतिकृतं धनलाभं सौख्यं च मनोरथं लभते ॥ ४६॥ अन्तर्दशा दशायां भृगोर्गुरोर्धर्मशीलसम्पत्तिम् । विदधाति विषयराज्यं पुंसां धनरत्नमतिसौख्यम् ॥ ४७ ॥ वृद्धस्त्रीभिः क्रीडां पुरनगरगणाधिपत्यमरिनाशम् । शुक्रदशायां सौरिः करोति बहुमित्रसंयोगम् ॥ ४८॥ धनपुत्रदारनाशं भयमतुलं संदधाति पुरुषस्य । रविपुत्रस्य दशायां सूर्यस्यान्तर्दशा न सन्देहः ॥४९॥ स्त्रीमरणं हरणं वा बन्धुवियोगं पुनः पुनः कलहम् । अन्तर्दशा दशायां शनेः शशाङ्कस्य विदधाति ॥ ५० ॥ देशभ्रंशं व्याधिं दुःखानि करोत्यनेकरूपाणि । अन्तर्दशा दशायां रविजस्य महीसुतस्य यदा ॥ ५१ ॥ सौभाग्यसौख्यविजयप्रमोदसत्कारमानधनलाभम् । सौरिदशायां सौम्यो विदधात्यन्तर्दशाप्राप्तः ॥ ५२ ॥ अनुयाति शिष्टपदवीं ग्रामादिकलत्रसौख्यसंपन्नः । रवितनयस्य दशायां प्रविशति जीवे सदा पुरुपः ॥५३॥ वर्धयति मित्रपक्षं भिनत्ति शोकान्यशः प्रकाशयति । सौरदशायां शुक्रः पत्नीधनविजयलाभकरः ॥ ५४ ॥ नीचोच्चादिविभेदेन शत्रुमित्रबलाबलम् ।। अन्तर्दशासु मतिमांश्चिन्तयेच प्रयत्नतः ॥ ५५ ॥ अन्तर्दशा शुभायां मूलदशायां शुभा यदा भवति । भवति तदा बहुसौख्यं धनलब्धिरतीव पुरुषाणाम् ॥५६॥ रविकिरणमुषितदीप्तेर्दशा ग्रहस्य मलिनां तनुं कृत्वा । मानयशोर्थविलासप्रतापरूपोद्यमान्हन्ति ॥ ५७ ॥ होरा जन्माधिपतेः शत्रुदशायां नरोऽतिमूढमतिः । राज्याच्युतो विपक्षैरभिभूतोऽन्यं समाश्रयति ॥ ५८॥ व्योमलग्नप्रपन्नस्य दशायां राज्यमाप्नुयात् ।।
नरेन्द्राणां समायोगे सुवीर्यस्याथवा पुनः ॥ ५९॥ १ मनोरमं. २ संपत्तिम्. ३ धिपयोः. ४ विमूढ.
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१७६
सारावली।
लग्ने जीवः सितबुधयुतः सप्तमस्थोऽर्कपुत्रः
कर्मप्राप्तो दहनकिरणो भोगिनां जन्म कुर्युः । केन्द्रे सौम्या न शुभगृहगा यत्र पापाभिधाना
- यद्येवं स्याच्छबरनृपतिर्जायते वित्तवांश्च ॥६०॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अन्तर्दशाफलो नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः॥
द्विचत्वारिंशोऽध्यायः। क्रूरदशायां क्रूरः प्रविश्य चान्तर्दशां यदा कुरुते । पुंसः स्यात्सन्देहस्तदाऽरियोगः सदैव महान् ॥ १ ॥ क्षितितनयस्य दशायां रविजस्यान्तर्दशा यदा विशति । बहुकालजीविनामपि मरणं निःसंशयं कुरुते ॥२॥ क्रूरराशौ स्थितः पापः षष्ठे स्यान्निधनेऽपि वा। तत्स्थितेनारिणा दृष्टः स्वपाके मृत्युदो ग्रहः ॥३॥ विलग्नाधिपतेः शत्रुर्लग्नस्यान्तर्दशां गतः ।
करोत्यकस्मान्मरणं सत्याचार्यः प्रभाषते ॥ ४ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां दशारिष्टफलं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः। प्रवेशे बलवान्खेटः शुभैा सुनिरीक्षितः । सौम्याधिमित्रवर्गस्थो मृत्यवे न भवेत्तदा ॥१॥ मूलं दशाधिनाथस्य विबलस्य दशा यदा । बलिनः स्यात्तदा भङ्गो दशारिष्टस्य तद्भुवम् ॥ २॥ युद्धे च विजयी तस्मिन्ग्रहयोगे शुभे यदि ।
दशायां न भवेत्कष्टं स्वोच्चादिषु च संस्थितः ॥३॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां दशारिष्टभङ्गो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥
१ पुंसां. २ चार्यप्रभाषिते. ३ वा सं. ४ मूला. ५ शुभो.
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चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः। अत्युग्रमतिद्रव्यं महान्तमपि भास्करः स्वतुङ्गस्थः । मृष्टाशनाम्बराढ्यं सुभूषणं शीतगुः कुरुते ॥१॥ तेजस्विनं कुतनयो दुष्प्रसहं गर्वितं प्रवासरतम् । मेधाविनं कुलाढ्यं सुनिपुणवाक्यं बुधः खोचे ॥ २ ॥ विख्यातं गुरुराढ्यं विद्वांसं सत्कृतं कुशलम् । स्वोच्चे भृगोश्च तनयो विलासहास्यप्रगीतनृत्तरतम् ॥३॥ खोचस्थो रवितनयो नृपलब्धनियोगमभिजनयेत् । ग्रामपुराधिपतित्वमरण्यकधान्यं कुनारिलाभं च ॥ ४ ॥ भानुस्त्रिकोणसंस्थो धनवन्तं मुख्यमतिनिपुणम् । भोक्तारं गुणवन्तं शशी प्रसूतौ त्रिकोणगः पुरुषम् ॥५॥ वक्रोऽपि तस्करपतिं शूरं खलु निर्दयं चापि । सौम्यो विनोदशीलं जयिनं च स्वत्रिकोणगः कुरुते ॥६॥ जीवः पुनर्हितकरं महत्तरं नयविदं सुखोपेतम् । दानवपूज्यो जनयेद्रामपुरवरिष्ठमाढ्यमतिसुभगम् ॥ ७ ॥ आत्मत्रिकोण आर्किर्धनतृप्तं कुलयुतं शूरम् । तीक्ष्णमयूखः कुरुते महोग्रमत्युच्चकर्माणम् ॥ ८॥ धर्मरतं हिमरश्मिर्मनस्विनं रूपवन्तमात्मः । आढ्यं प्रचण्डमचलं भौमः कुरुते स्वराशिगः पुरुषम् ॥९॥ शशितनयोऽपि विधत्ते वल्गुकथं पण्डितं वाऽपि । काव्यश्रुतिज्ञमाढ्यं गुरुचेष्टं वाक्पतिः स्वराशिस्थः ॥१०॥ दानवपूज्यः कुरुते कृषीवलं स्फीतवित्तं च । कुरुते शनैश्चरोऽपि च मान्यमदुःखं स्वराशिगः पुरुषम् ॥११॥ मित्रगृहेऽर्कः ख्यातं स्थिरसौहृदमर्थदातारम् । मित्रर्भगः शशाङ्को यतस्ततो लब्धसौख्यबहुमानम् ॥१२॥ अङ्गारकोऽपि कुरुते सुहृद्धनारक्षणासक्तम् ।
शशिजः सुहृगृहगतः करोति चातुर्यहास्यधनवन्तम् ॥ १३॥ १ विद्वांसं भूपसत्कृतं प्रसवे. २ धनवन्तं. ३ शुभचेष्टं.
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१७८
सारावली। वचसामधिपः पूज्यं सतां च सुविशिष्टकर्माणम् । मित्रगृहे भृगुतनयः सुहृत्प्रियं देयितवित्तमतिशूरम् ॥१४॥ भास्करसूनुः कुरुते परान्नभोजिनमधर्मकर्मरतम् । नीचे सविता कुरुते प्रेष्यं बान्धवजनावधूतं च ॥ १५॥ हिमरश्मिरल्पपुण्यं रोगिणमपि दुर्भगं लोके । नीचस्थः क्षितितनयोऽनर्थव्यसनोपतप्तमतिनीचम् ॥ १६ ॥ कुरुते हिमकरपुत्रः क्षुद्रं स्वज्ञातिबन्धुवैरं च । नीचे गुरुः प्रकुरुते मलिनं प्राप्तावमानमतिदीनम् ॥ १७॥ असुरदयितोऽस्वतत्रं प्रणष्टदारं विषमशीलम् । कोणो विपन्नशीलं विगर्हिताचारमर्थरहितं च ॥१८॥ कुरुते शत्रुगृहेऽर्को निःस्वं विषयप्रपीडितं चापि । तुहिनमयूखः कुरुते हृद्रोगिणमरिगृहे नरं सततम् ॥१९॥ बन्धारिभङ्गभाजं दीनं विकलं च दुर्भगं भौमः। अज्ञानमतिविहीनं बुधोऽरिभे नैकदुःखमतिदीनम् ॥२०॥ क्लीबं गुरुर्विधत्ते नेयहीनं धनविहीनं च । शुक्रोऽरिगृहे भृतकं कुतत्रमतिदुःखितं जनयेत् ॥२१॥ भास्करसुतोऽपि कुरुते मलिनं व्याध्यादिशोकसन्तप्तम् । स्वेषूच्चभागेषु फलं समग्रं स्वक्षेत्रतुल्यं भवनांशकेषु । नीचारिभागेषु जघन्यमेव मध्यं फलं मित्रगृहांशकेषु ॥२२॥ द्वावुच्चगौ जनयतो धनिनं कीर्त्यान्वितं सदा पुरुषम् । नगरारक्षकमाढ्यं चमूपतिं च त्रयः प्रथितम् ॥ २३ ॥ आढ्यं नृपात्तकीर्ति चत्वारो राजधर्मसंयुक्तम् । ख्यातं नृपतीष्टतमं पञ्चानेकविधवृद्धकोशं च ॥ २४ ॥ षड् ग्रहाः स्वोचगाः कुर्युपतिं पुरुषं सदा । प्रदानौनसम्पन्नं बहुवाहनमण्डितम् ॥ २५ ॥
खोचं याताः सर्वे समुद्रपर्यन्तमेदिनीनाथम् । . जनयन्ति चक्रवर्तिनमवनीशं जातकं चिन्त्यम् ॥ २६ ॥ . १ दयितमिह सूतम्. २ बद्धवैरं च. ३ बन्ध्वरिभङ्गं भौमो विकलं वा दुर्भगं लोके. ४ आज्ञामात्र. ५ बधिरनरं. ६ आब्यो. ७ समं. ८ गुण.
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चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ।
द्वाभ्यां त्रिकोणसंस्थाभ्यां कुटुम्बी कुलवर्धनः । श्रेष्ठः प्रख्यातकीर्तिश्च ग्रहाभ्यां भुवि जायते ॥ २७ ॥ महाधनस्त्रिभिश्चैव गणग्रामाधिनायकः । आढ्यो नृपाप्तसत्कारश्चतुर्भिर्लोकसंमतः ॥ २८ ॥ आरक्षकः प्रधानः सेनापुरनगर भूप कोशानाम् । पञ्चग्रहै त्रिकोणे भवति कुटुम्बी सुबहुसौख्यः ॥ २९ ॥ विद्यादानधनौघैः समन्वितो भवति परेिव पुमान् । राज्यं प्रशास्ति नियतं गोपालकुलेऽपि संजातः ॥ ३० ॥ स्वत्रिकोणगतैः सर्वैर्भवेजातो महीपतिः । वसुस्त्रीबलसम्पन्नो विद्याशास्त्रविशारदः ॥ ३१ ॥ द्वौ स्वगृहस्थौ कुरुतः कुलाधिकं बन्धुपूजितं धन्यम् । वंशकरमर्थसहितं स्थानयशोभिस्त्रयो विहगाः ॥ ३२ ॥ ख्यातं विशिष्टचेष्टं श्रेणीपुरनगरपं च चत्वारः । पञ्चावनीश्वरसमं प्रभूतगोभूमि युवतिसम्पन्नम् ॥ ३३ ॥ प्रवृद्धशब्दं धुतिकोशखजनवाजिमानाढ्यः । भवति नृपवंशजातो नियतं पृथिवीपतिः स्वर्क्षे ॥ ३४ ॥ राजाधिनृपं स्वर्क्षे जनयन्ति जितारिपक्षमिह सप्त । मित्राश्रयं सुवृत्तं द्वौ मित्रगृहसमाश्रितौ कुरुतः ॥ ३५ ॥ बान्धवसुहृदुपकर्ता त्रिभिर्विशिष्टो भवेदुणैः ख्यातः । ब्राह्मणदेवाराधनपरश्चतुर्भिर्धुरन्धरः ख्यातः ॥ ३६ ॥ राजोपसेवकः स्यात्पञ्चभिराढ्यो नरेश्वरः कर्ता । विस्तीर्ण भोगवाहनवसुमान्पचिर्नरेन्द्रतुल्यः स्यात् ॥ ३७ ॥ सर्वैर्मित्रर्क्षगतैर्बह वाहन भृत्यसाधनो राजा । द्वाभ्यां नीचे नीचश्चिन्ताबह्वाग्रहसमेतः ॥ ३८ ॥ मूर्खोऽधर्मरतोऽस्वस्त्रिभिर्ग्रहैरध्वगो नरः प्रेष्यः । आलस्य नष्टचेष्टश्चतुर्भिरिह नीचगैर्भृतकः ॥ ३९ ॥
गृहः प्रभिन्नदारः पञ्चभिरिह कथ्यते नरो दासः । खासभयश्रमतप्तः षङ्गिनींचो भवेत्क्षामः ॥ ४० ॥ १ राज्यं. २ धर्माभिरतः ३ नीचगैरध्वगः ४ अमृतः ५ घात.
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सारावली । भिक्षुस्त्यक्ताशितभुग्भवति पुमान्विगतसर्वस्वः । नीचैः सप्तभिरखिलैर्दिक् चिरविधृताम्बरः सूतः ॥४१॥ द्वावरिभवनसमेतौ क्लेशवतां नित्यविग्रहरुचीनाम् । अतिपरिभूतानामपि नृणां जन्मप्रदौ कथितौ ॥४२॥ विविधव्ययदुःखभुजां त्रयः श्रमोत्पन्ननष्टवित्तानाम् । चत्वार इष्टयोषित्पुत्रार्थविनाशजांधितप्तानाम् ॥४३॥ पञ्चारिगृहे विहगा इष्टव्यसनाभिघाततप्तानाम् । षड्रोगाङ्कितवपुषां दुःखवतां चैव जन्मकराः ॥४४॥ सप्तारिभे ग्रहेन्द्रा बीभत्सकुले प्रसूतानाम् । शय्याच्छादनभोज वञ्चितकानां भवन्ति सदा ॥४५॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां उच्चादिचिन्तनं नाम
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥
पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः । स्त्रीणां जन्मफलं तुल्यं पुंभिः सार्धं यदुच्यते । विशेषस्तत्र यो दृष्टः कथ्यते विस्तरेण सः ॥१॥ वैधव्यं निधने चिन्त्यं शरीरं जन्मलग्नतः ।। सप्तमे पतिसौभाग्यं पञ्चमे प्रसवस्तथा ॥ २ ॥ प्रकृतिस्था लग्नेन्द्वोः समभे सच्छीलरूपाढ्या। भूषणगुणैरुपेता शुभवीक्षितयोश्च युवतिः स्यात् ॥३॥ पुरुषाकृतिशीलयुता दुःशीला दुःखिता विषमराशौ । क्रूरैर्वीक्षितयुतयोः पापाः स्त्री स्याद्गुणैीना ॥ ४ ॥ लग्नेन्द्वोर्यो बलवांस्त्रिंशांशेऽधिष्ठितैः फलं क्रमशः । भूसुतभार्गवबोधनसुरगुरुमार्तण्डदेहभवैः ॥ ५ ॥ कन्यैवारगृहे दुष्टा भौमत्रिंशांशके भवेत् । कुचरित्रा तथा शौके समाया बोधनेऽबला ॥६॥
जैवे साध्व्यर्कजे दासी ज्ञः कौजे तु कापटी । १ रोग. २ गपीडितानां. ३ अल्पा. ४ वाञ्छि. ५ भाक.
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पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ।
शौके प्रकीर्णकामाच बौधे गुणवती भवेत् ॥ ७ ॥ जैवे सती शनौ क्लीबा दुष्टा कौजे सितर्क्षगे । शौके ख्यातगुणा बौधे कलासु निपुणा मता ॥ ८ ॥ जैवे गुणान्विता मन्दे पुनर्भूश्चन्द्रभे ततः । स्वच्छन्दा कथिता कौजे शौक्ले च कुलपांसना ॥ ९ ॥ बौधे शिल्पान्विता नारी जैवे बहुगुणा स्मृता । पतिघ्नी चार्कभे कौजे वाचाला भार्गवे सती ॥ १० ॥ बौधे पुंश्चेष्टिता जैवे राज्ञी मन्दे कुलच्युता । कौजे बहुगुणार्य शौक्रे वाग्व्यसनी तथा ॥ ११ ॥ वौधे विज्ञानसंयुक्ता जैवे नैकगुणा स्मृता । मन्दे चात्परतिः प्रोक्ता दासी कौजे तथार्किभे ॥ १२ ॥ सुप्रज्ञा च भवेच्छौ बुधे दुःस्था खला तथा । जैत्रे पतिव्रता नित्यं मन्दे नीचानुसेविनी ॥ १३ ॥ शुक्रासितौ यदि परस्परभागसंस्थौ
शौक्रे च दृष्टिपथगावुदये घटांशे । स्त्रीणामतीव मदनग्निमदः प्रवृद्धः
१८१
स्त्रीभिः शमं च पुरुषाकृतिभिर्लभन्ते ॥ १४ ॥ शून्येऽस्ते कापुरुषो बलहीनः सौम्यदर्शनविहीने | चरमे प्रवासशीलो भर्ता क्लीवो ज्ञमन्दयोश्च भवेत् ॥ १५ ॥ उत्सृष्टा सूर्येऽस्ते कुजे च विधवा नवोदैव । कन्यैवाशुभदृष्टे शनैश्चरे वृद्धतां याति ॥ १६ ॥ अशुभ क्षीणेऽस्तगते त्यक्ता पत्या भवेदशुभदृष्टे । क्रूरैर्विधवास्तगतैर्भवति पुनर्भूस्तथा मिश्रः ॥ १७ ॥ अन्योन्यभागगतयोः सितकुजयोरन्यपुरुषसक्ता स्यात् । द्यूने शिशिरर्करे च स्याद्युवतिरनुज्ञया भर्तुः ॥ १८ ॥ सौरारगृहे तद्वच्छशिनि सशुक्रे विलग्नगे जाता । मात्रा साकं कुलटा क्रूरग्रहवीक्षिते भवति ॥ १९ ॥
१ चाप्यसती. २ वह्निगदः ३ वृद्धिः ४ समं. ५ र्यभेत. ६ करे वा.
१६ सारा०
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सारावली।
छूने तु कुजनवांशे शशिना दृष्टे सरोगयोनिः स्त्री। समृगुभागे चारुश्रोणी पतिवल्लभा भवति ॥ २०॥ द्यूने वृद्धो मूर्खः सौरगृहे स्यान्नवांशके वाऽथ । स्त्रीलोलः क्रोधपरः कुजभेऽथ नवांशके भर्ती ॥ २१ ॥ शुक्रगृहेऽथ नवांशेऽतिरूपसौभाग्यसंयुतो भर्ता । नैपुणविज्ञानयुतस्तथैव बौधेऽथवा नवांशे वा ॥ २२ ॥ मदनातॊ मृदुचित्तः शशिभे ऽथनवांशके भर्ता । गुरुसितभागेऽप्यथवा गुणवान्विजितेन्द्रियो भवति ॥२३॥ अतिकर्मकृदतितीक्षणो रविभेऽप्यथवांशके भवति भर्ता । सहमभवनोपतर्नित्यं स्त्रीणां समवधार्यम् ॥ २४ ॥ हर्यान्विता सुखपरा लग्ने सितचन्द्रयोर्बुधेन्द्रोश्च । सुखिता कलासु कुशला गुणशतसहिता विनीता स्यात् ॥२५॥ शुक्रबुधयोर्विलग्ने रुचिरा सुभगा कलासु निपुणा च । दास्यम्बरसौख्ययुता शुभेषु पापेषु विपरीता ॥ २६ ॥ पापेऽहमे तु विधवा निधनाधिपतिनवांशके यस्य । तस्य दशायां मरणं वाच्यं तस्याः शुभैर्द्वितीयस्थैः ॥ २७ ॥ कन्यालिवृषभसिंहे शिशिरमयूखेऽल्पपुत्रां स्यात् ।
भवने शुभयुते निरीक्षिते वा तथैव ग्यात् ॥ २८ ॥ रिक्त बुझेन्दुभृगुजै रविजे च मध्ये
शवलेन सहितैर्विषमक्षलग्ने । जाता भवेत्पुरुपिणी युवती सदैव
पुंश्चेष्टिता विचरति प्रथिता च लोके ॥ २९ ॥ क्रूर जामित्रगते नवमे यदि खेचरो भवति नूनम् । आप्नोति प्रव्रज्यां पापग्रहसम्भवामबला ॥३०॥ बलिभिर्बुधगुरुशुक्रः शशाङ्कसहितैर्विलग्नगैः समभे ।
स्त्री ब्रह्मवादिनी स्यादनेकशास्त्रार्थकुशला च ॥ ३१ ॥ १ धार्यः. २ पुत्रता तस्याः. ३ रिक्तैर्बु. ४ प्रव्रज्यामाप्नोति नवमे ग्रहसंभवे नैव.
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षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ।
१८३ जन्मकाले विवाहे च चिन्तायां वरणे तथा ।
चिन्त्यं स्त्रीणां तु यत्प्रोक्तं घटते तत्पतिष्वपि ॥ ३२ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां स्त्रीजातकफलो नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः। शिखिजलशस्त्रज्वरजस्त्वामयतृटू क्षुत्कृतो भवेन्मृत्युः । सूर्यादिभिर्निधनगैः परदेशे पथि स्वके चराद्यैश्च ॥ १॥ यो बलयुक्तो निधनं पश्यति तद्धातुकोपजो मृत्युः । तत्संयुक्तस्तनुजो बहुभिर्बलिभिर्बहुप्रकारः स्यात् ॥ २॥ सूर्याङ्गारकयोः खबन्धुगतयोः शैलाग्रपातोद्भवो
मृत्युभूतनयेन्दुभानुतनयैः कूपे खसप्ताम्बुगैः । पापालोकितयोहिमोष्णकरयोः कन्यास्थयोवन्धतो
लग्ने सूर्यशशाङ्कयोस्तिमियुगे तोये सदा मज्जतः ॥३॥ कर्किणि मन्दे मकरे चन्द्रे मृत्युदरोदरकृतः स्यात् । पौपान्तःस्थे चन्द्रे कुजभवने शस्त्रवह्निभवः ॥ ४ ॥ कन्यायां पद्मिनीशत्रुः पापमध्यगतः सदा । रक्तोत्थशोषजं मृत्युं करोति ध्रुवमेव हि ॥ ५॥ सौरः शुभयोर्मध्ये शेशी रज्वग्निपातजम् । कुर्यान्मृत्यु न सन्देहश्चाणक्यवचनं तथा ॥६॥ नवमसुतयोरशुभयोः पापग्रहदृष्टयोर्भवेन्मृत्युः। द्रेक्काणैः पाशभुजगनिगलैश्छिद्रेऽथवा गुस्याम् ॥ ७॥ मीनोदये दिनकरे चन्द्रे पापान्वितेऽस्तगे मेषे । स्त्रीहेतुकं हि मरणं स्वमन्दिरे स्याद्वदन्त्येके ॥८॥ रुधिरे सुखेऽथवा वियति यमे क्षीणचन्द्रसंयुक्तैः । पापैत्रिकोणलग्ने शूलपोतस्य निर्दिशेन्मरणम् ॥ ९॥
१ यदा. २ मज्जति. ३ पापांशस्थे. ४ स्तदा. ५ रज्वम्युत्पातजं शशी. ६ सुते. ७ युक्त.
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सारावली । हिबुकेऽर्के वियति कुजे क्षीणेन्दुयुतेऽर्कजेन संदृष्टे । काष्ठेनाभिहतः सन्मियते जातो न सन्देहः ॥ १० ॥
क्षीणेन्दुभौमरविचन्द्रजसूर्यपुत्रैः _ छिद्रास्पदोदयसुखैलगुडाहतस्य । मृत्युर्वियन्नवमलग्नसुतस्थितैस्तै
धूमाग्निबन्धनशरीरनिकुट्टनैः स्यात् ॥ ११ ॥ हिबुकास्तकर्मसहितैः कुजभानुशनैश्चरैर्भवति मृत्युः । आयुधहुतभुग्भूपतिकोपप्रभवः सदा पुंसाम् ॥ १२ ॥ कर्माम्बुवित्तसंस्थैः कुजेन्दुमन्दैः क्षतः क्रिमिकृतोऽन्तः । खस्थेऽन्दुकुजे वा सुराप्रपानप्रतापकृतः ॥१३॥ सप्तमभवने भौमे क्षीणेन्दुदिवाकरार्किमिर्लग्ने । मरणं जातस्य वदेद्यत्रोत्पीडनभवमवश्यम् ॥ १४॥ तुलायां रुधिरे याते कुजः भास्करे स्थिते । चन्द्रे मन्दगृहं प्राप्ते विण्मध्ये मरणं भवेत् ॥१५॥ गलितेन्दुभूपुत्रैर्गतैयॊमाष्टबन्धुषु । विण्मध्ये तु भवेन्मृत्युः सिद्धसेनः प्रभाषते ॥१६॥ बलिना कुजेन दृष्ट क्षीणेन्दौ रन्ध्रगेऽर्कजे मृत्युः। गुल्ममहावेदनया क्रिमिदाहायुधकृतो भवति ॥ १७ ॥ रवौ सरुधिरे छूने निधने रविसंभवे । रसातलस्थे हिमगौ मृत्युः पक्षिकृतो भवेत् ॥ १८॥ लग्नच्छिंद्रत्रिकोणेषु रव्यारार्किनिशाकरैः । मृत्युः स्याच्छैलपातेन शस्त्रकुड्यादिपाशजः ॥ १९ ॥ उदयनवांशाधिपतेः समानभूमौ वदन्ति यवनेन्द्राः । ग्रहयोगेक्षणकाद्यैः परिकल्प्यं चान्यदपि तज्ज्ञैः॥ २० ॥ उदितांशसमो मोहः शेषेण निरीक्षिते द्विगुणितः स्यात् । त्रिगुणः शुभैश्च दृष्टे समस्तमुनयो व्यवस्यन्ति ॥२१॥
१ सायुध. २ प्रपात. ३ व्योमाष्टनवबन्धुषु, व्योमास्तबन्धुषु. ४ मित्र. ५ वक्र. ६ स्वेशेन.
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षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ।
२८५ उदयाद्वाविंशतिमद्रेक्काणो भवति कारणं मृत्योः । तस्याधिपतिभवो वा निर्याणं सूचयेत्स्वगुणैः ॥ २२ ॥ मेषाद्ये द्रेक्काणे क्रूरग्रहवीक्षिते च संयुक्ते । अम्ब्वहिविपपित्तकृतं मरणं नृणां समादेश्यम् ॥ २३ ॥ विद्याद्वितीयभागे मरणं जलकृमिहिमारण्यैः । एवं तृतीयभागे तटाककूपप्रपाताद्वा ॥ २४ ॥ करभाश्वखरोष्ट्रेभ्यो मृत्युइँयो वृषस्याये । पित्ताग्निवातचोराद्वितीयभागे वृषस्यैव ॥ २५॥ विद्यात्तृतीयभागे यानासनवाजिपातकृतम् । पुंसां भवति हि मरणं रणशिरसि महास्त्रकृतमेव ॥ २६ ॥ आये मिथुनत्र्यंशे कासश्वासोद्भवो भवति । मृत्युभहिषविषाद्याद्वितीयभागे च संनिपाताद्वा ॥ २७ ॥ वनवासिचतुश्चरणात्पर्वतनांगाद्गणात्तारण्यात् । भवति हि मृत्युः पुंसामन्ते भागे तु जुतुमस्य ॥ २८ ॥ ग्राहण मद्यपानात्कण्टकदोषेण वा तथा स्वप्नात् । भवति हि कर्कटकाये मृत्युर्नृणां तृतीयभागे तु ॥ २९ ॥ अभिघाताद्विषपानान्मध्ये त्र्यंशे भयं समादिष्टम् । विहंगप्रमेहगुल्मासृक्तन्द्रीदोषेण च तथान्त्ये ॥ ३० ॥ सलिलविषपादरोगात्सिंहाये त्र्यंशके भवेत्पुंसाम् । मध्ये तृतीयभागे जलामयकृतो वनोद्देशे ॥ ३१ ॥ विषशस्त्रयोगदोषैरभिशापाद्वा तथा च पाताद्वा । अन्त्ये सिंहव्यंशे भवति हि मृत्युन सन्देहः ॥ ३२ ॥ आये कन्याच्यंशे मस्तकरोगात्तथानिलान्मृत्युः। व्यालगिरिदुर्गवेनजो मध्ये भूपात्मजादथवा ॥ ३३ ॥ करभखरशस्त्रतोयादतिखातात्स्त्रीकृतान्नपानाद्वा । अन्त्ये कन्याच्यंशे नृणां मृत्युः सदा दृष्टः ॥३४॥
१ अधिपोद्भवो. २ मृत्युर्विषवृकमहिषा. ३ पतनाद्गजा. ४ रण्यैः. ५ मन्त्ये. ६ अभिशापा. ७ प्लीह. ८ ल्मस्रसनदोषेण च तथान्त्ये. ९ श्वसन. १० न्मृत्युः. ११ ऽनलात्. १२ वनदुर्गवक्षो.
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सारावली आये वणिकत्रिभागे युवर्तिचतुष्पान्निपातदोषेण । मध्ये तु जठररोगैरन्ये व्यालाम्बुजातेभ्यः ॥३५॥ आद्येऽलिनस्त्रिभागे विषशस्त्रस्त्रीकृतान्नपानभवः । मध्ये तु वस्त्रभारस्रंसनरोगैर्भवति मृत्युः ॥ ३६ ॥ अन्ये तृतीयभागे लोप्टकपाषाणनितवेदनया । भवति हि मरणं ह्यथवा नृणां जङ्घास्तिभङ्गकृतम् ॥ ३७॥ चापस्याये व्यंशे गुदानिलसमुद्भवैर्विविधरोगैः । मध्ये विषगुरुदोषैरनिलकृतैर्वा भवेन्मृत्युः ॥ ३८ ॥ अन्त्ये तृतीयभागे जलमध्ये तत्समुत्थितैर्वाऽपि । मृत्युर्तृणां दृष्टो जठरामयदोषसंभूतः ॥ ३९ ॥ मकराये द्रेक्काणे नृपहिंसाव्याघ्रकारणान्मृत्युः । ऊरुविनाशादथवा जलचरसत्वाद्विषैकशफसीत् ॥४०॥ दहनास्त्रतस्करेभ्यो ज्वरादमानुषविभेदनान्मध्ये । अन्त्ये मकरन्यंशे स्त्रीणां मृत्युः सदा दृष्टः ॥४१॥ कुम्भे प्रथमत्र्यंशे स्त्रीभ्यस्तोयैस्तथा जठररोगैः । ज्ञेयो मृत्युर्नृणां पर्वतगहनद्विपादेर्वा ॥४२॥ मध्ये स्त्रीकृतदुःखैर्गुह्यजरोगैर्भवति मृत्युः । अन्त्ये मिथुनचतुष्पदमुखरोगकृतैर्भवेत्युंसाम् ॥४३॥ अंशे मीनयुगाद्ये गुल्मग्रहणीप्रमेहयुवतीभ्यः । जङ्घार्जलजै रोगैर्गजग्रहकृतैः समादिशेन्मृत्युम् ॥ ४४ ॥ नौभेदाजलमध्ये झषे गाणद्वितीयजातानाम् । अन्त्ये भवति हि मरणं कुत्सितरोगैर्न सन्देहः ॥ ४५ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां निर्याणफलं नाम
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥
१ चतुष्पदनिपान. २ रसा. ३ घातेन ४ जठरज.
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सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।
१८७ सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः। जन्मविधावज्ञाते प्रश्नोत्थविकल्पतो भवेत्प्रष्टुः । जन्मसमये नराणामतः प्रयत्नेन संचिन्त्यम् ॥१॥ दशविधचिह्नात्वा जातं पुरुषं प्रसाधयेल्लग्नम् । अत एव प्रथमतरं तानि समस्तान्यहं वक्ष्ये ॥ २ ॥ मेषविलग्ने जातः प्रचण्डरोषो विदेशगमनरतः । लुब्धः कृशोऽल्पसौख्यः सेयॆः स्खलिताभिधायी च ॥३॥ पित्तानिलोष्ठरोगैरभितप्ततनुः क्रियापटुर्भीरुः । मेषः धर्मपरश्चलोऽल्पमेधाः परार्थनाशकरः ॥ ४॥ भोक्ता ख्यातः कुनखो भ्रातृविहीनस्तथा पितृत्यक्तः । शीघ्रगतिर्मन्दसुतो विविधार्थयुतः सुशीलश्च ॥ ५॥ कुकुलोद्भतां सुशीलां स्वजनेऽपि च निघृणां स्त्रियं लभते । अपकृष्टोदयसौख्यः कुधर्मसंवर्धितार्थश्च ॥ ६॥ वृषभविलग्ने शूरः क्लेशसहिष्णुः सुखी रिपुनिहन्ता । बाल्ये संचययुक्तः पृथुपीनललाटघोणगण्डोष्ठः ॥ ७॥ उद्युक्तकर्मसुभगः पितुर्जनन्याः सुशर्मकृद्दाता । विविधव्ययोऽतिरौद्रः कफानिलात्मा पिता कुमारीणाम्॥८॥ स्वजनावमर्दनपरो धर्मनिवृत्तोऽबलाप्रियश्चपलः । भोजनपाननिगृनुर्नानाम्बरभूषणैकमतिः ॥९॥ मिथुनविलग्ने जातः प्रियदारो भूषणप्रदानरतिः । पूंज्यवचः सुवचस्वी द्विमातृको रिपुविनीतः स्यात् ॥१०॥ गान्धर्वशिल्पकुशलः श्रुतिशास्त्रार्थप्रहाँस्यकाव्यमतिः। सौम्योऽथ मण्डनरुचिर्मदवश्यः स्यात्सतां सत्यः ॥ ११ ॥ असहिष्णुरनिष्टसुतः शठोऽल्पबन्धुश्च संस्थितो भवति । हीनाधिकाङ्गपादो विनीतवृत्ताक्षिपक्ष्मा च ॥ १२ ॥
१ नोऽथ. २ समयो. ३ संचिन्त्यः. ४ विधि. ५ पित्तानिलोष्ण. ६ रतः. ७ विशीलां. ८ व्यङ्गा वजनेऽघृणां. ९ नियुक्तो. १० पूज्यतमः, ११ भास्य.
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.. सारावली।
चण्डाकारो वश्यो दारुणरिपुपक्षसंहरणशीलः। भूरत्नकाञ्चनोर्मिकजलार्थभागी भवेत्पुरुषः ॥ १३ ॥ कर्किणि लग्ने भीरु कनिवासश्चलप्रज्ञः। मेधान्वितोऽतिधुर्यो गुह्यरुगातॊ निहन्ति रिपून् ॥ १४ ॥ अन्तर्विषमः कामी द्विजदेवात्यर्चनप्रदानरतः । धर्मरतः कफबहुलो युवतितर्नुसंस्थितो गुणैर्नियतम् ॥१५॥ कन्यानुजो न बन्धुदृष्टाल्पसुतो विगर्हितकुटुम्बः । बहुमतकुत्सितयुवतिः परार्थभागी दृढग्राही ॥ १६ ॥ परदेशगः सुधीरः साहसकर्मा जलाधिगतवित्तः । स्त्रीभूषणाम्बरसुखैोगैश्च समन्वितो भवति ॥ १७ ॥ सिंहोदये प्रसूतो मांसरुचिर्नृपतिलब्धमानधनः । धर्माच्युतोऽप्यसंस्थः कुटुम्बकार्येषु रतवामः ॥ १८ ॥ सिंहस्य समानमुखः स्थितिमान्गाम्भीर्यसत्वसंयुक्तः। धृष्टोऽल्पवचा लुब्धः परघातकरो बुभुक्षावान् ॥ १९॥ पर्वतवनानुसारी सुरोषणो दृढसुहृत्प्रमादी च । दुष्प्रसहो हतशत्रुः ख्यातसुतः प्रणतसाधुजनः ॥ २० ॥ कृष्यादिकर्मधनवान्व्यापाररतो बहुव्ययो भवति । वेश्या नटी नियमनाद्भार्यातश्चातिदन्तरोगाच ॥ २१ ॥ षष्ठे साधुत्वयुतः शिक्षागान्धर्वकाव्यशिल्पपटुः । प्रियवल्गुकथाभापी प्रणयी दानोपचाररतः ॥ २२ ॥ कन्याविलाससत्वस्थितिर्दयावान्परस्खभोक्ता च । भोक्ता देशभ्रमणः स्त्रीप्रकृतिर्विनयवाक् कितवः ॥ २३॥ भूमण्डलवर्धनभाक सुभगः कामी यशोच्छ्रयं लभते । ऋजुधर्मवान्सुरूपः सुरुचिः कान्तो गुरूणां च ॥ २४ ॥ पापैरहार्यवृत्तैः सहजैश्च समं विरुद्धश्च । कन्याप्रजोऽनिलकफो नीचारिविवर्जितकथश्च ॥ २५ ॥ सप्तमलग्ने जातो विषमाङ्गः शीलवर्जितश्चपलः ।
१ नेप्सित. २ तनुः संस्तुतो गणैर्नियतम्. ३ ह्यसंस्थ.
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सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ।
१८९ उपचितहीनद्रविणः सुखंहदेहानुसारी स्यात् ॥ २६ ॥ कैफवातिककलिरुचिको दीर्घमुखशरीरधर्ममतिवेत्ता । बहुदुःखभाक्सुमेधाः परावमर्दी सुचारुकृष्णाक्षः ॥ २७ ॥ अतिथिद्विजदेवरतिः तुक्रियावान्गुरुषु भक्तः । पूज्यः पितान्यभाजां जातः सत्यश्च मृदुशुक्ल: ।। २८॥ भ्रातृप्रियोऽर्थमुख्यः शुचिश्च पापोपचारबन्धुश्च । कान्तः कुत्सितवृत्तो धर्मव्यवसायनीचमतिः ॥ २९ ॥ वृश्चिकलग्ने पुरुषः पीनपृथुव्यायताङ्गतीक्ष्णश्च । अन्तर्विषमः शूरो मातुरभीष्टो रतोद्यतस्त्यागी ॥३०॥ गम्भीरपिङ्गलोद्धतहक्सुमहाहनिमनजठरश्च । अन्तर्विलग्नघोणः साहसनिरतः स्थिरश्चण्डः ॥ ३१ ॥ विश्वासहासवश्यः पित्तरुगातः कुटुम्बसम्पन्नः । गुरुसुहृदां द्रोहरतः पैराङ्गनाकर्षणानुरतः ॥ ३२ ॥ बन्धोल्बणवक्रः स्याद्भूपतिसेवी सशत्रुपक्षः स्यात् । प्रयतोऽर्थदः सुयुवतिधर्म प्रति वत्सलः क्षुद्रः ॥ ३३ ॥ कार्मुकलग्ने जातः स्थूलरदस्तुङ्गपृथुलमूर्धा च । प्रणतानां प्रियकारी धृतिसत्वसमन्वितः सुनयः ॥ ३४ ॥ मलिनासिकोष्ठकुनखी ह्रीमानतिपीवरोरुजठरश्च । विज्ञानशास्त्रकुशलः प्रत्यग्रमतिः प्रकोपश्च ॥ ३५ ॥ बलिनाममर्षणपरः कुलमुख्यो नाशितारिपक्षश्च । संग्रामपदश्रेष्ठश्छलबहुलच्छिद्रवन्धुगुणः ॥ ३६॥ शिल्पादिकर्मनिरतः स्वकर्मवाग्बन्धुवर्गशुभदश्च । कान्तो वदनाजिपदो नृपाद्धृतार्थः सुधर्मरतः ॥ ३७ ॥ मृगवदने लग्नस्थे कृशगात्रो भीरुरेणवक्रश्च । वातव्याधिभिरातः प्रदीप्ततुङ्गोग्रनासः स्यात् ॥ ३८॥ लघुसत्वोऽमिततनयो रोमचितः पाणिपादविस्तीर्णः ।
१ सुखदेहा. २ कारी. ३ कक्षाधिकः खलरुचिः. ४ तनुः. ५ दाता. ६ तनुा . ७ रणोद्य. ८ वरा. ९ वान्बन्धु. १० वदनाक्षिगदो.
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१९०
सारावली ।
आचारगुणैहींनस्तृषार्तरामाभिराममतिः ॥ ३९ ॥ गिरिवनचारी शूरः शास्त्रश्रुतिशिल्पगेयवाद्यज्ञः । क्षुद्रबलः सकुटुम्बो द्विष्टो दुष्टश्च बन्धुशठः ॥ ४० ॥ कुत्सितशीलः कान्तः कुत्सितदारोऽनसूयको धनवान् । धर्मरतो नृपसेवी न चातिदाता सुखी सुभगः ॥ ४१ ॥ कुम्भविलग्ने पुरुषः सुनीचकर्मा कुलाधिको मूर्खः । स्फुटिताग्रनसो नीचः सक्रोधपरोऽलसात्मा च ॥ ४२ ॥ वैरप्रियोऽप्रहृष्टः पारुष्यद्यूतनीचदासीष्टः । उपहृतबन्धुः क्षुब्धः क्षयोदयी प्राप्तवित्तश्च ॥ ४३ ॥ पिशुनः शठो दरिद्रो विनष्टबन्धुर्बहिष्कृतो लोके । नो संमतः परेषां प्रकृष्टसम्पद्गुरुरतिश्च ॥ ४४ ॥ कुम्भोदयो न शस्तो लग्नविधौ सर्वथैव सत्यमते । यवनैर्वर्गोऽपि तथा चाणक्यो वदति नो वर्गम् ॥ ४५ ॥ मीनविलग्ने जातो धन्यः स्फुटनासिकोऽस्फुटाक्षश्च । विज्ञानकाव्यबुद्धिमनादरलब्धकीर्तिश्च ॥ ४६॥ विवृतोष्ठरदः कुष्ठी विदारितास्यो वृषादिसंलुब्धः । दाक्षिण्यप्रत्ययवान् मेषच्छागादिसम्पन्नः ॥ ४७ ॥ शौचाचारश्रुतिवाग्धृतिमान् कन्याप्रजो विनीतश्च । सौम्यमतिः सत्वयुतो गान्धर्वस्त्रीरतिज्ञश्च ॥ ४८ ॥ बहुशीलोदारमतिर्भ्रातृधनोऽमर्पणः सुबन्धुश्च । बलवति राशावेतत्तदधिपतौ वा बलं सर्वम् ॥ ४९ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नष्टजातकाध्याये लग्नगुणो नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ।
रिक्तोत्कट क्रूरो धनपः शुक्लाधिकोग्रदाररतः । पीनोन्नतः प्रचण्डस्तस्करनाथः क्रियादिहोरायाम् ॥ १ ॥
२ वक्षे.
१ श्रुत.
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अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।
१९१ चोरः प्रमादबहुलः खराग्रपादाङ्गुलिर्द्वितीयायाम् । स्निग्धायताक्षचतुरः पृथुपीनतनुः सुमेधाश्च ॥ २॥ श्यामो विशालचक्षुललाटपक्षाः प्रगल्भरतिवश्यः । स्थूलास्थितनुर्वृषभप्रथमार्धे स्याद्वपुष्मांश्च ॥३॥ पृथ्वायतवृत्ततनुमुदारसत्वं सुमूर्धजं जनयेत् । व्यस्तकटिं वृषभाक्षं वृषभे होराद्वितीयायाम् ॥ ४ ॥ मध्यावतोऽतिदक्षो मध्यतनुर्मूदुशिरोरुहांघ्रिश्च । मिथुनाद्यर्धे शूरः सुरतेप्सुः स्याद्धनी प्राज्ञः ॥५॥ मधुरायताक्षकामी शूरो मृदुकर्मठो वचस्वी च । परदारदत्तदेहो भवेन्नूमिथुनद्वितीयहोरायाम् ॥ ६॥ उद्धतमूर्तिः सुशिराः प्रगल्भधीर्मन्ददृक्चलाङ्गशठः । श्यामतनुः सुकृतघ्नो भग्नागरदः कुलीरहोरायाम् ॥ ७॥ द्यूते रतोऽध्वनिरतः पृथुवक्षाः सत्प्रमाणसम्पन्नः । कठिनशरीरः क्रोधी जायेत कुलीरभद्वितीयायाम् ॥ ८॥ रक्तातहकप्रगल्मो गुरुरायतविग्रहश्च सिंहाये । जिनुस्वभावसुसमागन्तस्थिरकार्यसत्वश्च ॥ ९॥ स्त्रीसृष्टपानभोजनाले सुबहुविचेष्टकठिनाङ्गः । दाताध्वरतोऽल्पसुतो भोगी स्थिरसौहृदोऽन्त्यार्धे ॥१०॥ सुकुमारभूतिका मामयगीलाशनारतिर्मधुरः । गान्धवैविधुक्याः सुभगः पूर्वार्धजः श्रेष्ठः ॥ ११ ॥ हखो हठश्रुतार्थः स्थूलशिराः सम्मतो विवादी च । सेवालेख्यलिपिज्ञः क्षयवृद्धियुतः सुखी द्वितीयार्थे ।। १२ ।। वृत्तानन उच्चनसस्त्वसितायतसुनयनो विलासी स्यात् । पीनायतोऽस्थिसारो धनवान्स्वजनप्रियस्तुलाद्यर्थे ॥१३॥ बह्वर्थभाक स्थिराधः श्यामाकुञ्चितशिरोरुहश्व शठः । वृत्ताक्षस्त्वपरार्धे सुत्वग्वीनाग्रपादश्च ॥ १४ ॥ रक्तान्तपिङ्गदृष्टिः साहसकर्मान्वितो रणे शूरः ।
१वक्षा.
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१९२
सारावली ।
दुष्टस्वभावरामाप्रियोऽर्थभाग्वृश्चिकाद्यर्थे ॥ १५ ॥ विस्तीर्णोपचितायतपीनाङ्गः क्ष्माधिपोपसेवी स्यात् । बहृणमित्रसमेतः स्फुटिताक्षो वृश्चिकापरार्धे स्यात् ॥ १६ ॥ दारितपृथुमुखवक्षाः परिकुञ्चितनेत्रगण्डः स्यात् । बाल्ये त्यक्तात्मगुरुथापायर्धे तपस्वी च ॥ १७ ॥ पद्माक्षो दीर्घमहाबाहुः शास्त्रार्थवित्सुमूर्तिः स्यात् । वाक्सुभगो धन्योऽपि च धनुरपरे निर्वृतो यशस्वी च ॥ १८ ॥ श्यामो मृगाक्षधन्यः स्त्रीष्वजितः सौम्यमूर्तिशठ आढ्यः । सृष्टाशनः सुचेष्टो मृगाद्यभागे तनूचघोणः स्यात् ॥ १९ ॥ रक्तान्तदृष्टिरलसो गुरुदीर्घाटनपरो भवति मूर्खः । श्यामो रोमचिताङ्गस्तीक्ष्णः सहसः सुरौद्रकर्मा च ॥ २० ॥ स्त्रीमित्रभागरसविन्मृदुलोऽल्पसुतश्च सद्गुणः शूरः । ताम्रो भाखरवर्णो यानमतिः कुम्भपूर्वार्धे ॥ २१ ॥ आताम्रदारिताक्षः कृशः स्थिरोऽयल्पमूर्तिरलसः स्यात् । नैकृतिकः सुविषादी कृपणः कुम्भापरे सुशठः ॥ २२ ॥ ह्रखः पृथुचारुतनुर्महाललाटो वृहद्वदनवक्षाः । स्त्रीति मीनार्थे प्रथमे सुयशाः क्रियापटुः शूरः ॥ २३ ॥ दाता सुतुङ्गनासो निपुणो मेधान्वितः शुभदनेत्रः । नृपदयितः स्त्रीसुभगश्चारुमीनापरे सुवाक्यः स्यात् ॥ २४ ॥ चन्द्रार्कयोरेकतरे बलस्थे होरापतिः पश्यति केन्द्रगो वा । होरा यथोद्दिष्टफलप्रदा स्याद्गर्भस्थसत्वस्य समुद्भवेषु ॥ २५ ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां होरागुणो नाम अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
१ सुवेवो.
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एकोनपञ्चाशोऽध्यायः । १९३
एकोनपञ्चाशोऽध्यायः। दाता हर्ता दीप्तः क्षयोदयी सङ्गरप्रचण्डः स्यात् । प्रियविग्रहस्त्रिभागे मेषाग्रे बन्धुषूग्रदण्डश्च ॥१॥ स्त्रीचञ्चलो विहारी रतिमान्गीतप्रियो मनस्वी स्यात् । मित्रार्थभाक्सुरूपः स्त्रीवित्तचिर्द्वितीये च ॥२॥ गुणवान्परदोषकरश्चलसत्रयुतो नरेन्द्रसेवी स्यात् । स्वजनप्रियोऽतिधर्मस्तृतीयभागे प्रियादरोऽज्ञश्च ॥ ३ ॥ प्रियपानभोज्यनारीवियोगतप्तो वृषस्य पूर्वाशे । वस्त्रालङ्कारयुतो युवतिप्रकृतानुसारी स्यात् ॥४॥ सौम्यवपुस्त्रीसुभगो महाधरो रूपधनयुक्तः । धनवान्स्थिरो मनखी लुब्धस्त्रीणां प्रियो द्वितीये स्यात् ॥ ५॥ चतुरोऽल्पभाग्यवीरो मलीमसः स्याद्धनान्युपादाय । सन्तप्यते तु पश्चाद्वृषस्य भागे तृतीये च ॥६॥ मिथुनादिमे गाणे पृथूत्तमाङ्गो धनान्वितः प्रांशुः । कितवो गुणी विलासी नृपाप्तमानो वचस्वी स्यात् ॥७॥ हस्वाननस्वरूपः सौम्यवपुः सूक्ष्ममूर्धजतनुः स्यात् । धन्यो मृदुर्महाधीर्द्वितीयभागे प्रतापवान्सुयशाः ॥८॥ स्त्रीद्वेषणो वपुष्मान्महाशिराः शत्रुसंयुतः प्रांशुः । रूक्षनखाझिकरतलश्वलार्धविभृतो दृढस्तृतीये स्यात् ॥९॥ कर्कटकादिमभागे देवब्राह्मणरतश्चलो गौरः । कृत्यकरश्च परेषां सुधीः सुमूर्तिः शुभाङ्गनः सुभगः ॥ १० ॥ लुब्धः स्वाद्वदनपरः स्वप्नरतः स्त्रीजितोऽभिमानी स्यात् । सहजान्वितो विलासी चपलो बहुरुद्वितीये च ॥११॥ स्त्रीचञ्चलोऽर्थभागी विदेशनिरतः प्रियासवः साधुः । काननतोयानुरतो दुईष्टिर्माल्यवांस्तृतीये स्यात् ॥ १२ ॥ सिंहादिद्रेष्काणे दाता भारिनिर्जिगीषुः स्यात् । बहुधनयोषित्सुसुहृद्बहुनृपजनसेवकः सुसत्वश्च ॥१३॥
१. सारा.
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सारावली |
सुरुचिरकारी दाता स्थिरो वपुष्मान्रणेप्सुः स्यात् । सुखभाक् श्रुतिधर्मरुचिर्विस्तीर्णमतिर्द्वितीये च ॥ १४ ॥ लुब्धः परस्वहरणे कल्यः स्तब्धो महामतिः कितवः । नायततनुमूर्तिः स्यान्नैकापत्यः प्रगल्भोऽन्त्ये ॥ १५॥ श्यामः सुवाग्विनीतः प्रांशुः सुकुमारमूर्तिरबलाद्ये । स्त्रीभ्योऽर्थभागनिष्ठो दीर्घशिरा मधुसमाक्षश्च ॥ १६ ॥ धीरो विदेशभागी शिल्पकथापण्डितः समरशौण्डः | वाचाटः श्रुतवाक्यो वनौकसां संमतो द्वितीये स्यात् ॥ १७॥ गीता परार्धभागी सङ्गीतरतिर्नरेन्द्रदयितः स्यात् । ह्रस्वस्वरूपवेषश्चान्ते पृथुशिरस्कश्च ॥ १८ ॥ कन्दर्परूपनिपुणस्तुलादिभागेऽध्वसेवज्ञः । श्यामकला पण्यरतो नियोगधीरः सुमेधावी ॥ १९॥ पङ्कज विशालनेत्रः सुरूपवाक्साहसः कैलापी स्यात् । ख्यातः स्ववंशवर्धितवृद्धानुचरो द्वितीये च ॥ २० ॥ चपलः शठः कृतघ्नो विरूपजिह्मोपचितमूर्तिः । नष्टसुहृद्रविणयशाः स्वल्पमतिर्भाग के तृतीये स्यात् ॥ २१ ॥ गौरः स्थिरः प्रचण्डो रणोत्कटः स्यान्नरो विशालाक्षः । स्थूलविशालशरीरः कलिप्रियो वृश्चिकाद्यांशे ॥ २२ ॥ मृष्टान्नपानचतुरश्च लेक्षणो हेमगौरमूर्तिः स्यात् । कान्तः परवित्तयुतः शीलकलावाद्वितीयेऽशे ॥ २३ ॥ निःश्मश्रुरोमहिंस्रः पिङ्गाक्षमहोदरः प्रहर्ता च । सहजच्युतस्तृतीये पीवरबाहुः सुधीरहृदयश्च ॥ २४ ॥ परिमण्डलाक्षवको गणेषु मुख्यो धनुर्हगाणाद्ये । स्वोपचितस्वाचारस्तथा मृदुर्भवतिसंजातः ॥ २५ ॥ शास्त्रार्थवित्प्रवक्ता ऋतुशतहर्ता द्वितीये च । मत्रभृतां श्रेष्ठतमस्त्वनेकतीर्थायतनचारी ॥ २६ ॥ बन्धुप्रधान चतुरः सतां गतिर्धर्मभाक् तृतीयेऽपि ।
१ विलापी.
१९४
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एकोनपञ्चाशोऽध्यायः। कामी पराङ्गनाभाक्रूपयशोभाजनो विजिष्णुश्च ॥ २७ ॥ व्यालम्बभुजः श्यामः प्रथितयशोरूपकान्तिशठः । स्मितभाषी मकराये स्त्रीषु जितो वल्गुचेष्टधनयुक्तः ॥२८॥ अल्पवदनश्च मध्ये चलः परस्त्रीधनापहर्ता स्यात् । चतुरः सतां गतिज्ञः प्रदानशीलो दुरन्तपादः स्यात् ॥२९॥ वौचालः कलुषकृशो दीर्घाङ्गः पितृवियुक्तश्च । लभते विदेशगमनाद्व्यसनान्यपि मृगमुखस्यान्ते ॥ ३० ॥ स्त्रीमानयशोभूतिः स्फीतप्रभवो घटस्याये । प्रांशुः कर्मसु निष्ठो धनवान्नृपसेवको जातः ॥ ३१ ॥ लुब्धः समर्थमधुरो गौरः पिङ्गोद्धताक्षहास्यधनः । उद्धृष्टवचा मतिमान्बहुमित्रः स्याद्वितीये तु ॥ ३२ ॥ दीर्घः शठः प्रतापी कृशोऽल्पबाहुः सुतार्थभाक्स्तब्धः । बह्वनृतोऽन्तर्विषमो विदारिताक्षो रतिविदन्ये ॥ ३३॥ मधुपिङ्गाक्षो गौरो मेधावी सत्क्रियारतिज्ञश्च । सुखभागी मीनाये जलचरैयुगले विनीतश्च ॥ ३४ ॥ नायुपचारप्रवरो मृष्टान्नरैतिः परार्धभुक कॉरी । स्त्रीसज्जनातिदयितो वदतां श्रेष्ठो द्वितीये तु ॥ ३५ ॥ श्यामः कलासु निपुणः पृथुपार्दसुहृत्प्रदानश्च । मृष्टान्नपानहास्यो मीनयुगान्त्ये भवेत्पुरुषः ॥ ३६ ॥ इतीरितोऽयं स्वगुणस्वभावो
द्रेक्काणजानां गुणविद्विकल्पैः । द्रेक्काणंगे वीर्यवति स्वदृष्टे
द्रेक्काणकल्पं तु फलं विध्यात् ॥ ३७॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नष्टजातकाध्याये देकाणाध्यायो
नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः ॥
१ मानी. २ वाचाटः. ३ चारयुतो. ४ रुचिः. ५ कामी. ६ दान. ७ गुणचिहकल्पैः. ८ णमे.
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१९६
सारावली ।
पञ्चाशोऽध्यायः ।
अतोंश लग्नगते तु वक्ष्ये वर्णस्वभावाकृतिलक्षणानि । प्रधानवीर्येऽपतौ शशीव तत्स्वामिराशिक्रमशो विधत्ते ॥ १ ॥ अजसंस्थानमुखः स्यान्मेषाद्यांशेऽल्पनासिकाङ्गभुजः । चण्डध्वनिर्विरूपः संकुचिताक्षः कृशोऽक्षताङ्गश्च ॥ २ ॥ श्यामगुरुस्कन्धभुजो हस्खललाटः सुजत्रुकः स्फुटदृक् । दीर्घास्यनस मृदुवाक्तृतीयभागे कृशाङ्घ्रिसन्धिश्च ॥ ३ ॥ व्यालुप्तकेशगौरो व्यस्तभुजश्चारुनयननासश्च । वाक्पण्डितस्तृतीये जातस्तु कृशोरुजानुजङ्घश्च ॥ ४ ॥ विभ्रान्तदृक्प्रचण्डो हखनसोऽटनखराङ्घ्रिरोमा च । अभ्रातृकः कृशः स्याच्चतुर्थनवभागजः पुरुषः ॥ ५ ॥ दृप्तो गजेन्द्रनयनः पृथुनासा ललाटको मध्ये | पीनोपचिताग्रतनुः खरतररोमातिनुकेशः ॥ ६ ॥ श्यामो मृदुर्मृगाक्षो गुरुः कृशस्फिक्कठोरुचरणः स्यात् । व्यस्तोदरकभुजांसः षण्ढो भीरुश्च बहुभाषी ॥ ७ ॥ दूर्वाङ्कुराभचपलः सितनेत्रः सप्तमे भवेत्पुरुषः । कुलटापतिर्नृशंसो विशालविस्तीर्णमूर्तिः स्यात् ॥ ८ ॥ वानरमुखप्रवक्ता खरपिङ्गतनुश्च गुह्यगदः । हिंस्रोऽनृतघातरतः सुहृत्प्रियोगः सदाष्टमजः ॥ ९ ॥ दीर्घः कृशो विहारी व्यस्तललाटश्रवोऽश्ववदनश्च । बहुभिधानाभिरतस्त्वनृजुर्नवमांशजो भवति ॥ १० ॥
इति मे ॥
समकृष्णतनुः स्तब्धः पूर्वमघान्त्ये ऽन्त्यकर्मा स्यात | नीचः प्रकृतिविरुद्धो विषमाक्षिनिरीक्षणो वृषस्याद्ये ॥ ११ ॥ गम्भीर गलसात्मा विनतशिरावऋकश्च लघुमेधाः । प्रतिकूलकर्ममिथ्याबहुप्रलापी द्वितीये स्यात् ॥ १२ ॥
१ गतेति. २ रुहः ३ ततो.
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पश्चाशोऽध्यायः।
मृद्वङ्गवान्वपुष्मान्सुनसस्पष्टायताक्षबृहदङ्गः। यज्ञादिकर्मनिरतः स्थिरपाणिकरस्तृतीयनवमांशे ॥१३॥ ह्रस्वोदरः सुरोषो मेषाक्षः पिङ्गलस्त्वधनयुक्तः । परधनहरणाभिरतश्चतुर्थभागे वृषस्य नरः ॥ १४ ॥ व्यालः सुतुङ्गघोणो महर्षभाकारवक्रघनकेशः । स्यात्पञ्चमे विलासी बृहद्भुजस्कन्धकटिगौरः ॥१५॥ स्वक्षः स्थिरः सुकेशः स्निग्धतनुर्वल्गुवाक्प्रगल्भः स्यात् । माधुर्यहास्यनिरतः कृशः सुनिपुणो भवेत्षष्ठे ॥ १६ ॥ मृतसुतयुवतीषु रतो मनाक्प्रलम्बाग्रनासिकाक्षः स्यात् । उद्बद्धाङ्गः स्वजनद्वेषी गुरुपादसूक्ष्मकेशश्च ॥ १७॥ व्याप्रेक्षणः सुदशनस्त्वजितस्फुटनासिकोऽल्पकर्मा स्यात् । उद्धृत्तनीलकेशोग्रनखो मुखरस्तथाष्टमजः ॥ १८॥ मान्योऽल्पसत्वभीरुः क्रोधी समरुचिरमूर्तिकितवः स्यात् । सञ्चितधनः प्रसिद्धः कृशस्त्वधस्तात्प्रलाप्यन्ते ॥ १९ ॥
॥ इति वृषभे ॥ रोमोपचितांसभुजो घनासितापाङ्गक्तथोच्चनसः । दूर्वाकाण्डश्यामः कृशाङ्क्रिपाणिस्तृतीयभवनाद्ये ॥ २० ॥ घटशीर्षोऽशुचिकर्मा घातरुचिर्मध्यलग्नघोणः स्यात् । बहुभाषी बहुचेष्टो द्वितीयभागे तु विग्रहाधिपतिः ॥ २१ ॥ गौरोऽतिरक्तनयनः सनासिकः समतनुः सुमेधा स्यात् । दीर्घाननोऽसितपूर्वाचाचतुरस्तृतीयेंऽशे ॥ २२ ॥ सुभ्रूललाटकामी नीलोत्पलमूर्तिविपुलवक्षाः स्यात् । सितवको मृदुवक्रः प्रशस्तरोमाचितश्चतुर्थेऽशे ॥ २३ ॥ पृथ्वाननो बृहत्स्फिक्पीवरवक्षोभुजश्च खलः । स्थूलशिरा मायावी सितानुकूलेक्षणस्तु पञ्चमजः ॥ २४ ॥ मध्वीक्षणः प्रलापी व्यस्तललाटः समस्सुतनुः । कितवश्वलश्च रुधिरोष्ठरदः षष्ठे तु सत्वयुतः ॥ २५ ॥
१ दन्तो. २ वक्रं.
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सारावली ।
ताम्रारुणाक्षवर्णः समुन्नताक्षो विशालवक्षाः स्यात् । शिक्षासु शिल्पनिपुणो हास्यरतिः सप्तमे जातः ॥ २६ ॥ श्यामो गुरुर्मनस्वी ललितो मधुराभिधानश्च । व्यस्तविवृद्धशरीरो दीर्घासितदृक्कलाविदष्टमजः ॥ २७ ॥ वृत्ता सितहक्सुतनुः सिद्धो मेधाबलो रतिज्ञः स्यात् । विज्ञानकाव्यनिरतो नवमे जायेत मिथुनस्य ॥ २८ ॥
॥ इति मिथुने ॥ निर्मलचारुसुगौरः सुमूर्धजः स्याद्विशालकुक्षिश्च । मङ्गलमुखोन्नताक्षस्तन्वङ्गभुजः कुलीराद्ये ॥ २९ ॥ रक्तच्छविचरणोढः कलाप्रियः स्याद्विडालमुखनेत्रः । कर्किद्वितीयभागे त्यागी कृशजानुजङ्घश्च ॥ ३०॥ गौरः सुनेत्रवाग्मी सुकुमारस्थूलयोषिदङ्गश्च । धीमान्मृदुकर्मरतस्तृतीयभागे भवेदलसः ॥ ३१ ॥ श्यामच्छविनंतभूर्विलासपीनोन्नतः सुनासाक्षः । क्षीणः पुरुषो दाता सुजातिकार्यश्चतुर्थे स्यात् ॥ ३२ ॥ घण्टाशिरोनतास्यः सुसंहतभूः सुदीर्घबाहुः स्यात् । सेवारतो विकर्मा मध्ये दुर्मर्षणोऽल्पमेधाश्च ॥ ३३॥ दीर्घविशालशरीरः प्रशस्तनयनो बहुप्रतापः स्यात् । गौरः सुवंशघोणो वक्ता षष्ठे च पृथुदन्तः ॥ ३४ ॥ भिन्नशिरोरुहरोमा बृहत्तनुः स्यात्सिरालजङ्गश्च । परगृहरक्षणशीलः काकाकारश्च सप्तमजः ॥ ३५ ॥ घण्टाशिराः कुशिल्पी सुमुखभुजाङ्गश्च कूर्मगतिः । मध्यविलग्ननसः स्यादष्टमभागे तु कुष्ठश्च ॥ ३६॥ गौरो झपनेत्रगुरुम॒दूदरोऽथ पृथुपीनवक्षाः स्यात् । दीर्घहनुर्लम्बोष्ठो महोरुकृशजानुगुल्फोऽन्ये ॥ ३७॥
॥ इति कर्कटके ॥
१ छवीरणोग्रः. २ कृष्णश्व.
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पञ्चाशोऽध्यायः ।
मन्दोदरः प्रचण्डो रक्ताग्रनसो वृहच्छिरः शूरः । उन्नतमांसलवक्षाः सिंहे प्रथमे भवेद्भागे ॥ ३८ ॥ उन्नतविततललाटश्चतुरस्रतनुर्विलोमनेत्रश्च । दीर्घभुजोन्नतवक्षाः पृथू घोणो द्वितीयेंऽशे ॥ ३९ ॥ रोमान्वितायतभुजश्चकोरनयनस्तलस्त्यागी । उन्नासिकस्तृतीये स्निग्धतनुर्बाहुवृत्तगलः ॥ ४० ॥ घृतमण्ड गौरगात्रो दीर्घा सितलोचनो मृदुशिरोजः । भिन्नध्वनिश्चतुर्थे पृथुकरचरणश्च भेककुक्षिः स्यात् ॥ ४१ ॥ घण्टा शिरोऽल्पकेशो सितघोणाक्षश्च लोमशाङ्गतनुः । लम्बोदरप्रचण्डो दंष्ट्रोत्कटपीनहृन्मध्ये ॥ ४२ ॥ स्रस्ताल्परोममूर्तिः स्निग्धसमासितविलोचनो दीर्घः । श्यामः स्त्रीणां चतुरो विकत्थनो वाक्यपण्डितः षष्ठे ॥ ४३ ॥ दीर्घाननः सिरालः पीनतनुः स्त्रीषु दुर्भगः कृष्णः । स्यात्सप्तमे सुचण्डो रोमचितः कूटनिष्ठुराभाषी ॥ ४४ ॥ उत्कृष्टवा स्थिराङ्गः सुभगो गम्भीरदृग्विकर्मा च । निःखः कूटकरः स्यादष्टमभागे प्रसूतश्च ॥ ४५ ॥ रासभमुखोऽसिताक्षो व्यालम्बभुजः सुपाणिजङ्घच । श्वासनिपीडितवक्षा नवमांशे जायते मनुजः ॥ ४६ ॥ ॥ इति सिंहे ॥
१९९
सारङ्गाक्षो वक्ता प्रदानसम्भोगवान्धनाढ्यश्च । श्यामोन्नतहृदयः स्यात्पष्ठे प्रथमांशके जातः ॥ ४७ ॥ पूर्णाननः संचक्षुः स्प्रिंग्धो मृदुवादशीलश्च । लम्बोदरश्चलः स्याद्वितीयभागे महोरुश्च ॥ ४८ ॥ स्फुटनासिकास्फुटः स्यात्प्रशस्तपादश्च पीनपदभुजः । विस्पष्टवाक्च गौरः कन्यासु सुहृत्तृतीयेंशे ॥ ४९ ॥ श्रुतवान्स्त्रीषु च रमते सुकुमारो मधुररक्तगौरश्च । तीक्ष्णचतुर्थभागे प्रबोधनोधः कृशो द्विमूर्धा च ॥ ५० ॥
१ सुभ्रूर्ग. २ वक्षा. ३ पिशुनः कलहप्रियः सुगूढवयाः ४ पाणि.
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सारावली। स्थूलोष्ठबाहुरुन्नततनुः पृथुशिरोरुहांसः स्यात् । पञ्चमजः पृथुवक्षा पराश्रयोद्धजङ्घश्च ॥५१॥ स्निग्धच्छविः सुवाक्यः शस्ततनुः शास्त्रकृतमतिप्रचुरः । लिपिलेख्यकलाभिज्ञः सुमनाः षष्ठांशजो विहारी च ॥५२॥ हस्ववदनोन्नतांसः स्निग्धभुजोऽन्ते च केशगौरः स्यात् । सप्तमजः पृथुजठरः पृथुतरचरणोऽम्बुभीरुश्च ॥ ५३॥ सुकुमारगौरदीर्घश्चित्रोन्नतदृक्प्रचण्डमानी स्यात् । व्यालम्बपीनबाहुः पिङ्गलरोमाष्टमे जातः ॥ ५४ ॥ ख्यातो मृदुसुखमूर्तिर्विशालनेत्रो बलासदृशसत्वः । चतुरो नवमेंऽशे स्यान्नतांसलेख्यादिविद्वांश्च ॥ ५५ ॥
॥ इति कन्यायाम् ॥ गौरो विशालनेत्रः श्लाघी दीर्घाननोऽर्थगोप्ता स्यात् । नवपण्यकर्मकुशलस्तुलाधरायंशजः सुविख्यातः ॥ ५६ ॥ प्लुतमण्डलनेत्रः स्यात्करालदन्तो निमग्नमध्यस्तु । युगले विस्मृतहृदयः कुतनुघनसंहतभ्रूश्च ॥ ५७॥ गौरोऽश्वमुखः सुरदो महोन्नताक्षः कृशोऽपि लब्धयशाः । दीर्घकरोरुहघोणस्तृतीयजः स्यात्सुचरणश्च ॥ ५८ ॥ तन्वंसबाहुभीरुस्तून्नतदन्तः कृशो मृगतरलदृक् । हवनसः सुविषादी श्यामो शीलश्चतुर्थजो भवति ॥ ५९॥ गम्भीरदृक्स्थिरात्मा सुहृत्प्रियः पञ्चमे ह्यमानी स्यात् । खरकेशः समनेत्रो मध्यप्रतिलग्नघोणदृप्तश्च ॥ ६० ॥ पीनाङ्गो गौरः स्याद्विशालनेत्रः सुनासिकावंशः । स्निग्धनखः सुनयज्ञः षष्ठंऽशे शास्त्रविजातः ॥ ६१ ॥ रक्तावदातम॑तिमान्गुरुहस्वतनुः कृशो ललाटे स्यात् । लुब्धः प्रचण्डदुर्गः सप्तमभागे मनस्वी च ॥ ६२ ॥ तुङ्गांसगण्डभोक्ता कठिनतनुर्दीर्घकृष्णभ्रूः । निर्णिक्तवाक्प्रशान्तः सद्वक्षस्त्वर्धमस्तकोऽप्टमजः ॥ ६३ ॥
१ रति.
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पञ्चाशोऽध्यायः ।
स्वक्षः प्रसन्नगौरः समचारुतनुः पटुः कलाभिरतः । दाक्षिण्यहास्यनिरतो विटस्वभावो भवेन्नवमे ॥ ६४ ॥
२०१
॥ इति तुलायाम् ॥
हस्वोन्नतोष्ठघोणः सुललाटः स्याद्दृढाङ्गगौरश्च । दर्दुरकुक्षिर्घटकोऽष्टमराशौ प्रथमनवभागे ॥ ६५ ॥ गौरः पृथ्वायतहृद्वाहुस्ताम्रो द्वितीये स्यात् । उद्वृत्तबलनिहन्ता साहसकृदनल्पकेशश्च ॥ ६६ ॥ प्राज्ञो ढांसबाहुः प्रयत्नकोशो विशुद्धवाक्यः स्यात् । कानीनको वपुष्मान्गौरो रुचिराधरस्तृतीयेंऽशे ॥ ६७ ॥ परदारद्रोहरतिः क्षेप्ता धीर चतुर्थजो दीर्घः । श्यामोऽसि केशाक्षो नटप्रगल्भश्च पीनरोमांसः ॥ ६८ ॥ गम्भीरस्ताम्राक्षो मग्ननसः पञ्चमे धीरः । मृष्टोदरोग्रकर्मा व्यस्तदृढाङ्गो यशस्वी स्यात् ॥ ६९ ॥ धृष्टो वरिष्ठबुद्धिः पृष्ठोचनसो गभीरसत्वः स्यात् । सुनसः प्रचण्डकर्मा षष्ठे दक्षोऽल्पकचघनभ्रूश्च ॥ ७० ॥ दारितमुखः स्थिराङ्गः प्रविकीर्णरदः शिरावनद्धाङ्गः । निम्नोदरः ताक्षः स्रस्ततनुः सप्तमे भवेदंशे ॥ ७१ ॥ स्फुटितायनसः कालो विपन्नशीलो मलीमसाङ्गः स्यात् । भिन्नोत्कटैः शिरोजैः सन्त्यक्तमतिस्तथाष्टमजः ॥ ७२ ॥ गौरो मृगाकृतिमृदुः प्रशान्तपिङ्गाक्षरोमदृढपीनः । सुसमेतश्च गुरूणां मतः प्रजातो नवमभागे ॥ ७३ ॥ ॥ इति वृश्चिके ॥
सुबृहन्नसोजदृष्टिः स्फुटाग्रभाषी सुदन्तरोमा च । गौरः सुबद्धवृषणश्चापाद्यांशे प्रचण्डः स्यात् ॥ ७४ ॥ प्रोतुङ्गशिराः स्थिरविद्विस्तीर्णाक्षो गुरुस्फिगूरुश्च । विकृताक्षनसो दीर्घो महाहनुः स्याद्वितीयेंऽशे ॥ ७५ ॥ शिक्षाशास्त्रमतिज्ञः प्रगल्भगम्भीरमूर्तिसुनयश्च । स्त्रीवल्लभो मनस्वी तृतीयजो हास्यशिल्पज्ञः ॥ ७६
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२०२
सारावली। दक्षो मधुमण्डलदृक्गौरः कृच्छ्रप्रवृद्धकुक्षिः स्यात् । प्राज्ञोऽटनः सुकेशः पृथुशुभमूर्तिश्चतुर्थे स्यात् ॥ ७७॥ पृथुकण्ठनेत्रवदनः प्रवृद्धहरिविग्रहो महाभूः स्यात् । पीनोन्नतांसहन्ता पञ्चमजो रूढरोमदृढबुद्धिः ॥ ७८॥ स्निग्धासितान्तपृथुदृक् महाललाटः सुवृत्तिकाव्यरतः । पृथुपीनमुखो हीनः षष्ठे विद्वान्कथाभिरतः ॥ ७९ ॥ श्यामो मृदुर्वचस्वी तुङ्गशिराः सङ्ग्रहानुसन्धिरतः । दी? विशालनयनो दाक्षिण्यपटुश्च सप्तमजः ॥ ८० ॥ चिपिटाग्रनासिकः स्याद्विस्तीर्णशिराः सुबद्धवैरश्व।। विभ्रान्तदृक्प्रलापी गुरुष्वभिमतोऽष्टमांशभवः ॥ ८१ ॥ गौरो हयाकृतिमुखो दीर्घासितदृक् तथाल्पवाक्यः स्यात् । सत्यः सतां विषादी नवमे कुटिलोरुजङ्घश्च ॥ ८२ ॥
॥ इति धनुषि ॥ विरलाग्ररदः श्यामः प्रभिन्नवाक् खरशिरोरुनखजानुः । गीताध्वहास्यनिरतो मकराये बलधनः कृशाङ्गः स्यात् ८३ अलसशटः कुटिलनसो गीताभिरतिर्विशालदेहश्व । प्रचुराङ्गनासु निरतो बहुभाषी स्याद्वितीयजः कल्प्यः॥ ८४॥ गान्धर्वकलाकामः ख्याताङ्गो गौरक्सुमनसः । बहुमित्रवन्धुरतिमांस्तृतीयजः स्विष्टकर्मा च ॥ ८५॥ रक्तासितवृत्ताक्षो महाललाटभुजदुर्बलाङ्गकरः । भवति हि विकीर्णकेशश्चतुर्थजो विरलदन्तवाक्यः स्यात् ८६ उद्दण्डघोणकुक्षिर्भवति हि भोक्ता सुनासिकावंशः । श्यामो वृत्तोरुभुजः पञ्चमभागे स्थिरारम्भः ॥ ८७॥ स्निग्धच्छविः सुवेषः कामरतः सूक्ष्मसमरदसुवक्ता । षष्ठांशजः पृथुहनुमहाललाटः पुमान्भवति ॥ ८८॥ श्यामोऽलसः सुभाषी रूक्षितदेहो बृहत्तनुः कठिनः । मृदुपादपाणिमतिमान्सप्तमजः शीलसम्पन्नः ॥ ८९॥
१ भाषी. २ कुञ्चित.
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पञ्चाशोऽध्यायः ।
। २०३ गम्भीरडक्सुघोणो रक्तास्यो भिन्ननखशिरोजः स्यात् । उद्बद्धतनुः शक्तोऽष्टमजो घटपृथुललाटश्च ॥ ९० ॥ विपुलाक्षिहृत्सुमेधाः पूर्णमुखो गीतवाद्यनिरतश्च । माधुर्यसत्वयुक्तः साधुर्नवमे भवेत्सुजनः ॥ ९१ ॥
॥ इति मकरे ॥ श्यामो मृदुः कृशाङ्गः पीनहनुः शास्त्रकाव्यमतिः । कामी रतिमान्कान्तः कुम्भस्याद्यांशके भवेज्जातः ॥ ९२ ॥ त्वङ्नखदृष्टिशिरोजैः खरैश्च सुविपन्नवत्सलः साधुः । दीर्घो विशिरा मूल् द्वितीयभागे भवेजातः ॥ ९३ ॥ संसक्ततनुः प्रमदाप्रियश्च वैडूर्यकान्तिधरः। शास्त्रार्थवित्प्रयोक्ता तृतीयनवभागसंजातः ॥ ९४ ॥ कान्तानुरतो गौरो विदारितास्यो रिपुप्रणाशकरः । गम्भीरधीरसत्वश्चतुर्थजो भोगरतियुक्तः ॥ ९५ ॥ स्पष्टार्थविकलाज्ञः खररोमधरात्रिरुग्रः स्यात् । संरुद्धगण्डकर्णः पञ्चमजः कृष्णवर्णश्च ॥ ९६ ॥ व्याघ्राननः प्रगल्भः कुञ्चितकेशः सुनिश्चितार्थश्च । व्यालमृगोरगहन्ता षष्ठंऽशे वल्लभो नृपतेः ॥ ९७॥ मेषाक्षिमुखस्तीक्ष्णो ग्राम्यरतिः स्त्रीषु परिभूतः । पित्तरुगर्दितदेहः सप्तमजः सत्वधृतियुक्तः ॥ ९८ ॥ स्थिरसत्वबुद्धिरतिमान्नरेन्द्रयोधो नरेश्वरः सुभगः । स्थूलरदो विपुलाक्षः कुम्भे स्यादष्टमेंऽशके पुरुषः ॥ ९९ ॥ श्यामः समग्रवंदनाविशेषितः सुधनदारपुत्रश्च । नवमांशजः सुवाक्यः प्रथितः शक्तो भवेत्पुरुषः॥१०० ॥
॥ इति कुम्भे ॥ गौरोऽपि रक्तदेहः प्रभामृदुस्त्रीमतिप्रचलचित्तः । हखगलः कृशमध्यो मीनस्याद्यांशके पुरुषः ॥ १०१॥
पृथुपीनभुग्ननासः क्रियापटुर्मीसभुग्रुचिरदेहः । १ दशनो. २ पृथुपीनमुग्रनासः.
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२०४
सारावली |
काननपर्वतचारी बृहच्छिराः स्याद्वितीयांशे ॥ १०२ ॥ गौरः शठः सुचक्षुः शस्ततनुर्धर्मवान्सुविद्वांश्च । दाक्षिण्यवान्विनीतस्तृतीयजो रूपवांश्चतुरः ॥ १०३ ॥ गुणवान्विपन्नशीलः प्रवृद्धसेवी क्रियापंटुर्विद्वान् । सत्वाधिको नयज्ञस्तुङ्गनसः स्याच्चतुर्थे तु ॥ १०४ ॥ दीर्घेोऽसितः प्रतापी तुङ्गाङ्गः खल्पनासिकः स्वक्षः । हिंसारतिः शुभरदो दुष्प्रसहः पञ्चमे प्रतापी स्यात् ॥ १०५ ॥ कान्तः प्रतापगुणवान्प्रसन्नवंशोऽल्पनासिको मानी । तिर्यग्वदनः ख्यातः षष्ठेऽशे स्यात्तथा निपुणः ॥ १०६ ॥ पुरुषाभिमानपरकृद्धर्मरुचिः श्रेष्ठकश्च सचिवः स्यात् । प्रबलो विषादशीलः शठोऽस्थिरः सप्तमे भागे ॥ १०७ ॥ दीर्घो बृहच्छिरः स्यात्कृशोऽलसो रूक्षनेत्र केशश्च । मन्दात्मजोऽर्थनिरतो रणकुशलो ह्यष्टमे भागे ॥ १०८ ॥ ह्रस्वो मृदुः सुधीरो विशालवक्षोक्षिनासिकः स्निग्धः । विहिताङ्गबुद्धिगुणवान्नवमेंऽशे स्यात्पुमान्ख्यातः ॥ १०९ ॥ ॥ इति मीने ॥
यत्प्रोक्तांशादिफलं द्वादशभागेऽपि तत्फलं वाच्यम् । सप्तमभागसमानं शेषेषु विनिर्दिशेत्प्राज्ञः ॥ ११० ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नष्टजातकाध्याये नववर्गगुणचिन्ता नाम पञ्चाशोऽध्यायः ॥
एकपञ्चाशोऽध्यायः ।
प्रश्नकाले विलग्नस्य पूर्वार्धेऽप्युत्तरायणे । अपर दक्षिणे ब्रूयाजन्मसम्पृच्छतो बुधः ॥ १ ॥ ऋतुर्वाच्यो हगाणांशे लग्नसंस्थेऽपि वा ग्रहैः । अयनस्य विलोमे तु परिवर्तः परस्परम् ॥ २ ॥ शशिज्ञगुरुभिः सार्धं सितलोहित सूर्यजैः ।
१ पटुर्वीरः २ शठः ३ वित. ४ प्रोक्तं राशि. ५ गृहे.
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एकोनपञ्चाशोऽध्यायः।
२
.
५
द्रेक्काणेऽधै भवेत्पूर्व मासः पूर्वे' परे परः ॥३॥ अनुपातात्तिथिः कल्प्या केचिदाहुरिनांशजाम् । लग्नभागैरिभ्यस्तैः पञ्चभिर्लभ्यते गुरुः ॥ ४ ॥ वयोनुमानाद्वर्षाणि द्वादश द्वादश क्षिपेत् । धुरात्रिनामधेयेषु विलोमाजन्मसम्भवः ॥ ५ ॥ लग्नभागैः क्रमेणैव वेला मृग्याऽनुपाततः । लग्नत्रिभागराशीनां यो बली जन्मकृद्भवेत् ॥ ६॥ शीर्षादि संस्पृशन् प्रष्टा पृच्छेत्तद्राशिमादिशेत् । यावद्गतः शशी लग्नाचन्द्रात्तावति जन्मभः ॥७॥ मीनोदये वदेन्मीनं लग्नांशसदृशोदयम् । लग्नाद्भानुदृगाणे च यावत्यर्काच तावति ॥ ८॥ विलग्नं कथयेत्प्राज्ञ इति शास्त्रस्य निश्चयः । लग्नगे वीर्यगे वाऽपि च्छायाङ्गुलहते हृते ॥ ९॥ रविभिर्जन्मशिष्टं हि कथयेदविशङ्कितः । तिष्ठतः शयनस्थस्य निविष्टस्योत्थितस्य च ॥ १० ॥ लग्नादिकेन्द्रवेश्मानि वदेज्जन्मविधौ क्रमात् । भावं विचार्य सकलं यद्यत्तुल्यं तु तत्तथा ॥ ११॥ संस्कारनाममात्रा द्विगुणा च्छायाङ्गुलैः समायुक्ताः । त्रिघनविभक्ताच्छेपं नक्षत्रं तद्धनिष्ठादि ॥ १२ ॥ वृपसिंहौ दशगुणिती वसुभिर्मिथुनालिको वणिमेषौ । मुनिभिः कन्यामकरौ बाणैः शेषाः स्वसंमितैरेव ॥१३॥ गुरुणा कुजेन भृगुणा बुधेन्दुभान्वार्किभिः क्रमशः । वर्षर्तुमासतिथयो थुनिशाभनवांशवेलाश्च ॥ १४ ॥ एवं क्रमेण हृत्वा स्वविकल्पविभाजिताच्छेषम् । एवं भवन्ति सर्वे नवदानविशोधने च पुनः ॥ १५ ॥ यवनेन्द्रदर्शनाद्यैः कथितं तदिहात्र सर्वमेव मया । किन्तु स्फुटं न सर्व स्पष्टं सारस्वतं चिन्त्यम् ॥ १६ ॥
१ पूर्वः.
१८ सारा.
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सारावली ।
पादत्रितयं विदलं दिनरजनीमानयोः क्रमात्क्रमशः । पृच्छ कराशिसमानैर्दिवसनिशासंज्ञिताः पिण्डम् ॥ १७ ॥ वारनमनिंहृताग्रं प्रोद्गच्छति तावदेव नक्षत्रम् | अश्विमघामूलाद्यं नैवकं नवकं क्रमादृक्षम् ॥ १८ ॥ तलिप्ता सप्तहृताच्छेषाद्वारो भवेच्च ऋक्षादि । शेषं प्राग्वत्कार्यं पृच्छकसूर्यादिभिदीयम् ॥ १९॥ उद्गतदशा व्यतीता गम्याथ विलोमतो भवेन्नित्यम् । तावत्संख्या योज्या नष्टविधौ कालपरिमाणे ॥ २० ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नष्टजातकाध्यायो नामैकपञ्चाशोऽध्यायः ॥
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द्विपञ्चाशोऽध्यायः ।
उक्तो हि यवनवृद्धैरष्टकवर्गो निवेदयति पुंसाम् । हेतुं शुभमशुभं वा प्रतिदिवस संभवन्तमिह ॥ १ ॥ स्वात्केन्द्रायनवाष्टवित्तगृहगो भौमार्कसून्वोरविजीवादायनवात्मजारिषु सितात् षड्वादशास्तस्थितः । चन्द्राद्वृद्धिषु बोधनात्सनवधीरिः फेषु लग्नाच्छुभः साम्बुद्वादशगोऽष्टवर्गविधिना संशोधितो भास्करः ॥ २ ॥ लग्नाद्धातृदशायशत्रुषु शशी सास्तादिषु स्वाच्छुभः भौमात्सार्थनवात्मजेषु रवितः साष्टाङ्गनास्थो गुरोः । केन्द्रायाष्टधनेषु धर्मसुखधीत्र्यायास्तखस्थः सितात् केन्द्रायत्रिसुताष्टगः शशिसुताद्धमीयषट्स्वर्कजात् ॥ ३ ॥ भौमो वृद्धिषु सात्मजासु रवितः साद्यासु लग्नाच्छुभः चन्द्रात्पत्रिफलेषु केन्द्र विवरखप्तिस्थितः स्वागृहात् । धर्मायाष्टमकण्टकेषु रविजाज्ज्ञाच्यायवीशत्रुषु शुक्रादन्त्यभवारिमृत्युषु गुरोः षड्डाभकर्मान्त्यगः ॥ ४ ॥ ज्ञोऽष्टायादिशुभार्थबन्धुषु सुतभ्रातृस्थितो भार्गवात् भौमार्योः सदृशास्तगो रिपुभवच्छिद्रान्त्यसंस्थो गुरोः ।
१ निभृतानं. २ विनवं सनवं. ३ पृच्छादि. ४ प्राप्ति.
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त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ।
प्राप्त्यन्त्यारितपःसुतेषु तपनात्स्वासंत्रिकर्मादिषु खाज्ञायारिनवाष्टमेषु शशिनो लग्नात्सपूर्वाच्छुभः ॥ ५॥ केन्द्रायास्तधनेषु भूमितनयात्स्वास्तत्रिषु ब्राह्मणो भानोः सत्रिनवेषु धर्मदशधीलाभारिगो भार्गवात् । धर्मायास्तधनात्मजेषु शशिनः कोणात्रिपड्धीव्यये खाज्ञायाम्बुनवारिपुत्रतनुषु ज्ञात्सास्तगस्तूदयात् ॥६॥ लग्नादातनयायरन्ध्रनवगश्चन्द्रात्सितः सव्ययात् खात्साज्ञेषु शुभो यमान्नवदशात्मायाष्टपञ्चाम्बुषु । व्यन्यायारिसुहृन्नवेषु रुधिराद्रिःफायरन्ध्रेष्विनात् ज्ञाव्यायारिनवात्मजेष्वथ गुरो(खाष्टधर्मायगः ॥ ७॥ खान्यायात्मजषत्रिकेषु रविजः सान्त्याम्बरस्थः कुजात् भानोः केन्द्रधनायमृत्युषु तनोख्यायारिखाद्याम्बुगः । आज्ञायाष्टनवान्त्यशत्रुषु बुधादिन्दोर्भवारित्रिषु शुक्रादन्त्यभवारिषु द्विजवरात्स्वात्यायधीशत्रुगः ॥८॥ इत्युक्तं शुभमन्यदेवमशुभं चारक्रमेण ग्रहाः शस्ताशस्तविशेषितं विदधति प्रोत्कृष्टमेतत्फलम् । स्वःस्खोचसुहृद्गृहेषु सुतरां शस्तं त्वनिष्टं समं खोचस्वामिगता दशापतिबलाद्धन्त्यष्टवर्गोद्भवम् ॥९॥ रविरुधिरौ भवनं प्रविशन्तौ गुरुभृगुजौ गृहमध्यसमेतौ ।
शनिशशिनौ खलु निर्गमकाले शशितनयः फलदस्तु सदैव १० इति कल्याणवर्मविरचितायां अष्टकवर्गाध्यायो नाम द्विपञ्चाशोऽध्यायः ॥
त्रिपञ्चाशोऽध्यायः। दैवविदां नीतिकरं विश्वसनीयं समस्तलोकस्य । कनकाचार्यस्य मताद्वियोनिसंज्ञं प्रवक्ष्यामि ॥ १॥
१ त्सायकर्मत्रिगः. २ खाया. ३ नवरिःफपुत्र. ४ खादायात्मज. ५ प्राप्या. ६ वखखामिगतं. ७ प्रीतिकरं.
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सारावली |
लग्ने कर्कटके सशीतकिरणे वा सद्रहैः सङ्गते स्वस्थैर्जगतोऽस्य सृष्टिमकरोद्विश्वेश्वरः शाश्वतीम् । यस्यैवं भवति प्रसूतिसमये पुंसः स सम्पालयेत् त्रैलोक्यं सुरसुन्दरीजनवृतः क्रीडां संमां सेवते ॥ २ ॥ समभिव्यक्ति होरा सस्थावरजङ्गमं यथा लोके । कालनिमित्ताकारैर्देशेन च तत्प्रपञ्चोऽयम् ॥ ३ ॥ क्रूरैः सुबलसमेतैः सौम्यैर्विबलैर्वियोनिलग्ने वा । सौम्यार्किभ्यां केन्द्रे तदीक्षिते वा वियोनिः स्यात् ॥ ४ ॥ आधाने जन्मनि वा प्रश्ने वा द्वादशांशगे चन्द्रः । यस्मिन्व्यवस्थितः स्याल्लग्ने वा तत्समं सत्वम् ॥ ५ ॥ वर्णाकृतिप्रभेदाद्रहयोगनिरीक्षणैर्मुनिभिरुक्ताः । तानहमपि प्रवक्ष्ये विशेषतः सारमादाय ॥ ६॥ मेषवृषौ मुखगलयोरंसकपादेषु मिथुनमीनौ स्तः । पृष्ठोदय पार्श्वेषु च निवेशितौ कर्किकुम्भधरौ ॥ ७ ॥ सिंहमृगौ जघनस्थौ पश्चिमचरणे स्थितौ युवतिचापौ । गुह्यवृषण प्रदेशस्फिक्पुच्छौ ककीटक्षों ॥ ८ ॥ मिथुनादयस्तुलान्ताः सव्ये भागे चतुष्पदानां च । वामे झपघटधरमृगकार्मुकभृद्वृश्चिकाश्चिन्त्याः ॥ ९ ॥ मेषादिभिरुदयस्थैरंशैर्वा ग्रहयुतैश्च दैवी । स्वं स्वं वर्णं ब्रूयाद्गात्रे चिह्नं व्रणं वाऽपि ॥ १० ॥ स्वगृहांशकसंयोगाद्विद्याद्वर्णान्परांशके ऋक्षान् । सप्तमसंस्थाः कुर्युः पृष्ठे रेखां स्ववर्णसमाम् ॥ ११ ॥ वीक्षन्ते यावन्तो वियोनिवर्णाश्च तावन्तः । बलदीप्तो गगनचरः करोति वर्णं वियोनीनाम् ॥ १२ ॥ पीतं करोति जीवः शशी सितं भार्गवो विचित्रं च । रक्तौ दिनकररुधिरौ रविजः कृष्णं बुधः शबलम् ॥ १३ ॥ स्वे राशौ परभागे परराशौ स्वांशके तिष्ठन् । पश्यन् ग्रहोऽपि लग्नं सुवर्णवर्ण तदा कुरुते ॥ १४ ॥ . १ समासेवते. २ तद्वीक्षिते चोदये.
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त्रिपञ्चाशोऽध्यायः। परिघपरिवेषजलदैः शङ्कुकवेधैर्ध्वजैश्च वृक्षश्च। वृषमृगदण्डैः सः शक्रधनुःपांसुभिर्वापि ॥ १५ ॥ यद्वर्णन वृतः स्याद्रहस्तमिह वर्णमादिशेन्मतिमान् । स्वाभाविकैर्ग्रहाणां वर्णैवर्णा भवन्ति जातानाम् ॥ १६ ॥ विहगोदितदृक्काणे ग्रहेण बलिना युते च चरभांशे । बौधेऽशे वा विहगाः स्थलाम्बुजाः शशिनिरीक्षिताः क्रमशः ।। लग्ने जलजे बन्धौ पेक्तिः स्याद्वीक्षितेऽपि वा जलजाः । स्थलजे वा तद्दष्टे ग्रहवर्णसमस्थलप्रभवः ॥ १८ ॥ लग्नार्कजीवचन्द्रैरबलैः शेषैश्च मूलयोनिः स्यात् । स्थलजलभवनविभागा वृक्षादीनां प्रभेदकराः ॥ १९ ॥ अन्तःसारान्वृक्षान्भानुर्दुर्गान्करोति तद्रूपान् । क्षीरस्नेहसमेतान् शशी गुरुः फलसमेतांश्च ॥ २० ॥ कटुकण्टकिनो रुधिरः सुदुर्भगांस्तरणिजस्तथा शुक्रः । कुसुमफलस्नेहयुतान्बुधश्च बलवर्जितं जनयेत् ॥ २१ ॥ क्रूरः सौम्यगृहस्थो वृक्षमनिष्टं करोति शुभदेशे । सौम्यश्च पापभवने कुत्सितदेशे शुभं चापि ॥ २२ ॥ व्यामित्रैः शुभभूमौ भवन्ति मिश्राः सदा वृक्षाः । स्थलजलपतयस्तेषां स्थलजलजानां तु संभवे दक्षाः ॥२३॥ स्थलजलखगौ विलग्नाद्यावति राशौ तु तेऽपि तावन्तः । खांशात्परांशगामिषु यावत्संख्या भवन्ति तावन्तः ॥ २४ ॥ स्वांशे सौम्यैरबलैर्वियोनिलग्ने वियोनिजातं च । तद्वदलिभिः पापैः स्वराशिसदृशांशसंयुक्तैः ॥ २५ ॥ अबलग्रहराशिगता अस्तं याताः पराजिता भिन्नाः । क्रूरयुता दृष्टा वा सद्यो निम्नन्ति ते नित्यम् ॥ २६ ॥ उद्भिजरायुजानां तथैव संस्खेदजाण्डजानां च । प्रसवं व्यस्तसमस्तं ग्रहयोगैर्लक्षणैर्वक्ष्ये ॥ २७ ॥
१ शनिशशीक्षणाद्योगात्. २ पक्षी. ३ जलजः. ४ लमे.
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२१०
सारावली।
दुर्बलगृहे ग्रहेन्द्रा मेषो राशियंदोदयं याति । भानुश्चतुष्पदगृहे चतुष्पंदस्तत्र भवति सामान्ये ॥ २८ ॥ सामान्येनाभिहितो वियोनिसंज्ञो मया समासेन । अधुना कौतुकजननं विशेषतः संप्रवक्ष्यामि ॥ २९ ॥ इह तु द्वादशभागो राशौ राशौ प्रचोदितः पूर्वम् । जनयन्ति ते वियोनि याता वलिभिः शशाङ्करविलग्ने ॥३०॥ मेषे शंशी तदंशे छागादिप्रसवमाहुराचार्याः । गोमहिषाणां गोंऽशे नररूपाणां तृतीयेऽशे ॥ ३१ ॥ तत्र चतुर्थे भागे कूर्मादीनां भवेदुदकजानाम् । व्याघ्रादीनां परतः परतो ज्ञेयं नराणां च ॥ ३२ ॥ वणिगंशे नररूपा वृश्चिकभागे तथा भुजङ्गाद्याः । खरतुरगाद्या नवमे मृगशिखिनां स्यात्तथा दशमे ॥ ३३ ॥ ज्ञेयाश्च तत्र विविधा वृक्षास्तृणजातयश्चित्राः । एकादशे च पुरुषा जलजा नानाविधाश्चान्ये ॥ ३४ ॥ मेषे द्वादशभागे जायन्ते जातयो विविधरूपाः । शेषेष्वपि चैवं स्याद्भवनेषु यथाक्रमं नियतम् ॥ ३५ ॥ यो यत्र भवेदाधस्तस्याकृतिमादिशेत्कृते तत्र । ब्रूयात्क्रमेण मतिमान्द्वादशभागात्मके नवमे ॥ ३६ ॥ ज्ञेयादेवं पुंग्रहनवांशकैर्लग्नगैर्द्विमूर्तिभ्यः । आद्यांशे योगैरपि जायन्ते बहुविधाः सत्वाः ॥ ३७॥ श्वप्रभृतीनां प्रसवे यावन्तो द्वादशांशका लग्ने । तावन्ति वदेत्प्राज्ञः पुंस्त्रीसंज्ञान्यपत्यानि ॥ ३८ ॥ लग्ने जीवोऽथवा सौरश्चन्द्रो वाऽपि स्थितो भवेत् । कूर्मादीनां तथा संख्या द्वादशांशेषु यावती ॥ ३९ ॥ शुक्रो भौमो बुधो वाऽपि चन्द्रो वापि शनैश्वरः । कुर्वन्ति बलयुक्तानि भागेष्वङ्गानि पूर्ववत् ॥ ४० ॥ स्वांशात्परस्य भागे यस्मिन्काले ग्रहाः समुपयान्ति । तत्र विकारा ज्ञेया लोकविरुद्धा ध्रुवं प्राज्ञैः ॥४१॥ १ सम्भवति तत्र. २ शशिनि. ३ मृगाः समीनास्तथा. ४ वृक्षा गुल्मा.
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त्रिपञ्चाशोऽध्यायः।
२११ वृश्चिकलग्ने भवने तन्नवभागेऽथवा द्विपदसंज्ञे । बिलवासिनां प्रसूतिघोराणां निर्दिशेत्तत्र ॥ ४२ ॥ गोधानां सर्पाणां लोपाशानां च शल्यकानां च । मूषकबिलेशयानां राशिमतां चापि कीटानाम् ॥ ४३ ॥ हयनरविदेहलग्ने द्वादशभागे नवांशके वापि । पश्यति नरेन्द्रसचिवस्तत्रोत्पत्तिर्भवेदेषाम् ॥ ४४ ॥ लूतानां नकुलानां वृश्चिकपद्धिन्दुजातकानां च । अविषाणां सर्पाणां श्वभ्राश्मनिवासिनां चैव ॥ ४५ ॥ वाजिखराश्वतराणां गोमहिषाणां तथोष्ट्राणाम् । गुरुवर्णकल्परूपान्प्रवदेन्मतिमान्बलेनैव ॥४६॥ मृगवदने लग्नस्थे तन्नवभागे तथापि सूर्यांशे । आरण्यानां सूर्ति सत्वानां निर्दिशेत्क्रमशः ॥ ४७ ॥ नागानां खड्गानां वृकशरभवराहवानराणां च । ऋक्षोग्रसृगालानां व्याघ्रादीनां भवेत्सूतिः ॥४८॥ मीने मीनांशे वा तजे सूक्ष्मांशकेऽपि वा लग्ने । गुरुदृष्टे विज्ञेयो बहूदकोत्थः सदा सत्वः ॥४९॥ भेष मेषांशे वा भौमेन निरीक्षिते सदाजावी । वृषभे तु वदेत्तद्वगोमहिषाद्यान्सदा भृगुणा ॥ ५० ॥ खं वं पूर्व विलग्नं खैः खैदृष्टं यदेह पतिभिस्तु । स्वभवनसदृशान्विद्वान्प्रवदेदविशङ्कितं तत्र ॥ ५१ ॥ ग्राम्यगृहेषु नवांशाः पञ्चमनवमांशसंयुक्ताः । आरण्यानां सूर्ति ग्रामेषु सुनिश्चितां कुर्युः ॥ ५२ ॥ स्थलजलराशिविभागा नागरभवनेषु लग्नसंस्थेषु । स्थलजलचरसत्वानां जनयन्ति भवं हि विटपानाम् ॥५३॥ उदयति वणिग्विलग्ने तद्रेक्काणे सितेन संदृष्टे । शुकसारिकान्यपुष्टाश्चकोरभासाश्च जायन्ते ॥ ५४॥
१ पञ्चमदशमाष्टराशि.
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२१२
सारावली। सिंहोदये तथाये सूक्ष्मांशे रविनिरीक्षिते सूतिः । कुक्कुटमयूरतित्तिरिपारावतचन्तुनादीनाम्(?) ॥ ५५ ॥ स्थिरभोदये तदंशे शेषौ ? ग्रहसंयुते च दृष्टे च । प्रासादगृहादीनां भूताप्तिः पूर्ववज्ज्ञेया ॥ ५६ ॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां वियोनिजन्माध्यायो नाम
त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ॥
चतुःपञ्चाशोऽध्यायः । तिर्यग्विश्वोर्ध्वमन्दं गिरिगिरिशपदं न्यस्य चक्रं तदूर्व
मेषाद्या राशयः स्युर्ग्रहगणसहिता शिष्टमिष्टस्य सद्म । तस्याधः सोऽपि मुख्यं ग्रहगणमुदयं चा....क्ष्माक्रमेण । न्यस्याधः खीयचक्रे स्वपदसहितभाक्खाष्टके बिन्दुरेखा १ पूर्णबिन्दुभिरष्टभिः पदगतैहीनोऽपि भूपो भवेत्
एकैकोनतया क्रमात्फलविधिः सर्वेस्थि........। ....................प्रियसुहृत्प्राप्तिर्विपच्छून्यता
वित्तानामपि हानिराधिकृशता शून्यक्रमे संक्षयः॥२॥ सूर्यस्याष्टसु बिन्दुयु क्षितिपतेराप्ता विभूतिर्धनं
सप्तखद्भुतकान्तिसौख्यविभवः घट्सु प्रतापोन्नतिः । पञ्चवर्थसमागमः सदसतोः साम्यं चतुष्के त्रिके
त्वध्वश्रान्तिरथ द्विके गदभयं रूपेऽथ शून्ये मृतिः॥३॥ इन्दोर्भागविभूतिकाञ्चन............वस्त्रान्नगन्धोद्भवाः ___ सन्मत्रीद्विजसङ्गमोद्धृतिमही....दुःखसौख्यास्थितिः । द्वेषो बन्धुजनैः प्रियार्थविरहोऽकस्माद्विपदुस्तरा___ च्छोकोद्वेगजबलाः....नियतं प्रोक्तं फलानामिदम् ॥४॥ आरस्यार्थमहीसपत्नविजयाः सौभाग्यकान्तिप्रदाः
राज्ञां वल्लभता प्रसिद्धगुणता साम्यं विषमं पदोः । भ्रातृस्त्रीविरहो विपत्परिभवो राजाग्निपित्तज्वरैः
स्फोटैर्दूषितमा(गा?)त्रता जठररुङ् मूर्छाक्षिरुङ्मृत्यवः १ उत्पत्ति.
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चतुःपञ्चाशोऽध्यायः ।
२१३ ज्ञस्य क्षमापतिमान्यता द्रविणतो विज्ञानसौख्याप्तयः
सर्वोद्योगफलोदयो नवसुहृत्प्राप्तिर्निरुद्योगता । चित्तव्याकुलता.......................
...................सर्वखहानिर्मृतिः॥६॥ .....................
............प्तयो वासो वाहनहेमलब्धिरहितध्वंसक्रियासिद्धयः । लाभच्छेदविहीनता श्रवणकपुंस्त्वप्रणाशादयो
भूभृत्कोपभयं गदै....रशदाद्वन्ध्वर्थपुत्रक्षयः ॥ ७ ॥ शुक्रस्याखिलभोगवस्त्रवनितापुष्पान्नपानाप्तयो
भूषामौक्तिकपुष्टयः प्रियवधूलाभः सुहृत्सङ्गमः । मध्यस्थः शुभपापयोजनपदग्रामान्नविद्वेषता ___ स्थानभ्रंशरुजः कफश्व विषमे सर्वापदां सङ्गमः ॥ ८॥ सौरे ग्रामपुराधिपाद्यधिपता दासीखरोष्ट्राप्तयः
पूजा चोरनिषादसैन्यपतिभिर्धान्यार्थलाभागमः । अन्यो....लिकसौख्यता सुतवधूभृत्यार्थविध्वंसनं
बन्धोद्वेगरुजो महाधनतया भार्यादिसर्वक्षयाः॥९॥ इत्थं होराशास्त्रं रचितं कल्याणकोविदेनैव । पूर्वाचार्यनिर्मित................दैवज्ञः ॥ १० ॥ पोलिशरोमशवासिष्ठयवनबादरायणाः शक्तिः । अत्रिश्च भरद्वाजो विश्वामित्रो गुडाग्निकेशौ च ॥११॥ गर्ग........................विस्तरं रचितम् । ....शास्त्रेषूक्तं जातकमितिचित्रगुप्तकृतम् ॥ १२॥ इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चतुःपञ्चाशोऽध्यायः ।।
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सारावलीपद्यानामकारादिकोशः ।
अ.
अ० श्लो. २८-३० ३०-६८ २८-५५ २७-३५ २३-६८ १५-१८ २०-२७ २६-५३ २३-१८ २९-६३ २७-६०
५०-१ ३८-२१ २७-४४
अकलत्रं सुखरहितं अकुलीनो विकलाङ्गः अकुशलकर्मा द्वेष्यः अगृहः प्रभिन्नदारः अग्नीनां परिचारका अङ्गप्रत्यङ्गानां छेदं अङ्गारकोऽपि कुरुते अचतुरममृष्टवाक्यं अजवृषकर्किविलग्ने अजसंस्थानमुखः अजादितः क्रूरशुभौ अटनप्रियाः सुरूपाः अटनप्रियोऽल्पसत्वः अटनमसुखं दरिद्रं अत उत्तरेण चण्डाः अत एव विस्तरेभ्यो अतस्तृतीये नक्षत्रे अतिकर्मकृदतितीक्ष्णो अतिकामं कुजदृष्टो अतिकृष्णतनुं शूरं अतिचपलमतिविरूपं अतितप्तो वाचाटो अतिथिद्विजदेवरतिः अतिदुष्टदारशत्रुः अतिधनमतीव मधुरं अतिपरिभूतः कृपणः अतिमतिरतितेजस्वी अतिमतिरतिविभवबलो अतिमदमतीव सुभगं अतिमधुरगमनमधनं अतिमलिनमति च शूरं
अ० श्लो.
अतिमलिनमलसमटन २५-५८ अतिरूपदारसौख्यं १६-२७ अतिरौद्रमति च शुरं ३०-३४ | अतिललितमति च धनिनं ४४-४० अतिविभवमत्युदारं २०-३० | अतिशयधनो नयज्ञो ४०-७२ | अतिशयबलयुक्तः ४४-१३ अतिशयरूपं ललितं २३-५४
अतिशरमतिप्राज्ञं १२-१० अतिशूरं विक्रान्तं ५०-२ अतिसुभगमति च मलिनं ३-२० अतोशके लग्नगते तु २१-४३ अत्यरिभवनं प्राप्तः २२-५७
| अत्यर्थ द्युतिमन्तं २३-२९ अत्युग्रतरो नृपतिः ३६-१५ अत्युग्रमतिद्रव्यं महान्तं
१-४ अत्युच्चस्था रुचिरवपुषः १०-७५ अथवा निषेककाले ४५-२४ अथवाप्यन्यतरयुते २३-१० अथ होरागतो भौमः २५-६१ अथ होरागतः सूर्यों २०-३० अदृढस्मृतिं दरिद्रं १६-११ अधनः कदशनतुष्टः ४७-२८ अधनः परोपकारी २६-२२ अधनं दुःखितमटनं २७-३२ अधनं व्याधितमटनं ३०-५२ अधिकद्वेष्यं स्त्रीणां ३०-२१ अधिकमनिष्टं स्त्रीणां ३०-११ अधिमित्रगते केन्द्र २३-५६ अधिमित्रांशगश्चन्द्रो २५-६३ । अधियोगादयोऽन्येऽपि २३-७३ / अध्वनिरतः सुपुण्यप्रसक
४४-१ ३५-३३
८-६३ १०-५९ १०-९१ १०-८५ २३-४३ ३०-२७ २९-१९ २३-६६ २३-४५ २८-५७
३५-१४५ ३५-१९२ १३-३३ २५-१३
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२१६
अनपचयराशिसंस्थे अनिवारितरणवेगः
अनुदितचक्रार्धयुतैः अनुपमदेहं कुरुते अनुपमधैर्यं कुरुते
अनुपम विद्यावृत्तं
अनुपहत देहबुद्धिः अनुपातात्तिथिः कल्प्या
अनुयाति शिष्टपदवीं
अनृतप्रियं सुवाक्यं
अनृतं वञ्चनपापं
अन्तर्दशा ग्रहाणां अन्तर्दशा दशायां भृगोः अन्तर्दशा दशायां सितस्य
अन्तर्दशा यदा (स्यात्) अन्तर्दशा शुभायां अन्तर्विषमः कामी
अन्तःसारान् वृक्षान् अन्त्याष्टमादिभागे अन्त्ये तृतीयभागे जल अन्त्ये तृतीयभागे लोष्टक अन्त्ये वयसि च लक्ष्मी अन्यैः क्रूरोत्पातैः अन्योन्यभागगतयोः
अन्योन्यं रविचन्द्रौ अपगतधृतिरूक्ष श्मश्रु
अपरिमितायद्वारो
अबलग्रहराशिगताः
अब्दाधिपाश्चतुर्थांः
अभिघाताद्विषपानातू
अभिजातं कुलपुत्रं
अभिमुखकर प्रवाहाः
अयनक्षण दिवसक अयमेव समुद्राख्यो अर्कः कलिङ्गविषये
सारावली |
अ० श्लो०
८-२
अर्कार्किभ्यां दृटे
२२-४६ | अर्कादिग्रह दैवतमन्त्रैः
९-२२ अपरश्चारुवचा २३-६२ | अर्थविहीनः प्रेष्यो न २३ - ५३ अर्थार्जने सहायः
२७-६६ | अर्थोत्पादन कुशलं ३०-३८ | अर्धमेकस्थितो भागं
५१-४
४१-५३
२६-२७
२७-२८
४१-९
४१-४७
४१-४४
४१-१० | अल्पायुर्बन्धनभाग्दीनो
४१-५६
४७- १५
५३-२०
अविरूपं मन्दगृहे
अविषादी कर्मपरः
३८-३ ४६-३९ | अंशपतेश्चन्द्रस्य ४६-३७ अंशाधिपजन्मपती अशुचिः परान्नकाङ्क्षी अशुभगगनवासैः
२९-१८
३८-१२
४५-१८ अशुभशुभैः सन्दृष्टे
८-१८
अशुभ क्षीणेऽस्तगते अंशे मीन युगा अंशोद्भवं विलग्नात् अश्विन्यनुराधास्थः
अष्टमगतस्य भानोः
असदृश कायः पूज्यः
असहः प्रचण्डशूरः
३७-२३
३०-६०
५३-२६
७-२
अलसं मलिनं सधनं
अलसशठः कुटिलनसो
अलसं सुखिनं स्थूलं अललितसुखमित्रयुतो अलसो लोकद्वेष्यो अलिनि त्रिविंशयुक्ते
अल्पवदनश्च मध्ये
३५-९१
७- १४
अविकलमतिं नयज्ञं
अवितथकथनं मधुरं
४६-३०
२३-३४
३६ - २८ | असहिष्णुरनिष्टसुतः
४-१७
असितजलदकान्तिः असुरदयितोऽस्वतन्त्र अस्तंगतो विरश्मिः
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अ० हो०
२२-१२
४-१३
२९-१३
२९-३
२-५
२३-१९
४१-१
२३-७१
५०-८४
३०-७३
३०-१५
३०-६१
१०-११२
४९-२९
१८-३
२३-२६
२६-३७
२५-६४
३०-२३
२४-२४
१०-१७
२२-५५
३५-३
१०-५२
४५-१७
४६-४४
३९-२
३५-१६५
४०-५९
१६-१४
२५-९
४७-१२
३७–१९
४४-१८
३६-९
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________________
पद्यानामकारादिकोशः।
अ० श्लो.
५३-५
८-४७ २१-२२ २९-२८ २१-२४ १३-२० ३५-२८
११-९ २८-५८ २९-४८
२.
१०-१
अ० श्लो. अस्तेऽशुभयुतदृष्टे
| आधाने जन्मनि वा अस्त्राचार्यो मतिमान् ३१-५८ आधाने हि मयोकं अस्मिन्नायुर्दाये
आधानोदयशशिनोः अवस्थो विकलाङ्गः १६-२२ आऋतिककितवबन्धन अहितेभ्योऽर्जनभीरुः
२५-१२
आऋतिकमधर्मपरं आ.
आनृतिकगुप्तिपालाः
आऋतिको बहुवित्तो आकरगिरिदुर्गरतं
२५-४२
आपूर्णमण्डलकलाकलितं आग्नेयसौम्यदृष्टौ
८-५४ आचारशौचनिरतो
आपूर्यमाणमूर्तिर्द्वादश २६-२३
आभरणभूषणानां आचारसत्यशुभशौच
आयतकुलजातानां आचार्यो व्रतदीक्षा २७-१७
आयनवलसमुपेतो आजन्मतो नराणां ३४-६८
आयुर्ज्ञानाभावे सर्व आजीविनां कुहकिनां २०-३३
आयुषो येन यद्दत्तं आद्यः कर्मोद्युक्तः ३२-१५
आये बुधेऽपि वर्ग आढ्यं नृपात्तकीर्ति
४४-२४
आरक्षकः प्रधानः आट्यस्त्वनेकविद्यो
२८-४
आरण्यभवनलग्ने आढ्यो रुचिरसुपुण्यो २८-१४
आरस्यार्थमहीसपत्नविजयाः आताम्रदारिताक्षः ४८-२२
आरामपुत्र(बुद्धि)सेवा आत्मत्रिकोण आर्किः
आर्योचितवाग्वृत्तिः आत्मनि रक्षानिरतः २१-३७
आर्य ग्रामश्रेष्ठं कुटुम्बिनं आत्मादयो गगनगैः
आर्यः कुलटाद्वेषी आत्मा रविः शीतकरः
आविंशतेर्भवेयुः आत्मीयनाथदृष्टः
३-२५
आशाबलसमुपेतो आदित्यगुर्वार्किशशाङ्कपुत्राः २०-४
आश्रययोगे जाता आदित्यस्य दशायां शनैः ४१-१७
आहितकलासमूहः आदिये हिवुकस्थे
३१-१९
आहितधनः सुमेधाः आदौ दशासु फलदः ४०-७५ आद्यन्तवयसि सुखिताः २१-२६ आद्यन्तवर्णलोपात्
इज्याव्रतनियमपराः आद्याम्बुसिक्तवसुधागरु ३७-२१ इतिहासकाव्यकुशलं आये कन्याव्यंशे ४६-३३ | इतीरितोऽयं स्वगुण आये मिथुनत्र्यंशे ४६-२७ इत्याकृतिजा एते विंशति आद्येऽलिनस्त्रिभागे ४६-३६ इत्याधानविधानं आये वणिकत्रिभागे ४६-३५ इत्याधानं प्रथम
१९ सारा०
४०-१ ३४-६१ ४४-२९ ९-१० ५४-५ ३३-६६
१७-३ २७-३७
-
w
३
w
w
२-२
३४-५ २७-२६ ४९-३७ २१-१७
८-५२
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२१८
इत्युक्तं शुभमन्यदेवमशुभं इत्थं होराशास्त्रं इन्दुर्जलं कुजोऽग्निर्जलम्
इन्दुसुतस्य दशाया इन्दुः खोच्चे पश्यन् इन्दोर्भागविभूतिकाञ्चन
इषुकरणदस्युबन्धन इह तु द्वादशभागो
ई.
ईज्येज्यावङ्गिरा जीवः ईर्ष्यान्विता सुखपरा ईश्वरभृतको मूर्खः ईषत्पिङ्गललोचनश्रुति
उ.
उक्त बहुप्रकारं उक्तं फलं गगनगा उक्तो हि यवनवृद्धैः
उच्चबलेन समेतः परां उच्चबलं कन्यायां बुधस्य उच्च भागत्रितयं वृष उच्चराशिर्भवेद्धोरा उच्चराशौ विलोमे च उच्चस्थ : शशितनयः
'उच्चस्थ स्त्रिदशगुरुः उच्चाभिलाषी सविता उडुपतिकृतरिष्टानां
उत्कृष्टवाक् स्थिराङ्गः
उत्तमरूपो गुणवान्
उत्तरमयनं प्राप्ताः
उत्तमगृहशयनानां
उत्तमरामः सुभगो
उत्थान विवाद जिताः उत्पातक्रूरहते तस्मात्
सारावली ।
अ० श्लो०
५२-९
५४-१०
उत्सवसमाजशीलो उत्सृष्टवचाः स्मृतिमान् ८-३ उत्सृष्टा सूर्येऽस्ते ४१-३० | उदकचरनवांशकेषु ३५-१११ उदयगिरिनिविष्टैः
५४ -४
२१-३८
५३-३०
उदयति गुरुरुचे उदयति मीने शशिनि उदयति वणिग्विलने
उदयनवांशाधिपतेः
४-११
उदयशिखरिसंस्थो उदयाद्वाविंशतिम ० ४५-२५ उदयास्तगतैः पापैः ३१-७३ | उदितांशसमो मोहः
४-२५
उदये दिनकरपुत्रे
उदये चागस्त्यमुनेः उदयेऽसुरमन्त्रिवरो
३२-११२
१५–२३
५२-१
५- २८ | उद्दण्डघोणकुक्षिः ५- २१ | उद्धतमूर्तिः सुशिराः ५- २२ | उद्बन्धनमतिचपलं ३५-३६ उद्भिज्जरायुजानां तथैव ५- १४ | उद्युक्तकर्मसुभगः ३५-११६ उन्नत विततललाटः
३५-१२१
३५-४९
११ - २ | उद्वेगरोगतप्तः
५०-४५
उद्गतदशा व्यतीता उद्घोणो रूक्षदेहः पृथुक
उन्नासश्याम चक्षुः सुरत उन्नासो व्यायताक्षः
उपकारी च परेषां उपचयगृहसंस्थो जन्मपो
३२-२४
४-३७ | उपचयभवने शशभृद्दृष्टो ३२-१४ | उपचयगौ रविशुक्रौ
१३-२२
उपासका बुद्धसमाश्रयं
३०-७१ | उभयस्थिरचरसंस्थैः
८-३२
उल्कायाः पतने चैव
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अ० श्लो०
३२-११
१४-६
४५-१६
३५-२७
३५-७
३५-१८
३५-१४
५३-५४
४६-२०
३५-१७९
४६-२२
८-३६
४६-२१
३४-७८
१२-९
३५-७०
५१-२०
२३-७२
५०-८७
४८-७
२८-२६
५३-२७
४७-८
५०-३९
२३-१६
२३-४४
२८-२१
२८-१०
३५-३२
८-५
८-११
२०-३२
२१-१८
३८-११
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पद्यानामकारादिकोशः।
२१९
८-४
mr mr
अ० श्लो.
अ० श्लो.
एतेषां फलयोगं कथयामि २१-२० ऊनातिरिक्तदेहा २१-४५ / एते समस्तयोगाः ३३-६३ ऊवं पञ्चदशाप्तिः ३६-१२ / एते सर्वे भङ्गा मया १२-१५ ऋ. एभिर्लग्नाधिगतः
३-३८ ऋक्षं भवननामानि
एवं क्रमेण हृत्वा
५१-१५ ऋग्वेदाधिपति वो ४-१९ । एवं करै शो
३४-४६ ऋणवान् डम्भप्रायः १५-१९ एवं त्रिभिश्चतुर्भिः
३१-८७ ऋतुवाच्यो गाणांशे ५१-२ | एवं त्र्यादिषु वाच्यं ३३-४९
एवं फलनिर्देशः
३४-६५ एक एव खगः स्वोचे
एवं महेन्द्रशास्त्रे एकतमे गुरुवर्गे
३४-२६
एवं यद्भवति रजो गर्भस्य एकत्रिंशद्भिस्तु प्रवराः
एवं सर्वप्रयत्नेन जायमानस्य १०-११५ एकं त्रीनथवा वहन्ति २०-३४ | एवं स्थानविशेषैः
३२-५१ एकद्वित्रिचतुर्णा ४१-७ एष्विह भवन्त्यवश्यं
३५-४ एकभवनादिसंस्थैः २१-१९ एकसंगतैः सर्वैः २०-२९ / ऐन्द्राद्यं परिवतॆत्रितयं ३-२२ एकक्षसंस्थितदशा
४१-६ / ऐश्वर्यरत्नकाञ्चन एकस्मिन् पञ्चकृतौ ३५-१६१
ओ. एकस्त्रिंशद्भागैर्युक्तः ७-४ ओजः गुरुसूर्यो
८-१५ एकान्तरगैविहगैः ३५-९०
| ओजसमराशिसंस्थौ
८-२० एकादशगे धनवान्
ओजखिनमतिशूरं
२८-६२ एकादशे तृतीये होरायां १०-६८ | ओजस्वी बहुशत्रुः एकादि पञ्च यावत् ३६-१० ओजखी साहसिको एकांशस्थितयोर्वा
९-४० ओजे स्थिताः पुमांसः १०-२ एकेनापि न दृष्टं ३४-९
औ. एकेनापि शशाङ्को
३८--१९
औत्पातिकः कृशतनुर्निशि १३-३१ एकैकेन फलं स्यात्
औत्पातिकाः सवितृलुप्त ५-२७ एको जन्माधिपतिः ११-१७ एकोनविंशतिर्भानोः
कटुकण्टकिनो रुधिरः ५३-२१ एकोऽपि विहगः कुर्यात् । ३५-६४ कटुलवणतिक्तमिश्रित ४-१५ एकः पापोऽष्टमगः शुक्र १०-८ | कन्दर्परूपनिपुणः ४९-१९ एकः खोचे शुभगगनगः ३५-१४१ कन्दर्पसदृशरूपं
२६-४७ एते न यदा योगाः
१३-२ कन्याकुमारकाणां २६-५९ एतेनैव तु विधिना १०-६७ | कन्यानामतिदयितं २५-५९ एतेषां गुणदोषान्
३-१९ / कन्यानुजो न बन्धुः ४७-१६
३२-८
३
क.
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२२०
सारावली।
कन्यापुररक्षकरं कन्यामीनांशस्थान् कन्यायां पद्मिनीशत्रुः कन्यायां प्रथमेंशे कन्यायां बहुदारं कन्यालिवृषभसिंहे कन्याविलाससत्वस्थितिः कन्यैव खगृहे दुष्टा कफमारुतरोगातः कफवातिककलिरुचिको कमलदहनदीप्तिः कमलभवनबन्धुः करभखरशस्त्रतोयात् करभाश्वखरोष्ट्रेभ्यो करोत्युत्कृष्टोद्यद्दिनकृद० कर्कटकादिमभागे कर्कटके शशिजीवौ कर्कटधामनि सौम्यः कर्कटसंस्थः केन्द्रे कर्किणि मन्दे मकरे कर्किणि लग्ने भीरुः कर्किलग्ने गुरुः सेन्दुः कारो नृपतीनां कर्पूरजात्युत्पलपुष्पगन्धो कर्मणि दिनकरसितयोः कर्मणि सुरेज्यशशिनोः कर्मपरां शुद्धांगी कर्मफललाभहेतुम् कर्मसु चपलः ख्यातो कर्माम्बुवित्तसंस्थैः कर्मासक्तं कुरुते कर्मास्तजलहोरासु कर्मोद्युक्तो दशमे कर्षकमतिकर्मकरं कर्षकमधनं कुरुते
अ० श्लो०
अ० श्लोक २५-३८ कर्षणनिरतमथाढ्यं
२९-२५. ८-२६ कलहप्रियो मृदुवचाः २५-३३ ४६-५ कलहप्रियं कुलीनं
३२-५९ १०-११३ कलहरुचिनिद्रालुः
१७-२२ २३-४२ कविकुसुमभोज्यमणि ४५-२८ कष्टदशा व्यसनकरी ४०-६७ ४७-२३ कान्तः क्लेशसहिष्णुः
२५-५ ४५-६ कान्तः प्रतापगुणवान् ५०-१०६ २२-३३ कान्तः श्रुताभिनिरतो २७-१४ ४७-२७ कान्तं मधुरं सुभगं २८-३४ ३७-२० कान्तानुरतो गौरो ३८-२४ कान्तान्नपानगृहवस्त्र
१३-७ ४६-३४ कान्तासुवर्णवेसर ४०-४२ ४६-२५ कान्तिविहीनं मलिनं ३२-६६ ३५-१६ कामपरमति च सुभगं
२८-३९ ४९-१० कामरतिं गणमुख्यं २७-६४ ३५-१६३ कामी बहुतुरगनरः १८-११ १०-१० कामे विवादकुशलो
१६-५ ३५-११९ कारकयोगे जाता ३५-१२७
४६-४ कारकवेधो बलवान् ४७-१४ कार्मुकलग्ने जातः
४७-३४ ३९-२२
कार्मुके त्रिदशनायकमन्त्री ३५-२५ ३८-१३ कार्यविनाशनदक्षः षण्डो २२-४१
कालनरस्यावयवान् ३१-२१ काव्यकथावतिनिपुणः १५-९
कीर्तिसुखमानविभवैः ३१-१७ २८-४३ कुकुलोद्गतां सुशीलां ४७-६
२-३ कुजज्ञवागीश सितार्कि २०-११ २२-२६ कुजभृगुवुधेन्दुरविशशि ३-११ ४६-१३ कुजसौरयोस्त्रिकोणे । ९-३७ २३-५५ कुजार्कजीवार्किभिरत्र ३८-२ ३५-९४ कुजार्किदेवेड्यसितेन्दुपुत्रैः २०-१८ ३०-३५ कुजार्किसोमात्मजदेव २०-६
२३-९ । कुजेन्दुसूर्यज्ञपुरोहितैश्च २०-३ २३-३६ / कुजे विलग्ने च शशी ३५-१५
9
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________________
कुजे विलग्ने तरणेश्व कुजोऽलिगोऽथ मेषे कुत्सितयोषिद्रमणो कुत्सितरामाभर्ता
कुत्सितशीलः कान्तः
कुन्दाब्जकाशधवलः कुब्जाङ्गो वृत्तनेत्रः पृथु
कुमुद गहनबन्धु कुमुदगहनबन्धौ
कुमुदवनसुबन्धुं कुम्भः कुम्भधरो नरोऽथ
कुम्भविलग्ने पुरुषः कुम्भस्य पञ्चदशके
कुम्भस्याष्टमभागे कुम्भेऽति सत्यवाक्यं
कुम्भे दिशति शशाङ्की कुम्भे प्रथमत्र्यंशे कुम्भोदयो न शस्तो
कुरुते ज्योतिषकुशलं
कुरुते द्विमातृपितृकं
कुरुते बान्धवरहितं
कुरुते भयं कुलस्य कुरुते लोकद्वेष्यं कुरुते शत्रुगृहेsa कुरुते शशी धनाढ्यं कुरुते शशी सुशीलं
कुरुते हिमकरपुत्रः कुर्यात्तुङ्गे त्रिकोणे वा
कुलगुणवृद्वैर्वादो
कुलटापतिः प्रगल्भः कुष्टभगन्दर रोगैः
कूटकरो बहाशी कृतकोपचारकुशलः
कृतधर्मकीर्तिरग्र्यस्तेजस्वी कृत्तिकारेवतीखाती
पद्यानामकारादिकोशः ।
अ० श्लो०
३५- १२८ कृष्णनयनं सुकेशं ३५ - १८४ | कृष्णारवुधगुरुसिताः १३-२३ कृष्यादिकर्मधनवान् २२-८ केतुर्यस्मिन्नृक्षेऽभ्युदितः ४७-४१ तोरुदयं पूर्व ३५- १२५ केन्द्रगौ यदि तु जीव २३-५८ | केन्द्रखोचमुपेतः ३५-६० केन्द्रात्परं पणफरमापो ३५-४८ | केन्द्रादिसंस्थिते खेटे २०-२६ | केन्द्रादि स्थैर्ग्रहैर्योगः
३-४ | केन्द्रायास्तधनेषु ४७-४२ | केन्द्रे रविमुषिततनुः ३५- १५९ केन्द्रे विलग्ननाथः सुहृद्भिः ३५-१५७ केन्द्रे विलग्ननाथः श्रेष्ठ २३-७४ | केसरिगो महेन्द्रसचिवो १०-१११ | कौमारदारमाढ्यं ४६-४२ क्रुद्धो मायानिपुणः ४७-४५ क्रूरग्रहस्त्रिकोणे २७-४० क्रूरदशायां क्रूरः २९-६० | क्रूरभवने शशाङ्को २३-२२ | क्रूरराशौ स्थितः पापः ४०-३२ | क्रूरः साहसनिरतः २३-५२ | क्रूरः सौम्यगृहस्थो ४४-१९ क्रूरान्तस्थः सूर्यः २३ - ५० | क्रूरे जामित्रगते नवमे २३-८४ | क्रूरेषु राशिसन्धिषु ४४-१७ | क्रूरैर्गृहसन्धिगतैः ३५-६६ | क्रूरैर्नीचै रिपुभवनगैः ४०-४७ | क्रूरैर्विरूपदेहा लक्षण • १७-२६ | क्रूरैः सुबलसमेतैः सौम्यैः ३०-८१ | क्रोधपरोऽसद्वृत्तो
२६-२ क्लीवं गुरुर्विधत्ते
२६-१४ क्लीवाचारो द्वेष्यः १७- २८ | क्लीवाचारो मानी
३५- १४९ । क्लीबो विपन्नचेष्टः
Aho! Shrutgyanam
२२१
अ० श्लो०
२८-३८
४-४०
४७-२१
१०-१२
१०-१०९
३५-१७८
३५-७९
३-३२
३९-८
१३-८
५२-६
१०-१०३
३५-३९
३५-११८
३५-२४
२७-४५
१६-३
८-६१
४२-१
99-99
४२-३
३०-२६
५३-२२
८-३५
४५-३०
८-५७
८-५६
३५-१३१
९-२३
५३-४
२२-४७
४४-२१
१६-१२
१७-१८
२८-२०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
सारावली।
अ० श्लो. १३-१६ ५०-९० ५०-६० ५०-१२ ४५-३१ ५०-६९ २२-३५ ५४-१२ ८-४६ ८-४५ ४५-१६ ५०-८५ ४७-११ १३-१७
अ० श्लो० क्लेशो मातुः क्रूरैर्वन्ध्व० ९-३४ गन्धर्वलेख्यपटुः कविः कचिद्राज्यं क्वचित्पूजां ५-३८ गम्भीरडक्सुघोणो क्वचित् स्वभाग्यैः क्वचिदेव २१-१० गम्भीरदृक् स्थिरात्मा क्षमासुतः खोच्चमुपाश्रितो ३५-८६ गम्भीरदृगलसात्मा क्षयरोगभयं शौर्य
४१-१८ गम्भीरपिङ्गलोद्धता क्षितितनयस्य दशायां ४२-२ गम्भीरस्ताम्राक्षो क्षिल्याजाविकतान्त्रिक० ४०-३४ | गम्सीरः स्थिरसत्वो क्षीणशरीरश्चन्द्रो
१०-२० गर्ग......विस्तरं क्षीणेन्दुदशायोगे ४०-६२/ गर्भप्रसव विधानं क्षीणेन्दुभौमरविचन्द्र ४६-११ गर्भाधाने चरे राशौ क्षीणे शशिनि विलग्ने कण्टक १०-३८ गलितेन्द्रभूपुत्रैः क्षीणे शशिनि विलग्ने पापैः १०-३२ गान्धर्वकलाकामः क्षीणे शशिनि सपापे
९-४९
गान्धर्वशिल्पकुशलः क्षीणं यदा शशाङ्क १२-११० गाम्भीर्यसत्वमेधास्थान क्षुत्तृष्णार्तिः शोको ४०-२८ गिरिदुर्गतोयकानन क्षुद्रः कठोरचोरः
२८-२ गिरिवनचारी शूरः क्षुद्रः परधनलुब्धो ३१-२८ गीतज्ञः शीतभीरुः क्षेत्रगृहाणां सुहृदां
२९-४७ गीतापरार्धभागी क्षेत्रे ग्रहेन्द्रतुल्यां
३४-४४ गुणवान् परदोषकरः क्षोणीभर्ता याने यस्य ३५-१५३ गुण
गुणवान् विपन्नशील: ख.
गुरुचन्द्रदानवेज्याः खट्वाङ्गपाशवृषकार्मुक० ३७-३२ गुरुणा कविप्रधानं खवास्थितिभवनव०
९-१८ गुरुणा कुजेन भृगुणा खरोष्ट्रयोः पञ्चवर्गः ३९-२४ गुरुदृष्टो मीनस्थो ख्यातो मृदुसुखमूर्तिः
| गुरुबुधचन्द्रा नवमे ख्यातं नरेन्द्रपुरुषं
गुरुवुधशुक्राः सौम्याः ख्यातं विशिष्टचेष्टं
४४-३३
गुरुभागे गुरुदृष्टो ख्यातः कर्मसु विभवी १३-२१ गुरुभेऽसृक् शनिदृष्ट:
गुरुभौमसौरसूर्याः गगनस्थो दिवसकरः १०-१३ गुरुरपि दशमस्थाने गगनस्थौ गुरुशुक्रौ ३१-७८ गुरुमंगे विलग्नस्थो गजतुरगगोधनाढ्यं २८-५९ गुरुविवुधातिथिभक्तो गणोत्तमे लग्ननवांशकोद्गतो ३५-६ गुरुशशिरवयो नीचे गण्डान्तविष्टिपरिघ०
३५-८८
गुरुशुक्रयोः खवर्णाः गण्डोदराक्षिरोगैः ४१-४३ | गुरुशुक्रौ च केन्द्रस्थौ
४७-४० २३-६५ ४९-१८
४९-३
२८-५६
५०-१०४ ३४-७०
२४-५ ५१-१४ २३-८३ ३२-७१
४-९ २४-१६ २५-६० ३२-९२ ३३-११ ३८-१८ ४१-३४
३४-४९ १२-१३
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________________
पद्यानामकारादिकोशः।
२२३
अ० श्लो.
५०-४१
१०-३१ ४७-१३ ४१-२४ १०-७७
४१-११
१०-२७ ३५-१६४
५०-८२
गुरुसौम्यशुक्रचन्द्राः गुरुस्त्रिकोणे होरायां गुरुहिमगुरवीणामेकः गुरोः पञ्चदशाव्दानि गृहवास्तुज्ञानरतं गृहशयनवसनगन्धैः गेयरतिःस्त्रीसङ्गो गोधानां सर्पाणां गोलयुगशूलपाशाः गौरो झषनेत्रगुरुः गौरोऽतिरक्तनयनः गौरोऽपि रक्तदेहः गौरो मृगाकृतिमृदुः गौरो विशालनेत्रः गौरोऽश्वमुखः सुरदो गौरो हयाकृतिमुखो गौरः पृथ्वायतहृत् गौरः शठ सुचक्षुः गौरः मुनेत्रवाग्मी गौरः स्थिरः प्रचण्डो ग्रहणोपगते चन्द्रे ग्रहयुक्तं वा नियतं ग्रहाणां खोच्चसंस्थानां ग्रहाः समेयुर्बहवो ग्रामक्षेत्रतरूणां ग्रामपुरश्रेणीनां पुरोग ग्रामसहस्राधिपति ग्राम्यगृहेषु नवांशाः ग्राहेण मद्यपानात्
घ. घटशी! शुचिकर्मा घटसिंहवृश्चिकोदय घटोदये नीचगतैः घण्टाशिराः कुशिल्पी घण्टाशिरो नतास्यः
अ० श्लो. ३२-१०३ / घण्टाशिरोऽल्पकेशो १०-९२ घृत मण्डगौरगात्रो २०-२५
च. ३९-१४ चक्रस्य पूर्वभागे पापाः २७-५२ चण्डाकारो वश्यो २७-२९. चण्डं साहसनिरतं ४०-४६ चतुरश्रस्थिताः पापाः ५३-४३
चतुरोऽल्पभाग्यवीरो २१-५ चतुर्थस्थानसंस्थस्य ५०-३७ चत्वारिंशद्युक्ताः पञ्चा० ५०-२२ चन्द्रःकुजरवियुक्तः ५०-१०१ चन्द्रः पुष्ये नृपति
चन्द्रः शुभवर्गस्थः ५०-५६ चन्द्रः संपूर्णतनुः ५०-५८
चन्द्रः स्वसुतसमेतः
चन्द्रचतुथैः क्रूरैः ५०-६६ चन्द्रज्ञकुजसुरेज्याः ५०-१०३ चन्ददशायां ज्ञदशा ५०-३१ चन्द्रदशायां प्राप्ता ४९-२२ चन्द्रदशायां वित्तं
चन्द्रदिवाकरगुरवो ९-२० चन्द्रबुधशुक्ररवयो ५-४८ चन्द्रबृहस्पतिशुक्राः १०-८७ चन्द्रशनिशुक्रजीवाः
चन्द्रस्त्रिपुष्करस्थः २९-५३ चन्द्रात्रिकोणराशौ ३६-१७ चन्द्रादष्टमराशौ
चन्द्रादित्यौ तृतीयस्थौ ४६-२९
चन्द्रादुपचयसंस्था
चन्द्राद्रहैर्निगदिताः ५०-२१ चन्द्रादृशमे भानुभूपुत्रो १०-१०८ चन्द्रादशमे भानुर्मातुः
चन्द्रादृशमे सूर्यः ५०-३६ / चन्द्राध्यासितराशे थो ५०-३३ ! चन्द्रारभानुजसिताः
११-४ ३२-३७
८-३८ ३२--९७ ४१-२०
لال کی
w
४१-२१
-३७
au
४०-२९ ३२-५४ ३२-८६ ३२-७४ ३२-१०६
m
१०-५० १०-७४ ३५-१६७ ३५-१७७
३३-३१
९-३५
०
m
|
|
५-१८ ३२-१०२
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________________
२२४
सारावली।
ज.
!
6
अ० श्लो.
अ० श्लो. चन्द्रार्कभार्गवशशाङ्कसुताः -१५ चन्द्रार्कयोरेकतरे
४८-२५ । जनयति गुरुभवनस्थो २९-५८ चन्द्रार्काभ्यां दृष्टे
३२-९ / जनयति बुधेन दृष्टो । २३-८२ चन्द्रावनेयसोमजसित० ४०-२१ जनयति विदेशनिरतं चन्द्रे कुजेन दृष्टे पुष्पवती ८-६ जनयन्ति भाग्यसंस्थाः ३२-१११ चन्द्रे क्षितस्तु कुरुते २७-३८ जन्मकाले विवाहे च चन्द्रेन्दुपुत्रारसुरेड्यभास्करैः २०-८ जन्मनि मातुरनिष्टं २९-४४ चन्द्रे भवति न शूरो ३०-१८
जन्मपतिर्विकलाङ्गः २०-२४ चन्द्रे भौमांशगते ३४-३२
जन्मविधावज्ञाते चन्द्रोऽपि धनस्थाने
जन्मसमये ग्रहाणां ३४
३६-२९ चन्द्रो भार्गवसहितो ३२-३९
जन्माधिपः सूर्यसुतेन दृष्टः २०-२३ चन्द्रो रुधिरसहायो ३२-३६
जन्माधिपतिः केन्द्रे ३५-११४ चपलं नीचप्रकृति
२९-२६
जन्माधिपतिर्बलवान् ११-१२ चपलः शटः कृतघ्नो
४९-२१
जन्माधिपतिर्लग्ने दृष्टः ११-१३ चपलमसत्यं पापं
२९-६२
जन्माधिपतिः सूर्यः १०-२९ चपलमहितं जनन्या २५-६२
जन्माष्टसप्तषष्ठद्वादश १०-५५ चरराशिगते सूर्य
जन्मोदयगृहवर्णा १०-५१
३-४१ चरराशिगतं सौरं
१०-५२
जन्मोदयभवनपती ३५-४३ चापस्याये व्यंशे
जलचरराशिनवांशक ३५-६१ चापाघे भगवान्
जलजी विनं समृद्ध २६-६२
३५-२० चापे भवेत्सुरगुरुः ३५-१४०
जलमुक्तामणिपोतैः ३१-४३ चारित्रविहीनायाः पुत्रो
१६-३१ जलयन्त्रधातुपारदरसा
१८-१६ चारुर्दीर्घभुजः पृथूरु
जलवणिजः सुसमृद्ध्या
जलसंयानो विधनः चित्रं नवं भृगुसुते ९-१५
२५-४८ चिन्तयेज्जायमानस्य
जाङ्गलमथवानूपं १०-११६
३३-३ चिन्ता स्वप्नानुभवैः
जातकमिति प्रसिद्धं
२-४ ४०-७४
जातो न जीवति नरो ३-२१ चिपिटाग्रनासिकः स्यात्
जात्यन्धो बहुदुःखी
१८-४ चूडा यदार्कसक्त
३४-३५
जामित्रे रवियुक्ते लग्न ८-४१ चोरः परदाररतः कुष्टी १९-३
जामित्रे सितशशिनोः ३१-४० चोरः प्रमादबहुलः ४८-२
जायतेऽभिजिति यः ३५-८७ चोरविघाते शूरं
२५-३० जायात्रिकोणसंस्थैः
९-३१ चोरखामी 'धृष्टः स्ववशो १३-१५
जायाभवने कुरुतः ३१-३६
जायाविनाशकारणं २८-६३ छलकृच्च मन्युदुष्टः २९-६ जायासुखसुतहीनो
३१-१६
४-२६
v mm
५०-८१
"
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________________
१७-९
पद्यानामकारादिकोशः।
२२५ अ० श्लो.
अ० श्लो. जिह्मोऽतितीक्ष्णशोको २५-२४ | तत्रोच्चदशा राज्यं ४०-६१ जीर्णवधूजनरमणो
१५-१२ | तनुद्विजास्यो द्रुतगः ३७-३४ जीवः पुनर्हितकरं
४४-७ तन्वर्थसहजबान्धव० ३-२६ जीवः सौरसहायो ३२-४९ तन्वंसबाहुभीरुः
५०-५९ जीवति माता म्रियते १०-५६ तपोगृहं यस्य भवेत्
३५-७६ जीवति विद्यावादैर्विशिष्ट० १५-२० तमसावृते समन्तात्
३-१ जीवनिशाकरसूर्याः ३५-१६८ तरणिबुधचन्द्रसौरा: ३२-८७ जीवसहायः सूर्यः ३३-१६ | तल्लिप्तासप्तहृतात्
५१-१९ जीवसितयोविलग्ने
३१-७५ तस्मिन्नेव च भौमे ३४-३३ जीवार्कयोर्गुणयुतो ३१-१४ तात्कालिकदिवसनिशा ८-५० जीवार्कयोर्युवत्यां
३१-१६
| तामसनेत्रस्तीक्ष्णो जीवार्कास्फुजितोऽहि विच ४-३६ / ताम्रसितारुणहरित. ४-१२ जीवेक्षितस्तुलायां २३-४८ ताम्रारुणाक्षवर्णः जीवे साध्वी नटी ४५-७ | तिमिरामयी दरिद्रः
१८-१९ जीवो बुधो भृगुसुतोऽथ ३५-७५ तिर्यग्विश्वोर्ध्वमन्दं
५४-१ जूकस्य दशमे भागे ३८-१६ तीक्ष्णं चोरें क्षुद्रं
२३-४६ जैवे गुणान्विता मन्दे
| तीक्ष्णः परोपतापी
४१-३८ जैवे सती शनी
| तीक्ष्णालसधनरहिताः २१-४८ ज्ञस्य ६मापतिमान्यता ५४-६ | तीर्थषु सदा रमते
१९-६ ज्ञानकथास्मृतिबाह्यः २९-२२ तीव्रफलराजयोगा
१०-११ ज्ञानकलापरिहीनो
तीव्रमदनं प्रकाशं
२३-८० ज्ञेयादेवं पुंग्रहनवांशकैः ५३-३७ तुङ्गसुहृत्वगृहांशे
६-३ ज्ञेयाच्च तत्र विविधाः ५३-३४ तुझाच्च्युतस्य हि दशा ४०-८ ज्ञो नीचं रविभवने
तुङ्गायस्वगृहोदय ३५-१२२ ज्ञोऽष्टायादिशुभार्थवन्धषु
तुङ्गांसगण्डभोक्ता
५०-५३ ज्येष्ठः पूज्यः सुहृदां २६-१२ तुङ्गेषु षड्वुिधमार्गचराः ३५-५० ज्योतिषकाव्यविधिज्ञं २३-४० तुरगगजपत्तिसंपत् ३१-२९ त.
तुलायां पद्मिनीबन्धुः ३८-१५ तत्कर्मग्रहदिवसे तदेव
तुलायां रुधिरे याते ४६-१५ तत्कालसुहृदरित्वं बलं ९-४८ तुहिनकरस्य दशायां ४१-२२ तत्काले यदि विजयी १२-६ तृतीयगाः शुक्रशशाङ्कभास्कराः३५-७४ तत्तत्परं प्रमाणेन ३९-२५ तेजखिनं कुतनयो
४४-२ तत्र चतुर्थे भागे ५३-३२ तेजस्विनमतिसुभगं तत्र शुभाशुभमित्रैः
८-१० तेजस्विनं विशोक
३२-७७ तत्र स्थितो रविसुतः ३४-२३ | तेजस्वी निपुणमतिः
१६-२
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________________
२२६
सारावली।
अ० श्लो.
३३-६ ३१-३३ ३१-८२
१०-१०६
४७-२ ४६-४१
२८-२३
अ० श्लो. तेजखी वित्तयुतः १७-३४ दशमे नक्षत्रपति(ते) तेजखी सत्ययुतः
२५-१ | दशमे बुधहिमकरयोः तैष्ण्यादवाप्तसिद्धिः ४०-३१ | दशमे भास्करिजीवौ
पुसीसकाललोहक० ७-१३ / दशमे विज्ञानयुतान् त्रयो ग्रहा भ्रातृसुतायसंस्थाः २५-९७ | दर्शनभागे सौम्याः त्रिकोणस्थो यदा चन्द्रः १०-७९ दशविधचिलैत्विा त्रिकोणे दक्षिणे सूर्यः १०-७८ दहनास्त्रतस्करेभ्यो त्रिचतुःपञ्चखगेन्द्राः ३२-११० दाक्षिण्यदानगुणवान् त्रिदशगुरुभूमिसुतयोः ३१-५४ दाक्षिण्यरूपधनभोगगुणैः त्रिदशगुरुमन्दसूर्याः
दाता परकार्यकरः त्रिदशगुरुसौरसूर्याः
दाता सुतुङ्गनासो त्रिदशगुरो रविहिमकरस्य ३५-१३५ । दाता हर्ता दीप्तः त्रिदशगुरौ सिंहस्थे २७-१० ] दानरतो वहुभृत्यो त्रिदशपतिगुरुदशायां ४०-४१ दानवपूज्यः कुरुते त्रिविधमिह शास्त्रकाराः
१०-३
दामिन्यामुपकारी त्रिंशद्भागे भानुम्रहस्य ९-४७ दारमरणं च जनयति त्रिंशत्षभिः सहिता ३६-१९ | दारितपृथुमुखवक्षाः त्रिंशत्सनवा गावो
३६-२१
दारितमुखः स्थिराङ्गः त्रिंशन्मण्डलसहिता ३६-२० दारिखदुःखतप्तं त्रिंशांशबलेन तथा
५-३३ | दारिद्यालस्ययुता० त्रिषु लोकेषु ख्यातो ३१-१३ दाविदारणदक्षः क्षुर० त्वङ्गखदृष्टिशिरोजैः ५०-९३ दासाः खलाः सुरौद्राः
दिक्स्थानकालचेष्टाकृतं
दिक्स्थानकालादिवलैः दक्षः प्रगल्भदाता
२६-३ दिग्भागराशिमण्डल दक्षिणमष्टमसंस्थः सव्यं १०-६४ दिग्वह्नयष्टाविंशतितिथि० दक्षो मधुमण्डलक ५०-७७ दिनकरदृष्टः शुक्रो दद्रूविचर्चिकाद्यैः ४१-१४ | दिनकरसुतेन दृष्टो दन्ताक्षिरोगतप्तः
दिनकरसुतेन सहितो दम्भरुचिं पापरतं
२६-४८
दिवसकराद्यैः खस्थैः दयितं बालस्त्रीणां २७-३३ दिवसे मातापितरौ दयितं स्त्रीणां सुभगं २७-५३ दिवारात्रिप्रसूतस्य दशजलधिगुणाया० ३६-२२ दिवौकसां पतेर्मन्त्री दशभागा ईज्यस्य च ५-२३ दिव्यस्त्रीभोगयुतः दशमे कुरङ्गवर्गे ३३-७८ | दिशति भयं शत्रुभ्यो
३०-१४
१९-२ ४८-२४
४९-१ २२-४ ४४-११ २१-५१
४१-८ ४८-१७ ५०-७१ २१-४६ २६-३१ १५-२२ ३१-४२
४-३४ ३५-१२३
९-१४
२८-३१ २८-४२ १०-६५ ३३-८१
८-२७
४०-२. ३५-१०९
२२-५४ ४१-२६
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________________
दीप्तं विचरति पुरुषः
दीप्तः स्वस्थो मुदितः
दीर्घ विशालशरीरः
दीर्घः कृशो विहारी
दीर्घः शठः प्रतापी
दीर्घाननः सिरालः दीर्घायुरनुपमसुखः
दीर्घास्यः स्वच्छकान्तिः
दीर्घो बृहच्चिराः स्यात् दीर्घो रोमशगात्रो
दीर्घोsसितः प्रतापी
दुःखपरिपुतदेहः दुःखप्रायोऽल्पधनः दुःखी हुप्रच दुःखैर्व्याधिभिररिभिः दुःशीलाभर्तारं
दुःशीलायाः पुत्रः पतिश्च दुर्गन्धी लघुतापनो
पद्यानामकारादिकोशः ।
अ० श्लो०
५-५ देवप्रासादानां कृत्यकरं ५- २ देवमन्त्री कुटुम्बस्यो ५०-३४ | देवारामतटाकान्करोति देवालयाम्बुपावक
५०-१०
देशयागो व्याधिः
देशभ्रंशं व्याधिं
देशाद्देशं गच्छति
देह चिकित्सानिरताः
४९-३३
५०-४४
३०-६९
३७-३१
५०-१०८
१८-९
दैवतपितृकार्यपरः दैवतपितृकार्यरतो दैवविदां नीतिकरं ५०-१०५ | दोषैर्विविधैः ख्यातं २२-९ । द्युनिशोरर्कासितयोः २२-६५ | द्यूते रतोऽध्वनिरतः १८- १ | द्यूनगतेऽकै लग्ने ५- १० | द्यूनचतुरश्रसंस्थे २८-३३ | द्यूनाष्टमगैः पापै ०
१६-१८ | ग्रूने कुजभार्गवयोः ३७-२४ | द्यूने तु कुजनवांश द्यूने बुधसंयुक्तो द्यूने वृद्ध मूर्खः द्रव्यान्वितो नृपेष्टो २२-४० देवाणजामित्रगतो १६-१३ | द्वेक्काणे च दशामूर्तेः
५३-२८ | द्रोहवधाहितबुद्धिः ३२-५ द्वादशभागच्छन्ने ५०-८ | द्वादशंमण्डलभगणं
२७-९
दुर्गाीरण्यनिवासं दुर्गारण्याभिरतं दुर्नामकुष्टरोगैरभिभूतो दुर्बलचक्षुः शूरः दुर्बलगृहे ग्रहेन्द्रा मेपो दुश्चिक्यगतो भाग्यं दूर्वा रामचपलः दृढवैरसत्वधीरः दृढसौहृदो विनीतः दृप्तो गजेन्द्रनयनः दृश्येते शुभदैः खकेन्द्र दृष्टो बुधेन चन्द्रः
द्वाभ्यां त्रिकोणसंस्थाभ्यां १५-१० द्वावरिभवनसमेतौ ५० - ६ | द्वावुच्चगौ जनयतो ३५-३५ | द्विगुणा द्विगुणं दद्युः २३-४७ | द्विगुणाः स्युर्दाधितयो
३२ - ६ | द्विघ्नाः षष्टिनिशाः पञ्च
देवगुरौ भाग्यस्थे मन्त्री देवगुरौ भाग्यस्थे काव्यार्कज ०३२-२२ द्विजमन्त्राणां लब्धिः देवग्रामपुर प्रपोषण ०
१ - ५ | द्विपदचतुष्पदभागिन०
४०-१४
२६-६०
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२२७
अ० श्लो०
२७-४१
३५-१२६
२२-३९
९-१७
४०-७०
४१-५१
१३-२६
३३-७६
३०-२२
३०-५८
५३-१
२४-१८
९-२९
४८-८
१०-३९
१०-३४
१०-३६
३४-५१
४५-२०
३१-३२
४५-२१
२२-४८
१०-८६
४०-२०
२५-१६
९-२४
३-९
४४-२७
४४-४२
४४-२३
५-४२
३६-८
३९-२३
४०-३०
२७-३१
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________________
२२८
सारावली।
अश्लो.
८-८
द्विपदचतुष्पदभागी द्विपदचतुष्पदरूपं द्विपदादयो विलग्नात् द्विशरीरांशकयुक्तान् द्विशरीरांशकयुक्तान् द्वे चार्धयोगसंज्ञे द्वेषपरो विषमो वा द्वेष्यः पतितः क्षुद्रो द्वेष्यः परकर्मरतः द्वौ द्वौ राशी मेषात् द्वौ स्वगृहस्थी कुरुतः यन्तरयोगाध्याये यादिग्रहसंदृष्टं
२९-६६ ३५-१६०
३५-१९ २५-१९ ४०-३९ १३-२४
२५-६ २६-११
४४-९ ३०-८२ २९-२४
अ० श्लो. ०-४ धनिनं परदाररतं
धनुषि च विंशे जीवः
| धनुषि सुरेड्यः शशभृत् ८-२३ | धन्यो वित्ताहर्ता सुख० ८-२४ धर्मक्रियासु सिद्धिः
धर्मपरः शास्त्रज्ञो २९-१५ धर्मपरो निपुणमतिः ३०-२५ / धर्मप्रियोऽतिवाग्मी २२-४५ धर्मरतं हिमरश्मिः
९-१३ धर्मरहितोऽल्पधनिकः ४४-३२ | धर्मव्यवहाररतो विनीत.
३३-७ | धर्मसुतयोस्त्रिकोणं ३४-१० धर्मायसहजसुतगाः
धर्मिष्ठमनृतभीरुं ३२-६७ | धातुज्ञो धर्ममयः स्वधर्म० २३-२८ धात्विन्द्रजालकुशलः
धीरो विदेशभागी २५-२५ धृतगीतनृत्तविभवः २२-२४ धृतिमेधाशौर्ययुतो ३३-७४ धृतिसत्वबुद्धियुक्तो ४१-४९ धृष्टो वरिष्टबुद्धिः ३०-१० ध्वंसयति शत्रुपक्षं २१-३९ १०-६१ न केन्द्रे कश्चिदाग्नेयो १६-२० नक्तं वला मिथुनकर्कि
नक्षत्रनाथसहितः
नखरोमधरं मलिनं ३०-५१ | नगरग्रामपुराणां
नगरजनयोगभोगैः ३२-१८ नगरपुरवृन्दयोगः ३०-४८ न च केन्द्रगताः पापाः १७-१७ न नीचगृहसंस्थिताः २८-२७ न नेधने ग्रहः कश्चित् २३-१४ नन्दन्ति स्वैर्भाग्यः २९-४० ! न प्राप्नोति जरामाशु
४-४२
३४-७७ २७-२५
१५-७ १५-१६ ४९-१७
२८-६ १३-२७
१४-७ ५०-७०
धनकनकरत्नभाज धनकनकवस्त्रयोषित् धनजनसुखहीनः धनदारपुत्रवन्तं धनदारपुत्रसुखितो धनधान्यमूलवणिजः धनपुत्रदारनाशं धनपुत्रमित्रभागी धनरहितविकलदुःखित. धनराशौ द्वादशमे चन्द्रः धनवान् कल्यो वाग्मी धनवान् प्राज्ञः शूरो धनवान् बहुसुतभागी धनवान् भोजनसारो बनवान् वनितानिन्धः धनवान् विद्यायुक्तो भनवान् विधेयभृत्यः धनवान् सुखप्रधानः धनसौख्यमानरहितं धनहीनमनिष्टकर धनिनं नियुद्धकुशलं
१०-९४
३०-२४
३५-१०३ २३-७८ ३१-४४ ३४-६२ ३४-६४ १०-९७ ३५-४१ १०-९३
२१-८ ३५-२२
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________________
पद्यानामकारादिकोशः।
२२९
अ० श्लो. २९-४६
२९-१०
५-४९ १९-४ ३२-१९ २३-७७ ५-२६
४०-७ ४०-५५
अ० श्लो० । नयनविकारी पतितो ३०-३७ निष्ठुरमतिप्रवाचं नयनातुरः कुलीनः
१६-८ नीचकुले संभूतः नरपतिपुरुषमधन्यं २३-२४ नीचक्रियासु निरतो नरपशुवृश्चिकजलजाः ३-२३ नीचगानां ग्रहाणां च नवमगते भवति पुमान् ३०-४६ नीचः परकर्मरतः नयमसुतयोरशुभयोः ४६-७ नीचः पिशुनो द्वेष्यो नवमे दक्षिणकर्ण
१०-७० नीचमपुत्रममित्रं नवमे पञ्चमराशौ १०-६९ नीचर्भगः सकलमेव न स्थूलोष्ठो न विषमवपुः ३७-२९ नीचशत्रुगृहं प्राप्ताः नागानां खङ्गानां
५३-४८ नीचस्य दशा भानोः नानारत्नधनानां
२९-५० नीचस्थे भूशयनं चन्द्रे नानाविद्याचार्यः
२३-४ नीचापतिं विरूपं नानाविधसौख्ययुतं २७-५६ नीचापत्यं कृपणं नामानि चतुर्थस्य तु ३-२९ नीचारिराशिसंस्थाः नारीषु दुष्टरतिषु २८-१२ नीचारिवर्गरहितैः नार्युपचारप्रवरो
४९-३५ नीचे सौरनवांशे नित्यं च धनप्रायं सुखिनं २८-६० नीचोच्चादिविभेदेन नित्यं विहसनशीलं
२९-३४ नीचो मूर्खः षण्ढः नित्यं शुचिः प्रतापी १९-७ नीचोऽलसो दरिद्रो नित्यं सुखप्रधानाः २१-४१ नृत्तविधेर्विज्ञाता प्राज्ञो नित्योद्विग्नो रोगी
१८-१२ नृपकृत्यकरं सुभगं निधनधनारिव्ययगाः ३४-७६ नृपकोशकरं ख्यातं निधनास्तव्ययलग्न १०-९८ नृपजननीपत्नीनां निधने दक्षिणनयनं १०-६६ नृपतिं नृपगुणयुक्तं निधिकरणे निपुणधियः २१-२९ नृपतिं नृपतिप्रतिमं निन्दितजननीपुत्रः ३१-२२ नृपतिं नृपतुल्यं वा निपुणमतिओमपुरैर्नित्यं १३-१४ नृपतिमतिवित्तवन्तं निपुणो ज्योतिषवेत्ता २२-१९ नृपतिमथाढ्यं कुरुते निरन्तरं यदि भवनेषु ३५-९२ नृपतिर्नुपमन्त्री वा निर्मलचारुसुगौरः ५०-२९ नृपतिविरुद्धं जनयति निर्लज्जः पापरतो
१६-१ नृपतिसपत्नं कुरुते निशाभर्ता चाये
३५-९ नृपतिसमर्पितविभवं निःश्मश्रुरोमहिंस्रः
नृपतिसमो विख्यातो निःश्रीकः परिभूतः
३०-८ नृपतीष्टः सत्सुतवान् निषेककाले चरराशिगेऽर्के ८-४४ नृपतुल्यं स्निग्धतर्नु
२० सारा.
२६-६५ २३-५७ ३२-२६ ३५-५९ ३४-७२ ४१-५५ २६-१९ २२-१७ १५-१७
२३-३८ २८-३७ २३-२७ २८-५४
२५-६६ २३-५९ २२-१६ २७-५५ २३-३१
३१-११ १६-२९ २९-३८
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________________
२३०
सारावली।
अ० श्लो. ५०-६०
१४-५ १७-१२ ३२-६३ २२-३७ ४०-३६
WWM
नृपतेरर्थावाप्तिं धैर्य नृपपुरुषं विख्यातं नृपपुरुषशूरमुग्रं नृपमन्त्रिणं गुणाढ्यं नृपमन्त्रिणं नृपं वा नृपमन्त्री नृपतिसमो नृपमन्त्री नृपदयितः नृपसचिवदुर्गपालन. नृपसचिवो निरुजतनुः नृपसंमतः क्षताङ्गो नेत्रातुरोऽतिधनवान् नैकृतिकमलसमधनं नैशान्धो बहुदोषो नौच्छत्रकूटकार्मुक० नौभेदाञ्जलमध्ये न्यूने कुलेऽपि जातो न्यूने मण्डलशोध्यः न्यूनोऽपि कुमुदबन्धुः
३८-१४ २९-५५ २९-८ २१-९ २८-३२
११-५
अ० श्लो० ४०-२६ परदारद्रोहरतिः २८-५१ परदाररतश्चण्डो २७-२७ | परदाररतश्चोरो
२४-८ परदाररतं पापं २४-१२ | परदाररतः शूरः १८-२१ परदाररतिर्दृष्यो २५-३५
परदेशगः सुधीरः ३३-७७ परधनद्वारा ३१-८० परधनहरणे निपुणः १६-३० | परनीचं गते चन्द्रे १६-१० । परपुत्राणां पितरं २९-५२ | परबाधको विशिष्टो २८-१ परभाग्यलब्धसौख्याः २१-२ परमकुलीनापुत्रं ४६-४५ परमोच्चगताः सर्वे १६-३५ | परमोच्चे शिशिरतनुः
परमोच्च स्थितश्चन्द्रो ३५-१०६ (प)वरयुवतिधनविभूषण.
परयोषिक्षेत्राणां प्रभुः ५-४३] परवञ्चनासु निपुणं ४९-२० परविषयदुःखसुखिनं १०-११७ परिकर्मको दरिद्रो मृदुः ३८-१० परिघपरिवेषजलदैः
परिभूतो दीर्घायुतको ४४-४४ परिभूतं सुखरहितं
परिमण्डलाक्षवको
परिविष्टो गगनचरः ४१-३७ पर्यशङ्खहरिशस्नमृदङ्ग ४८-१८ पर्वतवनानुसारी १८-२ पश्यति न गुरुः शशिनं २५-७
पश्यति वक्रः समभे ३६-११ पश्यति सौम्यो बलवान् ३६-१८ | पश्यन् प्रहः स्खलग्न ३६-२५ / पाकस्वामिनि लग्ने १७-२९/ पाताले शशिशुक्रौ
प.
२३-७० २९-१९ ३२-७९ २९-३५
१४-४ ५३-१५
२३-८१ ४९-२५ १२-७
पक्षबलाद्रिपुनाशं पङ्कजविशालनेत्रः पञ्चदशषट्समेतः पञ्चभिर्निनगैः खेटः पञ्चमनवमद्यने पञ्चारिगृहे विहगाः पण्डितभार्यापतिकं पण्डितमाहुः सुभगो पत्नीसहस्रभर्ता पद्माक्षो दीर्घमहाबाहुः परकर्मरतो नित्यं परगृहनिवासशीलो परतो दशकं यावत् परतो मण्डलभाजो परतः परतः किरणैः परदारगमनशीलो
३०-४१
४७-२०
३४-८
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________________
पातीह देशान् खलु पादत्रितयं विदलं
पानान्नबन्धुरहितः पानान्नसौख्यरहितः
पापकरं सुदरिद्रं पापकरा जायन्ते
पापग्रहमध्यगतो
पापग्रहसंयुक्तश्चर पापद्वयमध्यगते
पापभवनं तृतीयं पापा निघ्नन्ति मूर्त्यादीन् पापा यदि शुभवर्गे पापा व्रणं लाञ्छनमेषु
पापास्तृतीयषष्ठाः पापास्त्रयोsपि मिलिताः
पापास्त्रिकोणकेन्द्रे
पापेऽष्टमे तु विधवा पापैर्नभःस्थलस्थैः
पापैर्बलिभिर्युक्ते
पापैरहार्यवृत्तैः पापैर्युक्ते चन्द्रे मातुः पापं मलिनाचारं
पारुष्य दण्डनिरतः पार्थिवमन्त्रिणमग्र्यं
पाशुपतयज्ञदीक्षा पाशे बन्धनभाजः पाषण्डभागिनो वा
पाषण्डव्रतनिरता पिङ्गो निम्नविलोचनः
पितृमातृभक्तमार्यं
पित्तरुगर्दितदेहः पित्तानिलोष्टरोगैः
पित्तासुकृत रोगो पित्तासृग्वह्निभयं
पित्रा रहितं बाल्ये
पद्यानामकारादिकोशः ।
अ० श्लो०
पीनाङ्गी गौरः स्यात्
३७ - ३९ | पिशुनः शठो दरिद्रो ५१-१७ | पिशुनस्त्वसत्यचेष्टो ३१-७२ | पिशुनो न साधुशीलः ३१-६० पीडां धातुत्रितयात् २६-६६ पीडितहृदयो हिबुके १६-१६ पीतं करोति जीवः १० - ४७ १० - ४९ | पीनो विशालदेहः १०- ३५ | पुण्येष्वसिद्धिकलहं ३४ - २१ | पुंराशिगैः शुभखगैः ३०-८६ | पुरुषाकृतिशीलयुता १२ - ३ | पुरुषाभिमानपरकृत् ४-६ | पुष्कलयोगे पुरुषाः ३३-६४ |पुंस्त्रीभवनबलेन च १६- ३८ | पूज्यः सतां प्रशान्तो १०- १६ पूज्यः सतामतिधनो ४५-२७ | पूज्याः सुभगा धीराः ३३-६२ | पूज्यो गणप्रधानो ३४-३७ पूर्णाननः सुचक्षुः ४७ - २५ | पूर्णेन्दुयुते भाग्ये १६-३६ | पूर्णैर्विन्दुभिरष्टभिः ३२- ४४ पूर्ण पश्यति रविजः २६-१६ | पूर्वार्धे संभूतो जननी
२६-४० पूर्वोक्तं चिन्तयेत्सर्वं २०- ३५ पृथुकण्ठनेत्रवदनः २१- ५० पृथुपीनभुग्ननासः
२१- ४७ |पृथ्वाननो बृहत्स्फिक्
२०- ३६
पृथ्वायतवृत्ततनुं
४-२७ पौलिश रोमशवासिष्ट ० २७-६२ पौष्णे फाल्गुन्यां वा २५- ४३ प्रकथितमुनियोगे ४७-४ प्रकृतिस्था लग्नेन्दोः ४१-४५ प्रचुरतुरंग मदलितारातिः
४१-१९ प्रचुरान्नपान विभवं २९-४३ | प्रचुरामित्रस्तीत्रो
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२३१
अ० श्लो०
४७-४४
२६-२०
२७-२१
४०-४०
३०-७७
५३-१३
५०-६१
२७-३
४०-५१
५-५१
४५-४
५०-१०७
३५-१४६
५-३४
२२-४९
२५-११
३६-१४
१५-१५
५०-४८
३२-२८.
५४-२
४-३३
२३-१५
३९-१६
५०-७८
५०-१०२
५०-२४
४८-४
५४-११
३५-१४८
२०- ३७
४५-३
३१-४५
३०-६२
३०-१९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
सारावली।
अ० श्लो. २३-११
३१-१० २६-७
२९-४१ ३३-७२
०-३१
१९-८ १६-३७ २१-३३ ३१-१८ ४९-४ १४-८ २९-२३
प्रज्ञाधनं प्रकाशं मिथुने प्रज्ञा सुचारुवेषां प्रणतानां हितकारी प्रणताशेषनराधिप० प्रतिदिनमटनमधन्यं प्रतिरूपदासभृत्यं प्रत्ययितं धनवन्तं प्रधानबलसंयुक्तः प्रबलमदनं सुदेहं प्रबलमदनोदराग्निर्बल प्रबलमदनोदराग्निः सुश. प्रमदापुत्रगृहाणां प्रमदाविभवैर्युक्तं प्रवदेत्तत्समदेशे प्रवरमतिकर्मचेष्टः प्रविशन्ती चन्द्रदशा प्रवेशे बलवान् खेटः प्रव्रज्यायाः स्वामी रवि. प्रव्रज्येशे दिनकरगते प्रशमितसमस्तशत्रुः प्रशमितसमस्तशत्रुः प्रश्नकाले विलग्नस्य प्रश्रयशौचविहीनो प्राकारतरुनदीघु च प्राग्रात्रिभागेऽतिबलः प्राच्यादिगृहद्वितयं प्राज्ञं गृहीतवाक्यं प्राज्ञं चतुरं मधुरं प्राज्ञ धनचयनिरतं प्राज्ञं नरेन्द्रभृत्यं दूतं प्राज्ञं नृपतिं कुलजं प्राज्ञं पृथिवीपालं प्राज्ञ बहुधनधान्यं प्राज्ञं मधुरं धनिनं प्राज्ञं मधुरं सुभगं
अ० श्लो. २३-१७ प्राज्ञं वाक्यविधिज्ञ ३०-४४ प्राज्ञो दृढांसबाहुः २५-४९ प्राज्ञो बहुप्रलापी २१-३५ प्राज्ञो विदेशनिरतः २९-५१ प्राणिवधपरं क्षुद्रं ३०-७२ प्रात्ययिक राजकुले २६-३२ प्राज्योनुपदेशात् ३५-११७ प्रायेण चन्द्रसितयोः ३०-७९ प्रायो दरिद्रदुःखी
प्रायः शुभाः समेताः
प्रियकलहसमरसाहस० २८-३५
प्रियकलहस्त्वविनीतो २३-३५ प्रियपानभोज्यनारी
प्रियभाषी रुचिरतनुः ३०-४७
प्रिययज्ञशिल्पविद्यः ४१-३१ प्रियवस्त्रमाल्यगन्धं
प्रियवाक् सुभगः कान्तः २०-२१ प्रियवादिनं सुवाक्यं २०-२० प्रियविग्रहस्तु वेत्ताचार्यों ३१-७४ प्रेष्यो मूर्खः क्लीबः ३१-७६ प्रेष्यः परकर्मरतो
५१-१ प्रेष्यः श्यामलनेत्रः २५-२१ प्रोत्तुङ्गशिराः स्थिरवित्
९-५ प्रोद्धतवेषक्रीडो ४-३९ प्ठतमण्डलनेत्रः स्यात् ९-१९
ब. २६-३४ बधिरो धनवान् शूरः २७-३४ बन्धारिभङ्गभाज
बन्धुजनवित्तहीनः २६-४१ बन्धुजनाढ्यं सुखिनं ३२-१०३ बन्धुपरिच्छदरहितो २७-६१ बन्धुपरिच्छदवाहन २७-३६ बन्धुप्रधानचतुरः २८-४० बन्धुसुतमित्रहीनो २५-२८ बन्धुसुहृत्तनयसुख.
१३-२५ २३-६४
१८-१५
१६-२८ ५०-७५
२५-४ ५०-५७
२
४४-२०
३१-७ २३-४१ ३०-२९ ३०-१७ ४९-२७ ३१-५६ ३१-३१
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________________
पद्यानामकारादिकोशः।
अ० श्लो.
५-११ २९-२१
४८-१४
३०-८४
२१-३४
२९-५
20
३१-४८ ३१-३
३५-५६
अ. श्लो. बन्धुसुहृत्संपन्नः
३२-५२, बहुसाधनोऽपि राजा बन्धुसुहृत्सुखसहितः ३१-६४ | बह्वनृतः सुमहान् स्यात् बन्धुसुहृत्सुखसहितं ३०-६५ बह्वर्थभाक् स्थिराधः बन्धोल्बणवक्रः स्यात्
बह्वायुः स्थिरविभवः बन्ध्वर्थक्षयरोगाः
४०-१५ बबाशिनो दरिद्राः बन्ध्वास्पदोदयविलग्न. १२-१४ बढणवन्धनतप्तः बलरहितेन्दुरविभ्यां ३७-२८ बान्धवमात्रनिमित्तं बलवति सूर्ये दृष्टे
९-२६ बान्धवरहितः सहितो बलिनः परिपूर्णस्य च ४०-६३ । बान्धवसुतसुखहीनो बलिना कुजेन दृष्टे ४६-१७ बान्धवसुहृदुपकर्ता बलिनाममर्षणपरः ४७-३६ / बालैः सुखी सुशीलश्च बलिभिर्बुधगुरुशुक्रैदृष्टे ८-४२ / बाल्ये मृतजननीकः बलिभिर्बुधगुरुशुक्रैः शशाङ्क० ४५-३१, बाह्यो मङ्गलवायैः बहवो यदि बलयुक्ता
बिभ्रद्रश्मिकरालपूर्ण बहवो यदि शुभफलदाः १२-१२ | बुधः कन्यालग्ने बहुकथनमधुरवचनं २७-५४ | बुधः कर्कटमारूढो बहुताडनसंप्राप्तौ
बुधः स्खोचे लग्ने बहुदारं बहुविभवं २७-४७ बुधगुरुभार्गवशनयो बहुधनधान्यसमृद्धं २६-६४ बुधगुरुशुक्रा भाग्ये बहुधनरत्नाः क्षितिपाः २१-३६ | बुधदृष्टस्त्रिदशगुरुः बहुधर्मो नृपसचिवः १५-५ बुधदृष्टे प्राग्लग्ने बहुभिः क्षतैः कृशाङ्गो २५-१७ | बुधदृष्टो हास्यकरं बहुभिर्व्याधिभिरा २५-४४ | बुधभवनगतः शुक्रः बहुभृत्यधनसमृद्धो
२३-५
बुधभागे बुधदृष्टः बहुभृत्यं त्वक्सारं २३-६१ बुधभार्गवयोरस्ते बहुभृत्योद्विग्नमनाः २२-२५ बुधरविजरविसिताः बहुयुवतिरत्नसहितः २८-३ बुधशुक्रयोर्युवत्यां बहुविषयपति ख्यातं ३२-७८ बुधशुक्रयोर्विलग्ने बहुशत्रुमित्रपक्षो
२२-१५ बुधशुक्रो हिबुकस्थौ बहुशत्रुमित्रपक्षः १८-२० बुधसूर्यभार्गवसुताः बहुशास्त्रज्ञानपटुः
१८-१७ बुधोदये सप्तमगे बहुशास्त्रदारितमुखो २२-२३ बुद्ध्योपार्जितविभवो बहुशास्त्राणां कुशलो २७-१५ बृन्दग्रामपुराणां बहुशिल्पज्ञो लुब्धः २५-५१ बृहस्पति मगृहेऽष्टमस्थः बहुशीलोदारमतिः ४७-४९ / बृहस्पतेभीमदिवाकरे
३५-१८१ ३५-२३ ३३-६१ ३२-८० ३४-१८
३४-४ २४-१७ २८-४१ २४-७
३२-९५
३१-६७ ३१-६८ ३३-३४ ३५-८९
४०-४९
१०-४ ३५-१७०
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________________
२३४
सारावली।
अ० श्लो.
अ० श्लो. बोधनगुर्वोर्दशमे ३१-६६ भार्गवरविभानुसुताः ३३-३८ बोधनसितयोः कर्मणि ३१-७० भार्गववाक्पतिसौम्यैः ३४-५७ बौधे पुंश्चेष्टिता जैवे ४५-११ भार्गवसहितः क्षितिजः ३२-४३ बौधे विज्ञानसंयुक्ता ४५-१२ भार्गवसुरेज्यभौमाः ३३-४२ वौधे शिल्पान्विता नारी ४५-१० भास्करसुतोऽपि कुरुते ४४-२२
भास्करसूनुः कुरुते ४४-१५ भगक्षयव्यया”
भास्करहिमकरसहितः १०-६ भवति ख्यातो मल्लः
भिक्षामटति व्यायैः ३८-२० भवति नरस्य भ्रंशो ४०-६४ भिक्षुस्त्यक्ताशितभुक् ४४-४१ भवनाधिपदिङ्नाम
भिन्न शिरोरुहरोमा
५०-३५ भवनाधिपांशतुल्याः ३४-४७
भीरः प्रियसन्त्यक्तः भवनाधिपैः समस्त्र
भुवनभरसहिष्णोः
३६-२७ भवनांशसदृशदेशे
भूपतिचरितः ख्यातो २२-२२ भागाः सदृशाः सहिताः ४१-५
भूपतिमनुपमवीर्य भाग्यगृहे रविशुक्रौ ३२-६४
भूपतिसमीपवर्ती २५-५२ भाग्यक्षपतिः कस्मिन् ३२-३
| भूमण्डलवर्धनभाक्
४७-२४ भाग्ये शुभगमनसदो ३२-२५
भूरिद्रविणो दाता
२२-७ भानुजवुधगुरुचन्द्राः ।
भूषणयानगृहाणां
२३-१३ भानुजरविबुधगुरवो
३२-९४
भृगुसुतसहितः सौम्यः ३२-४६ भानुजरविभूपुत्राः
भृगोरपत्याद्बुधभास्करात्मजौ३५-१७१ भानुदशायां लभते ४०-२५ | भृत्यार्थचोरचक्षुः भानुः प्राणी शशिगृहयुतः ३५-१५६
| भृत्यैर्धनैश्च पुत्रैवाहन भानु मसमेतः
३३-१४ भोक्ता ख्यातः कुनखो भानुर्वक्रसमेतो
३२-३१
| भोजनमाल्याच्छादन २२-११ भानुः शुक्रः क्षमापुत्रः
भोज्यानपानविभवं २७-६५ भानुस्त्रिकोणसंस्थो
भौमगुरुशुक्रमन्दाः ३३-६० भानुः स्वपुत्रसहितो ३१-२५ भौमज्ञशुक्रशनयो ३२-१०७ भानोरर्धे विहगैः शूराः ३-१० | भौमसूरिशनयो
३२-१०८ भानौ क्षीणे चेन्दौ ३४-६९ भीमदशायां लभते ४०-३३ भान्वर्कजयोर्मदने ३१-२४ भौमदिवाकरसौराश्छिद्रे भान्विन्दुजेन्दुकुजजीव० २०-१९ | भौमनिशाकरजीवाः भारसहं तामसिकं
| भौमबुधमन्दगुरवो भारस्तुलायां तुलितो ३७-४४ , भौमबुधशुक्रसौराः । भाराध्वरोगतप्ताः ३४-७ भौमबुधसूर्यपुत्राः
३३-४१ भारो भवति नृपाणां ३७-७ / भौमभृगुजीवरविजाः ३२-१०९
३२-१०४
४४-५ भामगुरुशु
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________________
पद्यानामकारादिकोशः ।
SMS
अ० श्लो०
अश्लो. भौमशनिद्रेकाणे पापे ___९-४३ मध्ये स्त्रीकृतदुःखैः ४६-४३ भौमसितबुधसुरेड्याः ३३-५७ मध्वीक्षणः प्रलापी ५०-२५ भौमसितशशिजचन्द्राः ३२-९८ मन्त्राभिचारकुशलो ३०-४२ भौमः साहसनिरतं
मन्त्रिणमथ नृपतिं वा २७-५८ भौमः सुरगुरुसहितो ३३-२० मन्त्री गुणप्रधानो भौमः सोमजसहितो ३३-१९ मन्त्री नृपस्य सुभगः
१९-५ भौमः सौरसहायो ३३-२२ मन्त्री राजप्रतिमः भौमादीनां बलं देशं १३-९ मन्ददृशं स्थिरवचनं
१४-२ भौमेंशे कुजदृष्टो
२४-१ मन्दोदरः प्रचण्डो ५०-३८ भौमे कलत्रसंस्थे
३४-५० मलिनः संस्कृतदेहो ३०-७६ भौमेन नरपतिसम २४-२० मलिनः पापाचारः २५-४५ भौमेन सुवर्णधनं २४-१४ मलिनमतीव च सुभगं २७-६० भौमेन्दुजसुरपूज्याः ३३-३९ मलिनं लुब्धं तीक्ष्णं २७-३० भौमेन्दुशुक्रजीवाः ३२-१०० मलिनशरीरः पापी ३१-७१ भौमो वृद्धिषु सात्मजासु ५२-४ मलिनासिकोष्ठकुनखी ४७-३५ भौमः पञ्चमभवने ३४-४१ मल्लमतिसारयुक्तं
२६-६१ भौमः सुरगुरुयुक्तो ३२-४२ मस्तकशूलनिरोधैः ४१-३३ भ्रमणरुचयो निकृष्टा २१-३१ महाधनस्त्रिभिश्चैव
४४-२८ भ्रमति च देशाद्देशं ३१-४९ महितकरिगलित.
४०-७१ भ्रातृजनाश्रयणीयो ३०-१६ महीसुतात्सत्वमुदाहरन्ति भ्रातृप्रियोऽर्थमुख्यः
४७-२९ माङ्गल्यधर्मपौष्टिक०
७-११
माण्डलिको मन्त्री वा २७-१८ मकरस्य पञ्चमांशे ३५-१६२ मातुरपथ्यो विषमो २५-३२ मकराये द्रेकाणे नृप०
मातुन शुभो मतिमान् २५-५० मगधेषु बुधो जातः ७-१५ मातृपितृदुःखतप्तः माङ्गल्यदयाशौचख० २७-२० मातृपितृविप्रयुक्तो
१७-७ मदना” मृदुचित्तः ४५-२३ मातृरहितं सुशीलं
२९-५६ मदबहुलः स्थिरजीवी ३२-१६ मातृरहितं क्षताङ्गं
२५-२६ मद्यरुचिः समधर्मा मानी २२-२७ मातृसपत्नीजनक
३२-७२ मद्यस्वीकृतसौख्यं
२९-३६ | मातृसपत्नीजननं कन्या २८-४४ मधुपिङ्गाक्षो गौरो
४९-३४ मातृसपत्नीजननं युवति० २८-५० मधुरवचनो लिपिज्ञः २२-५२ मात्रा रहितः सुभगस्त्वग्दोषी १७-३० मधुरायताक्षकामी ४८-६ मानधनज्ञानयुताः
२१-४४ मध्यायतोऽतिदक्षो ४८-५ मानाज्ञाविभवयुतः
२१-४१ मध्ये पापग्रहयोः ३४-७४ | मानार्थ विभवहीनो
म.
V
V
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________________
२३६
मान्दं सुतर्क्षमिन्दुः
मान्यो गुरुबन्धूनां मान्योऽल्पसत्व भीरुः मायापटुश्चलमतिः मारयति षोडशाहाच्छनैश्वरः माला सर्पार्धेन्दू मासास्त्रिंशद्गुणिता मासि तृतीये स्त्रीणां मासेवाधानादिषु गर्भस्य
मासेऽष्टमे च तृष्णा मित्रकलत्र विरोधो
मित्रगृहेऽर्कः ख्यातं मित्रद्वादशभागे
मित्रस्वगृहगतोऽर्धं
सारावली ।
मिथुनादयस्तुलान्ताः
मिथुनादिभे गाणे
मिथुने चापेऽर्कगुरू मिथुने धनुरंशगतान्
मीनविलग्ने जातो मीने निशाकरः पूर्णः मीने मीनांशे वा
मीनोदये च दृष्टे
मनोदये दिनकरे मीनोदये वदेन्मीनं मनोदशे नवमे मुखरः सुभगः प्राज्ञो मुखरो धूर्तोऽनृतवाक् मुदिते विलसति मुदितो
मित्राणि सूर्याद्गुरुभौमचन्द्राः ४-२८ मृगोदये भूमिसुते
मित्रान्विताः सुवचसः मित्रेभ्यो धनलाभं मित्रैः सुतैश्च हीनः मित्रोच्चोपचयस्थाने मिथुनविलमे जातः मिथुनस्य मनोभावो
२१-५२ | मृतदारो रोगार्तो ३१-८४ | मृतसुतयुवतीषु रतो ३१-४ | मृदुर्दयालुर्बहुदारभृत्यः ४०-१७ मृद्वङ्गवान्वपुष्मान् ४१-१० मृष्टान्नपानचतुरः ८-१३ | मेधाविनमतिदयितं ५३–९ | मेधाविनं सुनिपुणं
अ० श्लो०
३४-२९ मुनिभागे दिवस निशोः २७-६ | मूर्ख धृष्टमनार्य ५० - १९ मूर्ख प्रवासशीलं २२-५८ | मूर्खोऽधर्मरतोऽखः १० - १९ | मूर्खोऽलसो वञ्चयिता मूर्त्यादयः पदार्थाः ७-३ | मूर्धालोचनकर्णगन्धवहनं ८-४३ | मूलदशायामिन्दोः
२१-३
४०-१०
४१-२
८-२९ | मूलं दशाधिनाथस्य कृत्वांरां ८-३० | मूलं दशाधिनाथस्य विबलस्य ४३-१ ४०-३५ | मृगवदने लग्नस्थे कृशगात्रो ४७-३८ ४४-१२ | मृगवदने लमस्थे तन्नवभागे ५३-४७ ३६-७ | मृगराशिं परित्यज्य
३५-१०४
३४-६७ मृगे मन्दे लग्ने
३५-१३
४९-७
मेधावी धर्मपरः
८-१६
मेधावी बहुपुत्रो
८-२५
मेधावी वाङ्मधुरो
मेधावी श्राद्धरतो
४७-४६ ३५-१५१ | मेधावी सुकलत्रः ५३-४९ मेषविलग्ने जातः ८- ६० | मेषवृष मिथुन कर्कटसिंहाः
४६-८
वृषौ मुखगलयोः
५१-८
मेषस्य सप्तमांशे
३९ - २१ | मेषाक्षिमुखस्तीक्ष्णो १७-१९ मेषादिभिरुदयस्थैः १६- ३४ | मेषादीनां क्रियतावुरु ५-७ | मेषाद्ये द्रेकाणे
अ० श्लो०
८-५१
२८-२८
२३-६८
४४-३९
३७-६
३०-१
Aho! Shrutgyanam
४-५
३५-१३८
३०-३२
५०-१७
३७-४
५०-१३
४९-२३
२६-४६
२५-५७
२७-११
२७-१३
२२-१८
१७-३५
२२-३६
४७-३
३-३
५३-७
३५-१५८
५०-९८
५३-१०
३-७
४६-२३
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________________
पद्यानामकारादिकोशः।
२३७
२९-२
m
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| m
I
अ० श्लो.
अ० श्लो. मेषालिमिथुनमृगहरि० ३-१६ यावल्लनादुदितं मेषे द्वादशभागे जायन्ते ५३-३५
उ युक्तः शुभफलदायिभिः
मफलदायभिः ११-८ मेषे मेषांशे वा
५३-५० युक्तः सौभाग्ययोगैः २३-२३ मेषेऽर्कजे सुरोषो
| युगपञ्चन्द्रादित्यौ
१०-५८ मेषे शशी तदंशे ५३-३१ युद्धकुशलः समर्थः
१८-५ मेषे सहस्ररश्मिः ३५-१२० युद्धे च विजयी तस्मिन् ४३-३ म्रियते पापैदृष्टे शशिनि ९-३८ युवतिजनजनितसारं २९-३२
युवतिजनोपासनको २८-९ यज्ञाध्यापननिरतो २६-१८ युवतिद्वेष्यं कान्तं
२९-५४ यज्ञेन भङ्गमपरे सरोज० १२-११ युवतिभवनस्थितेषु
५-५२ यत्प्रोक्तांशादिफलं ५०-११० युवतिविनाशितसारं २६-४४ यत्रस्थस्तत्रस्थः खपुत्र. १०-५४ युवतीनामतिसुभगः १३-१८ यत्रस्थस्तत्रस्थो रुधिरा० १०-४४
युवतीनां वशगः स्यात् यथायथा लग्नगृहाश्रयाणां ४-३ ये भुक्ताः शशिनोंशाः १०-११४ यदा तूपचयः सर्वः
योगा ये बलयोगाः ३०-८७ यदा होरा चतुर्थस्थः १०-८० योगा विभक्ताश्चतुरादि० २०-१ यदि पश्यति चन्द्रमसं
योगे बलिनः स्थानं १०-९९ यदि पश्यति दानवार्चितं ३५-१०८ योद्धा प्राज्ञस्तीक्ष्णो १७-१३ यदि होरागतः शुक्रः १०-९५ यो बलयुक्तो निधन ४६-२ यद्वर्णेन वृतः स्यात् ५३-१६ यो यः पूर्ण शिशिरकिरणं ३५-४२ यन्त्रज्ञो बहुविभवो
१८-७
यो यत्र भवेदाद्यस्तस्याकृति ५३-३६ यन्त्रणकाष्टगोमय. ४०-६५ योषिद्गुरुमित्राणां
२५-१४ यः प्राग्विलग्ने द्रेकाणः १०-८९ | योषित्पानप्रभवैः
२८-८ यमभूमिजयोर्वर्गे
३४-५५ यमे विलग्ने मकर० ३५-१३७ यवनाचार्यैर्वृद्धैः
१५-१ रक्तच्छविचरणोढः ५०-३० यवनाद्यैर्विस्तरतः ३१-१ रक्ताग्निपित्तदोषैः
३१-२६ यवनेन्द्रदर्शनाद्यैः
५१-१६ रक्तान्तदृक् प्रगल्भो ४८-९ यस्मिन्द्वादशभागे
८-४८ रक्तान्तदृष्टिरलसो ४८-२० यस्य ग्रहस्य भावो
रक्तान्तपिङ्गदृष्टिः
४८-१५ यस्योत्तरस्यां भगवान्
रक्तान्तायतलोचनो ४-२४ यस्योदये जगदिदं
१-१ रक्तावदातमतिमान् ५०-६२ याते भौमे कर्मस्थानं ३५-१५२ - रक्तासितवृत्ताक्षो
५०-८६ यादृक् पश्यति सौम्यः ९-४१ रक्तास्योन्नतनासिकः ३७-३७ यावन्तो नव भागाः ३४-२२] रक्तोत्पलताम्रसुवर्ण.
WK
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________________
२३८
सारावली।
अ० श्लो. ३३-३० ३३-५० ३२-५७
३१-६ ३४-१६ ३४-१७ ३५-११५ ३४-१५ ५२-१० ३५-८१ १०-८१
रजकं मालाकार रजनिकरः षष्टगतो रजनीकरेण दृष्टो रतिधर्मरतः प्राज्ञो रमते सर्ववधूभिः रवि किरणमुषितदीप्तेः रविकुजबुधभानुसुताः रविकुजशशिशुक्रैश्चन्द्र० रविगुरुबुधभूतनयाः रविगुरुभार्गवशनयो रविगुरुवका नवमे रविगुरुसितभानुसुताः रविचन्द्रवुधा भाग्ये रविचन्द्रभौमश शिजाः रविचन्द्रभौमगुरुभिः रविचन्द्रभौमबुधजीव० रविचन्द्रसिता नवमे रविजबुधचन्द्रभौमाः रविजीवशुक्रसौम्याः रविजीवसौम्यसौराः रविजे जलजविलग्न रविणा युक्तः शशिजः रवितनयो जूकस्थः रविष्टे प्राग्लग्ने रविदृष्टे युक्ते वा रविदृष्टः शशिभवने रविबुधगुरवो दशमे रविबुधगुरवो नवमे रविबुधजीवसिताः रविबुधशनयो दशमे रविवुधशुक्रा भाग्ये रविभागे रविदृष्टे रविमिर्जन्मशिष्टं हि रविभृगुजदेवपूज्याः रविभौमचन्द्रपुत्राः
अ० श्लो० २६-४३ | रविभौमदेवपूज्याः १०-६२ रविभौमबुधसुरेड्याः २६-२६ रविभौमबुधा नवमे
२८-७ रविभौमयोर्विलग्ने ३१-८३
रविभौमौ धनसंस्थौ ४१-५७ रविरपि विधनं जनयति ३३-५२ | रविरप्यधिमित्रस्थो २०-१६ ! रविरविजभूमितनयाः ३२-८८ रविरुधिरौ भवनं ३३-५६ | रविनभस्थः खत्रिकोणगो ३२-५८
| रविर्यदा चन्द्रमसः ३२-९६ रविशशिकुजैमरे लग्ने ३२-५३ / रविशशिबुधशुक्रः । ३२-८३ रविशशिभवने शुक्रो १०-१०० रविसहितः शशितनयो
७-१ रविसितबुधभानुसुताः ३२-५५ | रविसुतसहितश्चन्द्रो ३२-९९ रविसौरिचान्द्रिभौमाः
| रविस्तृतीये भृगुनन्दनः
| रवीन्दुभौमेन्दुजजीव ९-९ / रवीन्दुवागीशशनैश्चरैश्च १०-१०१ रवेर्द्वितीये बुधजीव०
रवौ सरुधिरे धुने ३४-१ रश्मिप्रधानमेतत् ३४-५८ रहितो बुधगुरुशुक्रैः २७-४३ राजपुरुष प्रकाशं ३३-३३ | राजयोगाः समाख्याताः ३२-६१ राजाधिनृपं वः ३२-९३ राजा रविः शशधरः ३३-३५ राजा राजसमो वा ३२-६२ राजोपयोगि शास्त्रं २४-१३ राजोपसेवकः स्यात् ५१-१० राज्ञः संप्राप्तधनो ३३-३६ राज्ञः सुनीतिशिक्षा ३३-२९ । राज्यं ददाति विपुलं
१०-९ ३२-३२ ३३-५५ ३२-४० ३२-९० ३५-१६९
२०-९ २०-१२ ३५-१२४ ४६-१८
mor m mmm
१०-४६ २५-४० ३८-२३ ४४-३५
२२-२८
४४-३७ ३१-६२ २७-२४
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________________
रात्रिदिवा बलपूर्णैः
रामसिको दानरतः राशिदशवर्गभूपति • राशिपतौ बलयुक्त राशिप्रभेदसंज्ञः कथितः राशिप्रमितैर्वर्षैः
राशिफलं यद्दृष्टं राशेस्तदीश्वरस्य च बलेन
राशौ होरान्तरं प्राप्य राशी कर्कट होरायां राश्यधिपेन च दृष्टे जीवे
राश्यन्तगतैः पापैः
राश्यन्तरितैलग्नात्
राश्यादिफलविभागः राश्यादौ लग्नपतिः रासभमुखोऽसिताक्षी राहुश्चतुष्टयस्थो मरणाय राहुः सप्तमभवने
राहुत्रिषष्टलाभ लग्नात् रिक्तातिरिक्तनिम्ना०
रिक्ते बुधेन्दुभृगुजैः रिक्तोत्कटदृकू क्रूरो रिपुबान्धवकृतपीडा रिपुभयकलहसमेतो रिपुभयकलहैर्मुकः
रिपुभय विदेशगमनं रिपुभयविनाशदुःखैः
रिपुभावे क्षितिसूनुः रिपुराशौ त्रिभागोनं
रिपुरोगपापमुक्तः रिपुहन्ता क्रोधपरो
रुधिरगृहे शनिदृष्टो
रुधिरदशायां शुक्र ० रुधिरशनैश्चरदृष्टो रुधिरसहितस्तु सौरः
पद्यानामकारादिकोशः ।
अ० श्लो०
५-४१
२५-२
१-३
२३-८६
५- १
१०-१८
२४-२३
५-१९
१०-७१
१०-९६
३२-२३
१०-३३
२१-१६
८-१
रुधिराङ्गसौरयुक्तः
रुधिरे सुखेऽथवार्के रुधिरः सोमजसहितो रूपान्वितमतिचतुरं रोगार्ताः कुकलत्रा मूर्खाः
रोगार्तो मन्दसुतः रोगिणमरूपभार्यं
रोमशगात्रो विकृतो रोमान्वितायतभुजः रोमोपचितांसभुजो
ल.
लग्नं गणोत्तमोनं
लग्नगाः सितशशाङ्कज लग्नगृहगस्य हि दशा ३५-१४७ लग्न छिद्र त्रिकोणेषु ५०-४६ | लग्नदायोंऽशतुल्यः स्यात् १०-१५ | लग्नदिवाकरचन्द्राः
१०-१०७
लग्ननवभागतुल्या मूर्तिः लग्नपतेः स्फुटरश्मेः
१२-४
४०-६९ | लग्नभागैः क्रमेणैव
लग्नं ४५-२९ मुक्त्वा विषमे लग्नं विहाय केन्द्रे
४८-१
२२- २० | लग्नव्ययदशमस्थैः
२२-२१
४१-३६
४०-७३ | लग्नाच्छशी त्रिरिपुलाभ ०
लग्नात् षष्टमदाष्टमे
लग्नस्थः सुखसंस्थो लग्नस्थे रवितनये
४१-४१
३४-४३ | लग्नात्तक्षणमुदितं
३९-१० लग्नादातनयाय रन्ध्रनवगः ४१-३२ | लग्नादिकण्टकेभ्यः २२-३४ | लग्नादिकेन्द्र वेश्मानि २६-३० | लग्नादीनां लिप्ता ज्ञेयाः ४१-२८ | लग्नादुपचयसंस्थैः शुभैः
१०-४५ | लग्नाद्दशमे चन्द्रे १०- ५३ | लग्नाद्दशमे राशौ
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२३९
अ० श्लो० १०-६३
४६-९
३२-४१
२६-५०
२१-३०
२५-२३
२९-६१
२५-२२
५०-४०
५०-२०
३८-५
३५-७२
४०-६६
४६-१९
३९-१७
३९-३
९--४५
३५-१७४
५१६
८-१७
३५-१०७
३४-५४
६-४
३४-५३
३५-५५
३४-१३
४-४
५२-७
२१-१२
५१-११
३-१८
१३-३२
३४-४०
३३-१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
लग्नाद्रातृदशायशत्रुषु लग्नाद्विषमर्क्षगतः लग्नाद्वादशधनगैः लग्नाद्वयय रिपुगतयोः लग्नाधिपजन्मपती
लग्नाधिपतिः पापः लग्नाधिपतिः खोचे
लग्नाधिपतेश्चन्द्रो
लग्नाधिपतेस्तुल्यः लग्नान्निशाकराद्वा
लग्नान्त्यनवमनैधन०
लग्नार्कजीवचन्द्रैः
लग्नार्कशीतरश्मीनां यो लग्नार्कशीतरश्मीनां यदि
लग्नांशलिप्तिका हत्वा
लग्नास्तगतैः सौम्यैः
लग्ने कर्कटके सशीत •
लग्ने चन्द्रेऽर्के वा पापाः लग्ने जलजे बन्धौ लग्ने जीवबुधौ दिवाकर • लग्ने जीवः सितबुधयुतः लग्ने जीवार्कजयोः
लग्ने जीवोऽथवा सौर: लग्ने त्रयो विगतशोक ०
लग्नेन्द्वोर्यो बलवान् लग्ने बुधद्रेका लग्ने भौमो रविजसहितः लग्ने यद्रेकाणा निगडा • लग्ने रविपुत्रसंयुते लग्ने रविमन्दकुजैः लग्ने रविसंयुक्त क्षीणेन्दौ लग्नेऽर्केऽल्पकचः
लग्ने शनैश्वरांशे
लमेश्वरस्य चन्द्रः षद लग्ने समराशिगते
सारावली ।
अ० श्लो०
५२ - ३ | लग्ने सुरेज्यशशिनोः ८-२८ लघुचिन्तो मृदुनिपुणः १०- २४ | लघुवीर्यो मकरस्थे ३४-५२ | लघुसत्वोऽमिततनयो १०-२५ ललितः कान्तः सुभगो ललितमरोगं सुभगं
१०-१०५
३५-११० | लाभधर्मस्थिताः सौम्याः १०-१०४ लाभे तृतीयषष्ठे लाभे मन्दो गुरुभृगु
४-१८
३२- २ | लाभो भवति नराणां १०-४१ लावण्यवाही बहुभारवाही ५३-१९ | लिपिकरतस्करमुखरो ४० - ३ | लिपिकरपुस्तकवाचक • ४०- ५ | लिपिगणितकाव्य कुशलं ३९-१८ लिपिपाठ्यपरोऽभिज्ञो २१-१४ | लिपिलेख्य काव्यनिरतं ५३-२ | लिपिलेख्य काव्यपुस्तक ० लुब्धः कविः प्रधानः
१०-४२
५३-१८ | लुब्धः कुस्त्रीसक्तः
४-३५
लुब्ध परखहरणे
लुब्धः समर्थमधुरो
४१-६० ३१-७९ लुब्धः खाद्वदनपरः ५३-३९ | लुब्धाः कुकर्मनिरताः
३४-१२ | लुब्धो वृत्तोरुजङ्घः ४५-५ | लुब्धो व्याधिग्रस्तः
३४-७१ | लूतानां नकुलानां ३५-१०५ लेखकमतिसुकुमारं लोकनमस्य सुभगं
१०-१४
३५-६९ | लोहितसितशुकहरिताः
१०-१०२
व.
८-४० वक्रदशायां च गुरोः ३० - २ | वक्रार्कशुक्र सौम्याः
८-४९ | वक्रार्कसोमात्मजदानवेड्याः
११- १६ वक्रिणस्तु महावीर्याः
८-२१
वक्री शनिभमगृहं
Aho! Shrutgyanam
अ० श्लो०
३१-३४ २८-११
२७-१९
४७-३९
३२-१०
२३-४९
३५-९६
३५-१७५
३५-१८६
४०-४३
३७-१३
१७-१
१६-२५
२५-३९
२९-९
१३-४६
२२-१४
१७-२०
२२-५६
४९-१५
४९-३२
४९-११
५-४६
२३-५१
२७-२२
५३-४५
२६-५६
२५-५५
३-४०
४१-२७
३३-५१
२०-१३
५-३९
१०-५
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________________
पद्यानामकारादिकोशः।
२४१
اس سے
अ० श्लो. २८-२४
१३-६ २२-५० १८-१०
१३-५ ४९-३० ५३-४६ ३३-७३ २९-५७ ३०-४३
२७-१ २५-३४
अ० श्लो. वक्रोपगस्य हि दशा
४०-६८ वाग्बुद्धियुतोदारः वकोऽपि तस्करपति ४४-६ वाग्बुद्धिविक्रमगुणैः वक्रो वा सौरो वा द्वादश १०-५७ वाम्बुद्धिविभवपुत्रैः वकं त्रयोदशमितानि ३७-३० | वाग्मीन्द्रजालनिरतः वचसां पतिः सितयुतः ३३-२६ | वाग्मी प्रभुईविणवानगदः वचसामधिपः पूज्यं ४४-१४ वाचालः कलुषकृशो वचसि निपुणो महार्थः १६-७ वाजिखराश्वतराणां वणिक् कुलस्वभावः स्यात् १४-९ वाणिज्यविपणिजीवाः । वणिगंशे नररूपाः
५३-३३ वातव्याधिगृहीतं वदनाक्षिरोगतप्तः २२-१० वादविवादे कलहे वधबन्धनकृन्मृत्युः ३१-१२ वादिगुणैः संपन्नः वधबन्धनरोगा? १८-१३ वादितगीतविधिज्ञः वनपर्वतेषु रमते
२५-३१ वानरमुखप्रवक्ता वनवासिचतुश्चरणात्
वामनको मकारान्ये लग्ने वनितासदृशाचारः
१७-१० वारन्नमनिहृताग्रं वयोनुमानाद्वर्षाणि ५१-५ वासगृहे द्यूनगतात् वरयुवतिमाल्यवस्त्रैः २३-२१ वाहनधनभृत्ययुतं वर्गे पञ्चमराशी
३४-३१
वाहननाशोद्वेगः वर्गे रविचन्द्रमसोः ३४-३६ वाहनबन्धुविहीनः वर्गोत्तमगते चन्द्रे ३५-११ विकलं कलहप्रायं वर्गोत्तमखभवनेषु ३५-३८ विकलमहितं जनन्याः वर्गोत्तमा नवांशाः
३-१३ विकलनयनोऽष्टमस्थे वर्गोत्तमे त्रिप्रभृतिग्रहेन्द्राः ३५-२९ विकलशरीरः काणः वर्गोत्तमे स्वकीये
२४-२२ विकलः पतितो मुखरो वर्गोत्तमे खभवने
३९-६ विकलः सुभगो वाग्मी वर्गोत्तमे हिमकरः
विकलाङ्गः सुकलत्रः वर्णाकृतिप्रभेदात्
विकलाङ्गो धनरहितः वर्धयति मित्रपक्षं
४१-५४ विकलो नीचाचारो वर्षान् मारयति शशी १०-२ विकलो रविलुप्तकरो वसुसंचयवित्ससुहृत् १४-३ विकृतवदनोऽर्थभोक्ता वस्त्रमणिरत्नभूषण
७-१२ विक्रमवित्तप्रायो वस्त्राणां स्थूलाहतशिखि ४-१६ विक्रान्तो बलयुक्तो वहति मृदुसमीरो ३५-१४३ विक्षतगात्रं मलिनं वाक्चपलमतिसुसौम्यं २६-६३ विख्यातं गुरुराढ्यं वाग्बुद्धिकर्मनिरतः २६-२१ । विख्यातनामसारः
२१ सारा.
mr mm
५१-१८
९-१६ २८-५३ ४०-५०
३०-५ २५-५६ २३-८५
३०-९ ३०-१३ ३०-८५
१७-६ १७-२४
१६-९ १७-१६
५-४ ३०-७५ १३-१० ३०-४
३५-६२
४४-३ ३०-४५
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२४२
सारावली।
०
अ० श्लो.
अ० श्लो. विख्यातमल्लमोहित . २९-३९ विबुधगुरुयदि भौमनवांशे ३५-७३ विख्यातोदारगुणः २६-१७ ! विभ्रान्तदृक् प्रचण्डो विख्यातो नृपमन्त्री २५-४६, विरलाग्ररदः श्यामः ५०-८३ विचरति नरेन्द्रभवने २२-५३ विलग्नं कथयेत्प्राज्ञः विचरति सुरपूज्यो ३५-१७६ विलमनाथः खलु लग्न विज्ञानकलाशास्त्रः
२८-५ विलग्नादिकला भाज्या विदधाति सार्वभौम ३५-१५० विलग्नाधिपतेः शत्रुः ४२-४ विदित्वा त्रितयं ह्येतत् १०-७३ विविधधनागमलाभ ४१-२५ विद्याचार्य ख्यातं नृपति १३-१२ विविधव्ययदुःखभुजां ४४-४३ विद्यात्तृतीयभागे
| विविधस्त्रीभोगयुतः २५-५३ विद्यादानधनौधैः
४४-३० विविधोपभोगमान्य २५-६५ विद्याद्वितीयभागे ४६-२४ विवृतोष्ठरदः कुष्ठी
४७-४७ विद्याधनजनहीनान्
विंशतिरंशाः सिंहे विद्याधनधर्मरतः १९-१ विंशतिरेकं द्वितयं
३९-२० विद्याधनशौर्ययुतं २५-३७ विश्वासहासवश्यः
४७-३२ विद्यामानयशोमिः २२-३० विषमशरीरो हवः
१७-४ विद्याशास्त्रज्ञानं
४०-१२ विषमाः क्रूरा निःखाः २१-४२ विद्याशास्त्राचार्य
२३-२० विषमे विषमांशगता ८-१४ विद्यासंस्कृतमतिरपि १६-२१
विषशस्त्रयोगदोषैः ४६-३२ विद्रुमसुवर्णमणयः ४१-१३ विस्तरकृतानि मुनिभिः विद्वान् लिपिलेख्यकरः
विस्तरतो निर्दिष्टाः
३८-१ विद्वान् विमातृपितृकः १७-२७ विस्तीर्णभुजो नेता १३-१९ विद्वान् सुरूपदेहः
२७-७ विस्तीर्णोपचितायत ४८-१६ विद्वांसं धनवन्तं
३३-१०
विहगोदितदृकाणे ५३-१७ विद्वांसं धर्मरतं ३३-४८ वीक्षन्ते यावन्तो
५३-१२ विद्विष्टो बहुदुःखो
२३-७ वृत्तानन उच्चनसस्त्वसिता० ४८-१३ विद्वेषरतिनृशंसो - २८-१५ वृत्तासितहक् सुतनुः ५०-२८ विधात्रा लिखिता यासौ २-१ वृद्धचरितं कुलायं १३-२९ विनताङ्गः स्त्रीलोलः
वृद्धश्रावकभस्मधूलि २०-३१ विन्ध्याचलसह्यगिरीन् ३७-३३ वृद्धस्त्रीभिः क्रीडा
४१-४८ विपरीते स्थिते चन्द्रे ४०-१८ वृद्धाकारो निखः
२५-५४ विपुलविमलमूर्तिः
वृन्दसभानां ज्येष्ठो
२९-१४ विपुलश्रमैश्च सुखितः २५-१८ वृश्चिककुलीरलग्ने विपुलाक्षिहृत्सुमेधाः ५०-९१ वृश्चिकलग्ने पुरुषः. विफलारम्भो भृतको ३१-९, वृश्चिकलने भवने
५३-४२
mm
२२-३८
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________________
वृषभगणे दशमस्थे,
वृषभविलग्ने शूरः वृषसिंहौ दशगुणितौ वृषे शशी लग्नगतः वेदाब्धिसंख्यैश्च मयूख वेदार्थशास्त्रवेत्ता वेश्यामद्यद्यूतैः वेश्यामद्यव्यसनैः वेश्यारतिर्मृदुवचाः
वेश्यास्त्रीकृतसौख्यः
वेश्यास्त्रीजनबहुलाः वेश्यास्त्रीसंयोगैः
वेसर महीसुवर्णं वैधव्यं निधने चिन्त्यं
वैरप्रियोऽप्रहृष्टः व्यजनातपत्रसुमनो व्ययगेऽर्के शशिनि कृशे
व्ययभयपरिसन्तप्तो
व्ययभवनगतश्चन्द्रो व्ययाम्बुधनखायेषु
व्याष्टषष्टोदय
व्यवहारवोध्यशिक्षा
व्यसनपरिश्रमतप्तः व्यसनानि व्यसनानां व्यसृजज्जगत्समस्तं
पद्यानामकारादिकोशः ।
अ० श्लो०
३३-६७ | व्यापारश्रुतिसत्यश्चोर ४७-७ | व्यामिश्रैः शुभभूमौ ५१-१३ | व्यायतगात्रं रूक्षं ३५-८५ | व्यालमृगोरगहन्ता
व्याधिविनाशं सौख्यं
व्याध्यार्तश्रमबहुल: व्यापन्नमातृवंशं
३६-२४ | व्यालम्बभुजः श्यामः २७-२३ | व्यालः सुतुङ्गघोणो ४१-४२ | व्यालुप्तकेश गौरी ४१ - ३९ | व्यूढोरस्कोऽतिदाता २२-१२ | व्योमलग्नप्रपन्नस्य ३१ - ३८ व्योमाम्बु वाताग्निमही
३४-६ व्योनि शङ्खधवलो ३४-६३ | व्रणिताङ्गमरूपं वा ४० - ३८ | व्रतनियममङ्गलपराः
४५-२ ४७-४३ | शक्तिधनपौरुषगृह ४०-४४ | शक्रेयः ससितः शुचिः ८-३७ शङ्खप्रवालमणिभिः २८-१९ | शङ्खासि कुञ्जरगदा ८-५५ शत्रुगृहेऽर्कदशायां ४- ३० | शत्रुनीच नवांशेषु १० - ३० | शत्रुभयात्सोद्वेगो २९-१७ | शनिवर्गस्थे चन्द्रे २९--१ शनिशुक्रबुधशशाङ्काः ४१-२९ | शनिशुक्रामरगुरवो
३-२ | शनैश्वरश्व होरायां
व्याघ्राननः प्रगल्भः
५०-९७ | शनैश्चरे लग्नग ५० - १८ | शफरीयुगले चन्द्रः ३०-३३ | शब्दार्थविन्यायपटुः २६-३३ | शमयति रिपुप्रतापं व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तः स्थान १८-१४ | शयनोपचारकुशलं व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तः पर २२-५९ | शरपञ्चाष्टमुनीन्द्रिय
व्याघ्रेक्षणः सुदशनः व्याधिप्रायोऽल्पायुः व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तं
व्याधिभिररिभिर्व्यसनैः
४१-१५ | शशिगुरुसौरा नवमे ४१-४० | शशिजलनिधिसंख्यैः २७-१६ शशिज्ञगुरुभिः सार्धं ३२- ७० शशितनयोऽपि विधत्ते
श.
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-२४३
अ० श्लो०
२५-१५
५३-२३
२६-५४
२५-१०
४९-२८
५०-१५
५०-४
२३-८
४१-५९
३७-११
३५-१६६
३२-६९
२१-२७
३-२७
३५-१३०
२२-६२
३७-४१
४०-५८
४०-१९
१६-१५
३४-३४
३२-१०५
३२-८२
१०-८८
३५-१३९
३५-१८२
३७-१२
४१-१२
२३-७५
३-१५
३२-७५
३६-२३
५१-३
४४-१०
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________________
२४४
सारावली।
कि
अ० श्लो० ।
अ० श्लो. शशिनो दशमे शुक्रः ३३-१२ | शशिनोऽन्त्ये बुधसितयोः ११-१५
शिशिरकिरणे खोचे ३५-१२. शशिबुधरुधिराख्यैः ३५-१४४ शीता” बहुभाषको ३७-२२ शशिबुधरुधिराङ्गैः ३५-५८
शीर्षादि संस्पृशन्
५१-७ शशिबुधसौरां नवमे ३२-७३ शीर्षास्यबाहुहृदयं शशिवक्रार्किसुरेज्या ३२-१०१ शीर्षोदयर्खेषु गताः समस्ताः ३५-३१ शशिसुरगुरुबुधरवयो ३२-८५ शीर्षोदये विलग्ने मूर्ना शशिसहिते केन्द्रस्थे ३५-१५४ शीर्षोदयेषु राशिषु १२-५ शशी दृगाणे रविजस्य २०-२२
शुक्रकुजयोर्विलग्ने
३१-५५ शशीन्दुपुत्रक्षितिजापुत्राः २०-१४ शुक्रः कुटुम्बभवने शशी पूर्णः खांशं ३५-४७ शुक्रगुरुभौमरवयो ३२-९१ शस्त्रदहनप्रभेदैः
३३-७९ शुक्रगृहेऽथ नवांशे. ४५-२२ शस्त्रप्रहरण विद्याशक्ति
शुक्रगृहेऽर्कजदृष्टः २६-३६ शस्त्रानियोनिपोषण
। शुक्रज्ञभौमसूर्याः ३२-८९ शस्त्रात्सलिलाद्योनि ३३-८० शुक्रदशायां पुंसां
४१-४६ शाकटिका मणिकाराः ३३-७१ शुक्रदशायां विजयः ४०-४५ शान्ते प्रशान्तचित्तः
शुक्रनवांशे तस्मिन् ३४-३८ शार्दूलप्रतिमाननो ३७--४० शुक्रबुधयोर्विलग्ने
४५-२६ शाश्वतसुलब्धविषयं २७-३९ शुक्रवुधौ रवितनयात् ३५-१७२ शास्त्रकुशलो नरेन्द्रः १७-२१ शुक्रबृहस्पतिसौम्याः शास्त्रार्थकाव्यबुद्धिं
२४-९ शुक्रभास्करेन्दवो ३५-७१ शास्त्रार्थकृतिकलाभिः २२-२ शुक्रवाक्पतिवुधैः ३५-१५५ शास्त्रार्थतत्त्वबुद्धिः १६-२४ शुक्रशनैश्चरशशिजाः ३२-८१ शास्त्रार्थवित्प्रवक्ता
४९-२६ शुक्रसहायः सूर्यो ३२-३४ शास्त्रार्थविद्धृतियुतः
३७-४२
शुक्रः सुरगुरुसहितो ३२-४८ शास्त्रार्थशिल्पकार्यैः २७-१२ | शुक्रः सौरसहायः ३३-२८ शिक्षाशास्त्रमतिज्ञः
५०-७६ | शुक्रस्याखिलभोगवस्त्र शिखिजलशस्त्रज्वर ४६-१ | शुक्रारजीवरविशशि
८-३१ शिरसो रुक् गलरोगः ४१-१६ शुक्रार्कजो चन्द्रमसोन ४-२९ शिल्पज्ञोऽतिसुशीलो
शुक्रार्कभौमशशिभिः ८-१२ शिल्पविवादाभिरतो २६-१३ शुक्रासितौ यदि परस्पर ४५-१४ शिल्पश्रुतिशास्त्रज्ञो
१५-१४
शुक्रेण दृश्यमानः २५-४१ शिल्पाचार्य ख्यातं २३-३९ शुक्रेण दृष्टमूर्तिः
२४-१५ शिल्पादिकर्मनिरतः ४७-३७ शुक्रेण नृपतिसचिवं
२४-३ शिल्पोत्पन्नाधिकारो २३-७९ | शुक्रेन्दुजीवशशिजैः ३४-४५
३२-२०
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________________
पद्यानामकारादिकोशः।
२४५
अ० श्लो.
अश्लो. शुक्रन्दुभौमरवयो ३२-८४ | श्यामःसमग्रवदनाविशेषितः५०-१०० शुक्रन्दुयमा नवमे ३२-७६ | श्यामः सुवाग्विनीतः ४९-१६ शुक्रो घटे कुजो मेषे ३५-१७ श्यामो गुरुर्मनस्वी
५०-२७ शुक्रो भौमो बुधो वाऽपि ५३-४० श्यामो मृगाक्षधन्यः ४८-१९ शुक्रो रविशनिसहितो . १०-४३ श्यामो मृदुः कृशाङ्गः ५०-९२ शुक्ल प्रतिपद्दशके मध्यबलः ५---१६ | | श्यामो मृदुमृगाक्षो
५०-७ शुभपणफरगाः शुभप्रदाः ३५-५२ | श्यामो मृदुर्वचस्खी
५०-८० शुभभवनसमेतैः
३५-५१ श्यामोऽलसः सुभाषी ५०-८९ शुभमूर्तिः शुभशीलो ३१-६३ । श्यामो विशालचक्षुः शुभवेषः प्रियभाषी २६-५ | श्रमनिरतः परिदीनः शुभस्य शुभदः पूर्णः
श्रमलब्धवित्तशूरो
२८-१३ शुभाधमदशा ज्ञेया ४०-२४ श्रमशोकानर्थपरः
२६-१५ शुभे लग्नं याते ३५--१०० | श्रीदेवकीर्तिराजा
३७-१ शून्येषु केन्द्रेषु शुभैः
श्रीमान् श्लिष्टाङ्गसन्धिः ३७-२६ शून्येऽस्ते कापुरुषो ४५-१५ श्रीमान् स्वबाहुविभवो १३-४ शूरं नरेन्द्रयोधं
२७-६३ | श्रुतलिखितशिल्पचैत्य ७-१० शूरं प्रमेहपीडितं
२६-५५ श्रुतवान् स्त्रीषु च रमते शूरं विकलशरीरं
२३--२५ श्रुतिकल्पकलाभिज्ञः २६-६ शुरः कलाकाव्यनिधिः
श्रुतिनीतिकाव्यनिरतं ३१-१५ शूरः क्षुधार्तश्चपलो ३७-१५ श्रुतिशास्त्रगेयकुशलो १३-११ शूरः षण्डप्रकृतिः २२-६० | श्रेणी गणराष्ट्राणां २७-४२ शूरः सङ्ग्रामरुचिः २२-१३ श्रेणीभृतिनगराणां
२६-५७ शूरोऽथ सूत्रकारश्चक्रधरो १७-११ श्रेष्ठो राज्ञो मन्त्री
२२-३१ शुरो भवत्यधृष्यो ३०-२८ श्वप्रभृतीनां प्रसवे
५३-३८ शूरो रणप्रतापी मल्लो १५-८ शूरो वित्तसमृद्धो नगरा १५-२१ षट्कोणं रिपुभवणं ३-३१ शूरो विद्वान् वाग्मी १७-३२ षट्दशभवदुश्चिक्यानि शूरो विमातृपितृको १७-२३ षड् ग्रहाः खोच्चगाः ४४-२५ शोभनकर्मा मतिमान् २२-६१ षभिः प्रवृद्धशब्दं ४४-३४ शोभनशिल्पाभिरतान् ३३-४० | षण्डमुखकामसेवी शोषभगन्दररोगैः
| षण्डाकारोऽतिशठः २९-११ शौचाचारश्रुतिवाक् ४७-४८ | षष्टि)रात्रिंशचूडपदानां ३-१७ श्यामः कलासु निपुणः ४९-३६ षष्ठं धूनमथाष्टमं
३५-२१ श्यामगुरुस्कन्धभुजो ५०-३ षष्टे साधुत्वयुतः
४७-२२ श्यामच्छविर्नतभ्रूः ५०-३२ षष्ठे कुजार्किरवयः ३५-१४२
سم لم
ل
४१-३५
س
م
२२-२९
6
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________________
२४६
स.
संकलकरभारभारित सकलगगनगेहाः सक्लेशो निर्द्रव्यः सुख
संख्या नवांशतुल्या संग्रह निरतं लुब्धं सङ्ग्रामकथाभिज्ञ सङ्ग्रामलब्धविजयो
सङ्ग्रामे लब्धयशाः सङ्ग्रामे विकृताशं क्रूरं सङ्ग्रामोत्कटवीर्यः सचराचरस्य जगतो
सारावली |
अ० श्लो०
सचिवानुत्तमपुरुषान् सचिवो दानवेन्द्रस्य सञ्चयनिरतो बलवान् संज्ञा वेश्माष्टमयोश्चतुरस्रं सततमनारोग्यतनुं
सततं मानार्थपरा सततोत्थितं विनीतं
सत्यवचनं सुखाढ्यं सत्यं सतां गुरूणां सत्यसमाधिसुयुक्तः सत्योक्तं तूच्यते कश्चित् सत्वेन वायोः पुरुषः सत्सुतभृत्याप्तयशाः सद्यः प्रतिरणविजयी सद्धर्मकर्मधनजै: सद्वस्तुभूषणयुतो सद्वित्तसारसुभगो सधनं नरेन्द्रपूज्यं सन्नाहका मणीनां
सनोदराग्निपुंस्त्वः
संनिरीक्ष्य रवेर्वीर्यं ग्रहाणां संपश्यन्ति स्थानात्सदा सप्तमभवने भौमे
सप्तमभवने सौम्याः ५-४४ | सप्तमभागे कौजे ३२- २९ | सप्तमलग्ने जातो ३१-२७ | सप्तर्क्षगैर्ग्रहेन्द्रैः ३४-२७ | सप्तारिभे ग्रहेन्द्राः २८-५२ | सप्तांशकबलसहितः २९-३३ | सप्ताष्टमषष्ठस्थाः ३१-५९ | संभूतारिष्टाख्या भङ्गः २२-५१
समकृष्णतनुः स्तब्धः २७ – ५७ | समभिव्यनक्ति होरा २२-५ | सममायततनुवित्तो २१-४ | समराशौ शशिसितयोः ३३-४४ | समाः खरैः सिंहमृदङ्ग ३८- २२ | समुदितगुणं नरेन्द्र ३०-१२ | सम्पूर्णमूर्तिर्भगवान् ३ - २८ | सर्वग्रहकृते योगे ३०-८० | सर्वग्रहयुतदृष्टे २१-३२ | सर्वद्वन्द्वविमुक्तो २६-४२ | सर्वमपहाय चिन्त्यं २६-२५| सर्वमर्धं तृतीयांशः २७-५१ | सर्वंसहः सुभद्रः समकायः २७-८ | सर्वस्य सर्वकालं ४१-४ | सर्वातिशाय्यतिबलः ३७-१४ | सर्वे क्रूराः केन्द्रे २२-६७ | सर्वे प्रमाणमेते २५-२० | सर्वैर्गगनभ्रमणैर्दृष्टः २८-१७| सर्वैर्गगनभ्रमणैर्दृष्टेः २७-४ | सर्वैर्मित्रर्क्षगतैः २८ - १८ | सलिलभवनं च चन्द्रो ३३-२३] सलिलभृगारण्यानां ३३-७० | सलिलविषपादरोगात् ३०-५५ | सलिलाशयतो धनवान् १४- १० | सलिलाशयेषु रमते ४-३२ | सलिलोपजीव विभवाः ४६-१४ | संवाहनादिकर्मसु दक्षः
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अ० श्लो०
३५-८२
३४-३०
४७-२६
२१-१३
४४-४५
५-३२
११-७
११-१
५०-११
५३-३
३०-७०
८-२२
३७-८
२९-६५
३५--५४
३५-६३
३४-६६
३१-८६
३२-१
३९-११
१४-११
२२-१
१२-१
३८-४
३६-४
११-३
३४-११
४४-३८
९-६
१७-८
४६-३१
२५-८
३७-३८
२१-२१
२२-४३
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________________
पद्यानामकारादिकोशः।
२४७
अ० श्लो.
४७-१८ ३१-६५ २८-४५ १६-२६ ५०-५४ २६-५२ ४८-११ ३५-९५ ४०-१३
२९-२९
१३-२८ ३१-३० २५-३६
अ० श्लो० सविता दशाफलानां ४०-९
| सिंहोदये तथाये सवितुर्दशा च पुंसो ४०-५७ सिंहोदये दिनकरो सवितुस्तृतीयपञ्चम ३५-१७३
सिंहोदये प्रसूतो सव्यापसव्यभागे
१०-७२
सुकलत्रो हतशत्रुः सव्यालोनिकशैलस्वर्ण
सुकलाविदमत्याढ्यं सत्रणगात्रं रूक्षं
सुकविः क्षोणीनाथः संसक्ततनुः प्रमदाप्रियश्च ५०-९४
सुकुमारगौरदीर्घः संस्कारनाममात्रा द्विगुणा ५१-१२
सुकुमारमतिप्राशं सहितौ चन्द्रजामित्रे १०-७६
सुकुमारमूर्तिकान्तः साधुः कल्यशरीरो
१८-१८ सुखतनुमदगाः शुभाः साध्वीतनयः प्राज्ञः
१६-२३
सुखधनमानाज्ञप्ति साध्वीव्रतभङ्गकरः
२५-३ सुखधनसहितं शुक्रो सामान्यतश्च षोढा ४०-६० सुखधनसौभाग्ययुतं सामान्येनाभिहितो
५३-२९
सुखधनहीनमनार्य सारङ्गाक्षो वक्ता
सुखनय विज्ञानयुतः साहसकर्माभिरतः
२२-३ सुखबुद्धिसत्वयुक्तः साहससङ्ग्रामरुचिः
सुखभाक् ख्यातो धनवान् साहसिकमतिक्षुद्रं
३२-६० सुखरहितमथात्यन्तं सितगुरुशशिजशशाङ्काः ३२-१०३ / सुखसुतमित्रविहीनं सितदृष्टः शनिः कुम्मे ३५-१८३ सुखसुतमित्रसमृद्धः सितभागे सितदृष्टे
२४-४ | सुखसुतमित्रोपचितं सितशशिकुजगुरुमन्दैः २०-१७ | सुखसुतवित्तविहीनः सितशशिवर्गे धीस्थे ३४-३९ सुखिनं कुजमे शशिजः सितशशिसुतजीवैः ३५-१३४ | सुखिनं धनिनं प्राज्ञ सितारसूर्यात्मजजीवभास्करैः २०-७, सुखिनमतीव हि ललितं सितार्कभौमार्कसुताः २०-५ सुगृहीतवाक्यमलसं सितेन्दुजीवार्कजसूर्य २०-१० सुतनुः क्षपितारिगणो सिद्धारम्भो मान्यः ३०-५९ | सुतभवने शशिदेवनमस्यौ सिंहवृषमेषकन्या
सुतभवनं शुभयुक्तं सिंहमृगौ जघनस्थौ ५३-८ सुतसुखदुश्चिक्यगताः सिंहस्य समानमुखः ४७-१९ सुधामृणालोपमबिम्ब सिंहाजगोभिरुदये
९-४२ सुनफाऽनफा दुरुधराः सिंहादिद्रेष्काणे दाता ४९-१३ सुनभानभासरूपाः सिंहे कमलिनीनाथः ३५-१८० सुनयनमुदारदानं सिंहे दयितं ख्यातं २७-४९ सुनयनवदनशरीरं
३०-७८ ३०-५४ ३०-६६
३६-२८ २७-५९ २३-६३ ३०-४९ १६-३२ ३५-७७ ३४-२५
३५-५७ १३-१ १३-३ २८-२९ ३०-६२
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________________
२४८
.. सारावली।
अ० श्लो.
अश्लो. सुप्तस्तु पश्यति
३७-२७ सूर्यस्याष्टसु बिन्दुषु ५४-३ सुप्रज्ञा च भवेत् शौके ४५-१३ / सूर्यः खपुत्रसहितो ३३-१८ सुप्राज्ञोऽतिसुशीलः
३२-१७
| सूर्याङ्गारकयोः खबन्धुगतयो ४६-३ सुबहूनामुपयोज्याः २१-४९ सूर्यात् केन्द्रादिगतो १३-३० सुबृहन्नसोजदृष्टिः
५०-७४ सूर्यादष्टमराशौ यदि १०-४० सुभगं ललितं सुखिनं २६-३५ सूर्यादीनामुच्चाः सुभगः पूज्यो लोके १७-१४ सूर्याद्वितीयराशौ
३४-७३ सुभगः सुतधनयुक्तो २३-६ सूर्याययगैर्वाशिर्द्वितीय १४-१ सुभगः सुरुचिरुदारः
| सूर्यांशे यदि चन्द्रः ३४-७५ सुभगाः सेनापतयः
२१-२५
सूर्येक्षिते गोनृपदेववासे ९-११ सुभगान्वितो दरिद्रो
सूर्येण चोरघातकमथवा २४-२ सुभगो बहुभृत्यधनो १४-१२ सूर्येण महामूर्ख
२४-६ सुभगो विद्वान् वक्ता ३२--२१ सूर्येन्दुशुक्रार्यमहीसुतेषु २०-२ सुभ्रूललाटकामी
५०-२३ सेनाचार्यः स्फीतो ३२-१३ सुमधुरमतिवाचार्ट
२६-३८
सेनाधिपतिः शूरः ३१-५० सुमनस्कः सोन्मादो १८-२२ सेनानाथो निखिलनिरतो ३७-३५ सुरगुरुसहितः सूर्यो ३२-३३
सेनापति प्रचण्ड
२३-३२ सुरुगुरुसहिते चन्द्रे ३२-३८
सेनापतिं समृद्ध
२३-६० सुरपतिगुरुबन्धुस्थाने ३५-१०१
सेयं कन्यादयितं कामात २८-४९ सुरपतिगुरुः सेन्दुर्लग्ने ३५-४० सेवाकृदस्थिरधनो
१५-४ सुरपूज्यः शशिशुक्रौ ४-२० सेव्यं दिनकरदृष्टो सुरराजगुरुः सार्किः ३३-२७ सोन्मादो गणमान्यः १७-१५ सुरुचिरकारी दाता ४९-१४ सौभाग्यसौख्यविजय ४१-५२ सुविस्तरं नीचकुलोद्भवाः ३५-९८ सौम्यः कान्तविलोचनः ४-२२ सुशरीरं बलनाथं
| सौम्यक्षेत्रे चन्द्रो होरा ११-१० सुस्त्रीरत्नार्थयुतः ३१-७७ सौम्यग्रहसंयुक्तः
३१-४६ सुहृदां संग्रहशीलः २२-६६ / सौम्यग्रहैरतिबलैः
१२-२ सूच्यादिकर्मकुशलो २६-२४ | सौम्यदशायां प्राप्ते ४०-३७ सूर्यजसहितः सौम्यो ३२-४७ सौम्यवपुस्त्रीसुभगो ४९-५ सूर्यनिशाकरसौरा ३२-५६ सौम्यः शुक्रसहायो ३३-२४ सूर्यश्चतुष्पदस्थः शेषा ९-४४ सौम्यः सुरगुरुसहितः ३२-४५ सूर्यश्चन्द्रसहायो
३२-३० सौम्यः सौरसहायो सूर्यसहायः शुक्रो
सौम्यस्त्रीधनलाभः ४०-११ सूर्यः सौम्यसमेतो ३३-१५ | सौम्यार्थपुत्रमित्रश्चलमतिः ३०-३० सूर्यः सौरसहायो ___३२-३५ सौम्याः षष्टाष्टमगाः । १०-२३
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पद्यानामकारादिकोशः।
२४९
अ० श्लो. २६-१० १५-१३
४९-९ २८-४८ ४-३८ ५-१३ ३१-२० २९-४२ ४१-५० ४९-३१ ४८-२१ ४८-१० ३१-८५ ३१-५७ २३-३७
३२-५०
|
सौम्ये चार्धमितो याति सौम्ये त्रिकोणसंस्थे सौम्येन धनी ज्ञेयः सौम्येन पापनिरतं सौम्ये पापफलं प्रोक्तं सौम्यैर्लग्ने पूर्णे खगृह सौम्यो धृष्यः सुखितः सौम्यो भास्करदृष्टः सौरगृहे शनिदृष्टः सौरः शुभयोर्मध्ये सौरः सौरगणो सौरसहायः शुक्रो सौरारगृहे तद्वत् सौरांशेऽथ जलांशे सौरांशे शनिदृष्टः सौरिः शुभभागस्थः सौरिश्चतुर्थराशौ सौरे ग्रामपुराधिपाद्य सौरेण दृष्टमूर्तिः सौरेणाकृत्यकरं सौरेर्दशां प्रपन्नः सौरे वृषभं याते सौरे व्याधिमवाप्नोति सौरो व्याधितदेहं सौवर्णाङ्गः स्थिरखः सौवर्णिकः प्लुताक्षः स्त्रीकलहरुचिर्धनभाक् स्त्रीक्षेत्र वित्तविभवः स्त्रीचञ्चलोऽर्थभागी स्त्रीचञ्चलो विहारी स्त्रीजनहस्तिप्रायं स्त्रीणां चन्द्रसितौ नपुंसक स्त्रीणां जन्मफलं तुल्यं स्त्रीणां वश्यः सुभगो स्त्रीतुल्यतनुह्रीमान्
अ० श्लो० ३९-१२ | स्त्रीदुर्भगः स्वतन्त्री
स्त्रीदुर्भगोऽल्पवित्तः ३२-७ | स्त्रीद्वेषणो वपुष्मान् २४-२१ स्त्रीनिर्जितं दरिद्रं ४०-५२ स्त्रीपुंनपुंसकाख्याः क्षेत्रेषु
९-७ | स्त्रीभरणदुःखतप्तः ३०-२० स्त्रीभिः सम्परिभूतो ३४-२४ स्त्रीमण्डलेषु कुशलं २८-६६ स्त्रीमरणं हरणं वा
स्त्रीमानयशोभूतिः ३४-२८ स्त्रीमित्रभागरसवित्
! स्त्रीसृष्टपानभोजन ४५-१९ स्त्रीरत्नानि सुखानि
९-२७ स्त्रीलोलुपः कुचरितः २४-१९ स्त्रीलोलो लम्बबाहुः २०-२८ स्त्रीवस्त्रमाल्यगन्धैः ३१-२३ स्त्रीविरहदुःखखिन्नः
स्त्रीवैरान्नष्टधनः कुत्सित २७-४८ स्त्रीवैरान्नष्टधनः शूरः २४-११ स्त्रीसङ्गादुद्विग्नः ४०-४८ स्त्रीसत्वं स्त्रीललितं
२९-४ स्त्रीसम्पर्कजविभवाः १०-९० स्त्रीसेवी युवतिधनः ३३-१३ | स्त्रीहेतोर्दुःखात २३-१ स्तिमितं वृषभं स्त्रीणां १४-५ स्थलजलराशिविभागाः १७-३१ | स्थलजलखगौ विलग्नात् १३-१३ स्थानधनैश्वर्ययुतं ४९-१२ स्थानबलेन समेतः
४९-२ स्थितो भानोः पुत्रो ३४-५९ स्थिरपुत्रदारसुहृदं ४--१४ स्थिरभोदये तदंशे ४५-१ स्थिरसत्वबुद्धिरतिमान् ३४-२ | स्थूलास्थिर्मन्दरोमा २२-४२ | स्थूलोष्ठवाहुरुनततनुः
३१-८ २६-८ ३१-८१ २५-४७ २३-३३ ३३-७५ २२-३२ २८-२५ २८-६१ ५३-५३ ५३-२४ १६-३३
५-३५ ३५-३७ २३--१२ ५३-५६
२३-३० ५०-५१
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२५०
सारावली ।
अ० श्लो.
अ० श्लोक नानविभूषणनिरतः २९-२० खत्रिकोणगतैः सर्वैः ४४-३१ स्नानोपभोगभूषण २८-२२ खत्रिकोणगृहं केचित् ३८-१७ स्निग्धच्छविः सुवाक्यः ५०-५२ खद्रेक्काणबलेनाहीनो । स्निग्धच्छविः सुवेषः । ५०-८८ स्वप्नेऽभिपश्यति सुवर्ण ३७-२५ स्निग्धमृदुपवनभाजो १२-८ स्वमित्रक्षेत्रसंस्थानां स्निग्धस्तेजोयुक्तः
३७-१० स्वराशौ स्वत्रिकोणे च ४०-२३ स्निग्धा सिता च हरिता ३७-१८ वर्क्षत्रिकोणतुङ्गस्थाः । स्निग्धासितान्तपृथुक् ५०-७९ वर्क्षवलेन च सहितः ५-२९ स्निग्धैर्भवन्ति भूपाः ३७-९ स्वःसुतनवममेशाद्रेकाणानां ३-१४ स्पष्टार्थ विकलाज्ञः ५०-९६ खात् केन्द्रेषु यातैः ३५-२६ स्फटिकोपलसंकाशा ३७-१७ स्वरूं नक्षत्रनाथः
३५-१० स्फीतधनस्त्रीसहितः २४-४ स्वः शशी विपुलरश्मि स्फीतयशसो गुणाढ्याः २१-२८ वर्भानुनोपसृष्टा यदि १०-६० स्फुटनासिकास्फुटः स्यात् ५०-४९ । स्वल्पश्रुतमतिमुखरं २६-४५ स्फुटवाक्यं विगतधनं २९-३१ | स्वल्पसुखं खल्पधन २८-३६ स्फुटिताग्रनसः कालो ५०-७२ स्वल्पाकुञ्चितमूर्धजः ४-२१ स्मृतिमतिकुलसंपन्नं २६-५८ | स्वस्थः करोति जन्मनि स्यातां यद्याधाने
८-५३ स्वस्थशरीरसमागम स्यान्मल्लः परपुष्टः
१७-३३ स्वस्थानपरिभ्रष्टः क्लिष्टः ५-१२ स्रग्धौताम्बरयुक्तः १५-११ | खं खं पूर्व विलग्नं
५३-५१ स्रस्ताल्परोममूर्तिः ५०-४३ खखामिदृष्टयुक्तं
३२-४ वक्षः प्रसन्नगौरः
५०-६४ स्वात्केन्द्रायनवाष्टवित्तगृहगो ५२-२ वक्षः स्थिरः सुकेशः ५०-१६ स्वात्र्यायात्मजषत्रिकेषु ५२-८ वक्षेत्रे च चतुष्टये
स्वायुषो लग्नगे क्रूरे ३९-१९ खगृहनवांशे लग्ने
| स्वांशात्परस्य भागे यस्मिन् ५३-४१ खगृहांशकसंयोगात् ५३-११ खांशे दिनकरदृष्टः । २४-१० वगृहे तृतीयभागे ३५-६७ स्वांशे दिवाकरो यस्य स्वगृहे मित्रभागेषु ३५-४४ खांशेऽधिमित्रभावे ३५-११३ खगृहेऽमृसितदृष्टः २५-२९ खांशे रवौ शीतकरे ३८-८ खगृहोच्चसौम्यवर्ग ३४-१४ खांशे सौम्यैरबलैः ५३-२५ स्वजनपरिच्छदवाहन ३०-५३ स्वे राशौ परभागे ५३-१४ खजनायासवियोगं ४१-२३ स्वे स्वे भवने पुंसां ३२-२७ खजनावमर्दनपरो ४७-९ खोच्चत्रिकोणगृहगैः
३५-२ खजनाश्रयो दयावान् २१-२३ खोच्चनीचत्रिकोणा ४०-५३ खतन्त्रः सर्वकार्येषु ३७-४३ खोच्चप्राप्तस्य दशा
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पद्यानामकारादिकोशः।
२५१
४४-४
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३५-१२९
अ० श्लो.
अ० श्लो. खोच्चं याताः सर्वे
४४-४६ । होरागतैर्धनगतैः खोच्चसिद्धो ग्रहः शोध्यः ३९-१५ । होराग्रहबलसाम्ये निसर्गजं ५-२० खोच्चस्थस्वगृहेऽथवापि ११-१४ | होरा चतुर्थसप्तमदशमेषु ३१-१ वोच्चस्थितः शुभफलं ५-२५ । होरा जन्माधिपतेः
४१-५८ खोच्चस्थे दश सूर्ये ३६-२ | होरातृष्णार्तानां शिष्याणां १-६ खोच्चस्थै रविभौमसौर ३५-५ होरादिकण्टकेभ्यः २१-११ खोचस्थो रवितनयो
होरादिनेशशशिनां
४०-४ वोच्चस्वकालबलिनः ०-२२ होराधिपति ने
१०-२६ खोच्चः खकीयभवने ३०-७४
होरानिधनास्तगतैः
१०-४० खोच्चस्वराशि निजभाग
होरामनीक्षमाणे शशिनि ९-२८ खोच्चाश्रिताः श्रेष्ठबलाः
५-१५
होरायां कण्टके चन्द्रो १०-८५ खोच्चे गुराववनिजे ३५-८ होरायां कण्टके भौमो १०-८३ खोच्चे गुरुस्तनुगतः
होरालेखामुपेतः स्फुट । ३५-१३२ खोच्चे दशमे जीवे
९-१२
होराशशिनोबलवान् खोचे भवति च दीप्तः ५-३
होराष्टमस्थितः सूर्यः १०-८२ खोच्चे भानुः प्रकटितबलो ३५-८४ | होरा सर्वबलोपेता
३९-५ खोचोदये कृतपदः ३५-१०२
होरासंस्थे जीवे सुशरीरः होरास्तगतैः शकटं
२१-१५ होरेन्दुयुतैः सौम्यैः
८-३४ हतपुत्रदारनिःस्वाः २१-४० होरेन्द्वोर्बलयोगायो ३३-२ हयनरविदेहलग्ने ५३-४४ होरेश्वरस्तु मृत्यौ
१०-२८ हितसमरिपुसंज्ञा ये ४-३१ | ह्रखः पिङ्गललोचनो
४-२३ हिबुकगते धरणिसुते ८-३९ ह्रस्वः पृथुचारुतनुः ४८-२३ हिबुकास्तकर्मसहितः ४६-१२ ह्रखवदनोन्नतांसः ५०-५३ हिबुकेऽर्के वियति कुजे
४६-१० | ह्रस्वाननखरूपः
४९-८ हिमरश्मिरल्पपुण्यं
४४-१६ ह्रस्वास्तिमिगोजघटा ३-३७ हिंस्रोऽग्निकर्मकुशलो ३१-४७ ह्रस्वोदरः सुरोषो
५०-१४ हृद्रोगी बहुसत्वः सतां २२-६४ | ह्रखोन्नतोष्टघोणः
५०-६५ हेमप्रवालभूषण ३४-६० | ह्रखो मृदुः सुधीरो ५०-१०९ हेलिर्भानुः शशी चन्द्रः ४-१० | ह्रखो हठश्रुतार्थः ४८-१२
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इति सारावलीवर्णक्रमकोशः संपूर्णः।
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