Book Title: Mahavir Pat Parampara
Author(s): Chidanandvijay
Publisher: Vijayvallabh Sadhna Kendra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर पाट परम्परा पंन्यास चिदानन्द विजयजी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रत प्रकाशन के लाभार्थी : विक्रम संवत 2070 (ईस्वी सन् 2014 ) में पंन्यासप्रवर श्री चिदानन्द विजय जी म. के सांचोड़ी (राज.) चातुर्मास आयोजक त्रिपुटी बन्धु शा. हीराचन्दजी जेठमलजी सोलंकी शा. तेजराजजी वोरीदासजी लुनिया शा. प्रवीणकुमारजी हीराचन्दजी लुनिया Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री महावीर - स्वामिने नमः ।। महावीर पाट परम्परा लेखक शासनपति भगवान् महावीर स्वामी जी की क्रमिक पाट परंपरा के 77 वें पट्टधर, शांतिदूत, शासनदिवाकर, गच्छाधिपति - जैनाचार्य श्रीमद् विजय नित्यानन्द सूरीश्वर जी म.सा. के ज्येष्ठ सुशिष्यरत्न तत्त्वचिन्तक, प्रखर प्रवचनकार पंन्यासप्रवर श्री चिदानंद विजय जी म. प्रकाशक श्री विजय वल्लभ साधना केन्द्र, जैतपुरा (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महावीर पाट परंपरा - शुभाशीर्वादः आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी - लेखकः पंन्यास श्री चिदानन्द विजय जी - संपादकः हिमांशु जैन 'लिगा' - प्रथम संस्करण, सन् 2016 - प्रतियाँ: 1000 - मूल्यः मात्र 250/- रुपये - प्राप्ति स्थानः (1) श्री महावीर शिक्षण संस्थान, रानी स्टेशन, जिला-पाली (राजस्थान) (2) श्री आत्मानंद जैन सभा, 2/88, रूपनगर, दिल्ली-110007 (3) श्री वीरभूषण जैन, प्रधान, श्री आत्म-वल्लभ जैन धार्मिक पाठशाला, लुधियाना (पंजाब), संपर्क: 9316991999 (4) श्री अमित जैन, श्री नित्य-वल्लभ निवास-8898/5, अंबाला (हरियाणा) संपर्क: 9888636767 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमन गुरु पाट परम्परा को नमन बहुरत्ना वसुंधरा को जिनका सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान सम्यक् चारित्र आज भी हमें आलोकित करता है जिनका निर्मल संयम जीवन आज भी हमें गौरवान्वित करता है श्रद्धा समर्पण युक्त होकर कषाय कालिमा मुक्त होकर वन्दन हो वन्दन हो वन्दन हो... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल आशीर्वचन जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति अपनी मौलिकता के कारण अपने अस्तित्व को एक शाश्वत धर्म के रूप में अभिव्यक्ति दे रही है। चरमतीर्थपति, शासननायक, विश्ववंद्यविभूति भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने जनमानस पर अपार करुणा की अमीवर्षा करते हुए साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूपी चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना की। तीर्थंकर परमात्मा की अनुपस्थिति में आचार्य भगवन्त ही संघ संचालन के महत्त्वपूर्ण दायित्व का निर्वहण करते हैं। तब से लेकर अब तक अनेकों आचार्यों तथा आचार्यतुल्य गुरुदेवों ने भगवान् महावीर की पाट परम्परा को अक्षुण्ण रखा है एवं अपने विशिष्ट सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं नेतृत्त्व बल से जिनशासन के संरक्षण एवं संवध न में महती भूमिका निभाई है। उन्होंने अपनी प्रत्येक श्वास से, प्रस्वेद की प्रत्येक बूंद से, रक्त के प्रत्येक कण से इस जिनशासन को सींचा है, जिसके फलस्वरूप ही हमें परमात्म-शासन सम्यक् . रूप में मिला है। मेरे लिए वे सदा ही प्रेरणा और आदर्श के अखंड स्रोत रहे हैं। किसी भी संस्कृति का इतिहास उसके भविष्य को परिलक्षित करता है। श्रमण भगवान् महावीर की उत्तरकालीन पाट परम्परा का जाज्वल्यमान गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। जिनशासन की जड़ों से जुड़ना है, तो इतिहास का अध्ययन आवश्यक है। प्रभु वीर की पाट परम्परा का क्रमिक इतिहास स्वयं ही अनेक प्रश्नों के समाधान को अनावरित कर देता है। एक वृक्ष की शाखा-प्रशाखाओं की भाँति धर्मसंघ में भी अनेक परम्पराओं का उद्भव हुआ। तपागच्छ पट्टावली में गुरु आत्म-वल्लभ की पाट परम्परा अमिट इतिहास का द्योतक है। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे ज्येष्ठ शिष्य, पंन्यासप्रवर श्री चिदानन्द विजय जी म. ने 'महावीर पाट परम्परा' पुस्तक का सुंदर लेखन किया है। संकीर्णता के व्यामोह से मुक्त होकर भगवान् महावीर की पाट परम्परा का इतिवृत्त इसमें सुयोग्य रूप से हुआ है। इसका उद्देश्य किचित्, मात्र भी किसी विवाद को जन्म देना नहीं है, बल्कि पाठकों में गुरु पाट परम्परा के सम्यक् ज्ञान के संवाद को जन्म देना है। इस पुस्तक के माध्यम से हम संयमविभूतियों के निर्मल-निरतिचार संयम धर्म की अनुमोदन करते-करते संयमपथानुरागी बनने का भाव रखें, यही मंगल भावना....... - विजय नित्यानंद सूरि . iv Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख साध संसार-दावानल-दाह नीरं सम्मोह-धूली-हरणे समीरं। माया रसा दारण-सार-सीरं नमामि वीरं गिरि-सार-धीरं॥ संसार रूपी दावानल में ताप को शांत करने में जल के समान, अज्ञानरूपी धूल को दूर करने में वायु के समान, माया रूपी पृथ्वी को चीरने में तीखे हल समान और मेरु पर्वत जैसे स्थिर-श्री महावीर प्रभु को कोटिशः कोटिशः नमन। करुणानिधि-कृपानिधान शासनपति भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने जब केवलज्ञान-केवलदर्शन रूपी लक्ष्मी का वरण किया, तब उन्होंने इस संसार में केवल दुःख ही दुःख देखा। उनकी करुणा अपार थी। इस विश्व की प्रत्येक आत्मा के लिए उनमें असीम दया थी। सतत् रूप में धर्मगंगा प्रवाहित होती रहे, भव्य जीव इस संसार सागर से तिर सके, इस उद्देश्य से उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की - -साध्वी-श्रावक-श्राविका। इस संघ को वे स्वयं भी नमस्कार करते हैं। चतुर्विध संघ के समुचित संचालन हेतु प्रभु ने अपूर्व व्यवस्था का निरूपण किया। यूँ तो संघ में निरतिचार-निर्दोष संयम का प्रतिपादन और पालन होता रहे, तीर्थंकर परमात्मा की वाणी का यथावत् प्रवाह होता रहे, इसका दायित्व संघ के एक-एक सदस्य का है, किंतु उसमें भी 'णमो आयरियाणं' पद में वंदनीय, ऐसे शासनप्रभावक सूरि सम्राट-आचार्य भगवंतों का विशेष दायित्व होता है। संबोध प्रकरण में कहा गया है “सो भावसूरि तित्थयर-तुल्लो जो जिणमयं पयासेइ" अर्थात् - जो आचार्य जिनेश्वर परमात्मा के मत को यथार्थ रूप से प्रकाशित करते हैं, वे भावाचार्य तीर्थंकर तुल्य है। संघ का योग और क्षेम करना आचार्य भगवंतों का महत्त्वपूर्ण दायित्व होता है अर्थात् सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी प्राप्त कराना एवं स्थिरता से वृद्धि को प्राप्त कराना। भगवान् महावीर स्वामी जी की परम्परा में जिनधर्म-जिनशासन को समर्पित अनेकानेक गुरु भगवंत हुए हैं। उनमें भी प्रभु महावीर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की परमोज्ज्वल पाट परम्परा को देदीप्यमान करने वाले, अपनी धर्मदृष्टि से समूचे संघ का नेतृत्त्व कर जिनशासन का संवहन करने वाले पट्ट प्रभावक सूरि भगवंतों की श्रृंखला गौरवान्वित करने वाली है। जिस तरह एक वृक्ष की जड़, उसका मूल एक ही होता है किंतु उसकी अनेकों शाखाएं-प्रशाखाएं विकसित होती हैं जो वृक्ष को समृद्धि एवं विशालता की ओर ले जाती है, उसी प्रकार भगवान् महावीर की परम्परा में समय-समय पर अनेकों गच्छ, समुदाय रूपी शाखाएं-प्रशाखाएं विकसित हुई जो उसकी विशालता की द्योतक है। वर्तमान समय में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय में तपागच्छ गगनदिनमणि समान जिनशासन को आलोकित करता है। उसमें भी गुरु आत्मवल्लभ की परम्परा का सविशेष स्थान है। ___गुरु भगवंतों का जीवन अनंत प्रेरणा का स्रोत है। स्वाध्याय को एक तप कहा गया है। गुरुओं के जीवन का स्वाध्याय महान तप है। उनके जीवन में क्या गुण थे, किस प्रकार उन्होंने शासन प्रभावना की, किस प्रकार उन्होंने संघ का नेतृत्त्व किया - इसके अनुशीलन से मात्र गुणानुवाद नहीं, बल्कि गुणानुराग और गुणानुपालन होता है। करना, कराना, अनमोदन करना - ये 3 करण कहे गए हैं। चारित्र की अनुमोदना से चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है। इसी कारण उच्चतम चारित्र के धनी, भगवान् महावीर की अक्षुण्ण पाट परम्परा को चिरंजीवी बनाकर संघ के संरक्षण और संवर्धन से प्रेरणात्मक आदर्श स्थापित करने वाले गुरु भगवंतों का जीवन स्वाध्याय योग्य है। प्रस्तुत पुस्तक 'महावीर पाट परम्परा' में जैनाचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी म. के प्रथम शिष्यरत्न पंन्यासप्रवर श्री चिदानन्द विजय जी म.सा. ने गौरवशाली गुरु पाट परंपरा का वर्णन करते हुए पाठकवर्ग के लिए सरल एवं सरस शैली में लेखन-संकलन कर जनोपयोगी. श्रुतरत्न पिरोया है। एक एक गुरुदेव का जीवन हमें जिनशासन के प्रति गौरव की अनुभूति कराता है। गुरु भगवंतों के जीवन विषयक सम्यक् ज्ञान के प्रचार का यह उत्तम प्रयास है। संपादन सम्बन्धी सभी त्रुटियों, गलतियों, स्खलनाओं के लिए सभी से आत्मीय क्षमायाचना। अखंड संयम सर्वविरति धनी, सुगुरु स्वस्ति स्थान, गुरु पाट परंपरा परमोपकारी, सम सूर्य देदीप्यमान। देव-गुरु और धर्म कृपा से, मंगल प्रयास वेगवान, रत्नत्रयी स्वाध्याय साधना, हो जीवन जाज्वल्यमान॥ यह कृति जनोपयोगी बने, जनप्रिय बने, यही मंगल अभिलाषा..... - हिमांशु जैन "लिगा vi Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैन धर्म अध्यात्म प्रधान धर्म है। कषायों और कर्मो की कालिमा को दूर कर आत्मा को परमात्मा बनाना ही जिनधर्म का उद्देश्य है। तीर्थंकर परमात्मा इस विश्व की अलौकिक-अद्वितीय विभूति होते हैं। उनके हृदय में संसार की प्रत्येक आत्मा के प्रति अपार करुणा होती है। शाश्वत सुख से युक्त सिद्ध अवस्था ही अव्याबाध और अक्षय सुख है। संसार में जन्म-जरा-मृत्यु के निरन्तर बंधन दुख रूप होते हैं। तीर्थंकर इस तथ्य की साक्षात् अनुभूति करते हैं एवं विश्व के सभी जीवों को मोक्षमार्ग से जोड़ने की प्रबलतम भावना रखते हैं। किंतु सभी गतियों के जीवों का पुण्य एक जैसा नहीं होता। गतियाँ चार होती हैं - नरक गति, तिर्यच गति, देव गति एवं मनुष्य गति। नरक गति के जीव परमात्मा की वाणी न सुन सकते हैं, न पढ़ सकते हैं। तिर्यच गति के जीव परमात्मा की वाणी सुन तो सकते हैं, लेकिन पूरी तरह समझ नहीं सकते। देवगति के जीव परमात्मा की वाणी सुन-पढ़ तो सकते हैं, समझ भी सकते हैं लेकिन पूरी तरह आचरण (पालन) नहीं कर सकते क्योंकि वे व्रत, नियम पच्चक्खान ग्रहण नहीं कर सकते। केवल मनुष्य गति के जीव ही ऐसे पुण्य के धनी हैं जो परमात्मा की वाणी सुन-पढ़ भी सकते हैं, समझ भी सकते हैं एवं आचरण कर सिद्धत्व को प्राप्त भी कर सकते हैं। तीर्थंकर परमात्मा 'तीर्थंकर' इसीलिए कहलाते हैं क्योंकि वो तीर्थ की स्थापना करते हैं। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका-इस चतुर्विध संघ को तीर्थ कहते हैं। परमात्मा शासन को स्थापित करते हैं एवं आचार्य आदि साधु-साध्वी जी शासन का संवहन करते हैं, आगे बढ़ाते हैं। इस संघ का नेतृत्त्व करने वाले गुरुदेवों की परम्परा को पाट परम्परा कहा जाता है। वर्तमान शासन चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी जी का है। अतः वर्तमान में भगवान् महावीर की पाट परम्परा गतिमान है, ऐसा कहा जा सकता है। प्रत्येक तीर्थंकर के विरह (अभाव) में उनकी परम्परा चलती है। भगवान् ऋषभदेव जी के निर्वाण के पश्चात् उनकी पाट परम्परा का विस्तार हुआ। तत्पश्चात् श्री अजितनाथ जी द्वारा तीर्थ स्थापना के पश्चात् उनका शासनकाल चला। उसी तरह जब पार्श्वनाथ जी को केवलज्ञान हुआ, उनके द्वारा चतुर्विध संघ vii Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की स्थापना की गई। उनके प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्त हुए, द्वितीय पट्टधर आचार्य हरिदत्त सूरि जी, तृतीय पट्टधर आचार्य समुद्र सूरि जी हुए। पार्श्वनाथ जी का शासन सबसे कम वर्षों तक चला। उनके चौथे पट्टधर आचार्य केशी श्रमण ने भगवान् महावीर द्वारा संस्थापित शासनधर्मसंघ में सम्मिलित हो पंच महाव्रतों की उपसंपदा ग्रहण की एवं भगवान् महावीर की परम्परा में समाहित हो गए। तात्पर्य यह कि भगवान् महावीर के जिन-शासन में वर्तमान में उनकी पाट परम्परा प्रवहमान है। - धर्मसंघ स्थापना : तीर्थंकर नामकर्म के सुप्रभाव से तीर्थंकर परमात्मा नियमपूर्वक तीर्थ की स्थापना करते हैं। 'तारयते इति तीर्थम्' जो आत्मा को इस भवसागर से तिराने का सामर्थ्य रखता है, उसे तीर्थ कहा गया है। मानव जीवन में माँसाहार, जुआ, शिकार, बलात्कार, हत्या, चोरी आदि पापों का सेवन करने से आत्मा निस्संदेह रूप से दुर्गति में ही जाती है। जीवन के सद्गुणों व सदाचार का पालन ही शुभ परिणाम देता है। तीर्थंकर परमात्मा को जब केवलज्ञान प्रकट होता है, तब भूत-भविष्य-वर्तमानऊर्ध्वलोक-मध्यलोक- अधोलोक आदि विश्व का अनंत ज्ञान उन्हें होता है। वे जब संसार के दुख और सिद्धत्व के सुख से साक्षात्कार करते हैं, तो उन्हें प्राणीमात्र के प्रति अपार करुणा और असीम दया का अनुभव होता है। वे स्वयं तो मोक्षगामी ही होते हैं किंतु अन्य मानव किस प्रकार से इस संसार सागर से तिर सकें, इस भाव से वे तीर्थ की स्थापना करते हैं। वे एक ऐसी व्यवस्था को जन्म देते हैं ताकि उनके बाद भी धर्म की प्रवृत्ति सदा गतिमान रहे। श्री भगवतीसूत्र की टीका में कहा है - 'तित्थं पुण चाउवन्नाइन्ने समणसंघो समण, समणीओ, सावया, सावियाओ।' सर्वविरति यानि सभी पापों के त्यागी एवं दीक्षित श्रमण (साधु) एवं श्रमणी (साध्वी)। देशविरति यानि स्थूल पापों के त्यागी एवं श्रमण-श्रमणी वर्ग के उपासक श्रावक एवं श्राविका। यह चतुर्विध संघ ही तीर्थ है। श्रमण भगवान् महावीर ने वैशाख शुक्ला 11, ईसा पूर्व 557 (विक्रम पूर्व 500) के दिन चतुर्विध संघ की स्थापना की थी। इन्द्रभूति गौतम आदि को उन्होंने दीक्षित कर सर्वविरति धर्म प्रदान किया। चन्दनबाला भी प्रभु चरणों में दीक्षित होकर साध्वी समुदाय की अग्रणी बनी। उसके बाद हजारों नर-नारियों ने प्रभु वीर से श्रावक धर्म के व्रत अंगीकार किए। तीर्थंकर परमात्मा viii Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं समवसरण में देशना देने से पूर्व ' णमो तित्थस्स' (णमो संघस्स) कहकर चतुर्विध संघ रूपी तीर्थ को नमन करते हैं। पिछले जन्मों में तीर्थंकर स्वयं भी किसी अन्य तीर्थंकर द्वारा स्थापित धर्मसंघ के अंग रहे होंगे जहाँ पर उन्होंने धर्म की उत्कृष्ट आराधना कर आत्मा का कल्याण किया एवं तीर्थंकर नाम कर्म जितना पुण्य इकट्ठा किया। वर्तमान में भी वे इसी तीर्थ के कारण तीर्थंकर कहलाते हैं। अतः विनय का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हुए तीर्थंकर महावीर ने भी संघ रूपी तीर्थ को नमन किया। तीर्थंकर महावीर के 11 गणधर थे। साधु भगवंतों के समूह को गण कहा गया है एवं उस साधु समुदाय की व्यवस्था का संचालन करने वाले को गणधर शब्द से संबोधित किया है । तीर्थंकर परमात्मा की अर्थरूप वाणी को सूत्र रूप में गूंथकर गणधर भगवन्त अपने शिष्य समुदाय को उसकी वाचना देते हैं। भगवान् महावीर के 11 गणधरों में से 7 गणधरों की वाचना पृथक्-पृथक् (अलग-अलग ) हुई पर अकंपित और अचलभ्राता गणधर की वाचना एक समान हुई एवं मेतार्य और प्रभास गणधर की भी एक वाचना हुई। इस प्रकार भगवान् के 11 गणधरों के 9 गण हुए। O प्रथम पट्टधर : गणधर सुधर्म भगवान् महावीर ने जब तीर्थ की स्थापना की, तब इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह गणधर प्रभु के सम्मुख विनयवंत मुद्रा में खड़े हुए। कुछ क्षण के लिए देवों ने वाद्यनाद बन्द किए। प्रभु ने अपने पंचम गणधर आर्य सुधर्म को चिरंजीवी समझकर सभी गणधरों के आगे खड़ा किया एवं श्रीमुख से फरमाया मैं तुम्हें धुरी के स्थान पर रख गण एवं पाट की अनुज्ञा देता हूँ।" इस प्रकार कह सुगंधित चूर्ण ( वासक्षेप ) शीघ्र डालकर 'नित्थारगपारगाहोह' यानि इस संसार सागर से निस्तारा हो, ऐसा आशीर्वाद दिया । 1 समवसरण में तीर्थंकर महावीर के बाद अन्य गणधर भी उपदेश देते हैं। उसके भी कई कारण होते हैं। जैसे - शिष्यों की योग्यता को बढ़ाना, परमात्मा का गुणानुवाद करना, श्रोताओं को विश्वास दिलाना कि गणधर भी तीर्थंकर जैसा ही उपदेश देते हैं एवं भगवान् ने जैसी अर्थरूप वाणी फरमाई, वैसी ही सूत्ररूप वाणी की वाचना गणधर करते हैं एवं तीर्थंकर परमात्मा के बाद जिनशासन के संवहन के पूर्ण योग्य हैं। भगवान् महावीर के 9 गणधर उनके जीवनकाल में ही मोक्ष पद प्राप्त कर गए। जिस-जिस गणधर का कालधर्म होता गया, उन-उन की शिष्य परम्परा श्री सुधर्म स्वामी जी के गण में Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मिलित होती गई। श्री कल्पसूत्र में भी फरमाया गया है - "जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एए णं सव्वे अज्ज-सुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा वोच्छिन्ना" अर्थात् आजकल जो भी श्रमण-निग्रंथ विचर रहे हैं, वे सभी आर्य सुधर्म की परम्परा के सन्तानीय हैं, अवशेष गणधरों की परम्परा विच्छिन्न (विलुप्त) हो चुकी है। जिस रात्रि भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, उसी रात्रि प्रथम गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम स्वामी जी को केवलज्ञान हुआ। उस समय तक सुधर्म स्वामी जी को केवलज्ञान नहीं हुआ था यानि वे छद्मस्थ अवस्था में ही थे। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य श्री गौतम स्वामी जी की उपस्थिति में उन्हें छोड़ सुधर्म स्वामी जी को पट्टधर क्यों बनाया? इसके उत्तर में फरमाया गया है कि केवलज्ञानी स्वयं समस्त पदार्थों के पूर्ण ज्ञाता होने से अपने ज्ञान के आधार पर उपदेश देते हैं, न कि अन्य किसी के उपदेश के आधार से। छद्मस्थ कहते हैं - "भगवान् ने ऐसा फरमाया है" या मैंने प्रभु के मुख से जैसा सुना, वैसा ही कहता हूँ।" केवलज्ञानी ऐसा नहीं कर सकते। वे तो कहते हैं - मैं केवलज्ञान में ऐसा देखता हूँ" इत्यादि। जिनशासन के संचालन में प्रथम पक्ष की ही आवश्यकता होती है अर्थात् छद्मस्थ ही परम्परा का संवहन करते हैं। केवलज्ञानी घाति कर्म से मुक्त होते हैं। संघ के संचालन के लिए सारणा-वारणा-चोयणा-पडिचोयणा की आवश्यकता होती है, कभी शिष्यों पर क्रोध भी करना होता है किंतु केवलज्ञानी ऐसा करने में असमर्थ होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा केवलज्ञान के धनी थे। इस कारण भगवान् महावीर ने सुधर्म स्वामी जी को पट्टधर पद का दायित्व पहले ही प्रदान कर दिया था। ठीक उसी तरह जिस तरह एक राजा अपने भावी राजा को स्थापित करता है। प्रभु के निर्वाण पश्चात् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन उनका पट्ट प्रदान महोत्सव कहा जाता है। अनेकों आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि साधु-साध्वी जी उनकी आज्ञा में रहे। आचार्य भगवन्त सूरि मंत्र की विशिष्ट साधना करते हैं, जिसके बल से ही उन्हें जिनशासन प्रभावना की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। वह सूरिमंत्र भी परम्परा से सुधर्म स्वामी जी की वाचना से ही प्राप्त होता है। .. वर्तमानकालीन परिपाटी में प्रयुक्त स्थापनाचार्य जी भी सुधर्म स्वामी जी का प्रतीक है। अनेकों जगह उन्हें 'सुधर्मा' शब्द से संबोधित किया जाता है किंतु अनेकों प्राचीन ग्रंथों में अज्जसुहम्मस्स (कल्पसूत्र), सुहम्मं (नन्दीसूत्र), सिरिसुहम्म (दुषमाकाल श्री श्रमण संघ स्तोत्र), सुधर्मस्वामिभाषिता (प्रभावक चरित्र), अज्जसुहम्मे (निरयावलिया), सुधर्मस्वामिनो (आवश्यक नियुक्ति), सुधम्मसामी X Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तिलोयपन्नती), अज्जसुहमस्स अणगारस्स (ज्ञाताधर्मकथा, अनुत्तरौपपातिक आदि), सुहम्मसामिस्स (विविध तीर्थकल्प) आदि के रूपांतरण से 'सुधर्म' शब्द उपयुक्त प्रतीत होता है। - पट्ट परम्परा का महत्त्व भगवान् महावीर ने जिस चतुर्विध संघ की स्थापना की, उसकी समुचित व्यवस्था रखना भी आवश्यक है। यूँ तो साधु-साध्वी जी श्रावक-श्राविकाओं को धर्मोपदेश देते हैं, जिनेश्वर परमात्मा की वाणी का बोध कराते हैं, परन्तु श्रावक-श्राविका भी साधु-साध्वी जी के माता-पिता के रूप में उन्हें धर्म मार्ग में प्रवृत्त रखते हैं। यह स्वयं में ही एक अपूर्व व्यवस्था है। इसे और अधिक सुदृढ़ करने हेतु आचार्य भगवन्त संघ का नेतृत्त्व करते हैं एवं संघ में उत्सर्ग-अपवाद, सही-गलत आदि का सम्यक् संचार कर शासन प्रभावना के आयाम प्राप्त करते हैं। गच्छाचार प्रकीर्णक में फरमाया भी है तित्थयरसमो सूरी सम्म जो जिणमयं पयासेइ। आणं अइक्कमंतो सो कापुरिसो न सप्पुरिसो॥ जो आचार्य सम्यक् रूप से जिनमत प्रकाशित करते हैं, वे साक्षात् तीर्थंकर के समान हैं और जो जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन करते हैं, वो कापुरुष हैं, सत्पुरुष नहीं। जिस तरह एक राजा अपने राजसिंहासन पर आगामी राजा को बिठाता है अथवा प्रजा मिलकर एक राजा चुनती हैं ताकि राजकीय व्यवस्था भली प्रकार से चल सके एवं राजा के नेतृत्त्व में राज्य हमेशा वृद्धि को प्राप्त हो, उसी प्रकार भगवान् का शासन समुचित रूप से व्यवस्थाबद्ध तरीके से चल सके, जिसके नेतृत्त्व में जिनशासन सदा उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करता रहे, उस उद्देश्य से प्रभु की परम्परा में पट्टधर का कर्तव्यपूर्ण पद होता है। भगवान् महावीर की परम्परा में पहले एक पट्टधर परम्परा ही थी अर्थात् एक आचार्यदेव ही सुविशाल श्रमण-श्रमणी गण का दायित्व संभालते थे। कालक्रम से यह शाखा-प्रशाखा के रूप में विकसित होते गए। जिस तरह एक वृक्ष की जड़, उसका मूल एक ही होता है लेकिन ज्यों-ज्यों वह वृद्धि को प्राप्त होता है, उसमें अनेकों डालियाँ, टहनियाँ, शाखाएँ निकल जाती हैं, उसी प्रकार प्रभु वीर के संघ में अनेकों शाखाएं-प्रशाखाएं निकली। xi Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके अनेकों कारण हैं। वर्तमान में पारस्परिक संपर्क के जितने साधन हैं, उतने प्राचीनकाल में नहीं थे। एक नियमित क्षेत्र में विचरण करने वाले साधु-साध्वी जी भगवंतों ने कई बार अपने नेतृत्त्व के लिए नूतन गुरु भगवंतों का चयन कर लिया। जब श्रमण समुदाय अति विशालता को प्राप्त करता है एवं दूर-सुदूर जगहों में भी विचरण करता है, तब उसकी व्यवस्था का दायित्व बाँटने हेतु शाखाएं बन गई। कई बार एक आचार्य के कई शिष्य हैं, वे सभी आचार्य पद को प्राप्त हुए। उनके आगे शिष्यों ने अपने गुरु की परम्परा को आगे बढ़ाकर नई शाखा प्रचलित कर दी। मतभेद और मनभेद के कारण भी कई शाखाओं-प्रशाखाओं का जन्म हुआ। सिद्धांत और समाचारी विषयक मतभेदों में कई परम्पराएं भिन्न हुई हैं अथवा नेतृत्त्व हेतु नियुक्त आचार्य से व्यवहार अथवा आचार आदि भेदों के कारण भी अनेकों शाखा-प्रशाखाओं का जन्म हुआ। स्वगच्छ-दृष्टिराग के अभाव में यह व्यवस्था पोषक कही जा सकती है। इसका आदि (प्रारंभ) है किन्तु अन्त दृष्टिगोचर नहीं होता। कौन सही है, कौन गलत है - इस व्यायोह में पड़ना उद्देश्य नहीं है। । भगवान् महावीर की प्रभावशाली पाट परम्परा का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। यद्यपि भगवान् महावीर के जन्म ग्रह को भस्म ग्रह ने संक्रान्त कर लिया था, जिसके दुष्प्रभाव से प्रभु वीर के निर्वाण के दो हजार वर्षों तक जिनशासन की प्रगति में अन्तरायों की बात थी किंतु इतिहास साक्षी है कि पट्टाचार्यों ने अपनी दर्शन-ज्ञान-चारित्र सम्पन्नता के बल पर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघ के संरक्षण और संवर्धन का महत्त्वपूर्ण दायित्व कुशलतापूर्ण रूप में निभाया। पाट परम्परा, गुरु परम्परा, स्थविर परम्परा, युगप्रधान परम्परा (अपने काल में हुई विशिष्ट गुणों से युक्त आत्माएँ युगप्रधान कहलाती हैं) आदि के सम्यक् अनुशीलन से यह विदित होता है कि आचार्य सुधर्म स्वामी जी यह परम्परा. अनेक रूपों में विशिष्ट है। - संघ संचालन का दायित्व संघ की सारणा-वारणा-चोयणा-पडिचोयणा का दायित्व पट्टाचार्यों के पास सुरक्षित होता है। जिस तरह एक गुरु के पास अपने शिष्य हित के लिए यह अधिकार होते हैं, उसी प्रकार पट्टधर गुरु के पास चतुर्विध संघ के लिए यह अधिकार होते हैं। सारणा यानि स्मरण कराना xii Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आचरण विषयक कर्त्तव्य याद कराना), वारणा यानि टोकना (अनुचित प्रवृत्ति पर टोकना), चोयणा यानि प्रेरणा (सदाचार हेतु प्रेरित करना), पडिचोयणा यानि बारम्बार प्रेरणा देना (कषाय-पूर्वक भी सत्पात्र को बार-बार समझाना आदि) साधु-साध्वी जी के समूह का जो नेतृत्त्व कर रहे हैं, ऐसे पट्टधर पर समूचे संघ का दायित्व होता है। विहार की सीमा, शास्त्रार्थ विवेचना, प्रायश्चित्त प्रदान, साध्वाचार समाचारी पालन, क्षेत्र-काल अनुसार निर्णय आदि गीतार्थ पट्टाचार्य ही प्रायः लेते हैं। गण-कुल-गच्छ आदि शब्द भी विशिष्ट हैं। जिनकी वाचना पद्धति समान होती है, वह श्रमण समूह गण कहलाता है। एक आचार्य का शिष्य परिवार कुल कहलाता है। शास्त्र में फरमाया है - तिण्ह कुलाणमिहो पुण, साविक्खाणं गणो होइ। अर्थात् एक दूसरे से सांभोगिक (वस्त्र, आहार आदि) व्यवहार रखने वाले तीन कुलों का समुदाय गण कहलाता है। आठ साधुओं के ऊपर एक गुरु स्थविर हो, तभी वह कुल कहलाता है। उसी प्रकार गण में 27 साधु एवं एक गणस्थविर आवश्यक है। किंतु समय के प्रभाव से इन शब्दों की महत्ता कम हो गई एवं 'गच्छ' शब्द अधिक प्रचलित हो गया क्योंकि बृहत्कल्पभाष्य में 3 से लेकर 32,000 तक की श्रमण संख्या को गच्छ नाम से निर्दिष्ट कर दिया। भगवान महावीर की परम्परा में अनेकों गच्छ हुए। किसी भी साधु-साध्वी जी को एक गच्छ में सम्मिलित रहना ही चाहिए। गच्छाचार प्रकीर्णक में कहा है - गच्छो महानुभावो तत्थ वसंताण निज्जरा विउला। सारण-वारण-चोयणमाईहिं न दोसपडिवत्ती॥ अर्थात् - गच्छ महाप्रभावशाली है क्योंकि उसमें रहने वालों की बड़ी कर्मनिर्जरा होती है। सारणा, वारणा और प्रेरणा आदि द्वारा उन्हें दोषों की प्राप्ति भी नहीं होती। गच्छाचार प्रकीर्णक, महानिशीथ सूत्र, संबोध प्रकरण आदि ग्रंथों में गच्छ का स्वरूप, उसकी मर्यादा एवं महत्ता का विस्तारपूर्वक विवेचन है। श्री महानिशीथ सूत्र में फरमाया है कि गणधर गौतम स्वामी जी भगवान् महावीर से पूछते हैं - से भयवं! केरिस-गुणजुत्तस्स णं गुरुणो गच्छ निक्खेवं कायव्वं? यानि हे भगवन्त कैसे गुणों से युक्त गुरु गच्छ का निक्षेप (नायकत्व) कर सकते हैं? तो प्रभु ने फरमाया है सुंदर शीलवाले, स्त्रीकथा-भोजनकथा-चोरकथा के विरुद्ध हों, पापभीरू हों, शत्रु और मित्र, दोनों के प्रति समान भाव वाले हों, बहुश्रुत ज्ञान के धारक, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव एवं अन्य भावनान्तरों के ज्ञाता xiii Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हों, बाल-वृद्ध-ग्लान साधु के संयम को प्रवर्ताने में कुराल हो, गंभीर हों, .... इत्यादि गुणों से युक्त गुरु ही गण एवं गच्छ के भार को स्थापन करने के योग्य हैं अन्यथा हे गौतम! आज्ञा का भंग होता है। इसी प्रकार गण, गच्छ आदि पर स्थापित करने योग्य गुरुओं की योग्यता का भी आगम-ग्रंथों में उल्लेख है। प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से यह पट्टधर विषयक गुणों व योग्यताओं की भी पुष्टि करता है। जिस तरह एक प्रतिष्ठित जिनमंदिर अथवा तीर्थ में वर्षों के अंतराल के बाद उसका ढाँचा कमजोर पड़ जाता है। कभी उसे सामान्य मरम्मत से ठीक करना पड़ता है एवं कभी पूरा जीर्ण-शीर्ण होने पर जीर्णोद्धार कराना पड़ता है, उसी प्रकार द्रव्य-क्षेत्र-भाव के कारण साधु-साध्वी जी के आचार में भी परिवर्तन आने की संभावनाएं होती हैं। उनके ढीले अथवा आगम-प्रतिकूल आचार को शिथिलाचार कहा जाता है। पट्टधर गुरु भगवन्तों का यह दायित्व होता है कि समूचे संघ में दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सम्यक् पालन रखें। साधु-साध्वी जी में शिथिलाचार प्रवेश करने पर जो असुविहित प्रवृत्तियों का त्याग कर सुविहित मार्ग पर चलते हैं एवं वैसा ही पालन अपने आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वी समुदाय में हो, ऐसा सुनिश्चित करते हैं, उस क्रिया को 'क्रियोद्धार' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। पट्टधर गुरु भगवंतों द्वारा यह संघ-संरक्षण, जिनाज्ञा पालन एवं दायित्व पूर्ति का ही सारणा-वारणा आदि का विस्तृत रूप रहा है। प्रभु वीर की परम्परा में कई बार शिथिलाचार व्याप्त हुआ जैसे - साधुओं द्वारा धन संग्रह करना, निष्कारण एकाकी विहार, आगम विरुद्ध प्ररुपणा, साध्वी द्वारा लाए आहार का साधु द्वारा ग्रहण करना इत्यादि जिसका समय-समय पर क्रियोद्धार हमारे पूर्वगुरुदेवों ने किया है। आज जो चतुर्विध संघ का महिमावंत स्वरूप दिखता है, जिनप्रतिमा - जिनमंदिर-जिनागम आदि क्षेत्र पोषित दिखते हैं, यह सब हमारे गुरुदेवों का पुरुषार्थ हैं जिन्होंने संयम धर्म की मर्यादा में रहकर जिनधर्म-जिनशासन की महती प्रभावना की। - तपागच्छ एवं 84 गच्छ भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर आचार्य सुधर्म स्वामी जी के समय में संपूर्ण श्रमण समुदाय की प्रसिद्धि 'निर्ग्रन्थ गच्छ अथवा सुधर्म गच्छ' के नाम से थी। कालान्तर में शाखाओं-प्रशाखाओं से अनेकों गच्छ प्रसिद्ध हुए। कई जगह 84 गच्छ होने की बात कही जाती xiv Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, किंतु इतिहास साक्षी है कि उससे भी कई अधिक गच्छ व्यवहत हो चुके हैं। कुछ का वर्णन इस प्रकार है1) निर्ग्रन्थ गच्छ : सुधर्म स्वामी जी द्वारा प्रवर्तित यह गच्छ आठवें पट्टधर आर्य महागिरि एवं आर्य सुहस्ती सूरि जी तक चला। 2) कोटिक गच्छ : नवमें पट्टधर आचार्य सुस्थित एवं सुप्रतिबुद्ध सूरि जी द्वारा कोटि बार सूरिमंत्र का जाप करने से यह निर्ग्रन्थ गच्छ का नाम पड़ा। 3) चंद्र गच्छ : पंद्रहवें पट्टधर आचार्य चन्द्र सूरि जी के समय में इसका नाम चन्द्र गच्छ पड़ा। . वनवासी गच्छ : सोलहवें पट्टधर समंतभद्र सूरि जी के वनवासी होने से कोटिक गच्छ का नाम वनवासी गच्छ पड़ा। 5) बड़गच्छ : पैंतीसवें पट्टधर आचार्य उद्योतन सूरि जी द्वारा वटवृक्ष के नीचे शिष्यों को आचार्य पद देने से यह नाम पड़ा। तपागच्छ : चवालीसवें पट्टधर आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी की तपस्या से उन्हें 'तपा' बिरुद मिला। अतः उनकी शिष्य संपदा बड़गच्छ के बाद तपागच्छ के नाम से विश्रुत हुई। उपरिलिखित 5 नाम तपागच्छ के जनक हैं। इसके उपरांत भी अनेकों गच्छ हुए। जैसे उपकेश गच्छ, ब्रह्मद्वीप गच्छ, मल्लधारी गच्छ, सांडेरगच्छ, कोरंट गच्छ, चित्रवाल गच्छ, आगमिक गच्छ, राजगच्छ, पूनमिया गच्छ, थारापद्रीय गच्छ, पार्श्वचंद्र गच्छ इत्यादि। किंतु शिष्य परंपरा के अभाव में अथवा मूल पंरपरा में वापिस जुड़ जाने से अनेकों गच्छों का अस्तित्व नहीं रहा। वर्तमान में तपागच्छ, खरतरगच्छ, आंचलगच्छ, पार्श्वचंद्रगच्छ विमल गच्छ आदि वीर शासन को देदीप्यमान कर रहे हैं। तपागच्छ में भी अनेकों समुदाय विद्यमान हैं श्री भक्ति सूरि समुदाय . श्री बुद्धिसागर सूरि समुदाय . श्री नेमि सूरि समुदाय - श्री धर्म सूरि समुदाय 6) XV Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भुवनभानु सूरि समुदाय श्री धर्म विजय समुदाय (डहेलावाला) . श्री लब्धि सूरि समुदाय . श्री नीति सूरि समुदाय श्री केसर सूरि समुदाय श्री सागरानन्द सूरि समुदाय श्री सिद्धि सूरि समुदाय श्री शांतिचंद्र सूरि समुदाय श्री कलापूर्ण सूरि समुदाय श्री रामचन्द्र सूरि समुदाय श्री वल्लभ सूरि समुदाय श्री विमलगच्छ । श्री मोहनलाल जी समुदाय . श्री हिमाचल सूरि समुदाय श्री अमृत सूरि समुदाय प्रस्तुत पुस्तक में प्रथम पट्टधर गणधर सुधर्म स्वामी जी से लेकर तपागच्छ के श्री आत्म वल्लभ समुदाय के वर्तमान नायक, 77वें पट्टधर आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी तक का जीवन निबद्ध है। लेखन शैली न अति लघु न अति विस्तृत रखी गई है एवं पट्टधर गुरुदेवों के समकालीन रहे विशिष्ट प्रभावक आचार्य आदि का भी परिचयात्मक उल्लेख किया है। ___ श्वेताम्बर परम्परानुसार वीर निर्वाण संवत् 609 (वि.सं.) में शिवभूति से बोटिक मत निकला जो कालान्तर में दिगंबर मत में विकसित हुआ। इसी प्रकार लोकाशाह द्वारा स्थानकवासी मत का विकास हुआ। समय-समय पर अनेकों परंपराएं निकली। - संवत् परिचय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समय के प्रवाह को समझना आवश्यक है। समय की अनुक्रमणिका का व्यवस्थाबद्ध विवेचन करने के लिए सन् अथवा संवत् की सुंदर परम्परा गतिमान है। इतिहास के विषय में आचार्यो, राजाओं, प्रतिष्ठा महोत्सव, शास्त्र रचना, कालधर्म आदि में ठीक-ठीक कालनिर्णय करने की जरूरत रहती है। उसी के अनुसार यह ज्ञात होता है कि क्या किसके बाद हुआ या आज से कितने वर्ष पूर्व हुआ। जैनागमों में एक वर्ष को एक संवत्सर कहा गया है। वहीं से 'संवत्' शब्द प्रचलित है। जैनग्रंथों में प्रमुख रूप से 3 संवतों का प्रयोग सर्वाधिक होता है। प्रस्तुत पुस्तक में भी उन्हीं का उपयोग हुआ है1. वीर संवत् - वीर संवत् यानि वीर निर्वाण। चौबीसवें तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी xvi Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी का कार्तिक वदि अमावस्या के दिन निर्वाण महोत्सव हुआ। उसके अगले दिन-कार्तिक सुदि एकम से वीर संवत् की प्रथा का प्रादुर्भाव हुआ। तदनुसार 15 अक्टूबर 527 B.C. से वीर संवत् चालू हुआ। वीर संवत् और विक्रम संवत् में 470 वर्षों का अंतर हुआ। अखंड भारतवर्ष में प्रयोग किया जाने वाला यह प्राचीनतम संवतों में से एक है। विक्रम संवत् - भगवान् महावीर के निर्वाण के 470 वर्ष बाद विक्रम संवत् चालू हुआ। इतिहास के अनुसार प्रतिष्ठानपुर / उज्जैन के महान सम्राट श्री विक्रमादित्य के राज्याभिषेक अथवा मृत्यु से विक्रम संवत् प्रचलित हुआ। चैत्र सुदि एकम से नया विक्रम संवत् चालू होता है। इस संवत् के आरंभ से पूर्व की घटनाओं का आकलन 'विक्रम पूर्व' संवत् से कर दिया जाता है। विक्रम संवत् चालू होने के 57 वर्ष बाद ईस्वी संवत् (ईस्वी सन्) का प्रचलन हुआ। 3. . ईस्वी संवत् - वर्तमान में यह सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं प्रचलित है एवं सभी इससे परिचित हैं। ईसा मसीह के जन्म से यह संवत् प्रारंभ हुआ। अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ यह विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि कई इतिहासज्ञों का इस विषय में मतभेद है किंतु सामान्य मानव में यही प्रसिद्ध है। इस संवत् से पहले की घटनाओं को ईसा पूर्व/ईस्वी पूर्व/B.C. (Before Christ/Before Common Era) के नाम से संबोधित करते हैं। भगवान् महावीर का निर्वाण ईस्वी पूर्व 527 में हुआ यानि उनके निर्वाण के 527 वर्षों बाद यह सन् चालू हुआ। वर्तमान में जो 1 जनवरी से नया वर्ष मनाया जाता है, वह एक दृष्टि से अंग्रेजी नववर्ष ही होता है। भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर गणधर आचार्य श्री सुधर्म स्वामी जी ने वीर निर्वाण संवत् 1, विक्रम पूर्व 470, ईसा पूर्व 527 में पट्टधर पद का दायित्व ग्रहण किया। भगवान् महावीर के 77वें पट्टधर आचार्य श्री विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी ने वीर निर्वाण सवत् 2531, विक्रम संवत् 2061, ईस्वी सन् 2005 में पट्टधर पद के दायित्व का संवहन किया। इस सुदीर्घावधि की गौरवपूर्ण इतिहास में जिनशासन की धवल यश चन्द्रिका को देदीप्यमान करने वाली पाट परम्परा में अनेकों गुरुदेव हुए जिन्होंने अपने विविध योगबल से जिनधर्म की महती प्रभावना की है। - इतिहास के प्रमुख स्रोतः xvii Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ 'इतिहास' शब्द 'इति+ह+आस' से बना है, अर्थात् निश्चित रूप से ऐसा हुआ था। ग्रीस के लोग इतिहास के लिए हिस्ट्री शब्द का प्रयोग करते थे, जिसका शाब्दिक अर्थ है बुनना। ज्ञात घटनाओं को व्यवस्थित रूप से पिरोना एवं जैसा हुआ, वैसा चित्रण करना - इतिहास है। वर्तमान काल और भविष्यकाल के लिए भूतकाल एक आदर्श प्रेरणा भी बन सकता है और सीख भी। इतिहास, इसी कारण से पठनीय एवं ग्रहणीय विषय होता है। जिनशासन के दीर्घकालीन इतिहास में पाट परम्परा का विशेष महत्त्व है, अतः उसमें निष्पक्षता एवं तटस्थता के विषय में विश्वसनीयता रखना भी अति आवश्यक है। सुधर्म स्वामी जी से लेकर आज तक की पाट परम्परा किंचित् मात्र भी कल्पना. अथवा अनुमान पर आधारित नहीं है। इसमें किसी प्रकार का भी संदेह नहीं करना चाहिए। इसका वर्णन तथ्यपूर्ण इतिहास सामग्री के सत्य धरातल पर किया गया है। कई व्यक्ति यह प्रश्न करते हैं कि हमें कैसे पता चला कि कौन किसके गुरु थे, कौन किसके शिष्य थे, किसका कालधर्म कब हुआ, किसने प्रतिष्ठा कब कराई, इत्यादि नाना प्रकार की बातों का वर्णन किस आधार पर किया जाता है? इसे सरल रूप से समझना आवश्यक है। मानो आज कोई गुरुदेव हैं। उनकी आचार्य पदवी की पत्रिका छपी। वे कहीं पर अंजनश्लाका-प्रतिष्ठा कराते हैं तो उसकी भी पत्रिका छपती हैं। जो लाभ लेते हैं, वो भी इसका प्रचार करते हैं। वे गुरुदेव कोई पुस्तक लिखते हैं, तो उसमें भी उनका परिचय छपता है। उनके नाम से अनेकों लोग परिचित होते हैं। गुरुदेव के कालधर्म पश्चात् उनके शिष्य अपने शिष्यों को बताते हैं कि हमारे गुरुदेव कैसे थे? उन्होंने क्या-क्या कार्य किये थे। मानो उसके 50-100-200 वर्षों बाद कोई इतिहास लिखेगा तो पत्रिका, पुस्तकों, प्रतिमा-लेखों, अनुश्रुतियों के आधार से प्रामाणिक तथ्यों से परिपूर्ण सामग्री की रचना करेगा फिर भले ही वे पत्रिका या पुस्तकें कभी धूमिल भी हो जाएं लेकिन ग्रंथ, प्रतिमाएं आदि सदियों तक इतिहास की गवाही देंगी। स्थूल रूप से देखा जाए तो इतिहास इसी प्रकार लिखा गया है। उसमें कल्पनाओं का स्थान नहीं होता। हाँ, कई बार अतिशयोक्ति अलंकार अथवा बढ़ा चढ़ाकर लिखना या पक्षपातपूर्ण स्वदृष्टि से इतिहास लिखना घातक होता है। xviiil Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान में भगवान महावीर स्वामी जी की पाट परम्परा की इतिहास विषयक सामग्री के अनेक स्रोत हैं - पट्टावलियाँ - ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि से पट्टावलियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुरु पाट परम्परा विषयक अनेक प्राचीन ग्रंथ होते हैं। नंदीसूत्र आगम एवं श्री कल्पसूत्र में प्राप्त स्थविरावलियां काफी प्राचीन हैं। तत्पश्चात्, समय-समय पर अनेकों महर्षियों ने गुरुमाला, गुरुपट्टावली, पट्टावली सारोद्धार, सूरि परम्परा, युगप्रधान पट्टावली, तपागच्छ पट्टावली, खरतरगच्छ पट्टावली आदि अनेकों ग्रंथों की रचना कर हमें उपकृत किया है। - प्रशस्तियाँ - धातु अथवा पाषाण की प्रतिमाओं के पीछे अथवा आसनों पर अथवा भिन्न पट्ट स्वरूप प्रतिमालेख अथवा शिलालेखों पर निर्माण समय, प्रतिष्ठाचार्य, गुरु परम्परा, लाभार्थी श्रावक परिचय, गच्छ, शासक आदि का विवरण मिलता है जो तात्कालिक जानकारियाँ प्रदान करता है। प्रतिमाजी के विभिन्न नगरों-मंदिरों में जाने पर भी उसका इतिहास सुरक्षित रहता है। - अन्य - साहित्य के विशाल क्षेत्र में जीवन चरित्र, ऐतिहासिक रास, प्रबन्ध रचना, राजकीय फरमान आदि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। किंवदंतियाँ या अनुश्रुतियाँ जो श्रुत परम्परा के आधार से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं, वे लिखित अथवा मौखिक रूप से भी हो सकता है। उसमें सत्य तथ्य की पुष्टि अनुसंधान का विषय हो सकती है किंतु 'पुरुष विश्वासे, वचन विश्वासे' के आधार पर कई बातों की स्वीकृति की जाती है। - प्रस्तुत पुस्तक के विषय में : प्रस्तुत पुस्तक में शासनपति भगवान् महावीर स्वामी जी के प्रथम पट्टधर गणधर सुधर्म स्वामी जी से 77वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी तक का संक्षिप्त जीवन लिपिबद्ध है। समय-समय पर विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं का उद्भव हुआ जिसके फलस्वरूप अनेक गच्छ, समुदाय, पट्टधर आदि हुए। हमारा किसी से भी कोई द्वेष नहीं है। हमारा उद्देश्य केवल अपनी गुरु पाट परम्परा का वर्णन करना है। गुजराती भाषा में अनेक पट्टावली ग्रंथ प्रकाशित हैं, जिससे हिन्दी भाषी लोगों में हिन्दी भाषा में इस प्रकार की पुस्तक की उत्कंठा थी। ___ अनेक लोग भगवान् महावीर की पाट परम्परा से अनभिज्ञ हैं। जैन धर्म के ऐसे महिमावंत इतिहास से परिचित होना आवश्यक है। जैनत्व जागरण के शंखनाद हेतु आदर्श इतिहास से Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरणा लेना जरूरी है। गच्छवाद की आलोचना, समुदायममत्व के कारण अन्यों की समीक्षा आदि इस पुस्तक का अंश नहीं है। जैन समाज की भावी पीढ़ी में संस्कार सिंचन की शुभ भावना के उद्देश्य से इस कृति का सर्जन किया गया है। स्वाध्याय हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति और स्थिरता में स्वाध्याय की अहम भूमिका होती है। इस पुस्तक के स्वाध्याय से ये तीनों रत्न हमारी आत्मा में परिलक्षित हों, ऐसा हमारा प्रयास रहे। सद्गुरुदेवों की सच्चरित्र जीवन झांकी से हमारे हृदय में सुदेव-सुगुरु-सुधर्म के प्रति असीम श्रद्धागुण स्वरूप सम्यग्दर्शन विकसित हो, सद्गुरुदेवों के जीवन संबंधित जानकारी से ज्ञान स्वरूप सम्यग्ज्ञान विकसित हो, सद्गुरुदेवों के चारित्र अनुमोदन से चारित्र मोहनीय कर्म क्षय हो तथा आचरण में सम्यग्चारित्र विकसित हो, इसी शुभ भावना से लेखन किया गया है एवं अध्ययन भी इसी रूप में किया जाए, तो ही हमारी आत्मा का कल्याण होगा। ___ इस पुस्तक के संपादन में हिमांशु जैन 'लिगा', प्रूफ रीडिंग में श्रीमती अनिता वीरेन्द्र जैन एवं प्रकाशन में श्री प्रतीक जी मरडिया का अनुमोदनीय योगदान रहा। इस पुस्तक में कुछ भी जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा गया हो अथवा अशुद्ध/अपूर्ण लिख दिया गया हो, उसके लिए सभी से 'मिच्छामि दुक्कड़। यह कृति जनोपयोगी बने, जनग्राह्य बने, यही भावना........ पंन्यास चिदानंद विजय Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका .......................... IV 2. 3.. 4 . 5. 6. • NO o --- ..... --- मंगल आशीर्वचन. आमुख .................................... .........V भूमिका .................... ............................ तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी जी. पंचम गणधर श्री सुधर्म स्वामी जी ............... अन्तिम मोक्षगामी श्री जम्बू स्वामी जी.. श्रुतकेवली आचार्य श्री प्रभव स्वामी जी... आचार्य श्रीमद् शय्यंभव सूरीश्वर जी....... आचार्य श्रीमद् यशोभद्र सूरीश्वर जी .................. आचार्य श्रीमद् संभूत विजय जी आचार्य श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी जी .. आचार्य श्रीमद् स्थूलिभद्र स्वामी जी. आचार्य श्रीमद् महागिरि सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् सुहस्ती सूरीश्वर जी. आचार्य श्रीमद् सुस्थित सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् सुप्रतिबुद्ध सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी..... आचार्य श्रीमद् दिन्न सूरीश्वर जी........... आचार्य श्रीमद् सिंहगिरि सूरीश्वर जी. अंतिम 10 पूर्वधर आचार्य श्री वज्र स्वामी जी.............. आचार्य श्रीमद् वज्रसेन सूरीश्वर जी ... ............. आचार्य श्रीमद् चन्द्र सूरीश्वर जी ........................... आचार्य श्रीमद् समन्तभद्र सूरीश्वर जी ................. 10. 11. 12. 13. 14. 15. ..................... 16. ...................... Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............ 17. 18. 19. 20. जी........ 28. 30. आचार्य श्रीमद् वृद्धदेव सूरीश्वर जी .. आचार्य श्रीमद् प्रद्योतन सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् मानदेव सूरीश्वर जी. आचार्य श्रीमद् मानतुंग सूरीश्वर जी .. आचार्य श्रीमद् वीर सूरीश्वर जी...... आचार्य श्रीमद् जयदेव सूरीश्वर जी.. ................... आचार्य श्रीमद् देवानन्द सूरीश्वर जी.. आचार्य श्रीमद् विक्रम सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् नरसिंह सूरीश्वर जी. आचार्य श्रीमद् समुद्र सूरीश्वर जी.... ............... आचार्य श्रीमद् मानदेव सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् विबुधप्रभ सूरीश्वर जी. आचार्य श्रीमद् जयानन्द सूरीश्वर जी........... आचार्य श्रीमद् रविप्रभ सूरीश्वर जी ... आचार्य श्रीमद् यशोदेव सूरीश्वर जी... आचार्य श्रीमद् प्रद्युम्न सूरीश्वर जी... आचार्य श्रीमद् मानदेव सूरीश्वर जी .. आचार्य श्रीमद् विमलचन्द्र सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् उद्योतन सूरीश्वर जी. आचार्य श्रीमद् सर्वदेव सूरीश्वर जी.... आचार्य श्रीमद् देव सूरीश्वर जी......... आचार्य श्रीमद् सर्वदेव सूरीश्वर जी... आचार्य श्रीमद् यशोभद्र सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् नेमिचन्द्र सूरीश्वर जी....... आचार्य श्रीमद् मुनिचन्द्र सूरीश्वर जी.. आचार्य श्रीमद् अजितदेव सूरीश्वर जी........ आचार्य श्रीमद् सिंह सूरीश्वर जी......... आ ............ ....101 ...... 104 ........... 106 107 109 ....... 114 ...... 117 121 ........... 129 42. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... 135 ....... 140 143 .....148 ...153 162 166 ..... 174 ..... 179 184 189 43. आचार्य श्रीमद् सोमप्रभ सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् मणिरत्न सूरीश्वर जी. आचार्य श्रीमद् जगच्चन्द्र सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् देवेन्द्र सूरीश्वर जी... 46. आचार्य श्रीमद् धर्मघोष सूरीश्वर जी........... आचार्य श्रीमद् सोमप्रभ सूरीश्वर जी ............... आचार्य श्रीमद् सोमतिलक सूरीश्वर जी. आचार्य श्रीमद् देवसुन्दर सूरीश्वर जी. आचार्य श्रीमद् सोमसुन्दर सूरीश्वर जी.. 51. आचार्य श्रीमद् मुनिसुन्दर सूरीश्वर जी ........ आचार्य श्रीमद् रत्नशेखर सूरीश्वर जी.......... 53. आचार्य श्रीमद् लक्ष्मीसागर सूरीश्वर जी... आचार्य श्रीमद् सुमतिसाधु सूरीश्वर जी...... 55. आचार्य श्रीमद् हेमविमल सूरीश्वर जी... आचार्य श्रीमद् आनन्दविमल सूरीश्वर जी. ................... आचार्य श्रीमद् विजय दान सूरीश्वर जी ... 58. आचार्य श्रीमद् विजय हीर सूरीश्वर जी ... आचार्य श्रीमद् विजय सेन सूरीश्वर जी . ___ आचार्य श्रीमद् विजय देव सूरीश्वर जी. • आचार्य श्रीमद् विजय सिंह सूरीश्वर जी .. पंन्यास श्रीमद् सत्य विजय जी गणि ........ पंन्यास श्रीमद् कर्पूर विजय जी गणि. पंन्यास श्रीमद् क्षमा विजय जी गणि.. पंन्यास श्रीमद् जिन विजय जी गणि. 66. पंन्यास श्रीमद् उत्तम विजय जी गणि......... 67. पंन्यास श्रीमद् पद्म विजय जी गणि..... ___पंन्यास श्रीमद् रूप विजय जी गणि.......... .....194 ........................ . 199 207 212 219 224 .....235 240 .......242 245 .. 248 xxiii Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 69. पंन्यास श्रीमद् कीर्ति विजय जी गणि..... 256 70. पंन्यास श्रीमद् कस्तूर विजय जी गणि ................. ................. 258 71. पंन्यास श्रीमद् मणि विजय जी गणि.. पंन्यास श्रीमद् बुद्धि विजय जी गणि (बूटेराय जी) ........ ..... 263 73. आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वर जी. 267 74. आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी ............. 75. आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी ............... 76. आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी ..... 284 77. आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी ....... ..........289 सहायक ग्रंथ सूची.. 294 .... 273 279 xxiv Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवें तीर्थंकर शासनपति भगवान श्री महावीर स्वामी जी । reve S Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARVINDER SINGH भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर पंचम गणधर श्री सुधर्म स्वामी जी Page #30 --------------------------------------------------------------------------  Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की अखण्ड परमोज्ज्वल पाट परंपरा 13वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वर जी 75वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी 74वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी 76वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय इंद्रदिन्न सूरीश्वर जी 77वें पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तक के लेवक : सप्रवर श्री चिदानंद विजय पंन्यासप्रवर श्री Page #34 --------------------------------------------------------------------------  Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर भगवान् श्री महावीर स्वामी जी वर्तमान अवसर्पिणी काल में स्व- पर कल्याण में अनुरक्त, धर्मधुरासंवाहक, अतिशयवंत पुण्यविभूतियों की श्रृंखला में श्री ऋषभदेव जी, अजितनाथ जी आदि 24 तीर्थंकरों ने धर्मतीर्थ की स्थापना कर मानव जाति पर अनन्य उपकार किया है। चौबीसवें तीर्थंकर शासननायक भगवान् श्री महावीर स्वामी जी का जीवन शून्य से पूर्णता की ओर महाप्रयाण का अविरल उदाहरण है। ■ च्यवन : नयसार के भव से सम्यक्त्व प्राप्त कर एवं नन्दन मुनि के भव में तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित कर भवयात्रा की पूर्णाहुति करते हुए आषाढ़ शुक्ला 6 के दिन प्राणत देवलोक से च्यवित होकर एक दिव्यात्मा का ब्राह्मणकुंड नगर निवासी ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरण हुआ । गर्भाधान के समय देवानन्दा ने 14 महास्वप्न देखे । दम्पती को एक विशिष्ट विलक्षण पुत्र की संभावना प्रबल हुई। तीर्थंकर का जन्म कभी विप्र ( ब्राह्मण) कुल में नहीं होता । देवलोक के शक्रेन्द्र की आज्ञा से हरिणैगमैषी देव ने देवानंदा के कुक्षिधारण की 83वीं रात्रि को देवानंदा का गर्भ अतिकुशलतापूर्वक तरीके से क्षत्रियकुंड नगर के राजा सिद्धार्थ की पत्नी रानी त्रिशला के गर्भ में प्रस्थापित किया। उस रात देवानंदा ब्राह्मणी ने 14 शुभ स्वप्नों को मुँह से बाहर जाते देखा और त्रिशला देवी ने अर्धनिद्रित अवस्था में हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चंद्र, सूर्य, ध्वजा, कुंभ, पद्मसरोवर, समुद्र, देवविमान, रत्नराशि एवं निर्धूम अग्नि इन 14 स्वप्नों को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा। स्वप्न पाठकों ने इन उत्तमोत्तम स्वप्नों का सुफल बताते हुए कहा कि महारानी के गर्भ से लक्षण व्यंजन युक्त युगप्रवर्तक धर्मचक्रवर्ती पुत्र का जन्म होगा। राजा सिद्धार्थ-रानी त्रिशला अत्यंत हर्षित हुए । जन्म : नौ मास साढ़े सात दिन की गर्भावस्था पूर्ण कर त्रिशला क्षत्रियाणी ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी देवियों ने सूतिका कर्म करके जन्मोत्सव मनाया। देवलोक के अनेकानेक देवी देवता भी उस बालक का जन्मोत्सव मनाने मध्यलोक आए। शक्रेन्द्र ने भगवान् महावीर पाट परम्परा 1 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को और माता त्रिशला को 3 बार प्रदक्षिणा कर नमस्कार किया। शिशु का एक प्रतिबिंब बनाकर माता के पास रखा एवं अवस्वापिनी निद्रा में माता को सुलाकर बालक को मेरु पर्वत पर ले गए जहाँ शुद्ध जल से प्रभु का अभिषेक किया। ___ 'अनेकों इन्द्रों द्वारा एक साथ में की जाती हुई अभिषेक धाराओं को यह नन्हा सा बालक किस प्रकार सहन करेगा' - इसकी आशंका इन्द्र के अंतर्मानस में जगी। बालक अवधिज्ञान का धनी था। अवधिज्ञान से जब शिशु ने इन्द्र की ऐसी शंका को जाना, तब शिशु ने पैर के एक अंगूठे से मेरु पर्वत को प्रकम्पित कर दिया। शिशु का दिव्य शारीरिक बल एवं दृढ़ आत्मबल जानकर इन्द्र ने शंका के लिए प्रभु से क्षमा माँगी। जन्माभिषेक का महोत्सव सम्पन्न कर इन्द्र ने बालक को पुनः माता के पास लाकर सुला दिया। राजा सिद्धार्थ ने राज्यस्तर पर बालक का जन्म महोत्सव मनाया। बारहवें दिन नाम संस्कार किया गया। माता-पिता ने फरमाया कि जब से यह बालक गर्भ में आया, तभी से धनधान्य-हिरण्य-सुवर्ण-यश-कीर्ति आदि वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं अतः इस बालक का नाम 'वर्द्धमान' रखा जाता है। बाल्यकाल से ही बालक वर्द्धमान साहसी, पराक्रमी एवं वीर थे। सभी मानव एवं देवतागण उसे 'महावीर' बुलाने लगे। - दीक्षा : ____ युवावस्था से ही महावीर का हृदय संयम पथ पर अग्रसर होने का था किंतु माता-पिता के अति-आग्रह के कारण वसंतपुर के महासामंत समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ पाणिग्रहण करना हुआ। उनकी पुत्री का नाम प्रियदर्शना पड़ा। जब महावीर 28 वर्ष के थे, तब उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। वे दीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होना चाहते थे लेकिन अग्रज नंदीवर्धन ने कहा कि अभी हम माता-पिता के देहावसान के दुख को विस्मृत नहीं कर सके और ऐसे समय में तुम्हारी प्रव्रज्या बहुत दुखदायी होगी। अतः दो वर्ष बाद दीक्षा लेना। भगवान् महावीर ने भाई की बात स्वीकार की किंतु विरक्त भाव से ही रहे। रात्रि भोजन त्याग, पूर्ण ब्रह्मचर्य, प्रासुक आहार, भूमि शयन आदि करते थे। ___ जब वे 30 वर्ष के हुए तब लोकान्तिक देवों ने आकर प्रभु महावीर को धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने की विनती की। प्रभु वीर ने सतत् 1 वर्ष तक दान दिया एवं मार्गशीर्ष वदी 10 को पंचमुष्टि महावीर पाट परम्परा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशलोच कर, वस्त्राभूषण परित्याग कर एवं “करेमि सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जाव वोसिरामि" का उच्चारण कर विश्व के सभी जीवों को अभयदान देते हुए दीक्षा अंगीकार की। गर्भ से ही प्रभु मति-श्रुत-अवधि ये 3 ज्ञान के धारक थे। दीक्षा लेते ही उन्हें चौथा मन पर्यव ज्ञान प्रकट हुआ। इन्द्र ने उन्हें देवदूष्य वस्त्र प्रदान किया जो जीताचार समझकर महावीर प्रभु ने धारण किया। दीक्षा पश्चात् प्रथम चातुर्मास में महावीर ने 5 प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की - अप्रीतिकारक स्थान में नहीं रहूंगा, सदा ध्यानस्थ रहूंगा, मौन रखूगा, हाथ में भोजन करूँगा, गृहस्थों का विनय नहीं करूँगा। उनके दीक्षा जीवन में शूलपाणि यक्ष, संगम देव, कटपूतना देवी, ग्वाले, गोशालक, पशु-पक्षी आदि ने उपसर्ग पर उपसर्ग दिए किंतु महावीर प्रभु ने समभावपूर्वक सहन किए एवं प्राणिमात्र के प्रति केवल और केवल करुणा का सिंचन किया। - केवलज्ञान : . आर्य-अनार्य क्षेत्रों में विचरण करते हुए, आत्मा पर लगे कर्मों के आवरण को दूर करते हुए एवं आत्मा से परमात्म पद की कंटकाकीर्ण यात्रा करते हुए दीक्षा के पश्चात् 12 वर्षों तक घोर लंबी साधना के बाद उन्हें परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। कुल 12 वर्ष के साधक जीवन में उन्होंने केवल 349 दिन आहार ग्रहण किया एवं 4166 दिन निर्जल तपस्या की। वैशाख शुक्ला 10 के दिवस के अंतिम प्रहर में गोदुहिकासन में जंभियग्राम के निकट ऋजुबालुका नदी के किनारे खेत में मोहनीय-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-अन्तराय इन चार घाति कर्मों के क्षय से अनंत केवलज्ञान - केवल दर्शन प्रकट हुआ। भगवान महावीर स्वामी जी को केवलज्ञान प्रकट होने पर देवतागण आए एवं प्रभु के धर्मोपदेश देने हेतु भव्य समवसरण की रचना की। किंतु उस प्रथम देशना में केवल देवी-देवता एवं पशु-पक्षी ही थे। सर्वविरति योग्य न होने से प्रभु ने 1 मुहूर्त बाद वहां से विहार किया और पावापुरी पधारे। मध्यम पावा में यज्ञ करने हेतु इन्द्रभूति गौतम, वायुभूति, अग्निभूति, व्यक्त, सुधर्म, मंडित, मौर्यपुत्र, अंकपित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास - ये 11 ब्राह्मण अपने सुविशाल छात्रसंघ के साथ पधारे थे। वाद-विवाद में भगवान् महावीर को परास्त करने गए ये विद्वान प्रभु से प्रतिबोधित होकर उनके शिष्य बन गए थे। ___अतः वैशाख शुक्ला 11 के दिन प्रभु महावीर ने तीर्थ की स्थापना की। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका यह चतुर्विध संघ रूपी तीर्थ को प्रभु ने सर्वविरति धर्म एवं देशविरति धर्म का सद्बोध दिया। गौतम स्वामी, सुधर्म स्वामी जैसे साधु, चंदनबाला - मृगावती जैसी साध्वियाँ, आनंद-कामदेव-शंख जैसे महावीर पाट परम्परा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक, सुलसा-रेवती-जयंती जैसी श्राविकाएँ भगवान् महावीर के तीर्थ के अंग थे। गणधर भगवंतों भगवान् महावीर के अनंत ज्ञान को ग्रहण कर आगम की रचना की। O निर्वाण : तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी जी ने 30 वर्षों तक केवली पर्याय में विचरण कर स्थान-स्थान पर धर्मोपदेश दिया एवं अनेकों भव्य आत्माओं को मोक्ष मार्ग का पथिक बनाया। भगवान् के 9 गणधर उनके जीवन काल में ही मोक्षगामी हो गए। उनके शिष्य सुधर्म स्वामी जी के गण में सम्मिलित होते गए । जब महावीर स्वामी जी के परिनिर्वाण का अंतिम समय निकट आया तो शक्रेन्द्र ने प्रभु वीर को नम्र निवेदन करते हुए कहा " भगवन्! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान में हस्तोत्तरा नक्षत्र था। इस समय उसमें भस्मग्रह संक्रान्त होने वाला है। वह ग्रह आपके जन्म नक्षत्र में आकर 2,000 वर्षों तक आपके जिनशासन के प्रभाव के उत्तरोत्तर विकास में अत्यधिक बाधक हो सकता है। इसीलिए, जब तक वह आपके जन्म नक्षत्र में संक्रमण कर रहा है, तब तक आप अपना आयुष्य बल स्थित रखें। " तब भगवान् महावीर ने कहा 'शक्र ! आयुष्य कभी बढ़ाया नहीं जा सकता। ऐसा न कभी हुआ है, न कभी होगा । दूषम काल के प्रभाव से जिंनशासन में अगर बाधा होती है, वह तो होगी ही । " प्रभु के वचन सुन शक्रेन्द्र शांत रहा । - तीर्थंकर महावीर ने पावापुरी के राजा हस्तिपाल की रज्जुकसभा में अंतिम चातुर्मास किया। उनकी अंतिम देशना 16 प्रहर (48 घंटे) की थी। छठ की तपस्या करते-करते, प्रधान नामक अध्ययन कहते कहते, कार्तिक मास की अमावस्या के दिन शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर शेष अघाती कर्मों का क्षय कर महावीर स्वामी जी मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए अर्थात् निर्वाण (मोक्षगमन) हुआ। कुल 72 वर्ष की आयु भोगकर ईसापूर्व 527 में उनका निर्वाण हुआ। उसी रात्रि भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम स्वामी जी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। अमावस्या की उस रात्रि देवों के आगमन से भूमंडल आलोकित हुआ एवं भाव उद्योत के विरह से मानवों ने द्रव्य उद्योत स्वरूप दीप संजोये । उस दिन से दीपमालोत्सव (दीपावली) का पर्व प्रारंभ हुआ। कार्तिक शुक्ल एकम से पंचम दीर्घजीवी गणधर श्री सुधर्म स्वामी जी का पट्टालंकरण हुआ एवं उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर की परम्परा का संवहन किया। महावीर पाट परम्परा 4 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. पंचम गणधर श्री सुधर्म स्वामी जी “संयम सूर्य श्री सुधर्म स्वामी, ज्ञानरश्मि दातार। स्थापनाचार्ये नित्य वंदिए, नित् वंदन बारम्बार॥" मुनियों के समूह को गण कहते हैं। तीर्थंकर के प्रधान शिष्य जो साधुओं के समूह (गण) का नेतृत्त्व करते हैं, उन्हें गणधर कहते हैं। प्रभु महावीर के 11 गणधर थे। उनमें पाँचवे गणधर आचार्य सुधर्म स्वामी जी उनके प्रथम पाट पर स्थापित हुए। वर्तमान में प्राप्त संपूर्ण श्रुत साहित्य-आगम-ग्रंथ शास्त्रों के बीजरूप 11 अंग की संपदा उन्हीं की देन है। जन्म एवं दीक्षा : विदेह प्रदेश के अंतर्गत कोल्लाग सन्निवेश में धम्मिल नामक ब्राह्मण एवं भद्दिला ब्राह्मणी रहते थे। विक्रम पूर्व 550 (ईस्वी पूर्व 607) में उनके घर पुत्ररत्न का जन्म हुआ जिसका नाम 'सुधर्म' रखा गया। भगवान् महावीर की तरह ही आर्य सुधर्म का जन्म नक्षत्र भी उत्तराफाल्गुनी और जन्म राशि कन्या थी, जो संभवतः उनकी दीर्घकालीन शिष्य व श्रुत परम्परा का द्योतक है। उनका पारिवारिक गौत्र अग्नि वैश्यायन था। ___ सुधर्म वैदिक साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान बने। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र और पुराण, इन 14 विद्याओं में वे पारंगत बन गए। उनके पास 500 शिष्य अध्ययन करते थे। उनकी विद्वत्ता सर्वविख्यात थी। मगध और विदेह देश के भू-भाग में उनकी प्रसिद्धि यशस्वी ब्राह्मणों में होती थी। उनके मुख पर ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज था। ज्ञान की भांति उनका रूप भी उन्हें सबसे भिन्न बनाता था। ___ एक बार सोमिल नामक ब्राह्मण ने मध्यम पावा नगर में महायज्ञ अनुष्ठान आयोजित किया और भिन्न-भिन्न स्थानों के 11 महापंडितों को आमंत्रित किया। इन्द्रभूति गौतम, वायुभूति गौतम, अग्निभूति गौतम, व्यक्त, सुधर्म, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकंपित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास जैसे वैदिक कर्मकाण्डों के महाप्रभावक 11 विद्वान उस यज्ञ में सम्मिलित होने पधारे। यूँ तो सुधर्म ब्राह्मण अत्यंत विद्वान थे, लेकिन फिर भी उनके मन में एक जिज्ञासा थी कि इस भव महावीर पाट परम्परा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जो जैसा होता है, वह परभव में भी क्या वैसा ही होता है? लेकिन अपने अहं के कारण उन्होंने कभी यह किसी से नहीं पूछा। मध्यम पावा में एक ओर महायज्ञ का आयोजन हो रहा था, दूसरी ओर राग-द्वेष से सर्वथा मुक्त, अनन्त केवलज्ञान के धारक, 34 अतिशयों से युक्त श्री महावीर स्वामी जी देवताकृत समवसरण में अविरल मधुर धारा में उपदेश गंगा प्रवाहित कर रहे थे। उसे सुनने के लिए वैमानिक देवता आकाश में देव दुंदुभि बजाते हुए आ रहे थे। उस दुंदुभि का नाद सुनकर यज्ञ कर रहे ब्राह्मण अत्यंत हर्षित होकर सोचने लगे कि हमारे यज्ञमंत्र से प्रभावित होकर देवता भी आ रहे हैं, लेकिन देवता यज्ञमंडप छोड़कर श्री महावीर के समवसरण की ओर चले गए। यह देखकर सभी अपमानित महसूस करने लगे। वे विचार-मंत्रणा करने लगे कि इस मध्यम पावा नगरी में ऐसा कौन-सा व्यक्ति है, जिसका प्रभाव हमारे पवित्र मन्त्रोच्चारण से भी अधिक है। और जिसको वंदन करने अनेकानेक देवी-देवता देवलोक से इस पृथ्वी पर आए हैं। __ यह देख इन्द्रभूति गौतम आदि ब्राह्मण अभिमान सहित क्रोधित हो गए। 'मेरे अलावा सर्वज्ञ कौन हो सकता है, अभी उसे शास्त्रार्थ में पराजित करके आता हूँ' इस भाव के साथ इन्द्रभूति गौतम प्रभु वीर को परास्त करने गए, किन्तु करुणानिधान तीर्थंकर महावीर के ज्ञान के तेज से इन्द्रभूति गौतम उनके चरणों में नतमस्तक हो गए। अपने 500 मेधावी शिष्यों के साथ उनसे प्रतिबोधित होकर वहीं दीक्षित हो गए। जब इन्द्रभूति की दीक्षा की बात अन्यों ने सुनी, तो अग्निभूति समवसरण में गया। वह भी प्रभु से प्रतिबोधित होकर दीक्षित हो गया। इसी प्रकार वायुभूति और अव्यक्त भी दीक्षित हो गए। जब चार-चार तेजस्वी ब्राह्मण अपनी शिष्य संपदा सहित 'महावीर' के चरणों में दीक्षित होने के लिए दृढ़संकल्पी हो गए, यह समाचार सुनकर सुधर्म ब्राह्मण भी क्रोधित हो गए। उन्हें लगा कि यह महावीर कोई इन्द्रजालिया है, कोई पाखंडी है, जिसने इंद्रभूति आदि को फंसा लिया है। अतः उसे परास्त करने के लिए मुझे जाना ही चाहिए। सुधर्म स्वामी अपने 500 शिष्यों के साथ महावीर स्वामी जी के समवसरण में गए। प्रभु महावीर की अत्यंत सौम्य मुखाकृति को देखकर ही सुधर्म भाव विह्वल हो गए। समवसरण में अतिशयों से विभूषित भगवान् महावीर को देखकर वे स्तब्ध रह गए। उन्होंने मन में सोचा कि मैंने वादी तो कई देखे लेकिन ऐसा तेजस्वी वादी कहीं नहीं देखा। वे विचारने लगे - "क्या ये ब्रह्मा है? नहीं! वे हंसवाहन हैं। क्या ये विष्णु हैं? नही! वे चक्रधारी हैं। क्या ये इन्द्र हैं? नहीं! क्या ये कामदेव हैं? नहीं!" वे इस प्रकार का चिंतन कर रही रहे थे महावीर पाट परम्परा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि तभी अपनी शीतल वाणी में प्रभु ने कहा हे सुधर्म ! तुम्हारे मन में यह शंका है कि प्रत्येक जीव जैसा इस भव में है, क्या मरने के बाद भी वैसा ही होगा? अपनी इस शंका को तुम कुतर्कों से शान्त करने में असफल रहते हो। लेकिन यह सत्य नहीं! प्रत्येक जीव मनयोग-वचनयोग-काययोग से जैसा कर्म करता है, वैसे ही अच्छी-बुरी गति, रूप, ऐश्वर्य, आयु आदि को प्राप्त होता है । वेद में भी लिखा है - ' शृगालो वै जायते यः स पुरुषो दह्यते' यानि जो पुरुष जलता है, वह पुरुष मरकर सियार बनता है । अतः तुम अपनी इस शंका का त्याग करो। " - . भगवान् महावीर की अमोघ वाणी को सुनकर आर्य सुधर्म के मन प्रभु के प्रति प्रगाढ़ 1 श्रद्धा उत्पन्न हुई। वैशाख शुक्ला 11, वि. पू. 500 के दिन 50 वर्ष की आयु में सुधर्म ने प्रभु वीर के पास दीक्षा ग्रहण की। उनके साथ उनके 500 शिष्यों ने भी दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार 11. ब्राह्मणों ने 4400 शिष्यों के साथ सर्वविरति श्रमण व्रत स्वीकार किया एवं प्रभु वीर ने जिनशासन की स्थापना इस दिन की । मध्यम पावा (पावापुरी) के महासेन उद्यान में 24वें तीर्थंकर भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूपी तीर्थ (चतुर्विध संघ) की स्थापना की। इस अवसर पर इन्द्र महाराज रत्नथाल में वासक्षेप लेकर हाज़िर हुए। भगवान् ने मुट्ठी भर कर 11 गणधरों को गण की अनुज्ञा प्रदान करके वासक्षेप डाला तथा तीर्थ स्थापना की। अनुश्रुति है कि सबको एक बार किंतु सुधर्म स्वामी को दो बार वासक्षेप प्रदान किया एक दीक्षा का और एक प्रथम पट्टधर होने का । — शासन प्रभावना : तपाए हुए सोने के समान तेजोमयी लालिमा से युक्त देह कान्ति के धनी सुधर्म स्वामी जी अतुल बल, अदम्य विनय, अथाह गांभीर्य और शान्ति क्षमा के दूत थे। दीक्षोपरान्त गणधर तीर्थंकर प्रभु से प्रश्न करते हैं- भंते! किम् तत्तं ? " यानि प्रभु तत्त्व क्या है? तब प्रभु के मुखारविंद से निकले - उपन्नेइ वा ( उत्पाद), विगमेइ वा (व्यय), धुवेइ वा (ध्रौव्य) 'उपन्नेइ वा' यानि सब उत्पन्न होता है। 'विगमेइ वा' यानि सब नष्ट होता है। 'धुवेइ वा' यानि सब स्थिर (निश्चल) रहता है। संसार में द्रव्यों के अनेक धर्मों की ऐसी अनेकांतमयी व्याख्या सुनकर गणधर भगवंतों की बीजबुद्धि लब्धि ( अर्थात् एक पद से सभी पदों का ज्ञान होना) के आधार पर दो घड़ी (48 मिनट) में श्रुत साहित्य का आधार - द्वादशांगी व पूर्वो की सूत्र रूप में रचना करते हैं। महावीर पाट परम्परा 7 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही उनके 9 गणधर मोक्ष पद को प्राप्त चुके थे। जिस-जिस का निर्वाण होता गया, उनकी शिष्य संपदा ( गण ) सुधर्म स्वामी जी के गण में सम्मिलित होती गयी। करीब 30 वर्ष तक सुधर्म स्वामी जी को भगवान् महावीर की छत्रछाया प्राप्त हुई। दीपावली की जिस रात्रि को भगवान महावीर मोक्ष पद को प्राप्त हुए, उसी समय गणधर गौतम भी केवल ज्ञान को प्राप्त हुए। यानि प्रभु वीर के निर्वाण पश्चात् सिर्फ गौतम स्वामी जी और सुधर्म स्वामी जी ही जीवित रहे किंतु यह शाश्वत नियम है कि शासन का संवहन छद्मस्थ ही करते हैं। अतः कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि. पू. 470 ( ईस्वी पूर्व 527) के दिन सुधर्म स्वामी जी भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर बने। इस समय उनकी आयु 80 वर्ष की थी। आचार्य सुधर्म का तत्कालीन राजवंशों को जिन धर्म के अनुयायी बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान था। सम्राट श्रेणिक का पुत्र मगध नरेश कोणिक उनका परम भक्त था। जिस दिन सुधर्म स्वामी ने वीर शासन का दायित्व संभाला, उसी दिन अवन्ति का शासन चंडप्रद्योत के पुत्र पालक ने संभाला। वह भी सुधर्म स्वामी जी से अत्यंत प्रभावित था । पालक के छोटे भाई गोपालक ने सुधर्म स्वामी जी के पास मुनि दीक्षा ग्रहण कर आत्मसाम्राज्य प्राप्त किया। अनुश्रुति अनुसार उन्होंने अनेक प्रतिमाओं की अंजनश्लाका प्रतिष्ठा की थी, जो भद्रेश्वर, जीरावला, कुमारगिरि पर्वत आदि तीर्थों में विराजमान हुई । साहित्य रचना : संपूर्ण जैन शासन आचार्य सुधर्म स्वामी जी का अनंत आभारी है। तीर्थंकर महावीर ने अपने ज्ञान गंगा के प्रवाह में जो उपदेशित किया, वह सभी गणधरों ने शब्दों - सूत्रों के रूप में रचा । शब्दों की अपेक्षा से भिन्न हो जाने पर भी सबका भाव समान होता है। दीर्घजीवी गणधर धर्म प्रभु वीर के प्रथम पट्टधर बने । अतः उनके द्वारा प्रदत्त वाचना ही आज चलकर हमारे पास आई है। उनके द्वारा सूत्रबद्ध 12 'अंग' और 14 'पूर्व' रचनाओं में से केवल 11 अंग ही आज हमारे पास उपलब्ध हैं। उनका परिचय इस प्रकार है 1) आचारांग सूत्र - इसमें श्रमण निर्ग्रन्थ ( साधु-साध्वी जी ) के आचरण विषयक, विनय, स्वाध्याय, प्रतिलेखना, गोचरी, वस्त्र, तपस्या, पात्र आदि विषयों का सूक्ष्म प्रतिपादन किया हुआ है। महावीर पाट परम्परा 8 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2) सूत्रकृतांग सूत्र - इसमें लोक, अलोक, जीव, अजीव, स्वसमय, परसमय आदि का निर्देशन एवं क्रियावादी, अक्रियावादी आदि 363 पाखंड मतों पर चिन्तन किया है। स्थानांग सूत्र - इसमें 1 से लेकर 10 तक के भेदों वाली ज्ञानवर्धक वस्तुओं / स्थानों पर विशद वर्णन है। प्रथम प्रकरण में 1-1, दूसरे में 2-2 इत्यादि अनुक्रम से हैं। समवायांग सूत्र - इसमें भी स्थानांग की भाँति 1 से 100 तथा उत्तरोत्तर क्रम के संग्रह कोश रूप भी विविध ज्ञानवर्धक वस्तुओं का समावतार है। 5) व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) - प्रश्नोत्तर शैली में निबद्ध इस आगम में प्रभु वीर द्वारा गौतमादि शिष्यों को प्रदान किए गए 36000 प्रश्नों के समाधान संकलित हैं। 6) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र- इसमें उदाहरण और उपदेश प्रधान धर्मकथाएं संग्रहित हैं। मेघकुमार, थावच्चापुत्र, धन्ना सार्थवाह, मल्लिनाथ जी आदि कथाएं व अनेक उपदेशात्मक अध्ययन इसमें हैं। 7) उपासकदशांग सूत्र - इसमें भगवान् महावीर के 12 व्रतधारी प्रमुख 10 उपासकों (श्रावकों) के साधनामयी जीवन का उल्लेख है एवं श्रावक की आचार संहिता का सुंदर प्रस्तुतीकरण किया गया है। 8) अन्तकृद्दशांग सूत्र - इसमें गजसुकुमाल मुनि, अर्जुनमाली, अतिमुक्तक मुनि, सुदर्शन अणगार आदि महापुरुषों का वर्णन है, जिन्होंने भौतिकता पर आध्यात्मिकता से विजय प्राप्त कर मोक्षपद को प्राप्त किया। 9) अनुत्तरौपपातिक-दशांग सूत्र - इस अंग में धन्ना अणगार आदि महापुरुषों का चरित्र है, जिन्होंने घोर तपश्चरण कर विशुद्ध संयम की साधना की तथा कर अनुत्तर विमान देवलोक में देव बने। 10) प्रश्न व्याकरण सूत्र - इसमें 108 प्रश्न, 108 अप्रश्न आदि तथा अनेकों मंत्र विद्याएं थीं, किन्तु आज कालप्रभाव से इस विषय के स्थान पर आश्रव और संवर का विशद विवेचन लिपिबद्ध है। 11) विपाक सूत्र - कर्म के फल को विपाक कहते हैं। इसमें मृगापुत्र आदि 10 दुःखविपाक और सुबाहु आदि 10 सुखविपाक की कथाएं हैं। कर्मसिद्धांत को यह ग्रंथ सुंदर रूप में पुष्ट करता है। महावीर पाट परम्परा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12) दृष्टिवाद - इसमें 5 विभाग थे - परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। पूर्वगत में सुविशाल 14 पूर्व समाहित थे, जो अनंत ज्ञान के स्रोत थे। किंतु धीरे-धीरे यह पूर्णरूप से विलुप्त हो गया। अतः आज उपलब्ध नहीं है। इसके आधार पर विविध अन्य आगम ग्रन्थ रचे गए। जो अंग आगम गणधर श्री सुधर्म स्वामी जी ने रचे थे एवं जो अंग आगम वर्तमान में प्राप्त होते हैं, उनमें अनेक अंतर हैं। पहले आगमों का लेखन नहीं होता था, सुयोग्य मुनियों की स्मरणशक्ति अच्छी होने से वे परंपरा से श्रुत रूप में प्राप्त होते थे। किंतु काल के प्रभाव से कई पाठ छोटे कर दिए गए, कई मंत्रों से भरे पाठों को भण्डारस्थ कर दिया गया, कई पाठ भुला दिए गए। इस कारण से अंग आगमों का स्वरूप प्रक्षिप्त हो गया। भगवान् महावीर की वाणी ही आगमों में लिपिबद्ध होती आई है। शत्रुजय माहात्म्य नामक ग्रंथ में कहा गया है कि भगवान् महावीर के मुख से शत्रुजय तीर्थ की महिमा सुनकर सुधर्म स्वामी जी ने दस हजार श्लोक प्रमाण शत्रुजय माहात्म्य की रचना की थी किंतु काल के दुष्प्रभाव से वह भी प्रक्षिप्त (छोटा) कर दिया गया। कालधर्म : ___ 12 वर्ष तक जिनशासन का सम्यक् संचालन करते हुए आचार्य सुधर्म स्वामी जी को 92 वर्ष की आयु में वी.नि.12 (वि.पू.458) में केवल ज्ञान - केवल दर्शन की आत्म संपदा को प्राप्त हुए। उसी क्षण जंबू स्वामी जी ने पाट परम्परा का वहन किया। 8 वर्षों तक सर्वज्ञ रूप में विचरण कर 100 वर्ष की आयु में वैभारगिरि पर्वत पर मासिक अनशन के साथ वी.नि. 20 में मोक्ष पद को प्राप्त हुए। गणधर सुधर्म स्वामी जी भगवान् महावीर स्वामी जी के प्रथम पट्टधर थे। उनके शरीर पर 5 शंख की आकृतियाँ (चिन्ह) थे। सद्गुरू की साक्षी में की गई क्रिया के भावों की शुद्धि भी अधिक होती है। अतः इस परंपरा से आज भी प्रत्येक साधु-साध्वी जी सुधर्म स्वामी जी के प्रतीक स्वरूप 5 शंख युक्त स्थापनाचार्य के आगे ही गुरुसाक्षी से हर क्रिया करते हैं। महावीर पाट परम्परा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. अन्तिम मोक्षगामी श्री जम्बू स्वामी जी योग-त्याग के अविरल साधक, युवा जम्बूकुमार। अन्तिम केवलज्ञानी गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ शासनपति तीर्थंकर महावीर स्वामी जी के द्वितीय पट्टालंकार आचार्य श्री जंबू स्वामी जी अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र से मोक्ष जाने वाली अंतिम भव्यात्मा थे। प्रत्येक मुमुक्षु के लिए प्रकाशस्तंभ की तरह पथ प्रदर्शक जम्बू स्वामी जी का जीवन आध्यात्मिक साधना की अमिट संकल्प शक्ति की लौ से प्रकाशित है। जन्म एवं दीक्षा : मगध की राजधानी-राजगृह में ऋषभदत्त श्रेष्ठी अपनी धर्मपत्नी धारिणी के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। लक्ष्मी की उन पर अपार कृपा थी। धारिणी भी विनय-विवेक आदि गुणों से युक्त सद्धर्मचारिणी श्राविका थी। सभी प्रकार के सुख होने पर भी संतान न होने से वह चिंतित रहती थी। - एक बार भगवान् महावीर का आगमन राजगृही के वैभारगिरि पर्वत पर हुआ। वे दोनों भी प्रभु की देशना सुनने हेतु गए। उपदेश श्रवण करते-करते धारिणी ने मन में ही प्रभु से पूछने का सोचा कि उसे पुत्र-प्राप्ति में हो रहे अन्तराय को दूर करने के लिए किस देव को अनुकूल करना चाहिए? संयोग से प्रभु ने अपनी देशना में नमस्कार मंत्र के पुण्य प्रताप से देवत्व को प्राप्त हुए जंबूद्वीप के अधिष्ठायक अनादृत देव का वृत्तांत सुनाया। धारिणी ने इसे ही अपना उत्तर समझते हुए जम्बूद्वीपाधिपति के नाम पर 108 आयम्बिल की तपस्या प्रारंभ की। सातवें दिन ही विद्युन्माली नामक देव का जीव ब्रह्मदेवलोक से च्यवित होकर ऋषभदत्त की पत्नी धारिणी की कुक्षि में अवतरित हुआ। मध्यरात्रि में अर्धनिद्रित अवस्था में धारिणी ने स्वप्न में जंबू वृक्ष देखा। वीर निर्वाण से 16 वर्ष पूर्व (विक्रम पूर्व 486) धारिणी की कुक्षि से पुत्ररत्न का जन्म हुआ और उसका नाम - जंबू कुमार रखा गया। बालक जंबू अत्यंत रूपसंपन्न, तेजस्वी, महावीर पाट परम्परा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-विवेकी था। उसके युवावस्था में प्रवेश करते ही माता-पिता ने अपने एकमात्र पुत्र का विवाह - समुद्रश्री, पद्मश्री, पद्मसेना, कनकसेना, नभसेना, कनकश्री, कनकवती, जयश्री - इन आठ कन्याओं के साथ करने का निश्चय किया। किंतु 16 वर्ष के जंबू कुमार का हृदय तो सुधर्म स्वामी जी से प्रभावित होकर वैराग्य रस से ओत-प्रोत हो रहा था। ___भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर आचार्य सुधर्म स्वामी जी की धर्मदेशना सुनकर जंबूकुमार के हृदय में वैराग्य के बीज सुदृढ़ हुए। उसने दीक्षा लेने की भावना अभिव्यक्त की किंतु गुरुदेव ने समझाया कि बिना माता-पिता की आज्ञा से दीक्षा संभव नहीं है। माता-पिता की आज्ञा लेने के लिए वह घर की ओर गया। जब जंबू कुमार घर की ओर जा रहा था, तब रास्ते में यंत्र से उठाया हुआ एक पत्थर जंबू के पास आकर गिरा। तब जंबू ने विचार किया कि यदि यह तोप का गोला मुझे अभी लग जाता, तो मेरी अव्रत अवस्था में ही मृत्यु हो जाती। अतः कम से कम अभी सुधर्मस्वामी जी के पास पुनः लौटकर श्रावक के सम्यक्त्व मूल 12 व्रत तो ले ही लेने चाहिए। अतः वह वहीं से वापिस सुधर्म स्वामी जी के पास गया एवं श्रावक के 12 व्रत लिए तथा चौथे व्रत में ऐसा त्याग किया कि माता-पिता के आग्रह से यदि विवाह भी करना पड़े, तो भी विषय भोग नहीं करूँगा। उसके बाद वह फिर से दीक्षा की आज्ञा लेने घर की ओर चल पड़ा। जंबू कुमार ने अपने माता-पिता से दीक्षा की आज्ञा माँगी। इकलौते पुत्र की ऐसी भावना सुन माता-पिता सन्न रह गए। माता-पिता ने उसे बहुत समझाया किंतु वे सफल न हुए। माता को लगा कि एक बार इसका विवाह हो जाएगा तो भोग सम्पन्न जीवन में व्यस्त होकर दीक्षा के विचारों का त्याग कर देगा। अंततः उन्होंने कह दिया कि हम तुम्हारी दीक्षा में बाधा नहीं बनना चाहते किंतु 8 कन्याओं के साथ तुम्हारा सम्बन्ध हो गया है। विवाह के लिए हम वचनबद्ध हैं। तुम हमारे आज्ञाकारी पुत्र हो। अतः अभी हमारी बात स्वीकार करो। ___न चाहते हुए भी जंबू कुमार को माता-पिता की आज्ञा स्वीकार करनी पड़ी। मंगलवेला में धूमधाम से जंबू कुमार का विवाह सम्पन्न हुआ। आभूषणों से सुसज्जित अप्सराओं जैसी 8 बहुओं से धारिणी का हृदय आनंद विभोर हो गया। दहेज से प्राप्त 99 करोड़ की राशि से आंगन भी शशिमहल की तरह चमक रहा था। एक ओर 500 साथियों के साथ चोर प्रभव ने धन की चोरी के उद्देश्य से घर में प्रवेश किया और दूसरी ओर विवाह की प्रथम रात्रि पर आठों पत्नियों के मध्य बैठा जंबू त्याग और विराग की चर्चा कर रहा था। विवाह रात्रि महावीर पाट परम्परा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समय शय्या पर बैठकर जंबू ने आठों पत्नियों से कहा कि यह सारा संसार तो असार है, अनित्य है। अतः मैं दीक्षा ही लूंगा। नवविवाहित कन्याओं ने कहा कि हे स्वामी! आप इस समय दीक्षा की बात न करें। अब तो संसार का जो सुख मिला है, उसी को अच्छी तरह से भोगकर दीक्षा लेना। समुद्रश्री आदि आठों पत्नियां जंबू को संसार और भोग की ओर खींचना चाह रही थीं जबकि जंबू उन्हें वैराग्य पथ का महत्त्व समझाना चाह रहा था। उनकी यह चर्चा प्रभव चोर भी सुनता रहा । समुद्रश्री आदि आठों पत्नियों ने क्रम से 1-1 कहानी संसार में आकर्षित करने हेतु कही किंतु जंबू ने भी प्रत्येक कथा के उत्तर में 1-1 कथा कही और अंत में वैराग्यपूर्ण वाणी से सभी को संयम रंग से रंग दिया। काम वासना के बाण जंबू को पराभूत करने में निष्फल रहे। धीरे-धीरे एक ही रात्रि में जंबू स्वामी जी ने प्रभव आदि 500 चोरों को, आठों पत्नियों को, माता-पिता को, सभी सास-ससुरों को प्रतिबोधित कर दिया। सुबह होते ही राजगृह में यह समाचार विद्युत-वेग की तरह फैल गया। 99 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं को धर्मक्षेत्र में लगाकर सभी 528 व्यक्तियों की दीक्षा का वरघोड़ा निकला। एक दिन पूर्व जनता ने विवाह का वरघोड़ा देखा और अगले ही दिन वैराग्य का वरघोड़ा ! जयजयकार से संपूर्ण राजगृही गूंज उठी। वीर निर्वाण संवत् 1 में सुधर्म स्वामी जी के करकमलों से सभी की भागवती दीक्षा हुई। जंबूद्वीप अधिपति अनादृत देव, मगध अधिपति सम्राट कोणिक भी दीक्षा महोत्सव में सहर्ष सम्मिलित हुए। शासन प्रभावना : श्रमणधर्म में प्रविष्ट होने के पश्चात् जंबू स्वामी जी ने अपने गुरु सुधर्म स्वामी जी के चरणों में रहकर अहर्निश परिश्रम से श्रुताराधन किया। वे शीघ्र ही द्वादशांगी के ज्ञाता बने। जिस प्रकार गणधर गौतम अपनी अंतर की जिज्ञासाओं के समाधान हेतु पूर्ण विनय से महावीर स्वामी जी से पूछते थे, उसी प्रकार जंबू अणगार को कोई भी शंका या जिज्ञासा होती थी तो गुरु सुधर्म स्वामी जी के समक्ष विनीत भाव से उपस्थित होते थे। उपलब्ध आगमों का जो स्वरूप आज है, वह स्पष्ट करता है कि भगवान् महावीर की अर्थपूर्ण वाणी सुनकर सुधर्म स्वामी जी ने शब्दरूप में गूंथा, और जिस रूप में जंबू स्वामी जी ने पृच्छा कर आगमज्ञान प्राप्त किया, उसी स्वरूप में वह विद्यमान है। अतः आगमों की अविच्छिन्न परम्परा में जंबूस्वामी जी का बहुत बड़ा योगदान है। महावीर पाट परम्परा 13 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकों जगह आगमों में आचार्य सुधर्म स्वामी जी का यह वाक्य प्रसिद्ध है - 'जंबू ! सर्वज्ञ श्री वीतराग भगवान् महावीर से मैंने ऐसा सुना है।' जंबू स्वामी जी अपने गुरु धर्म स्वामी जी का पूर्ण विनय करते थे। जिस तरह महावीर स्वामी और गौतम स्वामी जी का प्रगाढ़ सम्बन्ध था, उसी प्रकार इन दोनों का भी था । 'जंबूसामीचरिउ' ग्रंथ में सुधर्म स्वामी एवं जंबू स्वामी जी के पूर्वभवों का वृतांत मिलता है। एक भव में दोनों का भाई-भाई का रिश्ता था । भवदत्त ( सुधर्म स्वामी जी की आत्मा ) ने भवदेव (जंबू स्वामी जी की आत्मा) को बोध देकर दीक्षा दी। वे दोनों देवलोक में गए। वहाँ से च्यवकर सागरदत्त और शिवकुमार नाम के राजकुमार हुए। सागरदत्त ( सुधर्म स्वामी जी की आत्मा) ने मुनिदीक्षा ग्रहण की तथा शिवकुमार (जंबू स्वामी जी की आत्मा) को बोध देकर श्रावकत्व में दृढ़ किया। वहाँ से कालोपरान्त वे देव बने एवं उसके बाद मनुष्य भव में क्रमशः सुधर्म स्वामी एवं जंबू स्वामी बने । वी. नि. 12 में सुधर्म स्वामी जी को केवल ज्ञान हुआ। तभी से संघ की सारणा-वारणा-चोयणा - पडिचोयणा का दायित्व जंबू स्वामी जी ने संभाला। वी.नि. 20 में सुधर्म स्वामी जी को निर्वाण (मोक्ष प्राप्ति) हुआ एवं जंबू स्वामी जी का आचार्य पदारोहण एवं केवलज्ञान हुआ। अनन्त ज्ञान - दर्शन - चारित्र से युक्त श्री जंबू स्वामी जी ने 44 वर्ष तक द्वितीय पट्टधर के रूप में धरा को आलोकित किया। चूंकि वे स्वयं केवलज्ञानी थे, प्रभव स्वामी जी ने संघ संचालन में उनके आज्ञानुसार व्यवस्था रखी। आचार्य जंबू के शासनकाल में कई राजसत्ताएं परिवर्तित हुई। किंतु जंबू स्वामी जी सभी के आराध्य - पूज्य गुरु थे । मगध में शिशुनाग वंश के सम्राट कोणिक और तत्पुत्र उदायी का राज्य हुआ । उदायी राजा तो जंबू स्वामी जी के सन्निकट अष्टमी, चौदस को पौषध की आराधना करता था। सम्राट उदायी का देहावसान भी पौषध में हुआ । अवन्ती में प्रद्योत वंश के सम्राट पालक और तत्पुत्र अवन्तिवर्धन का राज्य हुआ । अवन्तिवर्धन की भाभी (राष्ट्रवर्धन की पत्नी) धारिणी ने जंबूस्वामी जी के हाथों से दीक्षा ग्रहण की। बाद में अवन्तिवर्धन ने भी जैन दीक्षा ली। कौशाम्बी में पौरव राजवंश के सम्राट अजितसेन और उनके उत्तराधिकारी सम्राट मणिप्रभ ने राज्य किया। भगवान् महावीर, जंबू स्वामी जी एवं निर्ग्रन्थ जैन धर्म के प्रति उनकी पूर्ण आस्था थी । कलिंग महावीर पाट परम्परा 14 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में चेदि राजवंश के सम्राट सुलोचन और उनके उत्तराधिकारी सम्राट शोभनराय ने राज्य किया। शोभनराय चेटक का पुत्र था। अतः जंबू स्वामी जी के आशीर्वाद से जैनधर्म में प्रगाढ़ आस्था रखने वाला श्रावक था। वीर. नि. 23 में देवचन्द्र नामक सुश्रावक ने भद्रेश्वर तीर्थ में भगवान् श्री पार्श्वनाथ जी का मंदिर बनवाया था, जिसकी प्रतिमाओं पर वासक्षेप जंबू स्वामी जी द्वारा ही डाला गया था। कालधर्मः आचार्य जंबू स्वामी जी इस काल के अंतिम सर्वज्ञ और अंतिम मोक्षगामी थे। वीर निर्वाण संवत् 64 (ईसा पूर्व 463) में 80 वर्ष की आयुष्य में जंबू स्वामी जी का निर्वाण हुआ और जन-जन को ज्ञान रश्मियों से आलोकित कर मुक्ति वधू के वरण से शाश्वत सिद्ध-बुद्ध अवस्था को प्राप्त हुए। उनके निर्वाण के पश्चात् जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में 10 वस्तुएं विलुप्त हो गई. 1. मनः पर्यव ज्ञान, 2. परमावधिज्ञान, ____3. पुलाकलब्धि, 4. आहारक शरीर, 5. क्षपक श्रेणी, 6. उपशम श्रेणी, 7. जिनकल्प, 8. केवलज्ञान 9. मोक्ष और 10. तीन चारित्र (परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय, यथाख्यात), इनके बाद भरत क्षेत्र से मोक्ष के द्वार बंद हो गए। --- ..... -- महावीर पाट परम्परा 15 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. श्रुतकेवली आचार्य श्री प्रभव स्वामी जी चौर्यकर्म की दक्षविभूति, आत्मचौर्य संस्कार । परिव्राट् पुंगव प्रभव स्वामी जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ सर्वज्ञत्व संपदा विच्छेद होने के बाद श्रुतधरों की परम्परा प्रारंभ हुई। बारह अंगों जैसे अनंत सुविशाल श्रुतज्ञान के धनी श्रुतकेवली हुए। भगवान् महावीर के तृतीय पट्टप्रभावक आचार्य प्रभव स्वामी जी ने इस श्रुतज्ञान की परम्परा का संवहन किया । दीर्घायु में चतुर्विध संघ का कुशल नेतृत्त्व कर धर्म की महती प्रभावना की । जन्म एवं दीक्षा : विन्ध्यांचल की तलहटी में स्थित जयपुर नामक राज्य में गुरुकात्यायन गौत्र के महाराज विन्ध्य राज्य करते थे। वीर निर्वाण पूर्व 30 ( ईसा पूर्व 557 ) में प्रभव नामक पुत्र का जन्म उनके यहाँ हुआ। प्रभव के छोटे भाई का नाम सुप्रभ (विनयंधर) था। प्रभव के पास दो प्रमुख विद्याएं थीं अवस्वापिनी (जिसके बल से वह सभी को निद्राधीन कर सकता था) और तालोद्घाटिनी ( जिसके बल से वह मजबूत तालों को भी खोल सकता था ) । जब राजकुमार प्रभव युवा हुआ, तब किसी कारण से उसके पिता उस पर कुपित हुए । आवेश में आकर पिता ने प्रभव को राज्याधिकार से वंचित कर छोटे बेटे सुप्रभ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इसका प्रभव पर मानसिक आघात पहुँचा। क्रोधित होकर वह राजमहल को त्यागकर विन्ध्य पर्वत के भयानक जंगलों में रहने लगा। वहाँ के लुटेरों ने उससे संपर्क स्थापित किया और उसके विद्या बल से चोरी और लूट करने लगे। वह बुद्धि का स्वामी और शारीरिक शक्ति से सम्पन्न था। अपनी विद्याओं के द्वारा वह चोरों की पल्ली में जनसमूह को लूटता हुआ विन्ध्याचल की घाटियों में शेर की तरह निर्भीक दहाड़ता हुआ, धीरे - धीरे 500 चोरों का नेता बन गया । एक बार डाकू सरदार प्रभव को सूचना मिली कि राजगृह में ऋषभदत्त श्रेष्ठी के पुत्र जंबू कुमार के विवाह पर 99 करोड़ मुद्राओं का दहेज आने वाला है। वह सभी 500 साथियों के महावीर पाट परम्परा 16 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ चोरी करने जंबू के घर पहुँचा। अपनी विद्या के बल से उसने ताला खोलकर प्रायः प्रायः सभी व्यक्तियों को सुला दिया और उनके आभूषण, दहेज आदि इकट्ठे करने लगे। जंबू ने अपने उच्च प्रासाद से चोरों द्वारा संपत्ति का अपहरण होते हुए देखा और उन्हें सचेत किया। 99 करोड़ सुवर्णमुद्राओं को गठरियों में बाँधकर ले जाने की तैयारी चल रही थी। हालांकि जंबू कुमार को धन-द्रव्य पर बिल्कुल भी आसक्ति नहीं थी। फिर भी उसने विचारा कि मुझे तो सुबह दीक्षा लेनी है, लेकिन आज ये चोर द्रव्य ले जाएंगे तो लोग कहेंगे कि धन चले जाने के कारण यह सिर मुंडा रहा है। इस तरह धर्म की निंदा होगी। यह उचित नहीं है। यह सोचकर वह भावपूर्वक नवकार गिनने लगा। नवकार मंत्र के प्रभाव से 500 चोरों के पैर स्तंभित हो गए। अपनी पूरी शक्ति का जोर लगा लेने के बाद भी वे 500 चोर इंचमात्र भी हिल सके। प्रभव ने अपनी अवस्वापिनी विद्या का प्रयोग जंबू पर किया किंतु वह निष्प्रभावी रही। प्रभव स्तब्ध और अवाक् रह गया क्योंकि आज तक उसकी विद्या कभी निष्प्रभावी नहीं गई। प्रभव ने जंबू को बोला – मुझे निश्चय हो गया है कि आप कोई महापुरुष हैं। मैं आपके साथ मैत्री सम्बन्ध करना चाहता हूँ। कृपा कर आप अपनी विद्याएं-स्तंभिनी और विमोचनी मुझे सिखा दीजिए, मैं अपनी विद्याएं-अवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी आपको सिखा देता हूँ।" ___ जंबू ने उत्तर दिया - "मेरे पास कोई विद्या नहीं है। मैं बस पंच परमेष्ठी का ध्यान करता हूँ, इसी कारण कोई देव या विद्या मुझे वश नहीं कर सकती और वैसे भी कल सुबह ही मैं अपना तन-मन सभी संपदाओं का त्याग कर सुधर्म स्वामी जी के चरणों में अपना जीवन समर्पित करने वाला हूँ।" जंबू की बात सुनकर प्रभव अवाक् रह गया। सभी सांसारिक सुख सुविद्याएं भोग-विलास सरलता से प्राप्त होने पर इनका त्याग कोई कैसे कर सकता है? इसी मनोवैज्ञानिक चिंतन में प्रभव का चित्त अनुरक्त हो गया। एक हितैषी के रूप में जंबू को वह सहसा बोल पड़ा - "संतानहीन व्यक्ति नरक में जाता है। अतः पुत्र को प्राप्त कर भावी संतति का विस्तार का पितृऋण से मुक्त बनो। उसके बाद संयमी होना शोभास्पद है। लोग तो ऐसे सांसारिक सुखों के लिए तरसते हैं, और आप...?" प्रभव चोर की बातों को जंबू कुमार ने ध्यान से सुना और फिर वैराग्य रस से पोषित धर्मगंगा बहाई। संसार का भयानक स्वरूप, सुख-दुःख की क्षणभंगुरता, आत्मधर्म की महत्ता एवं शाश्वत आत्मसुख का स्वरूप, इत्यादि विषयों पर जंबू कुमार ने कुबेरदत्ता आदि दृष्टान्तों के माध्यम से चोराधिपति प्रभव के अध्यात्म नेत्रों को अनावरित कर दिया। रात्रिभर की ज्ञानगोष्ठी से प्रभव का हृदय संयम मार्ग पर बढ़ने को तत्पर हो गया। अपने अधिपति के इस महावीर पाट परम्परा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-क्रांतियुक्त निर्णय से 500 चोरों के संपूर्ण स्तेनदल में भी क्रांति घटित हो गई। इस प्रतिबोध से वे भी जंबू कुमार की भांति दीक्षा लेने के लिए आतुर बने। सुविशाल मुमुक्षुओं से सुसज्जित वरघोड़ा अगले ही दिन निकल गया। मगध के राजा कोणिक भी चतुरंगिनी सेना के साथ इस महोत्सव पधारे। दीक्षार्थी युवायोगी जंबू कुमार को संबोधित करते हुए सम्राट ने कहा, - "धीर पुरुष जंबू! तुम्हारा जन्म कृतार्थ हुआ। मेरे लिए कुछ योग्य कार्य हो तो मुक्त भाव से कहो।" जंबू कुमार ने प्रभव की ओर संकेत करते हुए कहा - "राजन! यह प्रभव चोर भी वैराग्य भाव को प्राप्त कर मेरे साथ मुनि बनने जा रहा है। आपके राज्य में इसने जो भी अपराध किए हैं, उसके लिए आप आज से इसे क्षमा करें।" कोणिक ने प्रेम भाव से प्रभव चोर के सभी अपराधों को क्षमा किया एवं निरतिचार संयम जीवन की कामना की। जंबू कुमार के साथ ही वीर नि.1 में प्रभव ने सर्वविरति धर्म को स्वीकार कर सुधर्म स्वामी जी के पास दीक्षा ग्रहण। एक चोराधिपति से किस प्रकार प्रभव आत्म चेतना का अधिपति बन गया, यह संपूर्ण आर्य निवासियों के लिए प्रेरणा एवं आदर्श का केन्द्र बन गया। परिशिष्ट पर्व के अनुसार, प्रभव की दीक्षा जंबू की दीक्षा के एक दिन बाद हुए। अन्यमतानुसार दोनों की दीक्षा एक ही दिन होने पर भी जंबू स्वामी जी को दीक्षा का वासक्षेप पहले मिला। उम्र में प्रभव स्वामी बड़े थे, किंतु दीक्षा में जंबू स्वामी जी बड़े थे। शासन प्रभावना : मुनि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् प्रभव स्वामी जी ने विनयपूर्वक सुधर्म स्वामी जी - जंबू स्वामी जी के पास 11 अंगों और 14 पूर्वो का सम्यक् रूप से अध्ययन किया। कठोर तपश्चर्या से उन्होंने अपने कर्मों की निर्जरा की। जंबू स्वामी जी की 64 वर्ष तक अहर्निश सेवा करते हुए श्रमण धर्म में उत्तरोत्तर उत्थान को प्राप्त हुए। वीर निर्वाण संवत् 64 में आर्य जंबू स्वामी जी द्वारा आचार्य पद प्रदान किए जाने पर आचार्य प्रभव स्वामी जी ने युगप्रधान आचार्य के रूप में जिनशासन की महती प्रभावना की। शास्त्रों में कहा गया है - 'जे कम्मे सूरा, ते धम्मे सूरा' और उनका जीवन इसका श्रेष्ठ उदाहरण बना। ___ आचार्य का एक प्रमुख दायित्व भावी पट्टधर का निर्वाचन होता है। एक बार रात्रि के समय आचार्य प्रभव स्वामी योगसमाधि लगाए ध्यानमग्न थे। ध्यान की परिसमाप्ति के बाद सहसा महावीर पाट परम्परा 18 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके मन में विचार आया कि उनके पश्चात् प्रभु वीर के इस धर्मसंघ का सही संचालन करने हेतु पट्टधर किसे बनाया जाए? उपयोग देने पर भी उन्हें श्रमण संघ व श्रावक संघ में गणभार वहन योग्य कोई व्यक्ति दृष्टिगत नहीं हुआ। अतः अपने ज्ञानबल से उन्होंने किसी अन्य व्यक्ति को खोजने का प्रयत्न किया। उन्हें राजगृह नगरी में यज्ञनिष्ठ ब्राह्मण शय्यंभव भट्ट दिखाई दिया। दूसरे ही दिन आचार्य प्रभव स्वामी अपने साधुओं के साथ राजगृही नगरी पधारे। जैन मत के कट्टर द्वेषी शय्यंभव भट्ट को किस प्रकार जिनधर्म का उपासक बनाया जाए, इसका चिंतन मनन कर उन्होंने दो साधुओं को तैयार किया। आचार्य प्रभव धर्मचर्चा से शय्यंभव भट्ट को जैनधर्म के प्रति प्रभावित कर सकते थे। पर उन्हें प्रभव स्वामी जी के सामने शांत भाव से उपस्थित करना सरल कार्य नहीं था। अतः धर्मसंघ के हित की भावना से उन्होंने यह युक्ति बनाई। आचार्य प्रभव स्वामी जी के आदेशानुसार दो साधु शय्यंभव भट्ट के यज्ञ में गए। उन्होंने द्वार पर खड़े होकर धर्मलाभ कहा एवं भिक्षा की याचना की। यज्ञ में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने जैन मुनियों को आहार देने का निषेध किया एवं घोर अपमान किया। वे श्रमण बोले - "अहो कष्टमहोकष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि" अहो! यह अत्यंत दु:ख की बात है, तत्त्व को सही रूप में समझा नहीं जा रहा। तत्त्व को नहीं जानने की बात महाभिमानी उद्भट्ट विद्वान शय्यंभव के मस्तिष्क में टकराई। वह भली-भाँति जानता था कि जैन मुनि कैसे भी हों, वे कभी झूठ नहीं बोलते। दोनों मुनियों के जाते ही शय्यंभव हाथ में तलवार लेकर अपने गुरु (अध्यापक) के पास पहुंचे और तत्त्व का स्वरूप पूछा। अध्यापक ने कहा - "स्वर्ग व मोक्ष देने वाले वेद ही परम तत्त्व हैं।" शय्यंभव भट्ट ने अत्यंत क्रुद्ध स्वर में कहा - "जैन मुनि कभी झूठ नहीं बोलते। सच-सच बोलो अन्यथा तुम्हारा शिरच्छेद कर दूंगा।" ___अध्यापक समझ गए कि अब सत्य बात बताए बिना प्राणरक्षा असंभव है। उन्होंने कहा - "अर्हत् भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म ही सत्य और वास्तविक धर्म है। अरे! तू जो यह यज्ञ कर रहा है, उस यज्ञ के कीलक के नीचे अर्हत् श्री "शान्तिनाथ जी" की प्रतिमा है। यज्ञ से कुछ नहीं होता, उस प्रतिमा के प्रभाव से शांति होती है।" यह सब सुन शय्यंभव किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया। उसने यज्ञ के कीलक के नीचे से जैन धर्म के 16वें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ जी की प्रतिमा निकाली। उस सौम्य वीतरागी परमात्मा की प्रतिमा देख उन्हें प्रतिबोध हुआ। यज्ञ सामग्री अध्यापक को पकड़ाकर वे जैन श्रमणों की खोज में निकल पड़े एवं आचार्य प्रभव स्वामी जी के पास पहुँचे। आचार्य प्रभव स्वामी जी ने उन्हें यज्ञ का यथार्थ स्वरूप समझाया एवं आर्हत् (जैन) महावीर पाट परम्परा 19 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के सम्यक् तत्त्वों की प्ररूपणा कर न केवल सम्यक्त्व परिपक्व कर दिया बल्कि मुनि दीक्षा प्रदान कर योग्य पट्टधर नियुक्त किया। शय्यंभव जैसे अहंकारी, निर्ग्रन्थ प्रवचन के घोर प्रतिद्वन्दी विद्वान को भगवान् महावीर के संघ में दीक्षित करना प्रभव स्वामी जी की क्षमता, दूरदर्शिता एवं ज्ञानबल का प्रबल उदाहरण बना। __ भगवान् श्री पार्श्वनाथ जी के चतुर्थ पट्टधर श्री केशी श्रमण ने भगवान् महावीर स्वामी जी के पास उपसंपदा ग्रहण की थी। उनकी शिष्य परंपरा उपकेश गच्छ के नाम से विश्रुत हुई। उपकेशगच्छीय आचार्य रत्नप्रभ सूरि जी द्वारा इस काल में माघ सुदि 5, गुरुवार, वी.नि. सं. 70 के दिन ओसिया जी एवं कोरटा जी तीर्थ में भगवान महावीर स्वामी जी की प्रभावक प्रतिमा प्रतिष्ठित की। ओसवाल वंश की स्थापना भी इनके द्वारा हुई। कालधर्म : श्रुतकेवली आचार्य प्रभव को महावीर संघ का उत्तराधिकार अवश्य मिला, परन्तु सर्वज्ञत्व . (केवलज्ञान) की संपदा उन्हें प्राप्त नहीं हो सकी क्योंकि जंबू स्वामी जी के कालधर्म पश्चात् केवलज्ञान-मोक्ष का विच्छेद हो गया। प्रभव स्वामी जी 30 वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहे। कुल 75 वर्ष के संयम पर्याय (64 वर्ष मुनि पर्याय व 11 वर्ष आचार्य पर्याय) का पालन करते हुए वी.नि. 75 (विक्रम पूर्व 395) में वे अनशनपूर्वक स्वर्गगामी हुए। --- ..... ---.. महावीर पाट परम्परा 20 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. आचार्य श्रीमद् शय्यंभव सूरीश्वर जी भवभीरू भट्ट शय्यंभव, ज्ञान गंगा द्वार। आत्मयज्ञ में कषाय आहुति, नित् वंदन बारम्बार॥ भगवान् महावीर स्वामी जी के चौथे पट्टधररत्न आचार्य श्री शय्यंभव सूरि जी का जीवन ब्राह्मण संस्कृति से श्रमण संस्कृति में प्रवेश की प्रेरणा का प्रबल उदाहरण है। पूर्वज्ञान से नियूंढ सूत्र रचना का प्रारंभ कर 'श्री दशवैकालिक सूत्र" जैसी अनुपम श्रुतकृति की रचना उनके अध्यात्म ज्ञान के ऊर्ध्वारोहण का प्रतिबिम्ब है। जन्म एवं दीक्षा : - राजगृह नगरी के वत्स गौत्रीय परिवार में वी.नि. 36 (वि.पू. 434) में शय्यंभव भट्ट का जन्म हुआ। वेद-वेदांगों का अध्ययन करके वो विशिष्ट विद्वान बने। युवा अवस्था में उनका विवाह सम्पन्न हुआ। उनका शारीरिक बल सुदृढ़ एवं दैहिक रूप नयनरम्य था। यज्ञ एवं उसके द्वारा मंत्रोच्चार साधना में उसे अटूट श्रद्धा थी। शय्यंभव की बौद्धिक क्षमता भी तेजस्वी थी। यद्यपि वे जैनधर्म के द्वेषी थे, किंतु फिर भी उन्हें व्यामोह न था। वे मानते थे कि तपस्वी जैन मुनि कभी झूठ नहीं बोलते। भगवान् महावीर के तीसरे पट्टधर आचार्य प्रभव स्वामी जी ने अपने ज्ञान ने देखा कि यदि शय्यंभव ब्राह्मण की योग्यता को सही दिशा दी जाए, तो वह जैन संघ का देदीप्यमान सूर्य प्रमाणित होगा। उन्होंने युक्तिबद्ध तरीके से ब्राह्मण शय्यंभव जी को प्रतिबोधित किया। यज्ञ के मंडप के नीचे शांतिनाथ जी की प्रतिमा देखकर शय्यंभव भट्ट को वीतराग जिनेश्वर देव पर अनुराग हुआ। __श्रुतकेवली आचार्य प्रभव स्वामी जी ने उन्हें जैन धर्म दर्शन का यथार्थ ज्ञान देकर जैन धर्म शासन में सम्मिलित किया। 28 वर्ष की वय में उन्होंने प्रभव स्वामी जी के उपदेश से प्रभावित होकर श्रमण दीक्षा ग्रहण की। शय्यंभव जब वी.नि. 64 दीक्षित हुए, तब उनकी नवयुवती पत्नी गर्भवती थी, किन्तु सभी आसक्तियों का त्याग कर शय्यंभव आत्मसाधना के उत्कृष्ट उद्देश्य से श्रमण संघ में प्रविष्ट हुए। महावीर पाट परम्परा 21 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन प्रभावना : शय्यंभव भट्ट आत्मकल्याण के मार्ग पर आरूढ़ होकर संसार से संन्यास की ओर अग्रसर हुए। ब्राह्मण समाज में इस पर चर्चा प्रारंभ हुई। वे कहने लगे कि शय्यंभव भट्ट निष्ठुर-अतिनिष्ठुर हैं, जो इस भरी जवानी में पत्नी का त्याग कर दिया और जैन साधु बन गये। महिलाएं भी शय्यंभव की पत्नी को सांत्वना देने आई। नारी के लिए पति के अभाव में पुत्र का ही आलंबन (सहारा) होता है। आस-पड़ोस की स्त्रियों ने शय्यंभव की पत्नी से पूछा - बहन! क्या गर्भ की संभावना है? शय्यंभव की पत्नी ने संकोच करते हुए कहा - "मणयं" यानि हाँ, कुछ है। अनुक्रम से उसने एक पुत्र को जन्म दिया और नाम - 'मनक' रखा। ___ बालक जब 8 वर्ष का हुआ, तब एक दिन उत्सुकतावश माता से प्रश्न किया - "माँ! मैंने कभी मेरे पिता को नहीं देखा। बतलाओ मेरे पिता कौन हैं और कहाँ हैं?" माता अपने अश्रु रोक नहीं सकीं। उसने कहा - वत्स! तुम्हारे पिता का नाम शय्यंभव भट्ट है। जब तुम गर्भ में थे, उस समय तुम्हारे पिता ने श्रमणधर्म की जैन दीक्षा ग्रहण कर ली थी। अब वे एक जैन मुनि हैं।" माता के मुख से पिता का वर्णन सुनकर मनक के हृदय में पिता को देखने की उत्कट अभिलाषा जग गई। हठपूर्वक माता की आज्ञा लेकर वह पिता से मिलने निकल पड़ा। ___आचार्य शय्यंभव सूरि जी उस समय चम्पापुरी पधारे हुए थे। दैवयोग से बालक मणक भी पिता की खोज करता-करता अनेक नगरों-गांवों में भटका लेकिन उसके मन में पिता से मिलने की आशा कम नहीं हुई। एक दिन वह चम्पा नगरी आ पहुँचा। शौच-निवृत्ति के लिए आए एक जैन मुनि पर मनक की नजर गई। 'अवश्य ही ये मेरे पिता के सहयोगी मुनि होंगे' - ऐसा समझकर बालक मनक ने उन्हें विनयपूर्वक वंदन किया। बालक के मुख का तेज अपूर्व था। बालक ने अपना परिचय दिया एवं पूछा कि "मेरे पिता आचार्य शय्यंभव कहाँ हैं? आप उन्हें जानते हैं? मैं उनका अनुसरण करना चाहता हूँ।" वे जैन मुनि और कोई नहीं, बल्कि आचार्य शय्यंभव थे। अपने सांसारिक पुत्र को देख उनकी मनोदशा किस प्रकार की रही होगी, वह अनुभवगम्य ही है। समुद्र सम गंभीर आचार्य शय्यंभव सूरि जी ने स्वयं को शय्यंभव का अभिन्न मित्र मुनि बताकर बालक को प्रतिबोधित किया। प्रेरणापद उपदेशों को सुन कोमल हृदयी बालक मनक का हृदय भी पिता की भाँति वैराग्य पथ पर बढ़ने को दृढ़ हुआ। बालक मनक को उपाश्रय आ जाने पर जब यह ज्ञात हुआ कि वे ही आचार्य शय्यंभव हैं, उसने उनसे निवेदन महावीर पाट परम्परा - 22 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया कि मुझे भी श्रमण दीक्षा प्रदान कीजिए, अब मैं आपसे पृथक (अलग) नहीं रहूंगा। आचार्य ने कहा कि यदि तू हम दोनों का पिता पुत्र होने का सम्बन्ध किसी से भी नहीं कहेगा, तो ही तुझे दीक्षा दूंगा। मनक ने स्वीकार किया। अब वह बालमुनि मनक बना। उसकी दीक्षा सम्पन्न हुई। श्रुतकेवली आचार्य शय्यंभव हस्तरेखा विद्या के जानकार थे। उन्हें आभास हो गया मनक मुनि का आयुष्य बहुत ही कम है। अतः कम आयु में ज्यादा श्रुतज्ञान का अध्ययन संभव नहीं है। उसके अल्पायुष्य में भी आत्मकल्याण का बोध प्राप्त कर सके, इस शुभ भाव से उन्होंने विभिन्न पूर्वो से सार लेकर दश अध्ययन वाला सूत्रग्रंथ तैयार कर सांयकाल के विकाल में पूर्ण किया। उसका नाम 'दशवैकालिक' रखा गया। आचार्य शय्यंभव सूरि जी स्वयं बालमुनि मनक को दशवैकालिक सूत्र की वाचना देते थे। दीक्षा में छोटा होने के कारण मनकमुनि सभी वडिल मुनियों की वैयावृत्य भी करते थे। इस प्रकार 6 मीहने तक बालमुनि का जीवन स्वाध्याय और सेवा में समर्पित रहा। यह सूत्र मनक मुनि ने 6 महीने में ही पढ़ लिया। उसके बाद ही मनक मुनि का कालधर्म हो गया। मनक मुनि के शरीर का अग्निसंस्कार करके श्रावक गुरु के पास आए। उस समय यशोभद्र जी प्रमुख अनेक शिष्य गुरु के पास बैठे हुए थे। शय्यंभव सूरि जी ने श्रावकों को उपदेश दिया किंतु आज उनकी आँखों में आँसू आ गए। सभी ने पूछा कि गुरुदेव! आपके अनेक शिष्य परलोक जाते हैं, पर आपकी आँखों में आँसू कभी नहीं देखे। आज ऐसा क्यों? तब शय्यंभव सूरि जी ने रहस्य उद्घाटित करते हुए कहा कि मनक मेरा सांसारिक पुत्र था। तब साधुओं ने पूछा कि गुरुदेव! आपने हमें यह पहले सूचित क्यों नहीं किया कि बालमुनि मनक आपके पुत्र हैं? इस प्रश्न पर आचार्य शय्यंभव सूरि जी ने फरमाया - यदि तुम्हें यह पता होता तो तुम उससे वैयावृत्य आदि नहीं करवाते, फिर उसे मुनि जीवन का यह अद्भुत लाभ कैसे मिलता? इतने कम संयम पर्याय में सेवा का ऐसा सुनहरा अवसर मुनि मनक को मिले, इसीलिए इस बात को मैंने कभी उद्घाटित नहीं किया। शय्यंभव सूरि जी गंभीरता देखकर संपूर्ण संघ आश्चर्यचकित हो उनके चरणों में नतमस्तक हो गया। ज्यों ही शय्यंभव सूरि जी दशवैकालिक सूत्र का संवरण पुनः पूर्वो में करने लगे, तब संघ ने इसे अल्पबुद्धि-अल्पायुष्यी साधकों के उद्देश्य से स्वतंत्र रूप में रखने का निवेदन किया। आचार्यश्री ने विचार कर संघ की प्रार्थना को स्वीकार किया। उस समय मगध में नंदवंश का राज्य था। आचार्य शय्यंभव ने अमात्य पद पर आसीन कल्पक नामक ब्राह्मण को महावीर पाट परम्परा 23 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोधित किया एवं जैन धर्म में स्थिर कर शासन प्रभावना के अनेक कार्यों का संपादन किया। अनेकों ब्राह्मणों को यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप समझाकर उनको जैन धर्म के अनुकूल बनाया एवं अनेकों प्रकार से जिनशासन की शोभा में अभिवृद्धि की । साहित्य रचना : दशवैकालिक मुनि जीवन की आचार संहिता विषयक उपयोगी ग्रंथ है। इसका चतुर्थ अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व में, पंचम अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व में से, सप्तम अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व में से एवं शेष अध्ययन प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व में से निहित है। ग्रंथ के मंगलाचरण स्वरूप प्रथम गाथा इस प्रकार है अर्थात् - अहिंसा, संयम और तप से सुशोभित धर्म उत्कृष्ट मंगलकारी है और जो इस धर्म की आराधना करते हैं, उसे देव भी नमस्कार करते हैं। आज भी दीक्षा पश्चात् अनिवार्य रूप से साधु-साध्वी जी प्रथमतः इसका ही स्वध्याय करते हैं। इसमें 10 अध्ययन इस प्रकार से हैं: 1) द्रुमपुष्पिका अध्ययन : इसमें धर्म का स्वरूप, धर्म का महत्त्व एवं श्रमण जीवन का परिचय हैं। गाथाएं 5 हैं। 'धम्मो मंगल मुक्किटं, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो' 2) श्रमणपूर्विक अध्ययन : इसकी 11 गाथाओं में पौद्गोलिक वस्तुओं पर मोहत्याग एवं धर्म में अप्रमत्त (आलसरहित) होने को कहा है। 3) 4) 5) क्षुल्लकाचार अध्ययन : इसकी 15 गाथाओं में आचार और अनाचार, संयम का फल आदि लिखा है। धर्मप्रज्ञप्ति (षड्जीवनिकाय) : इस अध्ययन की 28 गाथाओं में जीवन के 6 काय एवं जयणापूर्वक संयम जीवन जीने का वर्णन है । पिण्डैषणा अध्ययन : इसकी 150 गाथाओं में गोचरी एवं भिक्षा संबंधी कल्प्य - अकल्प्य बातों का विवेचन है। महावीर पाट परम्परा 24 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6) 7 ) वचनशुद्धि अध्ययन : इसकी 57 गाथाओं में भाषा विवेक पर बल दिया गया है एवं मधुर, सत्य एवं शुद्ध वाणी का महत्त्व वर्णित है। 8) महाचारकथा अध्ययन : इसमें धर्म-अर्थ- काम का आख्यान एवं उत्सर्ग अपवाद मार्ग रूपी धर्म का कथन है। इसमें 68 गाथाएं हैं। 9) आचार प्रणिधान अध्ययन : इसकी 63 गाथाओं में कषाय त्याग, इन्द्रियविजय आदि आचारों का प्रतिपादन हैं। विनयसमाधि अध्ययन : इसमें विनय, श्रुत, तप और आचार का वर्णन 62 गाथाओं में है। 10) सभिक्षु अध्ययन : इसकी 21 गाथाओं में आदर्श भिक्षु का स्वरूप वर्णित है। कालधर्म : उन्होंने 28 वर्ष की आयु में वी. नि. 64 (वि. पू. 406) में दीक्षा ग्रहण की थी। शासन की महती प्रभावना करते वे वी. नि. 75 में आचार्य पद पर आरूढ़ हुए एवं 62 वर्ष की आयु में यशोभद्रसूरि जी को पट्टधर नियुक्त कर वी. नि. 98 ( ईस्वी पूर्व 429 ) में स्वर्गवासी बने । इन चार समाधियों महावीर पाट परम्परा 25 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. आचार्य श्रीमद् यशोभद्र सूरीश्वर जी सौम्य स्वभावी, गुणानुरागी, मिथ्यात्व मत संहार। यशस्वी गुरुवर यशोभद्र जी, नित् वंदन बारम्बार॥ अपने विशद ज्ञान प्रकाश से अंग, मगध और विदेह आदि क्षेत्रों को आलोकित कर ब्राह्मण परम्परा पर भी प्रभुत्व प्राप्त करने वाले श्रुतकेवली युगप्रधान आचार्य यशोभद्र सूरि जी शासनपति महावीर स्वामी जी के पाँचवे पट्टविभूषक बने। चतुर्दश पूर्व की सुविशाल ज्ञानराशि को उन्होंने चारित्राचार में आत्मसात् किया। जन्म एवं दीक्षा : वीर निर्वाण 62 (ईस्वी पूर्व 465) में पाटलीपुत्र के तुंगिकायन गौत्रीय ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ। वे कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे और विशाल यज्ञों का सफलतापूर्वक संचार करते थे, किंतु आचार्य शय्यंभव सूरि जी के सत्संग योग से यशोभद्र का हृदय जिनेश्वर परमात्मा की वाणी से विरक्ति की धारा में प्रवाहित हो उठा। ब्राह्मण समाज पर उनके प्रभावशाली व्यक्तित्त्व की छाप थी किंतु आचार्य शय्यंभव के प्रभावक प्रवचनों से प्रेरित होकर 22 वर्ष की युवावस्था में वी.नि. 84 (वि.पू. 386) में उनके पास जैन मुनि दीक्षा ग्रहण की। शासन प्रभावना : आचार्य शय्यंभव सूरि जी के चरणों में विनयवंत रहकर यशोभद्र मुनि ने संपूर्ण 12 अंगों का गहन अध्ययन किया। उनके स्वर्गवास पश्चात् चतुर्विध संघ के वहन का दायित्व उन पर आया। वी.नि. 98 में वे आचार्य पद पर आसीन हुए। मगध, अंग और विदेह क्षेत्रों में अहिंसा धर्म का उन्होंने खूब प्रचार किया। उस समय ब्राह्मण वर्ग द्वारा यज्ञों-हवनों का प्रचार पराकाष्ठा पर था। ऐसे समय में ब्राह्मण वर्ग में भगवती अहिंसा धर्म का प्रचार कर अध्यात्म की ओर उन्मुख किया। तत्कालीन राजवंशों पर भी आचार्य यशोभद्र सूरि जी का बहुत प्रभुत्व था। मगध के नंदवंश के राजाओं तथा मंत्रियों को भी उन्होंने अहिंसा धर्म का महत्त्व समझाया महावीर पाट परम्परा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं हिंसायुक्त बलियां, यज्ञ आदि रूकवाये। वे श्रुतकेवली एवं युगप्रधान आचार्य रहे। उनकी उग्र तपस्या का भी जनता में व्यापक प्रभाव पड़ा। चौदह पूर्वो की संपदा का सम्यक् ज्ञान उन्होंने अपने सुयोग्य शिष्यों को भी दिया। एक बार एक मुनि अग्निदत्त ने उनसे प्रश्न किया कि - " हे ज्ञानेश्वर ! भविष्य में जिनशासन का क्या हाल होगा? इसका उद्योत करने वाला कौन होगा?" तब श्रुतकेवली एवं अवधिज्ञानी यशोभद्रसूरि जी ने भविष्य में होने वाले सम्राट सम्प्रति आदि का कथन किया। उन्होंने आगे के सैकड़ों वर्षों बाद होने वाली घटनाओं का भी निरूपण किया, जो 'वंगचूलिया' ग्रंथ में लिपिबद्ध हुई । ग्रंथ लेखन के बाद भी घटनाएं सभी सच प्रमाणित हुई। उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की । संघ व्यवस्था : यशोभद्रसूरि जी के चालीस से भी अधिक महाप्रभावक शिष्यरत्न थे । भगवान् महावीर से लेकर यशोभद्र सूरि जी तक एक पट्टधर परम्परा चली, किंतु सुविशाल श्रमण- श्रमणी समुदाय एवं शिष्यों की योग्यता को देखते हुए यशोभद्र सूरि जी ने सम्भूतविजय जी एवं भद्रबाहु स्वामी जी को आचार्य एवं पट्टधर पद पर नियुक्त किया। कालधर्म : आचार्य यशोभद्र सूरि जी की सुंदर उपदेश - शैली, असाधारण विद्वत्ता, उत्तम चरित्र एवं सौम्य स्वभावी मुद्रा उनके स्वाभाविक गुण थे। चौसठ वर्ष के संयम पर्याय में 50 वर्षों तक उन्होंने युगप्रधान व आचार्य पद को सुशोभित किया। जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए 86 वर्ष की कुल आयुष्य पूर्ण कर आचार्य यशोभद्र सूरीश्वर जी वी. नि. 148 (वि.पू. 322 ) में देवलोक को प्राप्त हुए। महावीर पाट परम्परा 177 27 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. आचार्य श्रीमद् सम्भूत विजय जी आचार्य श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी जी प्रवचनप्रभावक संभूतविजय जी, भद्रिकता अपार। भद्रस्वभावी भद्रबाहु जी, नित् वंदन बारम्बार॥ जिनशासन में श्रुतकेवली की परम्परा को देदीप्यमान करने वाले आ. यशोभद्र सूरि जी के सुयोग्य आचार्यद्वय शिष्यरत्न - आचार्य संभूत विजय जी एवं आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी जी भगवान् महावीर की परम्परा के छठे पट्टधर बने। वे दोनों संयम साधना एवं ज्ञान-आराधना के जाज्वल्यमान सूर्य थे। जन्म एवं दीक्षा : आचार्य सम्भूतविजय का जन्म वीर निर्वाण संवत् 66 (ईसवी पूर्व 461) में माढर गौत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ एवं 42 वर्ष तक गृहवास में रहने के पश्चात् आचार्य यशोभद्र सूरि जी के उपदेश से वी.नि. 108 में श्रमण दीक्षा अंगीकार की। ___ आचार्य भद्रबाहु का जन्म वी.नि. 94 (वि.पू. 433) में प्राचीन (पाईण) गौत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। चूंकि उनकी भुजाएं अत्यंत लंबी एवं सुंदर थीं, इसी कारण वे 'भद्रबाहु' के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। गृहस्थावस्था में 45 वर्ष रहने के पश्चात् जिनधर्म के प्रति अगाध आस्था होने से वी.नि. 139 यशोभद्र सूरि जी के करकमलों से भागवती प्रव्रज्या ग्रहण की। (इतिहासविदों के अनुसार, प्रस्तुत आचार्य भद्रबाहु एवं सुप्रसिद्ध उवसग्गहरं स्तोत्र के रचयिता आचार्य भद्रबाहु से भिन्न हैं) आचार्य संभूतविजय एवं भद्रबाहु के दीक्षा पर्याय में 31 वर्षों का अंतर था। शासन भावना : आचार्य यशोभद्र सूरीश्वर जी जैसे गीतार्थ गुरुदेव की कल्पवृक्ष-सम निश्रा में मुनिद्वय का उत्तरोत्तर विकास हुआ। दोनों ने आगमों का अहर्निश अध्ययन कर 14 पूर्वो का सार्थ ज्ञान अर्जित किया। दोनों की दीक्षा में काफी अंतर था। अतः भद्रबाहु स्वामी जी के संभूत विजय जी भी गुरुतुल्य थे। यशोभद्र सूरि जी ने भीम और कान्त गुणों से युक्त होने के कारण एवं संघ के महावीर पाट परम्परा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-क्षेम में सक्षम संभूत विजय जी एवं भद्रबाहु स्वामी जी दोनों को अपने पट्ट पर स्थापित किया । अवस्था में ज्येष्ठ होने के कारण यह दायित्व प्रथमतः संभूतविजय जी ने संभाला। वी. नि. 148 (वि.पू. 322) में आचार्य यशोभद्रसूरि जी के कालोपरान्त संभूतविजय जी आचार्य पद पर आसीन हुए। उस समय वे लगभग 82 वर्ष के थे। आठ वर्षों तक इस दायित्व का वहन करने के पश्चात् भद्रबाहु स्वामी जी वी.नि. 156 (वि.पू. 314 ) में आचार्य बने । आचार्य संभूतविजय जी के शासनकाल में नन्द राज्य उत्कर्ष पर था। नंदों के 155 वर्षो के शासनकाल में 9 नंद हुए, जिसमें नौवें नंद के महामात्य पद पर शकडाल मंत्री सुशोभित थे। उनके सभी पुत्र-पुत्रियों ने संसार से विरक्त होकर संभूतविजय जी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। यह उस युग में अत्यंत प्रेरणा का स्रोत बनी। उनकी प्रतिबोधशक्ति एवं उपदेश - शैली बहुत तेजस्वी मानी जाती थी। एक बार चार विशिष्ट साधक मुनि आचार्य संभूत विजय जी के पास आए। एक ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने सर्प की बांबी पर, तीसरे ने कुएं की मुंडेर पर तपपूर्वक चातुर्मास करने का अभिग्रह धारण किया और गुरु आज्ञा से विहार किया। चौथे मुनि स्थूलभद्र ने गुरु आज्ञा से वह चातुर्मास पूर्व परिचिता गणिका कोशा वेश्या की चित्रशाला में किया। चारों मुनियों ने वे चातुर्मास सफलतापूर्वक कर संभूतविजय जी के विश्वास को सुदृढ़ रखा। उनके गुरुभाई आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी भी जैन संघ के समर्थ ज्योतिर्धर थे। आचार्य संभूतविजय जी के बाद भद्रबाहु स्वामी जी ने चतुर्विध संघ का दायित्व संभाला। आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी अर्थ की दृष्टि से अंतिम श्रुतधर थे। वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्यकाल में भूमि - भारत के विभिन्न प्रान्तों को भयंकर दुष्काल (सूखे) के वात्याचक्र से जूझना पड़ा। उचित भिक्षा आदि के अभाव में अनेक श्रुतसम्पन्न मुनि काल कवलित हो गए। आचार्य भद्रबाहु के अतिरिक्त संपूर्ण संघ में कोई भी 14 पूर्वधारी न बचा। उस समय आचार्य भद्रबाहु नेपाल की पहाड़ी में महाप्राणध्यान की विशिष्ट साधना करने के लिए चले गए। महाप्राणध्यान ऐसी विशेष साधना पद्धति है जिसके बल से 14 पूर्व ज्ञानराशि का मुहूर्त मात्र (48 मिनट) में परावर्तन कर लेने की क्षमता आ जाती है। इस साधना में 12 वर्ष लगते हैं। किंतु धर्मसंघ को अत्यधिक चिंता हुई कि यदि उन्होंने ज्ञानसंपदा को दुष्काल से बचे हुए योग्य मुनियों को प्रदान न किया गया, तो यह जिनशासन श्रुतविहीन हो जाएगा। अतः श्रमण संघाटक नेपाल पहुँचे। करबद्ध होकर श्रमणों ने भद्रबाहु स्वामी जी से प्रार्थना की संघ का निवेदन है कि महावीर पाट परम्परा 29 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप वहाँ (पाटलीपुत्र) पधार कर मुनियों को दृष्टिवाद की ज्ञान राशि से लाभान्वित करें। आचार्य भद्रबाहु निरपेक्ष स्वर में बोले - "श्रमणों! मेरा आयुष्काल कम रह गया है। इतने कम समय में दृष्टिवाद सूत्र की वाचना देने में मैं असमर्थ हूँ। मैं समग्र भाव से अब केवल आत्म साधना को ही समर्पित हूँ।" भद्रबाहु स्वामी जी के इस निराशाजनक उत्तर से श्रमण दुःखी हो गए। किंतु श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी जी की सत्यनिष्ठा पर उन्हें कोई संदेह नहीं था। युक्तिपूर्वक उन्होंने भद्रबाहु स्वामी से पुनः प्रश्न किया- “संघ की प्रार्थना (आज्ञा) अस्वीकृत करने का क्या दंड (प्रायश्चित) आता है?" आचार्य भद्रबाहु के द्वारा यथार्थ निरूपण होगा, यह सबको विश्वास था और यही हुआ आचार्यश्री ने फरमाया - वह व्यक्ति संघ से बहिष्कृत करने योग्य है। श्रुतकेवली आचार्य प्रवर इस अकीर्तिकर प्रवृत्ति से संभल गए। उन्होंने सभी को सन्तोष देते हुए कहा कि मैं महाप्राणध्यान साधना में प्रवृत्त हूँ। संघ से निवेदन है कि मेधावी साधुओं को यहाँ भेजा जाए। मैं उन्हें प्रतिदिन 7 वाचनाएं देने का प्रयत्न करूँगा। इस प्रकार सुनकर श्रमण प्रसन्न हुए। संघ की आज्ञा पाकर अत्यंत मेहनती एवं मेधावी 500 साधु भगवन्त नेपाल में आचार्य भद्रबाहु के पास पहुँचे। आचार्यश्री जी प्रतिदिन 7 वाचनाएं प्रदान करते थे। एक वाचना भिक्षाचर्या (गोचरी) से आते समय, 3 वाचनाएं विकाल बेला में और 3 वाचनाएं प्रतिक्रमण के बाद रात्रिकाल में। किंतु दृष्टिवाद का अध्ययन बहुत कठिन था। वाचना प्रदान का क्रम भी बहुत मन्दगति से चल रहा था। मेधावी मुनियों का धैर्य डोल उठा। एक-एक करके 499 शिक्षाशील मुनि वाचना क्रम को छोड़कर चले गए। केवल 1 मुनि स्थूलिभद्र ही वहाँ बचे। वास्तव में वे उचित पात्र थे। सीखने का उनका धैर्य, परिश्रम एवं मेधा कुछ भिन्न ही थी। आठ वर्षों में उन्होंने 8 पूर्वो का अध्ययन कर लिया था। महाप्राणध्यान - साधना पूर्ण होने तक आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी मुनि स्थूलिभद्र को 2 वस्तु कम 10 पूर्वो का ज्ञान प्रदान किया। तत्पश्चात् वे दोनों विहार करके पाटलिपुत्र पहुँचे। वहाँ स्थूलिभद्र स्वामी जी ने उन्हें अपना सुयोग्य पट्टधर घोषित किया। __ आचार्य सम्भूतविजय जी ने अपनी शिष्य संपदा से एवं आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी ने अपनी श्रुत संपदा से जिनशासन की भूरि-भूरि प्रभावना की। महावीर पाट परम्परा 30 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य रचना : आचार्य भद्रबाहु के शासनकाल में जब 12 वर्षीय भयंकर दुष्काल से भारत के विविध प्रान्त ग्रस्त थे, तब कुछ वर्ष आचार्य श्री जी ससंघ बंगाल के सन्निकट समुद्री किनारों पर या तटवर्ती बस्तियों में विचरण करते थे। इसी प्रदेश में उन्होंने संभवतः छेद सूत्रों की रचना की एवं तत्पश्चात् वे अकेले महाप्राणध्यान साधना हेतु नेपाल चले गए थे। आगमों में छेद सूत्रों का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। छेद नामक एक प्रायश्चित्त के आधार पर संभवतः इन सभी को छेद सूत्र कहा जाता है। आचार शुद्धि के लिए विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित सम्बन्धी विधि-विधानों का उल्लेख इसमें है। छेद सूत्रों की संख्या 6 है, जिसमें से 4-5 आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी द्वारा रचित माने जाते हैं1) दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदशा) : इसमें 10 दशाएं (अध्ययन) हैं। इसमें मूलतः मुनि भगवन्त की आचार संहिता का वर्णन हैप्रथम अध्ययन : 20 असमाधि स्थान द्वितीय अध्ययन: 21 शबल दोष तृतीय अध्ययन : 33 आशातना चतुर्थ अध्ययन : 8 गणी संपदा पंचम अध्ययन : 10 चित्त समाधि षष्ठम अध्ययन : 11 उपासक प्रतिमा सप्तम अध्ययन : 12 भिक्षु प्रतिमा अष्टम अध्ययन : पर्युषणा कल्प नवम अध्ययन : 30 मोहनीय स्थान दशम अध्ययन : विभिन्न निदान कर्म इत्यादि का सविस्तृत वर्णन है। कल्पसूत्र : वर्तमान समय में शास्त्रों में कल्पसूत्र का उल्लेखनीय महत्त्व है। इस ग्रंथ का भी श्रेय आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी को जाता है। उन्होंने दीर्घदर्शिता के आधार पर नवमें प्रत्याख्यान-प्रवाद पूर्व में से यह उद्धृत किया एवं दशाश्रुत स्कंध आगम के आठवें अध्ययन-पज्जोषणा में सम्मिलित किया। कालक्रम से यह स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। मूल कल्पसूत्र 1215 गाथा होने से यह बारसा सूत्र के नाम से भी प्रचलित है एवं इसमें साधु-साध्वी जी के 10 कल्प, तीर्थंकर चरितावली एवं स्थविरावली का सविशेष उल्लेख है। जैन धर्म के प्रमुख पर्व-पर्युषण में प्रत्येक जगह कल्पसूत्र का वांचन किया जाता है। महावीर पाट परम्परा 31 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2) बृहत्कल्प सूत्र : आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी की इस गद्यात्मक रचना के 6 उद्देशक हैं। साध्वाचार की मर्यादाओं का नाम कल्प है, एवं इस लघुकाय ग्रंथ में बृहत् रूप से श्रमण-श्रमणियों के मासकल्प, वस्त्र, रजोहरण, दीक्षा की योग्यता, कुछ प्रायश्चित, आहार आदि विधि-विधानों का वर्णन है। इसमें 473 गाथायें हैं। व्यवहार सूत्र : इसमें 10 उद्देशक एवं लगभग 300 सूत्र हैं। यह भी गद्यात्मक शैली में निबद्ध हैं। साधु-साध्वी जी के पारस्परिक व्यवहार की अनेक शिक्षाओं को उजागर करने वाला यह सूत्र साधु-साध्वी जी के लिए विशेष उपयोगी है। आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तिनी की योग्यता व महत्ता तथा उपकरण, व्यवहार, वैयावृत्य, आदि विविध विषयों का ज्ञान है। निशीथ सूत्र : निशीथ शब्द का अर्थ है अप्रकाश, गोपनीय। दोष विशुद्धि के प्रायश्चित्त विषयक बातें सबके समक्ष गोपनीय होने से इसका नाम निशीथ है एवं इसके अध्ययन के लिए अति-विशेष योग्यता चाहिए होती है। इसके 20 उद्देश्यों की लगभग 1500 गाथाओं में गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरु चातुर्मासिक, लघु चातुर्मासिक - प्रायश्चित्त का वर्णन है। 5) पंचकल्प सूत्र : 1133 गाथाओं में निबद्ध इस आगम में भी साधु-साध्वी जी के जीवनोपयोगी कल्प (आचार) का सुन्दर वर्णन है। कहीं-कहीं इसके स्थान पर जीतकल्प सूत्र बताया है। अनेकों विद्वानों के अनुसार, इस समय तक अनेकों आगमों की रचना गीतार्थों ने की थी। जिस प्रकार दशवैकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव ने की थी, उसी प्रकार अन्य आगम ग्रंथ भी रचे गए थे। आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी ने उनकी विवेचना के लिए, अर्थों को और अधि क स्पष्ट करने के लिए 'नियुक्ति' साहित्य रचा। उन्होंने विविध नियुक्ति ग्रंथ रचे- आवश्यक नियुक्ति - दशवैकालिक नियुक्ति । - उत्तराध्ययन नियुक्ति आचारांग नियुक्ति - सूत्रकृतांग नियुक्ति - दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति . बृहद्कल्प नियुक्ति . व्यवहार नियुक्ति - सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति - ऋषिभाषित नियुक्ति - पिंड-नियुक्ति - ओघनियुक्ति पर्युषणाकल्प नियुक्ति - संसक्त नियुक्ति आदि महावीर पाट परम्परा 32 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहशान्ति स्तोत्र भी आचार्य भद्रबाहु की रचना मानी जाती है। संघ-व्यवस्था : आचार्य सम्भूतविजय जी का विशाल शिष्य परिवार था। श्री कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार उनके प्रमुख 12 स्थविर शिष्य इस प्रकार थे 1. नन्दनभद्र 2. उपनंदनभद्र 3. तिष्यभद्र 4. यशोभद्र 5. सुमणिभद्र 6. मणिभद्र 7. पुण्यभद्र 8. स्थूलिभद्र 9. ऋजुमति 10. जंबू 11. दीर्घभद्र 12. पाण्डुभद्र उनका श्रमणी समुदाय भी अत्यंत विशाल था। स्थूलिभद्र जी की सातों बहनों ने भी इनके करकमलों से दीक्षा ली थी। यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा - ये सभी श्रमणीवर्ग को आलोकित करती थीं। आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी के प्रमुख 4 शिष्य थे - स्थविर गोदास, स्थविर अग्निदत्त, यज्ञदत्त एवं सोमदत्त किंतु इनकी शिष्य संपदा विकसित न हो सकी। उस समय भयंकर दुष्काल के समय अनेकों साधु-साध्वी काल कवलित हो गए, तब भद्रबाहु स्वामी जी संघरक्षा हेतु बंगाल चले गए। तदुपरान्त महाप्राण ध्यान की साधना हेतु वे नेपाल पधार गए। संघ की प्रार्थना पर उन्होंने दुष्काल में बचे साधुओं को वाचना देनी प्रारंभ की। स्थूलिभद्र जी के दीक्षा गुरु संभूतविजय जी थे किंतु शिक्षा गुरु भद्रबाहु स्वामी जी रहे। उन दोनों की पाट परम्परा के स्थान के योग्य उत्तराधिकारी के रूप में उन्होंने दायित्व का वहन किया। कालधर्म : __आचार्य संभूतविजय जी ने अपनी ज्ञान-रश्मियों से भव्यजनों का पथ आलोकित करते हुए 90 वर्ष की आयु में अनशनपूर्वक वी.नि. 156 (वि.पू. 314, ई.पू. 371) में कालधर्म को प्राप्त किया। उस समय आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी ने 62 वर्ष की आयु में संघ संचालन का दायित्व संभाला। पाटलीपुत्र नरेश चन्द्रगुप्त मौर्य पर भी आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी का अच्छा प्रभाव रहा। __ जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी वी.नि. 170 (वि.पू.300, ई.पू. 357) में देवलोक को प्राप्त हुए। उन्हीं के साथ अर्थ वाचना की दृष्टि से श्रुतकेवली का विच्छेद हो गया। महावीर पाट परम्परा 33 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. आचार्य श्रीमद् स्थूलिभद्र स्वामी जी कामविजेता-नामविजेता, विस्मित विजित विकार। सप्तम पट्टे स्थूलिभद्र जी, नित् वंदन बारम्बार॥ 84 चौबीसी तक जिनका अमर रहेगा, ऐसे कन्दर्प विजेता एवं दर्प विजेता भगवान महावीर के सातवें पट्टप्रभावक बने। सूत्र की अपेक्षा से वे अंतिम श्रुतकेवली थे। मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमप्रभु। मंगलं स्थूलिभद्राद्या, जैनधर्मोस्तु मंगल। जन्म एवं दीक्षा : मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में नवमें नन्द राजा के महामात्य का नाम शकडाल था। उसकी धर्मपत्नी का नाम लक्ष्मी था। गौतम गौत्रीय ब्राह्मण होने पर भी उनकी जिनधर्म पर पूरी आस्था थी। वी.नि. 116 (ईस्वी पूर्व 411) में उन्होंने सद्गार्हस्थ्य से स्थूलिभद्र जैसे पुत्ररत्न का जन्म हुआ। तत्पश्चात् श्रीयक नामक पुत्र भी हुआ। यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा - ये 7 पुत्रियाँ भी थीं। पूर्वभव के पुण्योदय से यक्षा को एक बार सुनने पर, दूसरी पुत्री को दो बार सुनने पर, इस प्रकार क्रमशः सातवीं पुत्री को सात बार सुनने पर वह ज्यों का त्यों कंठस्थ (याद) हो जाता था। सकल विद्याओं में पारंगत होने के उपरान्त भी मेधासंपन्न युवक स्थूलिभद्र भोग मार्ग से अनभिज्ञ थे। अतः संसार से विरक्त स्थूलिभद्र को कामकला का प्रशिक्षण देने के लिए मंत्री शकडाल ने उसे कोशा गणिका (वेश्या) के पास भेजा। वह अत्यंत रूपसंपन्न एवं चतुर थी। मगध का युवावर्ग उसकी शोभा की कृपा पाने के लिए लालायित रहता था। कामकला से अनभिज्ञ स्थूलिभद्र कोशा के द्वार पर पहुँचकर पुनः घर नहीं लौटा। उसका भावुक मन कोशा के अनुपम रूप पर मुग्ध हो गया। एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष क्या ... 12 वर्षों तक कोशा वेश्या के सौंदर्य भोग में रमण करते स्थूलिभद्र को मानो अब उसके अलावा कुछ सूझता नहीं था। मंत्री महावीर पाट परम्परा 34 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकडाल को स्थूलिभद्र के जीवन से अनुभव मिला। उसने अपने श्रीयक पुत्र को वहाँ भेजने की भूल न की। वह उसे राज्य संचालन का प्रशिक्षण देने हेतु अपने साथ रखता था। ____ राज्य संचालन हमेशा राजनीति का केन्द्र रहा है। कार्यकुशल श्रीयक राजा को अत्यंत प्रिय लगने के कारण वह उनका अंगरक्षक बना दिया गया। राजनीतिवश, शकडाल के कट्टर विरोध कवि वररुचि ने युक्तिबद्ध तरीके से राजा को शकडाल के प्रतिकुल कर दिया। विश्वासघात एवं राजद्रोह के अनर्गल आरोपों से ग्रस्त शकडाल बेवजह राजा के क्रोध व वैर का कारण बन गया। शकडाल एवं उसके परिवार को कभी भी मौत के घाट उतार देने का राजकीय आदेश कभी भी आ सकता था। ऐसे विपत्तिकाल के समय में धर्मनिष्ठ-कर्त्तव्यनिष्ठ एवं दीर्घदर्शी शकडाल को यह अनुभव हो गया कि परिवार की सुरक्षा और यश को निष्कलंक रखने के लिए मेरे जीवन का बलिदान आवश्यक है। उसने अपने पुत्र श्रीयक को बुलाकर कहा - "यह कार्य अब तुम्हें करना होगा। जिस समय मैं राजा के चरणों में नमस्कार हेतु झुकूँ, उस समय निःशंक होकर मेरा प्राणान्त कर देना। इस समय पितृ प्राणों का व्यामोह अदूरदर्शिता का परिणाम होगा।" श्रीयक स्तब्ध रह गया। वह अपने पिता की हत्या करे, इस चिंता में वह व्याकुल हो गया। अनेकों घंटे उनकी चर्चा चलती रही। अंत में राजभय से आतंकित पिता के कठोर आदेश को अन्यमनस्क भाव से स्वीकार करना पड़ा। पिता पुत्र दोनों राजसभा में उपस्थिति हुए। शकडाल मंत्री जैसे ही राजा नंद को प्रणाम करने झुका, श्रीयक ने शस्त्र प्रहार द्वारा पिता शकडाल का सिर धड़ से अलग कर दिया। राजा नंद के विचारों में उथल-पुथल मच गई। श्रीयक की राजपरिवार के प्रति आस्था देखकर नंद के हृदय में शकडाल की राजभक्ति पुनर्जीवित हो उठी। सुदक्ष अमात्य को खोने का राजा को भारी गम हुआ। महामंत्री शकडाल की दैहिक क्रियाएं पूर्ण करने पर राजा ने श्रीयक को मंत्री पद ग्रहण करने को कहा। श्रीयक नम्र होकर बोला - "मेरे पितृतुल्य अग्रज स्थूलिभद्र, जो 12 वर्षों से कोशा गणिका के यहाँ हैं, वे इस दायित्व के योग्य हैं।" राजा नंद का निमंत्रण स्थूलिभद्र के पास पहुँचा। राजाज्ञा प्राप्त स्थूलिभद्र ने 12 वर्ष बाद पहली बार कोशा के प्रासाद से बाहर पैर रखा। अपने पिता की मृत्यु के समाचार से वह द्रवित हो चुका था। अपने पिता की मौत के षड्यंत्र से उसका दिल पसीज गया। विवेकसंपन्न स्थूलिभद्र ने साम्राज्य के व्यामोह में विमूढ़ होकर बिना सोचे-समझे मंत्री पद तुरंत स्वीकार करने की भूल न की। राजा की आज्ञा से अशोक वाटिका में वह चिन्तन-मनन करने लगा। महावीर पाट परम्परा 35 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जैसी हालत पिताजी की हुई, वैसी भी मेरी होगी । परानुशासित व्यक्ति को सुख की अनुभूति नहीं होती। राज्य के काम न ही इस लोक का सुख हैं, न ही परलोक का।" इस प्रकार का सतत् चिन्तन करते-करते स्थूलिभद्र में वैराग्य के बीज प्रस्फुटित हुए। उसने संसार के सब प्रपंचों को छोड़ आत्मकल्याण का निश्चय दृढ़ कर लिया। उन्होंने तत्क्षण ही केशलोच कर एवं रत्नकंबल के फलियों का ओघा (रजोहरण) बनाकर साधु रूप में प्रकट हुए एवं कहा “मैं राग का नहीं, त्याग का उपासक बनना चाहता हूँ ।" यह कहकर वह राजप्रासाद से बाहर निकलकर कोशा वेश्या की नहीं, बल्कि जंगल की ओर चल पड़े। उसके चिंतन में वासना का स्थान पूर्णरूप से वैराग्य ने ले लिया था। जैनाचार्य संभूतविजय जी के चरणों में वह उपस्थित हुआ। आचार्य श्री जी ने उसे मुनिधर्म का उपदेश दिया। फलतः 30 वर्ष की आयु में वी. नि. 146 (वि.पू. 324, ई. पू. 381 ) में आचार्य संभूतविजय जी के पास स्थूलिभद्र ने विधिवत् दीक्षा अंगीकार की । शासन प्रभावना : आचार्य संभूतविजय जी की श्रमण मंडली में स्थूलिभद्र अत्यंत गुणवान् श्रमण थे। उन्होंने आगमों का गंभीर अध्ययन किया तथा मुनिचर्या का प्रशिक्षण लिया। धैर्य, समता आदि गुणों का विकास कर वे संभूतविजय जी के विश्वासपात्र बन गए। एक बार चातुर्मास आने पर स्थूलिभद्र ने गुरुदेव से कोशा वेश्या के घर चातुर्मास की आज्ञा माँगी । स्थूलिभद्र पर अत्यंत विश्वास होने से गुरुदेव ने 'तहत्ति' कहकर आज्ञा प्रदान की। वर्षा ऋतु, 84 आसन चित्रित चित्रशाला, षट् रसयुक्त भोजन, लावण्ययुक्त कोशा वेश्या - ये किसी में भी भोग की वांछा जागृत करने में सक्षम थे, किन्तु मुनि स्थूलभद्र अब तन-मन से भोगी से योगी बन चुके थे। स्थूलभद्र के आगमन से कोशा वेश्या को लगा कि पहले वाले स्थूलभद्र वापिस आ गए, किंतु मुनि स्थूलभद्र ने अपनी मर्यादा बताते हुए चातुर्मास की अनुमति माँगी। कोशा को लगा भले ही अभी ये योगी रूप में आए हैं, किंतु यहाँ रहकर मैं पुनः इन्हें भोगी बना ही दूंगी। चातुर्मास काल में वह चित्रशाला कामस्थल से धर्मस्थल बन गई। कोशा प्रतिदिन बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित होकर उनके समक्ष आती, कामोत्तेजक नृत्य करती, पूर्व भोगों का स्मरण कराती किंतु स्थूलिभद्र अपने व्रतों में हिमालय की तरह अचल थे। ब्रह्मचर्य का तेज उनके ललाट पर चमक रहा था। उनकी संयम साधना की सर्वोत्कृष्ट परीक्षा में वे सफल हो गए। आखिरकार कोशा हार गई। उसके सभी प्रयास विफल हुए। वह एक संयमी महावीर पाट परम्परा 36 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की साधना को भंग करने का प्रयत्न करने के लिए स्वयं को धिक्कारने लगी। जिस तरह जले हुए लोहे पर हथौड़ा मारते हैं, उसी प्रकार स्थूलिभद्र मुनि ने कोशा को इस प्रकार प्रतिबोधित किया, इस प्रकार धर्मोपदेश दिया कि कोशा जैसी वेश्या भी अध्यात्म के मर्म को समझकर व्रतध परिणी श्राविका बनी और विकल्प के साथ जीवनभर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया। इस प्रकार काजल की कोठरी में रहकर भी मुनि स्थूलिभद्र न केवल बेदाग रहे, बल्कि अपनी प्रतिबोध शक्ति से जिनशासन की भूरि-भूरि प्रभावना की। चातुर्मास समाप्त होने के बाद जब वे पुनः संभूतविजय जी के पास लौटे, तब आचार्यश्री 7-8 कदम सामने चलकर आए और 'दुष्कर-दुष्कर क्रिया के साधक' कहकर कामविजेता स्थूलिभद्र का सम्मान किया। समय के प्रवाह में चलते-चलते संभूतविजय जी के देवलोक प्रस्थान एवं दुष्काल आगमन से श्रुतज्ञान की धारा छिन्न-भिन्न हो रही थी, तब दृष्टिवाद (14 पूर्व का ज्ञान) विच्छेद होता जा रहा था। संघ के निवेदन से भद्रबाहु स्वामी जी ने 500 श्रमणों को नेपाल में अत्यंत दुष्कर दृष्टिवाद की वाचना देनी स्वीकार की। एक-एक करके 499 मुनि वाचना को ग्रहण न कर पाने के कारण चले गए। केवल एक स्थूलिभद्र जी ही रहे। आठ वर्षों तक सतत् वाचना लेने के बाद एक दिन स्थूलिभद्र जी ने भद्रबाहु स्वामी जी से पूछा – मैंने 8 वर्षों में कितना अध्ययन किया है और अब कितना शेष है? आचार्य भद्रबाहु ने कहा - मुने! सर्षप मात्र जितना ग्रहण किया है, मेरु जितना अवशिष्ट (शेष) है। दृष्टिवाद के अथाह ज्ञान सागर से अभी तक बिंदु मात्र लिया है।" आर्य स्थूलिभद्र ने निवेदन किया - प्रभो! मैं अगाध ज्ञान की सूचना पाकर हतोत्साहित नहीं हूँ, पर मुझे वाचना अल्पमात्रा में मिल रही है। ऐसे में मेरु जितना ज्ञान कैसे ग्रहण करूँगा?" तब आचार्यश्री ने आश्वासन दिया कि मेरी महाप्राणध्यान साधना सम्पन्नप्रायः है। तत्पश्चात् मैं तुम्हें रात-दिन यथेष्ट समय वाचना के लिए दूंगा। आर्य स्थूलिभद्र नै 10 पूर्वो की वाचना ग्रहण कर ली। तब वे पाटलिपुत्र पधारे। यक्षा आदि (स्थूलिभद्र जी की बहन) साध्वियाँ भद्रबाहु स्वामी जी को वंदनार्थ पधारी उस समय स्थूलिभद्र जी एकांत में ध्यानरत थे। आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी के पास अपने ज्येष्ठ भ्राता मुनि को न देखकर साध्वी जी ने उनसे जिज्ञासा रखी कि हमारे सांसारिक भाई मुनि स्थूलिभद्र कहां हैं? आचार्य श्री ने स्थूलिभद्र के स्थान का निर्देश किया। यक्षा आदि साध्वियाँ वहाँ पहुँची। उन्हें आते देखकर स्थूलिभद्र जी ज्ञान का चमत्कार दिखाने के लिए कुतूहलवश सिंह (शेर) महावीर पाट परम्परा 37 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का रूप बनाकर बैठ गए। वहाँ शेर को देखकर साध्वियाँ डरकर पुनः भद्रबाहु स्वामी जी के पास आकर बोली कि महाराज ! वहाँ सिंह बैठा है। लगता है उसने हमारे भाई का भक्षण कर लिया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने समग्र स्थिति को ज्ञानोपयोग से जाना और कहा कि वहाँ पुनः जाओ । स्थूलभद्र वहीं हैं । साध्वीजी पुनः उसी स्थान पर गई । इस बार वहां सिंह के स्थान पर स्थूलभद्र जी ही थे। बहन साध्वियों ने हर्षातिरेक होकर स्थूलिभद्र जी को वंदन किया। इसी प्रकार अपने विद्या बल से इन्हीं दिनों में स्थूलिभद्र जी ने अपने बचपन किसी ब्राह्मण मित्र को गड़े हुए धन के बारे में बताया। उसके बाद स्थूलभद्र जी श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी जी के पास वाचना लेने आए। आचार्यश्री फरमाया वत्स! ज्ञान का अहं आत्म विकास में बाधक है। तुमने शक्ति का प्रदर्शन कर स्वयं को ज्ञान के लिए अपात्र सिद्ध कर दिया है। अब से तुम वाचना के योग्य नहीं हो। " स्थूलभद्र जी के पैरों तले जमीन खिसक गई। उन्हें अपनी भूल समझ आ गई। उन्होंने बहुत क्षमा माँगी, बहुत रूदन किया किंतु भद्रबाहु स्वामी जी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। तब सकल संघ ने स्थूलभद्र को ही दृष्टिवाद के लिए योग्य जानते हुए आचार्य श्री जी से पुनर्विचार करने हेतु कहा। तब आचार्य भद्रबाहु ने फरमाया मुनि स्थूलभद्र अत्यंत प्रतिभा सम्पन्न हैं । वे कंदर्पविजेता तो थे ही, अब दर्पविजेता भी हो गए। किंतु भविष्य में इनसे मंद सत्त्व साधक होंगे। पात्रता के अभाव में ज्ञानदान ज्ञान की आशातना है। इसी उद्देश्य से मैं स्थूलिभद्र को अंतिम 4 पूर्व केवल मूल से पढ़ाऊंगा, अर्थ नहीं एवं ये 4 पूर्व सूत्ररूप में भी तुम आगे किसी को नहीं देना। इस प्रकार स्थूलिभद्र जी सूत्र की अपेक्षा से 14 पूर्वधर थे, किंतु अर्थ की अपेक्षा से 10 पूर्वधर बने । - इसी काल में आचार्य स्थूलिभद्र जी की बहन साध्वी यक्षा महाविदेह क्षेत्र में विराजित सीमंधर स्वामी जी के मुख से 4 अध्ययन भरत क्षेत्र में लाई थी। श्रीयक मुनि तपस्या नहीं कर पाते थे, लेकिन संवत्सरी के दिन साध्वी यक्षा ने नवकारसी, पोरिसी करा - कराके उनसे उपवास कराया लेकिन उसी दिन श्रीयक मुनि का कालधर्म हो गया। साध्वी यक्षा आत्मग्लानि से भर गई कि उनके कारण ही मुनिश्री की मृत्यु हुई। संघ ने बहुत समझाया कि ऐसा नहीं है। उनका तो आयुष्य पूरा हो गया था। तब साध्वी यक्षा नहीं मानी और श्रमणसंघ से प्रायश्चित मांगा। साध्वी जी ने कहा “यदि तीर्थंकर परमात्मा साक्षात् कहें कि मैं निर्दोष हूं, तभी मेरा हृदय शांत होगा । " संघ ने शासनदेवी की आराधना के लिए महावीर पाट परम्परा 1 38 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काउसग्ग किया। शासनदेवी साध्वी यक्षा को सीमंधर स्वामी जी के पास ले गई। वहां जो प्रभु ने देशना दी थी, साध्वी यक्षा को एक बार सुनते ही याद हो गई। देशना पश्चात् प्रभु ने समाधान करते हुए कहा कि साध्वी यक्षा निर्दोष है। वे पुनः भरत क्षेत्र वापिस आ गए। प्रभु के मुख से सुने हुए - भावना, विमुक्ति, रतिकल्प एवं विविक्तचर्या - ये अध्ययन चूलिका रूप में आचारांग और दशवैकालिक सूत्र में जोड़ दिए गए। इस काल में मौर्यवंश का अत्यधिक विकास हुआ। मौर्यवंश के आद्य मार्गदर्शक अर्थशास्त्र रचयिता महामात्य चाणक्य (कौटिल्य) भी इस युग की बहुचर्चित विभूति थे। उन्होंने भी जिनधर्म के सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया था। कालधर्म : आचार्य भद्रबाहु के बाद वी.नि. 170 में स्थूलिभद्र जी ने आचार्य पद का नेतृत्त्व संभाला एवं 45 वर्षों बाद राजगृह के वैभारगिरि पर्वत पर 15 दिन के अनशन के साथ वी.नि. 215 (वि.पू. 255) में स्वर्गवासी बने। उनके कालधर्म के बाद ही - चार पूर्वो का ज्ञान, महाप्राणध्यान साधना, समचतुरस्त्र संस्थान एवं वज्रऋषभनाराच संहनन का भी विच्छेद हो गया। महावीर पाट परम्परा 39 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. आचार्य श्रीमद् महागिरि स्वामी जी आचार्य श्रीमद् सुहस्ती सूरीश्वर जी मेरुगिरि सम अविचल साधक, महागिरि गुणागार। सम्प्रति बोधक गुरु सुहस्ती, नित् वंदन बारम्बार॥ शासननायक भगवान् महावीर की पाट परम्परा के आठवें क्रम पर आचार्य स्थूलिभद्र स्वामी जी के 2 समर्थ शिष्य - आचार्य महागिरि एवं आचार्य सुहस्ती जी शोभायमान हुए। महागिरि जी जिनकल्प तुल्य तप के कठोर साधक एवं आचार्य सुहस्ति दीर्घदर्शिता एवं जिनशासन प्रभावना की अतुल प्रतिबोधशक्ति के धनी थे। जन्म एवं दीक्षा : आचार्य महागिरि का जन्म एलापत्य गौत्रीय परिवार में वी.नि. 145 (वि.पू.325, ई.पू. 382) में हुआ। आचार्य सुहस्ती का जन्म वशिष्ठ गौत्रीय परिवार में वी.नि. 191 (वि.पू. 325, ई. पू. 336) में हुआ। परिशिष्ट पर्व में फरमाया गया है। आर्य महागिरि एवं आर्य सुहस्ति का बाल्यकाल में पालन आर्या यक्षा साध्वी जी के आश्रय में हुआ। इसी कारण से उनके नाम से पूर्व 'आर्य' विशेषण जुड़ा हुआ है। (लोकश्रुति अनुसार 'आर्य' शब्द की परंपरा यहीं से प्रारंभ हुई। सुधर्म स्वामी, जंबू स्वामी आदि को भी 'आर्य' लिख दिया जाता है।) दोनों ने क्रमशः 30-30 वर्ष की आयु में आचार्य स्थूलिभद्र के कर-कमलों से प्रव्रज्या ग्रहण की। ___ आचार्य महागिरि, आचार्य सुहस्ती से आयु एवं दीक्षा पर्याय में 46 वर्ष बड़े थे। सुहस्ती सूरि जी की दीक्षा के समय स्थूलिभद्र जी अंतावस्था में थे। अतएव उनके गुरुभाई ने उनके गुरु की भाँति उनका पालन किया। शासन प्रभावना : आचार्य स्थूलिभद्र जी ने आचार्य महागिरि को सुयोग्य जानकर 11 अंग एवं 10 पूर्वो का अर्थसहित ज्ञान प्रदान किया। लगभग 40 वर्षों तक महागिरि जी अपने गुरु के साथ रहे। महावीर पाट परम्परा 40 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पद निर्णय के समय श्रुतधर, दीर्घदर्शी आचार्य स्थूलिभद्र जी ने अपने दोनों मेध वी शिष्यों - महागिरि जी एवं सुहस्ती जी को अपना पट्टधर स्थापित किया। दीक्षा क्रम व अनुभव में ज्येष्ठ होने के कारण महागिरि जी का दायित्व प्रथम आया। आचार्य सुहस्ती सुविनीत शिष्य की तरह उनकी आज्ञा का पालन करते थे। किंतु आचार्य महागिरि गूढ आत्मसाधक थे। एक दिन उन्होंने सोचा कि, "मेरे अनेक स्थिरमति शिष्य सूत्रार्थ के ज्ञाता हैं एवं गच्छ को संभालने में सुहस्ती दक्ष (कुशल) हैं। वैसे जिनकल्प विच्छेद हो चुका है किंतु जिनकल्प तुल्य तप आज भी कर्मों का विनाश करने में सक्षम है। अतः इस गुरुतर दायित्व से निवृत्त होकर आत्महित हेतु जिनकल्प तुल्य तप में प्रवृत्त होऊं।" निर्जन वनों में, शमशान वनों में, भयावह उपसर्गों को सहन करते हुए वे स्वतंत्र विचरण करने लगे। वे केवल आहार ग्रहण करने हेतु ही नगरों में आते थे। ' एक दिन आचार्य सुहस्ती सूरि जी पाटलिपुत्र में सेठ वसुभूति के घर पर धर्मोपदेश दे रहे थे। संयोग से आचार्य महागिरि भी वहाँ आहारार्थ (गोचरी के लिए) पधार गए। उन्हें देखते ही सुहस्ती सूरि जी बिना विलंब किए खड़े हो गए। आगे बढ़कर सुहस्ती सूरि जी ने उन्हें विधिवत् वंदन किया। आचार्य महागिरि के लिए सुहस्ती सूरि जी का ऐसा विनय देखकर श्रेष्ठी वसुभूति हैरान रह गया। महागिरि जी के जाने के बाद उसने पूछा कि आपके गुरु तो काल-कवलित हो गए। आप श्रुतसंपन्न हैं। क्या ये भी आपके गुरु हैं? तब सुहस्ती सूरि जी उन्हें गुरु कहकर स्तवना की एवं उनकी अतिदुष्कर साधना का भी वर्णन किया। यह आर्य सुहस्ती के विनय-विवेक का परिचायक है। आचार्य महागिरि के स्वर्गवास पश्चात् श्रमण संघ संचालन एवं धर्म प्रचार के आधिकारिक आचार्य पद का वहन आचार्य सुहस्ती सूरि ने वी.नि. 245 (वि.पू. 225) में संभाला। आचार्य सुहस्ती सूरि जी एक बार अवन्ती में श्रेष्ठी पत्नी भद्रा के स्थान में विराजे। रात्रि के प्रथम प्रहर में 'नलिनीगुल्म' नामक अध्ययन का स्वाध्याय करते-करते भद्रा के पुत्र, 32 पत्नियों के स्वामी अवन्ति-सुकुमाल को वह सुनते-सुनते चिंतन-मनन करते जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अवंति-सुकुमाल बचपन से ही मोम के दान्त समान कोमल एवं सभी प्रसाधनों से युक्त था। किंतु उसके हृदय में अब वैराग्य की भावना का सिंचन हो गया। उसकी रूपवती 32 पत्नियां भी उसे संसार में रोक नहीं सकी। फलतः अवंति सुकुमाल ने दीक्षा ग्रहण की किंतु प्रथम ही दिन नंगे पांवों के कारण, पशु के उपसर्ग के कारण वे काल-कवलित हो गए। उसके सांसारिक महावीर पाट परम्परा 41 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ने पिता की स्मृति में अवन्ति पार्श्वनाथ (महाकाल) की प्रतिमा भराई। संभवतः उसकी प्रतिष्ठा आचार्य सुहस्ती सूरि जी के वरदहस्तों से हुई। ____आचार्य सुहस्ती सूरि जी धर्मधुरा के सफल संवाहक थे। उनके आचार्यकाल में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की सीमा मगध, सौराष्ट्र, अवन्ति, दक्षिण एवं अनार्य क्षेत्रों में भी विस्तृत हुई। इसका प्रमुख कारण सम्राट सम्प्रति मौर्य रहे। सम्राट सम्प्रति एवं जैन धर्म : एक बार आचार्य महागिरि एवं युवाचार्य सुहस्ती विशाल शिष्य परिवार के साथ कौशाम्बी पधारे। स्थान की संकीर्णता के कारण दोनों का शिष्य परिवार भिन्न-भिन्न स्थानों पर ठहरा। उस समय भयंकर सूखा पड़ा हुआ था। जनता दुष्काल से पीड़ित थी। साधारण मनुष्य के लिए पर्याप्त भोजन मिलना कठिन था, किंतु जैन साधुओं के प्रति आस्था व भक्ति के होने से भक्त उन्हें तो पर्याप्त भोजन वोहराते थे। भिक्षा हेतु आचार्य सुहस्ती के शिष्य एक गृहस्थ के घर पहुंचे। उनके पीछे-पीछे एक दीन-हीन दरिद्र भिखारी ने भी उसी घर में प्रवेश किया। गृहस्थ ने साधु को तो पर्याप्त मात्रा में भोजन भक्तिभाव से दिया किंतु उस भिखारी को कुछ भी नहीं दिया। वह भूखा भिक्षुक साधुओं के पीछे हो लिया और उनसे भोजन की याचना करने लगा। साधुओं ने समझाया कि उनका आचार एवं उनके गुरु की ऐसी आज्ञा नहीं है। वह भिक्षुक उनके पीछे-पीछे उपाश्रय पहुँच गया और सुहस्ती सूरि जी को उनका गुरु जानकर उनसे भोजन की याचना करने लगा। आचार्य सुहस्ती ने गंभीर दृष्टि से उसको देखा व ज्ञानोपयोग से जाना कि यह रंक भवान्तर में प्रवचनाधार बनेगा। उन्होंने उससे कहा - जो हमारे जैसा होता है, हम उसे ही दे सकते हैं। मुनि जीवन स्वीकार करने पर ही तुम्हें भोजन दे सकते हैं।" भिक्षुक को भोजन के अभाव से मृत्यु लेने की अपेक्षा कठोर मुनि जीवन बेहतर लगा। आचार्य सुहस्ती ने उसे दीक्षा प्रदान की। क्षुधा से पीड़ित भिक्षुक को मानों कई दिनों-हफ्तों के बाद पर्याप्त भोजन मिला। अतः आहार की मर्यादा का विवेक न रहा। अधिक भोजन कर लेने से नवदीक्षित मुनि को पेट का भयंकर दर्द हो उठा, संपूर्ण शरीर वेदना से कराह उठा। कल तक जो उन्हें गाली देकर भगा देते थे, वे सेठ आज उनके चरणों की सेवा कर रहे हैं। यह सब साधुवेश की महिमा एवं गुरु के उपकार की अनुमोदना करते-करते दीक्षा दिन की प्रथम रात्रि में ही वह नवदीक्षित मुनि कालधर्म को प्राप्त कर गया। महावीर पाट परम्परा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह भिक्षुक कालधर्म को प्राप्त कर सुप्रसिद्ध मगध नरेश अशोक मौर्य का पौत्र तथा अवन्ति नरेश कुणाल एवं उसकी पत्नी शरत्श्री के पुत्र 'संप्रति' राजकुमार के रूप में जन्म लिया। जब वह राजकुमार 15-16 साल का हुआ, तब आचार्य सुहस्ती सूरि जी का पदार्पण उस उज्जयिनी में हुआ। वे जीवित स्वामी की प्रतिमा की रथयात्रा के साथ भव्य शोभा यात्रा में चलते हुए राजमार्ग से निकले। उस समय युवराज संप्रति राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ था। उसने श्रमणवृंद से परिवृत्त आचार्य सुहस्ती को जब बार-बार गौर से देखा, तब उसके मन में ऐसा भाव आया कि ऐसे परमोपकारी गुरुदेव को कहीं देखा है। ऊहापोह करते-करते राजा संप्रति को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। राजा संप्रति ने अपने पूर्वभव को जाना। इससे जिनधर्म के सिद्धांतों एवं आचार्य सुहस्ती जैसे सद्गुरु पर उन्हें अत्यंत गौरव एवं आलाद हुआ। वे भागकर नीचे उतरकर आए। आचार्य सुहस्ती को वंदन किया और विनम्र मुद्रा में पूछा - गुरुदेव! आप मुझे पहचानते हैं?. परमज्ञानी आचार्य सुहस्ती ने अपने ज्ञान के उपयोग से देखकर संप्रति महाराजा एवं उनका सम्बन्ध जाना और विस्तारपूर्वक बताया। संप्रति मौर्य ने प्रणत होकर निवेदन किया - "गुरुदेव! आपने मुझे पूर्वभव में संयमदान देकर आत्मा का उद्धार किया। एक दिन की दीक्षा के प्रभाव से तीन खंडों का राज्य मुझे प्राप्त हुआ। इस जन्म में भी मैं आपको गुरु रूप में स्वीकार करता हूँ। मुझे अपना धर्मपुत्र मानकर शिक्षा से अनुग्रहित करें एवं मेरे भवोभव के कल्याण हेतु विशिष्ट कर्तव्यों को सूचित करें।" आचार्य सुहस्ती सूरि जी ने फरमाया कि तुम्हें यह सब पुण्यप्रताप धर्म के कारण मिला है, अतः इससे धर्म की प्रभावना करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। आचार्यश्री के उपदेश से संप्रति महाराज ने सम्यक्त्व युक्त श्रावक के 12 व्रत अंगीकार किए। सम्राट संप्रति ने जिनशासन की महती प्रभावना की- सवा लाख नए जिनमंदिर, सवा करोड़ जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, छत्तीस हजार जीर्णोद्धार, 95 हजार पीतल की प्रतिमाएं, 700 दानशालाएं संप्रति महाराजा ने अपने 53 वर्षों के शासन में धरती को जिनमंदिरों से आच्छादित कर दिया था, यही नहीं गीतार्थ गुरु सुहस्ती की आज्ञा से अपने सुभटों को साधु वेश पहनाकर अनार्य देश भेजकर लोगों में जैन साधु के विषय में, आहार, कल्प आदि का सम्यक्ज्ञान कराकर अनार्य क्षेत्रों को भी साधु-साध्वी जी के विहार के योग्य बनाया। चीन, बर्मा, सिलोन, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान आदि दूर-दूर तक संप्रति महाराज ने जिनधर्म फैलाया। मथुरा के कंकाली टीले में आज भी उस समय के शिलालेख, प्रशस्तियाँ विद्यमान हैं। जिनशासन की महावीर पाट परम्परा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमूल्य प्रभावना करने वाले संप्रति महाराज को शास्त्रों में 'परमार्हत्' के विशेषण से संबोधित किया है। संघ व्यवस्था : आचार्य महागिरि के 8 शिष्य प्रमुख थे - उत्तर, बलिस्सह, धनाढ्य, श्री आढ्य, कौडिन्य, नाग, नागमित्र एवं रोहगुप्त। इनके अंतिम शिष्य रोहगुप्त के जिनवाणी विरुद्ध प्ररूपणा करने से उसे निन्हव घोषित किया गया एवं उससे त्रैराशिक मत का उद्भव हुआ। __ आचार्य सुहस्ती के प्रमुख शिष्य 12 थे - आर्य रोहण, यशोभद्र, मेघगणी, कामर्द्धि गणी, सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध, रक्षित, रोहगुप्त, ऋषिगुप्त, श्रीगुप्त, ब्रह्मगणी, सोमगणी। आचार्य सुहस्ती ने हमेशा महागिरि जी के निर्णयों को गुर्वाज्ञा माना। इसी कारण संघ में सदैव एकता रही। किंतु दुष्काल के समय में अनेकों बार साधु-साध्वी जी की भिक्षा का लाभ राजद्रव्य से होता था। महागिरि जी जिनकल्प तुल्य साधक थे। अतएव उनके लिए यह पूर्णतः अयोग्य था। किंतु सुहस्ती सूरि जी ने इसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव एवं राजद्रव्य की सर्वव्यापकता को अपवाद स्वरूप स्वीकार कर लिया था। अतः शिथिलाचार एवं सदोष आहार की आशंका से आचार्य महागिरि ने आचार्य सुहस्ती से अपना सांभोगिक (भोजन आदि का व्यवहार) सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था, किंतु सुहस्ती सूरि जी की विनयपूर्ण क्षमापणा के कारण ऐसा प्रतिबंध हटा लिया। ऐसा कथानक कतिपय ग्रंथों में मिलता है। कालधर्म : ___ 30 वर्ष गृहस्थावस्था , 40 वर्ष मुनि अवस्था, 30 वर्ष आचार्य अवस्था इस प्रकार शतायुधनी आचार्य महागिरि का कालधर्म मालव प्रदेश के गजाग्रपद (गजेन्द्रपुर) में वी.नि. 245 (वि.पू. 225) में हुआ। तत्पश्चात् 46 वर्ष तक युगप्रधान आचार्य पद को अलंकृत करने के बाद शतायु धनी आचार्य सुहस्ती का कालधर्म उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) वी.नि. 291 (ई. पू. 236) में हुआ। इनके पाट पर आचार्य सुस्थित व आचार्य सुप्रतिबुद्ध हुए। - ..... --- महावीर पाट परम्परा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. आचार्य श्रीमद् सुस्थित सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् सुप्रतिबुद्ध सूरीश्वर जी --- ..... --- भ्रातृदय साधक श्री सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध दुर्वार। कोटिक गच्छ के आद्य प्रवर्तक, नित् वन्दन बारम्बार॥ चरमतीर्थपति भगवान् श्री महावीर स्वामी जी की नौंवी पाट पर आचार्यबंधु द्वय सुस्थित सूरि जी एवं सुप्रतिबुद्ध सूरि जी विराजमान हुए। इन दोनों की निश्रा में हुई आगम वाचना ऐतिहासिक रही एवं अब तक प्रभु वीर का श्रमण संघ अब कोटिक गच्छ कहलाया जाने लगा। जन्म एवं दीक्षा : ___ आर्य सुस्थित एवं सुप्रतिबुद्ध - ये दोनों सहोदर (सगे) भाई थे। इनका जन्म व्याघ्रापात्य गौत्रीय राजकुल में, काकंदी नगरी में हुआ था। आचार्य सुस्थित का जन्म वी.नि. 243 (वि.सं. 227, ई.पू. 284) में हुआ। 31 वर्षों तक गृहस्थ अवस्था में रहकर वे श्रुतसंपन्न आचार्य सुहस्ती के शिष्य बने। सुप्रतिबुद्ध.भी उनके गुरुभाई बने। शासन प्रभावना : आचार्य सुहस्ती सूरि जी की छत्रछाया में दोनों का उत्तरोत्तर विकास हुआ एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के क्षेत्रों में दोनों की अविचारणीय अभिवृद्धि हुई। वी.नि. 291 में आचार्य सुहस्ती सूरि जी के स्वर्गवास पश्चात् उनके गण का दायित्व आचार्य सुस्थित ने संभाला। पद ग्रहण के समय उनकी अवस्था 48 वर्ष की थी। गच्छ के प्रमुख संचालक संभवतः आचार्य सुस्थित थे किन्तु उनके सांसारिक बंधु एवं गुरुबंधु आचार्य सुप्रतिबुद्ध उनके अनन्य सहयोगी थे। वे दोनों अत्यंत विशिष्ट ज्ञान के धनी थे। तीर्थंकर दृष्ट द्रव्यों के करोड़वे अंश को प्रत्यक्ष देखने में समर्थ थे। ___ वीर निर्वाण संवत् 190 के आसपास पाटलीपुत्र (पटना) में आचार्य श्री स्थूलिभद्र सूरि जी की अध्यक्षता में पहली आगमवाचना हुई थी। किंतु कालक्रम से मुनियों के पठन-पाठन की अव्यवस्था होने से अब दूसरी वाचना की आवश्यकता प्रतीत हुई। पटना में बौद्धों का आधिपत्य महावीर पाट परम्परा 45 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबल हो जाने से साधु-साध्वी जी कलिंग देश की तरफ आ गए। कलिंग देश के राजा महामेघवाहन भिक्षुराज खारवेल के नेतृत्त्व में भुवनेश्वर के निकट कुमारगिरि पर्वत पर ऐतिहासिक श्रमण सम्मेलन एवं आगम वाचना का महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ । आचार्य सुस्थित, आचार्य सुप्रतिबुद्ध, श्यामाचार्य आदि 300 स्थविरकल्पी साधु, आर्य बलिस्सह, देवाचार्य आ. धर्मसेन आदि 200 मुनि आ. महागिरि की परम्परा के जिनकल्प की तुलना करने वाले साधु, भिक्षुराज, सीवंद, चूर्णक, सेलक आदि 700 श्रावक एवं महारानी पूर्णमित्रा आदि 700 श्राविकाओं की उपस्थिति में वह ऐतिहासिक श्रमण सम्मेलन हुआ । वाचनाचार्य आर्य बलिस्सह ने इस अवसर पर विद्याप्रवाद पूर्व के आधार पर ' अंगविद्या' आदि शास्त्रों की रचना की । जिनधर्मोपासक सम्राट खारवेल ने जिनशासन की महती प्रभावना की । मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने श्रावक के 12 व्रत स्वीकारे । प्रभु भक्ति निमित्ते उन्होंने 38 लाख चांदी की मोहरें खर्च कर महाविजयी नाम का भव्य जिनप्रासाद बनवाया था । श्रमणभक्ति निमित्ते उन्होंने अपने राज्य 117 गुफाएं बनवाई ताकि साधु-साध्वी जी को अनुकूलता रहे। वी. नि. 327 के आस-पास उसी के सद्प्रयासों से कुमारगिरि पर श्रमणसम्मेलन आयोजित हुआ। इस अवसर पर द्वादशांगी के विस्मृत पाठों को व्यवस्थित किया गया। कुमारगिरि पर्वत कलिंग देश का शत्रुंजय- अवतार कहा जाता था। राजा श्रेणिक के समकालीन राजा सुलोचन राय (शोभन राय) ने इस पर्वत पर पंचम गणधर आचार्य सुधर्म स्वामी जी के हाथों से ऋषभदेव जी की सुवर्ण प्रतिमा की भव्य अंजनश्लाका प्रतिष्ठा कराई थी। उसी स्थान पर आचार्य सुस्थित सूरि जी एवं आचार्य सुप्रतिबुद्ध सूरि जी ने कठिन तपस्यापूर्वक एक करोड़ बार सूरिमंत्र का ऐतिहासिक जाप किया। इस उच्चतम साधना के फलस्वरूप प्रभु वीर का साधु-समुदाय निर्ग्रन्थ गच्छ के बजाए कोटिक गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जैन इतिहास में वंकचूल की कहानी अति - प्रसिद्ध है। कई इतिहासकार उस प्रकरण को किन्हीं आचार्य चन्द्रयश सूरीश्वर जी अथवा आचार्य ज्ञानतुंग सूरीश्वर जी से जोड़ते हैं किंतु प्रबंध कोश ग्रंथ में वह प्रसंग प्रस्तुत आचार्य सुस्थित सूरि जी से जोड़ा गया है जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है राजा विमलयश एवं रानी सुमंगला के पुत्र का नाम पुष्पचूल था और पुत्री का नाम पुष्पचूला था। बाल्यकाल से ही पुष्पचूल का चंचल मन अनर्थक कार्यों में रहता था जिसके कारण उसे कचूल कहा जाने लगा । एक दिन राजा ने क्रोधित होकर वंकचूल को राजमहल से निकाल दिया। महावीर पाट परम्परा 46 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंकचूल चोरी-डकैती इत्यादि करके अपना जीवन यापन करता था। जंगल में भीलों ने उस राजपुत्र वकचूल को पल्लीपति बना लिया। एक बार वर्षा काल से पूर्व आचार्य सुस्थित सूरि जी का उस जंगल में आगमन हुआ। उन्होंने चातुर्मास काल व्यतीत करने हेतु वंकचूल से थोड़ी जगह का आग्रह किया। वंकचूल ने सत्य उद्घाटित किया कि वह चोर है इत्यादि किंतु सुस्थित सूरि जी उससे विचलित नहीं हुए। चातुर्मास के चार महीनों में आचार्यश्री जी के सम्यक् चारित्र की सुवास से पूरी पल्ली महक उठी। वकचूल का समर्पण भी आचार्य सुस्थित सूरि जी के प्रति बढ़ता गया । यद्यपि उसकी धर्मपालन में कुछ भी रुचि नहीं थी, लेकिन उसे बस गुरु से आकर्षण - सा हो गया था। जब चातुर्मास समाप्त हुआ और आचार्यश्री के विहार की वेला आई तब उनके उपदेशामृत से प्रभावित होकर वंकचूल ने बस 4 नियम ग्रहण किए (1) अज्ञात-अनजाना फल नहीं खाना। (2) किसी पर प्रहार / आघात करने से पहले 7-8 कदम पीछे हटना । (3) रानी को माता के समान मानना । (4) कौए के माँस का भक्षण नहीं करना । इन चारों नियमों के प्रभाव से समय-समय पर वंकचूल की रक्षा हुई एवं बुरा होने से टल गया। वह सदैव आ. सुस्थित सूरिजी का कृतज्ञ रहा। आचार्य सुस्थित के शिष्य - ऋषिदत्त (धर्मऋषि) एवं अर्हद्दत्त ( धर्मदत्त ) ने भी वंकचूल को एक बार सदुपदेश दिया जिसके प्रभाव से उसने चम्बल घाटी के पास एक जिनमंदिर का निर्माण कराया और भगवान् महावीर स्वामी जी की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई। वह स्थल ढींपुरी के नाम से प्रख्यात हुआ किंतु कालक्रम से वह विलुप्त हो गया। संघ व्यवस्था : आचार्य सुस्थित एवं आचार्य सुप्रतिबुद्ध के अन्तेवासी 5 शिष्य प्रमुख थे - आचार्य इन्द्रदिन्न, आचार्य प्रियग्रन्थ, विद्याधर गोपाल, आचार्य ऋषिदत्त एवं आचार्य अर्हदत्त । इनके पट्टधर समर्थ दीर्घजीवी आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी बने । इस समय में संघ की सुविशालता के कारण गणाचार्य की भाँति वाचनाचार्य एवं युगप्रधानाचार्य की परम्परा भी सुदृढ़ रूप से विकसित हुई। आचार्य महावीर पाट परम्परा 47 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महागिरि की परम्परा के जिनकल्पतुल्य साधना करने वाले श्रमण भी अच्छी संख्या में थे। साधु-साध्वी जी के लिए स्वाध्याय - योग एवं जपयोग की विशेष प्रधानता उस समय रहती थी। योग्य पात्रों को ही पूर्वो का गूढ़ ज्ञान दिया जाता था। कालधर्म : 68 वर्षों के संयम पर्याय में 48 वर्षों तक श्रमण संघ का नेतृत्त्व करते हुए 96 वर्षों की आयु को पूर्ण कर वी. नि. 339 आचार्य सुस्थित सूरि जी कलिंग के कुमारगिरि पर्वत पर स्वर्गवासी बने । इस पर्वत को आज खण्डगिरि पर्वत अथवा उदयगिरि पर्वत के नाम से जाना जाता है एवं उस समय के अनेकानेक शिलालेख वहाँ उपलब्ध होते हैं। आचार्य सुप्रतिबुद्ध भी संभवत: उसी क्षेत्र में स्वर्गवासी बने । महावीर पाट परम्परा 48 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. आचार्य श्रीमद् इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी देव - देवेन्द्र - नरेन्द्र पूजित, सूरि इन्द्रदिन्न आधार । जिनशासन के महाप्रभावक, नित् वन्दन बारम्बार ॥ भगवान महावीर के निर्वाण की चौथी शताब्दी में हुए आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी जिनशासन के महान् प्रभावक आचार्य एवं वीर परम्परा के 10वें पट्टधर हुए। आचार्य सुस्थित - आचार्य सुप्रतिबुद्ध के स्वर्गगमन पश्चात् वी. नि. 339 में कौशिक गौत्रीय आर्य इन्द्रदिन्न गणाचार्य/पट्टाचार्य नियुक्त किए गए। . विशेषत: गुजरात के मोढेरा प्रदेश में उन्होंने धर्म की महती प्रभावना की एवं अनेकों भव्य जनों को दीक्षा प्रदान की । इनके गुरु भाई आचार्य प्रियग्रंथ सूरि मंत्र विद्या के विशिष्ट ज्ञाता थे। चित्तौड़ के सन्निकट हर्षपुर नगर में उनके द्वारा मन्त्रित वासक्षेप के दिव्य प्रभाव से न केवल बकरों की बलि रुक गई बल्कि ब्राह्मण समाज भी जिनधर्म के प्रभाव से चमत्कृत रह गया। इन्द्रदिन्न सूरि जी के पाट पर आचार्य आर्यदिन्न सूरि जी आसीन हुए। श्यामाचार्य जैसे शासनप्रभावक विद्वान् आचार्य भी आ. भी इन्द्रदिन्न सूरि जी समकालीन हुए । समकालीन प्रभावक आचार्य ● श्री श्यामाचार्य (कालकाचार्य) : वाचनाचार्य श्याम (जिन्हें कालकाचार्य प्रथम भी कहते हैं) का जन्म वी.नि. 280 (वि.पू. 190, ई.पू. 247) एवं दीक्षा वी. नि. 300 (वि.पू. 170) में हुए । महावीर पाट परम्परा 49 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार महाविदेह क्षेत्र में सीमंधर स्वामी जी से सूक्ष्म निगोद की सरल व संक्लिष्ट व्याख्या सौधर्मेन्द्र ने सुनी। उसने प्रश्न किया - "भगवन्! क्या भरत क्षेत्र में निगोद सम्बन्धी ऐसी ही व्याख्या करने वाले कोई गुरुदेव हैं?" सीमंधर स्वामी जी ने केवलज्ञान के आलोक में देखते हुए आचार्य श्याम (कालक) का नामोल्लेख किया। सौधर्मेन्द्र वृद्ध ब्राह्मण के रूप में श्यामाचार्य के पास आया। हस्तरेखा के आधार पर उन्होंने जान लिया कि इस जीव की आयुष्य पल्योपम प्रमाण है। अतः यह वृद्ध साधारण नहीं। उन्होंने कहा - तुम मानव नहीं, देव हो। इन्द्र सन्तोषपूर्वक अपने स्वरूप में प्रकट हुआ एवं निगोद का स्वरूप पूछा। जैसा विवेचन सीमंधर स्वामी जी ने किया था, वैसा ही सांगोपांग विवेचन श्यामाचार्य जी ने किया। इन्द्र अभिभूत हो गया एवं रहस्य उद्घाटित किया कि सीमंधर स्वामी से उनका परिचय सुनकर ही उनके ज्ञान की विशालता जानने ही वह वहाँ आया। श्यामाचार्य ने भावपूर्वक श्री सीमंधर स्वामी को वंदन किया। इन्द्र आगमन की घटना सभी के लिए जिनवाणी में आस्थाशील बनाए, इस उद्देश्य से अपने आने के सांकेतिक चिन्ह स्वरूप इन्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्व से पश्चिमाभिमुख कर दिया। उनके शिष्य गोचरी करके लौटे, तब उपाश्रय का दार उल्टी दिशा में देखकर तथा गुरुमुख से संपूर्ण वृत्तांत सुनकर विस्मयाभिभूत हो गए। वे एक गीतार्थ आचार्य थे। आचार्य श्याम (कालक) ने चौथे उपांग आगम श्री प्रज्ञापना (पन्नवणा) सूत्र जैसे विशालकाय तत्त्वज्ञान कोष की रचना कर हम सभी पर बहुत उपकार किया। जीव एवं अजीव तत्त्वों की बहुत सुन्दर विवेचना इस आगम सूत्र में की गई है। इसमें 36 प्रकरण हैं। यह समवायांगे सूत्र (अंग आगम) का उपांग माना जाता है। यह आगम द्रव्यानुयोग का हिस्सा है। ___अपनी ज्ञान निधि से जिनशासन को आलोकित करते-करते आचार्य श्याम (कालक) 96 वर्ष 1 मास में 1 दिन कम आयु भोगकर वी.नि. 376 (ईस्वी पूर्व 151) में स्वर्गवासी हुए। --- ..... --- महावीर पाट परम्परा 50 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. आचार्य श्रीमद् दिन्न सूरीश्वर जी परम तपस्वी, परम मनस्वी, वीर पट्ट अग्यार। दिन्न सूरि जी आत्मसाधक, नित् वंदन बारम्बार॥ शासननायक भगवान् महावीर स्वामी की 11वीं पाट पर आचार्य दिन्न सूरि जी सुशोभित हुए। वे वीर निर्वाण की पाँचवी शताब्दी के अग्रगण्य विद्वान थे। इनका सांसारिक गौत्र गौतम था। . आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी के मोढेरा देश में पदार्पण से शासन प्रभावना की नई गतिविधियाँ सम्पन्न हुई। उसी का विस्तार इनके शासनकाल में हुआ। दक्षिण के कर्नाटक क्षेत्र में भी इनकी धर्मस्पर्शना हुई जिससे न केवल विविध प्रतिष्ठा प्रसंग हुए बल्कि अनेकों ने सर्वविरति एवं देशविरति व्रत अंगीकार किए। उस समय की परंपरा अनुसार कोई भी साधु-साध्वी जी कालधर्म प्राप्त करते थे, तो अन्य मुनि उनके पार्थिव देह को जंगल या किसी भी निर्जन स्थान पर लाकर परठ देते थे। परिणामस्वरूप, वह शरीर जानवरों के काम आता था। इस प्रकार की प्रवृत्ति संघ में गतिमान थी। आचार्य दिन्न सूरीश्वर जी के समय में चंदेरी नगर में एक साधु कालधर्म को प्राप्त कर गए। अन्य साधुओं ने उनके देह को वोसिरा दिया किंतु पीछे गृहस्थ श्रावकों ने उस पार्थिव देह का अग्नि संस्कार किया। तब से आचार्य दिन्न सूरि जी की मौन स्वीकृति से इस प्रकार की प्रथा का आरंभ हुआ। यह अग्निदान की प्रथा आज पर्यन्त चालू है। ___ वे अत्यंत त्यागी और तपस्वी थे। प्रतिदिन नीवि का पच्चक्खाण उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। उपधि में मात्र कुल 14 उपकरण ही वे रखते थे। उनके 2 शिष्य प्रमुख थे - 1. आर्य शान्तिश्रेणिक (शान्तिसेन)-इनसे उच्चनागरी शाखा का उद्भव हुआ। तत्त्वार्थसूत्र रचयिता आचार्य उमास्वाति भी इसी परम्परा के थे; 2. आर्य सिंहगिरि-वे जातिस्मरण ज्ञान के धारक थे एवं दिन्न सूरि जी के पट्टधर बने। महावीर पाट परम्परा 51 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समकालीन प्रभावक आचार्य . श्री कालकाचार्य (द्वितीय): धारानगरी के राजा वीरसिंह एवं रानी सुरसुन्दरी के पुत्र राजकुमार कालक हुए। उनकी बहन का नाम सरस्वती था। दोनों भाई-बहन गुणाकर मुनि के सदुपदेश से उद्बोधित हुए एवं दीक्षा ग्रहण की। अल्प समय में ही वे शास्त्रों के पारगामी बन गए। मंत्र शास्त्र की शक्ति उनमें विशिष्ट थी। उनकी योग्यता को देखते हुए वीर नि. 453 में वे आचार्य पद से विभूषित किए गए। प्रतिष्ठानपुर में अन्य- धर्मियों से उन्होंने निमित्तविद्या व मंत्रविद्या का उसी वर्ष अभ्यास किया था। ___ उज्जयिनी नगरी का राजा गर्दभिल्ल उनकी बहन साध्वी सरस्वती श्री के रूप सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया था। अतः उसने साध्वीश्री का जबरन अपहरण करवा लिया। संरक्षक के इस भक्षक-सम कृत्य से कालकाचार्य उत्तेजित हो गए। उन्होंने उसे समझाने का प्रयत्न किया किंतु मोहारूढ़, अन्यायी, अधम राजा अपने अहंकार में रहा। साध्वी सरस्वती की शील सुरक्षा एवं जिनशासन पर आए ऐसे संकट से कालकाचार्य का क्षत्रिय-तेज उद्दीप्त हो गया एवं जिनप्रवचन के अहित साधक राजा गर्दभिल्ल को राजसिंहासन से हटाने की कठोर प्रतिज्ञा उन्होंने ली। कालकाचार्य जी सिंध प्रदेश से शकों को विद्या से प्रभावित कर उन्हें भारत लाए एवं योजनाबद्ध तरीके से राजा गर्दभिल्ल को परास्त कराया। आचार्य कालक ने श्रीसंघ की साक्षी से साध्वी सरस्वती को पुनः दीक्षित किया एवं स्वयं भी इसका प्रायश्चित्त ग्रहण किया। पश्चिम में ईरान, दक्षिण पूर्व में जावा, सुमात्रा आदि सुदूर क्षेत्रों तक पदयात्रा कर कालकाचार्य जी ने धर्म का सर्वत्र उद्योत कर जिनशासन की महती प्रभावना की। इतिहासकारों के अनुसार, शकों ने उज्जयिनी पर शासन स्थापित कर लिया था, किंतु गर्दभिल्ल राजा के पुत्र विक्रमादित्य ने बड़े होकर मालव देश के सहयोगियों के साथ मिलकर पुनः शकों को हरा दिया और राज्य सत्ता प्राप्त की। यह घटना वीर निर्वाण संवत् 470 में हुई। तभी से विक्रम राजा के नाम पर विक्रम संवत् प्रारंभ हुआ। वीर संवत् और विक्रम संवत में 470 वर्ष का ही अंतर रहता है। महावीर पाट परम्परा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. आचार्य श्रीमद् सिंहगिरि सूरीश्वर जी मतिज्ञान-श्रुतज्ञान धनी, सुगुरु पदवी धार। निर्भीक निडर सिंहगिरि सूरि, नित् वंदन बारम्बार॥ जातिस्मरण ज्ञान के धनी, सिंह समान जिनवाणी की गर्जना करने वाले आचार्य सिंहगिरि भगवान् महावीर स्वामी जी की जाज्वल्यमान पाट परम्परा के 12वें पट्टालंकार हुए। इनका सांसारिक गौत्र कौशिक था तथा वे एक विद्वान जैनाचार्य थे। इनके चार प्रमुख शिष्यरत्न थे1. स्थविर आर्य समित - वे आचार्य वज्रस्वामी के सांसारिक मामा थे। इनके संयम के अतिशय से प्रभावित होकर ब्रह्मद्वीप के तापसों ने इनके पास दीक्षा ग्रहण की। अतः वीर निर्वाण संवत् 584 में इनके शिष्य परिवार की ब्रह्मदीपिका शाखा प्रसिद्ध हुई। 2. स्थविर आर्य धनगिरि - वे आचार्य वज्रस्वामी के सांसारिक पिता थे। अपनी सगर्भा पत्नी को छोड़कर उन्होंने संयम पथ का वरण किया एवं आचार्य सिंहगिरि एवं अपने पुत्र के गुरु-शिष्य सम्बन्ध में निमित्त बने। ___ 3. स्थविर आर्य वज्रस्वामी - वे आचार्य सिंहगिरि के पट्टधर बने। 4. स्थविर आर्य अर्हद्दत्त ___आचार्य सिंहगिरि सूरि जी समर्थ ज्ञानी थे। उन्हें शकुन विज्ञान एवं सामुद्रिक शास्त्र का भी परिपूर्ण ज्ञान था। एक बार जब वे तुंबवन पधारे, तब मुनि समित और मुनि धनगिरि ने भिक्षाटन हेतु आज्ञा मांगी। उस क्षण उन्हें पक्षी का विशेष कलरव (आवाज) सुनाई दिया जिसका उपयोग देते हुए उन्होंने मुनियों को आज्ञा दी कि आज जो भी अचित्त (जीव रहित) या सचित्त (जीव सहित) पदार्थ मिले, वो ले जाना। दोनों मुनियों ने 'तहत्ति' कहकर स्वीकार किया। यह उसी का परिणाम हुआ कि वज्रस्वामी जैसे समर्थ महापुरुष जिनशासन को प्राप्त हुए। सिंहगिरि सूरि जी को बालमुनि वज्र से विशेष अनुराग था। बालमुनि की वाचना शक्ति देखकर उन्होंने समूचे साधु समुदाय की वाचना का दायित्व उन्हें सौंप दिया था। कहा जाता है कि आचार्य सिंहगिरि सूरि जी के समय में ईसाई मत (Christianity) महावीर पाट परम्परा 53 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आदि प्रवर्तक ईसामसीह भारतवर्ष आए थे। उन्होंने जैन धर्म का अध्ययन किया था एवं जैनधर्म की खूबियों को अपने मत में सम्मिलित किया। आचार्य सिंहगिरि सूरि जी जिनशासन की महती प्रभावना कर वी. 547 में कालधर्म को प्राप्त हुए। समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य पादलिप्त सूरि जी : ___ इनका जन्म अयोध्या नगरी में हुआ था। इनके पिता का नाम फुल्लचंद्र और माता का नाम प्रतिमा था। संग्रामसिंह सूरि जी इनके दीक्षादाता, नागहस्ती सूरि जी इनके दीक्षा गुरु एवं मण्डन सूरि जी इनके शिक्षा गुरु थे। इनका प्रथम नाम मुनि नागेन्द्र था किंतु अपने गुरु नागहस्ती से पादलेप-विद्या ग्रहण की, जिसके प्रभाव से पैरों में औषधियों का लेप लगाकर गगन में विचरण करने की असाधारण क्षमता के धनी हो गए एवं फलस्वरूप 'पादलिप्त' के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके पास मंत्र और तंत्र की विशिष्ट चामत्कारिक शक्तियाँ थीं। उनके मूत्र से पत्थर भी सोना बन सके ऐसी शक्तियाँ उनमें थी। 8 वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर, 10 वर्ष की आयु में वे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए जो उनकी प्रखर योग्यता का सूचक है। मंत्र-विद्या का प्रयोग कर पादलिप्त सूरि जी ने पाटण के राजा मुरुण्ड को, मानखेट के राजा कृष्ण को. ओंकारपुर के राजा भीम को, प्रतिष्ठानपुर के राजा शातवाहन आदि को प्रभावित कर धर्मप्रचार में उन्हें सहयोगी बनाया। उनकी कवित्व शक्ति भी अनुपम थी। वे अपने युग के विश्रुत विद्वान थे। दस हजार पद्ययुक्त गंभीर कृति - तरंगवती कथा, दीक्षा एवं प्रतिष्ठा विषयक कृति निर्वाणकलिका तथा ज्योतिष विषयक कृति - प्रश्नप्रकाश आदि ग्रंथ उनकी अमूल्य देन है। ___पादलिप्त सूरि जी ने शत्रुजय पर महावीर स्वामी जी की प्रतिमा प्रतिष्ठित की। प्रभु प्रतिमा के समक्ष उन्होंने 2 पद्यों में प्रभु स्तुति की। उन पद्यों में सुवर्ण सिद्धि व गगनगामिनी विद्या का संकेत थे, जो आज भी गुप्त ही हैं। योगविद्यासिद्ध आचार्य पादलिप्त सूरि जी 32 दिनों के अनशन से शत्रुजय गिरिराज पर स्वर्ग सिधारे। उनका समय वीर निर्वाण की छठी-सातवीं शताब्दी रहा। उनके गृहस्थ शिष्य नागार्जुन ने गुरुभक्ति निमित्ते पादलिप्तसूरि जी के नाम पर शजय तीर्थ की तलहटी पर 'पादलिप्तपुर' नामक नगर बसाया जो बाद में 'पालीताणा' कहलाया जाने लगा। महावीर पाट परम्परा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. अंतिम 10 पूर्वधर आचार्य श्री वज्रस्वामी जी विलक्षण वाग्मी वज्रस्वामी जी, धन्य चारित्राचार । संघरक्षक जिनशासनसेवक, नित् वंदन बारम्बार ॥ उत्सर्ग - अपवाद ज्ञानपूर्वक विशिष्ट शक्तियों से जिनशासन के संरक्षण व संवर्धन का दायित्व अति- कुशलतापूर्वक तरीके से निभाकर आचार्य पद के दायित्व द्वारा संघ का योग-क्षेम करने वाले आचार्य वज्रस्वामी भगवान् महावीर के 13वें पट्टप्रभावक बने । पूर्वकृत पुण्योदय से शैशवकाल से ही उनका हृदय विरक्ति से परिपूर्ण रहा। जन्म एवं दीक्षा : अवन्ति प्रदेश में तुम्बवन नामक नगर में 'धन' नामक व्यक्ति का वैश्य परिवार रहता था। उसके पुत्र का नाम धनगिरि था । धर्नागिरि का मन बाल्यकाल से ही वैराग्यमयी था । धनगिरि के मित्र समित ने जैनाचार्य सिंहगिरि के सन्निकट दीक्षा ग्रहण की हुई थी। धनगिरि की इच्छा भी उनके पास संयम ग्रहण करने की थी किन्तु भोगावली कर्मों के कारण माता-पिता के आग्रह के कारण उसकी इच्छा न होते हुए भी समित की सांसारिक बहन सुनंदा के साथ विवाह हो गया। सांसारिक भोगों को संतोषपूर्वक भोगते हुए वी. नि. 496 (वि. सं. 26, ईस्वी पूर्व 31 ) में सुनन्दा गर्भवती हुई। गर्भसूचक शुभ स्वप्न से दोनों को दृढ़ विश्वास हो गया कि उन्हें अत्यंत सौभाग्यशाली पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। इसे अपने दायित्व की परिपूर्ति समझकर धनगिरि ने संयम मार्ग पर अग्रसर होने की आज्ञा सुनन्दा से माँगी । पुनः पुनः विनती करने पर विवश होकर सुनन्दा ने आज्ञा प्रदान की । स्वीकृति मिलते ही धनगिरि दीक्षित हो गए और श्रेष्ठी आर्य समित आदि सहवर्ती मुनियों एवं गुरु के मार्गदर्शन में मुनि धनगिरि संयम जीवन का उत्तरोत्तर विकास करते रहे। इधर गर्भकाल सम्पन्न होने पर सुनन्दा ने एक तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया । पुत्र के जन्मोत्सव पर नारी समूह में आलाप - संलाप - वार्तालाप होने लगे। किसी ने सहसा कहा - "यदि इस बालक के पिता धनगिरि दीक्षित न हुए होते तो और भी उल्लास होता । " इस प्रकार की बातें सुनकर महावीर पाट परम्परा 55 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षयोपशम से नवजात शिशु के मन में ऊहापोह प्रारंभ हुआ। वह बार-बार उस 'दीक्षा' शब्द का चिन्तन करता रहा, जिसके कारण उसको 'जातिस्मरण ज्ञान' की प्राप्ति हुई। उसने देखा कि गौतमस्वामी जी द्वारा अष्टापद पर्वत पर प्रतिबोध पाकर कंडरिक - पुंडरिक के अध्ययन को रोज स्वाध्याय करने वाले वैश्रमण देव का जीव ही वह है । उसकी चिंतन धारा आगे बढ़ी । " पुण्य भाग पिता ने संयम ग्रहण कर लिया है, मेरे लिए भी अब यही मार्ग श्रेष्ठ है। इस उत्तम पथ की स्वीकृति में माँ की ममता बाधक बन सकती है।" बालक ने सोचा कि जब तक मेरी मां का मुझपर मोह है, तब तक मेरी दीक्षा का मार्ग प्रशस्त नही हो सकता । अतः ममता के बंधन को तोड़ने के लिए बालक ने रूदन प्रारंभ किया। वह निरंतर रोता रहता । सुनंदा की लोरियां, खिलौने, स्तनपान, औषधि, मंत्र कुछ भी उसे चुप नहीं करा पाता था। 6-6 महीने तक वह बालक रोता रहा । सुनंदा बालक के निरन्तर रोने से दुःखी हो गई । 6 महीने बाद एकदा तुंबवन में सिंहगिरि सूरि जी पधारे। उन्हें पक्षियों का कलरव सुनाई दिया । शकुन विज्ञान के आधार पर उन्होंने मुनि धनगिरि व समित को कहा कि आज जो अचित्त सचित्त मिले, ले आना। मुनि धनगिरि का पदार्पण अपने ही घर में हुआ। बालक रूदन से तंग आ चुकी सुनंदा ने उन्हें पिता के दायित्व का उपालंभ देते हुए वह 6 माह का बालक अपने भाई मुनि समित व सखियों की साक्षी में बालक को मुनिराज के पात्र में वोहरा दिया। मुनि धनगिरि के पास आते ही बालक चुप हो गया। पात्र भारी होने से मुनि का कंधा झुक गया। वे पुनः उपाश्रय आए । आचार्य सिंहगिरि के मुख से सहसा निकल गया ये वज्र जैसा क्या लाए हो? पात्र में बालक का सौम्य वदन, तेजस्वी भाल एवं चमकते नेत्रों से आचार्य सिंहगिरि को आभास हो गया कि यह बालक भविष्य में जैन जगत् का सूर्य बनेगा । वह बालक 'वज्र' के नाम से जाना जाने लगा। साध्वियों के उपाश्रय में शय्यातर महिला को शिशु संरक्षण का दायित्व संभलाकर आचार्य सिंहगिरि ने वहाँ से विहार कर दिया । झूले में झूलते बालक वज्र का अधिकांश समय साध्वी वृंद के पास में बीतता । बालक वज्र पदानुसारिणी लब्धि का धारक था, जिसके प्रभाव से साध्वियों के स्वाध्याय के ध्यानपूर्वक सुनने मात्र से बालक वज्र को 11 अंगों का पूर्णज्ञान हो गया। जैसे-जैसे साध्वी जी सूत्रों का उच्चारण करते, बालक वज्र भी उसका वैसे ही स्मरण कर लेता । अब प्रसन्नवदन पुत्र को देख माँ सुनन्दा की ममता जाग उठी। जब बालक वज्र 3 वर्ष का हो गया, तब आचार्य सिंहगिरि का दोबारा तुम्बवन में आगमन हुआ। सुनन्दा ने अपने पुत्र महावीर पाट परम्परा 56 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की उनसे माँग की। सभी साधु-साध्वी जी भगवंतों ने सुनन्दा को समझाया कि जिस प्रकार गुरु को आहार, वस्त्र आदि वोहराने के बाद पुन: वापिस नहीं लिए जा सकते, उसी प्रकार पुत्र पर अब गुरु का ही अधिकार है। निरूपाय सुनन्दा राजा के पास पहुँची एवं न्याय माँगा। आचार्य सिंहगिरि को भी श्रमण परिवार सहित राजदरबार बुलाया गया। सारा वृत्तान्त राजा को सुनाया गया। राजा ने अंत में आज्ञा दी कि बालक स्वेच्छा से जिसको चाहेगा, वह उसी का होगा। एक ओर खिलौने और मिठाई से पुत्र को माँ आकर्षित करती रही, किंतु बालक वज्र उदासीन भाव से मौन बैठा रहा। तब पिता मुनि धनगिरि ने रजोहरण (ओघा) वज्र के सामने रखा। वज्र उछलते-उछलते आकर वह रजोहरण ग्रहण करता है और खुशी से नाच उठता है। न्याय मुनि धनगिरि को मिला। जिनशासन की जय-जयकार से राजसभा गूंज उठी। सुनन्दा ने आत्मचिंतन कर सोचा कि मेरे भाई और पति दीक्षित हैं । पुत्र भी दीक्षा के लिए संकल्पबद्ध है। अतः मुझे भी आत्मकल्याण हेतु इस पथ का अनुसरण करना चाहिए। यह सोचकर सुनन्दा ने भी आचार्य सिंहगिरि के पास दीक्षा ग्रहण की। बालक वज्र का पालन-पोषण श्राविकाएं करती रहीं। बालक वज्र जब 8 वर्ष का हो गया, तब वी. नि. 504 (वि.सं. 34 ) में आचार्य सिंहगिरि ने उसे दीक्षा प्रदान की एवं वज्र मुनि को अपना शिष्य घोषित किया। शासन प्रभावना : बालमुनि वज्र विनयं - विवेक और उपशम के गुणों से युक्त थे। सुविनीत मुनि वज्र ने गुरु के सन्निकट रहकर श्रुतज्ञान का गंभीर अध्ययन किया। उनकी प्रखर योग्यता के कारण वे गुरु के भी प्रिय पात्र बन गए । पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाने में भी वे कुशल बन रहे थे। एक बार एकान्त में उपकरणों को ही श्रमण मानकर वे उत्सुकतावश वाचना प्रदान करने लगे। आचार्य सिंहगिरि जब लौटे, तो मात्रा - बिंदु सहित शुद्ध शब्द एवं सरस- सरल शैली सुनकर उन्हें अत्यंत हर्ष हुआ। ज्ञानसंपन्न बालमुनि वज्र को उन्होंने अन्य साधुओं को वाचना प्रदान करने के लिए नियुक्त किया। सभी मुनि गुरु के इस निर्णय से अचंभित हो गए किंतु बाद में उन्हें इसका औचित्य पता लगा। एक बार बालमुनि वज्र के विवेक की परीक्षा लेने, उनके पूर्वभव के मित्र जृंभक देव ने कुतूहलवश उनके सामने अकल्प्य आहार प्रस्तुत किया। लेकिन वज्र मुनि जी अखंड संयम के धनी थे। अकल्प्य भोजन को उन्होंने स्पर्श तक नहीं किया। बालमुनि के आचार कौशल से देव अत्यंत प्रसन्न हुआ एवं वज्रमुनि को वैक्रिय विद्या एवं गगनगामिनी विद्या प्रदान की। गुरु ने भी बालमुनि को इसके योग्य जाना। महावीर पाट परम्परा 57 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवन्ति में विराजित दशपूर्वधर आचार्य भद्रगुप्त से तपोयोगपूर्वक मुनि वज्र ने 10 पूर्वो की सुविशाल ज्ञानराशि को गंभीरतापूर्वक अति अल्प समय में ग्रहण किया। वी.नि. 548 (वि.सं. 78, ईस्वी सन् 21) में वे आचार्य पद से विभूषित किए गए। वे 500 श्रमणों के साथ विचरण करते थे। ___ आचार्य वज्रस्वामी का बाह्य रूप एवं आंतरिक रूप दोनों ही उत्तम कोटि के थे। पाटलिपुत्र के धन सेठ की पुत्री रूक्मिणी आचार्यश्री के रूप पर मोहित हो गई। उसने ठान ली कि मैं वज्रस्वामी के साथ विवाह करूँगी अन्यथा अग्निदाह (आत्महत्या) कर लूंगी। आचार्य वज्रस्वामी तो बाल ब्रह्मचारी, अखंड शील के स्वामी थे। रूक्मिणी (धन सेठ की पुत्री) के सब अनुनय-विनय व्यर्थ ही गए क्योंकि आचार्य श्री अपने ब्रह्मचर्य व्रत में अडिग-अडोल-अटल थे। आचार्य वज्रस्वामी ने अपनी आत्मस्पर्शी वाणी में रूक्मिणी को समझाया कि संयम रूपी धन की तुलना में ये विषय भोग तुच्छ हैं। यदि तुम मेरे में अनुरक्त हो, तो अनुरक्ति की दिशा मेरे द्वारा स्वीकृत ज्ञान, दर्शन युक्त चरित्र मार्ग में मोड़ो तथा अनुसरण करो। सहज सुमधुर उपदेशधारा से रूक्मिणी के अन्तर्नयन खुल गए। उसने वज्रस्वामी से दीक्षा ग्रहण की तथा श्रमणी समुदाय में सम्मिलित होकर आत्म कल्याण किया। श्री आचारांग सूत्र के महापरिज्ञा अध्ययन से वज्रस्वामी जी ने गगनगामिनी विद्या को उद्धृत किया। इसके प्रभाव से जंबूद्वीप के मानुषोत्तर पर्वत तक निर्बाध गति से आकाश मार्ग से जाने की क्षमता आ जाती है। वज्रस्वामी के जीवनकाल में 2 बार दुष्काल की स्थिति बनी। प्रथम 12 वर्षीय दुष्काल के समय उनका पर्दापण पूर्व से उत्तरापथ की ओर हुआ। भर्यकर सूखे से त्राहि-त्राहि मच गई। तब संघ के आग्रह से वज्रस्वामी जी ने अपनी आकाशगामिनी विद्या के प्रयोग से संघ को उत्तर भारत से महापुरी (जगन्नाथपुरी) ले आए। यहाँ सुकाल की स्थिति थी एवं सभी जैन वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। वहाँ के जिनमंदिरों की भी आचार्यश्री ने अच्छी व्यवस्था कराई। महापुरी के बौद्ध धर्मानुयायी राजा ने पर्युषण पर्व में अनेक बाधाएं पहुँचाने का प्रयत्न किया किंतु वज्रस्वामी के विद्या प्रयोग से सब निरस्त हो गई। प्रजा सहित राजा भी वज्रस्वामी जी का भक्त बन गया। __वी.स. 578 (वि.सं. 108) के सन्निकट जावड़शाह ने शत्रुजय गिरिराज पर नया जिनप्रासाद निर्मित कराया। वज्रस्वामी जी जब शत्रुजय पधारे तक 21 दिन तक एक देव ने खूब उपद्रव किया था, लेकिन आचार्यश्री के विद्याबल से वह निरस्त हो गया। जावड़शाह ने शत्रुजय पर्वत महावीर पाट परम्परा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दूध और शत्रुजय नदी के जल से धुलवाया। आचार्य श्री वज्रस्वामी जी के करकमलों से तक्षशिला से आई भगवान् ऋषभदेव स्वामी जी की जिनप्रतिमा की अंजनश्लाका-प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। दस पूर्वो की विशाल ज्ञानराशि के वे अंतिम संरक्षक थे। महानिशीथ सूत्र के तृतीय अध्ययन में प्राप्त उल्लेखानुसार पंचमंगल-महाश्रुतस्कंध (नमस्कार महामंत्र) को स्वतंत्र ग्रंथ के बजाए मूल सूत्रों के साथ नियोजित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया। कालधर्म : वि.सं. 110 (ईस्वी सन् 53) में 12 वर्षीय दुष्काल का पुनः प्रकोप हुआ। आचार्य वज्रस्वामी को यह दुष्काल पिछले वाले से भयावह प्रतीत हुआ। अब उन्हें अपनी आयुष्य की अल्पता एवं शारीरिक क्षीणता का अनुमान हो चुका था। वि.सं. 114 में दुष्काल अपनी चरम सीमा पर था। प्रासुक आहार की उपलब्धि अत्यंत कठिन हो गई थी। वज्रस्वामी ने आपातकालीन स्थिति में भूख की शांति के लिए लब्धि पिण्ड (लब्धि द्वारा निर्मित भोज्य सामग्री) ग्रहण करने का या अनशन स्वीकार करने का विचार अपने सभी साधुओं के सामने रखा। संयमनिष्ठ श्रमणों ने कहा - "भगवन्! दोष सहित आहार हमें किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं है। अब हम अनशनपूर्वक चारित्र धर्म की ही आराधना करेंगे।" मुनियों का दृढ़ आत्मबल देख वज्रस्वामी जी प्रसन्न हुए। गण सुरक्षा हेतु स्वयं से दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ आचार्य वज्रसेन सूरि को गणाचार्य नियुक्त कर 500 योग्य श्रमणों के साथ कुंकुण देश में विचरण करने का आदेश दिया। ___ वे स्वयं अन्तावस्था जानकर अनशन करने के इच्छुक थे उनका विशाल श्रमण समुदाय भी उनके पथ का अनुसरण करना चाहता था। ___मुनिमण्डल में सबसे छोटा एक बालमुनि था। वज्रस्वामी जी उसकी बाल्यावस्था के कारण उसे अनशन में साथ नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने कहा - "वत्स! अनशन का मार्ग बहुत कठिन है। तुम बालक हो। तुम यहीं नगर में रूक जाओ।" लेकिन बालमुनि रूकने को तैयार नही हुआ। अनशन की कठोरता से वह विचलित नहीं हुआ। वज्रस्वामी जी ने किसी काम के बहाने से बालमुनि को शहर में भेजा और स्वयं ससंघ वहां से विहार कर गए। एक पर्वत के शिखर पर पहुंचकर वज्रस्वामी जी एवं 500 श्रमणों ने यावज्जीवन अनशन स्वीकार किया। उधर, जब वह बालमुनि कार्य करके उपाश्रय वापिस लौटा, तो उसे एक भी साधु दिखाई नहीं दिया। वह दु:खी हुआ और चिंतन करने लगा - "क्या महावीर पाट परम्परा 59 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं इतना निर्बल हूँ जो इस पंडित मरण में गुरुदेव ने अपने साथ मुझे नहीं लिया?" प्रभु और गुरु को स्मरण करता हुआ वह वहां से चलकर वज्रस्वामी जिस पर्वतमाला पर अनशन कर रहे थे, उसी पर्वत की तलहटी में पत्थर की शिला पर अनशन ग्रहण कर खड़े हो गए। गर्मी के ताप से बालमुनि का कोमल शरीर झुलसने लगा। वह शैक्ष मुनि उन सबसे पहले स्वर्ग का अधिकारी बना। बालमुनि की उच्चतम साधना के प्रभाव से देवतागण महोत्सव हेतु आए। देवागमन देखकर वज्रस्वामी जी ने ज्ञानबल से बालमुनि के देवलोकगमन का समाचार सभी श्रमणों को दिया। सभी श्रमणों ने बालमुनि के संयम को वन्दन किया। वज्रस्वामी जी भी 500 श्रमणों सहित शीघ्र ही समाधिकरण कर कालधर्म को प्राप्त हुए। उनके संयम के प्रभाव से देवलोक से इन्द्र भी आया और रथ में बैठे इन्द्र ने उस पर्वत की प्रदक्षिणा दी। उस पर्वत का नाम 'रथावर्त पर्वत' हो गया। अपने जीवनकाल में उन्होंने आचार्य आर्यरक्षित को साढ़े नौ पूर्वो का ज्ञान दिया। अतः आचार्य वज्रस्वामी जी का कालधर्म होते ही 1) दसवें पूर्व की ज्ञान संपदा, 2) चौथा अर्धनाराच शारीरिक संहनन एवं 3) चौथा संस्थान - इन 3 वस्तुओं को विच्छेद हो गया। गगनगामिनी विद्या वज्रस्वामी के पास थी, किंतु भविष्य में कोई भी गलत उपयोग न करे, इसलिए उन्होंने यह विद्या किसी को नहीं दी। • समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य सिद्धसेन सूरि जी : उज्जयिनी निवासी ब्राह्मण देवर्षि और देवश्री के पुत्र विद्वान सिद्धसेन को अपने पांडित्य का खूब अभिमान था। जैनाचार्य वृद्धवादी सूरि जी शास्त्रार्थ व वाद-विवाद में अत्यंत कुशल थे। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार सिद्धसेन उन्हीं का शिष्यत्व ग्रहण करता, जिससे वह परास्त हो। वृद्धवादी सूरि जी ने गोपालकों की साक्षी में अकाट्य तर्को से उसे परास्त किया एवं उसे दीक्षा प्रदान कर नाम कुमुदचन्द्र मुनि रखा। वे कुशाग्र बुद्धि के धनी एवं आशु कवि थे। आचार्य पद पर आरूढ़ होने के बाद वे आचार्य सिद्धसेन सूरि के नाम से विश्रुत हुए। चित्रकूट (चित्तौड़) में भंडार में से सैन्य सर्जन विद्या व स्वर्ण सिद्धि विद्या उन्हें प्राप्त महावीर पाट परम्परा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो गई थी। अवन्तिनरेश सम्राट विक्रमादित्य आदि 18 राजा उनके परम भक्त बने। राजा देवपाल ने उन्हें 'दिवाकर' का बिरुद प्रदान किया। राज सुविद्याओं के आकर्षण से सिद्धसेन दिवाकर जी के जीवन में शिथिलता आने लगी। सचित्त जल, अनेषणीय आहार, हाथी पर बैठना आदि वृत्तियां उनके जीवन में प्रवेश कर गए। उनके अपयश की इस गाथा से दूर देश में बैठे गुरु वृद्धवादी को दुःख हुआ। आचार्य वृद्धवादी ने युक्तिपूर्वक सिद्धसेन सूरि जी के अभिमान को खंडित किया एवं प्रायश्चितपूर्वक धर्म में स्थिर किया। सन्मतितर्क, न्यायावतार, 32 द्वात्रिंशिकाएं आदि ग्रंथों की उन्होंने रचना की। उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में रूद्रलिंग का स्फोटन कर पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा का प्रकटन, उनके द्वारा रचित महाप्रभावक कल्याणमंदिर स्तोत्र से संभव हुआ। आचार्य आर्यरक्षित सूरि जी : मध्यप्रदेश अन्तर्गत मालव में दशपुर (मंदसौर) में इनका जन्म हुआ। माँ रूद्रसोमा की भावना को साकार करने हेतु उन्होंने दृष्टिवाद के अध्ययन हेतु आचार्य तोषलिपुत्र के पास दीक्षा ग्रहण की। वि.सं. 74 में 22 वर्ष की युवावस्था में वे दीक्षित हुए। आगमों के तलस्पर्शी अध्ययन के बाद आचार्य भद्रगुप्त सूरि जी एवं आचार्य वज्रस्वामी जी से 9.5 पूर्वो का अर्थसहित अध्ययन किया। आर्यरक्षित सूरि जी स्वस्थ परम्परा के पोषक थे। उन्होंने चातुर्मास की स्थिति में 2 पात्र रखने की प्रवृत्ति स्वीकार कर नई परम्परा को जन्म दिया। ___ उनके शासनकाल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य अनुयोग व्यवस्था का हुआ। पहले आगमों का अध्ययन सभी नय एवं सभी अनुयोगों के साथ होता था। यह एक जटिल व्यवस्था थी। अस्थिरमति शिष्यों का धैर्य डोल जाता था। आचार्य आर्यरक्षित सूरि जी को अपने विंध्य मुनि जैसे प्रखर शिष्यों को हो रही विस्मृति के निमित्त से अनुयोग व्यवस्था का विचार आया। अतः आगम वाचना को सरल बनाने हेतु क्रम के 4 अनुयोगों में विभक्त किया गया - चरण करणानुयोग (श्रमणधर्म, संयम, गुप्ति, समिति प्रधान आचारांग आदि), धर्मकथानुयोग (धर्मकथा प्रधान उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा आदि), गणितानुयोग (गणित प्रधान सूर्यप्रज्ञप्ति आदि) एवं द्रव्यानुयोग (द्रव्य, पर्याय प्रधान दृष्टिवाद आदि)। उनका कालधर्म वी.नि. 597 (वि.सं. 127) में हुआ। महावीर पाट परम्परा 61 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. आचार्य श्रीमद् वज्रसेन सूरीश्वर जी विवेकसिंधु विनयविभूति, प्रकटे कुलदीपक चार । दीर्घायुधनी वज्रसेन जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ युगप्रधान आचार्य वज्रसेन सूरि जी ने अपने 128 वर्ष के सुदीर्घ जीवनकाल में शासन की महती प्रभावना की । भगवान् महावीर की परम्परा में 14वें पाट पर वे सुशोभित हुए तथा श्रमण संघ के 4 कुल - नागेन्द्र, निवृत्ति, चंद्र एवं विद्याधर इन्हीं के प्रमुख शिष्यों के द्वारा उद्भव में आए। उत्तर भारत उनका प्रमुख विचरण क्षेत्र रहा। जन्म एवं दीक्षा : इनका जन्म कौशिक ( भारद्वाज) गौत्रीय परिवार में वि. सं. 22 ( ईस्वी पूर्व 35 ) में हुआ । उम्र का एक दशक भी पूर्ण नहीं हो पाया कि वे त्याग के कलिश - कठोर पथ पर अग्रसर होने को उत्सुक हुए। पूर्ण वैराग्य के साथ 9 वर्ष की आयु में वि. सं. 31 (ई.पू. 26) में उन्होंने मुनि जीवन में प्रवेश किया। इनके दीक्षागुरु संभवतः गणाचार्य सिंहगिरि सूरि जी थे। आयु एवं संयम पर्याय में वे वज्रस्वामी से बड़े थे किंतु उनके कालोपरान्त ही उन्होंने संघ का दायित्व संभाला। शासन प्रभावना : आगम आदि साहित्य का गंभीर अध्ययन कर मुनि वज्रसेन जैन दर्शन के विशिष्ट ज्ञाता बने । वीर निर्वाण की छठी शताब्दी का उत्तरार्ध भीषण संकट का समय था । वज्रसेन जी ने अपने जीवनकाल में 2 भयंकर बारह वर्षीय दुष्काल देखे। एक 12 वर्षीय दुष्काल वज्रस्वामी के आचार्य काल में पड़ा तथा दूसरा वज्रसेन सूरि जी के समय में पड़ा । वि.सं. 110 ( ईस्वी सन् 53 ) में दूसरा दुष्काल प्रारंभ हुआ। आचार्य वज्रस्वामी तब वृद्धावस्था में थे। वि.सं. 114 में वज्रस्वामी ने वज्रसेन जी को गणाचार्य पद पर नियुक्त कर कुंकुण देश में विचरण करने का आदेश दिया। वज्रस्वामी जी ने आचार्य वज्रसेन सूरि जी को कहा कि जिस दिन 1 लाख मुद्रा मूल्य के शालि पाक की उपलब्धि होगी, वही दुष्काल का समाप्ति दिन होगा। वज्रसेन सूरि जी को गण की महावीर पाट परम्परा 62 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुज्ञा सौंप कर वज्रस्वामी जी काल कवलित हो गए । दुष्काल की भयंकरता ने जनता में त्राहि-त्राहि मचा दी थी। इतना सूखा पड़ा कि अन्न का दाना भी मिलना दुर्लभ हो गया। कई लोगों ने विष भक्षण कर दुष्काल से पीछा छुड़ाया। बहुत कम क्षेत्र थे जहाँ पर सुकाल था । उस समय साधु-साध्वियों के लिए भिक्षा का काम भी बहुत कठिन था किंतु कतिपय श्रावक लोगों की इतनी भक्ति थी कि उनको थोड़ा बहुत भोजन मिलता तो भी पहले साधुओं को वोहराकर ही स्वयं खाते थे, नहीं तो साधु भगवंत भी क्षुधा वेदनीय का उदय समझकर तपस्या करते थे। वि.सं. 122 (ईस्वी सन् 65 ) में मुनिवृंदों से परिवृत्त आचार्य वज्रसेन सूरि जी का पदार्पण कुकुंण देश के सोपारक नगर में हुआ। दुष्काल इस समय समाप्ति पर था । वहाँ का धनी श्रेष्ठी जिनदत्त निर्ग्रन्थ धर्म का उपासक था। उसकी पत्नी का नाम ईश्वरी एवं पुत्रों के नाम- नागेन्द्र, निवृत्ति, चन्द्र एवं विद्याधर था । विपुल संपत्ति का स्वामी होते हुए भी दुष्काल के उग्र प्रकोप से विक्षुब्ध हो उठा। वे खाने के लिए एक-एक दाने के मोहताज हो गए। श्राविका ईश्वरी भी जीवन की आशा खो चुकी थी । पारिवारिक जनों ने परस्पर परामर्शपूर्वक बचे भोजन में जहर खाकर प्राणान्त करने की सोची। सेठानी ईश्वरी ने 1 लाख स्वर्ण मुद्रा मूल्य के शालि पकाए। वह भोजन में विष मिलाने का प्रयत्न कर रही थी। तभी आचार्य वज्रसेन सूरि जी आदि मुनिवृंद जिनदत्त के घर पधारे एवं धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया । शर्म के मारे सेठानी ने अपना मुँह नीचे कर लिया। कारण- -मुनियों को दान देने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। ईश्वरी की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । ईश्वरी ने कहा कि आप जैसे कल्पवृक्ष हमारे घर पधारे परंतु दुःख इस बात का है कि हम स्वयं विष मिलाकर यह भोजन करने वाले हैं। विष से भरे पात्र को भोजन से दूर रख लाख मूल्य के शालि ( चावल ) गुरुदेव को विशुद्ध भाव से वोहराए एवं समस्त वृत्तांत कह सुनाया। आचार्य वज्रसेन सूरि जी को 10 पूर्वधर वज्रस्वामी जी के कथन का स्मरण हो आया। उन्होंने जिनदत्त श्रेष्ठी के समूचे परिवार को आश्वासन देते हुए कहा कि भोजन में जहर मत मिलाओ। अब यह अधिक कष्ट का समय नहीं है | दुष्काल अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। आचार्य वज्रसेन के वचनों को सुनकर परिवार को आत्मसंतोष एवं आशा का अनुभव हुआ। सारा परिवार सुकाल की प्रतीक्षा में समता से कालयापन करने लगा। दूसरे ही दिन समुद्रमार्ग से बहुत से अनाज की जहाजें आ पहुँची एवं नगर में प्रचुरता के साथ अनाज मिलने लग महावीर पाट परम्परा 63 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। सूखा भी समाप्त हो गया। सेठानी ईश्वरी ने सोचा यदि सद्गुरु ने आकर हमको चेताया नहीं होता तो आज हम जीवित न होते। आचार्य वज्रसेन ने भी अत्यंत विवेक से परिवार के इस अहोभाव को वैराग्यभाव में परिवर्तित किया। अतः संसार से विरक्त होकर श्रेष्ठी जिनदत्त तथा श्राविका ईश्वरी ने अपने चारों पुत्र - नागेन्द्र, निवृत्ति, चंद्र एवं विद्याधर के साथ उसी वर्ष वि.सं. 122 में आचार्य वज्रसेन सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। 125 वर्ष की आयु में वज्रसेन सूरि जी ने आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र के कालधर्म पश्चात् युगप्रधान का दायित्व 3 वर्ष तक निभाया। अपने दीर्घकालीन संयम जीवन में प्राकृतिक आपदाओं से जैनधर्म को पहुँची क्षति के होने पर भी यथाशक्ति चतुर्विध संघ का कुशल वहन किया एवं शासन की महती प्रभावना की। जिस वर्ष इनका कालधर्म हुआ, उसी वर्ष वि.सं. 150 में इनकी प्रेरणा से गिरनार तीर्थ का उद्धार हुआ। संघ व्यवस्था : आचार्य वज्रसेन के प्रमुख 4 शिष्य थे:1. मुनि नागेन्द्र, 2. मुनि निवृत्ति, 3. मुनि चन्द्र, 4. मुनि विद्याधर। इन चारों शिष्यों से क्रमशः चार कुलों का उद्भव हुआ। यथा1. नागेन्द्र कुल, 2. निवृत्ति कुल, 3. चन्द्र कुल, 4. विद्याधर कुल। . दुष्काल के कारण बहुत से मुनियों का स्वर्गवास हो गया था। भगवान् पार्श्वनाथ की उपकेशगच्छ की परम्परा के आचार्य यक्षदेव सूरिजी ही अनुयोगधर रह गए थे। आचार्य वज्रसेन सूरि जी ने आचार्य यक्षदेव सूरि जी से प्रार्थना की, कि उपरोक्त चारों मुनियों सहित उनकी आज्ञा के 500 साधु एवं 700 साध्वियों इत्यादि बचे हुए साधुओं को आगमों की वाचना प्रदान करें। आचार्य यक्षदेव सूरि जी के ज्ञान से संपूर्ण संघ को लाभ हुआ एवं उनके जैसे अनेक विद्वान साधु तैयार हुए। आचार्य वज्रसेन सूरि जी के कालधर्म पर आचार्य यक्षदेव सूरि जी ने ही चारों प्रमुख मुनियों को योग्य जानकर सूरि (आचार्य) पद पर स्थापित किया। युगप्रधान आचार्य के क्रम में आचार्य वज्रस्वामी के बाद आचार्य आर्यरक्षित, उनके बाद आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र एवं उनके बाद आचार्य वज्रसेन सूरि जी हुए। . महावीर पाट परम्परा 64 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस समय जिनकल्प का विच्छेद हो जाने से सभी जैन साधु-साध्वी जी श्वेत (सफेद) और सादे वस्त्र पहनते थे। किंतु वी.सं. 609 में रथवीरपुर में आचार्य कृष्णर्षि के शिष्य शिवभूति ने वस्त्र - पात्र छोड़कर नया मत स्थापित किया जो बोटिक मत कहलाया। यह दिगम्बर परम्परा में विकसित हुआ। कपर्दी यक्ष की उत्पत्ति : एक बार विहार करते-करते आचार्य वज्रसेन सूरि जी सौराष्ट्र के मधुमती (महुवा) नगर में पधारे। वहाँ कपर्दी नाम का वणकर रहता था। उसकी आड़ी व कुहाड़ी नामक 2 पत्नियां थीं। कपर्दी अभक्ष्य और अपेय में आसक्त होकर माँस मदिरा का सेवन करता था। एक दिन शराबी शालवी को दोनों स्त्रियों ने उपालम्भ दिया जिससे वह कपर्दी जंगल में जाकर चिंतन अवस्था में बैठ गया। इधर से आचार्य वज्रसेन सूरि जी जंगल में स्थंडिल भूमि पधार रहे थे। कपर्दी ने आचार्यश्री को वंदन किया। आचार्य श्री को आभास हो गया कि इस व्यक्ति की आयु अब अधिक नहीं है। उन्होंने उसे अल्पायु वाला जान उपदेश दिया कि तुम कुछ व्रत नियम लो जिससे कुछ कल्याण हो । कपर्दी ने कहा " आपको जो उचित लगे, वह पच्चक्खाण दो ।" वज्रसेन सूरि जी ने कहा " तू गंठसी पच्चक्खाण कर यानि जब भोजन करे तब उससे पहले कंदोरा की डोरी की गांठ छोड़ ‘णमो अरिहंताण' और जब भोजन कर लो तब पुनः गांठ लगा देना। जब तक गाँठ रहे कुछ खाना नही । गाँठ छोड़ने तक नवकार मंत्र कहकर खाना खा सकते हो।" कपर्दी ने गुरुवचन स्वीकार किया। भाग्ययोग से उसने उसी दिन से नियम पालन चालू किया किंतु उसी दिन सर्प के गरलयुक्त माँस भोजन से कपर्दी की मृत्यु हो गई । नियम के प्रभाव से वह मृत्यु के उपरान्त वह व्यंतर निकाय की योनि में देव बना । - कपर्दी के मरण के बाद उसकी दोनों स्त्रियों को यह प्रसंग पता चला। उन दोनों ने राजा के पास आचार्य वज्रसेन सूरि के विरुद्ध फरियाद की। राजा ने एक पक्ष की बातें सुन आचार्यश्री को पहरे में बिठवा दिया । व्यंतर निकाय में देव बने कपर्दी को यह ज्ञात हुआ कि मेरे परम उपकारी गुरु का इतना अपमान हो रहा है, वे संकट में हैं। कपर्दी व्यंतर ने शहर प्रमाण शिला विकुर्वी और लोक में आकाशवाणी करवाई कि आचार्य वज्रसेन सूरि जी अत्यंत संयमी, महा-उपकारी तथा निर्दोष हैं। राजा तथा प्रजा ने तत्क्षण ही आचार्य वज्रसेन सूरि जी से क्षमायाचना की तथा बहुमान पूर्वक सम्मान किया । महावीर पाट परम्परा 65 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपर्दी देव ने आचार्यश्री के चरणों में प्रकट होकर कहा – “पूज्यवर मैंने जीवनपर्यन्त पाप ही पाप का सिंचन किया है। आपके निमित्त से नवकार के एक बार स्मरण मात्र से मैं इस देव ऋद्धि को प्राप्त हुआ। कृपा करके कोई कार्य बतलायें कि मैं पाप की निवृत्ति करूँ।" गुरुदेव ने कहा तुम्हारी इच्छा हो तो शाश्वत तीर्थ शत्रुजय की सेवा भक्ति कर सुलभबोधि का उपार्जन करो। गुरुवचन को स्वीकार कर कपर्दी यक्ष शत्रुजय तीर्थ के अधिष्ठायक देव बने। (कई इतिहासकार यह प्रसंग आचार्य वज्रसेन सूरि जी के बजाए आचार्य वज्रस्वामी से भी जोड़ते हैं) कालधर्म : मात्र 9 वर्ष की आयु में चारित्र अंगीकार कर 119 वर्ष का संयम जीवन व्यापन करने के बाद 128 वर्ष की आयु में वीर निर्वाण संवत् 620 (वि.सं. 150, ईस्वी सन् 93) में स्वर्गवासी हुए। इनके प्रभावक शिष्य मुनि चन्द्र यावत् आचार्य चन्द्र सूरि जी इनके सुयोग्य पट्टधर हुए। आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र उनके समकालीन हुए। . समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र : ज्ञानयोग तथा ध्यानयोग के विशिष्ट साधक आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने 17 वर्ष की आयु में वि.सं. 97 (ईस्वी सन् 40) में आचार्य आर्यरक्षित सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। उनसे उन्होंने 9 पूर्वो का अध्ययन किया। शास्त्रों के अनवरत मनन-चिंतन-पुनरावर्तन-तपोमयी दुष्कर ध्यान साधना के परिणामस्वरूप उनका शरीर अत्यंत कृश हो गया था। दुर्बलिका पुष्यमित्र - उनका यह नाम उनकी शारीरिक दुर्बलता के कारण था। एक बार बौद्ध भिक्षु आचार्य आर्यरक्षित के पास आए। उन्होंने बौद्धों की ध्यान प्रणाली की प्रशंसा की तथा जैन संघ की ध्यान साधना पर कटाक्ष किया। आचार्य आर्यरक्षित ने दुर्बलिका पुष्यमित्र को लक्षित किया तथा अप्रमत्त ध्यान साधक बताया। बौद्ध उपासक को शंका हुई कि मुनि के दौर्बल्य का कारण साधना नहीं बल्कि योग्य आहार का अभाव है। गुरु आज्ञा से दुर्बलिका पुष्यमित्र कई दिन बौद्ध उपासकों के साथ रहे। उनकी दिनचर्या, उत्कृष्ट साधना, संयम जीवन की फिर बौद्धों ने भी प्रशंसा की। महावीर पाट परम्परा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य आर्यरक्षित के कई समर्थ शिष्य थे - दुर्बलिका पुष्यमित्र, फल्गुरक्षित, विंध्य, गोष्ठामाहिल, घृत पुष्यमित्र, वस्त्र पुष्यमित्र इत्यादि । आचार्य श्री ने दुर्बलिका पुष्यमित्र को अपने पाट पर स्थापित किया । वि.सं. 127 में दुर्बलिका पुष्यमित्र आचार्य बने तथा संघ का दायित्व किया। किंतु उनके गुरुभाई गोष्ठामाहिल तार्किक एवं वादी तथा महत्त्वकांक्षी मुनि थे। स्वयं को आचार्य न बनाए जाने के कारण वे दुर्बलिका पुष्यमित्र से ईर्ष्या करने करने लगे। आर्यरक्षित सूरि जी के कालधर्म पश्चात् गोष्ठामाहिल संघ में सम्मिलित नहीं हुआ। मोहनीय कर्म की प्रबलता तथा उग्र अहंकार के कारण गोष्ठामाहिल में मिथ्या अभिनिवेश उत्पन्न हुआ। आगमों में कर्मबंधन की प्रक्रिया को पढ़ते समय वह उलझ गया। गोष्ठामाहिल का अभिमत था कि आत्म प्रदेशों के साथ कर्म का केवल स्पृष्ट अवस्था में ही बंध होता है, अन्य रूप से नहीं। आगमों के वचन उसने स्वीकार नहीं किए। आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र के बार-बार समझाने पर भी गोष्ठामाहिल यही मानता रहा कि बद्ध तथा बद्ध-स्पृष्ट जैसे बंध नहीं होते। अतः उसने अपना नया मत चालू किया जो उस समय 'अबद्धिक मत' के नाम से जाना गया। गोष्ठामाहिल को जैन परम्परा में सातवां निन्हव माना गया है। विशिष्ट ध्यान साधना से आत्मा को भाषित कर आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र वि.सं. 147 ( ईस्वी सन् 90 ) में स्वर्ग संपदा के स्वामी बने। महावीर पाट परम्परा 67 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. आचार्य श्रीमद् चन्द्र सूरीश्वर जी युगचन्द्र प्रकाशक चंद्र सूरि जी, चंद्रगच्छ अवतार । शान्ति - सौम्यता - शशिकलायुक्त, नित् वंदन बारम्बार ॥ यथा आचार्य वज्रसेन सूरि जी के 4 प्रमुख शिष्यों से श्रमण परम्परा की 4 शाखाएं निकलीं । निवृत्ति कुल, विद्याधर कुल, नागेन्द्र कुल तथा चन्द्र कुल । उनमें से सबसे विशाल तथा दीर्घजीवी चन्द्रकुल के आद्य उन्नायक आचार्य चन्द्र सूरि जी भगवान् महावीर के 15वें पट्टधर हुए एवं उनके नाम से 'चन्द्र गच्छ' यह नाम प्रसिद्ध हुआ । - जन्म एवं दीक्षा : कुंकुण देश के सोपारक नगर में राजा जितशत्रु एवं रानी धारिणी का साम्राज्य था। वहाँ जैन धर्म का परमोपासक श्रेष्ठी जिनदत्त एवं उसकी पत्नी ईश्वरी थीं। वि.सं. 106 में उनके घर में पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ जिसका नाम चन्द्र रखा गया। उसके निवृत्ति, नागेन्द्र तथा विद्याधर नाम के 3 भाई भी थे। वे सल्लहड़ / उपकेश गौत्रीय थे। जब चन्द्र 4 साल का था, तब अधिकतम भारतवर्ष में सूखा पड़ा था। यह दुष्काल 12 वर्ष तक रहा। दुष्काल में इनकी हालत भी जर्जर हो चुकी थी, जीवन से अधिक मृत्यु की इच्छा हो रही थी, किन्तु वज्रसेन सूरि जी के सद्द्बोध से धैर्य बाँधा । इसका संपूर्ण विवरण आचार्य वज्रसेन सूरि जी के जीवन में उल्लेख किया जा चुका है। दुष्काल की समाप्ति पर वैराग्य भावना से ओत-प्रोत होकर 16 वर्ष की आयु में वि.सं. 122 (ईस्वी सन् 65 ) में चन्द्र ने माता-पिता तथा भाइयों सहित आचार्य वज्रसेन सूरि जी के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। शासन प्रभावना : मुनि चन्द्र जी ने गुरुनिश्रा में रहते हुए आगम शास्त्रों का गंभीर स्वाध्याय किया । विशिष्ट ज्ञानार्जन का अवसर जानकर वज्रसेन सूरि जी ने मुनि चन्द्र सहित सभी साधु-साध्वियों को पढ़ने हेतु अनुयोगधर आगमविज्ञ आचार्य यक्षदेव सूरि जी के पास भी भेजा। मुनि चन्द्र विजय जी विशिष्ट स्मृति शक्ति एवं अमेय प्रतिभा के धनी थे। वे 10 से कुछ कम पूर्वों के ज्ञाता थे। महावीर पाट परम्परा 68 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आ. वज्रसेन सूरि जी के चारों प्रमुख शिष्यों से श्रमणों की 4 शाखाओं का उद्भव हुआ। वि.सं. 136 में निवृत्ति कुल, नागेन्द्र कुल, विद्याधर कुल एवं चन्द्र कुल की स्थापना हुई। आ. वज्रसेन सूरि जी ने चन्द्र को समर्थ एवं प्रतापी जाना एवं चन्द्र कुल की भविष्य में सुविशालता तथा सुदीर्घायु व शासन प्रभावना में सहयोग को देखते हुए चन्द्र सूरि जी को अपनी पाट पर स्थापित किया। वि.सं. 150 में वज्रसेन सूरि जी का कालधर्म हो गया। अतः उनकी भावना को मूर्त रूप देते हुए विद्यागुरु आचार्य यक्षदेव सूरि जी ने चंद्र मुनि को आचार्य पदवी प्रदान की तथा वज्रसेन सूरि जी का पट्टधर घोषित किया। ___चंद्र सूरि जी का विहार क्षेत्र कोंकण, सौराष्ट्र, आवंती, मेदपाट तथा मरुधर प्रांत तक रहा। शासन की महती प्रभावना करते हुए इन्होंने अनेक मुमुक्षुओं को मोक्ष मार्ग का पथ प्रदर्शित किया तथा संयम प्रदान किया। विशाल शिष्य समुदाय होने पर धीरे-धीरे इनका गच्छ निग्रंथ गच्छ का नाम चन्द्र गच्छ ही पड़ गया। अनेकानेक प्रभावक आचार्य इनकी परम्परा में हुए। अन्य कुल के श्रमण-श्रमणियों के हृदय में भी चन्द्र सूरि जी के प्रति बहुत बहुमान का भाव था। किसी भी साधु-साध्वी को दीक्षा देते समय गर्व से कहा जाता - तुम्हारा कोटिक गण, वज्र शाखा तथा चन्द्र कुल है। अपने 23 वर्ष के युगप्रधान (आचार्य) काल में चन्द्र सूरि जी ने अनेक कार्य किए तथा सर्व महत्त्वपूर्ण - भविष्य की श्रमण परम्परा के लिए सुंदर नींव रखी। कालधर्म : स्व-पर कल्याण की उत्तमोत्तम भावना से युक्त आ. चन्द्र सूरि जी का कालधर्म वीर निर्वाण संवत् 643 अथवा 650 में हुआ। 67 वर्ष । 74 वर्ष की आयु में अपनी पाट पर आ. समन्तभद्र सूरि जी को बिठाकर वे देवलोक की ओर गतिमान हुए। आचार्य भद्रबाहु भी इनके काल में हुए। वे निमित्त तथा ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। उनके भाई वराहमिहिर भी विद्वान थे, किन्तु अहं भाव से पुष्ट थे। जैनाचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञानबल से जिनशासन की महती प्रभावना की। उनके भाई वराहमिहिर मृत्यु प्राप्त कर व्यन्तर देव बने। उन्होंने पृथ्वीतल पर लोगों पर उपद्रव करना चालू किया। उस उपद्रव से क्षुब्ध जनमानस को शान्ति प्रदान करने के लिए आचार्य भद्रबाहु ने पार्श्वनाथ जी की स्तुति स्वरूप विघ्नविनाशक 'उवसग्गहरं स्तोत्र' की रचना की। यह स्तोत्र अत्यंत चमत्कारी सिद्ध हुआ। महावीर पाट परम्परा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. आचार्य श्रीमद् समन्तभद्र सूरीश्वर जी सरस्वती के सौम्य साधक, संस्कृत प्रभुत्व अधिकार। श्री समंतभद्र वनवासी नामे, नित् वंदन बारम्बार॥ संस्कृत भाषा के विलक्षण विद्वान आचार्य समन्तभद्र सूरि जी भगवान् महावीर के 16वें पट्टविभूषक थे। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में इनकी स्वीकार्यता है क्योंकि इनकी जीवन शैली अत्यंत उत्कृष्ट थी। प्रमुख रूप से वनों में विचरण करने से इनके समय में निग्रंथ गच्छ / चन्द्र गच्छ वनवासी गच्छ के नाम से प्रचलित हुआ। जन्म एवं दीक्षा : इनके प्रारंभिक जीवन के विषय में ऐतिहासिक साक्ष्यों का अभाव है। कुछ इतिहासविदों ने इनके विषय की श्वेताम्बर तथा दिगम्बर सामग्री का अनुशीलन कर फरमाया है कि वे दक्षिण भारत के उरगपुर नरेश के क्षत्रिय पुत्र थे। प्रथमतः उन्होंने दिगम्बर परम्परा में दीक्षा ग्रहण की। एक बार मुनि समन्तभद्र को भीषण भस्मक व्याधि ने आक्रान्त कर लिया, जिसके कारण वे जो भी कुछ खाते वह अग्नि में गिरे हुए कण की भाँति भस्म हो जाता। भूख असह्य हो गई। कोई उपचार न देखकर उन्होंने अनशन करने का सोचा किंतु गुरु ने उन्हें आज्ञा नहीं दी। दिगम्बर मुनि समन्तभद्र ने रोगोपचार हेतु मुनि मुद्रा का परित्याग कर दिया। वाराणसी आकर वे रोगमुक्त हुए। एक शिवलिंग पर तीर्थंकर स्तुति करने से काशी में चंद्रप्रभ स्वामी जी की प्रतिमा प्रकट हुई। तभी से उनकी काव्यशक्ति का विकास प्रारंभ हुआ। व्याधिमुक्त होने के बाद उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्र गच्छ के आचार्य चन्द्र सूरि जी के पास दीक्षा ली। समन्तभद्र को सुयोग्य जानकर चन्द्र सूरि जी ने उन्हें मुनि वेश प्रदान किया। शासन प्रभावना : मुनि समन्तभद्र जी ने आचार्य चन्द्र सूरीश्वर जी की निश्रा में रहते हुए आगम ग्रंथ-शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। उनकी काव्य शक्ति व प्रवचन शक्ति अच्छी थी। साधुता के प्रति उनके हृदय में बहुत अहोभाव था। वे प्रायः संघ-समाज से दूर रहकर स्वाध्याय, जाप आदि में लीन रहते थे। उनकी योग्यता देखते हुए उन्हें आचार्य पदवी प्रदान की गई। महावीर पाट परम्परा 70 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य समन्तभद्र सूरि जी 11 अंगों एवं कुछ पूर्वो के ज्ञाता थे। भाषा पर उनका विशेष आधिपत्य था। पाटलीपुत्र, वाराणसी, उज्जैन, धार, पंजाब, सिंध, कांचीवरम् (दक्षिण प्रदेश) इत्यादि क्षेत्रों में विचरण कर आ. समन्तभद्र सूरि जी ने शास्त्रार्थो में अपने अकाट्य तर्को से मिथ्यात्व मतों को पराजित किया एवं जैन सिद्धांतों को सर्वत्र फैलाकर जिनधर्म की महती प्रभावना की। समन्तभद्र सूरि जी नगरों की अपेक्षा उपवनों - जंगलों में रहना विशेष पसंद था। गृहस्थ से परिचय कम, उपधि कम, ध्यान योग की सुविधा इत्यादि लाभों के कारण वे वनों में अधिक विचरण करते थे। इसी कारण इनके समय में चन्द्र गच्छ का नाम 'वनवासी गच्छ' पड़ गया। इनसे पूर्व ही जैनशासन में श्वेताम्बर वं दिगम्बर परम्पराएं बँट गई थी। आचार्यश्री ने इन दोनों को एक बनाने का खूब प्रयत्न किया किंतु उनके ये प्रयत्न सफल नहीं हुए। जंगलों में रहने के कारण एवं दिगंबर परम्परा से पूर्व में भी सम्बन्ध होने के कारण दिगम्बर परम्परा उन्हें समान दृष्टि से मानते हैं। विशाल क्षेत्र में विहार कर उन्होंने शासन की महती प्रभावना की। साहित्य रचना : आचार्य समन्तभद्र सूरि जी बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, वेदान्त आदि विभिन्न दर्शनों के ज्ञाता थे। सभी दर्शनों की समीक्षा करते हुए उन्होंने उत्तम कोटि के साहित्य का सर्जन किया। उनकी प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं1) आप्त मीमांसा (देवागम स्तोत्र) - आचार्य समन्तभद्र सूरि जी की इस प्रथम रचना में 10 परिच्छेद तथा 114 श्लोक हैं। एकान्तवादी दृष्टिकोणों का उचित तर्को की कसौटी पर विश्लेषण तथा आप्त पुरुषों के आप्तत्त्व की सम्यक् मीमांसा होने से यह आप्त मीमांसा के नाम से जाना गया। इस कृति का प्रारंभ 'देवागम' शब्द से हुआ है। विद्वानों ने इसे उच्चकोटि का ग्रंथ माना है। स्याद्वाद सम्बन्धी विस्तृत विवेचना सर्वप्रथम इस ग्रंथ में हुई मानी जाती है। दिगंबर आचार्य अकलंक, श्वेताम्बर उपाध्याय यशोविजयजी आदि ने इस पर सुंदर टीकाएं रची हैं। 2) स्वयंभू स्तोत्र (चतुर्विशति जिनस्तुति) - वसन्त, इंद्रवज्रा इत्यादि 13 छंदों में रचे इस ग्रंथ में 143 पद्य हैं। अलंकारपूर्ण सरल भाषा में 24 तीर्थंकरों की स्तुति की गई महावीर पाट परम्परा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। स्तोत्र का प्रथम शब्द स्वयंभू होने से यह स्वयंभू स्तोत्र के नाम से जाना गया। स्तुति प्रधान होने पर भी न्याय एवं दर्शन के मौलिक बिंदुओं की अभिव्यक्ति तथा ऐतिहासिक बिंदुओं का समावेश रचनाकार आ. समन्तभद्र सूरि जी के बहुमुखी व्यक्तित्त्व को प्रदर्शित करता है। युक्त्यनुशासन - अर्थ गरिमा से परिपूर्ण इस दार्शनिक ग्रंथ में 64 पद्य हैं। विभिन्न दर्शनों के विविध विषयों का पर्याप्त विवेचन एवं स्व-पर मत के गुण दोषों का युक्तिपूर्ण निरूपण है। जिनधर्म के प्रति अगाध आस्था को प्रकट करने हेतु वे लिखते हैं - "जिन! त्वदीयं मतमद्वितीयम्" यानि हे जिनेश्वर! आपका मत ही अद्वितीय है। यह एक प्रौढ़, गंभीर व संक्षिप्त सूत्रात्मक रचना है। ‘युक्त्यनुशासन' शब्द की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं - '-'दृष्टागमाभयामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते" यानि युक्तिपूर्वक प्रत्यक्ष और आगम सम्मत अर्थप्रतिपादन का अनुशासित क्रम ही युक्त्यनुशासन है। स्तुति विद्या (जिन-स्तुति-शतक) - 116 पद्ययुक्त इस स्तवना प्रधान कृति में तीर्थंकर परमात्माओं का गुणोत्कीर्तन किया है। यह कृति उनकी विद्यता की परिचायक है। एक श्लोक में एक ही अक्षर द्वारा पूरा श्लोक बनाया है ततोतिता तु तेतीतः तोतृतोतीतितोतृतः ततोऽतातिततोतोते ततता ते ततो ततः॥" इस प्रकार उन्होंने अन्य श्लोक भी रचे एक श्लोक की रचना केवल 4 अक्षरों से ही हुई है येयायायाययेयाय नानाननाननानन। ममाममाममामामि ताततीतितीतितः॥ कई पद्य ऐसे हैं जो अनुलोम-प्रतिलोम शैली में लिखे हैं। एक श्लोक के अक्षरों को उल्टा कर के नया श्लोक बना है। जैसे रक्षमाक्षरवामेश शमीचारुरुचानुतः भो विभोनशनजोरुननेन विजरामय॥ (अनुलोम क्रम) महावीर पाट परम्परा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमराज विनम्रेन रुजोनाशन भो विभो । तनुचारुरुचामीश शमेवारक्ष माक्षर ॥ ( प्रतिलोम क्रम) ये सब केवल शब्द हैं, ऐसा नहीं है। इनमें बहुत गहरे भाव छिपे हैं। एक-एक श्लोक के कई श्लोक के कई अर्थ निकलते हैं। शब्द संयोजन की ऐसी कला बहुत मुश्किल है, लेकिन समन्तभद्र सूरि जी निस्संदेह उच्च कोटि के विद्वान थे। इसके अलावा भी जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृतव्याख्यान, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृत टीका आदि ग्रंथ इनकी रचनाएं हैं। कालधर्म : विहार करते-करते कोरंटा तीर्थ में उपाध्याय देवचन्द्र को शुद्ध संयम धर्म में स्थिर कर अपने पद पर स्थापित किया तथा शत्रुंजय तीर्थ पर अनशन स्वीकार कर काल धर्म को प्राप्त हुए। भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग 653 वर्षों बाद वे कालधर्म को प्राप्त हुए। महावीर पाट परम्परा 73 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. आचार्य श्रीमद् वृद्धदेव सूरीश्वर जी आत्मदिव्यता देव पद, असंयम पंक धिक्कार। बोधिवृक्ष गुरु वृद्धदेव जी, नित् वंदन बारम्बार॥ चैत्यवास अर्थात् साधु द्वारा मंदिरों में बसेरा इस युग में उद्भव में आया। प्रभावक चरित्र के अनुसार ये सर्वप्रथम अपने जीवन के पूर्वार्ध में चैत्यवासी श्रमण हुए किंतु आचार्य समन्तभद्र सूरि जी के सद्बोध एवं सन्मार्ग दर्शन से वे विशुद्ध संयम एवं आचार प्रधान श्रमण हुए। जन्म एवं दीक्षा : सप्ततिदेश (सिरोही और मारवाड़ की सरहद) में कोरंटपुर (वर्तमान में शिवगंज के पास कोरटा) नगर था। उपाध्याय देवचन्द्र नामक एक विद्वान तथा संयमी श्रमण को कोरंटपुर के भगवन् महावीर जिनालय पर अत्यंत आसक्ति हो गई। अतः उपाध्याय देवचंद्र जी ने अपने शिष्यों को विचरण की आज्ञा दी किंतु स्वयं उस मंदिर में रहने लगे। उस मंदिर की संपूर्ण व्यवस्था वे स्वयं देखते। ___ निष्कारण एक जगह रहना, साधु धर्म के लिए अकल्पनीय है, ऐसा वे जानते थे किंतु उस जिनमंदिर से राग का ऐसा अपनत्व बन चुका था कि वे चैत्यवासी बन गए थे। एक बार उत्कृष्ट संयमी आ. समन्तभद्रसूरि जी वाराणसी से विहार कर शत्रुजय गिरिराज की ओर जा रहे थे। ग्रामानुग्राम विचरण करते उनका पदार्पण कोरंटपुर हुआ। श्रीसंघ ने आचार्यश्री का भव्य स्वागत किया। आचार्यश्री को उपाध्याय देवचन्द्र के विषय में ज्ञात हुआ। उपाध्याय देवचन्द्र की पात्रता एवं विलक्षणता की अनुभूति कर आचार्य समंतभद्र सूरि जी ने उपाध्याय देवचन्द्र को अपने हितोपकारी व मधुर उपदेश से विशुद्ध संयम धर्म की महत्ता तथा मार्ग समझाया। उपाध्याय देवचन्द्र जी ने आचार्य श्री जी का उपदेश स्वीकार कर कर्मनिर्जरा एवं शासन सेवा के उद्देश्य से चैत्यवास का सदा के लिए परित्याग किया एवं आ. समंतभद्र सूरि जी का सामीप्य स्वीकार किया। महावीर पाट परम्परा 74 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन प्रभावना: अपनी आयु अल्प जानकर आ. समन्तभद्र सूरि जी ने उपाध्याय देवचंद्र को आचार्य पद प्रदान कर नाम 'आचार्य देव सूरि' रखा तथा अपना पट्टधर घोषित किया। यह बात लगभग वी.नि. 653 की है। किन्तु शरीर से वृद्ध होने के कारण वे वृद्धदेव सूरि जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। कोरंटक नगर में ही मंत्री नाहड़ तथा उसका भाई सालिग रहते थे। वृद्धदेव सूरि जी ने उनकी जैनधर्म पर श्रद्धा को दृढ़ किया। आसोज सुदि 9 की तिथि पर दोनों भाइयों की गौत्रदेवी चंडिका पाड़ा (एक जानवर) का बलिदान माँगती थी। नाहड़ मंत्री ने वृद्धदेव सूरि जी को इस बात से अवगत कराया एवं उपाय पूछा। आचार्य वृद्धदेव सूरि जी की साधनाशक्ति बहुत ऊँची थी। रात्रि के समय उन्होंने अपनी शक्ति से गौत्र, देवी चामुण्डा (चंडिका) को बुलाया एवं सिंहनाद किया - देवी! तू अपने पूर्वभव का स्मरण कर। हिंसा के घृणित कार्य तुम्हारे योग्य नहीं हैं। पूर्वभव में तू धनसार श्रेष्ठी की पत्नी तथा जिनवचनानुरागी परम श्राविका थी। पंचमी को उपवास करने के कारण तूने नए वस्त्र पहने थे। अपने पुत्र को घर में छोड़ तुम जिन मंदिर जाने के लिए घर से निकल गई। चंचलता के कारण तुम्हारा पुत्र 'माँ-माँ' कहता हुआ तुम्हारे पीछे आने की कोशिश करता रहा। उसी समय तुम्हारे नए वस्त्रों की आवाज से एक पाड़ा भड़क गया तथा तुम्हारे पीछे आ रहे पुत्र पर प्रहार कर दिया। दुर्भाग्य से पुत्र अकस्मात् ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। अपने पुत्र की अंतिम चीख सुनकर व उसकी अंतिम अवस्था देखकर तुम्हारा हृदय भी बंद हो गया। मृत्यु पाकर तुम चामुंडा नाम की देवी बनी एंव पाड़ों के प्रति क्रूर वैर भाव के कारण अपने पुत्र की मृत्यु तिथि - आसोज सुदि 9 को पाड़ों की बलि लेने लगी।" तत्पश्चात् गुरुदेव ने देवी को अहिंसा धर्म का उपदेश दिया। अपना पूर्वभव तथा गुरुवाणी सुन देवी सम्यग्धर्मी बनी। नाहड़ मंत्री भी पापकार्य से मुक्त हुआ। आ. वृद्धदेव सूरि जी के सदुपदेश से नाहड़ मंत्री ने 72 जिनालयों का निर्माण कराया। वीर निर्वाण 595 में कोरंटा में, वीर निर्वाण 670 में सांचोर में इत्यादि स्थानों पर जिनप्रतिमाओं की अंजनश्लाका - प्रतिष्ठाएं करवाई। नाहड़ मंत्री ने ही उनके उपदेश से सत्यपुर में महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित की। अपनी अंतिम अवस्था में मुनि प्रद्योतन को आचार्य बनाकर वीर निर्वाण 673 अर्थात् वि.सं. 203 में समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए। महावीर पाट परम्परा 75 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. आचार्य श्रीमद् प्रद्योतन सूरीश्वर जी पट्टप्रद्योतक सूरि प्रद्योतन, महावीर पट्ट अढार । जनप्रतिमा करी प्राणप्रतिष्ठित, नित् वंदन बारम्बार ॥ शासन नायक भगवान महावीर की देदीप्यमान पाट परम्परा के 18वें क्रम पर आचार्य विजय प्रद्योतन सूरि जी विराजे। आचार्य वृद्धदेव सूरि जी ने इनकी विद्वत्ता, दीर्घायु तथा शासन प्रभावना की सुयोग्यता, देखते हुए इन्हें आचार्य पदवी प्रदान की तथा अपने पाट पर विराजित किया। आचार्य प्रद्योतन सूरि जी ने अजमेर में भगवान् ऋषभदेव स्वामी की भव्य प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई थी। इनकी प्रेरणा से धनपति दांशी नामक श्रावक ने सुवर्णगिरि (स्वर्णगिरि) पर यक्षवसही नामक देरासर का निर्माण कराया जिसमें आचार्य प्रद्योतन सूरि जी ने वि. सं. 210 में मूलनायक भगवान् महावीर स्वामी की जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित की। - प्रद्योतन सूरि जी एक बार मारवाड़ क्षेत्र के नारदपुरी (नाडोल ) नगर में पधारे। आचार्यश्री जी का प्रवचन सदा वैराग्यरस से ओतप्रोत होता था। एक बालक मानदेव भी उनका प्रवचन नियमित सुनता था। श्रेष्ठिपुत्र मानदेव पर उनके प्रवचनों का गहरा असर पड़ा। एक दिन व्याख्यान के बाद वह सहसा गुरुदेव को बोल पड़ा - " हे गुरुदेव ! मैं माता - पिता से आज्ञा लेकर शीघ्र ही आपके पास दीक्षा लूंगा।" तेजस्वी बालक के मुख से ऐसे वचन सुन प्रद्योतन सूरि जी बोले - " जहा सुखम् " वह बालक मानदेव अनुक्रम से उनका शिष्य बन उनके पट्टधर आचार्य मानदेव सूरि के नाम से प्रख्यात हुआ । वे एक सद्गुरु की भांति रहे । उन्हें प्रतिपल - प्रतिक्षण चिंता होती कि कहीं उनका कोई शिष्य असंयम के दलदल में न फँस जाए। जब मुनि मानदेव की आचार्य पदवी हुई तब 2 देवियाँ नूतन आचार्यश्री के कंधे पर आ गई, जिससे सद्गुरु प्रद्योतन सूरि जी को चिंता हुई कि कहीं मानदेव इस ऋद्धि में आसक्त न हो जाए। लेकिन उनकी परवरिश बहुत मजबूत थी । मानदेव सूरि जी उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी बने। जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए वि. सं. 228 (वी.नि. 698) में प्रद्योतन सूरि जी देवलोक सिधार गए । महावीर पाट परम्परा 76 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. आचार्य श्रीमद् मानदेव सूरीश्वर जी मानविजय अभिमानविजयी, लघुशान्ति रचनाकार। ___ मुक्ति मंत्र मेधा धनी, नित् वंदन बारम्बार॥ जैन समाज में अति प्रसिद्ध महामंगलकारी लघु शांति (छोटी शांति) एवं महाप्रभावक तिजयपहुत्त स्तोत्र के रचयिता वीर शासन परम्परा के 19वें पट्टप्रभावक आचार्य मानदेव सूरि जी अत्यंत विद्वान तथा तपस्वी विभूति थे। चतुर्विध संघ के संरक्षण तथा संवर्द्धन हेतु उन्होंने अनेक कार्य किए तथा जिनशासन की दिग्-दिगन्त प्रभावना की। जन्म एवं दीक्षा : नाडोल (राज.) नगर में धनेश्वर (जिनदत्त) नाम का प्रख्यात श्रेष्ठी रहता था। उसकी धर्मपत्नी का नाम धारिणी था। दोनों के सद्गार्हस्थ्य से उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। बालक अत्यंत रूपवान था। उसका नाम 'मानदेव' रखा गया। चन्द्रमा की 16 कलाओं की भाँति पुत्र की कलाएं दिन-प्रतिदिन निखरती रही। __ विहार करते-करते आचार्य प्रद्योतन सूरि जी नाडोल नगर में पधारे। उनके कुछ दिन की स्थिरता में उनके द्वारा बरसाए जिनवाणी के प्रवचन रूपी मोतियों से मानदेव को भी मोक्ष मार्ग के पथ पर चलने हेतु सर्वविरति धर्म की अभिलाषा हुई। माता-पिता ने किसी तरह अपने हृदय को वश में कर मानदेव का ज्ञानगर्भित वैराग्य देख दीक्षा की आज्ञा दी। शुभ मुहूर्त में आचार्य प्रद्योतन सूरि जी की परम तारक निश्रा में बालक की प्रव्रज्या सम्पन्न हुई। शासन प्रभावना : मुनि मानदेव की स्मरणशक्ति अपूर्व थी। अल्प समय में ही गुरुनिश्रा में रहकर उन्होंने 11 ओं को, छेद सूत्रों आदि का गहन अध्ययन किया। अपने शिष्य को हर कसौटी पर खरा मानकर आचार्य प्रद्योतन सूर जी ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया तथा वे 'आचार्य मानदेव सूर' के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके सूरिपद प्रदान महोत्सव के समय सरस्वती और लक्ष्मी नामक 2 देवियाँ साक्षात् उनके कंधों पर प्रकट हुई। संपूर्ण जनमानस में आचार्य मानदेव सूरि जी की विद्वत्ता एवं ऋद्धि का महावीर पाट परम्परा 77 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षोल्लास पूर्वक प्रचार हुआ किन्तु यह दृश्य देखकर उनके सद्गुरु आचार्य प्रद्योतन सूरि जी को उनकी आत्मा की चिन्ता हुई। इस ऋद्धि से मानदेव चारित्र से भ्रष्ट हो जाएगा। ऐसे दुर्विचार से प्रद्योतन सूरि जी खिन्न रहने लगे। आचार्य मानदेव भी बुद्धिमान थे। अपने गुरु की मनोवेदना वे समझ गए। अपने गुरु की चित्त शांति के लिए उन्होंने उनके आगे ऐसा नियम लिया कि “ भक्ति वाले गृहस्थ के घर की भिक्षा नहीं लूंगा । अज्ञात कुल की ही गोचरी लूंगा एवं दूध, दही, घी, मीठा, तेल इत्यादि विगयों का आजीवन त्याग करूँगा।" प्रद्योतन सूरि जी को आ. मानदेव सूरि जी के इस निर्णय पर बहुत प्रसन्नता हुई एवं वे उनके निरतिचार संयम को लेकर आश्वस्त हुए। आ. मानदेव सूरि जी के विशुद्ध तप एवं उत्कृष्ट संयम के प्रभाव से 1. पद्मा, 2. जया, 3. विजया, 4. अपराजिता ये चार देवियाँ उनके सानिध्य में रहती थी एवं प्रतिदिन उनको वन्दन करने आती थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि सर्वत्र हो गई। - उन्होंने सिंध तथा पंजाब प्रदेश में भी विहार किया । उच्च नगर ( तक्षशिला का एक क्षेत्र) देराउल, मारवाड़ इत्यादि क्षेत्रों में विचरण कर सांठा राजपूतों को प्रतिबोध देकर उन्हें ओसवाल जैन बनाया। मानदेव सूरि जी ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र युक्त संयम से धर्म की महती प्रभावना की एवं 'जैनम् जयति शासनम्' का सर्वत्र उद्घोष कराया। लघु शांति की रचना : पंजाब की सरहद पर तक्षशिला नामक नगरी थी। वह जैन संस्कृति का बहुत बड़ा केन्द्र था। वहाँ जैनों के 500 मंदिर तथा लाखों जैन परिवार बसे थे। सदैव परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं रहती। तक्षशिला जैसी सुंदर नगरी में 'मरकी' का उपद्रव हो गया। इस व्याधि के कारण हजारों मनुष्यों की मृत्यु हो गई । दिन-प्रतिदिन लाशों का ढेर बढ़ता जा रहा था। ऐसे विषम संकट के समय तक्षशिला के जैन संघ ने मंदिर में इकट्ठे होकर विचार चर्चा की। उन्होंने चिंतन किया कि सुख-शांति - अनुष्ठान - पर्वों के दिनों में देव - देवियाँ दर्शन भी देते हैं पर आज इस महान संकट के समय में मंदिरों व मनुष्यों के निष्कारण संहार के अवसर पर सब देव-देवी कहाँ चले गये? समूचे श्रीसंघ के इस सन्ताप के प्रभाव से शासनदेवी अदृश्य प्रकट हुई और बोली आप इस प्रकार खेद क्यों करते हो?. रूप महावीर पाट परम्परा 78 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें शासन देव-देवी का कोई दोष नहीं|दुष्ट म्लेच्छों के देवों ने मरकी रोग के उपद्रव को जन्म दिया है। उसके सामने हमारी कुछ नहीं चल सकती है। वैसे भी 3 वर्षों बाद तुर्कियों द्वारा इस तक्षशिला नगरी का पतन/भंग होगा। तब तक यदि इस तक्षशिला के मंदिरों व मनुष्यों का रक्षण करना है तो नाडोल में विराज रहे आचार्य मानदेव सूरि जी को तक्षशिला में लाने का प्रयत्न करो। उनके तप का ऐसा प्रभाव है कि कैसा भी उपद्रव क्यों न हो, उनके पधारने से सब शान्त हो जाता है। किन्तु ध्यान रहे 3 साल बाद इस नगरी का ध्वंस निश्चित है। तब तक लोग अन्यत्र चले जाएँ।" इत्यादि कहकर शासनदेवी तो अदृश्य हो गई। समूचे संघ में विचार मंथन चालू हुआ। - समय की पुकार यही थी कि वर्तमान में मरकी रोग को दूर कर प्राण सुरक्षित किए जाए। अतः आचार्य मानदेव सूरीश्वर जी को तक्षशिला बुलाने पर विचार किया। किंतु ऐसी विकट परिस्थिति में कोई घर कुटुम्ब को छोड़ जाने को तैयार न हुआ। अंततः यह जिम्मेदारी वीरदत्त नाम के श्रावक ने स्वीकार की तथा संघ का विनतीपत्र लेकर वह चल पड़ा। वीरदत्त श्रावक नारदपुरी (नाडोल) पहुँचा। मानदेव सूरि जी के दर्शनार्थ विनती पत्र लेकर उसने उपाश्रय में प्रवेश किया। इस समय आ. मानदेव सूरि जी पर्यकासन लगाकर नाक के अग्रभाग के ऊपर दृष्टि स्थापित कर ध्यान अवस्था में लीन थे। उस समय जया और विजया नाम की 2 देवियां आचार्य श्री को वंदन करने आई थीं किन्तु उनका ध्यान अस्खलित रहे, इस भावना से कोने में बैठी रही। यह दृश्य देखकर वीरदत्त का मन संकल्पों-विकल्पों से भर गया। शंका और संदेह से उसने विचार किया एक तो मध्यान्ह का समय, ऊपर से दो रूपवती अतिसुंदर स्त्रियाँ साधु के पास एकान्त में बैठी हैं। अवश्य ही इनका ध्यान भी ढोंग है। क्या ऐसे व्यभिचारी आचार्यों से कभी उपद्रव शान्त हो सकता है? शासनदेवी ने निश्चित हमसे छल अथवा मजाक किया है। बाहर बैठकर वह ऐसे कुविकल्प चिंतन करने लगा। जैसे ही मानदेव सूरि जी ने अपना ध्यान पारा, वीरदत्त ने अंदर आते-आते अवज्ञा-आशातना-अविनयपूर्वक गुरुदेव का वंदन किया। उन्हें आभास हो गया कि इस श्रावक ने हम देवियों के आगमन को गलत समझा है और वह आचार्यश्री के संयम पर संदेह कर रहा है। उसके दुर्भावों का आभास होते ही देवियां क्रोधित हो गई। जयादेवी ने उसे सबक सिखाने के लिए जकड़ कर बाँध लिया और कहने लगी - "दुष्ट! तुझे दिखता नहीं हमारे पैर भूमि से 4 अंगुल ऊपर हैं। हमारे नेत्रों की पलकें नहीं झपकतीं। महावीर पाट परम्परा 79 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे गले की पुष्पमाला विकसित है। हम मनुष्य नहीं, देवांगनाएं हैं। गुरु भक्ति से प्रेरित होकर हमेशा वंदन करने आया करती हैं। ऐसे महाप्रभावक बालब्रह्मचारी विद्वान आचार्य के शील व संयम के विषय में ऐसे दुष्ट विचार लाना तुम्हारी विवेकशून्यता है।" यह सब सुनकर वीरदत्त श्रावक बहुत शर्मिन्दा हुआ। अपने दुर्भाव व दुर्व्यवहार के लिए उसे बेहद पश्चाताप हुआ। उसने सभी से क्षमायाचना की। मानदेव सूरि जी के कहने पर देवी ने उसे बंधनमुक्त किया। तत्पश्चात् वीरदत्त ने तक्षशिला नगरी का बुरा हाल बताते हुए वहां पधारने की विनती की एवं श्रीसंघ का निवेदन पत्र भी मानदेव सूरि जी को सौंपा। आचार्यश्री ने कहा - संघ सर्वोपरि है। संघ की आज्ञा पालन करना मेरा कर्त्तव्य है परन्तु कुछ कारणवश इस समय तो मेरा तक्षशिला आना संभव नहीं हो पाएगा। किंतु संघ का संरक्षण मेरा अभिन्न दायित्व है। मैं यहाँ बैठा ही तुम्हारे उपद्रव की शांति करने का पूर्णतः प्रयत्न करूँगा। ___ अतः विशिष्ट शक्तिशाली मंत्राक्षरों से युक्त लघु शांति स्वरूप 'शान्ति स्तव' रचा तथा उसकी आराधना की संपूर्ण विधि वीरदत्त श्रावक को बताई। गुरु महाराज का दिया हुआ शांतिस्तव वीरदत्त लेकर पुनः तक्षशिला चला गया। गुरु द्वारा बताई गई विधि से शांति स्तव का पाठ करने से संघ में हर्षोल्लास का माहौल छा गया। नगर में सर्वत्र शान्ति हो गई। जो उपचारहीन बताया जा रहा था, ऐसे मरकी रोग का लघुशांति द्वारा निवारण हुआ एवं लाखों लोगों के प्राण सुरक्षित हुए। __ जैन एवं जैनेत्तर सब लोगों ने आचार्य मानदेव सूरि जी एवं जैनधर्म का महान् उपकार समझा। जब माहौल सामान्य हुआ तथा सभी को जीवनदान मिलने की अनुभूति हुई, तब उन्हें शासनदेवी की तक्षशिला भंग की चेतावनी का ध्यान आया। धीरे-धीरे लोगों ने वहाँ से निकलना चालू कर दिया। जितनी हो सकी, जिनप्रतिमाओं को उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर भिजवा दिया। 3 वर्षों के बाद तुर्को ने तक्षशिला पर आक्रमण कर वहाँ के मनुष्यों के संहार एवं संस्कृति के ध्वंस द्वारा तक्षशिला जैसी सम्पन्न नगरी को भंग कर दिया। अनेकों जिनमंदिरों की इस प्रकरण में क्षति हुई। उसके कई अरसों बाद बादशाह गज़नी ने तक्षशिला का पुनरूद्धार किया तथा उसका नया नाम 'गजनी' रख दिया। लघु शांति में श्री शांतिनाथ भगवान्, श्री पार्श्वनाथ भगवान् एवं जया-विजया देवी की स्तुति की गई है। स्तोत्र के अनुसार इसका पाठ करने से जल, अग्नि, विष, सर्प, राजा, दुष्टग्रह, महावीर पाट परम्परा 80 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोग एवं युद्ध का भय तथा राक्षस, शत्रुसमूह, महामारी, चोर, पशु, शिकारी भूत पिशाच व डाकिनियों का उपद्रव शांत होता है। “ॐ नमो नमो ह्राँ ह्रीं हूँ ह्रः यः क्षः ह्रीं फुट् फुट् (फट् फट्) स्वाहा " मंत्र भी प्रयोग किया है। अंतिम गाथा में अपना नामोल्लेख करते हुए वे लिखते हैं “यश्चैनं पठति सदा, श्रृणोति भावयति वा यथायोगम् । स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिः श्री मानदेवश्च ॥” लघु शांति की तरह शाकंभरी नगरी में शाकिनी व्यंतरी के उपद्रव को शांत करने के लिए उन्होंने प्रसिद्ध 'तिजयपहुत्त' स्तोत्र की रचना की । तिजयपहुत्त स्तोत्र में 170 तीर्थंकर परमात्माओं की स्तवना है। यह 14 गाथाओं का है। स्तोत्र के पाठ "ॐ ह र हुं हः स र सुं सः, ह र हुं हः" के आधार पर ही महाप्रभावक सर्वतोभद्र यंत्र की संरचना की गई है। कालधर्म : जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए मानतुंग सूरि जी को अपने पाट पर स्थापित कर उन्होंने गिरनार पर्वत पर जिनकल्प सदृश संलेखनापूर्वक अनशन स्वीकार किया । वि. सं. 261 ( वीर निर्वाण 731 ) में गिरनार तीर्थ पर वे स्वर्गवासी बने । महावीर पाट परम्परा - 81 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. आचार्य श्रीमद् मानतुंग सूरीश्वर जी महिमावंत गुरु मानतुंग जी, जान असार संसार। मोक्षमार्ग संवाहक आचार्यवर, नित् वंदन बारम्बार॥ जैन इतिहास में आचार्य मानतुंग सूरि जी नाम के 2 आचार्य प्रसिद्ध हुए हैं - एक विक्रम की चौथी शताब्दी में हुए मानदेव सूरि जी के पट्टधर यानि भगवान् महावीर के 20वें पट्टधर आ. मानतुंग सूरि जी एवं दूसरे विक्रम की आठवीं शताब्दी में हुए भक्तामर स्तोत्र के रचयिता आचार्य मानतुंग सूरि जी। कुछ इतिहासकारों ने दोनों मानतुंग सूरि जी को एक मानकर उपरोक्त मानतुंग सूरि जी द्वारा भक्तामर स्तोत्र की रचना का उल्लेख किया है। किन्तु शोध एवं अनुसंधानों से दोनों के भिन्न-भिन्न होने के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। __इन आचार्य मानतुंग सूरि जी ने ग्राम-ग्राम विचरण कर अनेक लोगों को जैन बनाया। इस समय भारत की राजनैतिक परिस्थितियां काफी अस्थिर रही। गुप्तवंश, कुषाण-राजवंश, भारशिव वंश आदि अनेक राजवंश आए तथा गए। सामान्य प्रजा पर भी इसका स्वाभाविक असर पड़ता है। जैन समाज पर भी इसका व्यापक असर पड़ा। जिनमंदिरों, जिनागमों का संरक्षण किए रखना समाज के प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व सा बन गया। ___ मानतुंग सूरि जी सताईस वर्षों तक गच्छनायक के रूप में जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए आचार्य वीर सूरि जी को अपना पट्टधर घोषित कर के वि.सं. 288 (वीर निर्वाण 758) में कालधर्म को प्राप्त हुए। लगभग इसी कालक्रम में आचार्य विमल सूरि जी हुए। उनकी 2 रचनाएँ प्रमुख हैं - पउमचरिउ (पद्मचरित्र) और हरिवंश चरिउ (हरिवंश चरित्र) जो क्रमशः जैन रामायण और जैन महाभारत के नाम से भी प्रसिद्ध है। ये रचनाएँ प्राकृत में है, किंतु इनका सटीक समय प्राप्त नहीं होता। महावीर पाट परम्परा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. आचार्य श्रीमद् वीर सूरीश्वर जी धीर सुधीर गंभीर गुरुवर, महावीर मंगलाचार । वीर सूरि जी विमल विचारक, नित् वंदन बारम्बार ॥ आचार्य मानतुंग सूरीश्वर जी के कालोपरान्त वीर सूरि जी भगवान् महावीर की अक्षुण्ण पाट परम्परा के क्रमिक 21वें पट्टधर हुए। अपनी उपदेश शक्ति के बल पर तथा संयम साधना की सुवास के कारण नूतन जैन बनाकर, नूतन जिनालय बनाकर जिनधर्म - जिनशासन की प्रभावना के कार्य गतिमान रखे । शासन प्रभावना : वीर संवत् 770 अर्थात् वि.सं. 300 में नागपुर में तीर्थंकर श्री नमिनाथ जी की प्रतिष्ठा कराकर अपनी धवल यश चन्द्रिका को चतुर्दिक् में विस्तृत किया। वीर वंशावली के उल्लेखानुसार- इस प्रतिष्ठा के समय इन्होंने कई अजैन बंधुओं को जैन बनाया एवं उपकेश वंश यानि ओसवालों में सम्मिलित किया, ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं। वीर सूरि जी ने सांचोर में भी शासनपति भगवान् महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई। प्रभावक चरित्र में किन्हीं आचार्य वीर सूरि जी के चरित्र में यह लिखा है कि दैवीय सहायता से विजय वीर सूरीश्वर जी अष्टापद गिरिराज की यात्रा करने गए। किंतु वहाँ यात्रा के लिए आए हुए देव का तेज वे सह नहीं पा रहे थे । अतः उन्होंने मंदिर के पुतली के खंभे की आड़ में खड़े रहकर प्रभु के दर्शन किए और स्मृति चिन्ह के रूप में देवों द्वारा चढ़ाए गए अक्षत (चावल) के 4-5 दाने ले लिए। उपाश्रय में लौटकर उन्होंने वे दाने खुले रखे तो चारों ओर सुगंध फैल गई। आश्चर्यमुग्ध बने हुए शिष्यों ने जब ये अक्षतकण देखे तब पता चला कि एक-एक कण करीबन 12 इंच लंबा व 1 इंच चौड़ा था । उपरोक्त संदर्भ में कथित वीर सूरीश्वर जी भगवान् महावीर के 21वें पट्टधर हुए वीर सूरि जी ही हैं, ऐसा निस्संदेह नहीं कहा जा सकता। वीर सूरि जी का कालधर्म वीर सं. 793 यानि वि. सं. 323 में हुआ । महावीर पाट परम्परा 333 83 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. आचार्य श्रीमद् जयदेव सूरीश्वर जी जय गुरु जयदेव सूरि जी, विशुद्ध दर्शनाचार । जयणाधर्म के सफल प्रचारक, नित् वंदन बारम्बार || शासननायक भगवान् महावीर की परमोज्ज्वल पाट परम्परा के 22वें क्रम पर आचार्य जयदेव सूरि जी हुए । 'वीर वंशावली' नामक ग्रंथ में उल्लेख है कि आचार्य जयदेव सूरि जी ने रणथंभौर नगर के उत्तुंगगिरि पर तीर्थंकर पद्मप्रभ जी की प्रतिमा की भव्य प्राण प्रतिष्ठा कराई एवं देवी पद्मावती की भी मूर्ति स्थापित करवाई । इनका विहार क्षेत्र प्रमुखतः मरुधर ( मारवाड़) ही रहा । अनेकानेक राजपूतों और क्षत्रियों को उपदेश देकर उन्हें जैनधर्मानुयायी बनाया एवं जयणा के काफी कार्य कराए। उस समय उपकेशगच्छ एवं कोरंट गच्छ के आचार्य अजैनों की शुद्धि कर उन्हें जैन बना रहे थे। आचार्य जयदेव सूरि जी का भी उसमें अभूतपूर्व सहयोग रहा। शासन की महती प्रभावना करते हुए वे वीर सं. 833 में स्वर्गवासी बने । इनके काल में वाचनाचार्य स्कंदिल सूरि जी, वाचक उमास्वाति जी इत्यादि धुरंधर विद्वान हुए । समकालीन प्रभावक आचार्य ● आचार्य उमास्वाति जी : आचार्य श्री उमास्वाति जी की स्वीकार्यता श्वेताम्बर एवं दिगंबर परम्परा में समान रूप से है। इतिहासविदों के अनुसार वे संभवतः यापनीय परम्परा से संबंधित थे। यापनीय संघ में कुछ धारणाएं श्वेताम्बरों की एवं कुछ धारणाएं दिगंबरों की थी। प्रसिद्ध तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वाति जी भी शायद इसी यापनीय संघ के धुरंधर विद्वान थे। इनका जन्म न्यग्रोधिका गांव में ब्राह्मण स्वाति की पत्नी उमा की कुक्षि से हुआ जिससे इनका नाम 'उमास्वाति' प्रसिद्ध हुआ। वे संस्कृत भाषा के अधिकृत ज्ञाता थे । ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने के कारण संस्कृत भाषा महावीर पाट परम्परा 84 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . का ज्ञान उन्हें प्रारंभ से ही था। घोषनन्दि श्रमण (श्रमण बलिस्सह) के पास वे जैन धर्म में प्रव्रजित हुए। वे 500 ग्रंथों के रचनाकार थे। उनके प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार हैं 1. तत्त्वार्थ सूत्र : ज्ञान, भूगोल, खगोल, कर्मसिद्धान्त, आत्म तत्त्व, पदार्थ विज्ञान, मोक्ष मार्ग इत्यादि विषयों का विस्तृत वर्णन है। इसमें 10 अध्याय हैं प्रथम - ज्ञान के 5 भेद सम्बन्धी 33 सूत्र द्वितीय - संसारी जीवों के भेदों-उपभेदों सम्बन्धी 53 सूत्र तृतीय अधोलोक-मध्यलोक सम्बन्धी 39 सूत्र चतुर्थ - देवलोक (ऊर्ध्वलोक) सम्बन्धी 42 सूत्र पंचम धर्म-अधर्म आदि द्रव्य सम्बन्धी 42 सूत्र षष्ठम - आश्रव तत्त्व सम्बन्धी 27 सूत्र सप्तम संवर तत्त्व सम्बन्धी 39 सूत्र अष्टम कर्मबन्ध सम्बन्धी 26 सूत्र दशम - मोक्ष मार्ग सम्बन्धी 9 सूत्र 2. जंबूद्वीप समास प्रकरण 3. पूजा प्रकरण 4. श्रावक प्रज्ञप्ति 5. प्रशमरति प्रकरण 6. क्षेत्र विचार 7. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य 8. पंचाशक वृत्ति 9. उत्तराध्ययन टीका 10. स्थानांग टीका आदि। जनश्रुति के अनुसार, उन्होंने एक बार पत्थर की प्रतिमा के मुख से शब्दोच्चारण कराया, ऐसी सिद्धियाँ उनमें निहित थीं। विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी में हुए आचार्य उमास्वाति ने जैन वाङ्मय की परम्परा में महनीय योगदान दिया। महावीर पाट परम्परा 85 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. आचार्य श्रीमद देवानन्द सूरीश्वर जी सुदेव-सुगुरु-सुधर्म समर्पित, शास्त्रार्थ कुशल व्यवहार। आनंदलीन गुरु देवानंद जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य जयदेव सूरीश्वर जी के पट्ट पर हुए प.पू.आ. देवानंद सूरि जी ने शासन प्रभावना के अनेक कार्य किए एवं महावीर स्वामी के 23वें सुयोग्य पट्टधर सिद्ध हुए। ___ इन्होंने प्रभास पाटण (देवकीपट्टन) में श्रीसंघ के आग्रह से पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ जी के जिनमंदिर की विधिवत् प्रतिष्ठा कराई। कच्छ-सुथरी में शिवधर्मोपासक शैवों को शास्त्रार्थ में पराजित कर जैनधर्म के जयनाद का उद्घोष कराया व जिनमंदिर की प्रतिष्ठा कराई। इन सुअवसरों पर उन्होंने अनेकों क्षत्रियों को जैन बनाया। कई देवी-देवों की उन्हें सहायता रही। इनके जीवनकाल में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रसंग हुए1) मथुरा एवं वल्लभी में चौथी आगम वाचना। यह वाचना आगमों के पाठों को शुद्ध और अर्थों को स्पष्ट करने में सहयोगी रही। वि.सं. 375 में वल्लभी नगरी का भंग। गजनी तुर्कों ने आक्रमण किया जिसके कारण अमूल्य प्रतिमाएं भीनमाल आदि में लानी पड़ी। वादिवेताल शांति सूरि जी ने संघ की रक्षा की। 3) वि.सं. 412 में कतिपय साधु-साध्वियों में चैत्यस्थिति का शिथिलाचार उत्पन्न हुआ था। वे मठों । मंदिरों में रहने लगे, जिनप्रतिमा बेचने लगे, धन का संचय करने लगे इत्यादि। 4) वि.सं. 416 में ब्रह्मदीपिका शाखा उत्पन्न हुई। इसका संबंध आचार्य वज्रस्वामी जी के मामा आचार्य समित सूरि जी की शिष्य परम्परा से रहा। महावीर पाट परम्परा 86 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य मल्लवादी जी : अनंत प्रज्ञा के धनी एवं वादकुशल आचार्य मल्लवादी सूरि जी शासन प्रभावक गुरुदेव हुए। इनका जन्म वल्लभीपुर में हुआ। इनका बाल्यकाल का नाम - मल्ल था एवं अपनी माता दुर्लभदेवी के साथ उन्होंने आचार्य जिनानंद सृरि जी के पास दीक्षा ली एवं मल्लमुनि के नाम से जाने गए। एक बार गुरु आज्ञा के बिना ज्ञानप्रवाद नामक पूर्व में से उद्धृत 'नयचक्र' नामक ग्रंथ पढ़ने पर शासन देवी ने रूष्ट होकर उनसे ग्रंथ छीन लिया। किंतु इनकी तपस्या एवं बुद्धिबल से प्रसन्न होकर देव ने ग्रंथ की पुनर्रचना का रहस्योद्घाटन किया। मल्ल मुनि ने 10,000 श्लोक परिमाण नयचक्र नामक ग्रंथ का निर्माण किया। इसके 12 अध्यायों में नय तथा अनेकांत दर्शन का विस्तृत वर्णन होने से यह द्वादशारनयचक्र के नाम से प्रसिद्ध है। _ वि.सं. 1334 के आसपास यह अमूल्य ग्रंथ विलुप्त हो गया था। किंतु यशोविजय जी जंबुविजय जी आदि विद्वान गुरुभगवंतों ने समय-समय पर इसका संकलन व संपादन किया। वल्लभी में आचार्य जिनानंद सूरि जी ने मल्ल मुनि को सर्वथा योग्य जान आचार्य पद पर आरूढ़ किया। मल्लमुनि की दीक्षा से पहले भरूच में आचार्य जिनानंद सूरि जी का बौद्ध भिक्षु नंद के साथ शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जिनानंद सूरि जी की हार हुई। इसके कारण वहाँ जिनशासन की क्षति हुई एवं उनका निष्कासन हो गया। स्थविर मुनिजनों से जब यह वृत्तान्त मल्ल सूरि जी को पता लगा तो उन्हें गुरु की पराजय का एवं जिनशासन की अवहेलना का असह्य दुःख हुआ। भरूच पहुँचकर उन्होंने बौद्ध भिक्षु नंद से राजसभा में शास्त्रार्थ किया। वह 6 महीने तक चला और अन्ततः वाक्पटु आचार्य मल्लविजयी हुए। वि.सं. 414 में हुए इस शास्त्रार्थ में राजा ने प्रसन्न होकर आचार्य मल्ल सूरि को 'वादी' का बिरुद दिया। तभी से वे आचार्य मल्लवादी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने गुरु आ. जिनानंद सूरि जी का भरूच में प्रवेश कराकर उन्होंने आदर्श शिष्य एवं आदर्श लेखक के रूप में शासन की अमूल्य सेवा की। महावीर पाट परम्परा 87 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. आचार्य श्रीमद् विक्रम सूरीश्वर जी तपोमार्ग से तप्त तेजस्वी, घोर अभिग्रह धार। चौबीसवें क्रम विक्रम सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ अपने ज्ञानरूपी प्रकाश से अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करने वाले आ. विक्रम सूरि जी वीर शासन के 24वें पट्टप्रभावक हुए। इनका विहार बहुधा गुजरात की धर्मभूमि पर हुआ किंतु मरूधर, मेढ़पाट, आवंती, लाट तथा सौराष्ट्र में भी उनकी धर्मस्पर्शना हुई। एक बार गुर्जर प्रान्त में विचरण करते हुए सरस्वती नदी के किनारे 'खरसाड़ी' गाँव में पधारे। वहाँ साधनानुकूल स्थान जानकर दो महीने की जलरहित चौविहार उपवास की उग्र तपश्चर्या की। उनकी आराधना से प्रभावित होकर वीणावादिनी देवी सरस्वती प्रकट हुई एवं आचार्यश्री के चरणों में नमस्कार किया तथा ज्ञान के क्षेत्र में उनके साथ रहने का आश्वासन दिया एवं विजयी होने की बात कही। आचार्यश्री ने भी वरदान को तथास्तु कहकर स्वीकार किया। आचार्यश्री के तप प्रभाव से वर्षों से सूखा पड़ा हुआ समीप के पीपल का पेड़ हरा-भरा हो गया। जन सामान्य में विक्रम सूरि जी के ज्ञान, तपस्या एवं संयम की कीर्ति फैल गई। धांधार (गांधार) देश के गाला नगर में अनेक परमार क्षत्रियों को प्रतिबोधित करके जैनधर्मी बनाया। अपने निर्मल संयम जीवन का निर्वहन करते हुए उन्होंने अनेक मिथ्यात्व वादियों को परास्त किया एवं जैनधर्म की महती प्रभावना की। विक्रम की इस चौथी-पाँचवी सदी में आ. शिवशर्म सूरि, आ. विमलचंद्र सूरि, आ. चंद्रर्षि महत्तर, धर्मदासगणी महत्तर इत्यादि विभूतियाँ भी हुई। ये सभी समर्थ ग्रंथकार हुए एवं इनकी रचनाएं आज भी पढ़ी जाती हैं; जैसे - आचार्य शिवशर्म सूरि जी द्वारा विरचित कर्म प्राभृत एवं कर्मग्रंथ • आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर जी द्वारा विरचित पंचसंग्रह . वाचक श्री संघदास गणि जी द्वारा विरचित वसुदेवहिण्डी, बृहत्कल्प-लघुभाष्य • आचार्य धर्मदास महत्तर जी द्वारा विरचित उपदेशमाला इत्यादि। -..... महावीर पाट परम्परा 88 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. आचार्य श्रीमद् नरसिंह सूरीश्वर जी पट्टसिंहासन नरसिंह सूरि जी, प्रतिबोध कुशल विचार । अमारिप्रवर्तक, आत्मसाधक, नित् वंदन बारम्बार || शासनपति महावीर स्वामी के क्रमिक 25वें पट्टधर आ. नरसिंह सूरि जी तथा गुण, नरों में सिंह की भाँति जिनवाणी की निर्भीक गर्जना करने वाले हुए। एक बार वे अपने शिष्य समुदाय सहित नरसिंहपुर नगर में पधारे । यहाँ पर एक मिथ्यात्वी यक्ष भैंसों-बकरों की बलि लिया करता था। गाँव के लोग भी मरणभय से भयभीत होकर इस प्रकार की जीव हिंसा किया करते थे। आ. नरसिंह सूरि जी रातभर यक्षायतन में रहे। यक्ष क्रोधित होकर आचार्यश्री को उपसर्ग देने के लिए प्रयत्नशील हुआ। किंतु आचार्यश्री के संयम के प्रभाव से उनका बाल भी बाँका नहीं कर सका। रात्रि भर में नरसिंह सूरि जी ने यक्ष को इस प्रकार प्रतिबोधित कर डाला कि यक्ष ने न केवल जीवहिंसा का त्याग किया बल्कि शासन प्रभावना के कार्यों में आचार्यश्री की सहायता की। इनके लिए कहा गया है यथा नाम नरसिंहसूरिरासीदतोऽखिलग्रन्थपारगो येन । यक्षो नरसिंहपुरे, मांसरति त्याजितः स्वगिरा ॥ अर्थात् - नरसिंह सूरि जी, समस्त सिद्धांतों और ग्रंथों के पारगामी थे। उन्होंने नरसिंहपुर में सर्वभक्षी यक्ष को प्रतिबोध कर मांस भक्षण का त्यागी बनाया। महावीर पाट परम्परा नरसिंह सूरि जी प्रखरवक्ता एवं सफल उपदेशक थे। अमरकोट तथा आसपास के नगरों में नवरात्रि पर्व के आठवें दिन पाड़ा (जानवर) का बलिदान लिया जाता था। उन्होंने वो भी बंद कराके अनेकानेक मूक पशुओं की प्राणरक्षा एवं लोगों को भयंकर कर्म बंधन से बचाया। मेवाड़ के खुमाण कुल के सूर्यवंशी राजपूतों को भी जिनधर्म का मर्म बतलाकर उनकी आस्था जैनधर्म में स्थिर की। खोमाणकुल के ही तेजस्वी राजकुमार समुद्र ने उनसे प्रतिबोधित होकर दीक्षा ग्रहण की। अपने शिष्यों का चन्द्रमा की भांति पूर्ण विकास कर उन्हें योग्य दायित्व दिए। आचार्य समुद्र सूरि जी को गच्छ की अनुज्ञा सौंप कर वे शासन प्रभावना करते-करते आत्म तत्त्व में विलीन हो गए। 89 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. आचार्य श्रीमद् समुद्र सूरीश्वर जी सवि जीव करूं शासनरसी, महावीर स्वप्न साकार। सिद्धि सोपान समुद्र सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य समुद्र सूरि जी सूर्यवंशी क्षत्रिय, महाप्रतापी, तपस्वी, विद्वान एवं वादकुशल थे। वीर शासन के 26वें पट्टधर के रूप में उन्होंने शासन की विस्तृत प्रभावना की। ये शिलादित्य वंश में राउल जी के पुत्र राजा खुमाण के पुत्र थे। सिसोदिया वंश के नाम से वे प्रसिद्ध थे। जिनधर्म के सिद्धांतों से प्रभावित होकर उन्होंने जैनधर्म में दीक्षा स्वीकार की। चित्तौड़ का राणा इनका सांसारिक कुटुम्ब था, अतः इनकी प्रसिद्धि सर्वत्र हुई। इनके समय में दिगम्बर आम्नाय की वृद्धि हो रही थी। वैराटनगर में शास्त्रार्थ में दिगम्बरों को पराजित कर उन्होंने श्वेताम्बर धर्म का फैलाव किया। नागहद नामक तीर्थ जहाँ पर दिगंबरों ने अपना एकछत्रीय आधिपत्य स्थापित कर लिया था, वहाँ पर भी आ. समुद्र सूरि जी ने भरसक प्रयत्न कर पुनः श्वेताम्बरों का अधिकार में कराया। ___ भैंसे और बकरे की बलि लेने वाली चामुंडा देवी को भी प्रतिबोध देकर मूक प्राणियों को अभयदान दिलाया एवं देवी को भी सम्यग्दृष्टि बनाया। बाड़मेर, कोटड़ा आदि अजैन प्रदेशों में भी विचरकर उन्होंने लोगों को जैनधर्म के प्रति आकर्षित किया एवं जोड़ा। तपस्या में भी समुद्र सूरि जी नितान्त एकाग्र रहते थे। इनके काल में वड़नगर में आचार्य कालक सूरि द्वारा कल्पसूत्र को संघ के समक्ष पढ़ा गया। तथा आ. देवर्धिगणी क्षमाश्रमण, आ. सत्यमित्र सूरि, आ. भूतदिन्न सूरि जी इत्यादि शासन प्रभावक आचार्य भी हुए। महावीर पाट परम्परा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण : आगमज्ञान को स्थायी बनाने हेतु श्रुत लेखन का महत्त्वपूर्ण कार्य करने हेतु आ. देवर्द्धिगणी का नाम जैन इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है। भगवान् महावीर का गर्भहरण जिसने किया, वे देव हरिणैगमैषी की ही आत्मा ने सौराष्ट्र के कामर्द्धि क्षत्रिय की पत्नी कलावती की कुक्षि से जन्म लिया। स्वप्न में ऋद्धि सम्पन्न देव देखने के कारण माता ने पुत्र का नाम देवर्द्धि रखा। मित्र देव द्वारा उद्बोधन मिलने पर उसने दीक्षा ग्रहण की। . भयंकर दुष्काल के कारण साधु-साध्वियों की स्मृति शक्ति क्षीण हो गई तथा अनेक श्रुतध र काल कवलित हो गए। दुष्काल की समाप्ति के बाद, वल्लभी में समूचा जैन संघ एकत्रित हुआ। विशिष्ट वाचनाचार्य श्री देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण इस श्रमण सम्मेलन के अध्यक्ष थे। शासन देव की सहायता एवं 500 आचार्यों के सहयोग से आगमों की सुरक्षा के लिए उन्हें लिपिबद्ध करने का कार्य प्रारंभ हुआ। जिसको जितना याद था, जैसा याद था, उन सबका संकलन, त्रुटियों का निवारण, वाचनाभेद में तटस्थता इत्यादि कार्य हुए। आ. देवर्द्धिगणी के नेतृत्त्व में समग्र आगमों का जो व्यवस्थित संकलन एवं लिपिकरण हुआ, वह अपूर्व था। वही सभी साहित्यों का आध पर बना। उस समय 84 आगम लिपिबद्ध हुए थे। वि.सं. 510 (वीर निर्वाण संवत् 980) में यह हुआ। 84 आगमों के नाम1) आचारांग 2) सूत्रकृतांग 3) स्थानांग 4) समवायांग 5) विवाहप्रज्ञप्ति 6) ज्ञाताधर्मकथा 7) उपासकदशांग 8) अंतकृत-दशांग 9) अनुत्तरौपपातिक 10) प्रश्नव्याकरण 11) विपाकश्रुत 12) आवश्यक सूत्र 13) दशवैकालिक 14) कल्पिताकल्पित 15) लघुकल्पश्रुत 16) महाकल्पश्रुत 17) औपपातिक 18) राजप्रश्नीय 19) जीवजीवाभिगम 20) प्रज्ञापना सूत्र 21) महाप्रज्ञापना महावीर पाट परम्परा 91 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22) प्रमादाप्रमाद 23) नंदीसूत्र 24) अनुयोगद्वार सूत्र 25) देवेन्द्रस्तव 26) तंदुलवैचारिक 27) चन्द्रवेध्यक 28) सूर्यप्रज्ञप्ति 29) पोरिसीमंडण 30) मंडलप्रवेश 31) विद्याचरणविनिश्चय 32) गणिविद्या 33) ध्यानविभक्ति 34) मरणविभक्ति 35) आत्मविशुद्धि 36) वीतरागश्रुत 37) संलेषणाश्रुत 38) विहारकल्प 39) चरणविधि 40) आतुरप्रत्याख्यान 41) महाप्रत्याख्यान 42) उत्तराध्ययन 43) दशाश्रुतस्कंध 44) बृहत्कल्प सूत्र 45) व्यवहार सूत्र 46) निशीथ सूत्र 47) महानिशीथ सूत्र 48) ऋषिभाषित 49) जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति 50) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति 51) चंद्रप्रज्ञप्ति 52) लघुविमान प्रविभक्ति 53) महाविमान प्रविभक्ति 54) अंगचूलिका 55) वर्गचूलिका 56) विवाहचूलिका 57) अरुणोपपात 58) वरुणोपपात 59) गरुडोपपात 60) धरणोपपात 61) वैश्रमणोपपात 62) वेलंधरोपपात 63) देवेन्द्रोपपात 64) उत्थान सूत्र 65) समुत्थान सूत्र 66) नागपरियावलिका 67) निरयावलिका 68) कल्पावतंसिका 69) पुष्पिका 70) पूष्पचूला 71) वृष्णिदशा 72) आशीविषभावना 73) दृष्टिविषभावना 74) चारणस्वप्नभावना 75) महास्वप्नभावना 76) तेजोग्निनिसर्ग 77) दोगिद्धिदशा .. 78) दीर्घदशा 79) बंधदशा 80) संक्षिप्तदशा 81) प्रश्नव्याकरण दशा 82) पंचकल्प 83) गतिप्रवाद 84) संसक्तनियुक्ति इन 84 आगमों में प्रथम 11 सुधर्म स्वामी प्रणीत एवं शेष भगवान् के शिष्यों, प्रत्येकबुद्धों एवं पूर्वधरों की रचनाएं हैं। अनेकानेक ग्रंथ विलुप्त 12वें अंग दृष्टिवाद से उद्धृत थे। प्राकृत महावीर पाट परम्परा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अर्धमागधी) भाषा में ये लिपिबद्ध हुए। ऐतिहासिक क्रम में आगमों का लेखन एक क्रांतिकारी कदम था। इन 84 में से भी वर्तमान में 45 आगम प्राप्त हैं। इन आगमों के अतिरिक्त भी अनेकानेक ग्रंथ व शास्त्र इस समय में लिपिबद्ध हुए। जैसे-जीवसमास, नयचक्र, पंचसंग्रह, प्रतिष्ठाकल्प, अंगविद्या, ज्योतिष करंडक, ज्योतिष प्राभृत, पद्मचरित्र इत्यादि। आगम लेखन कार्य से उन्होंने जिस प्रकार वीतराग वाणी को दीर्घकालवत्ता प्रदान की है एवं जैन आगम निधि को सुरक्षित करने का महनीय कार्य किया है, उसके लिए जैन शासन उनका युगों-युगों तक आभारी रहेगा। लगभग इसी समय संवत्सरी पर्व पंचमी से चौथ को मनाया जाने लगा, जिसका सर्जन आचार्य कालक (चतुर्थ) ने किया। वि.सं. 993 के आसपास आनंदपुर (वढनगर) से पर्युषण पर्व में कल्पसूत्र का चतुर्विध संघ के समक्ष वांचन प्रारंभ हुआ। महावीर पाट परम्परा 93 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. आचार्य श्रीमद् मानदेव सूरीश्वर जी सूरिमंत्र समाराधक, तपयोगी भण्डार। सूरिपुरंदर मानदेव जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य मानदेव सूरि जी (द्वितीय) भगवान् महावीर की 27वीं पाट पर विराजित अत्यंत प्रतिभासंपन्न आचार्य रहे। अनेक गाँवों-नगरों में विहार कर जैनधर्म की खूब प्रभावना की। वि. सं. 582 में समुद्र सूरि जी ने अपने इस शिष्य की योग्यता जानकर सूरि पद पर स्थापित किया एवं आचार्य मानदेव सूरि नाम प्रदान किया। वि.सं. 582 में आचार्य पदवी ग्रहण के अवसर पर उन्हें गुरु परम्परा में चन्द्रकुल का सूरिमंत्र प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् विद्याधर शाखा के अपने मित्र आचार्य हरिभद्र से उन्हें दूसरा सूरि मंत्र भी मिला। मंत्रपदों की समानता, दारूण दुष्काल, लोकमरण एवं बीमारी - ये चार कारणों से वे 'सूरिमंत्र' भूल गए। सूरिमंत्र शासन की अमूल्य संपदा है एवं उसके विस्मृत हो जाने का उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे पश्चाताप की भावना में जलने लगे। अतः पुनः सूरिमंत्र की प्राप्ति के लिए उन्होंने श्री गिरनार तीर्थ पर पधारकर चौविहार उपवास की तपश्चर्या करना आरंभ किया। तप करते-करते उन्हें पूरे 2 महीने व्यतीत हो गए। उनका देह पहले से अधिक कृश हो गया किन्तु उनकी भावना अत्यंत तीव्र थी। संघ भी उनके प्रयोजन की पूर्ति हेतु छोटे-बड़े अनुष्ठान करने लगा। अंततः उनके तप के तेज से प्रभावित होकर वहाँ की अधिष्ठायिका देवी अम्बिका प्रकट हुई। उसने आचार्य मानदेव सूरीश्वर जी से तपस्या का कारण पूछा। आचार्यश्री ने सब वृत्तांत बताया। एक मान्यता अनुसार अंबिका देवी महाविदेह क्षेत्र में विराजित श्री सीमंधर स्वामी परमात्मा से सूरिमंत्र लेकर आई एवं मानदेव सूरि जी को प्रदान किया। द्वितीय मान्यतानुसार अंबिका देवी ने देवी विजया से संपर्क किया एवं आ. मानदेव सूरि जी को सूरिमंत्र की स्मृति कराई। बृहद्गच्छ की सूरिविद्यापाठ की प्रशस्ति-पुष्पिका में भी मानदेव सूरि जी (द्वितीय) एवं सूरिमंत्र का वृत्तांत विस्तृत रूप से लिखा है। वीर संवत् 1000 के आसपास वे विद्यमान थे। महावीर पाट परम्परा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. आचार्य श्रीमद् विबुधप्रभ सूरीश्वर जी अमेय बुद्धि के धनी, जिनशासन अलंकार। आचार्यरत्न विबुधप्रभ सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ भगवान् महावीर स्वामी की जाज्वल्यमान पाट परम्परा के 28वें पट्टधर आचार्य विबुधप्रभ सूरीश्वर जी हुए। इनके समय में कुलपाक जी तीर्थ की स्थापना हुई। दक्षिण भारत के राजा शंकर ने नगर में फैले मरकी रोग को शांत करने के लिए भरत चक्रवर्ती द्वारा माणेक रत्न से बनाई एवं अंजनश्लाका की हुई आदिनाथ जी की प्रतिमा को कर्नाटक के कुलपाक नगर में स्थापित किया। वह स्थान कुलपाक तीर्थ और प्रतिमा माणेक स्वामी के नाम से विख्यात हुई। यह घटना वि.सं. 640 के आसपास की है। आगम साहित्य के व्याख्या ग्रंथ के क्षेत्र में इस युग में 'भाष्य' रचे गए। नियुक्तियों की भाँति भाष्य पद्यबद्ध प्राकृत भाषा में है। नियुक्ति साहित्य में पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना मुख्य प्रयोजन था किन्तु गूढ-अर्थ को अधिक स्पष्टता से समझने के लिए भाष्य रचे गए। सुप्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आचार्य विबुधप्रभ सूरि जी के समकालीन कहे जाते हैं। • समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण : ये आगमों के मर्मज्ञ विद्वान थे। मथुरा में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 15 दिन की दीर्घकालीन तपो- साधना से देवनिर्मित स्तूप के अधिष्ठायक देव को प्रत्यक्ष किया था। इसी देव की सहायता से उन्होंने कीड़ों द्वारा लगभग नष्ट हो चुके महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया। इनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं1) विशेषावश्यक भाष्य - आवश्यक सूत्र (आगम) के प्रथम अध्ययन सामायिक सूत्र पर यह भाष्य आधारित है। इसमें 3603 गाथाएं हैं। इसमें अनेकविध विषयों का महावीर पाट परम्परा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3) विशालकाय वर्णन है। जैसे - कर्म, ज्ञान, वर्गणा, निक्षेप, सिद्ध, गणधरवाद, निन्हव, अनेकान्तवाद इत्यादि। जीतकल्प भाष्य - इसमें सूत्र की 103 और भाष्य की 2606 गाथाएं हैं। प्रारंभ में आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत - इन 5 व्यवहारों का वर्णन है। प्रायश्चित विधि का प्रतिपादन भी प्रमुखतः जीव व्यवहार के आधार पर किया है। बृहत्संग्रहणी - इसमें जैन दर्शन सम्मत देव-नारकी-मनुष्य-तिर्यंच सम्बन्धी सभी प्रकार की जानकारी संग्रहित है। संग्रहणी नाम के इसी प्रकार कई ग्रंथ मिलते हैं। सभी की ___ अपेक्षा यह ग्रंथ बड़ा होने से बृहत्-संग्रहणी के नाम से प्रसिद्ध है। 4) बृहत् क्षेत्र समास - इसमें जैन दर्शन अनुसार भूगोल सम्बन्धी विस्तृत जानकारियाँ हैं। क्षेत्र समास नाम की कई कृतियाँ हैं। जिनभद्र गणि जी की सबसे विस्तृत, विश्वसनीय एवं जनोपयोगी होने से बृहत् क्षेत्र समास के नाम से प्रसिद्ध है। 5) विशेषणवती - इस ग्रंथ में आगम मान्यताओं को पुष्ट किया गया है। जैन सिद्धांत सम्मत विषयों का वर्णन एवं असंगतियों का निराकरण इसमें है। यह 400 पद्य परिमाण हैं। इसके अलावा भी अनुयोगद्वार चूर्णि, ध्यानशतक इत्यादि ग्रंथ उनके द्वारा लिखित ग्रंथ साहित्य जगत के अनमोल रत्न हैं। आगमिक परम्परा को सुरक्षित रख उसे पुष्पित - पल्लवित करने का श्रेय आचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण जी को भी जाता है। विशेषावश्यक भाष्य की रचना को संस्कृत भाषियों के लिए उपयोगी बनाने हेतु उस पर संस्कृत वृत्ति लिखना भी उन्होंने प्रारंभ किया किंतु छठे गणधर व्यक्त स्वामी तक टीका रचने के बाद ही वे आकस्मिक रूप से काल कवलित हो गए। अतः कोट्याचार्य ने अवशिष्ट टीका रचना को 13,700 श्लोक परिमाण में पूर्ण किया। वे वि.सं. 650 के आसपास विद्यमान थे। महावीर पाट परम्परा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. आचार्य श्रीमद् जयानंद सूरीश्वर जी धर्मोपदेशक, प्रखर व्याख्याता, कोटि जीर्णोद्धार । जिनागम सिंधु जयानंद जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ आचार्य विबुधप्रभ सूरि जी के पश्चात् आचार्य जयानंद सूरि जी शासनपति महावीर स्वामी के 29वें पट्टप्रभावक हुए। वे प्रखर उपदेशक कहे जाते हैं। उन्हीं के सदुपदेश एवं पावन प्रेरणा से प्राग्वाट (पोरवाल) मंत्री सामंत ने परमार्हत् सम्राट सम्प्रति द्वारा निर्मित 900 मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया क्योंकि शताब्दियों बाद वे शोचनीय अवस्था में आ गए थे। हमीरगढ़, वीजापुर, वरमाण, नांदिया, बामणवाड़ा एवं मुहरीनगर इत्यादि स्थानों पर भव्य रूप से जीर्णोद्धार कराए गए। वे समयज्ञ आचार्य थे। उन्होंने नूतन जिनमंदिरों के निर्माण से पहले प्राचीन ऐतिहासिक जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार पर बल दिया। यह विरासत युगों-युगों तक विद्यमान रहे, ऐसी उनकी परमोत्कृष्ट भावना थी। वे विक्रम की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए । उल्लेखानुसार करहेड़ा तीर्थ में पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी उन्होंने कराई | इनके काल में कोट्याचार्य महत्तर, आ. सिंह सूरि जी, आ. मानतुंगसूरि जी, दिगंबराचार्य 'अकलंकदेव इत्यादि महापुरुष हुए। समकालीन प्रभावक आचार्य आचार्य मानतुंग सूरीश्वर जी : भक्तामर स्तोत्र एवं नमिऊण स्तोत्र जैसे सुमधुर उच्च कोटि के काव्यों के रचनाकार आ. मानतुंग सूरि जी अपने युग के एक यशस्वी विद्वान थे। प्रथमतः उन्होंने दिगंबराचार्य चारुकीर्ति के शिष्य महाकीर्ति के रूप में दीक्षा ग्रहण की किंतु सांसारिक बहन के प्रतिबोध से श्वेतांबराचार्य अजितसिंह (जिनसिंह) के शिष्य मानतुंग के रूप में संयमवेश धारण किया। वे बुद्धि के धनी व कुशल काव्यकार थे। अपनी योग्यता के बल पर वे आचार्य पद से विभूषित हुए । महावीर पाट परम्परा 97 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस समय वाराणसी में राजा हर्षदेव का राज्य था। विद्वशिरोमणि हर्षदेव कविजनों का विशेष आदर करता था । चामत्कारिक विद्याओं के कारण मयूर कवि एवं बाण कवि का राजसभा में बहुत सम्मान था। राजा के ब्राह्मण वर्ग के प्रति झुकाव होने से जैन मंत्री ने राजाज्ञा से मानतुंग सूरि जी को राजसभा में आमंत्रित किया । किन्तु चामत्कारिक विद्याओं के प्रयोग से कोसों दूर चारित्रधारी मानतुंग सूरि जी ने राजा को भी मोक्ष मार्ग का उपदेश दे डाला! क्रोधि त होकर राजा हर्षदेव ने आदेश देकर राजसेवकों द्वारा मानतुंग सूरि जी को 44 लोह श्रृंखलाओं के तालों से बाँधकर अंधकारमय कोठरी में बंद कर दिया। आचार्य मानतुंग चामत्कारिक विद्याओं का प्रयोग नहीं करना चाहते थे किंतु जिनशासन प्रभावना के उद्देश्य को मध्य रख वे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी की स्तुति में लीन हुए। जैसे-जैसे वे श्लोक रचते गए, उनके 44 ता टूटते चले गए। सुबह के समय 44 तालों से मुक्त तेजस्वी सूर्य की भाँति तेजस्वी मुखमंडल के धनी आ. मानतुंग सूरि जी ने राज्यसभा में उपस्थित होकर सभी को आश्चर्यचकित किया। राजा ने उनके संयम से प्रभावित होकर जैनधर्म स्वीकार किया एवं वह स्तुति भक्तामर स्तोत्र के रूप में प्रचलित हुई जो आज भी नित्य रूप से बोली जाती है। - भक्तामर स्तोत्र संस्कृत भाषा में रची हुई बहुत सुंदर स्तुति है । कई विद्वान इसे 48 गाथायुक्त कहते हैं, जिसमें प्रभु के 8 प्रातिहार्य युक्त श्लोकों को अतिरिक्त जोड़ा जाता है। आचार्य मानतुंग सूरि जी इतने ज्ञानी होने पर भी स्वयं को 'अल्पश्रुत' ही लिखते हैं, जो उनकी लघुता का परिचायक है। अंतिम गाथा में 'तं मानतुंगमवशा - समुपैति लक्ष्मीः ' शब्दों से भक्तामर के रचयिता का स्पष्ट दिग्दर्शन होता है। एक बार मानतुंग सूरि जी अस्वस्थ हो गए। उन्होंने अनशन करने का विचार किया लेकिन तभी धरणेन्द्र देव ने प्रकट होकर 18 अक्षरों का एक मंत्र उन्हें दिया और कहा कि आपकी आयुष्य अभी लंबी है। आप अनशन न करें। उन मंत्राक्षरों के आधार पर प्राकृत में आचार्यश्री ने भयहर स्तोत्र की रचना की एवं रोगमुक्त हुए। आज वह स्तोत्र 'नमिऊण' के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है। आत्म शुद्धि के लक्ष्य से परिपूर्ण उनका जीवन रहा । उनकी रचनाएं उनकी भौतिक सिद्धि का नहीं, अगाध आस्था का परिणाम था। विक्रम की 7वीं शताब्दी के वे प्रतिष्ठित विद्वान् थे। महावीर पाट परम्परा 98 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. आचार्य श्रीमद् रविप्रभ सूरीश्वर जी श्रमण सहस्त्रांशु सूरिवर, रवि भासे अन्धकार। आचार्यदेव रविप्रभ सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ विक्रम की आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए आचार्य रविप्रभ सूरि जी भगवान् महावीर की देदीप्यमान पाट परम्परा के 30वें समर्थ पट्टधररत्न हुए। वि.सं. 700 (वीर निर्वाण सं. 1070) में रविप्रभ सूरि जी ने नाडोल नगर के मुख्य देरासर में उत्सवपूर्वक मूलनायक भगवान् श्री नेमिनाथ जी इत्यादि जिनबिंबो की अंजनश्लाका-प्रतिष्ठा कराई। सम्यग्दर्शन - ज्ञान और चारित्र की जागृति हेतु उन्होंने विविध रूपों में जिनशासन की महती प्रभावना की। इनके काल में संस्कृत भाषा का अभ्युदय हो रहा था। अतः आगमों की विस्तृत व्याख्या हेतु नियुक्ति एवं भाष्य के बाद गद्यमय प्राकृत प्रधान चूर्णि साहित्य की रचनाएं प्रारंभ हुई। युगप्रधान आ. स्वाति, आ. सिद्धसेन गणि, आ. जिनदास गणि इत्यादि इनके समकालीन थे। • समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य जिनदास गणि महत्तर : जैन साहित्य की परम्परा में जिनदास महत्तर जी का विशिष्ट स्थान हैं। इनके सांसारिक पिताश्री का नाम 'नाग' एवं माताश्री का नाम 'गोपा' था। कोटिकगण-वज्रशाखा के गोपाल गणि महत्तर एवं प्रद्युम्न क्षमाश्रमण इनके दीक्षागुरु एवं शिक्षागुरु थे। संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में भावप्रधान व्याख्या साहित्य - गद्य शैली में लिखे चूर्णि साहित्य में चूर्णिकार श्री जिनदास गणि महत्तर का विशिष्ट अवदान हैं। आगम प्रभाकर मुनिराज पुण्य विजय जी के अनुसार इनके द्वारा लिखित प्रमुख 3 चूर्णियाँ हैं1) नन्दी सूत्र चूर्णि - यह जिनदास महत्तर जी की प्रथम रचना संभव है। ऐतिहासिक दृष्टि महावीर पाट परम्परा 99 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2) से यह चूर्णि अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें माथुरी आगम वाचना का इतिहास है एवं भगवान् महावीर निर्वाणोत्तरवर्ती आचार्यों के क्रमबद्ध इतिहास को जानने के लिए भी इसमें महत्त्वपूर्ण सामग्री है। अनुयोगद्वार सूत्र चूर्णि - इसमें उद्यान, शिविका आदि शब्दों की व्याख्या है। जैन शास्त्र सम्मत आत्मांगुल, उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल, सप्तस्वर, नवरस इत्यादि विषयों को समझने के लिए विशेष उपयोगी है। 3) निशीथ सूत्र चूर्ण इस चूर्णि की रचना मूल सूत्र, निर्युक्ति एवं भाष्य गाथाओं के आधार पर हुई। ग्रंथ के 20 उद्देशक हैं। इसमें जैन श्रमण आचार के विधि निषेधों की विस्तार से परिचर्चा और उत्सर्ग मार्ग तथा अपवाद मार्ग का पर्याप्त वर्णन है। ग्रंथ रचना में संस्कृत, प्राकृत उभय भाषा का मिश्रण है। - आचारांग सूत्र पर एवं सूत्रकृतांग सूत्र पर प्राप्त चूर्णियों के लेखकों का नाम उपलब्ध नहीं . है। संभव है कि ये भी जिनदास महत्तर जी की रचनाएं थीं। उनकी मौलिकता एवं चिंतन की उच्चता के कारण उनका साहित्य लोकोपयोगी बना। नंदीसूत्र चूर्णि में उन्होंने अपना नामोल्लेख बड़े अलग ढंग से किया है। वे लिखते हैं “णि रेणगमत्तणहसदाजि, कया ॥ पसुपति - संख - गजठितां.. अर्थात् णि (1), रे (2), ण (3), ग (4), म ( 5 ), त ( 6 ), ण (7), ह (8), स (9), नंदीसूत्र चूर्णि के रचनाकार बनते है । दा (10), जि (11) इन 11 अटपटा अक्षरों को जोड़ने से आगे वे शब्दों के क्रम को स्पष्ट करते कहते हैं। पहले पशुपति 7- ण), गज (यानि 10 - दा) आदि । इस प्रकार उनका नाम प्रकार की रहस्यमयी शैली उन्होंने निशीथचूर्णि में लिखी है महावीर पाट परम्परा " (यानि 11 - जि ), फिर शंख (यानि जिणदासगणिमहत्तेरण बनता है। इसी - “ति चउ पण अट्ठमवग्गा तिपण ति तिग अक्खरा व तेसि", यानि च वर्ग के तृतीय अक्षर (ज) पर अ वर्ग की तृतीय मात्र (इ), ट वर्ग का पंचम अक्षर (ण), त वर्ग का तृतीय अक्षर (द) पर आ की मात्रा एवं अष्टम वर्ग का तृतीय अक्षर ( स ) । इस प्रकार उनका नाम 'जिनदास' बनता है। नंदी चूर्णि की रचना वि.सं. 733 में हुई थी । अतः ये विक्रम की आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के निष्णात् विद्वान थे। 100 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. आचार्य श्रीमद् यशोदेव सूरीश्वर जी युगप्रहरी सूरि यशोदेव जी, ब्रहम तेज संचार। सरस्वती के साधना पात्र, नित् वंदन बारम्बार॥ शासनपति भगवान् महावीर के 31वें पट्टविभूषक आचार्य श्रीमद् यशोदेव सूरि जी विक्रम की आठवीं सदी के उत्तरार्ध के समर्थ आचार्य हुए। आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी ने उनका परिचय देते हुए लिखा - अजनि-रजनिजानि रब्राह्मणानां विपुलकुलपयोधौ श्रीयशोदेवसूरिः। प्रबरचरणचारी भारतीकण्ठनिष्का भरणबिरूदधारी शासनोद्योतकारी॥ सांसारिक अवस्था में वे ब्राह्मण-जाति के विद्वान थे किन्तु जिनधर्म का मूल समझकर वे जैनधर्म में दीक्षित हुए। आगमों व आगमोत्तर-षड्दर्शन के पारगामी विद्वान एवं उत्तम प्रतिबोध क होने के कारण उन्हें श्री 'सरस्वती कण्ठाभरण' का बिरूद् प्राप्त था। उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की। इनके समय में थराद नगर से नया थारापद्रगच्छ निकला। आ. हरिभद्र सूरि, आ. शीलगुण सूरि, आ. देवचन्द्र सूरि, वनराज चावड़ा जैसी ऐतिहासिक विभूतियाँ इनके साम्राज्यकाल में हुई। • समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य हरिभद्र सूरीश्वर जी : जैनाचार्य हरिभद्र' सूरि जी जैन परम्परा के इतिहास के अति विद्वान एवं उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। वे 1444 ग्रंथों के रचनाकार माने जाते हैं। उनका जन्म चित्रकूट (चित्तौड़) निवासी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम गंगा और पिता का नाम शंकरभट्ट था। पंडित हरिभद्र 14 विद्याओं में निपुण था। पांडित्य के अभिमान से वे स्वयं को शास्त्रार्थ में अजेय मानते थे। जैन धर्म के वे कट्टर द्वेषी थे। 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् जैनमन्दिरम्' अर्थात् हाथी मारने आए फिर भी जैन मंदिर में नहीं जाना चाहिए, इस प्रकार की सोच थी। महावीर पाट परम्परा 101 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार रात को राजसभा से लौटते हुए पुरोहित हरिभद्र जैन उपाश्रय के पास से गुजरे। उपाश्रय में साध्वी संघ की प्रवर्तिनी याकिनी महत्तरा गाथा का जाप कर रही थी चक्कि दुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की। केसव चक्की केसव, दुचक्की केसी य चक्कीय॥" श्लोक की आवाज हरिभद्र के कानों से टकराई। उन्होंने बार-बार यह गाथा सुनी, बुद्धि को पूरी तरह से झकझोर दिया किंतु फिर भी स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने वाला हरिभद्र इसका अर्थ समझ नहीं पाया। हरिभद्र के अहंकार पर यह पहली करारी चोट थी। अर्थ जानने की तीव्र जिज्ञासा उन्हें उपाश्रय के भीतर ले गई। उपाश्रय के भीतर प्रवेश द्वार पर खड़े अभिमानी हरिभद्र ने वक्र भाषा में प्रश्न किया - इस स्थान पर चकचकाहट क्यों हो रही है? अर्थहीन पद्य का पुरावर्तन क्यों किया जा रहा है?" साध्वी याकिनी महत्तश धीर-गंभीर एवं विदुषी साध्वी थी। उन्होंने मीठे शब्दों में कहा - "नूतनं लिप्तं चिगचिगायते (नया लिपा हुआ आंगन चकचकाहट करता है) यह शास्त्रीय पाठ है। गुरु के बिना इसे समझा नहीं जा सकता।" हरिभद्र के अति-आग्रह पर साध्वी याकिनी महत्तराजी ने उन्हें निकट उपाश्रय में विद्यमान आचार्य जिनभद्र (जिनभट्ट) सूरि जी से इसका अर्थ जानने का निर्देश दिया। प्रातः काल होते ही वह आचार्यश्री के पास पहुँचा। उसे सकारात्मक ऊर्जा और सात्विक प्रसन्नता हुई। झुककर नमन किया और जिज्ञासा रखी। आ. जिनभद्र सूरि जी ने कहा कि पूर्वापर संदर्भ सहित सिद्धांतों को समझने के लिए मुनि जीवन आवश्यक है। जिनभद्र सूरि जी को हरिभद्र की योग्यता एवं उज्ज्वल भविष्य का आभास हो चुका था। हरिभद्र में श्लोकार्थ जानने की तीव्र जिज्ञासा थी। वे मुनि बनने को तैयार हो गए। आ. जिनभट्ट ने हरिभद्र को मुनि दीक्षा प्रदान की, गहन अध्ययन कराया, श्लोकार्थ समझाया एवं उनके वैराग्य को ज्ञानगर्भित वैराग्य बनाया। गुरु ने उनको सर्वतोमुखी योग्यता के आधार पर आचार्य पद पर नियुक्त किया। आ. हरिभद्र सूरि जी के हंस एवं परमहंस नाम के 2 शिष्य थे। उन्होंने उन दोनों को प्रमाण शास्त्र का विशेष प्रशिक्षण दिया। दोनों शिष्यों ने बौद्ध प्रमाणशास्त्र पढ़ने की इच्छा प्रकट की लेकिन हरिभद्र सूरि जी को अनिष्ट घटना का आभास हुआ किंतु फिर भी दोनों शिष्य उनकी आज्ञा की अवहेलना कर वेश बदलकर बौद्धपीठ में प्रविष्ट हुए एवं अध्ययन चालू किया किंतु महावीर पाट परम्परा 102 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके सामान से प्राप्त प्रतिमा । पत्रों आदि से सबको शक हो गया कि वे जैन हैं। किसी तरह उन्होंने अपने प्राण बचाकर भागने का प्रयत्न किया किंतु हंस को रास्ते में मार दिया गया व परमहंस ने किसी प्रकार चित्तौड़ पहुँच पुस्तक पत्र हरिभद्र सूरि जी के हाथ सौंपे और वह भी रात में मार दिया गया। ___ अपर्न निर्ना शिष्या के खून से सनं हुए रजाहरण को देख आ. हरिभद्र सूरि जी को क्रोध और आवेश की अग्नि में जल उठे। महाराज सूरपाल की अध्यक्षता में उन्होंने बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया। परास्त दल को तेल के कुण्ड में जलने की प्रतिज्ञा के साथ शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। आ. हरिभद्र सूरि जी विजयी हुए किंतु उनकी विजय हिंसा में परिवर्तित होने जा रही थी। जैसे उनके गुरु आ. जिनभट्ट सूरि जी के नेत्र आत्मचिंतन से अश्रुपूरित हो गए। जिन 1444 बौद्ध भिक्षुओं का वध करने का उपक्रम उन्होंने बनाया था, उसके प्रायश्चित्त में उन्होंने 1444 ग्रंथों की रचना की। कई स्थानों पर ऐसा वर्णन है कि साध्वी याकिनी महत्तरा ने ध र्मबोध देकर उन्हें शांत किया। साहित्य रचना में लल्लिग नाम के श्रावक ने उन्हें खूब सहयोग दिया। वह रात में उपाश्रय में एक विशिष्ट मणि रख जाता था जिसके प्रकाश में आचार्यश्री साहित्य रचना करते थे। उनके अधिकांश ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं किंतु प्राप्त रचनाएं उत्तम कोटि की हैं। अनुयोगद्वार वृत्ति, अनेकांत जयपताका, अनेकांतवाद प्रवेश, अष्टक प्रकरण, आत्मसिद्धि, आवश्यक वृत्ति, ओघनियुक्ति वृत्ति, क्षेत्रसमास वृत्ति, चैत्यवंदन भाष्य, जंबूद्वीप संग्रहणी, जिणहर प्रतिमास्तोत्र, तत्त्वतरंगिणी, तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति, दर्शनशुद्धि, दशवैकालिक सूत्र टीका, धर्मबिंदु, धर्मसंग्रहणी, धूर्ताख्यान कथा, न्यायप्रवेश वृत्ति, योगबिंदु, योगदृष्टि समुच्चय, ललितविस्तरा, लोकतत्त्वनिर्णय, विशेषावश्यक वृत्ति, व्यवहारकल्प वृत्ति शास्त्रवार्तासमुच्चय, श्रावकप्रज्ञप्ति, षड्दर्शनसमुच्चय, संसार दावानल स्तुति, समराइच्चकहा, संबोध सित्तरी, सर्वज्ञसिद्धि, सावगधम्मसमास, शाश्वतजिनकीर्तन, हिंसाष्टक-अवचूरि इत्यादि-इत्यादि। महानिशीथ सूत्र का जीर्णोद्धार भी आचार्य श्री जी ने किया। हरिभद्र सूरि जी 'भवविरह में प्रयत्नशील बनो' ऐसा आशीर्वाद देते थे। वे भवविरह एवं याकिनीमहत्तरासुनू के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। विक्रम की 8वीं सदी के वे उच्च विद्वान थे। संसारदावानल सूत्र की चौथी गाथा का प्रथम चरण बनाते हुए वे कालधर्म को प्राप्त हुए। महावीर पाट परम्परा 103 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. आचार्य श्रीमद् प्रद्युम्न सूरीश्वर जी प्रबल प्रचारक प्रद्युम्न सूरि जी, पूर्व देश उद्धार । मार्गदर्शक शासन शिल्पी, नित् वंदन बारम्बार ॥ जब शंकराचार्य अनुयायियों द्वारा जैन धर्म पर सशस्त्र आक्रमण हो रहे थे, पंचासर और वल्लभीपुर जैसी जैन नगरियों का विनाश हो रहा था, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में दुष्काल फैल रहा ऐसे विकट समय में जैन संघ का प्रतिनिधित्व एवं नायकत्व करने वाले विजय प्रद्युम्न सूरि जी ने वीरशासन के 32वें पट्टधर के रूप में जिनशासन का कुशल संवहन किया । था, शासन प्रभावना : इनके समय में जैनों के स्मारक, साहित्य एवं साधुओं पर बहुत हमले हुए। बंगाल के असली जैनों को मजबूरी में जैनधर्म को त्यागना पड़ा। यह जाति आज 'सराक जाति' के नाम से विख्यात है एवं आज भी पूर्णतः सात्विक, शाकाहारी जीवन युक्त है। बंगाल एवं उत्तर भारत के कई जैनों को अपने स्थानों से पलायन करना पड़ा एवं वे मेवाड़ तथा राजपूत क्षेत्र में आ बसे । वे अपने साथ अनेक जिनप्रतिमाओं को भी लेकर आए जो संभवत: नांदिया, नाणा, दियाणा, बामणवाड़ा, मुंडस्थल, भीनमाल इत्यादि क्षेत्रों में विराजित की गई। भगवान् महावीर के जीवित अवस्था में उनकी बनाई गई प्रतिमा जीवित स्वामी भी लाई गई। ऐसी भयावह एवं जैन समाज की विकट परिस्थितियों में प्रद्युम्न सूरि जी ने यथाशक्ति स्थिति का नियंत्रण करने की कोशिश की। जैन संस्कृति की रक्षा हेतु वे अनेक बार पूर्व भारत में पधारे। मगध - पाटलिपुत्र आदि क्षेत्रों का उन्होंने विचरण किया एवं शंकराचार्य के द्वारा जैनधर्म की हुई क्षति की क्षतिपूर्ति करने का संकल्प लिया। उन्होंने 7 बार सम्मेत शिखर की यात्रा की। उनके उपदेश से बंगाल आदि पूर्व प्रदेशों में 17 ( 70 ) नए जिनालय बनवाए गए, अनेक जीर्णोद्धार कराए गए, मजबूरी में जैनधर्म त्याग चुके लोगों में पुनः जैनत्व जागरण का शंखनाद किया एवं साहित्य सुरक्षा हेतु 11 शास्त्रभंडार स्थापित किए। प्रद्युम्न सूरि जी का मानना था कि एकता में बल है। वे जानते थे कि चुनौती बड़ी है महावीर पाट परम्परा 104 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं इस प्रतिकूल परिस्थिति में जैनधर्म की ध्वजा लहराने में सभी के प्रयासों को संगठित करने की आवश्यकता है। आ. संभूति सूरि जी, आ. शांति सूरि जी, आ. नन्नसूरि जी, आ. उद्योतन सूरि जी, आ. कृष्णर्षि जी, आ. धनेश्वर सूरि जी, आ. बप्पभट्टि सूरि जी, आ. गोविन्द सूरि जी इत्यादि प्रभावक आचार्यों के साथ मिलकर उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की । समकालीन प्रभावक आचार्य आचार्य बप्पभट्टि सूरीश्वर जी : वे अपने युग के बहुचर्चित आचार्य थे। उनका जन्म भाद्रपद शुक्ल 3 रविवार वि. सं. 800 को गुजरात प्रदेश के डुम्बाउधि गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम 'बप्प' एवं माता का नाम 'भट्टि' था। उनके बचपन का नाम सूरपाल था किंतु वे बप्पभट्टि के नाम से प्रसिद्ध थे। सात वर्ष की आयु में उन्होंने मोढ़ गच्छ के आचार्य सिद्धसेन के पास दीक्षा ली थी। उनका नाम मुनि भद्रकीर्ति रखा गया । मात्रा 11 वर्ष की अल्पायु में उन्हें आचार्य जैसा गरिमामयी, गंभीर एवं दायित्वपूर्ण पद मिला जिससे उनकी विलक्षण प्रतिभा पता चलती है। उनकी प्रसिद्धि सदा आचार्य बप्पभट्टि सूरि के नाम से हुई । कान्यकुब्ज (कन्नौज) प्रदेश के गोपालगिरि के राजा 'आम' को आ. बप्पभट्टि सूरि जी ने प्रतिबोधित किया और जैनधर्म की महती प्रभावना कराई। अनेक शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त करने के कारण उन्हें 'वादिकुंजरकेसरी' का बिरूद् प्राप्त हुआ। आकाशगामिनी विद्या के बल से वे नित्य रूप से सिद्धाचल तीर्थ में श्री आदिनाथ परमात्मा ; गिरनार तीर्थ में श्री नेमिनाथ परमात्मा ; भरूच तीर्थ में श्री मुनिसुव्रत परमात्मा ; मथुरा तीर्थ में श्री सुपार्श्वनाथ परमात्मा ; ग्वालियर ( गोपालगिरि) के जिनालय में; इन पांचों तीर्थों की चैत्य परिपार्टी करके ही अन्न-जल ग्रहण करते थे। गिरनार तीर्थ पर श्वेताम्बर परम्परा के आधि पत्य में आचार्य श्री एवं आम राजा की अच्छी भूमिका रही। कन्नौज, ग्वालियर आदि अनेक स्थानों पर उनके करकमलों से प्रतिष्ठाएं हुई। शारदास्तोत्र, वीरस्तव, चतुर्विंशतिका आदि उनकी कृतियाँ हैं। 84 वर्षों तक धर्मसंघ के दायित्व का वहन करते 95 वर्ष की आयु में भाद्रपद शुक्ला 8, वि.सं. 895 में उनका देवलोकगमन हुआ । महावीर पाट परम्परा 105 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. आचार्य श्रीमद् मानदेव सूरीश्वर जी मननशील सूरि मानदेव जी, उपधान विधि आभार । महामनीषी महाप्राज्ञ, नित् वंदन बारम्बार ॥ आचार्य मानदेव सूरि जी नाम के कई आचार्य जैन परम्परा के इतिहास में हुए। ये आ. मानदेव सूरि जी भगवान् महावीर के 33वें पट्टालंकार हुए। " विक्रम की नवमीं सदी के उत्तर भाग में हुए मानदेव सूरि जी ने प्रद्युम्न सूरि जी के कालध र्म पश्चात् जैन संघ का कुशल संचालन किया । श्रावक-श्राविकाओं के लिए अति उपयोगी 'उपधान वाच्य' (उपधान विधि ) ग्रंथ लिखकर उपधान तप की शुद्ध विधि बताई । पंचमंगल-महाश्रुतस्कंध यानि नवकार मंत्र एवं अन्य सूत्रों के वांचन के अधिकार के लिए उपध न तप एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्रिया है। अल्प आयुष्य होने के बाद भी जिनशासन के महनीय कार्य करते हुए वे स्वर्गवासी हुए । इनके साम्राज्य काल में आचार्य धनेश्वर सूरि जी जैसे विद्वान आचार्य भी हुए। समकालीन प्रभावक आचार्य आचार्य धनेश्वर सूरीश्वर जी : आ. धनेश्वर सूरि जी ने वल्लभी नगरी के बौद्ध राजा शिलादित्य को उपदेश देकर जैन बनाया। राजा शिलादित्य के निमित्त से आचार्यश्री ने वि. सं. 852 में 'शत्रुंजय माहात्म्य' नामक विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रचना की, जिसमें शाश्वत तीर्थ - सिद्धाचल यानि शत्रुंजय का विशाल इतिहास, महिमा एवं प्रभाव का वर्णन है। वे मूलत: प्राचीन चैत्रपुरी गच्छ से संबंधित थे किंतु इनसे इनके शिष्यों ने धनेश्वर गच्छ लिखना प्रारंभ किया । इस गच्छ का आयुष्य कम ही था । जैन स्मारक (तीर्थ) एवं जैन साहित्य ( आगम शास्त्र) का विलुप्त गौरव पुनः लाने में धनेश्वर सूरि जी ने सकारात्मक प्रयास किए। महावीर पाट परम्परा 106 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. आचार्य श्रीमद् विमलचन्द्र सूरीश्वर जी सम्यक्त्व प्रकाशक मिथ्यात्व विनाशक, गामी उग्र विहार। हसदृष्टि विमलचन्द्र सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य मानदेव सूरि जी के पाट पर हुए आचार्य विमलचन्द्र सूरि जी विक्रम की दसवीं शताब्दी के प्रभावक आचार्य एवं वीर-परम्परा के 34वें सुयोग्य पट्टधर हुए। वे उग्रविहारी थे। भारतभर में अनेकों जगह विचरण कर अपनी प्रतिबोधशक्ति से राजा-प्रजा को जैनत्व के संस्कार प्रदान कर जिनशासन की महती प्रभावना की। शासन प्रभावना : आ. विमलचन्द्र सूरि जी को चित्रकूट (चित्तौड़) पर्वत पर देवी पद्मावती की सहायता से 'सुवर्णसिद्धि' विद्या प्राप्त हुई। चित्तौड़ का राजा अल्लटराज इनका परम उपासक था। चित्तौड़ के किले में भी जिनमंदिर की प्रतिष्ठा उन्होंने कराई। वे समर्थवादी थे। ग्वालियर (गोपगिरि) में राजा मिहिरभोज की सभा में शास्त्रार्थ में अपनी विद्वत्ता, तर्कशक्ति व बुद्धिबल से सभी प्रतिद्वंदियों को परास्त कर दिया। उस क्षेत्र के राजा भी इनके भक्त बने। ग्वालियर के किले में भी विमलचंद्र सूरि जी ने जिनालय की अंजनश्लाका-प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। दीर्घायुष्य के धनी आचार्यश्री उग्रविहारी थे। अपने शिष्य परिवार के साथ उन्होंने पूर्व देश में मथुरा, सम्मेतशिखर जी इत्यादि तीर्थों की अनेक बार यात्रा की। एक बार वे मथुरा से विहार कर सांचोर पधारे। वहाँ उन्होंने भीनमाल के शिवनाग व्यापारी के तपस्वी व पौषधधारी पुत्र-वीर को देखा। उन्होंने जाना कि इसकी आयुष्य अल्प है किंतु यह आसन्न भव्यात्मा है। उपदेश देकर उन्होंने उसे वैराग्य पथ पर अग्रसर किया एवं नाम वीर मुनि रखा गया। थराद में चैत्य में ऋषभदेव जी के दर्शन कर उन्होंने वीर मुनि को अंगविज्जा ग्रंथ प्रदान किया एवं "यह ग्रंथ तुम्हें जल्दी आए", ऐसा आशीर्वाद दिया। तीन दिनों में मुनि ने उस बृहद् ग्रंथ का अर्थ सहित अध्ययन कर स्मरण कर लिया। महावीर पाट परम्परा 107 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात, सौराष्ट्र, मारवाड़, बंगाल, मालवा इत्यादि अनेक क्षेत्र में विमलचन्द्र सूरि जी ने विचरण किया। वे 100 वर्ष की आयु में शत्रुजय तीर्थ पधारे जहाँ वे वि.सं. 980 में अनशन पूर्वक स्वर्गवासी बने। उनके पट्टधर आ. उद्योतन सूरि जी हुए। • समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य सिद्धर्षि : गुजरात के श्रीमालपुर में शुभंकर सेठ की पत्नी लक्ष्मी की कुक्षि से सिद्ध (सिद्धर्षि) का जन्म हुआ एवं धन्या नामक कन्या से विवाह हुआ। सिद्ध को छूत (जुए) का नशा था। __ वह प्रायः आधी रात में घर लौटता था। पत्नी को भी सिद्ध की प्रतीक्षा में रात्रि जागरण करना पड़ता था। पति की इस आदत से पत्नी खिन्न रहने लगी। एक दिन सासू ने बहु की उदासी का कारण पूछा। बहु ने सिद्ध के जुआ खेलने की आदत और रात को देर से आने की बात बता दी। सासू ने कहा कि आज तुम सो जाना। रात्रि जागरण मैं करूंगी। उस रात्रि उसकी माँ ने अपने पुत्र के लिए दरवाजा नहीं खोला और कहा “जहाँ द्वार खुला मिले, वहाँ चले जा।" सिद्ध वापस चल पड़ा। सिद्ध उपाश्रय पहुँच गया। रात्रि के समय सिद्ध को केवल उपाश्रय के द्वार ही खुले मिले। अपने जीवन से सिद्ध तंग आ गया था। वहाँ गर्षि के उपदेश से प्रभावित हो उसने मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। आ. हरिभद्र उनके दीक्षा गुरु थे। एक बार सिद्धर्षि को बौद्धों के पास से बौद्ध दर्शन पढ़ने की इच्छा हुई। गुरु की मनाही के बाद भी वो चले गए। वहाँ वे बौद्ध साधु बन गए। उन्होंने सोचा कि अपने जैन गुरु को बोलकर आना चाहिए कि अब मैं बौद्ध भिक्षु बन गया हूं। जब वे हरिभद्र सूरि जी के पास आए, तो पुनः जैन मुनि बन गए। फिर पुनः बौद्ध भिक्षु से मिलने पर बौद्ध भिक्षु बन गए। इस प्रकार उन्होंने 21 बार जैनों और बौद्धों के बीच आवृत्ति की। बाइसवीं बार में अंततः गुरुदेव द्वारा ललित विस्तरा वृत्ति पढ़ाने पर सिद्धर्षि गणी जैन धर्म में सदा के लिए स्थिर हुए। वि. सं. 962 में भीनमाल में आ. सिद्धर्षि ने 'उपमितिभवप्रपञ्च कथा' नामक सुंदर ग्रंथ रचा। महावीर पाट परम्परा 108 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. आचार्य श्रीमद् उद्योतन सूरीश्वर जी भावोद्योतक उद्योतन सूरि जी, बड़ गच्छ अलंकार। करुणावृष्टि-दूरदृष्टि, नित् वंदन बारम्बार॥ भगवान् महावीर की परम्परा के 35वें पट्टधर आचार्य उद्योतन सूरि जी से 'बड़गच्छ' नाम प्रचलित हुआ। उनके निर्मल व्यवहार, कठोर आचार एवं ज्ञान-विचार के बल से शासन की महती प्रभावना हुई एवं उनका शिष्य परिवार वटवृक्ष की भाँति विस्तृत हुआ। जीवन वृतान्त : आचार्य विमलचंद्र सूरि जी के कालधर्म पर उनके पट्ट पर उद्योतन सूरि जी अलंकृत हुए। वे दीर्घजीवी-लंबी आयुष्य के धनी थे। उनका आचार्य पर्याय काफी अधिक था। उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति इत्यादि ग्रंथों में उन्हें चंद्रमा समान शीतल, पर्वत की भाँति स्थिर, अशुभ भावना से रहित, क्षमाधर, जीवन्त धर्मस्वरूप, निर्मल गुणवाला, विद्यावान् इत्यादि विशेषणों से अलंकृत किया है। आचार्य उद्योतन सूरि जी का चारित्र भी उत्तमोत्तम था। वे नवकल्प विधान के अनुसार ही विहार करते हुए जिनाज्ञा का पालन करते थे। वे प्रतिदिन एक बार ही आहार लेते थे अर्थात् जीवनपर्यन्त एक भक्त एकासणा करते थे। उनके द्वारा वि.सं. 937 में प्रतिष्ठित भगवन्तों की प्रतिमा आज भी प्राप्त होती है। उनका विचरण क्षेत्र बहुधा गुजरात, राजस्थान इत्यादि रहा। अनेकों तीर्थयात्राएं कर स्व-पर कल्याण की भावना में अनुरक्त उद्योतन सूरि जी का पृथ्वीतल पर विचरण रहा। संघ व्यवस्था : उद्योतन सूरि जी विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले उद्भट विद्वान थे। वि.सं. 994 तदनुसार वीर संवत् 1464 में आचार्य उद्योतन सूरि जी आबू पर्वत की तलहटी में अवस्थित टेलीपुर की सीमा के वन में दिन ढलते-ढलते विहार करके पहुँचे। रात्रि विश्राम व साधना के उद्देश्य से आचार्यश्री जी एवं समस्त श्रमण परिवार वन के एक विशाल वटवृक्ष के नीचे ठहरे। आधी रात में उद्योतन सूरि जी ने आकश में देखा कि रोहिणी शकट में बृहस्पति प्रवेश महावीर पाट परम्परा 109 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर रहा है। अपनी ज्योतिष विद्या के बल से उन्होंने जाना कि इस उच्च नक्षत्र योग में संतान वृद्धि यानि शिष्य परिवार वृद्धि की अद्वितीय संभावना है। तभी सर्वानुभूति यक्ष नामक देव भी प्रकट हुआ एवं गुरुदेव के शिष्य वृद्धि से शासन प्रभावना का संकेत दिया। इस विचार से अगले ही दिन सहज योग एवं शुद्ध वेला में अपने शिष्यश्री सर्वदेव, श्री मानदेव, श्री महेश्वर, श्री प्रद्योतन इत्यादि 8 मुनि भगवंतों को वट वृक्ष ( बड़ का पेड़) के नीचे शुभ मुहूर्त में आचार्य पदवी प्रदान की। श्रमण गण को लोगों ने 'वट गच्छ' के नाम से प्रसिद्ध किया और धीरेधीरे गुणी श्रमणों की वृद्धि होने से वटगच्छ का ही नामांतर 'बृहद्गच्छ' प्रसिद्ध हुआ जो कालांतर में बड़गच्छ के नाम से विख्यात हुआ। निग्रंथ गच्छ अब बड़गच्छ कहलाने लगा। ___कुछ ग्रंथ गुर्वावली के अनुसार 83 विभिन्न साधु समुदायों के स्थविरों ने अपने-अपने समुदाय से एक-एक मेधावी मुनि को उद्योतन सूरि जी जैसे चरित्रनिष्ठ विद्वान श्रमणश्रेष्ठ के पास अध्ययन हेतु भेजा। अपने शिष्य सर्वदेव मुनि एवं अन्य 83 साधुओं के अध्ययन की पूर्णता उनकी योग्यता-पात्रता व शासनरसिकता को मध्य नजर रखते हुए उन्होंने ये विचार किया कि सभी 84 शिष्य आचार्य (सूरि) पद के लायक हैं। सभी के साथ विहार करते-करते उद्योतन सूरि जी को एहसास हुआ कि मैं जिस किसी के सिर पर हाथ रख दूं, तो वह प्रसिद्धि.व 'शिष्य योग' को प्राप्त होगा। शासनदेव ने भी आचार्य पद प्रदान हेतु विनती की। उद्योतन सूरि जी ने वासचूर्ण (वासक्षेप) को अभिमंत्रित कर सभी 84 शिष्यों को आचार्य पद की अनुज्ञा दी। ___ 1. श्री सर्वदेव सूरि 2. श्री प्रभाचंद्र सूरि 3. श्री हरियानंद सूरि 4. श्री शिवदेव सूरि 5. श्री जिनेन्द्र सूरि 6. श्री दयानंद सूरि 7. .............. 8. श्री आनंद सूरि 9. श्री धर्मानंद सूरि 10. श्री राजानंद सूरि 11. श्री सौभाग्यचंद्र सूरि 12. श्री देवेन्द्र सूरि 13. ......... ___ 14. श्री प्रज्ञानंद सूरि ___15. श्री सर्वानंद सूरि 16. श्री संघानंद सूरि 17. श्री सोमानंद सूरि 18. श्री यक्षायण सूरि 19. ............... 20. श्री सामंत सृरि 21. श्री शिवप्रभ सूरि 22. श्री उदयराज सूरि 23. श्री देवराज सूरि 24. श्री गांगेय सूरि 25. श्री प्रभ सूरि 26. श्री धर्मसिंह सूरि 27. श्री संघसेन सूरि महावीर पाट परम्परा 110 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. श्री सेनतिलक सूरि 31. श्री नृसिंह सूरि 34. श्री वल्लभ सूरि 37. श्री राजदेव सूरि 40. श्री सोमप्रभ सूरि 43. श्री पद्मानंद सूरि 46. श्री भावदेव सूरि 49. श्री नागराज सूरि 52. श्री डोड सूरि 55. श्री सोवीर सूरि 58. श्री जिनसिंह सूरि 61. श्री शीलदेव सूरि 64. श्री आशानंद सूरि 67. श्री प्रभासेन सूर 29. श्री चारित्र सूरि 32. श्री विनय सूरि 35. श्री पानदेव सूरि 38. श्री जोगानंद सूरि 41. श्री कृष्णप्रभ सूरि 44. श्री नारायण सूरि महावीर पाट परम्परा 47. 50. श्री पांडु सूरि 53. श्री खीम सूरि 56. श्री मथुरा सूरि 59. श्री वीर सूरि 62. श्री शाम्ब सूरि 65. श्री राम सूर 68. श्री आनंदराज सूरि 71. श्री रत्नराज सूरि 74. श्री मेघानंद सूरि 30. 33. श्री विजयानंद सूरि 36. 39. श्री भीमराज सूरि 42. 45. श्री कर्मचंद्र सूरि 48. श्री इल्ल सूरि 51. श्री पुष्कल सूरि 54. 57. श्री मंगल सूरि 60. श्री लाडण सूरि 63. श्री प्रियांग सूरि 66. श्री रवि सूरि 69. श्री प्रज्ञाप्रभ सूरि 72. श्री बाहट सूरि 75. श्री भोजराज सूरि 78. श्री भूतसंघ सूरि 70. श्री ब्रह्मसूरि 73. श्री कर्ण्य सूरि 76. श्री सारिंग सूरि 77. श्री रंगप्रभ सूरि 79. श्री गोकर्ण सूरि 80. श्री सहदेव सूरि इत्यादि । उपरोक्त सूची श्री दानसागर जैन ज्ञान भंडार, बीकानेर में प्राप्त होती है। किंतु तपागच्छ पट्टावलियों में मात्र 8 शिष्यों को ही आचार्य पदवी देने की बात प्रचलित है। एक मान्यता यह भी है कि केवल अपने पट्टशिष्य सर्वदेव सूरि जी को आचार्यपद प्रदान किया। धीरे-धीरे भिन्न-भिन्न गुरु परम्पराओं के कारण समाचारी भेदों के कारण बड़ गच्छ समय के प्रभाव से बढ़ता चला गया एवं जिस प्रकार वट वृक्ष की शाखाएं वृद्धि को पूर्णतया प्राप्त होती है, उसी प्रकार बाकी गच्छों की उत्पत्ति हुई। आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व अनेकों गच्छ थे, 84 प्रमुख हैं 111 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. तपा बिरूद् गच्छ 4. बड़ी पोशाल गच्छ 7. विधिपक्ष गच्छ 10. सांडेराव गच्छ 13. चित्रवाल गच्छ 16. पल्लीवाल गच्छ 19. भिन्नमालीया गच्छ 22. भंडेरा गच्छ 25. सुराणा गच्छ 28. संखला गच्छ 31. कोरंटवाल गच्छ 34. नींबलिया गच्छ 37. रूदोलिया गच्छ 40. वाछितवाल गच्छ 43. लल्लवाणिया गच्छ 46. खंभातिया गच्छ 49. सोजंतरिया गच्छ 52. खीमसरा गच्छ 55. बंभणिया गच्छ 58. भट्टेरा गच्छ 61. कक्करिया गच्छ 64. बेगड़ा गच्छ 67. धुंधकिया गच्छ महावीर पाट परम्परा 2. नागोरी तपागच्छ 5. बड़ा खरतरगच्छ 8. धर्मघोष गच्छ 11. किन्नरसा गच्छ 14. ओसवाल गच्छ 17. आगमिया गच्छ 20. नागेन्द्र गच्छ 23. जईलवाल गच्छ 26. भरूच गच्छ 29. भावडहरा गच्छ 32. ब्राह्मणिया गच्छ 35. खेलाहरा गच्छ 38. पंथेरवाल गच्छ 41. जीरावला गच्छ 44. तातहड़ गच्छ 47. शंखवालिया गच्छ 50. पीपलिया गच्छ 53. चोरवेडिया गच्छ 56. गोयवाल गच्छ 59. नाबरिया गच्छ 62. रेकवाल गच्छ 65. वीसलपुरा गच्छ 68. विद्याधर गच्छ 3. खड़तपागच्छ 6. लहुड़ा खरतरगच्छ 9. दोवंदनीक गच्छ 12. मल्लधारी गच्छ 15. नाणावाल गच्छ 18. बोकड़िया गच्छ 21. सेवंतरिया गच्छ 24. भाणसोलिया गच्छ 27. कतबपुरा गच्छ 30. जाखड़िया गच्छ 33. मंडाहड़ा गच्छ 36. उच्छिंतवाल गच्छ 39. खेजड़िया गच्छ 42. जैसलमेरा गच्छ 45. छाजहजु गच्छ 48. कमलकलशा गच्छ 51. सोजतिया गच्छ 54. पामेचा गच्छ 57. वग्धेरा गच्छ 60. बाहड़मेरा गच्छ 63. बोरसवा गच्छ 66. संवाडिया गच्छ 69. आयरिया गच्छ 112 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70. हरसोरा गच्छ 71. कोटिकगण गच्छ 72. वज्रीशाखा गच्छ 73. वाडियगण गच्छ ___74. उडुवाडियगण गच्छ 75. उत्तरवालसह गच्छ 76. उदेहगण गच्छ 77. आकोलिया गच्छ __78. लुणिया गच्छ 79. माजवगणा गच्छ 80. चारणगण गच्छ 81. सार्धपूनमिया गच्छ 82. स्त्रांगडिया गच्छ . 83. नींबजीया गच्छ 84. सांचोरा गच्छ प्राचीन समय में शिष्य अपने गुरुदेव के नाम से गच्छ प्रचलित कर लेते थे या क्रियोद्धार के भाव से अलग गच्छ स्थापित कर लेते थे इत्यादि। लेकिन किसी गच्छ का इतना पुण्य नहीं रहा कि शताब्दियों तक टिके। वर्तमान में मात्र तपागच्छ, खरतरगच्छ, अंचलगच्छ, विमल गच्छ एवं पायचंदगच्छ ही मूलतः दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि अन्यों में या तो शिष्य परम्परा धीरेधीरे शून्य हो गई अथवा तपागच्छ आदि में ही वापिस विलीन हो गई। तपागच्छ की परम्परा सबसे विराट व सदा से ही वृद्धिवंत रही है। उद्योतन सूरि जी से जिस बड़गच्छ की शाखा का प्रार्दुभाव हुआ, उसमें तपागच्छ की शाखा देदीप्यमान व जाज्वल्यमान परम्परा रही। कालधर्म : कुवलयमाला नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता आचार्य उद्योतन सूरि जी, इन उद्योतन सूरि जी से भिन्न थे एवं शताब्दी पूर्व हुए थे। आ. उद्योतन सूरि जी ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए मेघपाट के धवल नामक नगर में पधारे। वि.सं. 1010 के आसपास मालवा से शत्रुजय जाते हुए धवल नामक नगर में वृद्धावस्था के कारण आ. उद्योतन सूरि जी का समाधिपूर्वक कालधर्म हो गया। महावीर पाट परम्परा 113 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. आचार्य श्रीमद् सर्वदेव सूरीश्वर जी सिद्धपुरुष सूरि सर्वदेव जी, ऋद्धि सिद्धि भण्डार। नर-नरेन्द्र प्रतिबोध कुशल, नित् वंदन बारम्बार॥ चरमतीर्थपति भगवान् महावीर की मूल परम्परा का नाम उनके 36वें पट्टधररत्न आचार्य सर्वदेव सूरि जी से वट गच्छ (बड़गच्छ) हुआ। तब से इस गच्छ में विद्वान आचार्यों व श्रमणों की संख्या बढ़ती ही गई। परिणामस्वरूप चंद्रकुल वटवृक्ष की भाँति अनेक शाखाओं में विस्तृत हुआ व नागेन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर कुल इसके विस्तार के नीचे ढक से गए। जन्म एवं दीक्षा : छोटी आयु में ही इनकी दीक्षा आचार्य उद्योतन सूरि जी के पास हुई। उस समय इस समुदाय में आ. मानदेव, आ. अजितदेव, पं. आम्रदेव, पं. यशोदेव इत्यादि देवान्त (जिनके नाम के अन्त में देव शब्द आता हो) नाम वाले अनेक साधु भगवन्त हुए। इनका नाम सर्वदेव रखा गया। अल्प समय में ही इन्होंने गुरु के समीप रहकर शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। शासन प्रभावना : आचार्य उद्योतन सूरि जी ने वि.सं. 994 में टेली गाँव में बड़ के पेड़ के नीचे इन्हें आचार्य पदवी प्रदान की एवं इनका नाम आचार्य सर्वदेव सूरि रखा। सर्वानुभूति यक्ष के संकेतानुसार गच्छ की अनुज्ञा भी इन्हीं को दी। ___ सूरिमंत्र के प्रभाव से आ. सर्वदेव सूरि जी ऋद्धिधारी थे। एक बार वे अपने शिष्य परिवार के साथ विहार करते-करते भरूच नगर में पधारे। राजा तथा प्रजा ने आचार्यश्री के नगर पदार्पण पर भव्यातिभव्य आयोजन किया। उसी नगर में कान्हडीओ नामक एक योगी रहता था। वह योगी वशीकरण विद्या में निपुण था। नगर के सभी जहरीले सांपों को उसने अपने वश में कर लिया था। उससे भयभीत होकर सभी लोग उसका बहुमान करते थे किंतु सर्वदेव सूरि जी के भरूच आने पर लोग उनका सम्मान सत्कार करने लगे। इस बात से योगी के आत्मसम्मान को ठोकर लगी। अपने अहंकार में पुष्ट वह योगी 84 विषैले सांपों को लेकर उपाश्रय गया एवं आचार्यश्री जी को वाद के लिए ललकारने लगा। किंतु सर्वदेव सूरि जी हमेशा की भाँति करुणा महावीर पाट परम्परा 114 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस में निमग्न एवं प्रसन्न वदन थे। योगी ने सर्पों को आचार्यों के पास बढ़ने का संकेत दिया। देव - गुरु-धर्म का स्मरण करते हुए आचार्य सर्वदेव सूरि जी ने अपनी कनिष्ठा (सबसे छोटी) अंगुली से अपने आसपास वलयाकार (गोलाकार) 3 रेखाएं बनाई। उनकी संयम शक्ति एवं ऋद्धि-सिद्धि के प्रभाव से एक भी सर्प उस वलय आकार के अंदर प्रवेश ही न कर सका। योगी कान्हडीओ का क्रोध सातवें आसमान पर था । अंततः उसने सबसे विषैला सिंदूरी सर्प भेजा । किन्तु वह भी सर्वदेव सूरि जी के पास जा ही नहीं पाया। उपाश्रय के पास ही पीपल के पेड़ पर निवास कर रही 64 योगिनी देवियों में से कुरूतुल्ला नाम की योगिनी देवी ने ये सब दृश्य देखे । आचार्यश्री के संयम व तप से प्रभावित होते ही वह उपाश्रय में आई एवं गुरुरक्षा हेतु सभी सांपों व सिंदुरी सांप का मुँह बंद करके अन्यत्र छोड़कर आई । सर्वदेव सूरि जी के ऐसे अचिन्त्य प्रभाव को देखते ही योगी शर्म से पानी-पानी हो गया एवं माफी माँग कर चला गया। अपनी शक्तियों का आ. सर्वदेव सूरि जी ने सदा शासनहित में उपयोग किया। वि.सं. 988 में आचार्य सर्वदेव सूरि जी ने हथुड़ी राव जगमाल को सपरिवार जैन बनाया एवं आमड गौत्र की स्थापना की। वि.सं. 1021 में आबू के पास ढेलडिया के पवार संघराव को सपिरवार जैन बनाया एवं आचार्यश्री की प्रेरणा से उनके पुत्र श्री विजयराव ने यात्रासंघ निकाला तथा ‘संघवी' गौत्र की स्थापना की । सर्वदेव सूरि जी की प्रतिबोधकुशलता भी विशिष्ट थी । चन्द्रावली के राजा अरण्यराज परमार के मंत्री कुंकुण ने चंद्रावती में विशाल जिनप्रासाद बनवाए । वि.सं. 1010 में आचार्यश्री के हाथ से प्रतिष्ठा कराई तथा उनके कुशल प्रतिबोध से मंत्री कुंकुण ने वैराग्य- वसित होकर उनके पास दीक्षा ग्रहण की। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा : आचार्य सर्वदेव सूरि जी के सदुपदेश से राजा रघुसेन ने रामसेन नगर ( रामसैन्यपुर) में प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया व 'राजविहार' की स्थापना की। यह स्थान गुजरात राज्य के बनासकाठा जिलांतर्गत 'डीसा' गांव से 25 कि.मी. दूर स्थित है। आज भी गांव से 1 मील दूर धातु की एक प्रतिमा का परिकर प्राप्त होता है जिसमें प्रतिष्ठा का लेख उत्कीर्ण है। वहाँ पर वि.सं. 1010 में सर्वदेव सूरि जी ने अंजनश्लाका कर अपने करकमलों से श्री चन्द्रप्रभ स्वामी, श्री अजितनाथ स्वामी, श्री ऋषभदेव स्वामी इत्यादि प्रतिमाओं को प्राणप्रतिष्ठित कराया। महावीर पाट परम्परा 115 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस समय सर्वदेव सूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित भगवान् अजितनाथ जी की कलापूर्ण खड्गासन प्रतिमा आज वर्तमान में अहमदाबाद के झवेरीवाड़ स्थित भगवान् अजितनाथ देरासर की भमती (प्रदक्षिणा की जगह ) की देहरी में विद्यमान है। कालधर्म : जैन शासन की क्रमिक उन्नति करते हुए वि.सं. 1055 के आसपास आचार्य सर्वदेव सूर जी का देहावसान हुआ । इनके पट्टधर आ. देवसूरि हुए। महावीर पाट परम्परा 116 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. आचार्य श्रीमद् देव सूरीश्वर जी दिव्य रूप तथा दिव्य स्वरूप, दिव्य आत्म श्रृंगार । दिव्यविभूति श्री देव सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ भगवान् महावीर की 37वीं पाट पर आचार्य श्रीमद् विजय देव सूरि जी म.सा. हुए। गुजराती पट्टावली में उनका दूसरा नाम विजय अजितदेव सूरि उल्लिखित है किन्तु उनका नाम देव सूरि ही प्रसिद्ध रहा। जीवन वृत्तान्त : आचार्य देव सूरि जी बहुत सुंदर रूप के धनी थे। उनकी शरीर संपदा - रूपसंपदा सभी को आकर्षित करती थी। इसीलिए गुजरात प्रदेश के हालार नगर के राजा कर्णसिंह ने उन्हें 'रूपश्री' बिरुद् प्रदान किया। आचार्यश्री ने प्रतिबोध देकर उस राजा कर्णसिंह (कर्णदेव) को जैनधर्मानुयायी बनाया एवं शासन प्रभावना के विविध कार्य संपादित किए। उनके प्रतिबोध एवं उपदेश शक्ति से प्रभावित होकर 'गोप' नामक श्रावक ने 9 नूतन जिनमंदिर बनवाए एवं उनसे प्रतिष्ठा करवाई। आचार्य देव सूरि जी का विहारक्षेत्र विस्तृत था। मालवा में भी कुछ 'पौरू' गृहस्थों को प्रतिबोध देकर उन्हें पोरवाल जैन बनाने का श्रेय भी देव सूरि जी को जाता है। वि.सं. 1088 में आबू के विमलवसही मंदिर में ऋषभदेवजी आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा के समय ये गुजरात में विचर रहे थे। चंद्रगच्छ में राजगच्छ के आचार्य शीलभद्र उस प्रतिष्ठा में सम्मिलित हुए। इतिहासविदों को अनुसार उनका कालधर्म वि.सं. 1110 के आसपास अथवा 1125 के आसपास हुआ। समकालीन प्रभावक आचार्य ● नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि जी : आचार्य अभयदेव जैन परम्परा के इतिहास के प्रसिद्ध आचार्य हैं। पत्यपद्रपुर में रात्रि के समय आचार्य अभयदेव सूरि जी ध्यान में बैठे थे। तभी शासनदेवी प्रकट हुई एवं निवेदन किया महावीर पाट परम्परा 117 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि- " हे मुने! आचार्य शीलांक व कोट्याचार्य विरचित टीका साहित्य में सिर्फ आचारांग और सूत्रकृतांग आगम की टीकाएं ही सुरक्षित हैं। शेष समय के दुष्प्रभाव से लुप्त हो गई हैं। अतः इस क्षतिपूर्ति के लिए संघ हितार्थ आप प्रयत्नशील बनें एवं टीका रचना का कार्य प्रारंभ करें । ' आचार्य अभयदेव सूरि जी ने कहा " देवी! मेरे जैसे जड़मति व्यक्ति के लिए सुधर्म स्वामी जी कृत आगमों को पूर्णतः समझना भी कठिन है। अज्ञानवश कहीं उत्सूत्रप्ररूपणा हो जाने पर यह कार्य अनंत संसार की वृद्धि का निमित्त बन सकता है। शासनदेवी के वचनों का उल्लंघन करना भी उचित नहीं । " तब देवी ने कहा “सिद्धांतों के समुचित अर्थ को ग्रहण करने में सर्वथा योग्य समझकर ही मैंने ऐसी प्रार्थना की। आगम पाठों की व्याख्या में जहाँ भी आपको संदेह हो, उस समय मेरा स्मरण कर लेना। मैं श्री सीमंधर स्वामी से पूछकर आपके प्रश्नों का समाधान देने का प्रयत्न करूँगी।" - उस समय आगमों की प्रतिलिपियों में अनेक गलतियां थीं, आगमों की अध्ययन परम्परा भिन्न-भिन्न थी, एवं अर्थ विषयक नाना धारणाएं थीं। फिर भी अत्यंत सावधानी पूर्वक एकनिष्ठा से आयम्बिल तप प्रारंभ किया और टीकाएं रची 1) 2) 3) 4) 5) 6) स्थानांग सूत्रवृत्ति समवायांग सूत्रवृत्ति व्याख्या प्रज्ञप्ति वृत्ति ज्ञाताधर्मकथा वृत्ति उपासकदशांग वृत्ति अंतकृत्-दशांग वृत्ति अनुत्तरौपपातिक सूत्रवृत्ति प्रश्नव्याकरण सूत्रवृत्ति विपाक सूत्रवृत्ति 9) टीका रचना करने के बाद एक बार अभयदेव सूरि जी धवलकपुर पधारे। निरंतर आयंबिल एवं रात्रि जागरण से उन्हें कुष्ठ रोग हो गया। विरोधीजनों ने उनके अपयश हेतु ऐसी अफवाह फैलायी कि अभयदेव सूरि जी द्वारा टीका रचना में उत्सूत्र प्ररूपणा के कारण शासनदेवी उन्हें महावीर पाट परम्परा 14250 पद्य परिमाण (वि.सं. 1120) 3575 श्लोक परिमाण (वि.सं. 1120) 18,616 श्लोक परिमाण (वि.सं. 1128) शु 3800 पद्य परिमाण 1812 पद्य परिमाण 899 पद्य परिमाण 192 श्लोक परिमाण 4630 पद्य परिमाण 900 पद्य परिमाण 118 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुष्ठ रोग द्वारा दंडित कर रही है। लोकापवाद सुनकर अभयदेव सूरि जी का विश्वास डोल गया। लेकिन शासन हितैषी धरणेन्द्र देव ने आचार्यश्री को आश्वस्त किया। धरणेन्द्र देव के निवेदन पर श्रावक संघ के साथ आचार्य अभयदेव सूरि जी स्तम्भन गाँव में आए। वहाँ उन्होंने 32 श्लोकों वाले 'जयतिहुअण स्तोत्र' की रचना की जिससे पार्श्वनाथ जी की दिव्य प्रतिमा सेढिका नदी से प्रकट हुई तथा आचार्य अभयदेव का कुष्ठ रोग भी चला गया। इसके बाद विरोधी जनों की भ्रान्तियाँ भी मिट गई। धरणेन्द्र देव ने स्तोत्र की 2 प्रभावक गाथाओं को लुप्त कर दिया। आगम साहित्य के निष्णात् विद्वान् आचार्य अभयदेव जी 16 वर्ष की आयु में आचार्य बने एवं 67 वर्ष की आयु में कालधर्म को प्राप्त हुए। महावीर पाट परम्परा 119 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. आचार्य श्रीमद् सर्वदेव सूरीश्वर जी (द्वितीय) संयमधर्म संपदा धनी, शिष्य निधि उपहार । सर्वदेव सूरि जी सरलमना, नित् वंदन बारम्बार ॥ सम्यक् ज्ञान, दर्शन व चारित्र के धनी आचार्य सर्वदेव सूरि जी भगवान् महावीर के 38वें पट्टविभूषक बने एवं देवसूरि जी के पट्टधर बने। निस्संदेह रूप से ये सर्वदेव सूरि अपने दादागुरूदेव 36वें पट्टधर सर्वदेव सूरि जी से भिन्न थे। जीवन वृत्तान्त : आचार्य सर्वदेव सूरि जी (द्वितीय) के विषय में विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं होता । इनका शिष्य समुदाय अति विशाल था। 1) आचार्य विजयचंद्र सूरि, 2) आचार्य यशोभद्रसूरि, 3) आचार्य जयसिंह सूरि, 4) आचार्य नेमिचंद्र सूरि, 5) आचार्य रविप्रभ सूरि, 6) आचार्य चन्द्रप्रभ सूरि ( प्रभाचन्द्र सूरि ), 7) आचार्य आनन्द सूरि इत्यादि 8 को आचार्य पदवी सर्वदेव सूरि जी ने ही प्रदान की थी। शंखेश्वर तीर्थ में लोहियाण राजा को सर्वदेव सूरि जी ने बारह व्रतधारी श्रावक बनाया, जिससे जनता में उनकी जय-जयकार हुई। इनके शिष्यों ने विविध क्षेत्रों में विचरण कर 'जैनम् जयति शासनम्' का सर्वत्र उद्घोष किया। अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ की स्थापना इनके काल में हुई। जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए सर्वदेव सूरि जी वि.सं. 1130 से 1165 के बीच में स्वर्गवासी हुए। इनकी पाट पर आचार्यद्वय स्थापित हुए जिन्होंने चतुर्विध संघ का कुशल रूप से वहन किया। महावीर पाट परम्परा 120 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. आचार्य श्रीमद् यशोभद्र सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् नेमिचन्द्र सूरीश्वर जी योग-क्षेम निपुण यशोभद्र जी, वैराग्य रस आगार। ज्ञाननिधान श्री नेमिचन्द्र जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य सर्वदेव सूरि जी ने जिन 8 श्रमण भगवन्तों को आचार्य पद प्रदान किया, उनमें से यशोभद्र सूरि जी एवं नेमिचंद्र सूरि जी को शक्तिशाली-समर्थ एवं एक-दूसरे का पूरक जानकर दोनों गुरुभाईयों को अपनी पाट पर स्थापित किया। अतः दोनों भगवान् महावीर की गौरवशाली परम्परा के 39वें पट्टप्रभावक बने। जन्म एवं दीक्षा : आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी बृह्दगच्छीय आचार्य उद्योतन सूरि जी के प्रशिष्य थे। उनकी दीक्षा उद्योतन जी के शिष्य उपाध्याय आम्रदेव द्वारा हुई एवं उनका नाम- मुनि देवेन्द्र रखा गया। दीक्षा के अल्प काल में गणि पद प्राप्त कर देवेन्द्र गणी ने अनेकों ग्रंथ रचे। आचार्य पद पर आरूढ़ होने पर उनका नाम सर्वदेव सूरि जी ने - नेमिचंद्र सूरि रखा। आचार्य यशोभद्र सूरि जी के दीक्षा गुरु विजयचन्द्र सूरि जी थे। दोनों का विहार क्षेत्र प्रमुखतः गुजरात व राजस्थान रहा। समुदाय के अन्य गुरु भगवन्त जैसे प्रद्युम्न सूरि जी के शिष्य परिवार आदि से भी उनका अच्छा सम्बन्ध था। साहित्य रचना : आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी की गणना जैन विद्या के मनीषी टीकाकारों में होती है। वे संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओं के अधिकृत विद्वान थे। जैन धर्म के विविध विषयों का अध्ययन कर उसे अधिक सरस बनाने हेतु अनेक ग्रंथों का लेखन-संकलन-संपादन किया। 1) आख्यान-मणिकोश - नेमिचंद्र सूरि जी की यह प्रथम रचना है। इसमें मूल 52 गाथाएँ है। इसके 41 अधिकार (अध्ययन) एवं 146 आख्यान (कथा आदि) हैं। देवेन्द्र गणी महावीर पाट परम्परा 121 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तत्पश्चात् नेमिचंद्र सूरि) की इस ग्रंथ लेखन में गुरुभाई पं. गुणाकर व पं. पार्श्वदेव ने भी सहायता की। वि.सं. 1129 में इसकी रचना हुई। 2) आत्मबोध कुलक - यह 22 गाथाओं की लघु रचना है। इसमें आत्मा से संबंधित विविध रूपों में उपदेश दिया गया है। इस कृति का दूसरा नाम - धर्मोपदेश कुलक भी कहा गया है। रयणचूड़-तिलयसुंदरीकहा - देवेन्द्र विजय गणी ने प्राकृत गद्य व पद्य रूप में इस ग्रंथ की रचना की। इस कृति का कथानक गणधर गौतम ने अपने मुख से सम्राट श्रेणिक को सुनाया था। रत्नचूड़ इस कथानक का मुख्य पात्र था। यह काव्य गुणों से मंडित एवं शिक्षात्मक सूक्तियों से परिपूर्ण रचना है। प्रद्युम्न सूरि के प्रशिष्य पंन्यास यशोदेवगणी ने इस 3081 श्लोक प्रमाण ग्रंथ की प्रथम प्रति लिखी। महावीर चरियं - वि.सं. 1141 में राजा कर्णदेव के अणहिल्लपुर पाटण में श्रेष्ठी दोहिड़ी की वसति (बस्ती) में रहकर नेमिचंद्र सूरि जी ने 3000 प्राकृत पद्य प्रमाण इस ग्रंथ की रचना की। इसमें भगवान् महावीर के पूर्वभवों का व कल्याणकों का विशद वर्णन है। यह आचार्य विजय नेमिचंद्र सूरि जी की अंतिम रचना मानी जाती है। 5) प्रवचन सारोद्धार - जैन आगमों में से अत्यंत उपयोगी प्राकृत गाथाओं का संग्रह रूप किया। इसके ऊपर अनेक जैनाचार्यों ने परिश्रम कर इसके उपयोग को बढ़ाया है। नेमिचंद्र सूरि जी का मौलिक संकलन प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन सूत्र की सुखबोध वृत्ति - वि.सं. 1129 में अणहिल्लपुर पाटण में अपने पट्टधर व गुरुभ्राता - मुनिचंद्र जी की प्रेरणा से दोहड़ श्रेष्ठी की बस्ती (वसति) में रहकर आगम उत्तराध्ययन सूत्र पर इस लघु टीका की रचना की। टीका रचना का मुख्य आधार वादिवेताल शांति सूरि जी की 'शिष्यहिता' टीका रही। इस रचना का नाम सुखबोधा वृत्ति है। संक्षेप रुचि के पाठकों के लिए मतान्तरों से मुक्त सरल-स्पष्ट-सरस शैली में भाव प्रधान रूप में रचा गया यह ग्रंथ 'सुखबोधा' नाम को सार्थक करता है व आज भी उपयोगी है। इसमें 12,000 (14,000) पद्य हैं तथा यह 125 प्राकृत कथाओं से परिपूर्ण है। इस टीका की विशिष्टताओं से पाश्चात्य विद्वान शारपेन्टियर, डॉ. हर्मन जेकोबी आदि भी बहुत प्रभावित हुए हैं। लेजे मेयर ने इसका सन् 1909 में अंग्रेजी अनुवाद भी किया। पाश्चात्य विद्वान ल्यूमेन महावीर पाट परम्परा 122 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने निःसंकोच भाव से नेमिचंद्र सूरि जी की इस रचना को दृष्टिवाद ( विलुप्त अंग आगम) के अंश का सूचक माना है। यह टीका संक्षिप्त मूल पाठ का स्पर्श करती हुई अर्थ गौरव से परिपूर्ण है। वैराग्यरस से परिप्लावित कथाओं से टीका में प्राणवत्ता आ गई है। आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी की यह रचना सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सार्वजनिक उपयोगी सिद्ध होती है। इन सबके अतिरिक्त उन्होंने वि.सं. 1160 में सरवाल गच्छ के वाचनाचार्य वीरगणी जी की रचित पिंडनियुक्ति ग्रंथ की शिष्यहिता नामक वृत्ति (टीका) का पाटण में संशोधन किया एवं वि.सं. 1162 में आचार्य देवसूरि जी द्वारा रचित जीवानुशासन सटीक का भी संशोधन किया व साहित्य जगत् के उज्ज्वल नक्षत्र के रूप में श्रुतप्रभावना की । धर्म : शांति, सेवा व साधना के भाव में अनुरक्त आचार्य यशोभद्र सूरि जी म.सा. एवं साहित्य, समर्पण व सहयोग के भाव में अनुरक्त आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी म. सा. ने साथ मिलकर चतुर्विध संघ के योग-क्षेम का दायित्व निभाया। इनके साहित्य साधना का प्रमुख क्षेत्र गुजरात तथा राजस्थान रहा। गुजरात में उस समय चौलुक्यवंशी राजाओं का राज्य था एवं स्थिति जिनधर्म के अनुकूल रही। यशोभद्रसूरि जी का कालधर्म शीघ्र हो गया। आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी शासन की महती प्रभावना करते हुए वि.सं. 1169 के आसपास कालधर्म को प्राप्त हुए। आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी ने अपने गुरुभाई उपाध्याय विनयचंद्र जी के शिष्य श्री मुनिचंद्र को आचार्य पदवी प्रदान की एवं योग्यता जानकर अपने बाद गच्छ की अनुज्ञा प्रदान की। महावीर पाट परम्परा 123 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. आचार्य श्रीमद् मुनिचन्द्र सूरीश्वर जी दृढ़ संकल्पी - साहित्य शिल्पी, शिक्षा क्षेत्र होशियार । श्रुत चंद्र, मुनिचंद्र सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार || आचार्य यशोभद्र जी एवं आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी के पट्टालंकार आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी वीर शासन के 40वें पाट पर आरूढ़ हुए। इनका दूसरा नाम चन्द्रसूरि रहा । ज्ञानयोग के शिखर पर विद्यमान आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी ने संयम प्रभावना एवं साहित्य सर्जना द्वारा 'जैनम् जयति शासनम्' के उद्घोष को सर्वत्र प्रचारित किया। जन्म एवं दीक्षा : डभोई (गुजरात) के श्रावक चिन्तक की धर्मपत्नी मोंघीबाई की रत्नकुक्षि से इनका जन्म हुआ एवं इनका नाम शान्तिक रखा गया। जिनपूजा, सामायिक, गोचरी वोहराना तपस्या इत्यादि धार्मिक संस्कारों के प्रभाव से बालक के हृदय में जिनशासन के प्रति अपूर्व अपनत्व के भाव का सिंचन हुआ। गाँव में पधारे आचार्य यशोभद्रसूरि जी के प्रवचनों से बालक को सही दिशा मिली एवं वैराग्यरस पोषित - पल्लवित हुआ। माता - पिता के लाडले होने के कारण प्रथमतः दीक्षा हेतु अनुमति नहीं मिली, किंतु धर्मसंस्कारों के आवरण में पुत्र के आत्मकल्याण के मार्ग का चयन करने पर माता-पिता ने अन्ततः प्रसन्नचित्त से चारित्र अंगीकार करने की आज्ञा दी । अल्पायु में उन्होंने आचार्य यशोभद्रसूरि जी के पास दीक्षा ली एवं दीक्षा लेते ही अपने संयम जीवन को तपस्या से मंडित रखते हुए अभिग्रह भी धारण किए, जैसे 1) जीवनपर्यन्त एक दिन के आहार में मात्र 12 वस्तुओं (द्रव्यों) को ग्रहण करना । 2) जीवनपर्यन्त सोवीरपाणी (दाल या चावल का धोया हुआ अचित्त पानी ) ग्रहण करना । 3) जीवनपर्यन्त 6 विगयों एवं खाने की अनेक वस्तुओं का त्याग। 4) प्रतिदिन कम से कम आयम्बिल की तपस्या करनी ही । उपरोक्त अभिग्रहों से बालब्रह्मचारी नूतनदीक्षित बालमुनि मुनिचन्द्र ने प्रमाणित किया कि उनका दीक्षा का निर्णय उनके बालपन का नहीं अपितु बौद्धिक परिपक्वता व संयम के प्रति आत्मीय अनुराग का फल है। महावीर पाट परम्परा 124 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन प्रभावना : उपाध्याय विनयचंद्र जी के सन्निकट रहकर इन्होंने विद्याध्ययन किया। एक बार वि.सं 1094 के आसपास वे अपने विद्यागुरु के साथ पाटण में चैत्य-परिपाटी हेतु पधारे। इस समय पाटण में चैत्यवासियों का भारी प्रभाव था। संवेगी साधुओं के रहने के लिए योग्य स्थान / पोशाल नहीं थी। मुनिश्री एक दिन थारापद्रगच्छ के चैत्य में भगवान् ऋषभदेव के दर्शन कर पास के स्थान में निवास कर रहे वादिवेताल आचार्य शांति सूरि जी के सरस व्याख्यान सुनने हेतु निरंतर 10 दिनों तक वे उनके स्थान पर जाते रहे। चित्त व बुद्धि की एकाग्रता व विद्याध्ययन में कुशाग्रता के कारण मुनिश्री के पास कोई पुस्तक या अध्ययन सामग्री न होते हुए भी गुरुदेव द्वारा पढ़ाया संपूर्ण पाठ उन्हें स्मरण रहा। आचार्य शांति सूरि जी के 32 शिष्यों में से कोई भी उनके पढ़ाए पाठ को धारण नहीं कर सका - इस बात का आचार्य शांति सूरि जी को खेद हुआ किंतु 10 दिन से आ रहे एक शैक्ष मुनि ने बिना पुस्तक सब कुछ याद रखा, तब उनको उनकी स्मरणशक्ति पर आश्चर्य हुआ, एवं प्रसन्नता हुई। शान्त्याचार्य ने मुनिश्री को कहा - मेरे लिए तो तुम धूल से निकले एक बहुमूल्य रत्न हो। तुम मेरे पास रहकर न्यायशास्त्र का अभ्यास करो। आचार्यश्री जानते थे कि पाटण में संवेगी साधुओं के उतरने योग्य स्थान नहीं है। अतः टंकशाल के पीछे सेठ दोहड़िया के घर में ठहरने की व्यवस्था की एवं न्यायशास्त्र - षड्दर्शन इत्यादि विषय पढ़ाए। मुनिचंद्र जी ने अथक परिश्रम से शास्त्रों का तलस्पर्शी अभ्यास किया। आचार्य नेमिचंद्र सूरि जी को आचार्य सर्वदेव सूरि जी ने वि.सं. 1129 से वि.सं. 1139 के बीच किसी वर्ष सूरिपद पर प्रतिष्ठित किया था। स्वयं आचार्य बनने के कुछ वर्ष बाद ही मुनिचंद्र जी को योग्य जानकर नेमिचंद्र सूरि जी ने सूरिपद प्रदान किया। उनका नाम मुनिचंद्र सूरि जी रखा गया। सांभर नामक नगर में राजा अर्णोराज की सभा में आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी ने शैव (शिव मत उपासक) वादियों को परास्त किया। दिगम्बर वादी गुणचंद्र एवं श्वेताम्बर राजगच्छ के वादी धर्मघोष सूरि जी के मध्य शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें मुनिचंद्र सूरि जी ने धर्मघोष सूरि जी की सहायता की तथा वे जीत गए। उनकी बुद्धि, उनके तर्को को भेद पाना अत्यंत दुष्कर माना जाता था। अतः उन्हें 'तार्किकशिरोमणि' के विशेषण से विभूषित किया जाता था। वे कर्मप्रकृति प्राभृत और कषायप्राभृत के बहुत अच्छे जानकार थे। खंभात और नागौर के क्षेत्र में उनकी धर्मस्पर्शना प्रभावक रही। महावीर पाट परम्परा 125 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक श्रावक ने वि.सं. 1149 में प्रतिष्ठा कराई जिसमें आचार्य मुनिचंद्र सूरि, उनके गुरुभाई आचार्य चन्द्रप्रभ सूरि इत्यादि आचार्य विद्यमान थे। मुनिचंद्र सूरि जी ने प्रतिष्ठा के सारे कार्य किए। आचार्य चंद्रप्रभ को उनकी कई बातों से अपना अपमान लगा। अतः पूनम के दिन उन्होंने नई प्ररूपणाएं चालू की। उनका मत-पूनमिया मत कहलाया। आचार्य चंद्रप्रभ जी ने दर्शनशुद्धि ओर प्रमेयरत्नकोश ग्रंथों की रचना की। अतः इस मत के अनुयायियों को प्रतिबोध देने हेतु आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी ने पाक्षिक सप्ततिका (आवश्यक सत्तरी) नामक ग्रंथ बनाकर उन्मार्ग का उन्मूलन व सन्मार्ग का संस्थापन किया। कालक्रम से पूनमिया मत विलुप्त हो गया। आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी शान्त, त्यागी, ज्ञानी, सत्यनिष्ठ, निर्भीक, निर्दोष वसति और आहार के गवेषक तथा श्रीसंघ के माननीय विद्वान थे। बड़गच्छ के संपूर्ण साधु-साध्वी उन्हें अपना आधार स्तंभ मानते थे। शासक प्रभावना के अनेक कार्य उनकी अध्यक्षता में सम्पन्न हुए। साहित्य रचना : मुनिचंद्र सूरि जी संस्कृत व प्राकृत भाषा के अधिकृत विद्वान थे। अनेक स्तवन, ग्रंथों की टीकाएं, प्रवचन, प्रश्नोत्तर आदि शैली में उनकी रचनाएं प्राप्त होती हैं। 1) प्राभातिक स्तुति वसन्ततिलका छन्द, श्लोक 9 अंगुलसत्तरि स्वोपज्ञ वृत्ति सहित, गाथा 70 वनस्पति सत्तरि गाथा 70 आवश्यक पाक्षिक सत्तरि गाथा 70 उपदेश पंचाशिका गाथा 50 मोक्षोपदेश पंचाशक गाथा 51 उपदेश पंशवीशिका गाथा 25, दया आदि का स्वरूप विषय निंदा कुलक गाथा 25 सामान्य गुणोपदेश कुलक गाथा 25 अनुशासन अंकुश कुलक गाथा 25 तित्थमालाथयं गाथा 112 12) पर्युषणा पर्व विचार गाथा 125 10) 11) महावीर पाट परम्परा 126 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13) गाथाकोश गाथा 304 14) प्रश्नावली उपदेश पद सुख संबोधिनी टीका (पाटण वि.सं 1171) 14,000 श्लोक प्रमाण कर्मप्रकृति विशेष वृत्ति ग्रं. 1950 17) धर्मबिंदु वृत्ति सं. 1181 ललितविस्तरा पंजिका ग्रं. 1800 अनेकान्त-जय-पताकोद्योत-दीपिका-टिप्पणम् 20) शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन . श्लोक 10 कलिकुंड पार्श्वनाथ स्तवन श्लोक 10 सम्यक्त्वोत्पाद विधि गाथा 29 मंडण विचार कुलक गाथा 25 24) काल शतक गाथा 100 25). शोकहर उपदेशक कुलक 26) देवेन्द्र नरकेन्द्र प्रकरण वृत्ति मूल चिरंतनाचार्य द्वारा विरचित 27) सूक्ष्मार्थ सार्धशतक पर चूर्णि वि.सं. 1170 28) नैषधकाव्य टीका श्लोक 1200 29) द्वादश वर्ग (बारसवयं) गाथा 94, आषाढ सुदि 3 वि.सं. 1186 30) सुहुमत्थविचारलव अप्राप्य वि.सं. 1170 इसके अलावा भी आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी की अनेक कृतियां प्राप्त होती हैं। श्रुतप्रभावना के क्षेत्र में उनका कार्य महनीय था। उस समय के कई लेखकों ने प्रशस्तियों में सैद्धांतिक सहायता हेतु मुनिचंद्र सूरि जी का आभार व्यक्त किया है, जिससे ज्ञात होता है कि आचार्यश्री जी का ज्ञान के प्रति कितना अनुराग था। संघ व्यवस्था : ____ काल के प्रभाव से कई वर्षों तक जो सुलभ निर्दोष वसति संवेगी साधु भगवन्तों को नहीं महावीर पाट परम्परा 127 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल पाती थी, वो इनके समय में पुनः मिलने लगी। आचार्य मुनिचंद्र सूरि जी स्वयं नवकल्पविहारी थे एवं संपूर्ण गच्छ में उसका संभवतः पालन करवाते थे। आचार्य आनंद सूरि जी, आचार्य देवप्रभ सूरि जी, आचार्य मानदेव सूरि जी, आचार्य अजितप्रभ सूरि जी, आचार्य अजितदेव सूरि जी, आचार्य रत्नसिंह सूरि जी इत्यादि से मंडित साधु समुदाय की सारणा-वारणा-चोयणा - पडिचोयणा कर शासन प्रभावक रत्नों को तैयार किया। इनके परिवार में जघन्य 500 साधु भगवंत आज्ञा में थे एवं अनेक साध्वी जी भी थे। इन्होंने चैत्यवास का सदा विरोध किया एवं शिथिलाचार में डूबे मुनिराजों को गच्छ से बहिष्कृत किया। वि.सं. 1174 में चंदनबाला नामक साध्वी जी को उन्होंने महत्तरा पद दिया । कालधर्म : खंभात, नागौर आदि स्थलों पर चातुर्मास करते हुए ये कालधर्म को प्राप्त हुए। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए दीर्घायु को प्राप्त आ. मुनिचंद्र सूरि जी म.सा. का कालधर्म कार्तिक वदि 5 की रोज वि.सं. 1178 में उनकी कर्मभूमि पाटण में समाधिपूर्वक हुआ । अम्बिका देवी की सूचनानुसार उनके शिष्य आचार्य वादिदेव सूरि जी अपने शिष्य परिवार के साथ हाजिर रहे। उस समय उन्होंने 'गुरुविरहविलाप' एवं 'मुणिचंद सूरि थुई' की रचना की । मुनिचंद्र सूरि जी के देहावसान से संपूर्ण संघ में शून्यता का आभास होने लगा । गच्छ संचालन हेतु उनके योग्य उत्तराधिकारी के रूप में आचार्य अजितदेव सूरि जी उनके पट्टधररत्न बने । महावीर पाट परम्परा 128 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. आचार्य श्रीमद् अजितदेव सूरीश्वर जी जन हितैषी सूरि अजितदेव जी, जीरावला दातार। तर्क-वितर्क-कुतर्क विजेता, नित् वंदन बारम्बार॥ शासननायक भगवान् महावीर की जाज्वल्यमान पाट परम्परा के क्रमिक 41वें पट्टधररत्न आचार्य श्री अजितदेव सूरि जी एक शासन प्रभावक आचार्य रहे। न्याय एवं षड्दर्शन पर उनका विशेष प्रभुत्व था। संस्कृत के गद्य-पद्य वे धाराप्रवाह रूप में रचने व बोलने में सामर्थ्यवान थे। वह युग वाद-विवाद का युग था। जैन दर्शन की पवित्र मान्यताओं व सिद्धांतों का निर्भीक प्रचार कर उन्होंने अनेक वादियों को परास्त किया। उनका विचरण सुदीर्घावधि तक सौराष्ट्र प्रदेश में हुआ। इसके सुफल स्वरूप इनकी प्रेरणा से वि.सं. 1191 में अतिशयकारी जीरावला तीर्थ की स्थापना संभव हुई। वरमाण के सेठ धांधल श्रीमाली के पुरुषार्थ से अतिप्राचीन श्री पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा जीरावला तीर्थ में महावीर स्वामी जी के देरासर में आचार्यश्री द्वारा प्रतिष्ठित हुई। उस समय जीरापल्ली तीर्थ प्रसिद्धि को प्राप्त था। ___ गुजरात नरेश सिद्धराज जयसिंह भी इनका परम भक्त था। वह कई घंटों तक आचार्यश्री के पास बैठकर धर्मचर्चा करता था। वस्तुतः वह अजैन था किंतु अजितदेव सूरि जी एवं हेमचन्द्र सूरि जी की कृपा जैनधर्म से जुड़ा। ___ अजितदेव सूरि जी के गुरुभाई वादीदेव सूरि जी भी महाप्रभावक आचार्य हुए। खरतरगच्छ की उत्पत्ति भी लगभग इसी समय में हुई। कलिकाल-सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सूरि जी इनके समकालीन हुए। महावीर पाट परम्परा 129 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य हेमचंद्र सूरि जी : __कलिकाल सर्वज्ञ, सरस्वती पुत्र आचार्य श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वर जी म. जैन जगत् के एक अति जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उनका जन्म वि.सं. 1145 (ईस्वी सन् 1088) में कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को गुजरात प्रदेशान्तर्गत धंधुका नगरी में हुआ। माँ पाहिणी से उन्हें जैनधर्म के सुसंस्कार मिले एवं गुरुदेव आचार्य देवचन्द्र सूरि जी के सदुपदेश से उनका बालवय का उद्देश्य भविष्य में धर्मोद्योत बन गया। माघ शुक्ला 14, वि.सं. 1154 में नौ वर्षीय चांगदेव की दीक्षा सम्पन्न हुई एवं उनका नामकरण - मुनि सोमचंद्र रखा गया। उनकी प्रतिभा अत्यंत प्रखर थी। साहित्य की विविध विद्याओं का उन्होंने गंभीर अध्ययन किया। ज्ञानाराधना की अधिक शक्ति को प्राप्त करने हेतु उन्होंने कश्मीर की ओर यात्रा प्रारंभ की, किंतु सिद्धचक्र यंत्र एवं ज्ञानपद की आराधना से सरस्वती देवी (विमलेश्वर देव) ने प्रकट होकर उन्हें ज्ञानसाधना में अनुकूलता की बात कही। कुछ ही वर्षों में मुनि सोमचंद्र उत्तम कोटि के विद्वानों में गणना होने लगी। शासनदेवी ने उन्हें कुछ विशिष्ट मंत्र व विद्याएं भी प्रदान की थी। उनकी बहुमुखी प्रतिभा को देखते हुए चतुर्विध संघ की उपस्थिति में अक्षय तृतीया के पावन दिन वि.सं. 1166 में उन्हें आचार्य पदवी प्रदान की गई। इस अवसर पर आचार्य देवचन्द्र सूरि जी ने फरमाया कि यह हेम (स्वर्ण) की भाँति ज्ञानशक्ति से सर्वत्र प्रकाश करेगा एवं चन्द्र की भाँति शीतल प्रकाश से संघ के संरक्षण व संवर्धन का दायित्व निभाएगा। अतः उनका नाम आचार्य हेमचंद्र सूरि घोषित किया गया। इसी प्रसंग पर उन्होंने अपनी सांसारिक माँ पाहिणी को भी भागवती दीक्षा प्रदान की। मात्र 21 वर्ष की आयु में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हेमचन्द्राचार्य जी ने जिनशासन की खूब प्रभावना की। युवाचार्य हेमचंद्र सूरि जी ने गुजरात नरेश सम्राट सिद्धराज जयसिंह को भी प्रतिबोधित किया। राजा के आग्रह पर आचार्यश्री ने व्याकरण ग्रंथ की रचना की, जिसका नाम 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' रखा गया। संस्कृत व प्राकृत भाषा की व्याकरण से संबंधित 4791 सूत्रों में रचे इस उत्तम ग्रंथ से राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ। इस ग्रंथ का हाथी की अंबाडी पर नगर भ्रमण कराया गया व कच्छ, काशी, कुरुक्षेत्र, जालंधर, कलिंग, हरिद्वार आदि श्रुतकेन्द्रों तक भी पहुँचाया गई। महावीर पाट परम्परा 130 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा सिद्धराज के बाद गुजरात के सिंहासन पर कुमारपाल आरूढ़ हुआ। उस समय आचार्य हेमचन्द्र की आयु 54 वर्ष व कुमारपाल की 50 वर्ष थी। पूर्वभव में कुमारपाल नरवीर (जयताक) नामक राजकुमार था जो कालक्रम से डाकू बन गया था एवं आचार्य यशोभद्र सूरि (जो हेमचन्द्राचार्य बने) के प्रतिबोध से सन्मार्ग पर आया एवं प्रभु पूजा में तल्लीन हुआ। इस भव में भी दोनों का सम्बन्ध गुरु-शिष्य सा था। गुरुदेव के प्रतिबोध से कुमारपाल महाराज ने श्रावक के सभी 12 व्रत ग्रहण किए एवं तारंगा, कुंभारियाजी, खंभात, पाटण आदि विविध स्थलों पर 1444 जिनमंदिर बनवाए, 16,000 पुराने जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार कराया एवं 36,000 जिनप्रतिमाएं भराई। गुरुदेव के सदुपदेश से कुमारपाल के शासनकाल में गुजरात हिंसा-मुक्त राज्य बन गया था। कुमारपाल महाराजा ने 70 हस्त-लेखकों को. आचार्यश्री की सेवा में नियुक्त किया ताकि हेमचन्द्राचार्य जी के श्रुतलेखन में कोई बाधा न आ सके। आचार्य हेमचन्द्र ने कंटकेश्वरी देवी को भी अपनी प्रतिबोध व मंत्रशक्ति से जैन बनाया। आचार्य हेमचंद्र सूरि जी ने सुविशाल साहित्य की रचना की1. अभिधान चिंतामणि कोश ; 2. अनेकार्थ संग्रह कोश ; 3. निघण्टु कोश ; 4. देशी नाम माला कोश ; 5. सिद्धहेमशब्दानुशासन ; 6. काव्यानुशासन ; 7. छन्दोनुशासन ; 8. प्रमाण मीमांसा ; 9. अन्ययोग - व्यवच्छेदिका 10. अयोगव्यवच्छेदिका ; 11. द्वयाश्रय महाकाव्य (कुमारपाल चरित्र) ; 12. योगशास्त्र (स्वोपज्ञवृत्ति सहित) ; 13. परिशिष्ट पर्व ; 14. वीतराग स्तोत्र ; 15. त्रिषष्टिश्लाकापुरुषचरित्र इत्यादि। वर्तमान में प्रचलित 'सकलार्हत् स्तोत्र' त्रिषष्टिश्लाकापुरुषचरित्र ग्रंथ के ही अन्तर्गत है। उनकी अनुपम ज्ञान साधना के कारण सिद्धराज जयसिंह एवं परमार्हत् सम्राट कुमारपाल ने उन्हें 'कलिकाल सर्वज्ञ' का बिरुद् प्रदान किया। श्रुत साहित्य के क्षेत्र में हेमचन्द्राचार्य जी का अनुपम अवदान रहा। हेमचन्द्राचार्य जी के अविस्मरणीय कार्यों की स्मृति में आज भी गुजरात के पाटण में राज्यस्तरीय विश्वविद्यालय का नाम हेमचन्द्र सूरि पर है, जो अत्यंत ही गौरव का विषय है। हेमचन्द्राचार्य जी का स्वर्गवास वी.नि. 1699 (वि.सं. 1229) में 84 वर्ष की आयु में हुआ। महावीर पाट परम्परा 131 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. आचार्य श्रीमद् सिंह सूरीश्वर जी अद्भुत निष्ठा - अद्भुत शक्ति, मितभाषी संस्कार । सिंह सूरि जी समता सागर, नित् वंदन बारम्बार ॥ यथा नाम तथा गुण जिनवाणी की सिंह सम गर्जना कर जैनशासन का वर्चस्व स्थापित करने वाले आचार्य सिंह सूरि जी भगवान् महावीर की परमोज्ज्वल पाट परम्परा के 42वें पट्टप्रद्योतक बने। वे मितभाषी ( कम बोलने वाले), हितभाषी ( हित का बोलने वाले) एवं मिष्ठभाषी (मीठा बोलने वाले) आचार्यरत्न थे। शासन प्रभावना : आचार्य अजितदेव सूरि जी के पट्टधर सिंह सूरि जी समर्थवादी आचार्य थे। उनकी विद्वत्ता एवं तर्कशक्ति अद्भुत थी। द्विसंधान काव्य ग्रंथ के अनुसार सिंह सूरि जी अत्यंत रूपवान् एवं सुकोमल शरीर संपदा के धनी थे। तत्कालीन समय में लोग उन्हें कामदेव के समान रूपवंत व मोहक मानते थे किंतु सिंह सूरि जी नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे एवं अपने संयम जीवन की साधना के बल से वे जगत्पूज्य बने । वि.सं. 1206 में सिंह सूरि जी ने आरासण तीर्थ में जिनप्रतिमाओं की अंजनश्लाका प्रतिष्ठा कराई। वह लेख आज भी विद्यमान है। गुजरात - मारवाड़ ही उनका प्रमुख विहार क्षेत्र रहा। साहित्य रचना : प्रसिद्ध कवि श्रावक आसड द्वारा विरचित 'विवेकमंजरी' नामक ग्रंथ को शुद्ध कर उस पर 'विवेकमंजरी वृत्ति' नाम से टीका आचार्यप्रवर सिंह सूरीश्वर जी ने रची। आसड कवि का 'राजड' नाम का पुत्र बाल अवस्था में ही आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हो गया था। इससे आसड कवि को गहरा सदमा पहुँचा । दुःख एवं नकारात्मकता से परिपूर्ण आसड श्रावक को कलिकालगौतम कहे जाने वाले आचार्य अभयदेव सूरि जी ने अपने उद्बोधन से शांत कराया एवं धर्ममार्ग पर पुनः प्रवृत्त किया । आचार्यश्री के बोधवाक्यों का अनुसरण करते हुए कवि महावीर पाट परम्परा 132 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसड ने 'विवेकमंजरी' नामक ग्रंथ की रचना की तथा सिंह सूरि जी ने उसको शुद्ध कर टीका रचा। संघ व्यवस्था : सिंह सूरि जी ने अत्यंत कुशल रूप में जिनशासन व चतुर्विध संघ का नायकत्व किया। उनका शिष्य समुदाय भी विस्तृत था। सिंह सूरि जी के प्रमुख 3 शिष्य आचार्य थे1) आचार्य हेमचन्द्र सूरि जी : इन्होंने संसार दुःख को दूर करने वाले वैराग्यरसपोषित 'नाभेयनेमि - द्विसंधान काव्य' रचा जिसका कवि चक्रवर्ती श्रीपाल पोरवाल ने संशोधन किया। इसकी प्रशस्ति में आचार्य मुनिचंद्र सूरि इत्यादि गुरुपरम्परा का भी विवरण है। आचार्य सोमप्रभ सूरि जी : ये शतार्थी के रूप में प्रसिद्ध थे, जो एक श्लोक के 100 अर्थ करने में समर्थ थे। तर्कशास्त्र में पटुता, काव्य में दक्षता एवं व्याख्यान शैली में इनकी विलक्षणता विशिष्ट थी। 3) आचार्य मणिरत्न सूरि जी : ये दीर्घजीवी आचार्य थे। तपागच्छ उन्नायक आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी इनके शिष्य थे। सिंह सूरि जी के पाट पर उनके शिष्यद्वय - आचार्य सोमप्रभ सूरि जी एवं आचार्य मणिरत्न सूरि जी विराजमान हुए। कालधर्म : जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए आचार्य सिंह जी वि.सं. 1235 के आसपास स्वर्गवासी बने। जैनाचार्य मलयगिरि सूरि जी इनके समकालीन हुए। . समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य मलयगिरि सूरि जी : ___आचार्य मलयगिरि सूरि जी नाम से भी मलयगिरि एवं ज्ञान से भी मलयगिरि थे। संस्कृत भाषा पर उनका प्रभुत्व था। आचार्य हेमचन्द्र सूरि जी, आचार्य देवेन्द्र सूरि जी एवं आचार्य महावीर पाट परम्परा 133 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक मलयगिरि - तीनों ने अंबादेवी की सहायता से सिद्धचक्र यंत्र की विशिष्ट आराधना की। सिद्धचक्र के अधिष्ठायक 'विमलेश्वर' देव ने तीनों से उनके उद्देश्य का वरदान माँगने का निवेदन किया। उस समय आचार्य मलयगिरि ने जैन आगमों व ग्रंथों की सुलभ बोधि हेतु टीका साहित्य रचने में देव की अनुकूलता माँगी। आचार्य मलयगिरि जी की टीकाएं आत्मस्पर्शी व व्याख्यानात्मक हैं। हेमचन्द्राचार्य जी के वैदुष्य का भी उनके जीवन पर प्रभाव रहा। उन्होंने 25 से अधिक सुविशाल श्लोक प्रमाण टीका साहित्य की रचना की, जिनमें निम्न मुख्य हैंवृत्ति (टीका) श्लोक वत्ति (टीका) 1. भगवती सूत्र द्वितीयशतक वृत्ति 3750 2. जीवाभिगम टीका 13,000 3. राजप्रश्नीय सूत्र वृत्ति 3700 4. प्रज्ञापना सूत्र टीका 16,000 5. चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र वृत्ति 9500 6. सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र टीका. 9500 . 7. नन्दीसूत्र वृत्ति 7732 8. व्यवहार सूत्र टीका 33625 9. बृहत्कल्पपीठिका वृत्ति 4600 10. आवश्यक सूत्र टीका . 22,000 11. पिण्डनियुक्ति वृत्ति 6700 12. ज्योतिषकरण्डक टीका 5000 13. धर्मसंग्रहणी वृत्ति 10,000 14. कर्मप्रकृति टीका 8000 15. पंचसंग्रहणी वृत्ति 18,500 16. षडशीति टीका . 2000 17. सप्ततिका वृत्ति 3780 18. बृहत्संग्रहणी टीका 5000 19. बृहत्क्षेत्रसमास वृत्ति 9500. 20. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका - 21. ओघनियुक्ति वृत्ति 22. तत्त्वार्थाधिगम टीका 23. धर्मसारप्रकरण वृत्ति 24. शब्दानुशासन टीका 5000 25. मुष्टि व्याकरण 26. देशीनाममाला लगभग 2 लाख श्लोकों से अधिक उनकी रचनाएं हुई। टीका साहित्य द्वारा श्रुतज्ञान की परम्परा को दीर्घजीवी बनाने में आचार्य मलयगिरि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। महावीर पाट परम्परा 134 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. आचार्य श्रीमद् सोमप्रभ सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् मणिरत्न सूरीश्वर जी साहित्य जगत् के उज्ज्वल सूर्य, सूरि सोमप्रभ ज्ञान दातार । विनयविभूति श्री मणिरत्न सूरि, नित् वंदन बारम्बार ॥ शासननायक तीर्थंकर महावीर स्वामी की बड़गच्छीय 43वीं पाट पर सिंह सूरि जी के शिष्यद्वय आचार्य सोमप्रभ सूरि जी एवं आचार्य मणिरत्न सूरि जी विराजमान हुए। इस समय साधु-साध्वी जी का आचार धीरे-धीरे अनियोजित रूप से शिथिल होता जा रहा किन्तु दोनों ने शक्ति अनुसार चतुर्विध संघ का कुशल संवहन किया । जन्म एवं दीक्षा : सोमप्रभ सूरि जी का जन्म वैश्य वंश के प्राग्वाट् (पोरवाल) परिवार में हुआ था। उनके दादा का नाम महामंत्री जिनदेव था, जो हमेशा जिनपूजा करते थे एवं पिता का नाम सर्वदेव श्रेष्ठ था। सांसारिक अवस्था में उनका नाम - सोमदेव था । परिवार के धर्म के प्रति आस्थाशील होने के कारण बालक सोमदेव को धर्म के संस्कार सहज रूप से प्राप्त हुए । आचार्य सिंह सूरि जी की वाणी से ओजस्वी प्रवचनों को सुन, तेजस्वी रूप को देख तथा यशस्वी संयम को देख बालक सोमदेव ने कुमारावस्था में दीक्षा की भावना अभिव्यक्त की। बालक का अद्भुत योग देखकर सिंह सूरि जी ने दीक्षा प्रदान की एवं नाम मुनि सोमप्रभ रखा गया। - आघाटपुर नगर में उद्योतन सूरि जी के शिष्य प्रद्योतन सूरि जी ने दुग्गड़ वंश की स्थापना की थी। उस वंश के परिवार में पाल्हण (पूर्णदेव) श्रेष्ठी के 3 पुत्र थे। उसमें से एक पुत्र ने बाल्य अवस्था में ही आचार्य सिंह सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण कर मुनि मणिरत्न नाम पाया था। शासन प्रभावना : सिंह सूरि जी कुशल अध्यापक एवं उनके शिष्यद्वय कुशल विद्यार्थी थे। सोमप्रभ सूरि जी गुरु चरणों में रहकर आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन किया तथा विशेष रूप से वे न्यायशास्त्र, ने महावीर पाट परम्परा 135 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तर्कशास्त्र व व्याकरण के निष्णात् विद्वान बने । उनकी उपदेश - शक्ति एवं व्याख्यान कुशलता भी अत्युत्तम थी। वे दोनों आचार्य पद से विभूषित हुए । माघ सुदि 4 शनिवार वि. सं. 1238 में सोमप्रभ सूरीश्वर जी ने मातृका - चतुर्विंशतिपट्ट की प्रतिष्ठा कराई थी। यह पट्ट आज भी शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ में विद्यमान है एवं पूजा जाता है । वि.सं. 1283 में उन्होंने भीलडिया तीर्थ में पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा की एवं वि.सं. 1284 में संघ के साथ शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा की। आचार्य मणिरत्नसूरि जी अत्यंत विनयी थे। सोमप्रभ सूरि जी उनके गुरुभाई थे किंतु वे तो उन्हें गुरु की तरह ही मानते थे। इसीलिए अपने शिष्य परिवार को अपने कालधर्म पश्चात् सोमप्रभ सूरि जी की सेवा में रहने का निर्देश दिया। मणिरत्न सूरि जी ने पंजाब में भी विहार किया।' दुग्गड़ वंशावली में उल्लेख है कि उच्चनगर के श्री ईश्वरचन्द्र जी दुग्गड़ के सुपुत्र थिरदेव ने मणिरत्न सूरि जी की पावन निश्रा में पंजाब के जैन तीर्थों की यात्रा के लिए छ: री पालित संघ निकाला था। लिखा है - " श्री थिरदेवेन उच्चनगरात् श्री मणिरत्नसूरि-सार्थं यात्रासंघ - सहितेन कृत्वा संघपति पदं दत्तं " इस समय आचार्य श्री जी की आयु लगभग 80 वर्ष की थी। वे मुनिरल सूरि जी के नाम से भी प्रख्यात थे। इनके सांसारिक भाई ने इनके पास दीक्षा ली थी और वे जगच्चंद्र सूरि जी बने । आचार्यद्वय ने साथ मिलकर शासन की अपूर्व प्रभावना की । साहित्य रचना : आचार्य सोमप्रभ सूरि जी कुशल कवि, मधुर लेखक एवं समर्थ ग्रंथकार - साहित्यकार थे। उनकी रचनाएं संख्या में कम हैं परंतु सभी लोकोपयोगी हैं। उनके शतार्थ काव्य के कारण वे शतार्थी के रूप में प्रसिद्ध थे। उनकी प्रमुख कृतियों का परिचय इस प्रकार है 1) 2) - सुमतिनाह चरिय (समुतिनाथ चरित्र ) यह रचना 9500 श्लोक परिमाण है। इसका प्रारंभ वि.सं. 1240 में किया तथा पूर्णाहुति वि.सं. 1241 में हुई । कवि श्रीपाल के पुत्र महामात्य सिद्धपाल की पाटण में वसति ( पोषाल) में रहकर सोमप्रभ सूरि जी ने इसकी रचना की। कुमारपाल पडिबोहो (कुमारपाल प्रतिबोध ) - महावीर पाट परम्परा यह आचार्य सोमप्रभ सूरि जी की 136 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत रचना है। वि.सं. 1241 में पाटण में गुर्जरनरेश कुमारपाल के प्रीतिपात्र कविचक्रवर्ती सिद्धपाल की वसति में रहकर यह ग्रंथ रचा गया। परमार्हत् राजा कुमारपाल जैन परम्परा के इतिहास में अत्यंत प्रसिद्ध हैं। कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सूरि जी के शिष्य आचार्य महेन्द्र सूरि, पं. वर्धमान गणि. पं. गुणचंद्र गणि इत्यादि ने इस ग्रंथ का श्रवण किया एवं अनुमोदन किया। राजा कुमारपाल के निधन के 12 वर्षों बाद इस ग्रंथ की रचना हुई। हेमचन्द्राचार्य जी द्वारा कुमारपाल राजा को दी गई विविध शिक्षाओं का वर्णन तथा रूढ़ कथाएं इस ग्रंथ में हैं। सेठ नेमिनाग मोढ़ के पुत्र अभयकुमार, पत्नी पद्मा, पुत्र हरिश्चन्द्र, पुत्री देवी इत्यादि ने इस अमूल्य ग्रंथ की प्रतियां लिखवाई। 3) श्रृंगार वैराग्य तरंगिनी - इसमें 46 श्लोक हैं। श्रृंगार के दूषण बताकर वैराग्य को पुष्ट करने वाली यह कृति वैराग्यरसप्रधान है। सिन्दूरप्रकर (सूक्तमुक्तावली) - यह सोमप्रभ सूरि जी की संस्कृत भाषा में लघु रचना है। इस कृति में अहिंसा आदि 20 विषयों पर सरल, सुबोध व हृदयंगम 100 श्लोक / सुभाषित हैं। अतएव, इसका दूसरा नाम 'सोमशतक' भी है। जीवनोपयोगी होने से जैन-अजैन भी इसे मान्य करते थे। ऐसा माना जाता है कि इस प्रकरण की 20 विषयों की भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से आराधना करने के कारण दिगंबर जैनों में बीसपंथी और तेरापंथी का भेद पड़ा। इस ग्रंथ के अनेक श्लोक 'कुमारपाल प्रतिबोध' के कुछ श्लोकों से मेल खाते हैं। इस कृति का रचनाकाल वि.सं. 1250 माना गया है। साहित्य जगत् में यह ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हुआ, जिस पर खरतरगच्छीय आचार्य चारित्रवर्धन सूरि जी ने तथा नागोरी तपागच्छ के आचार्य हर्षकीर्ति सूरि जी ने टीकाएं रची एवं दिगंबर विद्वान् पं. बनारसीदास जी ने भी हिन्दी पद्यानुवाद किया। 5) शतार्थ काव्य (कल्याणसार) - सोमप्रभ सूरि जी की यह कृति उनके बुद्धिकौशल का परिचायक है। उन्होंने एक श्लोक की रचना कर उसके 100 अर्थ घटित किए। जैन परम्परा के इतिहास में इससे भी पूर्व अनेकार्थ साहित्य रचा गया थाआचार्य बप्पभट्टी सूरि जी ने 'तत्तासीअली' अष्टशतार्थी – 108 अर्थवाला काव्य बनाया। कवि श्रीपाल ने 'भूभारोद्धरणो.' आदि पदवाला 100 अर्थवाला पद्य बनाया। पं. हर्षकुल महावीर पाट परम्परा 137 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने ‘णमो अरिहंताणं' के 110 अर्थ किए। आचार्य देवरत्न सूरि जी ने 'णमो लोएसव्वसाहूणं' में 'सव्व' के 36 अर्थ किए। महोपाध्याय समयसुंदर गणि ने 'राजानो ददते सौख्यं' पर अष्टलक्षार्थी विवरण रचा। इसी श्रृंखला में सोमप्रभ सूरि जी का शतार्थी कल्याण सार काव्य भी है। यह श्लोक इस प्रकार है कल्याणसारसवितानहरेक्षमोहकान्तारवारणसमानजयाद्यदेव। धर्मार्थकामदमहोदयवीरधीरसोमप्रभावपरमागमसिद्धसूरेः॥" इस श्लोक पर सोमप्रभ सूरि जी ने स्वोपज्ञवृत्ति भी रची, जिसमें इसके 100 अर्थ घटित किए हैं। पहले नाम दिए हैं फिर एक-एक करके रहस्य बताकर अर्थ घटित किए हैं(1-24) तीर्थंकर (25) पुंडरिक (26) सूरि (27) उपाध्याय (28) सिद्ध (29) मुनि (30) गौतम स्वामी (31)सुधर्म स्वामी (32-36) पंच महाव्रत (37) आगम (38) श्रुतदेवी (39-42) चार पुरुषार्थ (43) विधि (44) नारद (45) वेद (46) विष्णु (47) बलदेव (48) लक्ष्मी (49) प्रद्युम्न (50) चक्र . (51) शंख (52) शिव (53) पार्वती (54) स्कन्द (55) हेरंब (56) कैलाश (57-65) नवग्रह (66-72) आठ दिग्पाल (73) जयन्त (74) धन (75) मदिरा (76) सोना (77) समुद्र (78) सिंह (79) घोड़ा (80) हाथी (81) कमल (82) सर्प . (83) शुक्र (84) अरण्य (85) मानसरोवर (86) धनुष (87) अस्त्रवैध(88) हनुमान (89) पत्नी (90) आ. सिद्धसेन दिवाकर (91) आ. हरिभद्र सूरि (92) आ. वादिदेव सूरि (93) आ. हेमचन्द्र सूरि (94) राजा सिद्धराज (95) राजा कुमारपाल (96) राजा अजयपाल (97) राजा मूलराज (98) कवि धनपाल, सिद्धपाल (99) आ. अजितदेव सूरि (100) आ. विजयसिंह सूरि (101) शतार्थी सोमप्रभ सूरि महावीर पाट परम्परा 138 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह श्लोक मूलतः वसंततिलका वृत्त छंद (भक्तामर वाली तर्ज) पर है। इसके अतिरिक्त दुग्धछंद, शंखछंद, शुभ्र, स्त्रीछंद इत्यादि छंद भी इस छोटे से श्लोक में उपयुक्त है। संघ व्यवस्था : ___आचार्य मणिरत्न सूरि जी के स्वर्गवास पश्चात् सोमप्रभ सूरि जी ने मणिरत्न सूरि जी के भाई व शिष्य को आचार्य पदवी प्रदान की व गच्छनायक पदासीन किया। वे आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनसे बड़गच्छ का नाम तपागच्छ पड़ा। इस काल में श्रमण-श्रमणी वर्ग में शिथिलाचार की वृद्धि होती जा रही थी। अनुकूलता सुविद्यावाद के कारण अनेक समाचारी में शनैःशनै स्वच्छंदवाद में विश्वास कर रहे साधु-साध्वियों ने परिवर्तन करना प्रारंभ किया, जिसका समूचे संघ में दुष्प्रभाव पड़ा। वृद्धावस्था इत्यादि अनेक कारणों से सोमप्रभ सूरि जी संभवतः क्रियोद्धार नहीं कर पाए किंतु उनके पट्टधर जगच्चंद्र सूरि जी ने अपने गच्छनायक पद के अति-अल्प काल में इस गुरुभावना को साकार किया। कालधर्म : __ आचार्य मणिरत्न सूरि जी वि.सं. 1274 (वी.नि. 1744) में थिरापद्र (थराद) नगर में स्वर्गवासी हुए। तत्पश्चात् आचार्य सोमप्रभ सूरि जी ने पट्टधर जगच्चंद्र सूरि साथ रखकर शासन के विविध कार्य संभाले। वि.सं. 1283 में भीडलिया तीर्थ की यात्रा कर वडाली (वडावली) में चातुर्मास किया। तत्पश्चात् वि.सं. 1284 में गुजरात के सुप्रसिद्ध शाश्वत तीर्थाधिराज शत्रुजय की संघ सहित यात्रा की एवं उस वर्ष का चातुर्मास अंकेवालिया (आघाटपुर) में किया। चातुर्मास के दरम्यान ही रूग्णता के कारण आचार्य सोमप्रभ सूरि जी का कालधर्म हो गया। महावीर पाट परम्परा 139 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. आचार्य श्रीमद् जगच्चन्द्र सूरीश्वर जी जगच्चंद्र जी जगदुन्नायक, तपागच्छ लोकप्रचार। जिनमत जाज्वल्यमान हीरक, नित् वंदन बारम्बार॥ उग्र तपश्चर्या, कठोर संयम एवं अरिमित ज्ञान जिनका आभूषण था एवं 'तपागच्छ' इस नाम की सार्थकता का इतिहास जिनसे जुड़ा है, ऐसे प.पू. आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी भगवान् महावीर की 44वीं पाट पर विराजमान हुए। यथा नाम तथा गुण - इस कथन को चरितार्थ कर अपनी संयम साधना के बल पर संपूर्ण जगत में चंद्र की भाँति चमके। जन्म एवं दीक्षा : ____ जगच्चंद्र सूरि जी का जन्म आघाटपुर में प्राग्वाट् (पोरवाल) वंश में हुआ। उनके पिता का नाम पूर्णदेव था। श्रेष्ठी पूर्णदेव के 3 पुत्र थे - सलक्षण, वरदेव और जिनदेव। इनके एक पुत्र ने आ. सिंह सूरि जी के पास बाल्यावस्था में दीक्षा ली थी और वे 'आचार्य मणिरत्न सूरि जी' बने। तीनों पुत्रों में जिनदेव सबसे छोट थे तथा बचपन से ही शांतवृत्ति के धनी धर्मप्रेमी था। जब जिनदेव युवा अवस्था में आये, तब परिवार के आग्रह से उसका विवाह एक सुंदर कन्या से कर दिया गया। उनका एक पुत्र भी हुआ, जिसका नाम जसदेव रखा गया। किंतु जिनदेव को इन सांसारिक संबंधों में बिल्कुल आसक्ति नहीं थी। मोक्षमार्ग की अभिलाषा से उन्होंने भाई आ. मणिरत्नसूरि जी के पास मुनि दीक्षा ग्रहण की तथा उनका नाम मुनि जगच्चन्द्र रखा गया। शास्त्रों का गंभीर अध्ययन कर उन्होंने बहुमुखी योग्यता का संपूर्ण विकास किया। शासन प्रभावना : ___मुनि जगच्चंद्र की बहुमुखी योग्यता से सभी आश्चर्यचकित रहते थे। उन्हें गणि पद दिया गया। वि.सं. 1274 में आचार्य मणिरत्नसूरि जी क देहावसान के बाद पं. जगच्चन्द्र गणि ने आयम्बिल के तप प्रारंभ किए एवं आ. सोमप्रभ सूरि जी की सेवा में रहकर ज्ञान संपादन के कार्य किए। उनकी योग्यता जानते हुए सोमप्रभ सृरि जी ने उन्हें आचार्य पद एवं गच्छनायक महावीर पाट परम्परा 140 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद प्रदान किया तथा वे 'आचार्य जगच्चन्द्र सूरि' के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक बार मेवाड़ के चित्तौड़ में 7 दिगंबर सहित 32 विद्वानों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ। अस्खलित वाणी में धाराप्रवाह सभी वादियों को उन्होंने निरूत्तर किया। आचार्यश्री जी के तर्क हीरे की तरह अभेद्य/अकाट्य रहे तथा सभी विद्वानों में वे रूप व ज्ञान संपदा के कारण हीरे की तरह चमके। जगच्चन्द्र सूरि जी के बुद्धि कौशल से प्रभावित होकर चित्तौड़ नरेश जैत्रसिंह राणा ने उन्हें 'हीरक' (हीरला) का बिरूद् दिया एवं वे हीरला जगच्चन्द्र सूरि के नाम से विख्यात हुए। राणा जैत्रसिंह के वि.सं. 1270 से वि.सं. 1309 तक के शिलालेख आज भी प्राप्त होते हैं। इनके सांसारिक भाई वरदेव की चार संताने थीं। उनमें से बड़े पुत्र का नाम साढाल था। श्रेष्ठी साढल के धीणाक आदि 5 पुत्रों में क्षेमसिंह और देवसिंह ने जगच्चन्द्र सूरि जी के पास भागवती प्रव्रज्या ग्रहण की। धीणाक ने भी जैन साहित्य की सुरक्षा में तन-मन-धन से योगदान दिया। आचार्य श्री ने भी जैन साहित्य के संरक्षण हेतु वीरा दिशापाल आदि महंतों से ग्रंथों का लेखन कार्य करवाया। वीरा दिशापाल ने वि.सं. 1295 में पाटण में भीमदेव राजा के राज्य में रहते हुए ज्ञाताधर्मकथा (नायाधम्मकहाओ) आदि 6 अंग आगमों को टीका सहित लिखवाया था। जैन इतिहास के अति प्रसिद्ध देव-गुरु-धर्मोपसाक वस्तुपाल और तेजपाल अमात्य, दोनों इस युग की दिव्य विभूतियाँ थीं। महामात्य वस्तुपाल ने मेवाड़ देश में विचर रहे आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी को गुजरात पधारने के लिए आमंत्रण दिया। आचार्यश्री जी महामात्य के गुरु बनकर गुजरात पधारे एवं गुजरात की जनता ने उनका हार्दिक स्वागत किया। महामंत्री वस्तुपाल के शत्रुजय तीर्थ के छ:री पालित संघ में जगच्चन्द्र सूरि जी भी पधारे एवं गिरनार, आबू अनेक तीर्थों के प्रतिष्ठोत्सवों में हाजिर रहे। शासन प्रभावना के विविध कार्य करने हेतु भातृद्वय को उन्होंने मार्गदर्शन दिया। आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी को आयंबिल की तपश्चर्या करते हुए 12 वर्ष हो गए। उनके चेहरे पर तपस्या के प्रभाव से अलग ही नूर था। उदयपुर के पास आयड नगर में नदी किनारे वे नित्य आतापना लेकर ध्यान करते थे जिसके प्रभाव से उनका रूप अत्यंत निखर आया। मेवाड़ के नरकेसरी राणा जैत्रसिंह वि.सं. 1285 में आचार्यश्री जी की तपोसाधना से प्रभावित होकर उनके दर्शनार्थ नदी किनारे आया एवं उनके चमकते शरीर व उत्कृष्ट तपस्या को देख उन्हें 'महातपा' का बिरूद् प्रदान किया। धीरे-धीरे बड़ गच्छ का नाम 'तपागच्छ' हो गया जो महावीर पाट परम्परा 141 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी ही देन है। कई इतिहासकारों का मत है कि सुप्रसिद्ध केशरिया (केसरिया) जी तीर्थ (राजस्थान) की स्थापना भी जगच्चन्द्र सूरि जी के वरद्-हस्त से हुई। संघ व्यवस्था : जगच्चन्द्र सूरि जी के समय साधुओं में शिथिलाचार की वृद्धि हो रही थी। यह देखकर जगच्चन्द्र सूरि जी को बहुत दुःख हुआ। आचार्य सोमप्रभ सूरि जी के कालधर्म उपरांत उन्होंने मेवाड़ की ओर विहार किया। एक बार चैत्रवाल गच्छ के पं. देवभद्र, गणी जी उनके संपर्क में आए। पं. देवभद्र गणी जी संवेगी, शुद्ध आचार पालक एवं आगमानुसार सर्वविरति धर्म के आराधक थे। संयम सुवास से मंडित दो दिव्य विभूतियों का मिलन अद्वितीय था। संघ में छाये शिथिलाचार को कड़ी चुनौती देकर आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी में क्रियोद्धार करने की उत्सुकता पहले से ही थी एवं देवभद्र गणी जी का योग इस कार्य को संपादित करने हेतु सहायक हुआ। अतः दोनों ने मिलकर विशुद्ध साध्वाचार की संघ में पुनर्स्थापना की। आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी, पं. देवभद्र गणि जी, पं. देवकुशल जी, पं. देवेन्द्र गणि जी की निश्रा में अन्य गच्छों के भी अनेक सुविहित मुनिवरों ने भी अपने-अपने गच्छ में क्रियोद्धार किया। इनके प्रमुख 2 शिष्य थे - आचार्य विजयचंद्र सूरि एवं आचार्य देवेन्द्र सूरि। विजय चंद्र सूरि जी के हृदय में आगमानुसार संयमी जीवन प्रवृत्ति के प्रति अस्थिरता देखते हुए जगच्चन्द्र सूरि जी ने देवेन्द्र सूरि जी को अपनी पाट पर स्थापित किया। क्योंकि देवेन्द्र सूरि जी क्रियोद्धार में सदा उनके साथ रहे। विजय चंद्र सूरि जी से तपागच्छ की वृद्धपैशालिक शाखा का उद्भव हुआ। . कालधर्म : अपने जीवन के अंतिम वर्षों में जगच्चन्द्र सूरि जी का विचरण मेवाड़ में रहा। वहीं उनका स्वर्गवास वी.नि. 1757 (वि.सं. 1295) के चैत्र के महीने में वीरशालि ग्राम में हुआ। इनका शिष्य परिवार 'तपागच्छ' के नाम से विश्रुत हुआ जो सदियों बाद आज भी प्रचलित है। इसके साथ आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी की घोर तपश्चर्या के पुण्य का प्रत्यक्ष प्रभाव जुड़ा है जो आज दृष्टिगोचर है किस प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय में तपागच्छ भारत भर में . विद्यमान है एवं कोटि-कोटि जनों की श्रद्धा व विश्वास का केन्द्र है। -..... महावीर पाट परम्परा 142 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. आचार्य श्रीमद् देवेन्द्र सूरीश्वर जी सरल प्रतिबोधक, सुंदर लेखक, सरस व्याख्याकार । चारित्र धनी देवेन्द्र सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ जैनदर्शन सम्मत कर्मवाद सिद्धांत के तत्त्व - निष्णात् आचार्यों में शासननायक भगवान महावीर के 45वें पट्टविभूषक आचार्य देवेन्द्र सूरि जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे अद्वितीय प्रतिबोध शक्ति एवं विशुद्ध चारित्र के धनी थे। विजय चंद्र सूरि जी से गच्छभेद होने पर भी संवेगी व क्रियाप्रवर्तक रहकर उन्होंने अपने गुरु द्वारा प्रदत्त दायित्व का वहन किया । जन्म एवं दीक्षा : आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी के सांसारिक अग्रज पूर्णदेव के पौत्र देवसिंह ने उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर आत्मकल्याणार्थ शैशव - अवस्था में उनके पास दीक्षा ग्रहण की। जगच्चंद्र जी ने बालवय में दीक्षा देकर मुनि देवेन्द्र को विद्याध्ययन कराया। मुनि श्री प्रतिभा सम्पन्न थे। ज्ञानार्जन उनका ध्येय बन गया एवं जिज्ञासापूर्ति करते-करते वे व्याकरण, काव्य, तत्त्व, इतिहास आदि साहित्य - पठन में प्रवीण बने । शासन प्रभावना : आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी के क्रियोद्धार में पग-पग मुनि देवेन्द्र विजय उनके साथ रहे। मुनिराज की दर्शन की दिव्यता, ज्ञान की गंभीरता एवं चारित्र की चमक देखते हुए जगच्चंद्र सूरि जी ने उन्हें सूरिमंत्र प्रदान कर आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। वे आचार्य देवेन्द्र सूरि के नाम से प्रख्यात हुए। एक उल्लेखानुसार जगच्चन्द्र सूरि जी ने कालधर्म से कुछ माह पूर्व ही मुनि देवेन्द्र को उपाध्याय पदवी प्रदान की थी एवं आचार्यश्री के कालधर्म पश्चात् संघ के जगच्चन्द्र जी की भावना अनुरूप उपाध्याय देवेन्द्र को आचार्य पदवी प्रदान की । मेवाड़ का राणा जैत्रसिंह, राणा तेजसिंह - रानी जयलता (जयतल्ला) देवी, राणा समरसिंह इत्यादि इनके अनन्य भक्त थे। देवेन्द्र सूरि जी के सदुपदेश से रानी जयलता देवी ने चित्तौड़ महावीर पाट परम्परा 143 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के किले में शामलिया पार्श्वनाथ का जिनमंदिर बनवाया। राणा तेजसिंह ने भी आचार्यश्री की प्रेरणा से अपने अधिकार क्षेत्र में कत्ल खाने बंद कर अमारिपालन (अहिंसा धर्म) का आयोजन कराया। अपने गुरुदेव के साथ देवेन्द्र सूरि जी ने शत्रुंजय, गिरनार, आबू आदि यात्राएं की। आचार्य देवेन्द्र सूरि, आचार्य विजयचंद्र सूरि, उपाध्याय देवभद्र गणी आदि साधुओं का फाल्गुन बदि 13 शनिवार वि. सं. 1301 के दिवस पालनपुर में भव्यतिभव्य प्रवेश हुआ। वहाँ आसदेव श्रावक से उपासक दशांग सूत्र की वृत्ति लिखवाई | उज्जैन में सेठ जिनभद्र के पुत्र वीर धवल के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं कि देवेन्द्र सूरि जी का वहाँ आगमन हुआ । वीरधवल को विवाहोत्सव के दौरान भी वैराग्य का उपदेश देवेन्द्र सूरि जी ने दिया। वीरधवल ने अत्यंत हिम्मत का सिंचन कर विवाह नहीं किया और देवेन्द्र सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। उसका नाम मुनि विद्यानंद विजय रखा गया। उसका छोटा भाई भी श्रमणधर्म में उनके पास दीक्षित हुआ व उसका नाम मुनि धर्मकीर्ति विजय रखा गया । वि.सं. 1304 में दोनों मुनिभगवंतों को गणि पद प्रदान किया गया। आचार्य देवेन्द्र सूरि जी तथा आचार्य विजय चंद्र सूरि जी की प्रेरणा से महुवा में वि.सं. 1309 में सरस्वती ग्रंथ भंडार बनवाया । इसके पश्चात् आचार्यश्री जी ने गुजरात से मालवा की ओर विहार किया एवं 12 वर्ष तक वहाँ शासन की प्रभावना की । पालनपुर के संघ की विनती को स्वीकार करते हुए वि.सं. 1322 में वे पालनपुर पधारे एवं पल्लवीया पार्श्वनाथ जी की निश्रा में अपने शिष्य विद्यानंद जी को आचार्य पद एवं धर्मकीर्ति जी को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया। इस समय जिनमंदिर जी में केसर की अमीवृष्टि हुई थी, जो समूचे संघ में आश्चर्य और आनंद का कारण बना। आचार्य विद्यानंद सूरि जी को गुजरात में विचरण करने की आज्ञा देकर वे उपाध्याय धर्मकीर्ति जी के साथ पुनः मालवा पधारे। आचार्य देवेन्द्र सूरि जी एवं आचार्य अमितसिंह सूरि जी के उपदेश से मेवाड़ नरेश समरसिंह ने अपने राज्य में कत्लखाने, शराबखाने बंद कराकर अमारि प्रवर्तन करवाया था। राजपूतों के इतिहास संबंधी ग्रंथों में वे फरमान भी प्राप्त होते हैं। इनकी व्याख्यान शक्ति अद्भुत थी। मंत्रीश्वर वस्तुपाल जैसे श्रावक इनका व्याख्यान श्रवण महावीर पाट परम्परा 144 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने नित्य आते थे। उनकी समझाने की शक्ति गजब थी । आगमों की कठिन से कठिन कोई भी विषय हो, वे सरल रूप से समझाने में सफल रहते थे। खम्भात शहर में देवेन्द्र सूरि जी की व्याख्यान सभा में कम से कम 1800 श्रावक तो सामायिक लेते ही थे। खंभात चौक के कुमारपाल विहार उपाश्रय में धर्मोपदेश देते हुए उन्होंने वैदिक धर्म के 4 वेदों पर आध्यात्मिक प्रवचन दिया। जैने और जैनेत्तर हजारों लोग उनके प्रवचन श्रमण करते थे। महामात्य वस्तुपाल ने सामायिक लेने वाले 1800 श्रावक-श्राविकाओं में मुंहपत्ती की प्रभावना की थी। इस प्रकार इन्होंने शासन के सच्चे श्रावक तैयार किए और चतुर्मुखी दिशा में जिनधर्म का प्रचार- प्रसार कर संयमधर्म में अग्रणीय रहे। साहित्य रचना : देवेन्द्र सूरि जी तात्त्विक ग्रंथों के रचनाकार थे। संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के वे अधिकृत विद्वान थे। उन्होंने अधिकांशतः सिद्धांतपरक साहित्य की रचना की। इनके द्वारा लिखित विशाल साहित्य है 1) कर्मग्रंथ : प्राचीन ग्रंथों के आधार पर कर्मग्रंथों जैसी उपयोगी कृतियों में देवेन्द्र सूरि जी ने गूढ़ अनुसंधान कर कर्मों का स्वरूप, उनके परिणाम, गुणस्थानक इत्यादि विषय अच्छी तरह से समझाए हैं। कर्मग्रंथों की संख्या 5 है: प्रथम कर्मग्रंथ द्वितीय कर्मग्रंथ तृतीय कर्मग्रंथ कर्मविपाक में 60 गाथाएँ हैं । कर्मस्तव में 34 गाथाएँ हैं । बंधस्वामित्व में 24 गाथाएँ हैं। षडशीति में 86 गाथाएँ हैं । शतक में 100 गाथाएँ हैं । चतुर्थ कर्मग्रंथ पंचम कर्मग्रंथ इनके और अधिक विवेचन हेतु देवेन्द्र सूरि जी ने इन पर स्वोपज्ञ विवरण भी रचा। 2) धर्मरत्न प्रकरण बृहद वृत्ति 3) श्राद्धदिनकृत्य ( श्रावकदिनकृत्य) सूत्र वृत्ति 4) सिद्धपंचाशिका सूत्र ( वृत्ति सहित ) 5) वंदारू वृत्ति ( श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्र टीका) 6) चैत्यवंदन भाष्य 8) पच्चक्खान भाष्य 10) सिरिउसहवद्धमाण आदि महावीर पाट परम्परा 7) गुरुवंदन भाष्य 9) सुदर्शना चरित्र 11) दान, शील, तप, भाव कुलक 145 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक स्तवन 12) युगप्रधान स्वरूप यंत्र 13) धारणायंत्रे 14) सिद्धदण्डिका इत्यादि। संघ व्यवस्था : ___ 12 वर्ष से अधिक समय तक मालवा में विचर कर वापिस गुजरात आकर आचार्य देवेन्द्र सूरि जी खंभात पहुंचे, तो उनके गुरुभाई विजय चंद्र सूरि जी 12 वर्षों से खंभात में ही रहे हुए थे। अपने साधुओं के आचार में उन्होंने अनेक शिथिलताएं कर दी. जैसे प्रत्येक साधु को वस्त्र धोने की आज्ञा, साध्वी द्वारा लाया आहार साधु द्वारा लेने की छूट, तत्काल उतारा हुआ गर्म जल लेने की आज्ञा इत्यादि। जगच्चंद्र सूरि जी ने देवद्रव्यादि दूषित जिस पौषधशाला में उतरना निषिद्ध किया था, उसी वृद्ध पोशाल (पौषधशाला) में 12 वर्ष तक विजय चंद्र सूरि ठहरे रहे। जिन कामों में गुरु अथवा गच्छनायक की आज्ञा लेनी अवश्य होती है, उन कार्यों को भी विजय चंद्र सूरि जी करने लगे थे। इन सभी बातों का आचार्य देवेन्द्र सूरि जी को पता लग चुका था। इसलिए खंभात पधारने पर भी वे विजयचंद्रसूरि वाली पौषधशाला में उनसे मिलने भी नहीं गए। वे दूसरी पौषध शाला में ठहरे, जो उसकी अपेक्षाकृत छोटी थी। इस प्रकार जगच्चंद्र सूरि जी का शिष्य परिवार खंभात में होते हुए भिन्न-भिन्न उपाश्रयों में ठहरा। विजय चंद्र सूरि जी का शिष्य परिवार वृद्धपौशालिक शाखा के नाम से विश्रुत हुआ एवं देवेन्द्र सूरि जी का शिष्य परिवार लघुपौशालिक शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिससे तपागच्छ की मूल शाखा आगे बढ़ी। देवेन्द्र सूरि जी का शांतरसमयी वात्सल्यपूर्ण वाणी के धर्मोपदेश ये अंचलगच्छ के 44वें पट्टधर आचार्य महेन्द्रसिंह सूरि जी ने वि.सं. 1307 के लगभग थराद में क्रियोद्धार कर शुद्धमार्ग स्वीकार किया। आचार्य जगच्चंद्र सूरि जी ने जिस आगमसम्मत आचार का उद्घोष अपने संघ में किया, उसी का अनुसरण देवेन्द्र सूरि जी ने किया। उनके साधु चारित्र में श्रेष्ठ माने जाते थे। देवेन्द्र सूरि जी के आचार सम्पन्न प्रमुख शिष्यों में आचार्य विद्यानंद सूरि जी एवं उपाध्याय धर्मकीर्ति का नाम चर्चित था। देवेन्द्र सूरि जी के कालधर्म के 13 दिनों में ही विद्यानंद सूरि जी का भी कालधर्म हो गया। किन्हीं समान गौत्रीय आचार्य ने उपाध्याय धर्मकीर्ति को आचार्य पद प्रदान कर नाम 'धर्मघोष सूरि' रखा एवं वे देवेन्द्र सूरि जी के योग्य पट्टधर बने। महावीर पाट परम्परा 146 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालधर्म : गच्छभेद होने पर श्रावक-श्राविका वर्ग में भी आश्चर्य छा गया। विचारशील श्रावकों ने जिनप्रतिमा समक्ष तपस्या व आराधना की। शासनदेवी प्रकट हुई। संग्राम सोनी की जिज्ञासा पर शासनदेवी ने कहा कि आचार्य देवेन्द्र सूरि युगोत्तम आचार्य पुंगव है। उनकी गच्छ परम्परा अनेकों सदियों तक चलेगी। वे क्रियापरायण गुरुदेव हैं। समूचे संघ में आचार्य देवेन्द्र सूरि जी अधिक पूजनीय बने। आ. देवेन्द्र सूरि जी वि.सं. 1327 में मालवा में स्वर्गवासी बने। यह समाचार समूचे संघ में जंगल की आग की भाँति फैल गया। खंभात के श्रावक भीम (भीमदेव) के हृदय पर वज्राघात हुआ। वह देवेन्द्र सूरि जी को अपने प्राणों से भी अधिक चाहता था। अतः शोक एवं दुःख के अधीन होकर 12 वर्षों तक उसने अन्न (अनाज) का एक दाना भी नहीं खाया। ऐसे प्रभावक गुरुदेव सभी के हृदयसम्राट बन गए थे। महावीर पाट परम्परा 147 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. आचार्य श्रीमद् धर्मघोष सूरीश्वर जी धर्मघोष सूरि जी धर्मप्रभावक, चमके चारित्राचारं । पेथड़ प्रतिबोधक, अविरल लेखक, नित् वंदन बारम्बार || चरमतीर्थपति महावीर स्वामी की जाज्वल्यमान पाट परम्परा के 46वें पट्ट पर अलंकृत आचार्य धर्मघोष सूरि जी ज्ञान एवं ध्यान के अद्भुत योगी थे। वे इतिहास के प्रसिद्ध श्रावक पेड़शाह के धर्मगुरु रहे । काव्यकला एवं मंत्रशक्ति उनकी विशिष्ट शक्ति थी। धर्म का दिव्य संदेश संपूर्ण भारत में उद्घोषित कर उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की । जन्म एवं दीक्षा : बीजापुर में सेठ जिनचंद्र ( जिनभद्र) वरहुडिया और पत्नी चाहिणीदेवी के 5 पुत्र थे देवचंद्र, नामधर (नागधर), महीधर, वीरधवल एवं भीमदेव तथा धाहिणी नामक पुत्री थी । भीमदेव सभी से छोटा होने के कारण सभी का प्रियपात्र था। पुत्र वीरधवल के विवाह की तैयारियां चल रही थीं। उसी समय तपागच्छाचार्य देवेन्द्र सूरि जी का बीजापुर में पदार्पण हुआ। उनके उपदेश में संसार की असारता, धर्म के प्रति अनुराग इत्यादि विषयों पर अस्खलित प्रवाह का सभी पर प्रभाव हुआ। वीरधवल का हृदय भी विवाह और वैराग्य के बीच असमंजस में फँस गया। किंतु अंततः अपने विवाह के दिन विवाह मंडप को छोड़कर वह देवेन्द्र सूरि जी के सन्निकट दीक्षा ग्रहण करने चला गया। छोटे भाई भीमदेव ने भी अपने भाई के साथ ही चारित्र अंगीकार करने का निश्चय किया। वि.सं. 1302 में बीजापुर में दोनों ने आचार्य देवेन्द्र सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। वीरधवल का नाम मुनि विद्यानंद एवं भीमदेव का नाम मुनि धर्मकीर्ति रखा गया। अति अल्प समय में दोनों ने गहन अध्ययन कर विविध विषयों पर आधिपत्य प्राप्त किया। शासन प्रभावना : मात्र थोड़े ही समय में मुनि धर्मकीर्ति जी ने आगम ग्रंथों का अर्थपूर्वक अभ्यास कर लिया । वि.सं. 1304 में आचार्य देवेन्द्र सूरि जी ने उन्हें पंन्यास पद से अलंकृत किया । वि.सं. महावीर पाट परम्परा 148 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1323 में पालनपुर में पल्लविया पार्श्वनाथ जिनालय के पट्टांगण में देवेन्द्र सूरि जी ने मुनि धर्मकीर्ति जी को उपाध्याय (वाचक) पद प्रदान किया। उस क्षण सभामंडप में केसर की दैवीय वृष्टि से समूचे संघ में आश्चर्य और आनंद व्याप्त हो गया। वि.सं. 1327 में देवेन्द्र सूरि जी का कालधर्म हो गया एवं उसके 13 दिनों में ही आचार्य विद्यानंद सूरि जी का भी बीजापुर में कालधर्म हो गया। श्रीसंघ छत्रविहीन सा हो गया। संघ ने उपाध्याय धर्मकीर्ति को आचार्य पद प्रदान कर गच्छ का नायकत्व करने के दायित्व के प्रस्ताव का समर्थन किया। गुरुदेव के काल के महीने बाद वि.सं. 1328 में बड़गच्छीय संगौत्री वृद्धपोषालिक आ. क्षेमकीर्ति सूरि जी ने समयसूचकता वापरके उपाध्याय धर्मकीर्ति को बीजापुर में आचार्य पद प्रदान किया। उनका नूतन नाम 'आचार्य धर्मघोष सूरि' रखा गया एवं वे देवेन्द्र सूरि जी के पट्ट पर स्थापित किए गए। आचार्य धर्मघोष सूरि जी अत्यंत विद्वान, चमत्कारी सिद्ध पुरुष एवं युगप्रधान सम प्रभावक आचार्य थे। उनके मांडवगढ़ पधारने पर गरीब श्रावक पेथड़ ने श्रावक के 12 व्रत उनके पास स्वीकार किए। गुरुकृपा से धीरे-धीरे वह धनवान् बना एवं 84 जिनालय, 7 ग्रंथभण्डार, कई संघ छ:रीपालित इत्यादि कार्य कराए। मात्र बत्तीस वर्ष की आयु में पेथड़शाह ने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया। यह सब गुरुदेव के आशीर्वाद से हुआ। धर्मघोष सूरि जी को अपने ज्ञान से पूर्वानुमान था कि पृथ्वीधर (पेथड़) यदि अभी परिग्रह परिमाण का अणुव्रत लेगा तो भंग हो जाएगा क्योंकि भविष्य में यह धनवान बनेगा। भंग के दोष से उन्होंने वह पंचमाणुव्रत की विस्तृत सीमा दी। पेथड़ जब माँडवगढ़ का मंत्री बना तब उसे गुरु की ऐसी आज्ञा का रहस्य समझ आया। एक बार ब्रह्म मंडल नामक स्थान पर आचार्यश्री को सांप ने काट लिया। इससे संघ विचलित हो गया। सौ से अधिक उपाय उपाय किए किंतु कुछ भी सफल नहीं हुआ। तब धर्मघोष सूरि जी ने संघ को सात्वना देते हुए कहा कि पूर्व दिशा के दरवाजे के कठियार की लकड़ियों में विषहारिणी बेल है। उसको झूड के साथ घिसकर डंक के ऊपर लगाओ। संघ ने वैसा ही किया। आचार्यश्री जी को आराम भी आ गया एवं वे स्वस्थ हो गए किंतु शरीर पर ममत्व के भाव की आत्मग्लानि से वे जूझते रहे। अतः प्रायश्चित्त स्वरूप उन्होंने जीवन पर्यन्त सभी 6 विगय का त्याग कर दिया व जोवार की नीरस रोटी खाते थे। उनके ऐसे भाव संयम को सभी शत्-शत् नमन करते थे। गोधरा में शाकिनी व्यंतरी देवी का इतना उपसर्ग था कि उपाश्रय के दरवाजे भी रात्रि महावीर पाट परम्परा 149 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में मंत्रोच्चारण बंद करने पड़ते थे। एक बार सभी साधुगण मंत्रपूर्वक दरवाजा बंद करना भूल गए। उपाश्रय के द्वारा खुले देख शाकिनी ने वहाँ उपसर्ग देने हेतु प्रवेश किया। आचार्य धर्मघोष सूरि जी पाट पर बैठकर ध्यान कर रहे थे। जागृत अवस्था में बैठे-बैठे गुरुदेव ने निडर होकर सिंह की भाँति गर्जना की - 'मेरे साधुओं को परेशान करना नहीं। चली जा।' शासन रक्षा के उद्देश्य से चारित्र की सुवास के धनी आचार्यश्री की रक्त रंजित आँखों से प्रभावित हो शाकिनी सदा के लिए चली गई। ___ आचार्य धर्मघोष सूरि जी पुण्यप्रभावी एवं चमत्कारी सिद्धपुरुष थे। एक बार प्रभासपाटण के समुद्र किनारे खड़े रहकर उन्होंने 'मंत्रमय समुद्रस्तोत्र' बनाया। उसी समय समुद्र की ऊंची लहरों के साथ ही अनेक रत्न उछलकर बाहर आ गए। उन रत्नों को जिनमंदिर में भेंट कराया गया। आचार्यश्री जी ने मंत्र ध्यान से शत्रुजय के कपर्दी यक्ष को स्मरण किया और उसे प्रभासपाटण में अमूल्य जिन प्रतिमाओं का अधिष्ठायक बनाया। इसी प्रकार उज्जयिनी में एक योगी जैन साधुओं को रहने नहीं देता था। जब धर्मघोष सूरि जी वहाँ आए तो योगी ने मुनिवृंदों से बहस की और कटाक्ष करने लगा। उसने साधुओं को दांत दिखाए तो साधुओं ने उसे कोहनी दिखाई। साधुओं ने यह सब वृत्तांत अपने गुरु धर्मघोष सूरि जी को कहा योगी ने उपाश्रय में विद्याबल से बहुत चूहे उत्पन्न कर दिए। सब साधु डर गए। आचार्यश्री ने घड़े का मुख वस्त्र से ढक कर ऐसा मंत्र जपा की, योगी भागता हुआ आचार्यश्री के पैरों में पड़ गया और अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा। भद्रपरिणामी जान सभी ने क्षमा दी। आचार्य धर्मघोष सूरि जी की अध्यक्षता में पेथड़ मंत्री ने 7,00,000 श्रावकों को साथ लेकर शत्रुजय-गिरनार का भव्यातिभव्य छ:री पालित संघ निकाला था। शत्रुजय तीर्थ पर भगवान् आदीश्वर जिनप्रासाद के शिखर पर सुवर्णकलश चढ़ाया गया एवं मार्ग में आए सभी मंदिरों पर सोने-चांदी की ध्वजा चढ़ाई गई। जैन शासन में आचार्य के दो विशेष गुण हैं - भीम और कान्त। धर्मघोष सूरि जी के जीवन में यह दोनों गुण परिलक्षित होते हैं - जब आवश्यकता रही तो उन्होंने अत्यंत करुणा एवं वात्सल्य के भाव से कार्य किए। जब आवश्यकता रही, तो शासन रक्षा के लिए, सत्य प्ररूपणा के लिए उग्र भावों का भी प्रदर्शन किया। उनके जीवन में शासन प्रभावना के कई दृष्टान्त मिलते हैं। महावीर पाट परम्परा 150 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य रचना : आचार्य धर्मघोष सूरि जी की लेखन कला व काव्य कला, दोनों अद्भुत थे। उनके द्वारा रचित कुछ ग्रंथ । काव्य इस प्रकार हैं1) संघाचार भाष्य 2) श्राद्धजीतकल्प 3) कायस्थिति स्तवन 4) भवस्थिति स्तवन 5) देहस्थिति प्रकरण 6) परिग्रह प्रमाण स्तवन 7) दुषमाकाल संघ स्तवन 8) युगप्रधान स्तोत्र 9) गिरनार कल्प 10) अष्टापद कल्प 11) ऋषिमंडल स्तोत्र 12) चतुर्विशतिजिन स्तवन संग्रह 13) स्त्रस्ताशर्म स्तोत्र श्लोक 8 14) जयवृषभ अष्ट यमक स्तुति 15) सम्मेतशिखर तीर्थकल्प 16) शत्रुजय महातीर्थकल्प 17) समवसरण प्रकरण 18) लोकान्तिक देवलोक जिन स्तवन 19) लोकनालिका श्लोक 32 20) भावी चौबीसी के तीर्थंकरों के स्तवन 21) जीवविचार स्तव 22) सुअधम्मस्तव 23) मंत्रगर्भित पार्श्वनाथ स्तोत्र 24) भवत्रयस्तवन धर्मघोष सूरि जी विद्वत्ता एवं काव्यकला में निष्णात् थे। एक बार एक मंत्री ने अहंकारपूर्वक 8 यमक काव्य कह कर सुनाए। उसने कहा कि ऐसे सुंदर काव्य अब कोई भी नहीं बना सकता। आचार्य धर्मघोष सूरि जी ने कहा ऐसा नहीं है। मंत्री ने कहा कि कोई कवि हो तो बताओ! तब आचार्यश्री ने जयवृषभ - इत्यादि 8 यमकमय स्तुतियाँ एक रात में बनाकर मंत्री को सुनाई। मंत्री आश्चर्यचकित - स्तब्ध हो गया व तदुपरान्त उनका भक्त बना व जैनधर्म से जुड़ा। प्राकृत में आचार्य धर्मघोष सूरि जी द्वारा रचित 'रिसिमंडलथोत्तं' (ऋषिमंडल स्तोत्र) में सभी तीर्थंकरों, गणधरों, भरत-बाहुबली, चौदह पूर्वधारी, रथनेमि, विष्णुकुमार, जालि-मयालि, गजसुकुमाल, ढंढण मुनि आदि अनेकानेक महापुरुषों के वैशिष्ट्य की स्तुति है। आगमों में वर्णित अधिकांश ऋषियों का इस स्तोत्र में उल्लेख है, जो लालित्यपूर्ण है। महावीर पाट परम्परा 151 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके द्वारा रचित 9 पद्यों में जिनस्तवन में प्रत्येक पद्य का पूर्वार्ध (पहला भाग) संस्कृत में है और उत्तरार्ध (अगला भाग) प्राकृत में है, जो अत्यंत विशिष्ट है। कालधर्म : आचार्यश्री जी मंत्र कला में पारंगत थे। सर्व प्रकार के मंत्रों के ज्ञाता थे। अपने अंत समय में आचार्य सोमप्रभ सूरि जी को उन्होंने विशिष्ट पुस्तिका भेंट की किंतु उन्होंने भी 'गुरुभिर्गीयमानायां मंत्रपुस्तिकायां यच्छतचरित्रं मंत्रपुस्तिकां च' इत्यादि' शब्द कहकर योग्य न समझते हुए स्वीकार न की। भविष्य में कोई इसका दुरूपयोग न करे, इसीलिए धर्मघोष सूरि जी और सोमप्रभ सूरि जी ने पुस्तक को जलशरण कराया। माघ सुदि 13 वि.सं. 1349 में धर्मघोष सूरि जी के उपदेश से दियाणा में ग्रंथ भण्डार की स्थापना की गई। शासन के विविध कार्यों को संपादित करते हुए वि.सं. 1357 में 55 साल का चरित्र पालते हुए धर्मघोष सूरि जी स्वर्गवासी बने। उनके पाट पर आ. सोमप्रभ सूरि जी विराजित हुए। महावीर पाट परम्परा 152 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. आचार्य श्रीमद् सोमप्रभ सूरीश्वर जी साहित्य-स्मारक-साधु त्रिवेणी, समकित स्थिर करनार। सूरि सम्राट आचार्य सोमप्रभ जी, नित् वंदन बारम्बार॥ सोमप्रभ सूरि जी नाम के अनेक आचार्य हुए हैं। शासनपति भगवान् महावीर की पाट परम्परा के 47वें पट्टधर सोमप्रभ सूरि जी महाज्ञानी एवं क्रियापरायण हुए। वे ज्योतिष शास्त्रों के पारगामी विद्वान थे एवं कई शासनप्रभावक शिष्यों को उन्होंने तैयार किया। आज दृष्टिगोचर अनेकों तीर्थ आचार्यश्री जी की ही अमूल्य देन हैं। जन्म एवं दीक्षा: __इनका जन्म वि.सं. 1310 में पोरवाल वंशीय परिवार में हुआ था एवं 11 वर्ष की आयु में हृदय में वैराग्य के बीज अंकुरित होने से वि.सं. 1310 में हुआ में धर्मघोष सूरि जी के परिवार में दीक्षा ग्रहण की। अल्प समय में ही अहर्निश ज्ञान साधना कर वे प्रकाण्ड विद्वान बन गए किंतु अभिमान से सदा कोसों दूर रहे। शासन प्रभावना : __अपनी पात्रता के बल पर मात्र 22 वर्ष की आयु में वि.सं. 1322 में उन्हें आचार्य पद प्रदान किया गया एवं नाम - 'आचार्य सोमप्रभ सूरि' रखा गया। चारित्र पालन में भी अतिविशुद्ध परायण थे। गुरु धर्मघोष सूरि जी ने इनको योग्य मानकर एक अति प्रभावक मंत्रगर्भित पुस्तिका प्रदान की और कहा - "यह मंत्र शास्त्र की अत्यंत विशिष्ट पुस्तिका है। मेरे अलावा दूसरा कोई इसके बारे में नहीं जानता। यह पुस्तक योग्य हाथों में ही जानी चाहिए।" किंतु सोमप्रभ सूरि जी लघुता के धनी एवं भविष्यदर्शी आचार्य थे। उन्होंने यह पुस्तिका स्वीकार नहीं की एवं योग्य पात्र के अभाव में उस शास्त्र को जलशरण करवाया, ऐसी उनमें लघुता एवं दूरदर्शिता थी। __इन्हें संपूर्ण आचारांग, स्थानांग आदि 11 अंग कंठस्थ थे एवं वे नित्य उनका स्वाध्याय करते थे। चित्तौड़ में ब्राह्मणों की सभा में मिथ्यात्व के अंधकार को दूर कर सम्यकत्व का प्रकाश किया तथा विजयी बने। ग्रंथों के अनुसार जब वे चित्तौड़गढ़ में थे, तब उनके ऊपर प्रभाछत्र, महावीर पाट परम्परा 153 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामंडल आदि व आकाश में भी स्वयमेव आश्चर्यकारी घटनाएं घटित हुई जो निश्चित उनके उज्ज्वल भविष्य की सूचक बनी। . सोमप्रभ सूरि जी ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इसी की सहायता से उन्होंने शासन रक्षा के महनीय कार्य किए। वि.सं. 1353 में उनका चातुर्मास भीमपल्ली (वर्तमान में डीसा के सन्निकट भीलड़ी गाँव) में था। बड़ी संख्या में जैनों की वहां बस्ती थे। भिन्न-भिन्न गच्छों के 11 जैनाचार्यो का चातुर्मास वहाँ था। उस साल कार्तिक के दो महीने थे। चातुर्मास दरम्यान एक रात सोमप्रभ सूरि जी ने आकाश में जैसे ही ग्रहों की चाल देखी, निमित्त शास्त्र के आधार से उन्हें ज्ञात हो गया कि थोड़े दिनों में भीलड़िया नगर का विनाश होने वाला है। अतः अधिक समय तक यहाँ रुकना उचित नहीं है। अन्य आचार्यों ने इनकी बात पर विश्वास नहीं किया। अतः प्रथम कार्तिक महीने की सुदी 14 को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कर सुदी 15 को उन्होंने अपने शिष्य समुदाय सहित भीलड़िया के विहार कर दिया। सभी साधु-साध्वियों सहित उन्होंने राधनपुर नगर बसाया। अन्य आचार्यों ने दूसरे कार्तिक मास में चातुर्मास पूर्ण करने का सोचा था, किंतु उससे पहले ही प्राकृतिक उपद्रवों के प्रभाव से भीमपल्ली नगर विनाश की ओर बढ़ गया एवं विहार न करने वाले आचार्यों को मुसीबत में उतरना पड़ा। सोमप्रभ सूरि जी के ज्ञान तथा चतुर्विध संघ का रक्षण करने के कारुण्य भाव पर सभी उनके प्रति नतमस्तक हुए। खरतरगच्छ के आचार्य जिनप्रभ सूरि जी के साथ इनकी प्रगाढ़ मैत्री थी। उनके साथ रहकर भी ज्योतिष एवं मंत्रविषयक ग्रंथों का अभ्यास करते थे। वि.सं. 1371 में समराशाह ने शत्रुजय महातीर्थ का 15वां उद्धार कराया था। आचार्य सोमप्रभ सूरि जी की भी उसमें खासी प्रेरणा.रही व उस अवसर पर वे अपने शिष्य समुदाय सहित सम्मिलित होकर ऐतिहासिक क्षण के साक्षी बने। साहित्य रचना : आचार्य सोमप्रभ जी द्वारा रचित कतिपय ग्रंथ आज उपलब्ध होते है। जैसे 1. यतिजीत-कल्पसूत्र, 2. अट्ठाईस यमक-स्तुतियाँ, 3. श्रीमच्छर्म-स्तोत्र (श्रीमद् धर्म स्तोत्र) 4. आराधना पयन्नो आदि संघ व्यवस्था : धर्मघोष सूरि जी वि.सं. 1357 में स्वर्गवासी हुए। उसी वर्ष आचार्य सोमप्रभ सूरि जी ने महावीर पाट परम्परा 154 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने प्रमुख शिष्य विमलप्रभ को आचार्य पद दिया था। विमलप्रभ सूरि जी की आयुष्य अल्प थी एवं उसी वर्ष ही वे भी आकस्मिक कालधर्म को प्राप्त हो गए। अतः सोमप्रभ सूरि जी ने सोमतिलक सूरि जी को पट्टधर बनाया। इनके अनेक शिष्य थे, किंतु प्रमुख 4 आचार्य बनेआचार्य विमलप्रभ सूरि , आचार्य परमानंद सूरि, आचार्य पद्मतिलक सूरि, आचार्य सोमतिलक सूरि, सभी शासन प्रभावक हुए। संपूर्ण गच्छ के योग-क्षेम में वे निपुण थे। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की परिस्थिति जानकर उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया था। कोंकण देश (गुजरात) में अत्यधिक वर्षा होने से एवं मारवाड़ में पानी की कमी के कारण अप्काय की विराधना के भय से कोंकण देश में और शुद्ध जल की दुर्लभता से मारवाड़ में अपने सभी साधु-साध्वियों का विहार बंद कराया। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ : ___मांडवगढ़ का मंत्री पेथड़शाह आचार्य धर्मघोष सूरि जी का परम भक्त था। धर्मघोष सूरि जी के कालधर्मोपरान्त पेथड़शाह ने भिन्न-भिन्न स्थानों में 84 जिन प्रासाद प्रतिष्ठित कराए एवं सोमप्रभ सूरि जी के करकमलों के स्थापित कराए। आचार्य सोमतिलक सूरि कृत 'पृथ्वीधर साधुप्रतिष्ठित जिनस्तोत्र' एवं मुनिसुंदर सूरि कृत 'गुर्वावली' में इन 84 जिनालयों का जिक्र है। इनमें से अनेकों जिन प्रतिमाएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आज भी जन-जन के श्रद्धा के केन्द्र है। उसमें से प्रमुख 76 के नाम प्राप्त होते हैंस्थान मूल प्रतिमा स्थान मूल 1) माण्डवगढ़ आदिनाथ जी 2) निम्बस्थूरनगर नेमिनाथ जी 3) निम्बस्थूर तलेटी पार्श्वनाथ जी 4) उज्जैन पार्श्वनाथ जी 5) विक्रमपुर नेमिनाथ जी 6) मुकुटिकापुरी पार्श्वनाथ जी 7) मुकुटिकापुरी आदिनाथ जी 8) विघ्नपुर मल्लिनाथ जी 9) आशापुर पार्श्वनाथ जी __10) घोषकी नगर आदिनाथ जी 11) आर्यापुर शांतिनाथ जी 12) धारानगर नेमिनाथ जी 13) वर्धनपुर(बदनावर) नेमिनाथ जी 14) चंद्रकपुर (चंडावली) आदिनाथ जी प्रतिमा महावीर पाट परम्परा 155 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15) जीरापुर आदिनाथ जी 16) जलपद्र (जलगांव) पार्श्वनाथ जी 17) दाडडपुर (दाहोद) पार्श्वनाथ जी 18) हांसलपुर महावीर स्वामी 19) मांधाता पहाड़ तलेटी अजितनाथ जी 20) घनमातृका महावीर स्वामी 21) मंगलपुर अभिनंदन स्वामी 22) चीखली पार्श्वनाथ जी 23) जयसिंहपुर महावीर स्वामी 24) सिंहानक नेमिनाथ जी 25) शंखलपुर पार्श्वनाथ जी 26) ऐन्द्रपुर (इंदौर) । पार्श्वनाथ जी 27) ताल्हणपुर शांतिनाथ जी 28) हस्तिनापुर (नीमाड) अरनाथ जी 29) करहेडा (करेड़ा) पार्श्वनाथ जी 30) नलपुर नेमिनाथ जी 31) नलदुर्ग नेमिनाथ जी 32) बिहार महावीर स्वामी 33) लंबकर्णीपुर महावीर स्वामी 34) खण्डवा (खंडोला) कुंथुनाथ जी 35) चित्तौड़ किला आदिनाथ जी 36) पानविहार (मालवा) आदिनाथ जी 37) चन्द्रानक पार्श्वनाथ जी 38) बंकी आदिनाथ जी 39) नीलकपुर अजितनाथ जी 40) नागौर आदिनाथ जी 41) मध्यकपुर पार्श्वनाथ जी 42) डभोई चंद्रप्रभ स्वामी 43) नागदा नेमिनाथ जी 44 ) धोलका मल्लिनाथ जी 45) जूनागढ़ किला पार्श्वनाथ जी 46) सोमनाथ पाटण पार्श्वनाथ जी 47) शंखेश्वर (शंखपुर) मुनिसुव्रत स्वामी 48) सौवर्तक महावीर स्वामी 49) वनस्थली नेमिनाथ जी 50) नासिक चंद्रप्रभ स्वामी 51) सोपारा पार्श्वनाथ जी 52) अरुणनगर पार्श्वनाथ जी 53) उरंगल पार्श्वनाथ जी 54) पेडण पार्श्वनाथ जी 55) सेतुबंध नेमिनाथ जी 56) वटपद्र महावीर स्वामी 57) नागलपुर महावीर स्वामी 58) जालंधर महावीर स्वामी 59) देवपालपुर महावीर स्वामी ___60) देवगिरि (दौलताबाद) महावीर स्वामी महावीर पाट परम्परा 156 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61) उक्क देश महावीर स्वामी 62) चारूप तीर्थ शांतिनाथ जी 63) द्रोणात नेमिनाथ जी 64) रत्नपुर (रतलाम) नेमिनाथ जी 65) अर्बुदपुर अजितनाथ जी 66) कोरटा मल्लिनाथ जी 67) ढोर समंत देश पार्श्वनाथ जी 68) पाटण पार्श्वनाथ जी 69) शत्रुजय तीर्थ शांतिनाथ जी 70) तारापुर आदिनाथ जी 71) वर्धमानपुर मुनिसुव्रत स्वामी 72) वटपद्र आदिनाथ जी 73) गोगपुर (घोघा) आदिनाथ जी 74) पिरच्छन चंद्रप्रभ स्वामी 75) विक्कन नगर नेमिनाथ जी 76) चेलकपुर आदिनाथ जी कालधर्म : गुजरात, मालवा आदि क्षेत्रों में विहार करते हुए 63 वर्ष की आयु में वि.सं. 1373 में खंभात में कालधर्म को प्राप्त हुए। ऐसी अनुश्रुति है कि आचार्यश्री के स्वर्गवास पश्चात् जिस उपाश्रय में कालधर्म हुआ, वहाँ स्वर्ग का विमान लघु रूप में आया था, जिससे संभवतः वे सौधर्म देवलोक में सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुए, ऐसा प्रचलित हुआ। वि.सं. 1373 में ही अपने शिष्य-परमानंद और सोमतिलक को सूरि पद प्रदान किए व उसके 3 महीने पश्चात् ही स्वयं श्री चरणों में विलीन हुए। सोमप्रभ सूरिजी के पट्ट पर आचार्य सोमतिलक सूरि जी विराजित हुए। • समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य रत्नाकर सूरि जी : वैराग्यरसपोषक सुप्रसिद्ध रचना – 'रत्नाकर पच्चीसी' के रचयिता आचार्य रत्नाकर सूरीश्वर जी वीर निर्वाण की 18वीं शताब्दी (विक्रम की 14वीं सदी) के महाप्रभावक आचार्य रहे। ___ गृहस्थावस्था में वे अत्यधिक धनवान् सेठ थे जिन्हें अपने एक अमूल्य रत्न से असीम राग था। आचार्य देवप्रभ सूरि जी के मार्मिक उपदेशों से घर-परिवार-व्यापार से उनका मोह टूट गया। उन्होंने उनके पास दीक्षा ले ली किंतु रत्न से अपना मोह वे त्याग नहीं सके। उन्होंने महावीर पाट परम्परा 157 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने सांसारिक पुत्र के निमित्त से वह रत्न वोहरा लिया । निस्संदेह उनका आगमाध्ययन-ज्ञानसर्जन सुविशाल था। उनकी वक्तृत्व कला भी निस्संदेह प्रभावक थी। किंतु वे बस अपने रत्नों के प्रति आसक्ति का त्याग नहीं कर पा रहे थे। कालक्रम में वे आचार्य पद से विभूषित हुए। उनका आगमन एक बार धवलक नगर में हुआ। सुबह प्रवचन श्रवण कर गया सुघन श्रावक (वीशा पोरवाड) दोपहर में वंदन करने आया तो उसने उपकरण का पडिलेहण करते आचार्य रत्नाकर सूरि के सन्निकट रत्न पड़े देखे। उसका सम्यक् श्रावकत्व जागृत हो उठा। उनके जैसे विद्वान, बहुश्रुत आचार्यवृंद को उसने युक्तिपूर्वक सन्मार्ग पर लाने की प्रतिज्ञा की । उस विवेकी श्रावक ने पास जाकर उन्हें वंदना की और बोला कि मैं एक गाथा का अर्थ पूछना चाहता हूं। रत्नाकर सूरि जी ने स्वीकृति दी तो वह बोला - महावीर पाट परम्परा दोससय मूल जालं पुव्वरिसि विवज्जियं जइवंतं । अत्थं वहसि अनत्थं कीस अनत्थं तवं चरसि ? छह महीने तक बार-बार वह एक ही श्लोक का अर्थ उनसे पूछता रहा । अन्ततः रत्नाकर सूरि जी जैसी भद्रिक सरलात्मा का आत्मचिंतन जगा जिससे उन्हें अत्यंत आत्मग्लानि हुई। उनकी नजर अपने ही रत्नों पर गई और उन्होंने सोचा कि जब तक मैं यह 'जाल' अपने पास रखूंगा तब तक परिग्रह त्याग का अर्थ कैसे कर सकूंगा? उस दिन उन्होंने श्रावक को घंटों तक उस श्लोक का अर्थ समझाया और रत्नों का चूरा - चूरा कर दिया एवं माघ सुदि 7 वि.सं. 1371 के दिन शत्रुंजय तीर्थ पर हुई ऐतिहासिक प्रतिष्ठा के समय 25 श्लोकों आत्म- आलोचना व वैराग्यतरंगिणी युक्त संस्कृत भाषा में 'रत्नाकर पच्चीसी' की रचना की। 158 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. आचार्य श्रीमद् सोमतिलक सूरीश्वर जी संघ-तिलक सूरि सोमतिलक जी, ज्ञान रूप आकार। गच्छमोहमुक्त मेधाधारक, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य सोमप्रभ सूरीश्वर जी के अन्य शिष्यों से अधिक दीर्घायु एवं योग्य होने पर सोमतिलक सूरि जी भगवान महावीर की परमोज्ज्वल पाट परम्परा के 48वें पट्टधर बने। वे रूपसंपदा एवं ज्ञान संपदा के धनी थे। कई महत्त्वपूर्ण रचनाओं के वे सर्जक रहे। उन्होंने अपने कई शिष्यों को शासन प्रभावना के लिए तैयार किया था। जन्म एवं दीक्षा : वि.सं. 1355 के माघ महीने में उनका इस पृथ्वीतल पर जन्म हुआ। जन्म से ही वे शारीरिक कांति के साथ बौद्धिक शक्ति के धनी थे। उनका पारिवारिक संबंध प्राग्वाट् (पोरवाल) जाति से था। चौदह वर्ष की आयु में वि.सं. 1369 में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की तथा वे तपागच्छीय सोमप्रभ सूरि जी के शिष्य बने। उनकी निश्रा में रहकर वे संयम साधना के शिखर तक पहुँचे। शासन प्रभावना : सोमतिलक सूरि जी अपने संयम में इतनी द्रुतगति से आगे बढ़े कि मात्र 18 वर्ष की आयु में आचार्य सोमप्रभ सूरि जी ने उन्हें महत्त्वपूर्ण - सूरि पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। सोमप्रभ सूरि जी की छाया में विकसित हुए बहुप्रतापी सोमतिलक जी की आचार्य पदवी वि.सं. 1373 में हुए। उनके आचार्य पदवी महोत्सव पर जंघराल के संघपति गजराज ने 2.5 लाख टका खर्च किया। इसके कुछ महीने बाद ही आचार्य सोमप्रभ सूरि जी कालधर्म को प्राप्त हुए एवं गच्छ संचालन का संपूर्ण दायित्व इन पर आ गया। उस काल की प्रशस्तियों में इनके रूप लावण्य की प्रशंसा करते हुए अनेक विशेषण दिए हैं। जैसे - चंद्रगच्छे प्रद्योतनाभ, सर्वाभिमत-सुमति, ज्ञानेन्दुकांतिविराजमान, सर्वागावयवसुंदर इत्यादि जिससे इनके शरीर व ज्ञान का तेज ज्ञात होता है। इनका दूसरा नाम विद्यातिलक था। महावीर पाट परम्परा 159 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छममत्व में आचार्यश्री का विश्वास नहीं था। अन्य गच्छों के भिन्न-भिन्न साधुओं से इनका बहुत प्रेम था। इसी से प्रभावित होकर खरतरगच्छीय आचार्य जिनप्रभ सूरि जी के शिष्य ने 700 नए स्तोत्र रचे और सोमतिलक सूरि जी को समर्पित किए। यह उस समय की अद्वितीय आश्चर्यजनक घटना थी। आचार्य सोमतिलक सूरि जी के श्रावक भक्त-सेठ जगतसिंह एवं उनके पुत्र महण सिंह इतिहास के प्रसिद्ध जैन श्रावक हैं जिन्होंने जंगल में या जेल में, कभी प्रतिक्रमण नहीं छोड़ा, यह सब सूरि जी का ही प्रभाव रहा। अनेकों जैनों को परमात्मा का सच्चा उपासक बनाकर सोमतिलक सूरि जी ने शासन की महती प्रभावना की। । साहित्य रचना : इसके द्वारा रचित कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियां इस प्रकार हैं1) वि.सं. 1387 (ईस्वी सन् 1321) में रचित - सप्ततिशतस्थान प्रकरण 2) 387 गाथायुक्त बृहन्नव्यक्षेत्र-समास सूत्र 3) सोमप्रभ सूरि जी द्वारा रचित 28 यमक स्तुतियों पर टीका (वृत्ति) 4) पृथ्वीधरसाधु-प्रतिष्ठित-जिनस्तोत्र 5) 'श्रीमद्वीर स्तुवेः' इत्यादि कमलबंध स्तवन 6) सिद्धांत स्तव पर अवचूरि 7) चतुर्विशतिजिनस्तवन वृत्ति 8) शजयात्रावर्णन व तीर्थराजस्तुति १) पच्चीस अर्थयुक्त काव्य एवं अनेक स्तोत्र-स्तवन 10) षड्दर्शनसमुच्चय पर 1252 श्लोकप्रमाण लघुवृत्ति उनकी वर्णनात्मक शैली सुंदर थी। 'शत्रुजययात्रा वृत्तांत' में उन्होंने शत्रुजय (पालीताणा) तीर्थ की यात्रा दरम्यान कितने जिनमंदिर, किस मंदिर का नाम क्या, किस जगह कितनी प्रतिमाएं - इत्यादि बातों का सुंदर विवेचन कर भावपूर्वक स्तवना की है जो उस समय की बातों को स्पष्ट उजागर करता है। 'सत्तरिसयठाण पगरण' (सप्ततिशतस्थान प्रकरण) में तीर्थंकर परमात्मा संबंधी 170 बातों महावीर पाट परम्परा 160 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का रोचक वर्णन है। इसकी रचना संघपति हेम की विनती पर आचार्यश्रीजी ने की थी। संघ व्यवस्था : वि.सं. 1377 में वर्षा के अभाव में गुजरात में भयंकर दुष्काल पड़ा था। उस समय इन्होंने अपने गच्छ का कुशल संरक्षण व मार्गदर्शन किया। गच्छ के संचालन व व्यवस्था के लिए इन्होंने पदम्तिलक जी, जो इनसे दीक्षा में एक वर्ष बढ़े थे, उनको आचार्यपद प्रदान किया एवं अनुक्रम से अपने भी 3 प्रभावक शिष्यों का आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया1) आचार्य चंद्रशेखर सूरि - इनका जन्म वि.सं. 1373 में हुआ। बारह वर्ष की आयु में इन्होंने दीक्षा ली और 20 वर्ष की आयु में आचार्य बने व वि.सं. 1423 में कालधर्म को प्राप्त हुए। वे मंत्र शास्त्र में निपुण थे एवं छोटे बड़े उपद्रवों का निराकरण करने में समर्थ थे। आचार्य जयानंद सूरि - इनका जन्म वि.सं. 1380 में हुआ। बारह वर्ष की आयु में ध रानगरी में इनकी दीक्षा, वि.सं. 1420 में आचार्य पद व वि.सं. 1441 में कालधर्म हुआ। उनकी स्थूलिभद्रचरित्र, देवप्रभस्तोत्र, साधारण जिनस्तोत्र आदि कृतियां उल्लेखनीय हैं। अनेकों ब्राह्मणों को भी इन्होंने प्रतिबोधित किया। आचार्य देवसुंदर सूरि - आचार्य सोमतिलक सूरि जी ने कोडिनार में अंबिका देवी को साक्ष्य कर अगला गच्छनायक कौन हो, ऐसा पूछा। अतः उन्होंने देवसुंदर सूरि को अपना पट्टधर घोषित किया। जयानंद सूरि जी का भी वे पूर्ण बहुमान करते थे। कालधर्म : . ग्रामानुग्राम विचरण कर सर्वविरति एवं देशविरति धर्म से लोगों को जोड़ते-जोड़ते 69 वर्ष की आयु में वे वि.सं. 1424 में कालधर्म को प्राप्त हुए। शिष्य आचार्य चंद्रशेखर का जिस वर्ष कालधर्म हुआ, उसके अगले ही वर्ष इनका भी स्वर्गवास सभी के लिए आघात रहा। 'गुर्वावली' ग्रंथ के अनुसार उस दिन आकाश में विशिष्ट प्रकाश छाया तथा देवी पद्मावती ने सभी चतुर्विध संघ को सूचित किया कि आचार्य सोमतिलक सूरि जी स्वर्ग में सौधर्मेन्द्र समान देव बने हैं। 3) महावीर पाट परम्परा 161 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. आचार्य श्रीमद् देवसुन्दर सूरीश्वर जी ज्ञानगुणभूषण भविष्यदर्शी संरक्षण शास्त्रभंडार । सुंदरतम आचार्य देवसुंदर जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ अपने काल में में विनष्ट होते जा रहे आगम इत्यादि शास्त्रों की प्राचीन प्रतियों की प्रतिलिपि कराने वाले भगवान् महावीर स्वामी के 49वें पट्टधर आचार्य देवसुंदर सूरि जी ने अनेकों ग्रंथ भण्डारों का जीर्णोद्धार कराया जिसके लिए वर्तमान में भी सब इनके ऋणी हैं। जन्म एवं दीक्षा : वि.सं. 1396 में प.पू. देवसुंदर सूरि जी का जन्म हुआ । आठ वर्ष की आयु में पूज्य सोमतिलक सूरि जी के प्रवचनों से प्रेरित होकर वैराग्य की भावना जगी । अतः वि.सं. 1404. में महेश्वर गाँव (महेसाणा ) में उनके करकमलों से दीक्षा ग्रहण की एवं उनके शिष्य बने । उनके शरीर पर उत्तम लक्षण एवं चिन्ह थे जिससे सभी प्रभावित होते थे और वो इनकी भव्यता का संकेत बना। शासन प्रभावना : इनकी शासन प्रभावना की योग्यता देखते हुए आचार्य सोमतिलक सूरि जी ने चैत्र सुदि 10 वि.सं. 1420 पाटण में सिंहाक पल्लीवाल द्वारा आयोजित अतिभव्य उत्सव में आचार्य पद प्रदान किया तथा नाम आचार्य देवसुदंर सूरि रखा। अंबिका देवी के संकेत से उन्होंने देवसुंदर सूरि जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। पहले शास्त्रों को ताड़पत्रों पर लिखवाने की प्रथा थी किंतु देवसुंदर सूरि जी के समय इस प्रथा में फेरफार हुआ । ताड़पत्रों की प्राप्ति दुर्लभ होती गई एवं कागजों की प्रवृत्ति बढ़ती गई। ताड़पत्रों का स्थान कागज लेने लगे एवं पुराने ग्रंथों का नाश होने लगा। अतः अपने पट्टशिष्य सोमसुंदर सूरि जी के साथ मिलकर देवसुंदर सूरि जी ने खंभात व पाटण के ग्रंथों की प्रतिलिपियां कागज पर करवाई। उनके हृदय में बस एक ही भाव था कि मेरे आने वाली पीढ़ियों को जिनवाणी के अनमोल ग्रंथों का अभाव न हो। अनेक श्रावक-श्राविकाओं को भी उन्होंने इस कार्य में महावीर पाट परम्परा 162 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोड़ा | सेठ नरसिंह ओसवाल के पुत्र मालजी को उपदेश देकर वि.सं. 1437 में आश्विन वदी 1, शनिवार को खंभात में 'धर्मसंग्रहणी' ग्रंथ लिखवाया। मलयसिंह पोरवाल की पत्नी साउदेवी को उपदेश देकर पाटण में वि.सं. 1444 में श्री आवश्यक सूत्र, चैत्यवंदन चूर्णि आदि ग्रंथ ताड़पत्र व कागज पर लिखवाए। आबू के 'सुदर्शना चरित्र' को लिखवाकर पाटण ज्ञानभंडार को भेंट करवाई इत्यादि । आचार्य जयानंद सूरि जी और आचार्य देवसुंदर सूरि जी के उपदेश से उनके गुरुदेव के नाम पर खंभात में वि.सं. 1447 में भट्टारक सोमंतिलकसूरि ग्रंथभंडार स्थापित हुआ । जैनधर्म के कट्टर विरोधी वडोदरा के मंत्री सारंग के वेदों-उपनिषदों के प्रश्नों को भी समाधान प्रदान कर विद्वत्ता का परिचय दिया एवं उसे भी जैन बनाया। इसी प्रकार इनके लक्षणों से प्रभावित होकर पाटण में 300 योगियों के गुरु उदयीपा योगी ने देवसुंदर सूरि जी के पास आकर वंदन व साष्टांग नमस्कार किया। इस प्रकार जैनों व जैनेत्तरों में अपना प्रभाव छोड़ते हुए जिनशासन प्रभावना के अनेक कार्य पूज्य आचार्य देवसुंदर सूरि जी ने किए। इनके एक अज्ञात शिष्य ने उस काल में रचे ग्रंथ में देवसुंदर जी को गुरु रूप में वंदन करते हुए तत्कालीन भाषा में लिखा है अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय, साहु सुगुरु देवसुंदर सूरि पाय । वंदिय सुय सामणि समरेवि, धम्म कक्कप भणिसु संखेति || साहित्य रचना : आचार्य देवसुंदर सूरि जी द्वारा लिखा गया 'स्तंभन पार्श्वनाथ स्तवन' उपलब्ध होता है। यह 25 श्लोकों में निबद्ध भक्तिप्रधान कृति है। इनकी प्रेरणा से इनके शिष्यरत्नों ने अनेकानेक साहित्य रचा। इनके सानिध्य में अनेक ज्ञानभंडार विकसित हुए । संघ व्यवस्था : आचार्य देवसुंदर सूरि जी के नायकत्व में तपागच्छ उन्नति को प्राप्त था। शुद्ध समाचारी का पालन करना, आपस में द्वेष के बजाए प्रेम की स्थापना करना, आगम के प्रत्येक वचन के प्रति वफादारी रखना एवं आत्मा का कल्याण करना, ऐसे चतुर्मुखी आधार पर संघ का उन्होंने संचालन किया । इनका शिष्य परिवार बृहद् था, उसमें विशेष रूप से 5 शिष्य आचार्य पद को प्राप्त हुए महावीर पाट परम्परा 163 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1) आचार्य ज्ञानसागर सूरि - इन्होंने आवश्यक सूत्र, ओघनियुक्ति आदि ग्रंथों पर अवचूरी, मुनिसुव्रत स्वामी स्तवन, घनौघनवखण्ड पार्श्वनाथ स्तवन आदि की रचना की। आचार्य कुलमंडन सूरि - इन्होंने सिद्धान्तालापकोद्धार, विश्वश्रीधर आदि 18 चक्रबन्ध स्तवन, हारबंध स्तवन इत्यादि की रचना की। आचार्य गुणरत्न सूरि - इनका चारित्र दुष्कर कहा जाता था, उत्कृष्ट नियमों को पालते थे। इन्होंने क्रियारत्नसमुच्चय, षड्दर्शन समुच्चय की बृहवृत्ति, ओघनियुक्ति उद्धार, गुरुपर्वक्रमवर्णनम् आदि रचे। 4) आचार्य सोमसुंदर सूरि - ये इनके पट्टधर बने। इनका विशेष परिचय आगामी पृष्ठों में दिया गया है। 5) आचार्य साधुरत्न सूरि - इनके कृत ग्रंथ - यतिजीतकल्पवृत्ति एवं नवतत्त्व अवचूरि प्रसिद्ध है। इनकी प्रेरणा से शंखलपुर के 12 गांवों में जीवदया पाली गई। इनके उपरान्त भी 84 पदवीधर विभूतियां इनके शिष्य एवं आज्ञानुवर्ती परिवार को आलोकित करती थीं। महत्तरा साध्वी चारित्रचूला, महत्तरा साध्वी भुवनचूला आदि भी श्रमणीसंघ के उत्तरोत्तर उत्थान में प्रयासरत थी। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं - इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिनप्रतिमाएं प्राप्त होती हैं। जैसे - 1. पार्श्वनाथ देरासर, नरसिंहजी की पोल, बड़ोदरा में प्राप्त फाल्गुन सुदि 8 वि.सं. 1447 की प्रतिमा। 2. अनुपूर्ति लेख, आबू के लेख अनुसार फाल्गुन सुदि 2 बुधवार वि.सं. 1458 में प्रतिष्ठित प्रतिमा। 3. बड़ा मंदिर, नागौर में प्राप्त श्रावण सुदि 11, गुरुवार वि.सं. 1461 की प्रतिष्ठित प्रतिमा। 4. आदिनाथ जिनालय, मालपुरा में प्राप्त ज्येष्ठ वदि 11 वि.सं. 1465 की प्रतिष्ठित प्रतिमा। 5. आदिनाथ मंदिर, खेरालु में प्राप्त श्रावण सुदि 10 वि.सं. 1466 की प्रतिष्ठित प्रतिमा। 6. चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय, बीकानरे में प्राप्त वैशाख सुदि 7 वि.सं. 1467 की प्रतिमा। 7. माधवलाल बाबू का देरासर, पालीताणा में प्राप्त प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा। 8. जगवल्लभ पार्श्वनाथ देरासर, नीशापोल, अहमदाबाद में प्राप्त फाल्गुन सुदि 3 वि.सं. 1469 महावीर पाट परम्परा 164 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा। कालधर्म : रायखंड वडली के वीशा पोरवाड़ ने तारंगा तीर्थ में अजितनाथ जी की प्रतिष्ठा करवाई। उसके बाद वि.सं. 1492 में प.पू देवसुंदर सूरि जी ओडछा में इस नश्वर देह का परित्याग कर कालधर्म को प्राप्त हुए। उस समय उनके पट्टशिष्य आचार्य सोमसुंदर सूरि जी देवपाटण में विचर रहे थे। देवसुंदर सूरि जी के परम भक्त सेठ धारशी ने 15 दिनों का उपवास करके शासन देव को साध्य किया। उस देव ने सेठ को बताया कि महाविदेह क्षेत्र विराजित श्री सीमंधर स्वामी ने फरमाया है कि देवसुंदर सूरि जी तीसरे भव में जन्म-जरा-मृत्यु से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। ऐसे आसन्न भव्य गुरुदेव को स्मरणकर चतुर्विध संघ ने स्वयं को कृतार्थ महसूस किया। महावीर पाट परम्परा 165 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. आचार्य श्रीमद् सोमसुंदर सूरीश्वर जी तप जप ज्ञान संयम सुवासी, अर्धशतक पट्टधार। सद्धर्मधुरीण आचार्य सोमसुंदर, नित् वंदन बारम्बार॥ ज्ञानयोग-भक्तियोग-तपयोग-कर्मयोग के चतुर्मुखी धर्मरथ द्वारा जिनवाणी की सिंह गर्जना करके शासन की महती प्रभावना कर भगवान महावीर के 50वें पट्टधर आचार्य विजय सोमसुंदर सूरि जी महाराज ने अपने युग में अद्भुत संयम क्रांति का शंखनाद किया एवं वीर शासन का प्रत्येक पुष्प सदियों तक गौरवान्वित हो, ऐसे महनीय कार्य किए। जन्म एवं दीक्षा : ___ पालनपुर में सेठ सज्जनसिंह एवं उनकी पत्नी माणकदेवी के सद्गार्हस्थ्य के योग से उन्हें संतानोत्पत्ति का सुख मिलने वाला था। गर्भावस्था के दौरान मात्रा ने सोम (चंद्रमा) अपने स्वप्नों में देखा। अतः मार्गशीर्ष (माघ) वदि 14 शुक्रवार वि.सं. 1430 में जन्में उत्तम लक्षणों वाले पुत्र का नाम उन्होंने 'सोमचंद' रखा। ___ मात्र 7 वर्ष की अल्पायु में माता-पिता की आज्ञा लेकर बालक ने वि.सं. 1437 में आचार्य जयानंद सूरि जी का शिष्यत्व ग्रहण किया। उसका नाम - 'मुनि सोमसुंदर' रखा गया। बालवय में कच्ची मिट्टी की तरह बुद्धि के धनी होने के कारण उनके गुरुदेवों ने कुशल शिल्पकार की भाँति मुनि सोमसुंदर को बहुत अच्छे से पढ़ाया। ज्ञानसागर सूरि जी आदि गीतार्थो की निश्रा में विद्याध्ययन कर मुनिराज चंद्रमा की शशिकलाओं की भाँति विकसित हुए। शासन प्रभावना: _ वि.सं. 1450 में उन्हें उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया गया एवं मात्र 27 वर्ष की आयु में वि.सं. 1457 में पाटण में सेठ नरसिंह ओसवाल के उत्सव में आचार्य देवसुंदर सूरि जी ने अपने हाथ से इन्हें आचार्य पद का वासक्षेप दिया तथा ये आचार्य सोमसुन्दर सूरि के नाम से प्रख्यात हुए। महावीर पाट परम्परा 166 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवसुंदर सूरि जी के साथ मिलकर पाटण और खंभात के ज्ञानभंडारों के ताडपत्रीय ग्रंथ कहीं नष्ट न हो जाए, इस भावना से उन्हें पुनः कागजों पर लिखवाया। मुसलमानों के बढ़ते प्रभाव से जैन मुनि, जिन प्रतिमाएं एवं जिनवाणी स्वरूप शास्त्रों को क्षति हो रही थी किंतु आचार्य श्री जी ने यथाशक्ति सबका डटकर सामना किया। वि.सं. 1470 में उन्होंने मांडवगढ़ में चातुर्मास किया। संग्राम सिंह सोनी श्रावक गुरुदेव की वाणी से इस प्रकार प्रभावित था कि भगवती सूत्र पर गुरुदेव के व्याख्यान में " गोयमा " शब्द आता, तो वह एक-एक सुवर्ण मोहर अर्पित करता था । उसने 36,000 सोनामोहरें, उसकी माता ने 18,000 तथा उसकी पत्नी ने 9000 सोनामोहरें चढ़ाई थी। इस ज्ञानद्रव्य से उसने सचित्र कल्पसूत्र की प्रतियां, कालिकाचार्य कथा आदि लिखवाकर साधु-साध्वियों को वोहराई। सोमसुंदर सूरि जी के मुख से लक्ष्मी और सरस्वती दोनों, प्रवाहित होती थी, ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। आचार्यश्री जी के उपदेश से शा. मेघजी ओसवाल ने भी पावागढ़, सोपारा, सुल्तानपुर, महाकांठा आदि अनेकों जगह जीर्णोद्धार, उपाश्रय निर्माण, जिनप्रतिमा प्रतिष्ठा आदि के लाभ लिए । आज जो नयनरम्य-नयनाभिराम श्री राणकपुर तीर्थ दृष्टिगोचर होता है, उसकी प्रतिष्ठा का श्रेय भी आचार्यश्री को ही जाता है। धरणाशाह पोरवाल द्वारा निर्मित चतुर्मुख त्रैलोक्य दीपक जिनप्रासाद (राणकपुर) की प्रतिष्ठा आचार्य सोमसुंदर सूरि जी ने फाल्गुन वदि 5, वि.सं. 1496 में कराई। उस समय 4 आचार्य, 9 उपाध्याय एवं 500 मुनिवर विद्यमान थे। आचार्य सोमसुंदर सूरि जी ने पौष सुदि 5. वि.सं. 1478 में मेवाड़ में जावर ग्राम में श्रावक धनपाल के संघ में शांतिनाथ जी के जिनप्रासाद की प्रतिष्ठा कराई। उस अवसर पर उनके साथ आचार्य मुनिसुंदर सूरि, आचार्य जयचंद्र सूरि, आचार्य भुवनसुंदर सूरि, आचार्य जिनसुंदर सूरि, आचार्य जिनकीर्ति सूरि, आचार्य विशालराज सूरि, आचार्य रत्नशेखर सूरि, आचार्य उदयनंदी सूरि, महोपाध्याय सत्यशेखर गणी, महो. सूरसुंदर गणि आदि सुविशाल श्रमण - श्रमणी परिवार उपस्थित था। इसी प्रकार पोसीना के नगरसेठ विजयसिंह के दानवीर पुत्र गोपाल ने पोसीना में पार्श्वनाथ जी के 2 मंडपवाला जिनालय बंधवाया । आचार्य श्री जी ने उसकी प्रतिष्ठा वि.सं. 1477 में की। गोपाल सेठ के पुत्र अर्जुन ने भी वि.सं. 1491 में भगवान् ऋषभदेव जी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई। आचार्यश्री जी के उपदेश से सोनी संग्रामसिंह ने मांडवगढ़ में सुपार्श्वनाथ जी का, मक्षी महावीर पाट परम्परा 167 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पार्श्वनाथ जी का मंदिर बनवाया। उनमें से 21 जीर्णोद्धार आचार्यश्री द्वारा हुए। ईडर के नगरसेठ संघवी वत्सराज ओसवाल के पुत्र गोविंद ने आचार्यश्री की निश्रा में शत्रुजय, गिरनार, तारंगा आदि तीर्थों का संघ निकाला एवं वि.सं. 1479 में सोमसुंदर सूरि जी के हाथों तारंगा तीर्थ के कुमारविहार में अजितनाथ जी की नई प्रतिमा भराई। __ शास्त्रों की सुरक्षा हेतु भी सोमसुंदर सूरि जी प्रतिबद्ध थे। उनके सदुपदेश से सेठ धरमशी पोरवाड़ ने पाटण में ग्रंथभंडार स्थापित किया। उसके लिए वि.सं. 1474 में 1,00,000 श्लोक और वि.सं. 1481 में 2,00,000 श्लोकात्मक आगम आदि ग्रंथ लिखवाए। वि.सं. 1498 में उनकी प्रेरणा से 'जैन सिद्धांत भण्डार' की स्थापना की गई। चतुर्मुखी दिशा में जैनधर्म की जाहो-जलाली हो रही थी। शासन के विविध क्षेत्रों के कार्य आचार्यश्री ने सम्पन्न कराए। साहित्य रचना : आचार्य सोमसुंदर सूरि जी द्वारा रचित कृतियां इस प्रकार हैं1) आराधना रास (वि.सं. 1450) 2) उपदेशमाला बालावबोध (वि.सं. 1485) 3) षष्ठिशतक बालावबोध (वि.सं. 1496) 4) योगशास्त्र बालावबोध 5) भक्तामर स्तोत्र बालावबोध 6) आराधना पताका बालावबोध 7) षडावश्यक बालावबोध 8) नवतत्त्व बालावबोध (वि.सं.1502) . 9) अष्टादश स्तवी (वि.सं. 1490) ___10) आतुरप्रत्याख्यान टीका 11) आवश्यक नियुक्ति अवचूरि 12) इलादुर्गऋषभ-जिनस्तवन 13) चैत्यवन्दन सूत्र भाष्य टीका। 14) जिनकल्याणकादि स्तवन 15) जिनभव स्तोत्र 16) पार्श्व स्तोत्र 17) श्राद्धजीत कल्पवृत्ति 18) षट्भाषामय स्तव 19) सप्ततिका सूत्र-चूर्णि 20) साधु सामाचारी कुलक 21) यतिजीतकल्प रत्नकोश 22) अर्बुदकल्प नेमिनाथ नवरस (वि.सं. 1480) 23) स्थूलिभद्र फाग (वि.सं. 1491) 24) नवखंड पार्श्वनाथाष्टक महावीर पाट परम्परा 168 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25) शब्द नवस्तव 26) भाष्यत्रयचूर्णि आदि 27) चतुः शरण प्रकीर्णक संस्कृत अवचूरि विविध विषयों पर आचार्यश्री की लेखनी उनकी विद्वत्ता का परिचायक है। उनके ग्रंथों की शैली सरल, स्पष्ट एवं सुंदर थी एवं काव्यबद्ध रचनाएं भी भाषा के सौंदर्य से परिपूर्ण रही। संघ व्यवस्था : इनकी निश्रा में 1800 क्रियापात्र साधु विचरते थे। इनके अनेकानेक समर्थ शिष्य थे, जिनमें इनके पट्टधर आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी, 'कृष्णसरस्वती' बिरुद् धारक आचार्य जयसुंदर सूरि जी, महाविद्या विडम्बन टिप्पन लेखक आचार्य भुवनसुन्दर सूरि जी, दीपावली कल्प रचयिता आचार्य जिनसुंदर सूरि जी इत्यादि हैं। ___ आचार्यपद प्राप्ति के दिन से ही गच्छ के योग और क्षेम का दायित्व इन्होंने संभाला। अपने गच्छ में शिथिलाचार के उन्मूलन के लिए अनेक प्रकार के कदम उठाए। वि.सं. 1457 में क्रियोद्धारपरक कठोर कदम के रूप में साधुमर्यादा-पट्टक बनाया। जो उसका परिपालन नहीं करता था, उसे संघ से बहिष्कृत करने का सामर्थ्य उनमें था। चैत्यवास का भी खूब विरोध उन्होंने किया। साधु-साध्वी जी के 36 बोल इस प्रकार हैं1) ज्ञानाराधन हेतु प्रतिदिन 5 गाथा याद करना और क्रमवार गुरु समीपे अर्थ ग्रहण करना। 2) दूसरों को पढ़ाने हेतु 5 गाथा लिखनी और पढ़ने वाले को क्रमानुसार 5-5 गाथा पढ़ानी। 3) वर्षा ऋतु में 500, शिशिर ऋतु में 800, ग्रीष्म ऋतु में 300 गाथा का सज्झाय 4) नवपदात्मक नवकार मंत्र का प्रतिदिन 100 बार रटन करना। 5) एक वक्त 5 बड़े नमुत्थुणं का देववन्दन अथवा 2-3 वक्त यथाशक्ति आलसरहित देववंदन करना। 6) हर अष्टमी, चौदस के दिन निकटतम सभी मंदिर जुहारना और सभी मुनिभगवतों को वंदन करना। शेष दिनों में 1 जिनमंदिर तो अवश्य ही जाना। 7) हमेशा वडिल साधु को त्रिकाल वंदन करना और बीमार, वृद्धादि मुनियों की वैयावच्च महावीर पाट परम्परा 169 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना। 8) स्थंडिल-मात्रा जाने हेतु या आहारपानी वोहरने जाते रास्ते में ईर्यासमिति पालना। प्रमार्जनापूर्वक ही चलना अथवा 5 खमासमण की आलोचना लेना। 10) भाषासमिति पालना अथवा ईरियावहिय पूर्वक 1 लोगस्स की आलोचना। 11) प्रतिलेखना करते समय बोलना नहीं। 12) एषणासमिति पालना, धोवण वाला सचित्त जल नहीं लेना। ' 13) आदानभंडमत्तनिक्षेपणा समिति पालना। उपधि प्रमुख पूँजी प्रमार्जी भूमि पर स्थापित करना। 14) डांडा प्रमुख उपधि बदलें तो 1 आयंबिल अथवा 100 गाथा का सज्झाय करना। 15) पारिष्ठापनिका समिति पालना। भोजन परठते किसी जीव का नाश हो तो नीवि करना। 16) स्थंडिल, मात्रा वगैरह करने के परठने स्थान पर 'अणुजाणह जस्सुग्गहो' प्रथम कहना और परठने के बाद 3 बार 'वोसिरे' कहना। 17) मन/वचन रागाकुल हो तो 1 नीवि करना। काया की कुचेष्टा हो तो उपवास (आयबिल) करना। 18) बेइन्द्रिय प्रमुख जीवों की विराधना हो तो जितनी इन्द्रियाँ, उतने नीवि करना। 19) गुरु द्वारा गोचरी देखे बिना नहीं वापरना। 20) एक स्त्री के साथ वार्तालाप नहीं करना। 21) सूर्यास्त से 2 घड़ी पूर्व जलपान खत्म करना। रात्रि में उकाला-पानी न वापरना। 22) सूर्योदय के बाद सूर्य दिख जाने पर जलपान करना। अणाहारी औषधि भी उपाश्रय में रखना-रखवाना नहीं। 23) यथाशक्ति तपाचार पालना । योगवहन करे बिना अवग्रहित भिक्षा न लाना। 24) आयंबिल / नीवि में विगय नहीं वापरना अथवा आलोचना लेना। 25) उस दरम्यान 3 नीवी लगातार हो और विगई वापरने के दिन निवियातां ग्रहण न करना और 2 दिन लगातार खास कारण के बिना विगई नहीं वापरना। 26) प्रत्येक अष्टमी चौदस को यथाशक्ति उपवास करना। 27) प्रतिदिन द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का अभिग्रह लेना अथवा जीतकल्पानुसार प्रायश्चित। महावीर पाट परम्परा 170 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28) वीर्याचार यथाशक्ति पालना । पाँच गाथाओं के अर्थ का चिंतन करना । 29) संयम मार्ग प्रसादक महात्माओं से 5 हितशिक्षा ग्रहण करना व अन्यों को देना । हर रोज कर्मक्षय के हेतु 20-24 लोगस्स का काउसग्ग करना । 31 ) निद्रादि प्रमाद न करना । माण्डली के नियम का पालन करना । 30) 32) बाल साधु, ग्लान (बीमार ) साधु, वृद्ध साधु की पडिलेहन में सहायता करना । 33) उपाश्रय में प्रवेश करते समय निसीहि निकलते समय आवस्सहि कहना। नहीं तो जहाँ याद आए वहाँ नवकार मंत्र गिनना । 34-35) कार्य प्रसंगे वृद्ध साधुओं को 'हे भगवन् पसाय करी' और छोटे साधुश्री को 'इच्छकार ' कहने का भूल जाए, तो जब-जब याद आवे, तब-तब मिच्छामि दुक्कड़ कहना व वह भूल जावे, तो कोई याद दिलावे तो तुरंत नवकारमंत्र गिनना । 36 ) वडिल साधु के पूछे बिना कोई विशेष वस्तु लेना-देना नहीं इत्यादि । साधु मर्यादा पट्टक के उपरोक्त नियम अत्यंत संक्षेप में यहाँ लिखे हैं। सोमसुंदर सूरि जी विस्तृत रूप से इनका उल्लेख किया। इनके परिशीलन से ज्ञात होता है कि सामान्य साध . - साध्वी जी में शिथिलाचार इनता अधिक हो चुका था कि आचार्यश्री जी को श्रमण - श्रमणी वर्ग को उनके मौलिक मूलभूत समाचारी का पुनः स्मरण कराना पड़ा। इसके अनुसंधान से ज्ञात होता है कि इनसे पूर्व किन्हीं विजय चंद्र सूरि जी ने अपने साधु साध्वियों को अनेकों छूट दे दी, जैसे साधु को वस्त्रों के पोटले रखने की छूट हमेशा विगय वापरने की छूट वस्त्र धोने की छूट गोचरी में फल-सब्जी ग्रहण करने की छूट नीवि के पच्चक्खान में घी वापरने की छूट साध्वी द्वारा लाए आहार की साधु को वापरने की छूट गृहस्थों के साथ सदा प्रतिक्रमण करने की छूट महावीर पाट परम्परा 171 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लेप की सन्निधि रखने की छूट, इत्यादि। ये धीरे-धीरे इतने ज्यादा विस्तृत हो गई कि साधु-साध्वियों में पर्याप्त मात्रा में शिथिलाचार व्याप्त हो गया एवं इसी कारण सोमसुंदर जी को उन्हें सही मार्ग पर लाने हेतु ऐसे पट्टक की रचना कर उन्हें आगमानुसार आचरण करने का मार्गदर्शन व निर्देशन प्रदान किया। अन्य गच्छ वाले साधु-साध्वी जी भी प्रायश्चित्त लेने इनके पास आते थे। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं : . ___ आचार्य सोमसुंदर सूरि जी ने अनेकों स्थलों पर हजारों प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएं कराई। उस समय की प्रतिष्ठित प्रतिमाएं आज कुछ मूलस्थान पर ही हैं. एवं कुछ अन्यत्र पहुँच गई। भिन्न-भिन्न स्थलों पर उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं1) मुनिसुव्रत जिनालय, मालपुरा में प्राप्त मुनिसुव्रत स्वामी जी की पाषाण (पत्थर) प्रतिमा। (लेखानुसार ज्येष्ठ सुदि 5, वि.सं. 1470 में प्रतिष्ठित) 2) खरतरगच्छीय बड़ा मंदिर, तूलपट्टी, कलकत्ता में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की धातु की प्रतिमा। (लेखानुसार माघ वदि 11 रविवार वि.सं. 1475 में प्रतिष्ठित) . 3) कुंथुनाथ देरासर, वडनगर में प्राप्त अभिनंदन स्वामी जी की धातु की प्रतिमा। (लेखानुसार माघ वदि 4 वि.सं. 1479 में प्रतिष्ठित)। चिंतामणि जी का मंदिर, ग्वालियर में प्राप्त महावीर स्वामी जी की प्रतिमा (लेखानुसार फाल्गुन सुदि 3 शनिवार, वि.सं. 1482 में प्रतिष्ठित) कल्याण पार्श्वनाथ देरासर, वीसनगर में प्राप्त धर्मनाथ जी की धातु की जिनप्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 3 वि.सं. 1484 में प्रतिष्ठित) . बावन जिनालय, उदयपुर के भूगर्भ में संरक्षित प्राप्त नंदीश्वर पट्ट पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार वैशाख सुदि 3 बुधवार वि.सं. 1485 में प्रतिष्ठित। 7) जैन मंदिर, भीलडिया तीर्थ में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार मार्गशीर्ष वदि 5 गुरुवार वि.सं. 1488 में प्रतिष्ठित। 8) शांतिनाथ जिनालय, राधनपुर में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेख के महावीर पाट परम्परा 172 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार वैशाख सुदि 3 वि.सं. 1490 में प्रतिष्ठित) 9) अजितनाथ जिनालय, सिरोही में प्राप्त आदिनाथ जी की पंचतीर्थी प्रतिमा (लेख के अनुसार माघ सुदि 5, वि.सं. 1495 में प्रतिष्ठित) त्रैलोक्य दीपक प्रासाद, राणकपुर तो सर्वप्रसिद्ध ही है। इनके अलावा अहमदाबाद, आबू, अजमेर, भैंसरोगढ़, खेरालु, रतलाम, देलवाड़ा, चवेली, मेड़ता, पाटड़ी, खंभात, ईडर, जयपुर, बडोदरा, तारंगा, भरूच, मद्रास, पाटण, नाडोल, सांडेसर, करेड़ा, थराद, कोटा इत्यादि अनेकों-अनेकों जगह उनके द्वारा उस समय की प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं आज भी प्राप्त होती हैं और पूजी जाती हैं। कालधर्म : सोमसुंदर सूरि जी के विशुद्ध श्रमणाचार की कीर्ति चारों ओर प्रसारित हो गई। इससे शिथिलाचारी यति वर्ग के मन में उनके प्रति विद्वेषाग्नि प्रज्वलित हुई। यति वर्ग ने अपने विश्वस्त . उपासक से एक हिंसक प्रकृति के पुरुष को 500 टके (द्रव्य) का लालच देकर रात्रि के समय सोमसुंदर सूरि जी का प्राणान्त कर देने के लिए भेजा। वह व्यक्ति रात्रि में उपाश्रय में प्रविष्ट हुआ। एकान्त में सोए हुए आचार्यश्री जी पर शस्त्र से प्रहार करने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा, उसी समय निद्रा में करवट बदलते हुए सोमसुंदर सूरि जी ने अपने रजोहरण से अपने शरीर क़ा एवं पास की जगह का प्रमार्जन किया और करवट बदलकर सो गए। चंद्रमा के प्रकाश में यह अद्भुत दृश्य देखते ही वह पुरुष स्तब्ध रह गया। उसके मन में सहसा विचार आया - “जो महापुरुष निद्रित अवस्था में भी सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म जीव जंतुओं पर करुणा कर उन्हें रजोहरण से बचाने का प्रयत्न करता है, ऐसे करुणानिधान महान् संत का वध कर मैं निश्चित रूप से अनंतकाल तक दारुण दुःख भोगता रहूँगा। धिक्कार है मुझे!" __ आत्मग्लानि के भाव से भरकर वह पुरुष आचार्य श्री सोमसुंदर सूरि जी के चरणों में गिर गया। व्यक्ति का स्पर्श अनुभव कर आचार्यश्री जी जागे। व्यक्ति ने संपूर्ण वृत्तांत सुनाया और क्षमा माँगी। सूरिवर ने शांत, मधुर शब्दों में उस पुरुष को आश्वस्त कर सम्यक्त्व का बोध दिया। आचार्य श्री जी का संयमी जीवन एक आदर्श उदाहरण बना। अपने गच्छ में आगमोक्त चारित्र की यथासंभव परिपालना करवाते हुए नाडोल में वि.सं. 1499 (वि.सं. 1501) के चातुर्मास दररम्यान में आयुष्य कर्म के प्रभाव से कालधर्म को प्राप्त हुए। महावीर पाट परम्परा 173 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. आचार्य श्रीमद् मुनिसुंदर सूरीश्वर जी सहस्त्रावधानी सूरि मुनिसुंदर जी, साहित्य रत्न दातार। सरस्वती लब्ध प्रसाद गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ भगवान् महावीर की 51वीं पाट परम्परा पर विभूषित एवं अतिप्रसिद्ध संतिकरं स्तोत्र के रचयिता आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी सिद्धसारस्वत विद्वान् व्यक्तित्त्व थे। अपने अपरिमित ज्ञान के द्वारा इन्होंने श्रुतसागर के अनेक मोती हमें प्रदान किए। उनकी सूरिमंत्र की साधना भी अत्यंत दुष्कर थी, जिसके बल पर उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की। जन्म एवं दीक्षा : आचार्य विजय मुनिसुंदर सूरि जी का जन्म वि.सं. 1436 में शुभ नक्षत्र में हुआ। उनकी स्मरणशक्ति अपूर्व थी। सभी उनकी याद्दाश्त से अत्यंत प्रभावित थे। मात्र 7 वर्ष की अल्पायु में वि.सं. 1443 में उनकी दीक्षा हुई। बचपन से ही उन्हें ज्ञानार्जन में रुचि थी। पढ़ना और पढ़ते रहना ही उन्हें सबसे अधिक प्रिय लगता था। सभी गुरुदेवों को उनमें भविष्य का एक विद्वान् संत दिखता था। देवसुंदर सूरि जी के हाथों से इनकी दीक्षा हुई। ये सोमसुंदर जी के प्रमुख शिष्य और जयानंद सूरि जी के विद्याशिष्य थे। इनका नाम - 'मुनि मोहननंदन' रखा गया। शासन प्रभावना : अपने बुद्धिकौशल एवं स्मरणशक्ति के कारण वे सहस्त्रावधानी थे। सहस्त्रावधानी यानि एक हजार प्रश्नों को सुनकर उनको याद रखना एवं कोई भी संख्या बोलने पर उनके द्वारा उस नंबर के प्रश्न का उत्तर देना। तथा एक हजार नामों को धारण कर उन्हें उसी क्रम में सुनाना इत्यादि। मुनि मोहननंदन (मुनिसुंदर) तो 108 कटोरी की आवाज सुनकर उनमें भी भेद कर पाते थे, ऐसे प्रतिभासंपन्न थे। उन्हें उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया गया और वे उपाध्याय मुनिसुंदर के नाम से विख्यात हुए। मात्र 19 वर्ष की आयु में उन्होंने न्याय, व्याकरण और काव्य, ये 3 विषयों के परिचयात्मक 'त्रैवेद्यगोष्ठी' ग्रंथ लिखा। आचार्य सोमसुंदर सूरि जी ने वि.सं. 1478 तक किसी को भी पट्टधर स्थापित नहीं किया था। एक बार वडनगर निवासी सेठ देवराज श्रावक ने गुरुदेव को विनती की, "गुरुदेव! आप महावीर पाट परम्परा 174 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने पाट पर योग्य गच्छनायक की स्थापना कर लक्ष्मी के सदुपयोग का लाभ मुझे दो। " आचार्यश्री की दृष्टि मुनिमंडल पर गई एवं उपाध्याय मुनिसुंदर गणी पर दृष्टि स्थिर हुई। देवसुंदर सूरि जी के सेवा में 108 हाथ लंबा पत्र ' विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक काव्य मुनिसुंदर जी ने रचा जो सभी को सिद्धसेन दिवाकर जी की याद दिलाता था। वे सदा प्रसन्नचित्त रहते एवं सुविशुद्ध आचरण के धनी थे। अतः उनकी योग्यता को देखते हुए वड़नगर में महोत्सव करके सोमसुंदर सूरि जी ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया तथा अपने पाट पर स्थापित होने का महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा। उन्हें 'आचार्य मुनिसुंदर सूरि' नाम प्रदान किया गया। एक बार खंभात में विद्वसभा में उन्होंने अपने ज्ञान की गंगा प्रवाहित की । दक्षिण देश के किसी पंडित कवि ने उन्हें 'श्याम (काली) सरस्वती' का बिरूद प्रदान किया। वादकुशल होने से उन्हें 'वादिगोकुलसांड' का भी विशेषण दिया गया। आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी ने सूरिमंत्र की 24 बार विधिपूर्वक पीठिका सहित आराधना की। छट्ठ-अठ्ठम आदि तपस्या भी वे नियमित रूप से करते थे। सूरिमंत्र की सिद्धि एवं तपस्या के प्रभाव से देवी पद्मावती आदि देवियाँ - आचार्यश्री को प्रत्यक्ष थी एवं अनेकों बार वंदन करने आती थी। अपनी प्रतिबोधशक्ति के बल पर 24 बार उन्होंने चंपकराज आदि राजाओं से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के प्रजा पर लगे कर (टैक्स) माफ कराए व अमारि प्रवर्तन (जीवरक्षा) के विविध कार्य किए। सिरोही (वेलवाड़ा) में उत्पन्न दुष्ट देवी के मरकी रोग के उपद्रव को शांत करने हेतु प्राकृत में 13 गाथा वाले महाप्रभावक संतिकरं स्तोत्र की रचना की, जो आज भी देवसिअ प्रतिक्रमण में, प्रत्येक घर में बोला जाता है। यह रचना वि.सं. 1502 में की। साहित्य रचना : मुनिसुंदर सूरि जी द्वारा रचित अनेकों ग्रंथ, स्तवन आदि मिलते हैं। देवसुंदर सूरि जी को भेजा 108 हाथ लंबा महाविज्ञप्तिपत्र - त्रिदशतरंगिणी के नाम से विख्यात था। साहित्य के क्षेत्र में इसका स्थान अजोड़ है। इसमें प्रासाद, चक्र, कमल, सिंहासन, अशोक वृक्ष, भेरी इत्यादि चित्रों के साथ 3 स्तोत्र एवं 61 तरंगों के साथ उन्होंने इसकी रचना की थी किंतु आज उसमें से केवल 'गुर्वावली' नामक 500 श्लोक (गद्य) वाला विभाग प्राप्त हैं, जिसमें महावीर स्वामी से लेकर उनके समय तक के तपागच्छ के आचार्यों का संक्षिप्त वर्णन है। अपने ज्ञान से परिलक्षित महावीर पाट परम्परा 175 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं भाषा के सौंदर्य से परिपूर्ण उनकी अनेक कृतियां आज प्राप्त होती हैं। • त्रैविधगोष्ठी वि.सं. 1455 (ईस्वी सन् 1399) . अध्यात्म कल्पद्रुम वि.सं. 1484 • शांतसुधारस वि.सं. 1455 • त्रिदशतरंगिणी वि.सं. 1466 (ईस्वी सन् 1410) • चतुर्विशतिस्तोत्र - रत्नकोश वि.सं. 1455 (ईस्वी सन् 1398) . जयानंद चरित महाकाव्य (75000 श्लोक) वि.सं. 1483 (ईस्वी सन् 1427) मित्रचतुष्ककथा वि.सं. 1487 (ईस्वी सन् 1431) • उपदेशरत्नाकर (स्वोपज्ञ वृति सहित) वि.सं. 1493 (ईस्वी सन् 1437) संतिकरं (शांतिकर) स्तोत्र वि.सं. 1493/1503 • सीमंधर स्तुति, • पाक्षिक सत्तरी, . योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश पर बालावबोध, वनस्पति सत्तरी, • अंगुल सत्तरी, • जीरापल्ली-पार्श्वनाथ-स्तवन वि.सं. 1473 (ईस्वी सन् 1417) • शत्रुजय श्री आदिनाथ-स्तोत्रम् वि.सं. 1476 (ईस्वी सन् 1420) . गिरनारमौलिमंडन-श्री-नेमिनाथ स्तवन वि.सं. 1476 (ईस्वी सन् 1420) • सीमंधर स्वामि-स्तवनम् वि.सं. 1482 (ईस्वी सन् 1426) • श्रीजिनपति-द्वात्रिंशिका वि.सं. 1483 (ईस्वी सन् 1427) • चतुर्विशतिजिनकल्याणक स्तवनम्, वृद्धनगरस्थ - आदिनाथ स्तवनम्, इलादुर्गालंकार-श्रीऋषभदेव स्तवनम्, सारणदुर्ग-अजितनाथ-स्तोत्रम्, वर्धमानजिनस्तवनम् आदि इनकी रचनाएं हैं। वे 'सिद्धसारस्वत' के नाम से भी विख्यात थे। महावीर पाट परम्परा 176 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ व्यवस्था : आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी के अनेक प्रभावक शिष्य थे। आचार्य सोमसुंदर सूरि जी म. ने क्रियोद्धारपरक संघ संचालन की जिस व्यवस्था का पुनरूद्धार किया था, आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी ने भी उसी का अनुसरण करते हुए चतुर्विध संघ का कुशल संचालन किया। मुनिसुंदर सूरि जी के शिष्यों में विशालराज सूरि जी, महोपाध्याय लक्ष्मीभद्र गणि जी, उपाध्याय शिवसमुद्र गणि जी, पं. शुभशील गणि जी आदि अनेक साधु थे। इनकी पाट पर आचार्य रत्नशेखर सूरि जी विराजित हुए। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ : आचार्यश्री जी के करकमलों से प्रतिष्ठित अनेकों प्रभु प्रतिमाएँ आज यत्र-तत्र प्राप्त होती हैं। उनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं1). मनमोहन पार्श्वनाथ जिनालय, जीरारवाड़ो, खंभात में प्राप्त तीर्थंकर प्रभु की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 3 वि.सं. 1489 में प्रतिष्ठित) 2) पार्श्वनाथ देरासर, नाडोल में प्राप्त आदिनाथ (ऋषभदेव) जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख वदि 4 वि.सं. 1497 में प्रतिष्ठित) सुमतिनाथ मुख्यं बावन जिनालय, मातर में प्राप्त मुनिसुव्रत स्वामी की धातु प्रतिमा (लेखानुसार आश्विन सुदि 10 वि.सं. 1499 में प्रतिष्ठित) श्रीस्वामी जी का मंदिर, रोशनमोहल्ला, आगरा में प्राप्त चंद्रप्रभ स्वामी जी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 5, गुरुवार, वि.सं. 1500 में प्रतिष्ठित) शांतिनाथ जिनालय, देशनोंक में प्राप्त कुंथुनाथ जी की प्रतिमा (लेख के अनुसार वैशाख वदि 5, सोमवार, वि.सं. 1501 में प्रतिष्ठित) । भीडभंजन पार्श्वनाथ जिनालय, खेड़ा में प्राप्त शीतलनाथ जी चौबीसी प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 2, शनिवार, वि.सं. 1501 में प्रतिष्ठित) 7) जैनमंदिर, इतवारी बाजार, नागपुर में प्राप्त अभिनंदन स्वामी जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ सुदि 10 वि.सं. 1501 में प्रतिष्ठित) महावीर पाट परम्परा 177 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8) संभवनाथ, देरासर, झवेरीवाड़, अहमदाबाद एवं चंद्रप्रभ जिनालय, सेंडहर्स्ट रोड, मुंबई में प्राप्त आदिनाथ जी की धातु प्रतिमा (लेखानुसार आषाढ़ सुदि 2 वि.सं. 1501 में प्रतिष्ठित) 9) गोड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, उदयपुर में प्राप्त सुमतिनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार माघ वदी 5, गुरुवार, वि.सं. 1501 में प्रतिष्ठित) 10) चिंतामणि जी का मंदिर, बीकानेर में प्राप्त शांतिनाथ जी, विमलनाथ जी, मुनिसुव्रत __स्वामी की प्रतिमा (लेखानुसार माघ वदि 6 वि.सं. 1501 में प्रतिष्ठित) कालधर्म : संघ संचालन, साहित्य रचना एवं स्मारक निर्माण आदि कार्य करते हुए पूज्य आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी ने शासन की महती प्रभावना की। सहस्त्रावधानी आचार्य विजय मुनिसुंदर सूरि जी 67 वर्ष की आयु में कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा वि.सं. 1503 के दिन श्री चरणों में विलीन हो गए। उनकी जीवन ज्योति बुझ जाने पर भी उनकी साहित्य ज्योति ने सदा ही जिनशासन के लिए प्रकाश का सर्जन किया। अपनी पुण्य उपादेयता के बल पर आज भी सर्वत्र ‘संतिकर' का पठन करते हुए उनका नाम उच्चारण कर जिह्वा को पवित्र किया जाता है एवं तपागच्छ की ऐसी दिव्य विभूति को स्मरण किया जाता है। महावीर पाट परम्परा 178 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52. आचार्य श्रीमद् रत्नशेखर सूरीश्वर जी शासनरत्न आचार्य रत्नशेखर, साहित्य अपना अपार। श्रुतसेवा पूर्ण श्रुतसमर्पण, नित् वंदन बारम्बार॥ शासन नायक तीर्थंकर महावीर स्वामी की 52वीं पाट पर विभूषित आचार्य रत्नशेखर सूरि जी अमेय मेधा व अतुल विद्वत्ता के धनी थे। इनकी जिह्वा व कलम दोनों देवी सरस्वती के कृपा प्रासाद रहे। अपने साहित्य एवं हस्तप्रतिष्ठित स्मारकों के द्वारा इनका नाम शासन प्रभावना में अग्रणीय रहा। जन्म एवं दीक्षा : ____ इनका जन्म वि.सं. 1457 (मतांतर से 1452) में हुआ था। बाल्यकाल में आचार्य साधुरत्न सूरि जी महाराज के सामीप्य से इनमें वैराग्य के बीज अंकुरित हुए एवं उनकी दीक्षा की भावना वि.सं. 1463 में साकार हुई। इनकी दीक्षा आचार्य सोमसुंदर सूरि जी के हाथ से सम्पन्न हुई एवं इनका नाम 'मुनि रत्नचंद्र' रखा था। प्रखर बुद्धि के धनी मुनिश्री के ज्ञान के प्रति अनुराग-वश वे शीघ्र ही शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं गूढ़ ज्ञानी बने। शासन प्रभावना : ज्ञानार्जन के तीव्र उत्कंठा के कारण उन्होंने अनेक गीतार्थ गुरुदेवों के विद्या-शिष्य बन शास्त्राभ्यास में निपुण बने। आचार्य भुवनसुंदर सूरि जी, महोपाध्याय लक्ष्मीभद्र गणि जी आदि गीतार्थों को अपना शिक्षा गुरु बनाया व ज्ञान की पिपासा को तृप्त करते गए। बाल अवस्था में ही वे वाद विद्या में पारंगत हो गए। यौवन वय में एक बार उन्होंने दक्षिण के वादियों को परास्त कर दिया। इससे प्रभावित होकर खंभात के एक बांबी नामक विद्वान ने उन्हें 'बाल-सरस्वती' का बिरूद दिया। मुनि रत्नचंद्र विजय जी की विद्वत्ता एवं योग्यता देखते हुए वि.सं. 1483 में उन्हें पंडित पद दिया गया। देवगिरि (दौलताबाद) के बहुश्रुत श्रावक महादेव श्रेष्ठी की यथोचित विनती को स्वीकार कर वि.सं. 1493 में महोत्सवपूर्वक उन्हें वाचक (उपाध्याय) का पद प्रदान किया महावीर पाट परम्परा 179 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। वि.सं. 1502 में मुनिसुंदर सूरीश्वर जी ने योग्य मुहूर्त देखते हुए रत्नचंद्र जी को सूरि (आचार्य) पद पर विभूषित किया एवं नूतन नाम 'आचार्य रत्नशेखर सूरि' प्रदान किया। वि.सं. 1503 में विजय मुनिसुंदर सूरि जी का कालधर्म होने पर उन्होंने तपागच्छ के नायकत्व का दायित्व उनके कंधों पर आया। दशवैकालिक सूत्र की वि.सं. 1511 में लिखी गई प्रति की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनके उपदेश से हाथादि परिवार ने 1,00,000 श्लोक प्रमाण ग्रंथों का प्रतिलेखन कराया था। इन्हीं के उपदेश से वि.सं. 1515 में श्रावक जइत्ता और उसकी पत्नी जयतलदेवी द्वारा विद्वद्जनों के पढ़ने के लिए 'पुष्पमाला प्रकरण' की प्रतिलिपि कराई गई। अनेकों क्षेत्रों के राजाओं को इन्होंने प्रतिबोधित किया व धर्म के मार्ग पर अनुरक्त किया। पालीताणाा, राणकपुर आदि तीर्थों पर छ:री पालित संघ लेकर गए तथा सदुपदेश से योग्य स्थलों के जीर्णोद्धार कराए। साहित्य रचना : आचार्य विजय रत्नशेखर सूरि जी का ज्ञान एवं भाषा के ऊपर उनका आधिपत्य उनके द्वारा रचित-संकलित-संपादित साहित्य में परिलक्षित होता है। उनके द्वारा रचित विभिन्न कृतियों में प्रमुख इस प्रकार हैं1) श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र पर अर्थदीपिका नामक वृत्ति (इसका संशोधन उपाध्याय श्री लक्ष्मीभद्र गणि जी ने किया था।) श्राद्धविधि ग्रंथ की विधिकौमुदी नामक वृत्ति (वि.सं. 1506) आचार प्रदीप (4065 श्लोक प्रमाण वि.सं. 1516 में लिखा स्वतंत्र ग्रंथ, जिनहंस गणि जी ने प्रणयन व संशोधन में सहायता की) 4) रत्नचूड़रास (वि.सं. 1510 के आसपास) 5) षडावश्यक वृत्ति 6) लघुक्षेत्रसमास-अवचूरि 7) हैमव्याकरण-अवचूरि 8) प्रबोध-चंद्रोदय-वृत्ति 9) मेहसाणा-मंडन-पार्श्वनाथ स्तवन 10) नवखंड पार्श्वनाथ जिन स्तवन महावीर पाट परम्परा 180 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11) अर्बुदाद्रिमंडन पार्श्वनेमि-स्तवन 12) चतुर्विशति जिन स्तवन आचार्यश्री जी की भाँति उनके शिष्य भी साहित्य रचना में कुशल थे। उनकी उपस्थिति में ही रचे गए उनके शिष्य सोमदेव विजय जी कृत कथामहोदधि, सिद्धांत स्तव आदि ग्रंथ प्राप्त होते हैं इत्यादि। श्राद्धप्रतिक्रमण वृत्ति, श्राद्धविधि वृत्ति एवं आचार प्रदीप अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है एवं आज भी विस्तृत रूप से उपयोग किए जाते हैं। श्राद्धविधि की टीका की प्रशस्ति में उन्होंने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उपकारी अनेकों गुरुदेवों का नामोल्लेख किया है एवं कहा है एषां श्रीसुगुरुणां, प्रसादतः षट्खतिथिमिते (1506 ) वषे। . श्राद्धविधिसूत्रवृत्तिं, व्यधित श्रीरत्नशेखरः सूरिः॥ अर्थात् - यह कृति उन्हीं सुगुरुदेवों के आशीष रूपी प्रसाद का फल है। यह उनकी लघुता प्रदर्शित करता है। लुका मत उत्पत्ति : आचार्य रत्नशेखर सूरि जी के समय में वि.सं. 1508 में लोंकाशाह द्वारा जिनप्रतिमा का विरोधी 'लुकामत' प्रवृत्त हुआ। लोकाशाह अहमदाबाद में लहिया (नकल नवीज़) के रूप में नाणावटी का तथा लिखने का धंधा करता था। ज्ञानजी नामक यति के पास उपाश्रय में शास्त्रों के नकल कर आजीविका चलाता था। वह आगमों की दो-दों नकलें करके एक यति जी को देता था एवं एक स्वयं रखता था। एक बार उसने एक ग्रंथ की लिखाई में 7 पन्नों में गड़बड़ की और संयोगवश उसकी आजीविका के साढ़े सात दोकड़े देने शेष रह गए। लोंकाशाह और श्रावकों के बीच आपस में तकरार हो गई। यतियों ने कहा, पैसे देने का कार्य श्रावकों का है। लोकाशाह अत्यंत क्रुद्ध हुआ। साधुओं की निंदा करते हुए अपने अपमान का कड़वा घूट पीकर वह बाजार में एक हाट पर आकर बैठ गया। एक मुसलमान मित्र से उसकी चर्चा हुई, जिससे लोंकाशाह की बुद्धि में विकार हुआ। अतः उसने प्रतिमा पूजन का, हिंसक क्रिया काण्डों का, यतिओं के अनुचित आचरण का विरोध चालू किया। उसने जो आगमों का लेखन खुद किया था, उसमें से मूर्तिपूजा के पाठ निकाल दिए तथा अन्य पाठों के मनः कल्पित अर्थ किए। जिन क्षेत्रों में जैन साधु-साध्वी जी का विचरण नहीं हो पा रहा था, उन क्षेत्रों में अनेकों लोगों को मूर्तिपूजा के विमुख बनाया। महावीर पाट परम्परा 181 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ इस प्रकार धीरे-धीरे लोंकाशाह ने मूर्तिविरोधक लुकामत प्रवृत्त किया। लोंकाशाह ने स्वयं दीक्षा नहीं ली। लुकामत में वि.सं. 1533 में 'भाणा' नामक प्रथम साधुवेशधारी हुआ। इस परम्परा के कई वर्षों बाद लवजी ऋषि ने मुख पर मुंहपत्ती बांधने का साधु का नियम बनाया। उस समय चैत्य मानने वालों की संख्या 7 करोड़ की थी एवं अनेक गच्छों में बड़े-बड़े विद्वान धर्मप्रभावक आचार्य विद्यमान थे - तपागच्छाचार्य रत्नशेखर सूरि जी - उपकेशगच्छाचार्य देवगुप्त सूरि जी - अंचलगच्छाचार्य जयसिंह सूरि जी - खरतरगच्छाचार्य जिनचंद्र सूरि जी आगमगच्छाचार्य हेमरत्न सूरि जी - नागेन्द्रगच्छाचार्य गुणदेव सूरि जी - पूर्णिमियगच्छाचार्य साधुसिंह सूरि जी - मलधारीगच्छाचार्य गुणनिर्मल सूरि जी - सांडेरावगच्छाचार्य शांति सूरि जी - निवृत्तिगच्छाचार्य माणकचंद्र सूरि जी - पालीवालगच्छाचार्य यशोदेव सूरि जी - विद्याधरगच्छाचार्य हेमचंद्र सूरि जी आदि . निश्चित रूप से किसी भी आचार्य को अंदेशा नहीं हुआ होगा कि लुंकामत भविष्य में इतना विशाल रूप धारण करेगा एवं स्थानकवासी संप्रदाय का रूप लेगा। . प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं : ___ प.पू. आचार्य रत्नशेखर सूरि जी महाराज द्वारा प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं आज अनेकों स्थलों पर यत्र-तत्र प्राप्त होती है। काल के प्रभाव से वे मूर्तियां भिन्न-भिन्न जगहों पर मिलती हैं। कुछ इस प्रकार हैं1) सुपार्श्वनाथ जी का पंचायती बड़ा मंदिर, जयपुर में प्राप्त कुंथुनाथ जी का पंचतीर्थी प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख वदि 5 वि.सं. 1502 में प्रतिष्ठित) 2) आदिनाथ जिनालय, थराद में प्राप्त विमलनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार माघ सुदि 13 वि.सं. 1503 में प्रतिष्ठित) चंद्रप्रभ जिनालय, कोटा में प्राप्त अजितनाथ जी की धातु की पाँचतीर्थी प्रतिमा (लेखानुसार फाल्गुन सुदि 9 वि.सं. 1506 में प्रतिष्ठित) शांतिनाथ जिनालय, हनुमानगढ़ में प्राप्त नमिनाथ जी की चौबीसी प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ वदि 7 गुरुवार वि.सं. 1507 में प्रतिष्ठित) महावीर पाट परम्परा 182 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5) बड़ा जैन मंदिर, लीम्बड़ी व आदिनाथ जिनालय, वासा में प्राप्त चंद्रप्रभ जी, संभवनाथ जी की क्रमशः प्रतिमाएं (लेखानुसार वैशाख सुदि 3 वि.सं. 1508 में प्रतिष्ठित) पार्श्वनाथ देरासर, साणंद में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की धातु प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ वदि 5 वि.सं. 1509 में प्रतिष्ठित) 7) बालावसही, शत्रुजय में प्राप्त आदिनाथ (ऋषभदेव) जी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 2 वि.सं. 1510 में प्रतिष्ठित) 8) पार्श्वनाथ जिनालय, लश्कर, ग्वालियर में प्राप्त संभवनाथ जी की प्रतिमा (लेख के अनुसार फाल्गुन सुदि 9 रविवार वि.सं. 1511 में प्रतिष्ठित) आदिनाथ जिनालय, पूना में प्राप्त मुनिसुव्रत स्वामी जी की धातु की प्रतिमा (लेख अनुसार पौष सुदि 10 बुधवार वि.सं. 1513 में प्रतिष्ठित) कालधर्म : 54 वर्ष का उग्र संयम पर्याय पालते हुए स्थान-स्थान पर जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए पूज्यश्री जी का वि.सं. 1517 में कालधर्म हुआ। वे अत्यंत मधुर एवं कठोर चारित्र के पालक थे। उनके देहावसान से जैन संघ में शोक की लहर दौड़ पड़ी। इनकी पाट पर विराजमान होकर आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी ने तपागच्छ का नेतृत्त्व स्वीकार किया। . . . . . महावीर पाट परम्परा 183 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. आचार्य श्रीमद् लक्ष्मीसागर सूरीश्वर जी सरल स्वभावी - सरस प्रभावी, सुयोग्य संघ संचार । आत्मलक्ष्मीधनी सूरि लक्ष्मीसागर, नित् वंदन बारम्बार ॥ नीरक्षीरविवेकी एवं हंसदृष्टि के पारगामी, प्रशान्तस्वभावी आचार्य विजय लक्ष्मीसागर सूरि जी भगवान् महावीर की पाट परम्परा के क्रमिक 53वें पट्टधर हुए। अपने ज्ञान सागर से आत्म लक्ष्मी का साक्षात्कार कर उन्होंने सिद्धांत प्रचार के उद्देश्य से अप्रतिम संघ व्यवस्था करके युगप्रधानसम जिनशासन के अनेक कार्य सम्पन्न कराए। जन्म एवं दीक्षा : भाद्रपद वदि 2 वि.सं. 1464 में अश्विनी नक्षत्र तथा कुंभ लग्न में गुजरात के उमता (उमापुर) गाँव में सेठ करमशी की पत्नी कर्मादेवी की कुक्षि से एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। उसका नाम 'देवराज' रखा गया । बालावस्था से ही मुनि भगवंतों के परिचय एवं आने-जाने से बालक को वैराग्य का भाव उत्पन्न हुआ । पूर्वभव के उच्च संस्कारों के कारण ओघे और पात्रे ही देवराज को अपने खिलौने लगते थे। माता की आज्ञा से शिशु आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी की सेवा में रहने लगा । छह वर्ष की आयु में पाटण नगर में वि.सं. 1470 में माता की आज्ञा से बालक दीक्षा ग्रहण की। उनका नाम 'मुनि लक्ष्मीसागर' रखा गया। शासन प्रभावना : बालवय में दीक्षा लेकर कुशाग्र बुद्धि के धनी मुनि लक्ष्मीसागर अहर्निश ज्ञानसाधना एवं आत्मोत्थान में अग्रसर रहे । सिद्धांत चर्चा में बाखत में वादियों को परास्त किया तथा जीर्णदुर्ग के राजा महीपाल को प्रभावित किया । विवाहप्रज्ञप्ति ( भगवती सूत्र ) के योगोद्वहन के पश्चात् 1478 में गणिपद प्राप्त कर लेने के बाद वि. सं. 1489 में आचार्य श्री सोमसुंदर सूरि जी ने देवगिरि में महादेव शाह के महोत्सव के दौरान पंन्यास (पंडित) पद प्रदान किया। आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी ने वि.सं. 1501 में मुंडस्थल में उपाध्याय पद प्रदान किया। उनकी ही भावना को मूर्तरूप देते महावीर पाट परम्परा 184 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए आचार्य रत्नशेखर सूरि जी एवं आचार्य उदयनंदि सूरि जी ने मेवाड़ के मज्जापद्र (मजेरा) में वि.सं. 1508 में आचार्य पद प्रदान किया। उनका नाम 'आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि' रखा गया एवं इस महोत्सव का संपूर्ण लाभ संघपति भीम श्रावक ने लिया । आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी का व्यक्तित्त्व अत्यंत शांत था। किसी भी प्रकार की कलह, राजनीति इत्यादि से वे दूर रहते थे। वि.सं. 1517 में पूज्य श्री के गच्छनायक बनने पर खंभात नगर में रत्नमंडन सूरि जी व सोमदेव सूरि जी ने गच्छभेद कर लिया व अलग-अलग पक्ष बना लिये। सबको एक करने के महनीय प्रयास लक्ष्मीसागर सूरि जी ने किए । आचार्य रत्नशेखर सूरि जी के कालधर्म उपरांत ईडर के सेठ श्रीपाल और वड़नगर के सेठ महादेव ने विशाल उत्सव करके संघ की आज्ञा व साक्षी से तपागच्छ का नायकत्व प्रदान किया एवं उपस्थित आचार्य उपाध्याय - पंन्यास - मुनि- महत्तरा - प्रवर्तिनी - साध्वीजी - श्रावक-श्राविका आदि संघ ने उन्हें 'युगप्रधान ' की संज्ञा से अभिहित किया । आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी महाराज की वाणी मध ता से परिपूर्ण थी एवं उनका मुख तपस्या के तेज से ओत-प्रोत था । गुजरात, मारवाड़ आदि क्षेत्रों में योग्य समय विचरण करने से बहुत श्रीमंत श्रावक इनके भक्त बने एवं इनके करकमलों से प्राण-प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्य कराए । आचार्यश्री जी के उपदेशों से प्रेरित होकर गिरिपुर ( डुंगरपुर) के उपकेश जाति के श्रावक शाह साल्ह ने 120 मण पीतल की जिनमूर्ति बनवाकर आचार्यश्री जी से प्रतिष्ठा कराई। मांडवगढ़ के निवासी संघपति चंद्रसाधु (चांदा शाह) ने 72 काष्ठमय ( लकड़ी के ) जिनालय एवं धातु के 24 तीर्थंकरों के पट्ट आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी की प्रेरणा से बनवाए । अन्यान्य जगहों पर प्रतिष्ठा तथा प्रतिबोध करते हुए शासन की प्रभावना करते हुए वे विचरते रहे। साहित्य रचना : वर्तमान समय में आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी की एक कृति मिलती है - 'वस्तुपाल रास' जो भाषा, व्याकरण, प्रामाणिकता, परिपूर्णता की दृष्टि से एक सुन्दर रचना मानी जाती है। इनके सदुपदेश से अहमदाबाद के एक गृहस्थ ने प्रज्ञापना सूत्र की प्रतिलिपि तैयार की थी। संघ व्यवस्था : आचार्य श्री लक्ष्मीसागर सूरि जी की आज्ञा में हजारों साधु-साध्वी जी का विशाल संघ महावीर पाट परम्परा 185 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौजूद था। वि.सं. 1522 में 'गच्छ-परिधापनिका' महोत्सव में उन्होंने अनेक योग्य साधुओं की आचार्य पद, वाचक (उपाध्याय) पद, पंडित (पंन्यास) पद आदि प्रदान किए तथा अलग-अलग जिम्मेदारियां विभाजित कर श्रीसंघ की समुचित सुंदर व्यवस्था की। सोमचारित्र गणी जी द्वारा रचित 'गुरुगुणरत्नाकर' ग्रंथ के अनुसार आचार्यश्री जी की निश्रा में जो प्रमुख गुरुदेव थे, वे इस प्रकार है - - आचार्य सुधानंदन सूरि जी आदि 29 - आचार्य शुभरत्न सूरि. जी आदि 14 - आचार्य सोमजय सूरि जी आदि 25 - आचार्य जिनसोम सूरि जी आदि 15 - आचार्य जिनहंस सूरि जी आदि 39 - आचार्य सुमतिसुंदर सूरि जी आदि 53 - आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी आदि 57 - आचार्य राजप्रिय सूरि जी आदि 12 - आचार्य इन्द्रनन्दी सूरि जी आदि 11 - उपा. महीसमुद्र जी आदि 29 - उपा. लब्धिसमुद्र जी आदि 31/27 - उपा. अमरनन्दी जी आदि 27 - उपा. जिनमाणिक्य जी आदि 31/21 - उपा. धर्महंस जी आदि 12 - उपा. आगममंडन जी आदि 12 - उपा. गुणसोम जी आदि 11 - उपा. अनंतहंस जी आदि 12 - उपा. संघसाधु जी आदि 14 यह सूची अत्यंत बृहद् है। हम एक पल को विचारे जिनशासन का कितना ठाठ होता होगा, उस समय जब तपागच्छ के एकसूत्रीय साम्राज्य में ऐसे विद्वान् सामर्थ्यवान् भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विचरण कर जिनवाणी की सिंहगर्जना करते होंगे। पाटण के सेठ छाडा पोरवाल के वंश में उत्पन्न हुई कुमारी पुरी को भी आचार्यश्री जी ने एकबार आशापल्ली गाँव में दीक्षा दी और नाम साध्वी सोमलब्धि श्री रखा। गच्छ परिधापनिका महोत्सव में श्रमणी संघ को भी अत्यंत आदर सहित विभूषित किया गया। आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी ने साध्वी सोमलब्धि आदि 8 साध्वियों को 'प्रवर्तिनी' पद प्रदान किया तथा साध्वी उदयचूला श्री को 'महत्तरा' पद से विभूषित किया। उस काल में सब जगह 'जैनम् जयति शासनम्' का उद्घोष हो रहा था। हर आयाम से जैन संघ समृद्धि एवं विस्तार को प्राप्त था। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ : महावीर पाट परम्परा 186 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी ने शताधिक स्थानों पर सहस्त्राधिक जिनप्रतिमाओं की अंजनशलाका-प्राणप्रतिष्ठा कराई। आज भी सैंकड़ों स्थानों पर तीर्थंकरों की प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं, जिनकी स्थापना आचार्यश्री जी ने कराई थी तथा काल के प्रभाव से उनका मूल प्रतिष्ठा स्थान ज्ञात नहीं । वि.सं. 1513 से लेकर 1542 तक प्रतिष्ठित प्राप्त प्रतिमाओं में से कुछ इस प्रकार है 1) नौघरे का मंदिर, चांदनी चौक, दिल्ली में प्राप्त शांतिनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 8, वि.सं. 1517 में प्रतिष्ठित ) 2) 3) जैन मंदिर, गांभू में प्राप्त पद्मप्रभ स्वामी जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ सुदि. 3, शनिवार वि. सं. 1519 में प्रतिष्ठित ) 5) 6) 7) 8) आदिनाथ जिनालय, सेलवाड़ा गाँव में प्राप्त नमिनाथ जी की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा (लेखानुसार फाल्गुन वदि 5, वि.सं. 1518 में प्रतिष्ठित ) 9) श्री आदिनाथ जिनालय, पूणे में प्राप्त सुमतिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 10 रविवार वि. सं. 1521 में प्रतिष्ठित) नेमिनाथ जी का पंचायती बड़ा मंदिर, अजीमगंज में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख वदि 4 गुरुवार वि. सं. 1523 में प्रतिष्ठित ) पटना के जिनमंदिर में प्राप्त वासुपूज्य स्वामी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 13 वि.सं. 1524 में प्रतिष्ठित ) नेमिनाथ जिनालय, आगरा व संभवनाथ देरासर, पादरा में प्राप्त सुपार्श्वनाथ जी की पंचतीर्थी प्रतिमा (लेखानुसार वि.सं. 1525 में प्रतिष्ठित ) कुंथुनाथ प्रासाद, अचलगढ़ में प्राप्त श्री कुंथुनाथ जी की जिनप्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 8 वि.सं. 1527 में प्रतिष्ठित ) आदिनाथ जिनालय, वासा में प्राप्त वासुपूज्य जी, मुनिसुव्रत स्वामी, आदिनाथ जी की प्रतिमाएं (लेखानुसार कार्तिक सुदि 9 वि.सं. 1532 में प्रतिष्ठित ) 10) जैन मंदिर, वजाणा एवं बालावसही, शत्रुंजय में प्राप्त सुमतिनाथ जी की धातुप्रतिमा (लेखानुसार पौष वदि 9 वि.सं. 1535 में प्रतिष्ठित) महावीर पाट परम्परा 187 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11) सेठ चांदमल का देरासर, जैसलमेर में प्राप्त सुमतिनाथ जी की धातु की पंचतीर्थी मूर्ति (लेखानुसार वैशाख सुदि 5 बुधवार वि.सं. 1537 में प्रतिष्ठित) 12) आदिनाथ जिनालय, नागपुर में प्राप्त आदिनाथ जी की धातु की चौबीसी प्रतिमा (लेखानुसार माघ सुदि 10 रविवार वि.सं. 1542 में प्रतिष्ठित) अहमदाबाद, थराद, पाटण खंभात, बीकानेर, किशनगढ़, कड़ी, ऊँझा, नागौर, पाटड़ी, बड़ौदा, मुर्शिदाबाद, रतलाम, अमरावती, जयपुर, अजमेर, ईडर, नदियाड़, छाणी, खेड़ा, माणसा, उदयपुर, सैलाना, लखनऊ, मंडार, वीसनगर, कोटा, मुंबई, मालपुरा, दाहोद, सवाई माधोपुर, जामनगर, महिमापुर, बीजापुर आदि सैंकड़ों जगह अच्छी मात्रा में लक्ष्मीसागर सूरि जी के अभिलेख वाली प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं। कालधर्म : जिनशासन की सर्वत्र जय-जयघोष करते हुए विशुद्ध संयम की परिपालना करते हुए 83 वर्ष की आयु में समाधिपूर्वक वि.सं. 1547 में उनका कालधर्म हुआ। गच्छ की सुंदर व्यवस्था के सर्जन एवं गच्छ भेद का निवारण कर एकता का शंखनाद कर लक्ष्मीसागर सूरि जी का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता था। उनके देवलोकगमन से श्रीसंघ से मानो वृक्ष की छाया विहीन हो गई। उनके पट्ट पर सर्वसहमति से पूज्य आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी को स्थापित किया गया। महावीर पाट परम्परा 188 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. आचार्य श्रीमद् सुमतिसाधु सूरीश्वर जी कुमतिनिवारक, सुमतिप्रदायक, अपश्चिम अणगार। आचार्यदेव श्री सुमतिसाधु, नित् वंदन बारम्बार॥ शान्त स्वभावी, सूरिमंत्र समाराधक सुमतिसाधु सूरि जी भगवान् महावीर की 54वीं पाट पर विराजमान हुए एवं अपने गुरुदेवों द्वारा प्रदत्त तपागच्छ के योग क्षेम के कर्त्तव्य को निभाया। इस काल में साधु-साध्वी जी समुदाय में धीरे-धीरे शिथिलाचार प्रवेश करना आरंभ हो चुका था, तदुपरान्त भी आचार्यश्री जी ने कुशल संवहन किया। जन्म एवं दीक्षा : मेवाड़ प्रदेश के जावरा नामक गाँव में सेठ गजपति की धर्मपत्नी-संपूरी देवी रहते थे। वहां श्री शांतिनाथ जी का सुंदर देरासर था। संपूरी देवी ने अपनी रत्नकुक्षि से एक रत्न समान बालक को जन्म दिया। गर्भ के प्रभाव से माता को शत्रुजय यात्रा, साधर्मिक वात्सल्य आदि के स्वप्न आए थे। वि.सं. 1494 में जन्में उस बालक का नाम नपराज रखा गया। अपनी मेधावी छवि एवं सौम्य प्रकृति के कारण वह बालक संपूर्ण गाँव का वात्सल्य पात्र बन चुका था। - आचार्य रत्नशेखर सूरि जी म.सा. की प्रवचन प्रभावना व संयम पालना के प्रभाव से बालक के हृदय में भी वैराग्य के बीच अंकुरित हुए। माता-पिता बालक की दीक्षा से विचलित हो गए लेकिन आचार्यश्री ने समझाया कि तुम्हारा पुत्र अभी कुल दीपक है व गाँव का वात्सल्य पात्र है। अगर यह दीक्षा लेता है तो निश्चित शासन का दीपक तथा संपूर्ण चतुर्विध संघ का वात्सल्य पात्र बनेगा। वि.सं. 1511 में 17 वर्ष की युवावस्था में बालक की दीक्षा हुई एवं उसका नाम 'मुनि सुमतिसाधु' रखा गया। शासन प्रभावना : मुनि सुमतिसाधु दीक्षा पश्चात् सेवा और स्वाध्याय में अग्रसर रहे। इनकी योग्यता को देखते हुए आचार्य रत्नशेखर सूरि जी ने पाटण में इन्हें पंन्यास पदवी से अलंकृत किया। महोत्सव का संपूर्ण आयोजन पाटण के शिवराज शाह ने किया। वि.सं. 1518 में दीक्षा के सातवें वर्ष में ही आचार्य लक्ष्मीसागर सूरि जी ने आचार्य पद प्रदान किया एवं इनका नाम - 'आचार्य महावीर पाट परम्परा 189 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुतिसाधु सूरि' रखा गया। उनके कालधर्म के उपरांत तपागच्छ के नायक के रूप में इन्होंने अपने दायित्व का कुशल वहन किया। इनके आचार्य पद / गच्छनायक पद प्रदान महोत्सव का संपूर्ण आयोजन सेठ सायर कोठारी एवं श्रावक श्रीपाल ने किया। वटपल्ली नगर में श्री शामला पार्श्वनाथ जी की छत्रछाया में साधनारत् रहकर इन्होंने 3 महीने तक विधिपूर्वक सूरिमंत्र की समाराधना की। उसमें भी कोई एक सफेद वस्तु के भोजन से ही आयंबिल की कठोर तपस्या करते थे। इसके प्रभाव से अधिष्ठायक देव ने प्रत्यक्ष होकर शासन प्रभावना में गुरुदेव की सहायता की। एक बार आचार्यश्री जी का प्रवेश मंडपदुर्ग नामक नगर में हुआ। शाह जीउजी ने वहाँ आचार्यश्री समुतिसाधु सूरि आदि साधु-साध्वी वृंद का भव्यातिभव्य प्रवेश करवाया। उस सेठ को प्रतिबोध देकर आचार्यश्री ने वस्तुतः सही अर्थ में जिनधर्म से जोड़ा। सेठ ने 11 शेर वजन की सुवर्ण (सोने की) प्रतिमा एवं 22 शेर वजन की चांदी का भव्य प्रतिमाजी निर्मित कराई एवं सुमतिसाधु सूरि जी से प्रतिष्ठित कराई। ऐसी रोचक बातों का वर्णन पं. लावण्यसमय गणि जी कृत 'सुमतिसाधुसूरि विवाहलो' ग्रंथ में है। श्री सुमतिसाधु सूरि जी शांत प्रवृत्ति के तथा सादगी प्रिय थे। अपने गच्छ में किसी प्रकार का क्लेश उन्हें पसंद नहीं थे। उग्र तपस्या के प्रभाव से उनके पास संयम जीवन की विशिष्ट शक्तियां रही। महीने की पाँचों पर्वतिथि को वे आयंबिल करते थे। उन्होंने अनेक अवसर पर वर्धमान तप आयंबिल की ओली की दुष्कर आराधना की। ग्रामानुग्राम जिनशासन की महती प्रभावना कर अनेक शिष्यों को उन्होंने तैयार किया। साहित्य रचना : आचार्य सुमतिसाधु सूरीश्वर जी की अधिक कृतियां प्राप्त नहीं होती हैं। उनकी दो प्रमुख रचनाएं हैं - दशवैकालिक सूत्र आगम की लघु टीका एवं सोमसौभाग्यकाव्य जिसमें उन्होंने अपने पूर्वाचार्य श्री सोमसुंदर सूरि जी का जीवन चरित्र पद्यबद्ध तरीके से सुंदर रूप में प्रस्तुत किया है। संघ व्यवस्था : तपागच्छ में किसी प्रकार के अंतरंग भेद उत्पन्न न हो एवं विरोध के स्वर प्रकट न हो, महावीर पाट परम्परा 190 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा पूर्ण प्रयत्न आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी ने किया। इनकी आज्ञा में 9 आचार्य, अनेकों उपाध्याय, पंन्यास आदि थे। इन्होंने 600 भव्य आत्माओं को दीक्षा दी। इनके परिवार में कुल 1800 साधु थे। सर्वगणि जी, अमर गणि जी, कमल गणि जी आदि अनेक समर्थ साधु इनके शिष्य थे। इनके काल में साधु-साध्वी जी के आचार में अवांछनीय परिवर्तन आने चालू हो गए थे। समय के प्रभाव से सुविधावाद के कारण आचार शिथिलता की ओर बढ़ता जा रहा था। आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी ने उसका यथाशक्ति निवारण कर स्वयं को सदा आदर्श रूप में स्थापित किया। वि.सं. 1551 में आचार्य श्री जी खंभात पधारे। आपसी मतभेद के कारण आचार्य विजय इन्द्रनन्दी सूरि जी, आचार्य कमलकलश सूरि जी किसी अन्य को पट्टधर बनाने पक्ष में नहीं थे। किंतु अपना उत्तराधिकारी चुनने का निर्णय गच्छाचार्य का स्वतंत्र होता है। सुमतिसाधु सूरि जी सावधान हो गए। उन्हें अंदेशा हो गया कि नूतन पट्टधर के कारण गच्छभेद न हो। ____ आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी ने सूरिमंत्र की आराधना प्रारंभ की। अधिष्ठायक देव की ओर से उन्हें संकेत आया। ग्रंथों के अनुसार देवता ने द, न, आ - ये तीन अक्षर प्रदान किये। इस हिसाब से आचार्य दानधीर सूरि का विचार सुमतिसाधु सूरि जी को आया किंतु उसके 6 महीने में ही दानधीर सूरि जी का आकस्मिक कालधर्म हो गया। अतः सुमतिसाधु सूरि जी ने “अंकाना वामतो गतिः" इस न्याय के अनुक्रम से सर्व प्रकार से योग्य जानकर आचार्य हेमविमल सूरि जी को ही अपना क्रमिक उत्तराधिकारी घोषित किया एवं अन्तोत्गत्वा आचार्य आनंदविमल सूरि जी भविष्य में क्रियोद्धार करेंगे, यही भावना रखी। आचार्य इन्द्रनन्दी सूरि जी से कुतुबपुरागच्छ एवं आचार्य कमलकलश सूरि जी से कमलकलश गच्छ निकला। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ : जिनमंदिर-जिनप्रतिमाओं की स्थापना एवं उनके रक्षण के लिए आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी ने अनेक कार्य किए। इतिहास बताता है कि संघपति जावड़ ने 84 हजार चौखंडा (मुद्रा) खर्च कर उनका प्रवेश मांडवगढ़ में कराया और 11 लाख चौखंडा (मुद्रा) खर्च कर उनके हाथ में महावीर पाट परम्परा 191 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाएं कराई। वहाँ पर 104 धातुओं की प्रतिमाएं उन्होंने प्रतिष्ठित की। इस प्रकार उन्होंने अनेकों स्थलों पर प्रतिष्ठाएं कराई जो आज कई स्थानों पर प्राप्त होती हैं1) आदिनाथ जिनालय, खेड़ा में प्राप्त सुविधिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदी 10 वि.सं. 1537 में प्रतिष्ठित) 2) छोटा जिनालय, माणसा में प्राप्त अनंतनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 3 वि.सं. 1544 में प्रतिष्ठित) आदिनाथ जिनमंदिर, हद्राणा में प्राप्त पद्मप्रभ स्वामी जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ वदि 11 रविवार वि.सं. 1545 में प्रतिष्ठित) 4) सुमतिनाथ मुख्य बावन जिनालय, मातर में प्राप्त संभवनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार माघ सुदि 3 शनिवार वि.सं. 1546 में प्रतिष्ठित) 5) मुनिसुव्रत जिनालय, जामनगर में प्राप्त नमिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार . वैशाख वदि 5 वि.सं. 1547 में प्रतिष्ठित) वासुपूज्य जिनालय, बीकानेर में प्राप्त आदिनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार फाल्गुन माघ सुदि 13 रविवार वि.सं. 1546 में प्रतिष्ठित) शांतिनाथ जिनालय, कड़ाकोटड़ी, खंभात में प्राप्त विहरमान तीर्थकर विशालस्वामी की प्रतिमा (लेखानुसार माघ सुदि 13 रविवार वि.सं. 1547 में प्रतिष्ठित) . पार्श्वनाथ देरासर, देवसानो पाडो, अहमदाबाद में प्राप्त शीतलनाथ जी की प्रतिमा ___ (लेखानुसार माघ सुदि 13 रविवार वि.सं. 1547 में प्रतिष्ठित) 9) शीतलनाथ जिनालय, रिणी, तारानगर में प्राप्त विहरमान जिनप्रतिमा (लेखानुसार माघ सुदि 13 रविवार वि.सं. 1547 में प्रतिष्ठित) अहमदाबाद के सेठ दलपतभाई भगुभाई के घर मंदिर में मूलनायक शांतिनाथ जी की पंचतीर्थी प्रतिमा विद्यमान है। उस पर प्रतिमा लेख इस प्रकार है "सं. 1547 वर्षे माघ सुदि 13 खौ श्रीमाली श्रे. चोलाकेन भा. लीलू प्रमुख कुटुंबयुतेन निजश्रेयसे श्री शांतिनाथ बिंबं का. प्रति. तपाश्री लक्ष्मीसागरसूरि पट्टे श्री सुमतिसाधुसूरिभिः" महावीर पाट परम्परा 192 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमा के अतिरिक्त चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय, खंभात में आचार्य सुमतिसाधु सूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित अंबिका देवी (तीर्थंकर नेमिनाथ जी की अधिष्ठायिका यक्षिणी) की भी धातु की प्रतिमा प्राप्त होती है। (वैशाख सुदि 3 सोमवार वि.सं. 1547 के दिन स्थापित) कालधर्म : जैसलमेर, किशनगढ़, आबू देलवाड़ा, वढनगर, खंभात, गंधार, ईडर आदि के विविध गीतार्थों के साथ रहकर सुमतिसाधु सूरि जी ने शासन रक्षा के विविध कार्य किए। __ वि.सं. 1551 में आचार्य हेमविमल सूरि जी को गच्छ की रक्षा, वृद्धि आदि जवाबदारी सौंपकर गच्छनायक के भार से निवृत्त हुए। तीस वर्षों तक समाज से भिन्न रहकर वे निष्क्रिय रूप से साधना एवं जिनवाणी-ग्रंथभंडार- जिनालयों की रक्षा आदि कार्यों में रत् रहे। वे पुनः चतुर्विध संघ की ओर अभिमुख न होकर आत्मोन्मुखी बने व ध्यान-साधना में रहे। वि.सं. 1581 में अमणूर नामक गाँव में उनका कालधर्म हुआ। महावीर पाट परम्परा 193 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55. आचार्य श्रीमद् हेमविमल सूरीश्वर जी हेम-स्वर्ण सम सद्गुण प्रकाशक, आत्म विमल श्रृंगार। हेमविमल सूरिराज गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ __ भगवान् महावीर स्वामी जी की 55वीं पाट पर श्री हेमविमल सूरि जी के समय में साध -समुदाय में पर्याप्त शिथिलता फैल गयी थी, फिर भी हेमविमल सूरि जी की निश्रा में रहने वाले साधु-साध्वी ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रहपन एवं शास्त्रानुसार आचार में सर्वप्रसिद्ध थे। इनका आचारसंपन्न जीवन चरित्र आदर्शरूप है। जन्म एवं दीक्षा : इनका जन्म मारवाड़ के जीरावला तीर्थ के सन्निकट बड़नामा गांव में हुआ था। गंगाधर नाम के वणिक (बनिये) श्रावक की धर्मपत्नी गंगा देवी की रत्नकुक्षि से कार्तिक सुदि 5 को संवत् 1520 में एक पुत्ररत्न पैदा हुआ। माता-पिता-स्वजन आदि ने रीति अनुसार सूतक कर्म करके शिशु का नाम 'औधराज' रखा। अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर बालक धार्मिक विद्या एवं सांसारिक विद्या में पारंगत बना। बालक की उम्र जब 8 वर्ष की थी, तब उस गाँव में विचरते-विचरते आचार्य विजय लक्ष्मीसागर सूरि जी महाराज पधारे। उनके मुख से जिनवाणी की सिंहगर्जना सुनकर अनेक भव्य जीवों ने धर्म का सन्मार्ग अपनाया। बालक औधराज भी नियमित रूप से उनके दर्शन कर ज्ञानार्जन करता था। गुरुदेव से संसार की असारता जानकर औधराज के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हुआ। पुत्र की दृढ़ता देख माता-पिता की आज्ञा से संवत् 1528 में विजय लक्ष्मीसागर सूरि जी की निश्रा में दीक्षा हुई एवं उसका नाम - ‘मुनि हेमधर्म' रखा गया तथा वे आचार्य सुमति साधु सूरि जी के शिष्य घोषित हुए। शासन प्रभावना : आचार्य सुमति साधु सूरीश्वर जी ने उनकी योग्यता जानकर पंचालस गाँव में संघ महोत्सव करके संवत् 1548 में उन्हें आचार्य पद से विभूषित कर चतुर्विध-संघ के योग और क्षेम का दायित्व सौंपा। उनका नाम आचार्य हेमविमल सूरि रखा गया। विचरते-विचरते वे ईडर (मेवाड़) महावीर पाट परम्परा 194 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पधारे। उस समय गुजरात, मारवाड़, मालवा, सौराष्ट्र आदि प्रदेशों के संघों की उपस्थिति में संपूर्ण गच्छ की व्यवस्था का कार्यभार सौंपा। कुठारी सागर और श्रीपाल श्रावक प्रमुख ने इस विषय में महोत्सव किया। विद्वानों ने उन्हें 'वादिविडम्बन' का भी बिरुद् प्रदान किया था । वि.सं. 1549 में वे खंभात पधारे। चातुर्मास दरम्यान उन्हें एक रात्रि तीर्थयात्रा का स्वप्न आया । स्वप्न अनुसार उन्होंने शत्रुंजय तीर्थ का संघ को निकालने का सदुपदेश दिया । फलस्वरूप चातुर्मास बाद 11 आचार्यों की निश्रा में सिद्धाचल तीर्थ का भव्य छःरी पालित संघ निकला। संवत् 1570 में आचार्य हेमविमल सूरि जी की निश्रा में स्तंभन तीर्थ में विशाल महोत्सव हुआ। इस अवसर पर उन्होंने अपने शिष्य मुनि अमृतमेरु को आचार्य पद प्रदान किया और आनंदविमल नाम प्रदान किया। दानशेखर व मानशेखर मुनियों को गणी पदवी एवं एक विदुषी वडिल साध्वी को महत्तरा पद प्रदान किया। वहाँ से विहार कर वे कपडवंज पधारे। कपडवंज में नगरवासियों ने गुरुनिश्रा में परमात्मभक्ति व गुरुभक्ति के विविध भव्य आयोजन किए। एक चुगलखोर ने बादशाह मुदीफेर को कहा कि - देखो! इन जैनों ने जो महोत्सव किया है, वह महोत्सव आपका होना चाहिए था । यह आपका अपमान है।" यह सुनकर बादशाह ने आवेश में आकर हुकुम दिया कि जैन आचार्य को पकड़ कर लाओ । इतने में हेमविमल सूरि जी विहार करके स्तंभन तीर्थ पहुंच चुके थे। सवारों के द्वारा जब यह ज्ञात हुआ, तो उन्होंने सूरि जी को वहीं पर बंदीखाने में रखा। इससे समूचे संघ में हाहाकार मच गया। बादशाह ने प्रस्ताव रखा कि कपडवंज के श्रावक यदि 12 हजार टका जीर्ण (मुद्रा) देंगे, तो वे आचार्य को छोड़ देंगे । श्रावक असमर्थ थे फिर भी गुरुभक्तिवश उन्होंने लेख लिखकर मुद्रा देने का आश्वासन दिया एवं गुरुदेव को छुड़वा लिया। आचार्य हेमविमल सूरि जी ने आयंबिल की तपस्या प्रारंभ की एवं महाप्रभावक सूरि मंत्र का आराधन चालू किया। देवता प्रकट हुआ एवं कहा कि द्रव्य पीछे मिलेगा, आप चार साधुओं को चंपानेर भेजो। आचार्यश्री ने पं. हर्षकुशल सिंह - हर्षकुशलसंयम आदि को व कवि शुभशील को भेजा जिन्होंने अपने बहुत सुंदर काव्य से बादशाह को खुश किया । बादशाह प्रभावित हुआ, दण्ड माफ किया एवं स्वयं आकर सूरि जी को नमन - वंदन किया। इस प्रकार संघ पर आई विपत्ति के समक्ष खड़े रह आचार्य हेमविमल सूरि जी ने संघ की रक्षा की। संवत् 1572 में उनका चातुर्मास पाटण में हुआ। वहाँ 5 व्यक्तियों को उन्होंने चौथा ब्रह्मचर्य महावीर पाट परम्परा 195 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का व्रत दिया। वहाँ से विहार कर स्तंभन तीर्थ में पैंसठ मण का रूपा का मठ करवाया। तत्पश्चात् बीजापुर में 61 मन जिनपट्ट की प्रतिष्ठा करवाई जिसका कोठारी - श्रीपाल ने लाभ लिया। इस प्रकार धर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किए। वि.सं. 1548 में आचार्य हेमविजय सूरि जी ने ईडर के कोठारी सायर श्रीपाल कृत उत्सव में लगभग 500 स्त्री-पुरुषों को दीक्षा दी। इनके सदुपदेश से वि.सं. 1556 में हमीरगढ़ के जिनालय का जीर्णोद्धार हुआ। साहित्य रचना : आचार्य हेमविमल सूरि जी द्वारा रची गई कुछ कृतियां मिलती हैं- पार्श्वजिनस्तवन (32 श्लोक) - वरकाणा पार्श्वनाथ स्तोत्र, भक्तामर स्तोत्र एवं कल्याणमंदिर स्तोत्र की पादपूर्ति रूप 46 श्लोक - तेरह काठियानी सज्झाय (15 कड़ियाँ) - मृगापुत्र सज्झाय या मृगापुत्र चौपाई - सूत्रकृतांग सूत्र पर दीपिका नामक टीका संघ व्यवस्था : हेमविमल सूरि जी का आचरण प्रसिद्ध था। उस समय में व्याप्त शिथिलाचार में उनका व उनके साधु समुदाय का शास्त्रोक्त आचार चर्चित था। क्षमाश्रमण आदि विधि से श्रावक के घर से लाया हुआ आहार वे ग्रहण नहीं करते थे। उन्हें अपने समुदाय में कोई द्रव्यधारी क्रियाभ्रष्ट यति ज्ञात होता, तो उसे गच्छ से निकाल देते थे। उनकी इसी नि:स्पृह वृत्ति को देखकर लुकामत (स्थानकवासी सम्प्रदाय) के ऋषि हाना, ऋषि श्रीपति, ऋषि गणपति आदि अनेक आत्मार्थी लुंकामत का त्याग कर श्री हेमविमल सूरि जी की शरण में आए थे। पूज्य श्री जी के आनंदविमल सूरि जी, दयावर्धन गणि, कुलचर गणि, साधुविजय, हर्षकुल, सौभाग्यहर्ष जी, अनंतहंस जी आदि अनेक शिष्य थे। हेमविमल सूरि जी ने अपने जीवन में 500 मुमुक्षुओं को दीक्षा दी थी। इसी काल में संवत् 1562 में "आजकल शास्त्रोक्त साधु दृष्टिगोचर नहीं होते' इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले कटुक नाम गृहस्थ ने कटुक (कडुआ) महावीर पाट परम्परा 196 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत निकाला। लुंकामत (स्थानकवासी) से निकल कर विजय ऋषि ने संवत् 1570 में 'बीजा मत' को प्रचलित किया। संवत् 1572 में श्री नागपुरीय तपागच्छ से निकल कर उपाध्याय श्री पार्श्वचंद्र (पार्श्वचंद्र सूरि जी) भिन्न रूप से निकले, जो पायचंद गच्छ (पार्श्वचंद्र गच्छ) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाएँ : आचार्य हेमविमल सूरि जी ने अनेकों जिनप्रतिमाओं की अंजनश्लाका-प्रतिष्ठाएं सम्पन्न कराई। उनमें से अनेकों प्रतिमाएं आज भी उपलब्ध होती हैं, जिन पर प्रतिष्ठा के प्रतिमालेख भी उपलब्ध होते हैं। 1) बालावसही, शत्रुजय में प्राप्त आदिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 13 गुरुवार, संवत् 1551 में प्रतिष्ठित) चिंतामणि जी का मंदिर, बीकानेर में प्राप्त नमिनाथ जी की प्रतिमा (शिलालेख अनुसार वैशाख सुदि 14, संवत् 1552 में प्रतिष्ठित) संभवनाथ जिनालय, फूलवाली गली, लखनऊ में प्राप्त शांतिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ सुदि 13, संवत् 1552 में प्रतिष्ठित) गोड़ी. पार्श्वनाथ जिनालय, आगरा में प्राप्त सुविधिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार माघ वदि 2, बुधवार संवत् 1554 में प्रतिष्ठित) मुनिसुव्रत जिनालय, भरूच में प्राप्त नमिनाथ जी की धातु प्रतिमा (शिलालेखानुसार वैशाख सुदि 3, शनिवार, संवत् 1555 में प्रतिष्ठित) विमलनाथ जिनालय, सवाई माधोपुर में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ सुदि 2, संवत् 1556 में प्रतिष्ठित) 7) सुमतिनाथ जिनालय, जयपुर में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की धातु प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ वदि 8 रविवार संवत् 1560 में प्रतिष्ठित) 8) गोड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, पायधुनी, मुंबई में प्राप्त मुनिसुव्रत स्वामी जी की प्रतिमा (लेखानुसार माघ वदि 5 संवत् 1566 में प्रतिष्ठित) महावीर पाट परम्परा 197 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9) अरनाथ देरासर, बीजापुर में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार माघ वदि 8 रविवार संवत् 1578 में प्रतिष्ठित) आचार्यदेव हेमविमल सूरि जी म.सा. ने अनेकों प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कर जिनशासन की प्रभावना की। आज भी बूंदी, अहमदाबाद, पालीताणा, अजीमगंज, मेड़ता, बीकानेर, खेड़ा, वडोदरा, डभोई, खंभात, लूणकरणसर, उदयपुर, ईडर इत्यादि अनेकों स्थल पर प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं, जिन पर प्रतिमालेख में गुरुदेव द्वारा प्रतिष्ठा का उल्लेख है जो कालांतर से यत्र-तत्र पहुँची। कालधर्म : आचार्य हेमविमल सूरीश्वर जी ने संवत् 1583 का चातुर्मास विशाला नगरी (वीसनगर) में किया। अपने प्रमुख शिष्य आनंदविमल सूरि जी को पट्टधर मान वे आश्वस्त भाव से वृद्धावस्था से संयम जीवन का परिपालन कर रहे थे। आश्विन मास में वे बीमार हो गए। उन्होंने आनंदविमल सूरि जी को कहा, “अब मेरे जीने का भरोसा नहीं है। तुम संघ की सार संभाल करो।" शिष्य ने उत्तर दिया कि मेरी इतनी शक्ति, इतना सामर्थ्य नहीं कि संपूर्ण गच्छ की व्यवस्था देख सकू व क्षमा माँगी। अतः उन्होंने संघ के समक्ष श्री सौभाग्यहर्ष जी को सूरि पद व पट्टधर प्रदान किया। आसोज सुदि 13 संवत् 1583 को आचार्य हेमविमल सूरि जी समाधि पूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए। सभी को उनके निधन का आघात लगा। नगरवासियों ने बड़े महोत्सव के साथ पूज्य श्री के देह का अग्नि संस्कार किया। इनके प्रथम पट्टधर आनंदविमल जी से तपागच्छ की मूल पंरपरा आगे चली और द्वितीय पट्टधर सौभाग्यहर्ष जी की शिष्य परम्परा लघु पौशालिक शाखा के नाम से विश्रुत हुई। महावीर पाट परम्परा 198 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. आचार्य श्रीमद् आनंदविमल सूरीश्वर जी माणिभद्र संस्थापक सूरीश्वर, पैंतीस बोल प्रकार । आत्मानंदी आनंदविमल जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ प्रभु वीर के श्रमण वर्ग में प्रविष्ट शिथिलाचार के समय में अपने ज्ञान, संयम एवं शुद्ध आचरण से क्रियोद्धार कर संघ को कुशल नेतृत्त्व देने में समर्थ एवं जिनके प्रभाव से माणिभद्र देव तपागच्छ के अधिष्ठायक देव बने, ऐसे भगवान् महावीर की 56वीं पाट पर विभूषित आचार्य आनंदविमल सूरि जी म.सा. को सदा स्मरण किया जाता है। जन्म एवं दीक्षा : मेवाड़ प्रदेश के ईलादुर्ग - ईडर नगर के श्रीमाल जाति के श्रावक मेघजी ( वसन्तमल) की भार्या माणेकदेवी के पावन कुक्षि से वि.सं. 1547 में पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम वाघ जी कुँवर (बोगामल) रखा गया। माता-पिता के वात्सल्य की छत्रछाया में बालक निरंतर वृद्धि को प्राप्त था। जब बालक 5 वर्ष का हुआ, तब शासन के विविध कार्य करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हुए हेमविमल सूरि जी का पदार्पण ईडर में हुआ । पूज्यश्री की आचारसंपन्नता एवं प्रवचन प्रभावना से सभी आकृष्ट होते थे। उनके वैराग्यरस - पोषक उपदेश ने बालक बाघजी कुँवर के हृदय में भी उथल-पुथल मचा दी । हेमविमल सूरि जी विहार करके अन्यत्र पधार गए एवं कुछ महीने बाद पुन: ईडर आए। पूर्वभवों के उत्कृष्ट संस्कारों के योग एवं सद्गुरु के निमित्त से 5 वर्षीय बालक ने संयम स्वीकार करने का निश्चय किया। माता-पिता ने अपने एकमात्र पुत्र को बहुत समझाया, अनेक प्रलोभन दिए किंतु वह बालक मेरु की तरह अचल रहा । अंततः वि.सं. 1552 में पाँच साल की अल्पायु में वह बालक हेमविमल सूरीश्वर जी का शिष्य बना। गुरुदेव ने मुमुक्षु की जिह्वा में अमृत का आस्वाद जानकर व मेरू जैसी दृढ़ता उसका नाम 'मुनि अमृतमेरू' ( आनंदविमल) नाम प्रदान किया । शासन प्रभावना : महावीर पाट परम्परा 199 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमविमल सूरि जी की निश्रा में आत्मोन्नति को प्राप्त करते हुए वे व्याकरण, न्याय, काव्य, षड्दर्शन आदि में पारंगत बने । उनकी ज्ञान शक्ति को देखते हुए संवत् 1568 में लालपुर नगर में उपाध्याय पद से विभूषित किया गया एवं संवत् 1570 में उनकी योग्यता को जानते हुए डावल गाँव (स्तंभन तीर्थ ) में चतुर्विध संघ के आग्रह एवं साक्षी से आचार्य पदवी से अलंकृत किया गया तथा 'आचार्य आनंदविमल सूरि' नाम प्रदान किया गया। इस महोत्सव का सारा खर्च श्रावक सोनी जीवराज ने किया। गुरु आज्ञा से उन्होंने अनेकों प्रदेशों में स्वतंत्र विचरण कर जिनधर्म की पताका बहुमुखी दिशा में लहराई। शत्रुंजय महातीर्थ पर जिनप्रासादों की जीर्ण अवस्था देखकर वे अत्यंत द्रवित हुए एवं जीर्णोद्धार की भावना अभिव्यक्त की। चित्तौड़गढ़ के ओसवाल वंशी करमाशा ने उनकी प्रेरणा से वि.सं. 1587 में गिरिराज शत्रुंजय का जीर्णोद्धार कराया । आनंदविमल सूरि जी महान तपश्चर्या के धनी थे। चौदह वर्ष पर्यन्त तक उन्होंने छट्ठ के पारणे आयंबिल की घोर तपस्या की। इसके उपरांत 181 उपवास, वीस स्थानक तप, 400 चौथवणी स्थानक तप, बीस विहरमानों के 20 छट्ठ तप, प्रत्येक कर्म के क्षय निमित्त विशिष्ट तपस्या की। भगवान् महावीर के 229 छट्ठ, नामकर्म सिवाय 7 कर्मों की उत्तर प्रकृति की संख्या प्रमाण 5, 9, 2, 28, 4, 2, 5 उपवास, चौदस - पूनम एवं चौदस - अमावस के छठ्ठ इत्यादि बहुत दुष्कर तपस्या की। अपने संगम जीवन में ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्मयोग एवं तपयोग के द्वारा स्व-पर कल्याण की भावना से उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की। संघ व्यवस्था : पूर्वकाल में भगवान् महावीर के 47वें पट्टधर आचार्य सोमप्रभ सूरि जी ने शुद्ध जल के अभाव में साधु-साध्वी जी का विचरण मारवाड़ आदि क्षेत्र में निषिद्ध (मना) किया था। आचार्य आनंदविमल सूरीश्वर जी ने अनुभव किया कि अब इस कारण से लोग कुमत को ग्रहण कर रहे हैं एवं अब जल का भी अभाव नहीं है। अतः उन्होंने इन क्षेत्रों में साधु-साध्वियों का विहार खुला किया। जैसलमेर आदि में 64 मंदिरों को ताले लगा दिए गए थे। गुरुदेव ने साधुओं को विहार की आज्ञा देकर उन तालों को तुड़वाकर जिनमंदिर पुन: पूजनीय अवस्था में लाए। लोंकागच्छ (स्थानकवासी ) मत के ऋषि वीमा ( वानर), ऋषि गुणा, ऋषि जीवा आदि महावीर पाट परम्परा 200 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 साधुओं ने आनंदविमल सूरि जी से सम्यकत्व ग्रहण कर उनके पास आकर पुनः दीक्षा ग्रहण की। अपनी प्रतिबोधकुशलता तथा आचारसंपन्नता से उन्होंने 500 से अधिक भव्य जीवों को दीक्षा दी। उस समय उनकी आज्ञा में 1800 साधु विचरते थे। श्रमण समुदाय में शनैःशनैः घुस रहे परिग्रहवृत्ति इत्यादि शिथिलाचार के विरोध में अपने स्वरों को मुखरित कर वि.सं. 1582 में वैशाख सुदी 3 के दिवस वडाली (चाणस्मा तीर्थ के पास वडावली) गांव में कई संविग्न साधुओं को साथ लेकर वृद्ध गुरुदेव हेमविमल सूरि जी की आज्ञा से क्रियोद्धार किया। स्वयं का एवं अपनी आज्ञा में रहे सभी साधु-साध्वी वृंद का आचार शास्त्रानुसार हो, ऐसा बल उन्होंने दिया। प्रारंभ में 500 साधुओं के साथ चाणस्मा के पास वडावली ग्राम में क्रियोद्धार किया। कल्पसूत्र की एक टीका में फरमाया है कि परमात्मा महावीर के निर्वाण के 2000 वर्ष तक भस्मग्रह का प्रभाव रहा जिसके कारण जिनशासन के कार्यों में काफी बाधाएं आई। इस समय तक भस्मग्रह उतर गया था एवं यह क्रियोद्धार धर्मसंघ में चारित्राचार के विकास में सहायक बना। क्रियोद्धार के बाद वि.सं. 1583 में पाटण में विराजते हुए आनंदविमल सूरि जी ने सब साधुओं के लिए 35 बोल के नियम जारी किये। प्रमुख रूप से 35 बोल / नियम इस प्रकार थे1) गुरु की आज्ञापूर्वक ही विहार करना। 2) वणिक् के सिवाय किसी को दीक्षा नहीं देनी। 3) साध्वी को गीतार्थ की निश्रा में दीक्षा देनी। गुरु महाराज दूरस्थ हो तो अन्य गीतार्थ के पास कोई दीक्षा लेने आए तो परीक्षा बाद ही विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करना। 5) पाटण में गीतार्थ का समूह रहे, वो चातुर्मास हेतु नगर में 6 ठाणा व ग्राम में 3 ठाणा कम से कम रहें। 6) गुरु महाराज दूरस्थ हों तो कागज से आज्ञा मंगवाना। 7) एकल (अकेला) विहार नहीं करना। 8) कोई साधु अकेले विहार करके आए तो मांडली में किसी को नहीं बिठाना। 9) दूज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चौदस, अमावस्या और पूर्णिमा महीने में 12 दिन विगय महावीर पाट परम्परा 201 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न वोहराना और यथाशक्ति तप करना । 10) कोई तिथि दो हों, तो एक दिवस विगय न वोहराना । 11) पात्रों को रोगन (रंग) नहीं करना । पात्रा काला काटुला वापरना (शोभित नहीं करना) 12) 13) योग हुए बिना सिद्धांत की वाचना न करना । 14) एक समाचारी वाला साधु दूसरे उपाश्रय में रहने आए तो प्रथम गीतार्थ को वंदन करें। उसके बाद शय्यातर गृह से वोहराएं। 15) दिवस में 8 थोय वाला देववंदन करना । 16) दिन में 2500 गाथा का स्वाध्याय करना । न हो सके तो कम से 100 गाथा का सज्झाय- ध्यान अवश्य करना । 17) वस्त्र, पात्र, कांबली आदि उपकरण स्वयं उठाना, गृहस्थ से नहीं उठाना । 18) वर्ष में एक ही बार काप निकालना ( कपड़े धोना ) । दूसरी बार नहीं निकालना । 19) पोसाल (पौषधशाला) में किसी को नहीं जाना । 20) पोसाल में पढ़ने के लिए नहीं जाना । 21) एक हजार श्लोक से ज्यादा लहिया (लेखक) के पास नहीं लिखवाना।. 22) द्रव्य (धन) देकर कोई भी ब्राह्मण के पास न पढ़े। 23) जिस गाँव में चौमासा रहे हो, चौमासा उतरने के बाद वस्त्र वहोरना नहीं कल्पता । 24) अकाल स्वाध्याय पर आयंबिल करना। 25) सदैव एकाशणा ( एकासना) करना । 26) बेला आदि के पारणे गुरु कहे तो तप करना । 27) 'परिट्ठावणियागारेणं' न किया जाए। अष्टमी, चौदस, शुक्ल पंचमी ऐसी 5 तिथि पर उपवास करना । 28) 29 ) अष्टमी - चौदस को विहार नहीं करना । महावीर पाट परम्परा - 202 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30) नीवि में एक नीवि से ज्यादा नहीं लेना। 31) 84 गच्छ में से किसी भी महात्मा को गुरु के कहे बिना न रखना। 32) गुरु से पूछे बिना नई प्ररूपणा - नई समाचारी शुरु नहीं करना। 33) एक निवास स्थान न धारें। 34) कोरपाण वाला वस्त्र न लिया जाए। 35) कोरे वस्त्र में सलवट डालें जाएं, एकदम नया अबोट वस्त्र गीतार्थ मुनि को छोड़ अन्य कोई साधु अपने काम में न लें। इस प्रकार 35 बोलों की घोषणा के पश्चात् आनंदविमल सूरि जी ने समूचे गच्छ में उनका पालन सुनिश्चित किया। तत्पश्चात् घूम-घूमकर उन्होंने उन्मार्ग का उन्मूलन व सन्मार्ग की स्थापना कर तपागच्छ को सुदृढ़ किया। क्रियोद्धार के बाद सुदीर्घ अवधि तक के बेले-बेले की तपस्या करते रहे जिससे उन्हें निरंतर संघ संचालन की असीम शक्ति मिलती थी। उनके प्रधान शिष्य दान सूरि जी सदैव उनके दाहिने हाथ के रूप में साथ रहे। शिथिलाचार के विरोध में शुद्ध चारित्रधारी सुसाधुओं के लिए काथे (केसरिया) रंग के वस्त्र चालू किए। संवेगी साधु स्वयं काथा कूटते थे एवं रंग करते थे। गुरु हेमविमल सूरि जी कृत 13 काठियों की सज्झाय में कहा है "इग्यारमें जीव चिंतवे इस्युं, ऐ गुरु काथो कूटे कीस्युं" प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ : ___जिनशासन के मुख्य अंगभूत जिनप्रतिमाओं की उपेक्षा आचार्य आनंदविमल सूरि जी को सदैव चिंतित करती थी। भक्त श्रावकों में जैनत्व जागरण कर उन्होंने अजमेर (अजयमेरु), सांगानेर (सांगानगर), जैसलमेर, मंडोवर, नागोर, नाडलाई, सादड़ी, सिरोही, पालीताणा, जूनागढ़, पाटण, राधनपुर, अहमदाबाद, महेसाणा, कावी, गंधार, ईडर, कपड़वंज, खंभात आदि अनेक स्थानों पर प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से उन्होंने प्रतिष्ठा अंजनश्लाका की अथवा करवाई। उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाएं वर्तमान में कई जगह मिलती हैं1) श्री शांतिनाथ जिनालय, नदियाड़ एवं भीडभंजन पार्श्वनाथ जिनालय, खेड़ा में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की धातु की प्रतिमा (प्रतिमालेख अनुसार माघ वदि 2 बुधवार संवत् महावीर पाट परम्परा 203 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1585 में प्रतिष्ठित) 2) जैन मंदिर, घड़कण में प्राप्त अजितनाथ जी की धातु की प्रतिमा (प्रतिमालेख के अनुसार माघ वदि 2 बुधवार संवत् 1585 में प्रतिष्ठित) 3) शांतिनाथ जिनालय, छाणी एवं जगवल्लभ पार्श्वनाथ देरासर नीशापोल, अहमदाबाद में प्राप्त ऋषभदेव जी की प्रतिमा (प्रतिमा लेख के अनुसार माघ सुदि 21 शुक्रवार संवत् 1585 में प्रतिष्ठित) माणिभद्र देव बने तपागच्छ के अधिष्ठायक : माणिभद्र देव तपागच्छ के अधिष्ठायक देव के रूप में श्रमण-श्रमणी वर्ग एवं जिनशासन पर आए उपद्रवों से रक्षा करते हैं। इसका संपूर्ण श्रेय आचार्य आनंदविमल सूरि जी महाराज को जाता है। _ वि.सं. 1584 में हेमविमल सूरि जी के कालधर्म के बाद आनंदविमल सूरि जी ने मालवा की ओर विहार किया। उज्जैन के पास क्षिप्रा नदी के किनारे गंधर्व शमशान में ध्यान साधना के उद्देश्य से आनंदविमल सूरि जी ने काउसग्ग आरंभ किया। उज्जैन में माणेकचंद नाम का सेठ रहता था। पहले तो वो जैनधर्म परायण था किंतु यतिवर्ग की शिथिलता एवं लुंकामत (स्थानकवासी) वर्ग से आकर्षित होकर वह सुसाधुओं का द्वेषी हो गया था। माणेकचंद की माता दृढ़ सम्यक्त्वी एवं प्रभु वीर के शासन के प्रति समर्पित श्राविका थी। उनकी माता ने माणेकचंद से कहा - "गुरु महाराज की एक महीने की तपस्या पूर्ण हो रही है। शमशान में उन्होंने ध्यान लगाया हुआ है। कल उनका पारणा दिवस है। उन्हें गोचरी के लिए घर बुलाना है।" ___ माणेकचंद गुरुदेव को घर बुलाना नहीं चाहता था, किंतु माता के प्रति आदर व पूज्यभाव से वह मना भी नहीं कर सका। कौतुहलवश अपनी घृणापूर्ण बुद्धि से वह रात्रि में ही आनंदविमल सूरि जी की परीक्षा लेने मशाल लेकर शमशान आया। गुरुदेव कायोत्सर्ग में थे। माणेकचंद ने मशाल से उनकी दाढ़ी जला दी। माणेकचंद को लगा था कि वो विचलित होंगे एवं कायोत्सर्ग को छोड़कर उस पर क्रोधित होंगे और वह उनका ढोंग प्रमाणित कर देगा। किन्तु दाढ़ी के बाल जल जाने पर भी आनंदविमल सूरि जी शांतुमुद्रा में काउसग्ग में लीन रहे। अंततः माणेकचंद को बहुत पछतावा हुआ। सुबह-सुबह व पुनः गुरुदेव के पास आया। उसने क्षमा मांगी। गुरुदेव महावीर पाट परम्परा 204 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वात्सल्य एवं करुणा से अभिभूत होकर माणेकचंद उनका भक्त बन गया। गुरुदेव प्रेम से उसके घर गोचरी हेतु पधारे। माणेकचंद सेठ का व्यापार हेतु पाली में आवागमन होता रहता था। उसके आग्रह से आनंदविमल सूरीश्वर जी ने एक चातुर्मास पाली किया। चातुर्मास दरम्यान गुरुमुख से शत्रुजय माहात्म्य द्वारा तीर्थाधिराज शजय (पालीताणा) की महिमा सुनी। उसी क्षण उसने यह प्रतिज्ञा ली कि जब तक गिरिराज के दर्शन नहीं करता, अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। पाली से उपवास के पच्चक्खाण के साथ पैदल ही उसने शत्रुजय की ओर प्रस्थान किया। उपवास के सातवें दिन वह पालनपुर के पास मगरवाड़ा के जंगल से गुजरता हुआ जा रहा था। वहाँ भील लोगों ने उस पर हमला किया, सब वस्तुएं ले ली और मार डाला। शत्रुजयं तीर्थ के शुभ भाव में माणेकचंद सेठ व्यंतर निकाय में माणिभद्र नामक देव हुआ। इधर शिथिलाचार के साथ-साथ गच्छों से दृष्टि राग की भी अत्यंत वृद्धि हो रही थी। गच्छ ममत्व से येन-केन-प्रकारेण अन्य गच्छ के साधु कम हो, क्षीण हो, दुर्बल हो, ऐसे प्रयासों को भी क्रियान्वित किया जा रहा है। आचार्य आनंदविमल सूरि जी के भी एक-एक करते-करते 500 साधु रूग्ण (बीमार) होकर अकारण कालधर्म को प्राप्त हो गए। उन्हें ज्ञात हुआ कि खरतरगच्छ के किसी साधु ने भैरव देव को वश में करके ऐसा दुष्कृत्य किया है। आचार्यश्री जी बहुत दुःखी हुए। अपने साधु-साध्वियों की रक्षा का दायित्व परिपूर्ण न कर पाने से वे अत्यंत दुःखी हुए। विहार करते-करते आनंदविमल सूरि जी मगरवाड़ा पधारे। शासनरक्षा की भावना से वे रात्रि में ध्यानरूढ़ हुए। पूर्वभव के उपकार को स्मरण करते हुए माणिभद्र देव गुरु भगवंत के समक्ष प्रकट हुए। माणिभद्र देव ने संपूर्ण वृत्तांत सुनाया एवं सेवा का अवसर माँगा। ___ गुरुदेव ने माणिभद्र देव को संपूर्ण प्रकरण बताया एवं साधुओं की रक्षा की बात की। शासनभक्ति से प्रेरित हो देव ने गुर्वाज्ञा स्वीकार की एवं कहा कि मुझे आपका कथन स्वीकार है किंतु साथ ही तपागच्छ के उपाश्रयों में मेरी मूर्ति स्थापित हो जिससे मुझे सदैव सुगुरुदर्शन का लाभ मिलता रहे। गुरुदेव ने स्वीकार किया, तभी से माणिभद्र देव तपागच्छ के अधिष्ठायक देव के रूप में जाने जाते हैं। महावीर पाट परम्परा 205 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालधर्म : विहार करते-करते आनंदविमल सूरि जी शिष्य परिवार सहित राजनगर (अहमदाबाद) पधारे। आचार्यश्री का शरीर धीरे-धीरे अशक्त होता चला गया। अनेक व्याधियां उत्पन्न हो गई। संघ ने अनेक उपचारों से गुरुदेव को पुनः स्वस्थ करने का प्रयत्न किया किंतु असफल रहे। आचार्यश्री को आभास हो गया कि उनकी आयुष्य अल्प है। अतः उन्होंने अनशन व्रत स्वीकार किया। नवमें उपवास में निजामपुरा (अहमदाबाद) में वि.सं. 1596 चैत्र सुदि 7 (5) को प्रातः काल में 59 वर्ष की आयु में कालधर्म को प्राप्त हुए। महातपस्वी, क्रियोद्धारक, सुविहित शिरोमणि आनंदविमल सूरि जी के देवलोकगमन पर श्रावक वर्ग ने शोक मनाया तथा साबरमती नदी के किनारे महोत्सव के साथ अग्नि संस्कार किया एवं स्तूप निर्मित कराया। महावीर पाट परम्परा 206 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57. आचार्य श्रीमद् विजय दान सूरीश्वर जी लोकोद्धारक दान सूरि जी, असंयम बहिष्कार। शासन प्रभावना शक्ति धनी, नित् वंदन बारंबार॥ आचार्य आनंदविमल सूरीश्वर जी म. के कालधर्म पश्चात् गच्छ में सर्वाधिक वडिल एवं योग्य होने से गच्छ का कार्यभार आचार्य दान सूरीश्वर जी के कंधों पर आया एवं वे प्रभु महावीर की जाज्वल्यमान पाट परम्परा के 57वें क्रम पर विभूषित हुए। संघ का योग-क्षेम कर कुशल नेतृत्त्व उन्होंने प्रदान किया एवं इनसे तपागच्छ की 'विजय' शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। जन्म एवं दीक्षा : इनका जन्म गुजरात प्रदेश में अहमदाबाद के पास जामला नामक गाँव में वि.सं. 1553 में हुआ। उनके पिता करमिया गौत्र के शा. जगमाल (भामोशा वीशा ओसवाल) एवं माता सूर्यादेवी थी। इनके 3 भाई थे, 1 बहन और विजय व लक्ष्मण नामक 2 भानजे थे। पूरा परिवार धर्म संस्कारों से परिपूर्ण था। नौ वर्ष की अल्पायु में वि.सं. 1562 में दीक्षा ग्रहण की एवं उनका नाम 'मुनि उदयधर्म' रखा गया। गुरुदेवों की निश्रा में रहते हुए उन्होंने अनेकों आगमों, ग्रंथों, शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। शासन प्रभावना : मुनि उदयधर्म का तन-मन गुरुचरणों में समर्पित था। एक बार गुर्वाज्ञा से वे 100 साध भगवन्तों की गोचरी लाए। सभी ने गोचरी वापर ली लेकिन फिर भी 3 लोगों जितनी गोचरी बच गई। आचार्य आनंदविमल सूरि जी बची गोचरी को परठना नहीं चाहते थे क्योंकि उसे फेंकने से जीव हिंसा की संभावना रहती है। आचार्यश्री जी ने सभी 100 साधुओं को कहा कि जो भी साधु इस बचे हुए आहार को वापरेगा, उसे मैं मनपसंद काम्बली दूंगा। सभी साध गोचरी कर चुके थे। अतः किसी ने यह बात स्वीकार नहीं की। ___ तब केवल मुनि उदयधर्म जी आगे आए और वह बची हुई गोचरी खाई। अगले दिन उन्होंने अधिक गोचरी वापरने के प्रायश्चित्त स्वरूप 3 उपवास का पच्चक्खाण लिया। चौथे दिन महावीर पाट परम्परा 207 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंदविमल सूरि जी ने उन्हें पारणा कराया और पूछा कि तुझे कौन-सी काम्बली चाहिए? तब मुनिराज ने कहा कि मुझे कोई भी काम्बली नहीं चाहिए। आपकी भावना थी कि वह आहार परठा न जाए। जब मेरा तन मन आपको समर्पित है तो आपकी इच्छा कैसे पूरी न करता? आप बस मुझे आशीर्वाद देते रहो! आचार्यश्री जी ने मुनि उदयधर्म को गले से लगा लिया। वि.सं. 1587 में सिरोही में आचार्य आनंदविमल सूरि जी म. ने अपने शिष्य की योग्यता देखते हुए चतुर्विध संघ के समक्ष परमेष्ठी के तृतीय पद - आचार्य पद से विभूषित किया एवं नाम विजय दान सूरि रखा। कभी गुरु के साथ तो कभी गुर्वाज्ञा से स्वतंत्र विचरण करते थे। दक्षिण गुजरात, मालवा, मारवाड़, कोंकण आदि अनेक क्षेत्रों में अस्खलित रूप से तपस्या सहित विचरे। छट्ठ अथवा अट्ठम की अनेक क्रमिक तपश्चर्याएं वे करते थे तथा आजीवन के लिए घी के सिवाय 5 विगय (दूध दही इत्यादि) का जीवनपर्यन्त त्याग रखा। आगमाध्ययन करते कराते अनेकों बार आचारांग सूत्र, स्थानांग सूत्र आदि 11 अंगों को शुद्ध किया। तीर्थंकर परमात्मा की वाणी के प्रति उनको बहुत अहोभाव था। मेवाड़, मारवाड़, मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र, कोंकण आदि क्षेत्रों में आगम वाचना के माध्यम से एवं अन्य गीतार्थं आचार्यों के सहयोग से 45 आगमों का संशोधन किया। एक बार विचरते-विचरते वे अजमेर नगर में आए। अनेकों श्रावक ने जिनप्रतिमा उत्थापक लोकाशाह के मत को स्वीकार किया हुआ था क्योंकि उनके अनुसार वहाँ किसी लोंकागच्छीय (स्थानकवासी) की मृत्यु बाद वो व्यंतर देव बना था जिसके कारण ऐसा हुआ कि वह दान सूरीश्वर जी म.सा. के कुछ शिष्यों को व्यंतर देव रात्रि में डराने लगा। विविध रूपों में उनपर उपद्रव करने लगा। इस प्रकार प्रतिदिन ही वह व्यंतर साधुवृंदों को कष्ट देने लगा। सभी साधुओं ने एक स्वर में दान सूरि जी को यह प्रकरण बताया व रक्षा का निवेदन किया। प्रतिक्रमण उपरांत सभी मुनियों ने संथारा लगाया व निद्रा ली। दान सूरि जी एकान्त ठिकाने में बैठकर सूरि मंत्र का जाप करने लगे। वह दुष्ट व्यंतर पुनः आया एवं आचार्यश्री जी पर उपसर्ग करने लगा, डराने लगा, जाप से विचलित करने लगा परन्तु उसके सभी प्रयास निष्फल रहे। भयभीत होकर वह व्यंतर अजमेर से चला गया। अगले दिन आचार्यश्री ने सबको सूचित किया वह व्यंतर देव अब नहीं आएगा। सभी साधु व श्रावक प्रसन्न हुए। उनके जिनमत सम्बन्धी उपदेशों को सुनकर अनेक श्रावक उनके अनुरागी हो गए एवं शुद्ध मूर्तिपूजक धर्म ग्रहण किया। महावीर पाट परम्परा 208 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंभात, अहमदाबाद, पाटण, कंधार आदि क्षेत्रों में प्रवेश कर दिव्य जैन धर्म की पताका लहराई। उस समय के बादशाह मोहम्मद को भी धर्मोपदेश देकर धर्मानुरागी बनाया। श्री विजय दान सूरि जी के उपदेश से ही बादशाह मुहम्मद के मान्य मंत्री गुलराज ने जो 'मालिक श्री नगदल' कहलाता था, उससे शत्रुंजय महातीर्थ को 6 महीने तक के लिए सभी करों (Tax) से मुक्त कराया था एवं सब जगह कुंकुमपत्रिका आदि को भिजवाकर अनेकों देश, नगर, गाँवों के संघों के साथ मिलकर शत्रुंजय गिरिराज का भव्यातिभव्य संघ निकाला। दान सूरीश्वर जी के उपदेशामृत के प्रभाव से गंधार नगर के श्रावक रामाजी तथा अहमदाबाद के शाह कुँवर जी आदि श्रेष्ठियों ने मिलकर शत्रुंजय मंदिर का जीर्णोद्धार कराया एवं चौमुख जी, अष्टापद मंदिर आदि जिनालयों का निर्माण करवाया एवं इसके उपरांत रैवतगिरि गिरनार तीर्थ पर जीर्ण अवस्था में रहे जिनमंदिरों का उद्धार करवाया। इस प्रकार शासन प्रभावना के विविध कार्य उनके हस्ते सम्पन्न हुए । संघ व्यवस्था : आचार्य आनंदविमल सूरि जी से विरासत में प्राप्त विशाल साधु-साध्वी समुदाय का कुशल संवर्धन एवं नेतृत्त्व पूज्य दान सूरि जी ने किया । लोंकागच्छ के भी अनेक साधुओं ने जैनागमों का शुद्ध अर्थ समझकर उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। इन्हीं के समय में उपाध्याय धर्मसागर 'जी ने सभी गच्छों की अशिष्टोचित आलोचना करके असंतोष का वातावरण उत्पन्न कर दिया जिससे श्वेताम्बर समाज में परस्पर तीव्र वैमनस्य होने लगा। अतः विजय दान सूरि जी ने उपाध्याय धर्मसागर जी को गच्छ से निष्कासित कर दिया और उनके द्वारा लिखित तथाकथित ग्रंथ "कुमतिकुद्दाल" को जलशरण करा दिया। दान सूरि जी अपने शिष्यों के लिए ज्ञानार्जन एवं शुद्ध साध्वाचार को प्रमुखता देते थे। राजविमल जी, हीर सूरि जी आदि अनेकानेक शिष्यों ने दान सूरि के नाम को सार्थक किया। इन्होंने भी साधु-साध्वी के सदाचार विषयक 7 बोलों की आज्ञा जारी की थी। 44 विजय दान सूरीश्वर जी की संयम शक्ति के प्रभाव से माणिभद्र देव भी उन्हें प्रत्यक्ष थे। माणिभद्र देव ने उन्हें संकेत दिया कि वे अबसे अपनी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में 'विजय' शाखा स्थापित करें अर्थात् नाम में विजय शब्द सम्मिलित करें तथा देवता ने सदा उनकी शिष्य परंपरा को सहयोग का आश्वासन दिया। तभी से तपागच्छीय मुनि के नाम में बाद में तथा महावीर पाट परम्परा 209 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य के नाम में पहले 'विजय' शब्द लगाया जाने लगा। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ : प.पू. दान सूरि जी म.सा. ने खंभात, अहमदाबाद, पाटण, महेसाणा, गंधार, बंदर आदि अनेक स्थानों में सैंकड़ों जिनबिंबों की प्रतिष्ठा कराई थी। कालक्रम से आज वे यत्र-तत्र प्राप्त होती है। वर्तमान समय में उनके हाथों प्रतिष्ठित प्रतिमाएं निम्न स्थानों पर उपलब्ध हैं 1) मुनिसुव्रत स्वामी जिनालय, भरूच में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की धातुं की जिनप्रतिमा (लेख अनुसार माघ सुदि 12 शुक्रवार वि. सं. 1592 में प्रतिष्ठित ) 2) 3) 4) 5) 6) 7) 8) 9) सुमतिनाथ मुख्य बावन जिनालय, मातर में प्राप्त आदिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेख अनुसार वैशाख सुदि 6 सोमवार वि. सं. 1595 में प्रतिष्ठित ) उपकेशगच्छीय शांतिनाथ जिनालय, मेड़ता सिटी में प्राप्त आदिनाथ जी की धातुप्रतिमा (लेख अनुसार वैशाख सुदि 5 गुरुवार वि. सं. 1598 में प्रतिष्ठित ) महावीर जिनालय, पीड़वाड़ा में महावीर प्रासाद की देहरी पर उत्कीर्ण शिलालेख के अनुसार माघ वदि 8 शुक्रवार वि. सं. 1603 में प्रतिष्ठित शांतिनाथ जिनालय, कुमारपाड़ो व सोमपार्श्वनाथ जिनालय, संघवी पाड़ा - खंभात में प्राप्त जिनप्रतिमाएं (लेख अनुसार वैशाख सुदि 7 वि.सं. 1605 में प्रतिष्ठित ) आदिनाथ जिनालय, पटोलिया पोल- वड़ोदरा में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की धातु प्रतिमा (लेख अनुसार वैशाख सुदि 7 वि.सं. 1605 में प्रतिष्ठित) थीरूशाह का देरासर, जैसलमेर में प्राप्त आदिनाथ जी की प्रतिमा (प्रतिमा लेख के अनुसार फाल्गुन वदि 2 सोमवार वि. सं. 1610 में प्रतिष्ठित ) शांतिनाथ जिनालय, कोट, मुंबई में प्राप्त आदिनाथ जी की चौबीसी प्रतिमा (लेख अनुसार वैशाख सुदि 10 रविवार वि. सं. 1616 में प्रतिष्ठित ) धर्मनाथ जिनालय, रत्नपुरी, अयोध्या में प्राप्त पद्मप्रभ जी की प्रतिमा (प्रतिमालेख अनुसार ज्येष्ठ सुदि 5 सोमवार वि. सं. 1617 में प्रतिष्ठित ) महावीर पाट परम्परा 210 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10) शांतिनाथ जिनालय, सुतार की शेरी, थराद में प्राप्त शीतलनाथ जी की धातुप्रतिमा (लेख अनुसार ज्येष्ठ सुदि 5 सोमवार वि.सं. 1617 में प्रतिष्ठित) 11) आदिनाथ जिनालय, शत्रुजय के देवकुलिका में अभिलेखानुसार वैशाख सुदि 2 वि.सं. 1620 में प्रतिष्ठित) इनके अतिरिक्त भी दानसूरि जी म.सा. के करकमलों द्वारा प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं अनेकों स्थानों पर उपलब्ध होती हैं। कालधर्म : विचरते-विचरते अन्त समय में वे पाटण के पास वड़ावली (वटपल्ली) गाँव में पधारे। निरन्तर उनका स्वास्थ्य क्षीण होता रहा। अनशन स्वीकार कर सम्यक् आराधना करते हुए वैशाख सुदि 12 विक्रम संवत् 1622 (ईस्वी सन् 1565) में वे कालधर्म को प्राप्त हुए। श्रावकवर्ग ने शोकाकुल हृदय से महोत्सव कर अग्निसंस्कार किया एवं स्मृति के स्तूप बनवाया एवं चरण पादुका पधराई। विजय दान सूरि जी के एक शिष्य विजय राज सूरि जी से तपागच्छ की रत्नशाखा का प्रादुर्भाव हुआ जबकि दूसरे शिष्य विजय हीर सूरि जी से तपागच्छ की मूल परम्परा आगे चली। महावीर पाट परम्परा 211 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58. आचार्य श्रीमद् विजय हीर सूरीश्वर जी अकबर प्रतिबोधक हीर सूरि जी, प्रभावी धर्म प्रचार। जगद्गुरु बिरुदधारी गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ मुगल काल में प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जिनशासन की दिव्य पताका फहराने वाले, शासनपति भगवान् महावीर के 58वीं पाट पर आए आचार्य विजय हीर सूरि जी की गणना जैन परम्परा के समृद्ध इतिहास में शासन प्रभावक आचार्य वृंदों में होती है। मुगल बादशाह अकबर को प्रतिबोधित कर उसे भी अहिंसाप्रेमी बनाने का श्रेय उन्हें जाता है। जन्म एवं दीक्षाः पालनपुर के ओसवाल वंशीय श्रावक कुंराशाह एवं उनकी धर्मपत्नी नाथीबाई के तीन पुत्रसिंगा जी, सूरचंद और श्रीपाल व तीन पुत्रियाँ-रम्भा, रानी और विमला थीं। मार्गशीर्ष सुदि नवमी वि. स. 1583 (सन् 1526) को उत्तम नक्षत्रों-ग्रहों के योग एक अन्य बालक का जन्म हुआ। बालक का नाम 'हीर जी' रखा गया। बाल्यकाल से ही वह प्रखर बुद्धि का धनी था। एक दिन तपागच्छ के विद्वद् आचार्य दान सूरि जी का वहाँ पदार्पण हुआ जिससे उस बालक के हृदयं में धर्म के बीज अंकुरित हुए। ___ बालक की उम्र जब 10-12 साल की थी, तब पितृछाया का वियोग हो गया। हीर जी अपनी विवाहित बहनों के साथ पाटण रहने लगा। वि.सं. 1596 (सन् 1539) में दान सूरि जी पाटण पधारे। अपने भाई-बहनों की आज्ञा लेकर 13 वर्ष की उम्र में बालक हीर ने दीक्षा ली। उसी वर्ष कार्तिक वदी 2 को पाटण में उसकी दीक्षा सम्पन्न हुई। वह दान सूरि जी का शिष्य बना एवं नाम 'मुनि हीरहर्ष विजय' रखा गया। संयम जीवन व शासन प्रभावना : दान सूरि जी के सानिध्य में मुनि हीरहर्ष विजय जी ने अहर्निश अनथक प्रयासों से जैन शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। एक दिन दान सूरि जी मुनिवर के पाण्डित्य की योग्यता महावीर पाट परम्परा 212 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखते हुए विचार करते हैं कि उन्हें न्यायशास्त्र एवं ज्योतिष में भी प्रवीण बनाना चाहिए। दक्षिण में देवगिरि (दौलताबाद) इस हेतु से उत्तम था । अतः उन्होंने धर्मसागर जी, राजविमल जी एवं हीरहर्ष जी को पढ़ने के लिए देवगिरि भेजा । दो-तीन साल तीनों मुनिवृंदों ने खूब पढ़ाई की। शिक्षक एवं रहने का सम्पूर्ण खर्चा दौलताबाद के सेठ शाह देवीदास ने किया। विद्याध्ययन कर उन्होंने पुनः गुजरात- मारवाड़ की ओर दान सूरि जी के पास जाने हेतु विहार किया। नाडलाई नगर में गुरु दान सूरि के दर्शन कर मुनि हीरहर्ष जी बहुत आनंदित हुए एवं 108 काव्य की रचना कर गुरु की स्तुति की। दान सूरि जी को अत्यंत प्रसन्नता हुई कि न्यायशास्त्र के कठिन से कठिन ग्रंथ का पूर्ण अभ्यास मुनियों ने किया। संवत् 1607 (सन् 1550 ) में नारदपुरी ( नाडलाई ) मारवाड़ में तीनों मुनियों को पण्डित पद प्रदान किया। अगले ही वर्ष संवत् 1608 में माघ सुदी पंचमी को नेमिनाथ जी के देरासर व वरकाणा पार्श्वनाथ देरासर - नाडोल में तीनों साधुओं को उपाध्याय पद से विभूषित किया। हीरहर्ष जी की योग्यता को देखते हुए विजय दान सूरि जी म. ने हीरहर्ष विजय जी को पौष सुदी पंचमी संवत् 1610 ( सन् 1553) में सिरोही ( मारवाड़) में आचार्य पदवी से अलंकृत कर उनका नाम 'आचार्य विजय हीर सूरि' ( मतांतर से आचार्य हीरविजय सूरि) रखा। हीर सूरि जी अपने गुरु के साथ मेहसाणा, अहमदाबाद होते हुए पाटण में पधारे। वहाँ आचार्य विजय दान सूरि जी ने हीर सूरि जी को अपना पट्टधर घोषित किया। पट्ट - महोत्सव पर वहाँ के सूबेदार शेस्खान के मंत्री भंसाली समर ने अतुल धन खर्च किया। संवत् 1622 (सन् 1565 ) में गुरुदेव के काल कर जाने पर संघ के संवहन का दायित्व हीर सूरि जी ने निभाया। वे विशिष्ट शक्तियों के धनी थे। एक बार मुनि लाभ विजय जी को विषैले सांप ने काटा। उनकी जीवन ज्योति बुझ रही थी किंतु आचार्य हीर सूरि जी ने हाथ फेरा तो विष ऐसे उतरा मानो कुछ हुआ ही न हो। अनेकों बार उन्हें राजद्रोह अथवा झूठे मुकदमों के नाम पर पकड़ने की साजिश हुई किंतु अपने निष्कलंक संयम से वे शासनरक्षा करते रहे । हीर सूरि जी ने अनेक मुस्लिम बादशाहों को प्रतिबोधित किया जिनमें 18 प्रमुख थे 2. जाफरबेग आशीफखान 1. अकबर बादशाह 4. अबुलफजल 5. कासिम खाँ कामली महावीर पाट परम्परा 3. मुल्लाशाह मुहम्मद 6. शाहबादी 213 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. कालेखाँ फैजी 8. अब्दुल समद 9. सुस्महमहाद 10. शेख मुबारक 11. आजमखान कोका 12. सदर जहान 13. मीर शरीफ अमली 14. नवी शास्तरी 15. सुल्तान राजा सदर 16. शेखज़ादा गोसला 17. बीरबल 18. मिर्जा जानी हाकमट्ठा अनेकों ने अपने साम्राज्य में जीवहिंसा-कत्लखाने बन्द कराए थे। मेवाड़ का राणा प्रताप भी सूरि जी का भक्त था। विजय हीर सूरि जी ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में चातुर्मास किए। आनन्द काव्य महोदधि ग्रंथ के पाँचवें भाग के अनुसार पाटण-8, खंभात-7, अहमदाबाद-6, सिरोही-2, सांचोर-2, आगरा-2, मेहसाना-1, बोरसद-1, राधनपुर-1, कुनधेर-2, अमोद-1, अभरामाबाद, फतेहपुर सीकरी-1, सजोतरा-1, गंधार-1, नागोर, ऊना-1, दिल्ली-1, लाहौर-1, जालोर-1 तथा इलाहाबाद, मथुरा, मालपुरा, सूरत, आबू, फलौदी, राणकुपुर, नाडलाई. पालीताणा, देवी और ऊना इत्यादि जगहों पर अन्य मतानुसार चातुर्मास किए। उनकी तपस्या उनकी शासन प्रभावना का मुख्य आधार रही। विजय हीर सूरि जी ने आजीवन बहुत तपस्या की। कुछ का वर्णन इस प्रकार है- 81 अट्टम, 225 छट्ठ, 3600 उपवास, 2000 आयम्बिल, 2000 नीवि, वीस स्थानक की तपस्या 20 बार, सूरिमंत्र की विधि सहित तपश्चर्या, दर्शन, ज्ञान, चारित्र पदो की उग्र तपस्या (22 महीने) एवं गुरुभक्ति तप में भी 13 महीने की उग्र तपश्चर्या आदि से रसनेन्द्रिय को वश किया। बादशाह अकबर को प्रतिबोधः विजय हीर सूरि जी के जीवन वृत्तांत की सर्वाधिक घटनाएँ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से बादशाह अकबर के साथ जुड़ी हैं क्योंकि अकबर बादशाह के द्वारा जिनधर्म के सिद्धांतो के प्रति अहोभाव प्रकट कराना एक महनीय कार्य था। फतेहपुर सीकरी (आगरा के निकट) में अकबर बादशाह अपने महल में बैठा हुआ था। तभी चम्पा नामक जैन श्राविका की 6 महीने की उग्र तपस्या की अनुमोदना में वहाँ विशाल जुलूस निकल रहा था। बादशाह अकबर ने जब जुलूस का कारण पूछा तो वह बहुत अचम्भित हुआ कि हम मुसलमान तो 1 महीने के रोजे करते हैं और पेट भर खाते है। कैसे इस स्त्री महावीर पाट परम्परा 214 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने 6 मास की तपस्या की? बादशाह ने मंगल चौधरी और कमर खाँ- दो भाईयों को यह जानने के लिए भेजा। चंपा श्राविका ने कहा-भाई यह मेरी शक्ति नहीं। हमारे 18 दूषणों से रहित ऋषभदेव जी से लेकर महावीर पर्यंत 24 तीर्थंकर देव एवं पूर्ण विरागी-भोग विलासों के त्यागी जैनाचार्य विजय हीर सूरि जी की शक्ति से यइ तपस्या हुई। बादशाह के मन में विचार हुआ कि ऐसे गुरु महाराज को जरूर बुलाना चाहिए। उस समय वे गांधार नगर में विराजमान थे। सूबे की ओर से विजय हीर सूरि जी को फतेहपुर पधारने का पत्र भेजा गया। श्रावक वर्ग से विचार-विमर्श करके राजा का आग्रह उन्होंने स्वीकार किया। बादशाह ने यह भी लिखा कि हाथी-घोड़ा-पालकी-जिसकी भी आवश्यकता हो, वो उपलब्ध कराए जाएंगे किन्तु हीर सूरि जी आचार के पक्के थे, इसलिए सब मना कर दिया। सूरि जी ने विहार चालू किया। ज्येष्ठ सुदि 12 संवत् 1639 को गुरुदेव का फतेहपुर सीकरी में 66 साधुओं सहित भव्य प्रवेश सम्पन्न हुआ। तेरस को विजय हीर सूरि जी- सैद्धान्तिक शिरोमणि उपाध्याय विमलहर्ष जी, शतावध नी शान्तिचंद्र जी, पंन्यास सहजसागर जी, पंन्यास सिंहविमल जी, पंन्यास हेमविजय, व्याकरण चूड़मणि लाभविजय जी आदि 13 साधुओं के साथ बादशाह के दरबार पहुँचे। किंतु गलीचे के ऊपर वे नहीं चले। हीर सूरि जी ने कहा हम जीवों की रक्षा करते हुए ही चलते हैं। राजा ने गलीचा उठवाया तो हजारों कीड़े नीचे थे। बादशाह उनकी प्रवृत्ति से प्रभावित हुआ। धीरेधीरे उन दोनो का समीप्य बढ़ता गया एवं गुरुदेव ने जैनधर्म का ज्ञान प्रवाहित कर बादशाह की पिपासा को तृप्त किया। अहिंसा का महत्त्व समझकर बादशाह का हृदय पसीज आता था। उसे आत्मग्लानि हुई कि उसने 14,000 हिरण, 12,000 चीते, 500 बाघ, 22,000 कुत्तों को मारा, सवा सेर चिड़ियों की जिह्वा खाता रहा। हीर सूरि जी ने पावन उपदेश से अकबर बादशाह ने जिन धर्म का महत्त्व समझ अनेक कार्य किए1. गुजरात, मालबा, बिहार, अयोध्या, प्रयाग, फतेहपुर, दिल्ली, लाहौर, मुलतान, काबुल, अजमेर व बंगाल-12 सूबों में षण्मासिक (6 महीनों की) अमारि प्रवर्तन कराया व जज़िया टैक्स बंद की। 2. पर्युषण के 8 व आस-पास के 4 दिनों में संपूर्ण राज्य में बूचड़खाने, कत्लखाने, शिकार आदि पर पूर्ण पाबन्दी यानि सर्वत्र अहिंसा का संदेश। महावीर पाट परम्परा 215 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अकबर बादशाह द्वारा गठित धर्म चर्चा सभा के 140 सदस्य थे जो पाँच श्रेणी में विभक्त थे। विजय हीर सूरि जी का नाम प्रथम श्रेणी में था। बादशाह के हृदय में मूर्तिपूजा का विरोध था एवं जैनधर्म की नास्तिकवादी छवि बनी हुई थी हीर सूरि जी ने उसका पूर्णतल से निवारण किया। बादशाह को यही लगता था हीर सूरि जी मात्र जैनों के गुरु नहीं, संपूर्ण जगत् के गुरु है। अतः संवत् 1640 में उन्होंने आचार्यश्री को 'जगद्गुरु' का विरुद दिया। इस प्रकार बादशाह अकबर हीर सूरि जी का परम भक्त बना एवं अनेक कार्य किए। बादशाह धर्म से विमुख ना हो, इस हितचिंतन के भाव से स्वयं उस क्षेत्र से विहार कर जाने पर भी अपने शिष्यों-प्रशिष्यों को उस क्षेत्र में विचरण करने की आज्ञा दी। साहित्य रचना : विजय हीर सूरि जी अत्यंत उत्तम कोटि के विद्वान थे। किंवदन्ती अनुसार उन्होंने शताधिक ग्रंथ लिखे थे किंतु उनमें से आज कुछ ही उपलब्ध हैं। वे हैं: - श्री शान्तिनाथ रास ; श्री द्वादश जिन विचार ; मृगावती चरित्र (प्रभातियु) ; अंतरिक्ष पार्श्वनाथ स्तव ; जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति पर संस्कृत टीका संघ व्यवस्थाः उस समय 2,500 साधु एवं 3,000 साध्वी जी इनकी आज्ञा में थे। एक सौ साठ (160) व्यक्तियों को दीक्षा, 160 को पण्डित पद एवं 8 को उपाध्याय पद उन्होंने प्रदान किया। राजकीय सम्मान प्राप्त होने पर उनमें तिलमात्र भी शिथिलाचार नहीं आया एवं न ही उन्होंने ऐसी भावना का संघ में संचार होने दिया। एक बार श्रावकों ने अहमदाबाद में पूज्य गुरुदेव के सम्मान में उनके बैठने के लिए विशिष्ट गोखला बनाया। श्रावकों ने सूरि जी को कहा कि आप बैठिए तो सूरि जी ने कहा कि चूंकि यह हमारे निमित्त बनाया है, इस पर बैठना मुझे नहीं कल्पता। इसी प्रकार की सख्त समाचारी का पालन उनके गच्छ में किया जाता था। अहमदाबाद में लुकामत (स्थानकवासी) के आचार्य श्री मेघजी ने अपने 25 मुनियों सहित जैनागमों की सत्यता जानकर हीर सूरि जी के पास दीक्षा ली। आज्ञानुवर्ती सभी साधु-साध्वी महावीर पाट परम्परा 216 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तल सं जी की पठन-पाठन व्यवस्था, विचरण क्षेत्र इत्यादि का निर्धारण हीर सूरि जी करते थे। प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाएँ: हीर सूरि जी म. सा. ने सिरोही, नाडलाई, अहमदाबाद, पाटण आदि 50 मंदिरों की प्रतिष्ठा स्वयं कराई एवं उनके कहने से अन्य 500 मंदिर तैयार हुए। हजारों प्रतिमाओं की उन्होंने अंजनश्लाका कराई। वर्तमान समय में उनके द्वारा प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाएँ यत्र-तत्र प्रात होती हैं जिन पर उनकी प्रतिष्ठा की तिथि भी मिलती है किंतु मूल स्थान वर्तमान स्थान भी हो सकता है एवं अन्य भी। 1. त्रैलोक्य दीपक प्रसाद, राणकपुर में सभामंडप के खंभे पर उत्कीर्ण शिलालेख अनुसार वैशाख सुदि 13 संवत् 1611 में प्रतिष्ठित 2: पद्मप्रभ जिनालय, चूड़ीवाली गली, लखनऊ में प्राप्त कुंथुनाथ जी की धातु की प्रतिमा लेख अनुसार माघ वदि-1 गुरुवार संवत् 1617 में प्रतिष्ठित। चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, भैंसर रोड़गढ़ में प्राप्त आदिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेख अनुसार फाल्गुन वदि 12, बुधवार, संवत् 1620 में प्रतिष्ठित)। विमलवसही, आबू के शिलालेख अनुसार पौष वदि 13 शुक्रवार वि. सं. 1621 में प्रतिष्ठित जैन मंदिर जूनावेड़ा (मारवाड़) में प्राप्त शान्तिनाथ जी की प्रतिमा। (अभिलेख के अनुसार वैशाख सुदि 10 शुक्रवार संवत् 1624 में प्रतिष्ठित)। श्रीमालों का मंदिर, जयपुर में प्राप्त पद्मप्रभ स्वामी जी की धातु की प्रतिमा (लेख के अनुसार माघ सुदि 6 सोमवार वि. सं 1624 में प्रतिष्ठित) 7. ऊँझा के जैनमन्दिर में प्राप्त आदिनाथ ऋषभदेव जी की धातु की प्रतिमा (लेख के अनुसार ___ माघ सुदि 6 सोमवार वि.सं. 1624 में प्रतिष्ठित) संभवनाथ देरासर, जैसलमेर में संभवनाथ जी की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख अनुसार फाल्गुन सुदि 8, सोमवार वि.सं. 1626 में प्रतिष्ठित। नाणा, खंभात, खेड़ा, भरुच, शत्रुजय, जयपुर, पाटण, बड़ौदा, नौहर, भंडार, उदयपुर, मुम्बई, अजीमगंज, नागौर, सिरोही, कलकत्ता, ईडर, बीजापुर, वरखेड़ा, सांगानेर, आदि अनेकानेक स्थलों महावीर पाट परम्परा ० ० 217 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर आज भी वे प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं जिनकी अंजनश्लाका अथवा प्रतिष्ठा हीर सूरि जी म. सा. ने करवाई थी। कालधर्मः 3 शासन की महती प्रभावना करते-करते विजय हीर सूरि जी संवत् 1651 (सन् 1594) के ऊना (गुजरात) चातुर्मास में वे अस्वस्थ हो गए। इसलिए चातुर्मास के बाद श्रीसंघ ने उन्हें विहार नहीं करने दिया। श्रीसंघ के आग्रह पर भी किसी तरह की औषधि का सेवन नहीं किया। दिन-प्रतिदिन उनकी रुग्णता बढ़ती गई फिर भी संवत् 1652 में पर्युषणों में कल्पसूत्र उन्होंने ही वांचा । भाद्रपद सुदी 11 संवत् 1652 (सन् 1595) के दिन अन्तिम शब्दोच्चारण करते हुए अपने अन्तेवासियों को कहा, 'अब मैं अपने कार्य में लीन होता हूँ। तुमने हिम्मत नहीं हारनी । धर्मकार्य करने में वीरता दिखानी है" इत्यादि । इसके बाद सूरिजी पद्मासन में विराजमान होकर माला करने लगे। चार मालाएँ पूरी कर जैसे ही पाँचवीं माला फेर रहे थे, वैसे ही माला उनके हाथ से गिर पड़ी एवं तपागच्छ का देदीप्यमान नक्षत्र अस्त हो गया। 44 अगले ही दिन वहाँ पर लोगों ने आम के पेड़ों पर फल देखे। जिन पर कभी फल भी नहीं आते थे, उन पर भी भादों (भाद्रपद) के महीने में आम लगे थे, जो निस्संदेह दिव्यात्मा के पुण्य प्रताप का फल था। बादशाह अकबर को भी सूरि जी के देहावसान का अपार दुःख हुआ किंतु उस स्थल के आम जो उन्हें भेजे गए थे, तो देखकर गुरुदेव के प्रति अतुल श्रद्धा का संचार हुआ। जिस बगीचे में सूरि जी का संस्कार हुआ, वे बगीचा और उसके आस-पास की 22 बीघा जमीन बादशाह अकबर ने जैनों को दी जहाँ पर दीवकी लाडकी बाई ने स्तूप बनवाकर आचार्य श्री की चरण पादुकाएँ स्थापित की। आचार्यश्री की रुग्णावस्था जानकर विजय सेन सूरि जी ने ऊना की ओर विहार किया था किंतु कारणवश वे उनसे दूर थे एवं अंत समय में उनके दर्शन नहीं कर सके। कवि ऋषभदास के अनुसार उनके संस्कार में 21 मन चंदन, 4 मन अगर, 15 सेर अम्बर कस्तूरी एवं अढाई सेर केसर डाला गया व वे कालोपरान्त दूसरे देवलोक में गए थे। महावीर पाट परम्परा 218 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59. आचार्य श्रीमद् विजय सेन सूरीश्वर जी सवाई सूरि आचार्य श्री सेन, वाक्पटु सद्विचार। अकबर प्रभावक - संघ सुधारक, नित् वंदन बारम्बार॥ शासन नायक भगवान् महावीर स्वामी जी की पाट परम्परा के 59वें क्रम पर आचार्य विजय सेन सूरि जी हुए। अपने व्यक्तित्त्व से बादशाह अकबर को प्रभावित कर जैनधर्म में उनकी आस्था को सुदृढ़ करने का एवं अपने गुरु विजय हीर सूरि जी की ख्याति को और अधिक विस्तृत कर शासन की प्रभावना करने का श्रेय इन्हें जाता है। जन्म एवं दीक्षाः नाडलाई (मारवाड़) में फाल्गुन सुदि पूर्णिमा वि.सं. 1604 (सन् 1547) को पिता कुरांशाह (कुमेशाह) व माता. कुडभी देवी के सद्गार्हस्थ्य से उत्तम लक्षण वाले पुत्र का जन्म हुआ। सामुद्रिक शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों ने बालक के प्रबल यश नाम कर्म का कथन किया। माता-पिता ने पुत्र का नाम- 'जय सिंह कुमार' रखा। ____ जब बालक 7 वर्ष का था, तब उसके पिता ने अपनी धर्म पत्नी की आज्ञा से सं. 1611 में विजय दान सूरीश्वर जी म के पास दीक्षा ग्रहण की। माता-पुत्र दोनों संसार में अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे। एक दिन जयसिंह कुमार एवं उसकी माता ने विचार किया कि विजय दान सूरि जी के दर्शन हेतु सूरत जाए। कहा गया है- हल्के कर्मी जीव को उपदेश जल्दी लग जाता है। दान सूरि जी की देशना सुन जय सिंह कुमार व माता को वैराग्य हुआ एवं दोनों ने दीक्षा लेने का निश्चय किया। ज्येष्ठ सुदि 11 संवत् 1613 (सन् 1556) को सूरत में माता-पुत्र की दीक्षा हुई। इनका दीक्षा का नाम- 'मुनि जयविमल विजय' दिया गया एवं वे हीर सूरि जी के शिष्य घोषित हुए हीर सूरि जी की निश्रा में रहते उन्होंने न्याय, व्याकरण, तर्क आदि ग्रंथों का अभ्यास किया। शासन प्रभावनाः खंभात में फाल्गुन सुदि 10 वि.सं. 1626 (सन् 1569) में मुनि जयविमल विजय जी को महावीर पाट परम्परा 219 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित पद दिया गया। खंभात से विहार कर गुरु के साथ विचरते हुए वे अहमदाबाद पधारे जहाँ फाल्गुन सुदि 7 संवत् 1628 (सन् 1571) का आपश्री जी को उपाध्याय व आचार्य पद से विभूषित किया गया। विजय हीर सूरि जी ने इनका आचार्य पर्याय का नाम-विजय सेन सूरि रखा। मूला सेठ और वीपा पारिख ने पूरा महोत्सव किया। आचार्य विजय हीर सूरि जी म. ने सूरि मंत्र की साधना के दौरान देवता से प्रश्न किया। देवता ने कहा कि अपने पाट पर जयविमल जी (सेन सूरि) को बिठाना। जब हीर विजय सूरि जी बादशाह अकबर के निमंत्रण पर फतेहपुर आए, तो पीछे सेन सूरि जी को गुजरात का दायित्व देकेर आए। सेन सूरि जी के हृदय में अपार गुरु भक्ति थी। जब गुरु ने विहार किया, तब सिरोही तक छोड़ आए एवं 4 साल बाद जब हीर सूरि जी वापिस आए, तब भी सिरोही तक लेने गए। __ संवत् 1646 का चातुर्मास गंधार कर संवत् 1647 को चातुर्मास हीर सूरि जी के साथ ही राधनपुर में किया। अकबर बादशाह ने तब फरमान भेजा कि "गुरुजी! आप कहते थे आप पुनः यहाँ पधारोगे। आपकी अनुकूलता नहीं है तो सेन सूरि महाराज को ही भेज दीजिए। यहाँ भानुचंद्र जी के मुख से उनकी अपार प्रशंसा सुनी है।" साधु मंडली में चिंतन-मनन चालू हुआ। अंततः विजय सेन सूरि जी ने गुर्वाज्ञा से विद्या विजय जी आदि साधुओं के साथ मार्गशीर्ष सुदि 3 को विहार चालू किया व राधनपुर ने पाटण- सिद्ध पुर- सलोतर- मुंडस्थल- आबूसिरोही- राणकपुर- मेड़ता- सांगानेर- रेवाड़ी- सामाना- लुधियाना होकर ज्येष्ठ सुदि 12 वि. सं. 1650 में दिल्ली में प्रवेश किया व बादशाह से मिले। कश्मीरी मोहल्ले में जिनचन्द्र सूरि जी (खरतरगच्छीय) के साथ मिलकर चातुर्मास किया एवं ब्राह्मण और मुस्लिमों को भी प्रतिबोधित किया। विजय सेन सूरि जी में विजय हीर सूरि जी का प्रतिबिंब देख बादशाह हर्षित हुआ। ___ एक जैनाचार्य के समक्ष बादशाह का इतना झुकाव और सत्कार देखकर किसी भट्ट ने बादशाह के कान भरे कि जैन लोग ईश्वर को नहीं मानते, सूर्य को- गंगा को नहीं मानते इत्यादि। राजा को मानसिक कोप हुआ किंतु शान्त रहा। बादशाह ने विजय सेन सूरि जी यह बातें प्रकट की। उत्सूत्र प्ररुपणां भी न हों- राजा क्रोधित भी न हो- भट्ट को भी उत्तर मिल जाए, इस प्रकार की सरस विवेचनपूर्ण शैली में विविध धर्मों के संदर्भ लेकर भी सूरि जी ने जैन सिद्धांत को समझाया। बादशाह अत्यंत प्रसन्न हुआ। बादशाह के आग्रह से विजयसेन सूरि जी ने 2 चातुर्मास लाहौर किए। सेन सूरि जी की प्रेरणा से गाय- बैल- भैंसा- भैंस की हत्या, नाऔलाद महावीर पाट परम्परा 220 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का द्रव्य लेना, और निरपराधी पशु-पक्षियों की कैद- इन सभी बातों पर रोक लगी। जब उन्हें अपने गुरु हीर सूरि जी की अस्वस्थता के समाचार मिले, तभी उन्होंने लाहौर से विहार चालू किया। मार्ग लंबा होने से एक चातुर्मास उन्हें सादड़ी करना पड़ा और उसी चातुर्मास में हीर सूरि की कालधर्म हो गया। गच्छ का संपूर्ण दायित्व इन पर आया। विजय सेन सूरि जी से प्रभावित हो बादशाह अकबर ने उन्हें 'सवाई सूरि' की उपाधि दी। आचार्य विजय सेन सूरि जी वाद विद्या में भी बहुत निपुण थे। हीर सूरि जी से प्रभावित हो जो स्थानकवासी मत के मेधजी ऋषि आदि साधु ने संवेगी दीक्षा ली, उसका श्रेय भी इन्हें ही जाता है। अकबर की सभा में ब्राह्मण विद्वानों के साथ उन्होंने कई शास्त्रार्थ किए और वे सफल रहे। शास्त्रार्थ जय के प्रसंग पर अकबर बादशाह ने स्वयं इन्हें उसी समय- 'काली सरस्वती' की उपाधि प्रदान की थी। वि.सं. 1632 में सूरत बंदर में श्रीमिश्र चिन्तामणि प्रमुख विद्वानों की साक्षी में विजय सेन सूरि जी ने शास्त्रार्थ में भूषण नामक दिगम्बर भट्टारक को जीता। गुजरात, मारवाड़ आदि में अनेकानेक क्षेत्रों लोगों में जिनवाणी की सिंहगर्जना करते हुए उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की। साहित्य रचनाः विजय सेन सूरि जी विद्वत्ता के धनी थे। योगशास्त्र के प्रथम श्लोक नमो दुर्वार-रागादि, वैरिवार-निवारिणे। अर्हते योगिनाथाय, महावीराय तायिने॥" इस एक श्लोक के 700 अर्थ उन्होंने किए जो उनकी भाषा पर आधिपत्य का प्रतीक है। इसके अलावा उनके द्वारा रचित कुछ ग्रंथ जैसे सूक्तावलि, सुमित्ररास इत्यादि ग्रंथ यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं। संघ व्यवस्थाः 2000 साधु-साध्वियों का 20 वर्ष तक कुशल नेतृत्व किया। विजय सेन सूरि जी ने 8 साधुओं को वाचक (उपाध्याय) पद दिया एवं 150 साधुओं को पंडित पद प्रदान किया। अन्य मत के कई साधु उनसे प्रभावित होकर जिनधर्म में दीक्षित हुए। विजय सेन सूरि जी शिथिलाचार महावीर पाट परम्परा 221 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उतने ही विरोधी थे जितने उनके पूर्वगुरु थे। उन्होंने अपने गच्छ की अनुज्ञा पाटण में वि. सं. 1658 में पौष कृष्णा 6 के दिन अपने विद्वान शिष्य विजयदेव सूरि जी को दी। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ: आचार्य विजय सेन सूरि जी ने चार लाख जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका - प्रतिष्ठाएँ की, करवाई। उनके जीवन वृत्तांत से ज्ञात होता है कि उन्होंने गंधार बंदर में इन्द्रजी सेठ के घर महावीर स्वामी की प्रतिमा, धनाई श्राविका के घर में प्रतिष्ठा, गंधार में ही चिंतामणि पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी जी की प्रतिमा विराजमान की । खंभात में रजिया-रजिया के घर में प्रतिष्ठा तथा 1654 में अहमदाबाद में जमीन से निकली विजय चिंतामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा शकन्दरपुर में स्थापित की। अहमदपुर, राजनगर, राधनपुर, स्तंभन तीर्थ, अकबरपुर, शत्रुंजय, नारंगपुर, राणकपुर आदि स्थलों पर आचार्यश्री द्वारा प्रतिष्ठाएँ कराने का वर्णन आता है। आचार्यश्री द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ आज भी अनेक जगह यत्र-तत्र प्राप्त होती हैं। कुछ इस प्रकार 1. 2. 3. 4. 5. 6. चंद्रप्रभ जिनालय, जानीसेरी ( बड़ौदा ) में प्राप्त विमलनाथ जी की पाषाण की प्रतिमा (लेख अनुसार ज्येष्ठ सुदि 2 सोमवार वि. सं. 1643 में प्रतिष्ठित ) । नौघरा मंदिर, चांदनी चौक, दिल्ली में प्राप्त शीतलनाथ जी की प्रतिमा (लेख के अनुसार फाल्गुन सुदि 11, गुरुवार, वि.सं. 1643 में प्रतिष्ठित ) । शान्तिनाथ जिनालय, पादरा एवं हिंदविजय प्रेस वालों का घर देरासर, बड़ोदरा में प्राप्त श्री शान्तिनाथ जी की धातु प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ सुदि 12 वि.सं. 1644 में प्रतिष्ठित ) । पार्श्वनाथ जिनालय, मेड़ता सिटी में प्राप्त शीतलनाथ जी, अरनाथ जी, महावीर स्वामी जी की पाषाण प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 4 बुधवार वि. सं. 1653 में प्रतिष्ठित)। अजमेर के संग्रहालय में प्राप्त सुमतिनाथ जी की पाषाण की प्रतिमा (लेख अनुसार माघ सुदि 12, बुधवार वि. सं. 1654 में प्रतिष्ठित ) । शान्तिनाथ जालय, किशनगढ़ में प्राप्त कुंथुनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेख के महावीर पाट परम्परा 222 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘अनुसार वैशाख सुदि 13 सोमवार वि.सं. 1660 में प्रतिष्ठित)। 7. विमलनाथ जिनालय, सवाई माधोपुर में मूलनायक विमलनाथ जी की पाषाण की प्रतिमा लेख अनुसार आषाढ़ सुदि-2, शनिवार वि.सं. 1668 में प्रतिष्ठित। पार्श्वनाथ जिनालय, माणेक चौक, खंभात में चिंतामणि पार्श्वनाथ के परिकर पर उत्कीर्ण लेख अनुसार आषाढ़ सुदि-2 शनिवार वि.सं. 1608 में प्रतिष्ठित। देरासर, जयपुर में प्राप्त सुमतिनाथ जी की धातु की प्रतिमा के परिकर पर उत्कीर्ण (लेख अनुसार वैशाख सुदि 5 सोमवार वि.सं. 1670 में प्रतिष्ठित)। 10. सुमतिनाथ जिनालय, माधवलाल बाबू की धर्मशाला, पालीताणा में प्राप्त आदिनाथ जी __ की प्रतिमा। (लेख अनुसार माघ सुदि-2 वि.सं. 1670 में प्रतिष्ठित)। कालधर्मः गाँव-गाँव में जिन धर्म का प्रचार करते-करते ज्येष्ठ वदी 11 वि.सं. 1671 (सन् 1714) में खंभात के पास अकबर पुर में विजय सेन सूरि जी का स्वर्गवास हो गया। अकबरपुरा में जहाँ सूरिजी का अग्नि संस्कार हुआ, वहाँ उनका स्तूप बनाने के लिए बादशाह जहांगीर ने 10 बीघा जमीन जैन श्रीसंघ को दी। वहाँ पर खंभात निवासी शाह जगसी के पुत्र सोम जी शाह ने सूरिजी का भव्य स्तूप बनवाया। वर्तमान में अकबरपुर में कुछ भी नहीं है लेकिन खंभात के भोयरावाडे में शान्तिनाथ जी का मंदिर है। मूल गंभारे में मूलवेदी के बायें हाथ की तरफ एक पादुका वाला पत्थर है और उसके लेख से यही ज्ञात होता है- यह वही पादुका है जिसका निर्माण सोमजी शाह ने कराया और वि.सं. 1672 (सन्- 1715) में देवसूरि जी की निश्रा में प्रतिष्ठित की। संभवतः काल के प्रभाव से अकबरपुर की स्थिति खराब हो जाने पर पादुका वाला पत्थर यहाँ लाया गया होगा। महावीर पाट परम्परा 223 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60. आचार्य श्रीमद् विजय देव सूरीश्वर जी दुष्कर तपस्वी महातपा, जहांगीर अनुसार। देवसूरि जी दिव्य विभूति, नित् वंदन बारम्बार॥ धर्म प्रचार के साथ-साथ जिनका तपोमय जीवन जनता के लिए विशेष आकर्षण का विषय था, ऐसे भगवान् महावीर स्वामी की 60 वीं पाट-परम्परा पर सुशोभित विजयदेव सूरि जी म. सा. ने जिनशासन की अभूतपूर्व प्रभावना की। अपने गच्छ का अन्तरंग विरोध होने पर भी उनकी व्यापक विचारधारा ने उनको जनप्रिय बनाया। जन्म एवं दीक्षा : विजय देव सूरि जी का जन्म गुजरात प्रदेशान्तर्गत इलादुर्ग (ईडर) गाँव निवासी महाजन परिवार में पौष शुक्ला 13 वि.सं. 1634 के दिन उत्तम नक्षत्रों के योग में हुआ। उनके पिता का नाम 'स्थिर' एवं माता का नाम 'रुपादेवी' था। माता-पिता ने शिशु का नाम वासकुमार (वासदेव) रखा। वासदेव को माता-पिता के धार्मिक विचारों से प्रेरणा मिलती रहती जिससे उसका मन उत्तरोत्तर त्याग की ओर झुकता गया। माता रुपा देवी और बालक वासकुमार ने दीक्षा लेने का निश्चय किया। माघ शुक्ला 10 वि.सं. 1643 के शुभ दिन अहमदाबाद के हाजा पटेल की पोल में विजय सेन सूरि जी के हाथों से भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई। मुनि जीवन में इनका नाम 'मुनि विद्या विजय' रखा गया नाम के अनुरूप वे सदा विद्या अर्जन में तत्पर रहते एवं शीघ्र ही 6,36,000 श्लोक उन्होंने कण्ठस्थ किए। शासन प्रभावनाः इनकी योग्यता को देखते हुए विजय सैन सूरि जी ने मार्गशीर्ष कृष्णा 5 वि.सं. 1655 के दिन खंभात में पण्डित पद प्रदान किया, वैशाख शुकला 4 वि.सं. 1656 के दिन सूरिमंत्र पूर्वक सूरि (आचार्य) पद पर प्रतिष्ठित किया गया। पाटण में पौष कृष्णा 6 वि.सं. 1658 के दिन से सूरि जी ने इन्हें गच्छ की अनुज्ञा प्रदान की तथा ये अपने आचार्य पर्याय के नाम 'विजय देव सूरि' के नाम से विख्यात हुए। वन्दन महोत्सव की व्यवस्था श्रावक सहस्त्रवीर ने हर्षोल्लास - पूर्वक की। महावीर पाट परम्परा 224 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब बादशाह अकबर के उत्तराधिकारी बादशाह जहांगीर मांडु में आए, तब उन्होंने अनेकों लोगों के मुख से हीर सूरि जी एवं उनकी गौरवशाली शिष्य-प्रशिष्य परंपरा के बारे में सुना। खंभात में विराज रहे देव सूरि जी को उसने निमंत्रण भेजा। आश्विन सुदि 13 को देव सूरि जी मांडु पहुंचे एवं बादशाह से मिले। सूरिजी की विद्वत्ता एवं तेजस्विता से जहांगीर बहुत प्रभावित हुआ। बादशाह अकबर के पुत्र बादशाह जहाँगीर पर देव सूरि जी का बहुत अच्छा प्रभाव था। जब जहाँगीर मांडू में था, तब उसने आचार्य विजय देव सूरि जी के बारे में सुना तो जैन ध र्मोपदेश सुनने हेतु आमंत्रित किया। खंभात से विहार कर वे आश्विन शुक्ल त्रयोदशी वि.सं. 1673 (सन् 1616) को मांडू पहुँचे। बादशाह इनके व्यक्तित्त्व से बहुत प्रभावित हुआ। बादशाह ने कहा- श्री हीर सूरि जी तथा श्री सेन सूरि जी के पट्ट पर सर्वाधिकार पाने के योग्य ये ही आचार्य हैं" इत्यादि। - विजय सेन सूरि जी बहुत तपस्वी थे। घी को छोड़ शेष 5 विगई का उनका त्याग था व 11 द्रव्य से अधिक नहीं वापरते थे। वे आयम्बिल, नीवि, उपवास, छट्ठ, अट्ठम, अभिग्रह आदि कोई न कोई तपश्चर्या अवश्य करते थे व पारणे के दिन भी एकासणा ही करते थे। अठारह यक्ष सानिध्य में रहते थे। उनके वर्चस्वी व्यक्तित्त्व की ख्याति जनता में प्रसारित होने लगी। विजय देव सूरि जी की तपो-साधना से प्रभावित होकर बादशाह जहाँगीर ने वि.सं. 1664 में मांडवगढ़ में 'महातपा' का विशेषण प्रदान किया। वह खुद विजय देव सूरि जी के पास 6-6 घंटे जाकर धर्मचर्चा करता था। उसको प्रतिबोध देकर जीवदया के अनेक कार्य कार्यान्वित किए। उदयपुर का राणा जगत् सिंह भी इनसे बहुत प्रभावित था। विजयदेव सूरि जी के समक्ष राणा ने 4 बातों की प्रतिज्ञा ली - आज से पिछौला और उदयसागर तालाब में मछली नहीं पकड़ी जाएगी, राज्याभिषेक के दिन, गुरुवार को संपूर्ण जीवहिंसा का निषेध रहेगा, अपने जन्म मास- भाद्रपद महीने में जीवहिंसा कतई नहीं होगी, मचिंदगढ़ में कुंभलविहार आदि जिन चैत्यों का जीर्णोद्धार कराया जाएगा। राणाजी की उक्त 4 प्रतिज्ञाएँ सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ। आचार्य श्री का लौकिक व लोकोत्तर प्रभाव दिन प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त था। एक बार आचार्य श्री जी का चातुर्मास सिरोही हुआ। आसपास के अनेक स्थानों के श्रावक वंदनार्थ आए। सादड़ी के श्रावकों ने फरियाद करते हुए कहा- हमारे नगर में लुकांमत महावीर पाट परम्परा 225 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्थानकवासी) का प्रचार जोरों से बढ़ रहा हैं और हमारा समुदाय - सम्यक् जिनधर्म निर्बल हो रहा है। यह सुनकर देव सूरि जी व्यथित हुए। शासन की अपभ्राजना उन्हें स्वीकार न थी। आचार्य श्री ने अपने पास के गीतार्थों को सादड़ी भेजा और वहाँ जाकर लुंकामतवादियों को शास्त्रार्थ के लिए बुलवाया। लुंपकों को पराजित कर राणाजी से सही वाला आज्ञा पत्र लिखवाया कि तपागच्छ वाले सच्चे हैं और लुंके झूठे हैं। राणाजी का यह पत्र सादड़ी के चौक में पढ़ा गया और लुंकों का प्राबल्य हटाया। जिन शासन के सत्य मार्ग से सबको जोड़ने का उत्तम भाव देवसूरि जी के हृदय में सदा रहता था । पाटण के सूबेदार को उपदेश देकर विजय हीर सूरि जी ( दादागुरु) के स्मारक का निर्माण कराया। सूबेदार ने 100 बीघा ज़मीन दी । वर्तमान में भी यह स्मारक 'दादावाड़ी' के 'नाम से सुप्रसिद्ध हैं। सूरि जी पुण्य के धनी थे। सूरि जी के मारवाड़ प्रवेश से ही वहाँ का दुर्भिक्ष दूर हो गया, अच्छी बारिश हुई जिससे वह शुष्क प्रदेश भी नदी मातृक हो गया। तेलंग, बीजापुर, जोधपुर, ईडर, किशनगढ़ आदि स्थान-स्थान पर मात्र धर्म प्रभावना ही नहीं कि अपितु बादशाह, राणा अथवा सूबेदार को प्रतिबोध देकर जीवदया के अनेक कार्य करवाए । ईडर (ईडरगढ़) में मुसलमानों द्वारा ऋषभदेव जी की प्रतिमा खंडित हो गई थी। इसलिए वहाँ के श्रावकों ने देव सूरि जी की प्रेरणा से उसी प्रमाण का नया जिनबिम्ब बनवाकर नडियाद की बड़ी प्रतिष्ठा में आचार्य विजयदेव सूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित करवा कर ईडर के किले के चैत्य में स्थापित कर दी। इन्होंने कई सज्झायों की रचना की। भारत भर के विभिन्न स्थानों में विचरण कर पूज्य श्री जी ने अनेक श्रावक बनाए, अनेकों का सम्यक्त्व दृढ़ किया एवं जिनशासन की महती प्रभावना की । संघ व्यवस्थाः आचार्य विजय सेन सूरि जी के समय में ही विजय हीर सूरि जी की विशाल सन्तति में परस्पर विचार भेद बढ़ते-बढ़ते उग्र हो गय। वि.सं. 1671 में सेन सूरि जी के कालधर्म पश्चात् उनके 2 पट्टधर हो गए-विजय देव सूरि और विजय तिलक सूरि । उन दिनों उपाध्याय धर्मसागर जी द्वारा प्रसारित सैद्धान्तिक मतभेद के कारण वातावरण तनावपूर्ण था। दान सूरि जी, हीर सूरि जी ने उन्हें गच्छ से बहिष्कृत किया। धर्म सागर जी - विजयदेव सूरि जी के सांसरिक मामा लगते थे। विजय देव सूरि जी कहीं अपने मामा का साथ न दे दें, इस कारण से भ्रान्त धारणा वश विजय तिलक सूरि जी को भी महावीर पाट परम्परा 226 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टधर बनाया गया। विजय देव सूरि जी के हृदय में किसी प्रकार का अन्यथा भाव गुरु, गुर्वाज्ञा अथवा संघ के प्रति नहीं था। विजयदेव सूरि जी से तपागच्छ की मूल परम्परा आगे बढ़ी तथा विजय तिलक सूरि जी से नयी शाखा-आनन्द सूरि शाखा बनी। विजय देव सूरि जी के 200 शिष्य थे। प्रमुख-कनक विजय और लावण्यविजय। अपने विद्वान् शिष्य कनकविजय को देवसूरिजी ने वि.सं. 1682 में अपना पट्टधर बनाया और नाम सिंह सूरि दिया किंतु उनके ही जीवनकाल में उनके उत्तराधिकारी का स्वर्गवास हो गया। अतः उन्होंने अन्य साधु को उत्तराधिकारी बनाया। कुल 2500 साधु-साध्वी इनकी आज्ञा मानते थे। दो को आचार्य पद, 25 को वाचक (उपाध्याय) पद एवं 500 से अधिक को पंडित पद प्रदान किया। सात लाख श्रावक इनकी आज्ञा मानते थे। . इनके काल में यत्र-तत्र जगहों पर जैन परम्परा में यतियों, ऋषियों, श्रीपूजों की ख्याति एवं आधिपत्य शनैः-शनैः स्थापित हो रहा था, जो चिंता का विषय था। इनके समय में तपागच्छ के भी साधु-साध्वियों में समाचारी में बदलाव आया। वैशाख सुदि 7 बुधवार वि.सं. 1677 में उन्होंने 58 बोल का पट्टक जारी किया तथा माघ सुदि 13 वि.सं. 1709 में पाटण में साधु-साध्वियों के लिए ही 45 बोल का पट्टक बनाया। प्रथम चैत्र सुदि 9 को कालुपुर अहमदाबार वि.सं. 1681 में तपागच्छ मुनियों का सम्मेलन भी हुआ। किंतु अनेक कारणों से संघ में धीरे-धीरे विघटन, सुविधानुसार आचार आदि प्रविष्ट होते चले गए। उसके हिसाब से देव सूरि जी ने संघ को कुशल नेतृत्व प्रदान किया। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ: आचार्य विजयदेव सूरि जी का जीवन चरित्र विशद रूप में प्राप्त होता है। उन्होंने कहाँ पर, कब और कितनी प्रतिमाएँ विराजमान की, इसका मूल रूप से विवरण रास, काव्य, चरित्र ग्रंथ आदि में मिलता है। वर्तमान में भी उनके द्वारा प्रतिष्ठित सैकड़ों जिनप्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं। कुछ इस प्रकार हैं1. जैन मन्दिर, गवाड़ा में प्राप्त धर्मनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेख अनुसार पौष वदि 2, बुधवार, वि.सं. 1664 में प्रतिष्ठित)। महावीर पाट परम्परा 227 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. आदिनाथ जिनालय, मालपुरा में प्राप्त सुविधिनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ शुदि 5 शुक्रवार वि.सं. 1672 में प्रतिष्ठित)। कुंथुनाथ जिनालय, मेड़ता सिटी में प्राप्त महावीर स्वामी, पार्श्वनाथ जी, सुमतिनाथ जी की पाषाण प्रतिमा (लेखानुसार माघ वदि 1 गुरुवाद वि.सं. 1674 में प्रतिष्ठित) रोशन मोहल्ला, आगरा के जिनमंदिर में प्राप्त मुनिसुव्रत स्वामी जी की प्रतिमा (लेख अनुसार माघ वदि 1, गुरुवाद वि.सं. 1674 में प्रतिष्ठित)। चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय, किशनगढ़ में प्राप्त चंद्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा (लेख अनुसार ज्येष्ठ सुदि 13 वि.सं. 1677 में प्रतिष्ठित)। चौमुख जी का मंदिर, जालोर में प्राप्त आदिनाथ (ऋषभदेव) जी की प्रतिमा (लेख अनुसार प्रथम चैत्र वदि 5 गुरुवार वि.सं. 1681 में प्रतिष्ठित)। गोड़ी, पार्श्वनाथ जिनालय, कोलर में प्राप्त सुमतिनाथ जी प्रतिमा (लेख अनुसार आषाढ़ . वदि 4 गुरुवार वि.सं. 1683 में प्रतिष्ठित)। 8. पंचायती जैन मंदिर, ग्वालियर में प्राप्त संभवनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेख अनुसार वैशाख, सुदि 15 वि.सं. 1685 में प्रतिष्ठित)। कालधर्म : विजयदेव सूरि जी 24 वर्ष की अवस्था में गच्छ नायक बने। उनकी कुल आयु 79 वर्ष के लगभग थी। शासन की प्रभावना करते-करते वे दीव (ऊना) पधारे जहाँ भक्ति भाव से श्रावकों ने स्वागत किया। अपने दादागुरु श्री विजय हीर सूरि जी की समाधि के भावपूर्वक दर्शन कर उन्हीं के सानिध्य में अपने अंत क्षण बिताए। आषाढ़ सुदि 11 वि.सं. 1713 (सन् 1656) में देव-गुरु-धर्म की त्रिवेणी धारा को चित्त में धारण करते उनका वहीं कालधर्म हुआ। उस समय आकाश में दिव्य तेज हुआ। हीर विजय सूरि जी के समाधिस्थल के पास ही इनका समाधि स्थल बनाया गया ---..... --- महावीर पाट परम्परा 228 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61. आचार्य श्रीमद् विजय सिंह सूरीश्वर जी अल्पायु कार्य उत्तुंग, शुभ भावना क्रियोद्धार। स्थापत्य सहयोगी सिंह सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ __विजय देव सूरि जी द्वारा अपने उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त भगवान् महावीर स्वामी जी की 61वीं पाट पर आए विजयसिंह सूरि जी ने अपने अल्प आयुष्य में भी उत्तम चारित्र पालकर जिनशासन की अपूर्व प्रभावना की किंतु संपूर्ण संघ में वृद्धि को प्राप्त शिथिलाचार के निरोध के लिए क्रियोद्धार की उनकी भावना अपूर्ण रह गई। जन्म एवं दीक्षाः मारवाड़ में मेदिनीपुर (मेड़ता) में नथमल सेठ नामक श्रावक रहता था जिसकी भार्या का नाम नायका देवी था। उनके घर 5 पुत्रों का जन्म हुआ- जेठमल, जसराज, केशवलाल, कर्मचन्द और कपूरचंद। चौथे पुत्र कर्मचन्द का जन्म फाल्गुन सुदि 2 वि.सं. 1644 में हुआ था। उस नगर में विचरते-विचरते हीरसूरि जी के पट्टधर विजय सेन सूरि जी पधारे। भव्य उपदेश से संपूर्ण परिवार को दीक्षा की भावना जागृत हुई। जेठमल और जसराज ने घर में रहने का विचार किया। अहमदाबाद के अकमीपुरा में माता-पिता तथा तीन पुत्रों ने माघ सुदि 2 को वि.सं. 1654 में विजयसेन सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। नथमल सेठ मुनि नेमिविजय बने, केशवलाल कांतिविजय बने. कर्मचन्द कनक विजय करे. कपरचन्द कबेरविजय बने एवं माता नायका देवी-साध्वी न्यायश्री बने। मुनि कनक विजय जी आचार्य देव सूरि जी के शिष्य बने। कनक विजय जी की बुद्धि प्रखर थी। अतः वे शीघ्र ही शास्त्रों के मर्मज्ञ बने। शासन प्रभावनाः । संवत् 1670 में पाटण में इन्हें पंन्यास पदवी दी गई और खंभात में वि.सं. 1673 में खंभात में वाचक (उपाध्याय) पद प्रदान किया गया। अन्यमतानुसार पाटण में पौष वदि 5, वि.सं. 1673 के शुभ दिन श्री आदिनाथ परमात्मा की स्फटिक प्रतिमा के परिकर प्रतिष्ठा महोत्सव में महोत्सव दरम्यान ही उन्हें चतुर्विध संघ की साक्षी में उपाध्याय पदवी देव सूरि जी ने प्रदान की। विजय महावीर पाट परम्परा 229 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव सूरि जी, उपाध्याय कनक विजय जी तदुपरान्त राधनपुर - पालनपुर होते हुए ईडर पधारे। राजा कल्याणमल ने नगरोत्सव करके प्रवेश कराया। राजा का मंत्री सेठ सहजु था। उसने कनक विजय म. की बुद्धि देखी तो स्तब्ध रह गया। मंत्री सहजुशाह ने विजयदेव सूरि जी से कहा - "गुरुदेव कुछ लाभ दो!" आचार्यश्री ने पूछा - "क्या लाभ?" मंत्री ने निवेदन किया कि कनक विजय जी जैसे सुविहित संयमी, विद्वान् साधु को सूरि पद पर स्थापित कीजिए उस समय विजयदेवसूरि जी ने कहा जब समय आएगा देखा जाएगा। विजयदेवसूरिजी ने उसके बाद गहन चिंतन किया एवं मंत्री का कथन यथार्थ पाया। कनक विजय जी शास्त्रों के ज्ञाता, प्रवचन प्रभावक और संयम के धनी थे। अतः सूरि पद के पूर्णतः योग्य थे। वैशाख सुदि 6 वि. सं. 1682 को ईडर में विशाल जनमेदिनी के मध्य उन्हें आचार्य पद से अलंकृत किया गया तथा उनका नूतन नाम 'विजय सिंह सूरि' ऐसा प्रदान किया गया। जीवन क्षणभंगुर है। आयुष्य कब समाप्त हो, पता नहीं। यही विचारते हुए पौष सुदि 6 वि.सं. 1684 में जालोर के मंत्री जयमल के सहयोग से विजय सिंह सूरि जी को संपूर्ण गच्छ की अनुज्ञा प्रदान की। विजयदेवसूरि जी और विजय सिंह सूरि जी कभी साथ-साथ विचरते तो कभी जुदा-जुदा । विजय सिंह सूरि जी ने भी जिन शासन की महती प्रभावना की । मेवाड़ के राणा जगत्सिंह को उपदेश देकर उन्होंने उसे जैन धर्मानुयायी बनाया एवं वरकाणा तीर्थ की जकात माफ कराई। उसे प्रेरणा देकर चौदस के दिन शिकार संघ बंद बरवाए। इत्यादि जीवदया के काम कराए। उन्होंने जैने तीर्थों में उपदेश द्वारा सत्रह भेदी पूजा का प्रचार करवाया। आल्हणपुर से आए हुए श्री महेश दास के मंत्री श्री सुगुण ने सुवर्णमुद्राओं से पूजन कर किशनगढ़ में विराजित विजय सिंह सूरि जी को वंदन किया। मेड़ता, माल्यपुर, बूंदी, चतलेर, जैतारण, स्वर्णगिरि, पाटण, अहमदाबाद आदि अनेक स्थानों पर मेवाड़ - मारवाड़ - गुजरात के विविध प्रांतों में विचरण कर शासन सेवा की। संघ व्यवस्थाः आचार्य विजय सिंह सूरीश्वर जी म. के पंन्यास सत्य विजय जी आदि 17 प्रमुख शिष्य थे। ईडरगढ़ में संवत् 1705 में प्रतिष्ठा के समय उन्होंने 64 विद्वानों को पण्डित पद पर प्रतिष्ठित किया। महावीर पाट परम्परा 230 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय देव सूरि जी, विजय सिंह सूरि जी के समय में जैन संघ में शिथिलाचार वृद्धि को प्राप्त था। साधु वंश में रहकर यतिचर्या का पालन करने वाले साधु-साध्वी जी की संख्या बढ़ती जा रही थी। सिंह सूरि जी की क्रियोद्धार की भावना अत्यंत प्रबल थी किंतु उनके आयुष्य कर्म ने उनका सहयोग नहीं दिया एवं गुरु देव सूरि जी की हाज़िरी में ही उनका कालधर्म हो गया। __ जिस वर्ष पूज्य सिंह सूरि जी का काल हुआ, उसी वर्ष अपने देहावसान से कुछ महीने पूर्व माघ सुदि 13 गुरुवार वि.सं. 1709 में पुष्य नक्षत्र के योग में विजयदेव सूरि जी की निश्रा में संवेगी (शुद्धपक्ष) एवं मध्यस्थ यतिओं के लिए 45 बोल का मर्यादापट्टक बनाया तथा संवेगी मार्ग को प्रकाश में लाने की कोशिश की। बोल नम्बर 41 के अनुसार तपागच्छ की समाचारी के ऊपर, पंचांगी (मल, भाष्य आदि) के ऊपर तथा वीतराग भगवंत की पूजा के ऊपर जिसे अविश्वास हो उसके साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार नहीं करना। इसके अलावा जैन संघ में सुविधानुसार जैन श्रमण-श्रमणी का चारित्र ह्रास होता जा रहा था। विजय देव सूरि जी वृद्धावस्था के कारण क्रियोद्धार स्वयं न कर सके एवं विजय सिंह सूरि जी की प्रबल भावना थी, जो उनके कालधर्म उपरांत उनके ज्येष्ठ शिष्य पंन्यास सत्य विजय ने साकार की। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ: विजय सिंह सूरीश्वर जी ने अपने जीवनकाल में अनेकों स्थान पर अंजनश्लाका-प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न कराई। आज भी अनेकों जगहों पर उस समय की प्रतिमाएँ मिलती है। उनमें से कुछ प्रमुख की गणना व विवरण निम्नलिखित प्रकार से है:1. गोड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, अजमेर में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की पंचतीर्थी की प्रतिमा (लेखनुसार आषाढ़ सुदि 13 गुरुवार वि.सं. 1679 में प्रतिष्ठित)। 2. नवलखा पार्श्वनाथ जिनालय, पाली में प्राप्त पार्श्वनाथ जी, महावीर स्वामी एवं सुपार्श्वनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 8 शनिवार वि.सं. 1686 में । प्रतिष्ठित)। आदिनाथ जिनालय, सेवाड़ी में प्राप्त मूलनायक आदिनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख सुदि 8 शनिवार वि.सं. 1686 में प्रतिष्ठित)। महावीर पाट परम्परा 231 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. नौघरे का मंदिर, चाँदनी चौक, दिल्ली में प्राप्त सुमतिनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ सुदि 13 गुरुवार वि.सं. 1687 में प्रतिष्ठित)। शान्तिनाथ जिनालय चुरु (राज.) में प्राप्त मूलनायक शान्तिनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसान वैशाख सुदि 3 वि.सं. 1687 में प्रतिष्ठित)। श्री माणिकंचद जी का मंदिर, भद्रावती (म.प्र.) में प्राप्त कुंचुनाथ जी की धातुप्रतिमा (लेखानुसार फाल्गुन सुदि 3 वि.सं. 1693 में प्रतिष्ठित)। ' जैनमंदिर, नासिक में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा के रजत (चाँदी) परिकर पर उत्कीर्ण लेखानुसार वैशाख वदी 2 वि.सं. 1697 में प्रतिष्ठित)। चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय, किशनगढ़ में मूलनायक चिंतामणि पार्श्वनाथ जी के सिंहासन पर उत्कीर्ण (लेखानुसार भाद्रपद सुदि 5 वि.सं. 1698 में प्रतिष्ठित)। पार्श्वचन्द्रगच्छ उपाश्रय, जयपुर में सुविधिनाथ जी की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा (लेखानुसार माघ वदि 1 गुरुवार वि.सं. 1699 में प्रतिष्ठित) 10. महावीर जिनालय, सुधीटोला, लखनऊ में प्राप्त नमिनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार मार्गशीर्ष वदि 10 वि.सं. 1701 में प्रतिष्ठित)। 11. सुमतिनाथ जिनालय, उदयपुर में प्राप्त मुनिसुव्रत स्वामी की प्रतिमा (लेखानुसार मार्गशीर्ष सुदि 1, वि.सं. 1703 में प्रतिष्ठित)। 12. महावीर जिनालय, झवेरीवाड़, अहमदाबाद में प्राप्त संभवनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख वदि 2 वि.सं. 1705 में प्रतिष्ठित)। 'जैन परम्परा नो इतिहास' में त्रिपुटी महाराज ने लिखा है कि आचार्य विजय सिंह सूरि जी ने जैन प्रतिमा विधान एवं स्थापत्य कला आदि में शास्त्रानुसार नई-नई शोध को आवश्यक समझ कला प्रेमियों के लिए नए आदर्श स्थापित किए। यथा क. प्राचीन प्रतिमाओं में परिकर निर्माण। ख. लकड़ी में निर्मित कलामय जिनालय। ग. तीर्थकरों का कमलवाला समवसरण। महावीर पाट परम्परा 232 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ. सहस्त्रकूट की रचना इत्यादि। सहस्त्रकूट विजय सिंह सूरि जी के शास्त्र शोध का सुंदर फल था। सहस्त्रकूट में 1008 अथवा 1024 तीर्थकरों की स्थापना होती है। उन्होंने इसका आदर्श रूप बनाया जिसका अनुसरण करते हुए शत्रुजय तीर्थ में 2 एवं पाटण में 1 सहस्त्रकूट की संरचना की गई। यह आचार्यश्री जी की अनुमोदनीय देन रही। कालधर्मः __पाटण, राजनगर, खंभात चातुर्मास करते हुए ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए उनका पदार्पण अहमदाबाद हुआ। वहाँ विराजित देवसूरि जी म. के दर्शन कर सिंहसूरि जी ने कृतकृत्य अनुभव किया। अचानक से किसी व्याधि ने उनके देह पर प्रकोप किया। शारीरिक वेदना को सहन करते-करते एवं हृदय में सुदैव-सुगुरु-सुधर्म को स्थापित रखें, आषाढ़ सुदि 2 शनिवार वि.सं. 1709 में अहमदाबाद के निकटवर्ती नवीनपुर (नानापुरा) में वे कालधर्म को प्राप्त हुए। ___65 वर्ष की आयु में विजय सिंह सूरि जी का निधन हो गया एवं विजय देवसूरि जी के होते हुए उनके पटधर का देवलोकगमन सभी के स्तब्ध एवं अचम्भित कर गया। संघ में निरंतर यतियों का प्राबल्य बढ़ रहा था। अतः उनके क्रियोद्धार की भावना को मूर्तरूप उनके शिष्य पंन्यास सत्य विजय जी ने किया। . समकालीन प्रभावक गुरुदेव . महोपाध्याय विनय विजय जी: उपाध्याय श्री विनय विजय जी का जन्म वणिक् तेजपाल की पत्नी राजश्री की कुक्षि से हुआ एवं हीरविजय सूरि जी के शिष्य उपाध्याय कीर्ति विजय जी के वे शिष्य बने। ज्ञान के प्रति इनका तीव्र अनुराग था। विक्रम की 17 वीं-18वीं शताब्दी के वे अधिकृत विद्वान् थे। सिंह सूरि जी की प्रेरणा से जिस सहस्त्रकूट का निर्माण कराया गया, उसकी प्रतिष्ठा उनके कालोपरान्त जेठ सुदि 6 वि.सं. 1710 के दिन पालीताणा पर विनय विजय जी ने ही कराई थी। महावीर पाट परम्परा 233 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनका साहित्य लेखन सुविशाल था। यन्त्रराज ग्रन्थ, कल्पसूत्र पर 9580 श्लोक प्रमाण कल्पसुबोधिका टीका, नयकुसुमांजलि (नयकर्णिका), लोकप्रकाश, पट्टावली सज्झाय, अध्यात्म गीता, उपमिति भवप्रपंच स्तवन जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र, हैमप्रक्रिया व्याकरण ग्रंथ, भगवती सूत्र सज्झाय, इत्यादि अनेकानेक रचनाएँ महोपाध्याय विनय विजय जी की है। वे यशोविजय जी के सहपाठी भी रहे। स्तवन-सज्झाय के क्रम में उनके द्वारा रचित आदिनाथ विनंति, विनय-विलास, शाश्वतजिनभाष, महावीर स्तवन, उपधानस्तवन, षडावश्यक स्तवन, पच्चक्खान सज्झाय, आयंबिल सज्झाय आदि सुंदर शब्द संरचना के परिणाम है। उनकी सभी रचनाओं में कल्पसुबोधिका, शांतसुधारस एवं श्रीपाल रास अत्यन्त जगप्रसिद्ध हैं। शान्तसुधारस में 12 भावनाओं पर आध्यात्मिक आत्मस्पर्शी चिन्तन किया गया है। इसकी रचना उन्होंने गंधार में वि.सं. 1723 में की। वि.सं. 1738 में रांदेर में उन्होंने नवपदाराधक श्रीपाल-मयणासुंदरी रास की रचना प्रारम्भ की। किंतु 750 गाथा रचने के बाद वे कालधर्म को प्राप्त हो गए। अतएव उनकी भावना अनुसार इसकी पूर्णाहुति महोपाध्याय यशोविजय जी ने की। विनय विजय की श्रुत साधना अनुपम रही। अपने श्रुतरत्नों के माध्यम से उन्होंने जैन जगत् को महत्त्वपूर्ण देन दी। आज भी उनके अनेक ग्रंथ वांचे जाते हैं। महावीर पाट परम्परा 234 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. पंन्यास श्रीमद् सत्य विजय जी गणि सत्यविजय जी पंन्यास पदे, निवारक शिथिलाचार। सच्चरित्र स्वस्थ संपोषक, नित् वंदन बारम्बार॥ जब शिथिलाचारी साधु यति के रूप में प्रबलता को प्राप्त हो रहे थे, तब विजय सिंह सूरि जी की क्रियोद्धार की भावना को मूर्त रूप देने वाले पंन्यास सत्य विजय जी वीर शासन के 62 वें पट्टालंकार हुए। निष्परिग्रह वृत्ति, दूरदर्शिता, निर्मल संयम साधना एवं निरतिचार साधुता के द्वारा उन्होंने सभी चारित्रवान् संवेगी साधुओं का नेतृत्व किया। जन्म एवं दीक्षाः ___ मालवा सप्तलक्ष्य प्रदेश में लाडलु (लाडणु) नामक गाँव में दुग्गड़ गौत्रीय श्रावक शा. वीरचंद ओसवाल की धर्मपत्नी वीरमदेवी की कुक्षि से वि.सं. 1656 (मतांतर 1674) में एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ। माता-पिता ने शिशु का नाम शिवराज रखा। बाल्यकाल से ही वह कुशाग्र बुद्धि का धनी था। गाँव में मूर्तिपूजक चारित्रवान् साधु, लोंकागच्छीय स्थानकवासी साधु एवं श्रावक-साधु सम्मिश्रित-यति वर्ग का आवागमन होता रहता। सभी के वस्त्र श्वेत (सफेद) थे। जब शिवराज की 14 वर्ष की आयु हुई तब उसे संसार की असारता का अनुभव हुआ। पुण्योदय से वैराग्य भाव से आत्मा पोषित हुई। शिवराज की दृढ़ता के समक्ष माता-पिता को झुकना पड़ा। उन्होंने कहा कि लोंकागच्छ के साधु के पास दीक्षा लेना। किंतु शिवराज ने अत्यंत गंभीरतापूर्वक कहा कि न ही गृहस्थों के द्वारा चलाए मत में दीक्षा लूँगा न ही परिग्रहधारी यतियों के पास दीक्षा लूँगा। शुद्ध चारित्र के पालक आ. देव सूरि जी के पट्टधर आ. सिंह सूरि जी के पास ही दीक्षा लूँगा। अंततः वि.सं. 1671 (मतांतर 1688) में आचार्य विजय देव सूरि जी के वरद्हस्तों से शिवराज की दीक्षा हुए। वे आ. सिंह सूरि जी के शिष्य बने एवं उनका नाम मुनि सत्य विजय घोषित हुआ। महावीर पाट परम्परा 235 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन प्रभावनाः गीतार्थों की निश्रा में रहकर मुनि सत्य विजय जी ने शास्त्र-सिद्धान्त आदि का अभ्यास किया। विजय सिंह सूरि जी की आत्मीय भावना थी कि तपागच्छ में जिस शिथिलाचार की वृद्धि एवं यति परम्परा का प्रादुर्भाव हो चुका था, शासन रक्षा के उद्देश्य से क्रियोद्धार किया जाए। अतः इस कार्य को सफल बनाने हेतु उन्होंने सत्य विजय जी, वीर विजय जी, ऋद्धि विजय जी आदि साधुओं को तैयार किया। सिंह सूरि जी सत्य विजय जी को आचार्य पद देना चाहते थे, किन्तु सत्य विजय जी ने उसे स्वीकार न किया। ___ माघ सुदि 13, गुरुवार वि.सं. 1709 में सिंह सूरि जी ने शिथिलता निवारण हेतु 45 बोलों के पट्टक की रचना पाटण में की थी, उसमें सत्यविजय जी के भी हस्ताक्षर हैं। किन्तु कुछ ही महीनों में सिंह सूरि जी का कालधर्म हो गया। अपने पट्टधर शिष्य का देहावसान किसी भी गुरु के लिए घातक एवं हृदयविदारक होता है। विजय देव सूरि जी ने अगले वर्ष वि.सं. 1710 में पंन्यास वीर विजय को आचार्य पद प्रदान कर उनका नाम विजय प्रभ सूरि रखा एवं अग्रिम पट्टधर घोषित किया क्योंकि सत्य विजय जी ने पुनः पदवी ग्रहण से मना कर दिया। वै.सु. 13 गुरुवार वि.सं. 1711 के दिन पाटण में पुष्य नक्षत्र के योग में देवसूरि जी की आज्ञा से सिंह सूरि जी द्वारा निर्धारित क्रियोद्धार की योजना को सत्य विजय जी ने मूर्तरूप प्रदान किया। उन्होंने अनेकों साधुओं के साथ संवेगीपना स्वीकार किया। भिन्न-भिन्न गुरुपरम्पराओं के आचार्य ज्ञानविमल सूरि जी, उपाध्याय यशोविजय जी, उपाध्याय विनयविजय जी, उपाध्याय मान विजय, उपाध्याय धर्ममन्दिर विजय, उपाध्याय लावण्यसुंदर विजय जी आदि सच्चरित्रवान्-शुद्धाचारपालक साधुओं को भी उन्होंने इस क्रियोद्धार में सम्मिलित किया। संघ द्वारा सत्य विजय जी को पंन्यास पद से अलंकृत किया गया। वे अत्यंत शांत, त्यागी, वैरागी एवं विद्वान् थे, शुद्ध क्रिया के प्रेमी थे। सुप्रसिद्ध अध्यात्मयोगी आनन्दघन जी के साथ वे कई वर्षों तक वन में रहे। मेड़ता, नागौर, जोधपुर, सोजत, सादड़ी. उदयपुर, पाटण इत्यादि नगरों में अपने उपदेशामृत से पंन्यास सत्य विजय जी ने अनेकों भव्य आत्माओं को धर्मपथ से जोड़ा। संघ व्यवस्थाः आचार्य विजय सिंह सूरि जी ने जिस नियमावली पट्टक की रचना की थी, उसी के आधार पर सत्य विजय जी ने क्रियोद्धार किया एवं संवेगी साधु-साध्वी वृन्दों की व्यवस्था महावीर पाट परम्परा 236 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संचालन किया। सत्य विजय जी दीक्षा पर्याय, अनुभव एवं आचार श्रेष्ठता में आचार्य विजय प्रभ सूरि जी से बड़े थे। प्रभ सूरि जी कब डेरे धारी हो गये, यति परम्परा में सम्मिश्रित हो गए, इसका पता नहीं। किन्तु तभी से इस परम्परा का सर्जन हुआ जहाँ शुद्ध चारित्रवान् संवेगी साधुओं को यतिओं की आज्ञा में रहना पड़ता था। प्रभ सूरि जी से तपागच्छ की 'श्रीपूज्य-यति' परम्परा की शाखा निकली जबकि सत्य विजय से संवेगी शाखा के रूप में मूल परम्परा आगे बढ़ी। __ अनुश्रुति है कि यति, संवेगी साधुओं को पंन्यास पद से ऊपर बढ़ने नहीं देते थे एवं स्वयं के नाम में 'सूरि' लगा लेते थे। इसी कारण इस कालक्रम के 250 वर्षों तक कोई भी शुद्ध चारित्रवान् साधु आचार्य नहीं बन सका। श्रीपूज प्रभ सूरि जी तो सत्य विजय जी का पूर्ण आदर करते थे। एवं गच्छ संचालन में सहायता लेते थे ताकि यति एवं संवेगी साधुवर्ग की एकता शक्ति से शासन प्रभावना हो किंतु कालांतर की परम्पराओं में इसने मनभेद का रूप ले लिया। इतिहास के अनुसार वि.सं. 1732 से वि.सं. 1735 में विजय प्रभ सूरि जी ने मारवाड़ में विचरण किया। बगड़ी गाँव के उनके चातुर्मास में पं. हेम विजय पं. विमलविजय, पं. उदयविमल, पं. सत्यविजय गणी, प्रताप विजय गणी आदि गीतार्थ मुनि भी थे। अतः यह स्पष्ट है कि उस समय प्रभ सूरि जी और सत्य विजय जी में आपसी सम्बन्ध अच्छे थे किन्तु आगे आई श्रीपूज्य यति परम्परा ने संवेगी साधुओं के ह्रास अनेक प्रयत्न किए किन्तु सत्य विजय जी की संवेगी परंपरा ने उपसर्गों परिषहों को सहन करते हुए सम्यक् साधुता सुरक्षित रखी। यतिवर्ग की चादर भी सफेद थी एवं साधुवर्ग की चादर भी सफेद थी। कौन साधु है, कौन यति है, इसका आकलन एक पल के लिए असंभव सा था! इसी कारण क्रियोद्धार के समय सत्य विजय जी ने आनन्दविमल सूरि जी के पट्टक के आधार से वि.सं. 1711 में शुद्ध संवेगी आचारवान् साधु-साध्वियों के लिए ऊपर के मुख्य वस्त्र चादर का रंग काथे (पान के कत्थे का हल्का रंग) रंग सी केसरी पीली चादर प्रारम्भ की। करीबन 700-800 साधु-साध्वी जी सत्य विजय जी की आज्ञा में रहते थे। कालधर्मः पंन्यास सत्य विजय जी ने वि.सं. 1754 का चातुर्मास अहमदाबाद में किया तथा वि.सं. महावीर पाट परम्परा 237 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1755 का चातुर्मास पाटण में किया। क्रिया की उग्रता से उनका देह कृश हो चुका था, पाँव से चलने की शक्ति भी नहीं रही। अतः तब वे अणहिलपुर पाटण में ही रहे। राजनगर के सेठ सोकर शाह के पुत्र सुखन्द शाह ने सत्य विजय के दर्शन किए, ज्ञानपूजा की, तपस्या के पच्चक्खाण लिए। वि.सं. 1756 के पौष मास में सत्य विजय जी अत्यंत बीमार हो गए। पाँच दिवस की बीमारी को सहते-सहते 82 वर्ष की आयु में पौष सुदि 12 वि.सं. 1756 शनिवार के दिन सिद्धियोग में अनशन स्वीकार कर समाधिपूर्वक काल-धर्म को प्राप्त हुए। उनके जैसे निष्परिग्रही, संयमशिरोमणि, चारित्रपालक गुरु के कालधर्म से संवेगी साधुवर्ग में नेतृत्व शून्यता हो गई जिसकी, परिपूर्ति सत्य विजय जी के शिष्य कर्पूर विजय के रूप में हुई। - C . समकालीन प्रभावक गुरुदेव . महोपाध्याय यशोविजय जी : जैन-धर्म दर्शन के तत्त्व-महोदधि, परम प्रज्ञा एवं त्वरित गामिनी लेखिनी के द्वारा अध्यात्म के साहित्य जगत् की महती प्रभावना करने वाले महोपाध्याय यशोविजय जी अत्यंत प्रसिद्ध हैं। उनका जन्म वि.सं. 1665 में हुआ। उनके पिता का नाम नारायण और माता का नाम सौभाग्यदेवी था। उनकी माँ का नियम था कि गुरुमुख से प्रतिदिन भक्तामर आदि श्रवण करके ही अन्न-जल ग्रहण करूंगी। अपने इस पुत्र को भी वह प्रतिदिन साथ लेकर जाती थी। एक दिन अत्यन्त वर्षा के कारण माँ उपाश्रय नहीं जा सकी। माँ को भूखा-प्यासा देख बालक ने कारण पूछा। बालक जश ने कहा अगर मैं भक्तामर सुना दूँ तो? माँ ने कहा कोई भी भक्तामर सुनाए, तो ही अन्न-जल ग्रहण करूँगी। केवल 5 वर्ष का बालक जश, जिसे रोज सुनने मात्र से भक्तामर याद हो गया, उसने वैसा ही शुद्ध भक्तामर माँ को सुना दिया। तीन-चार दिन तब बारिश चलती रही। जश माता को भक्तामर सुनाने लगा। गुरु नयविजय जी को प्रतीत हुआ कि बहन का तो तेला ही हो गया होगा क्योंकि वो नियम में अडिग हैं। जब चौथे दिन वह उपाश्रय आई और प्रसन्नचित्त से पुत्र की स्मरणशक्ति की बात नयविजय जी को बताई, तो बालक जश की हस्तरेखा देकर गुरु को आभास हो गया कि यह बालक श्रुत साहित्य की अपूर्व प्रभावना करेगा। माँ ने अपने पुत्र को गुरु चरणों में समर्पित कर दिया। दीक्षित होकर महावीर पाट परम्परा 238 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बालक जश अब मुनि यशोविजय जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यशोविजय जी स्वाध्याय रसिक एवं ज्ञानपिपासु थे। उन्होंने व्याकरण, ज्योतिष, काव्य, षड्दर्शन आदि विषयों का अहर्निश तलस्पर्शी अध्ययन किया एवं प्रभुत्व प्राप्त किया। गुर्वाज्ञा से वि.सं. 1699 में वे न्याय सम्बन्धी विशेष अध्ययन के लिए काशी गए। वहाँ उन्होंने सभी भारतीय दर्शनों पर दक्षता हासिल की। एक ही दिन में 700 श्लोकों को कण्ठस्थ कर वाराणसी के विद्वानों को उन्होंने चमत्कृत कर दिया। श्रावक धनजीसूरा ने उनके अध्ययन का संपूर्ण खर्चा उठाया। ___एक बार उन्हें 'द्वादशार नयचक्र' नामक ग्रंथ की जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली। यह उस समय में उस ग्रंथ की अन्तिम प्रति थी। उनके मन में आया यदि इस ज्ञानप्रदायक विशिष्ट ग्रन्थ का पुनर्लेखन नहीं किया गया तो भविष्य की पीढ़ी इस ज्ञान से वंचित रह जाएगी। अपनी सभी भूख-प्यास छोड़कर वे उसके संशोधन व पुनर्लेखन के कार्य में जुट गए। ऐसे हितचिन्तक सुसाधुओं के कारण ही श्रुत साहित्य की अक्षुण्ण परम्परा हम तक पहुँच सकी है। विसं 1718 में उन्हें उपाध्याय पदवी से अलंकृत किया गया। वि.सं. 1726 में खम्भात में उन्होंने पण्डितों की सभा में संस्कृत में प्रभावशाली उद्बोधन दिया। उसकी विशेषता यह थी कि कहीं किसी शब्द में संयुक्ताक्षर और अनुस्वार नहीं था। संस्कृत पर उनके प्रभुत्व से सभी आश्चर्यचकित हो गए। वि.सं. 1730 के जामनगर चातुर्मास में उन्होंने उत्तराध्ययन सूत्र के 'संजोगा विप्मुक्कस्स' सूत्र पर 4 महीने तक प्रवचन दिया। विभिन्न जगहों से उन्हें न्यायविशारद, तार्किक. शिरोमणि, न्यायाचार्य आदि बिरुद प्राप्त हुए। ___ अवधान विद्या पर भी महोपाध्याय यशोविजय जी का विलक्षण प्रभुत्व था। इसमें तीव्र स्मरणशक्ति व बुद्धि कौशल का अनुपम प्रयोग होता है। संघ के मध्य अहमदाबाद में मुसलमान सूबों की राजसभा में अवधान विद्या के सफल प्रयोग से सभी मंत्रमुग्ध हो गए। वे अपनी शिष्य संपदा नहीं, बल्कि श्रुतसम्पदा के आधार पर चिरंजीवी बने। जैन तर्क भाषा, ज्ञान बिन्दु, ज्ञान प्रकरण, अष्ट-सहस्त्री विवरण, स्याद्वाद कल्पलता, नयप्रदीप, नय रहस्य, नयामृत तरंगिणी, अध्यात्मसार, अध्यात्म परीक्षा, वैराग्य कल्पलता इत्यादि शताधिक ग्रन्थरत्नों की रचना कर मोक्षमार्ग के पथिकों पर अनंत उपकार किया। आनन्दघन जी के 22 जिन-स्तवनों पर बालावबोध गुजराती टीका की भी उन्होंने रचना की। वि.सं. 1743 (1745) में गुजरात के बड़ौदा शहर से 19 मील दूर दर्भावती (डभोई) शहर में उनका कालधर्म हुआ। ज्ञानयोग की गंभीरता को आत्मसात् कर उन्होंने प्रभावक आचार्यों की भाँति जिनशासन की विशेष प्रभावना की। महावीर पाट परम्परा 239 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63. पंन्यास श्रीमद् कर्पूर विजय जी गणि गणनायक पद गणि अधिष्ठित, सूरि सम कार्यभार। कार्यकुशल कर्पूर विजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ शासननायक भगवान् महावीर स्वामी जी की 63 वीं पाट पर क्रियोद्धारक पंन्यास सत्य विजय जी गणि के शिष्य कर्पूर विजय जी गणि हुए। गुरु द्वारा प्रदत्त प्रवहमान संयम संस्कार सलिला से ओत-प्रोत होकर उन्होंने ह्रास होती संवेगी साधु परम्परा का सुयोग्य नेतृत्व तथा मार्गदर्शन किया। जन्म एवं दीक्षाः गुजरात में पाटण नामक शहर के सन्निकट बागरोड़ नाम का गाँव है। वहाँ पोरवाल वंश के शाह भीम जी भाई अपनी पत्नी वीरा बाई के साथ सुखमयी सांसारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे। वि.सं. 1704 में उनके घर पुत्र रत्न का जन्म हुआ। पुत्र का नाम कानजी रखा गया। संयोग और वियोग संसार के नियम हैं। कानजी की छोटी सी उम्र में ही माता-पिता दोनों की मृत्यु हो गई। कानजी का लालन-पालन-पोषण उसकी बुआ के घर पाटण में हुआ। जब कानजी की उम्र 14 वर्ष की हुई, तब उसने सत्य विजय जी के दर्शन पहली बार किए। पाटण में पधारे सत्य विजय जी की सरल व सचोट व्याख्यान शैली कानजी के हृदय में बस गई। उनकी त्याग-तपस्या, निष्परिग्रहवृत्ति, सरलता एवं अप्रमत्त अवस्था से कानजी के अर्तमन में भी वैराग्य के बीज प्रस्फुटित हुए। कानजी के चारित्र की उत्कंठा की परीक्षा लेकर सत्यविजय जी ने मार्गशीर्ष सुदि वि.सं. 1720 में शुभ मुहूर्ते दीक्षा प्रदान की एवं 'मुनि कर्पूर विजय' नाम प्रदान किया। शासन प्रभावनाः मुनि कर्पूर विजय जी ने गुरुनिश्रा में रहकर शास्त्राभ्यास किया वे नियमित रूप से आवश्यकादि सूत्रों का अध्ययन करते एवं शुद्ध साधुचर्या का पालन करते। विजय प्रभ सूरि जी ने कर्पूरविजय जी को योग्य जानते हुए आनन्दपुर में पण्डित पद (पंन्यास पद) से अलंकृत महावीर पाट परम्परा 240 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। गुरु सत्य विजय जी के स्वर्गस्थ होने पर उनके पट्टधर कर्पूर विजय जी बने। पं. कर्पूर विजय जी ने वढीयार, मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र, अहमदाबाद, राधनपुर, सांचौर, सादरा, सोजीत्रा, वढनगर इत्यादि विविध स्थलों में विचरण तथा चातुर्मास किए। अपनी वृद्धावस्था में वे पाटण पधारे जहाँ उपधान, मालारोपण, बिंब प्रतिष्ठा आदि अनेक धर्मकृत्य कराए। उस समय पाटण के मुख्य श्रावक सेठ ऋखबदास जी थे। कुल 700 जिनप्रतिमाएँ संवत् 1774 के मधु मास में पंन्यास कर्पूर विजय जी द्वारा स्थापित कराई गई। अपने अन्त समय के दस चातुर्मास कर्पूर विजय जी ने वृद्धावस्था के कारण पाटण-अहमदाबाद किए। अपने चारित्र की सुवास से उन्होंने शासन की महती प्रभावना की। संघ व्यवस्थाः ' राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में मुगलों के आधिपत्य से एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में यतियों के आधिपत्य से जैन साधु-साध्वियों के लिए स्थितियाँ प्रतिकूल बनती जा रही थी। अतः संवेगी साधु-साध्वी जी की संख्या कम हो रही थी। पंन्यास कर्पूर विजय जी के प्रमुख 3 शिष्य रहे1. पंन्यास वृद्धि विजय जी ; 2. पंन्यास क्षमा विजय जी ; 3. पंन्यास मणि विजय जी कालधर्मः अपनी अन्तिम अवस्था में पंन्यास कर्पूर विजय जी ने पाटण तथा अहमदाबाद के भिन्न-भिन्न संघों में विचरण कर धर्मजागृति की। अपने शिष्य क्षमा विजय को उन्होंने अपने पास बुलाया। क्षमा विजय जी के पाटण पधारने पर लोगों ने महोत्सव किया। इसी अवसर पर उन्हें पंन्यास पद दिया गया। श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा पश्चात् कर्पूर विजय जी पुनः पाटण में स्थिर हुए। श्रावण वदि 14, सोमवार, वि.सं. 1775 के दिन पाटण में पंन्यास कर्पूर विजय जी का देवलोक गमन हुआ। जय जय नन्दा, जय जय भद्दा के उद्घोष से श्री संघ ने बहुमानपूर्वक मरणोत्तर क्रिया की। इनकी चरण पादुका करी ढेडेरवाड़े मंदिर में पधराई गई। महावीर पाट परम्परा 241 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. पंन्यास श्रीमद् क्षमा विजय जी गणि क्षमागुण-साधक, शान्तिप्रिय, दुरित तिमिर अपहार । क्षमा विजय जी क्षमाशूर सम, नित् वंदन बारम्बार || संयम साधना की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तपागच्छ की संवेगी परम्परा का संवहन करने वाले भगवान् महावीर की जाज्वल्यमान परम्परा के 64वें अक्षुण्ण पट्टप्रभावक पंन्यास क्षमाविजय जी गणि ने सम्यक् ज्ञान- दर्शन - चारित्र की रत्नत्रय की परिपालना से जिनशासन की महती प्रभावना की। जन्म एवं दीक्षा : मारवाड़ के गिरिराज आबू तीर्थ के सन्निकट पोयन्द्रा गाँव है, जहाँ श्री पार्श्वनाथ प्रभु का सुंदर मंदिर है। यहाँ ओसवालवंशी चामुंडागौत्र के शाह कलुशा (कला) एवं उनकी पत्नी बनां (वनां) बाई दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते थे। उनके सुपुत्र का नाम खेमचंद था। माता-पिता की निश्रा में उसका धार्मिक एवं व्यावहारिक शिक्षण प्रगति पथ पर था। एक बार खेमचंद का किसी कारण से अहमदाबाद ( राजनगर ) में आगमन हुआ। उसके सगे- सम्बन्धी वर्ग ने उसे प्रेमपुरा ( अहमदाबाद) उतार लिया। संयोग से पंन्यास श्री कर्पूर विजय जी के शिष्य पंन्यास वृद्धि विजय जी का प्रेमपुरा में चातुर्मासिक प्रवेश उसी वर्ष हुआ। वृद्धि विजय जी के धाराप्रवाह प्रवचनों से कुमार खेमचंद के युवा हृदय में वैराग्य की बीजांकुरण हुआ। सांसारिक व धार्मिक पढ़ाई कर 22 वर्ष की आयु में खेमचंद की दीक्षा सम्पन्न हुई । ज्येष्ठ सुदि 13 वि.सं. 1744 के दिन वे साधु जीवन में प्रविष्ट हुए तथा उनका नाम मुनि क्षमा विजय रखा गया। शासन प्रभावना : गुरु की सेवा एवं सिद्धांत - शास्त्रों के अध्ययन द्वारा क्षमाविजय जी अपने संयम जीवन में अग्रसर थे। तत्पश्चात् गुरु की आज्ञा से आबू, अचलगढ़, सिरोही, सिद्धपुर, मेहसाणा, चाणस्मा, राधनपुर, सांचोर, तारंगा आदि तीर्थों की धर्म स्पर्शना करते हुए अहमदाबाद पधारे। गुरु कर्पूर महावीर पाट परम्परा 242 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय जी के साथ पाटण में शासन की प्रभावना करते हुए विचरे जहाँ उन्हें पंन्यास पद प्रदान किया गया। संवत् 1744 में पाटण में कर्पूर विजय जी, क्षमा विजय जी की निश्रा में 700 के आसपास जिनवरों की प्राणप्रतिष्ठा हुई। अगले ही वर्ष पंन्यास कर्पूर विजय जी का कालधर्म हो गया एवं संवेगी साधुओं के नेतृत्त्व का उत्तरदायित्व पंन्यास क्षमा विजय जी के कंधों पर आ गया। बसंतपुर, सादड़ी, राणकपुर, घाणेराव, लोढ़ाणा, वरकाणा, नाडोल, नाडलाई, डुंगरपुर, केसरियाजी (धुलेवा), ईडर, बढ़नगर, बीसलपुर आदि अन्यान्य क्षेत्रों में इनका विचरण रहा जहाँ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, उपधान, ग्रंथ भंडारों की स्थापना, जीर्णोद्धार आदि कार्य संपन्न हुए। गुरुदेव के कालधर्म पश्चात् संघ की विनती को मान देते हुए खंभात, भोयरा, जंबूसर, भरूच आदि की स्पर्शना करते हुए सूरत पधारे । पूज्य क्षमा विजय जी का संवत् 1780 का चातुर्मास सूरत हुआ। साहित्य रचना : पन्यास क्षमा विजय जी ने 'पार्श्वनाथ स्तवन' की रचना की। यह कृति भक्तिप्रधान रही। उनकी प्रेरणा से उनके शिष्य मुनि माणेक विजय जी ने पर्युषणा व्याख्यान, आयंबिल वर्णन आदि पुस्तकें लिखीं। संघ व्यवस्था : उस समय परिस्थतियां अत्यंत विषम थी। संवेगी परम्परा के साधु भगवंतों की संख्या कम होती जा रही थी एवं साध्वी जी की संख्या भी अत्यंत ह्रास के मार्ग पर थी । पंन्यास क्षमा विजय जी ने स्व शक्ति अनुसार संघ का कुशल नेतृत्त्व किया। उनके प्रमुख 3 शिष्य थे 1. जिन विजय जी ये इनके पट्टधर बने । 2. जश विजय जी पंडित वीर विजय जी इनके प्रशिष्य बने । 3. माणेक विजय जी इन्होंने पर्युषणा व्याख्यान आदि ग्रंथ लिखे । संवत् 1780 में सूरत का चातुर्मास सम्पन्न कर क्षमा विजय जी ने जंबूसर की ओर विहार महावीर पाट परम्परा 243 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जहाँ से वे अहमदाबाद पधारे। उनके विद्वान शिष्य जिन विजय जी को उन्होंने अपने पास बुलाया एवं गच्छ की परिपालना का दायित्व उन्हें सौंपा। कालधर्म. 1:3 वि.सं. 1786 (1782 ) में पंन्यास क्षमा विजय जी, पंन्यास जिन विजय जी आदि ने दोशीवाड़ा (अहमदाबाद) में चातुर्मास किया। आसोज सुदि एकादशी के दिन 42 वर्ष का संयम पर्याय पालते हुए 64 वर्ष की आयु में वे कालधर्म को प्राप्त हुए । श्रीसंघ ने साबरमती नदी के किनारे उनके देह का उत्तम काष्ठ, चंदन, केसर आदि सामग्री से अग्नि संस्कार किया एवं स्मरणार्थे स्तूप (समाधि) का भी निर्माण किया । महावीर पाट परम्परा 244 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. पंन्यास श्रीमद् जिन विजय जी गणि खुशहाल खुशाल बने जिनविजय जी, उत्तम रचनाकार । निर्मल संयम जीवन धनी, नित् वंदन बारम्बार ॥ क्रोध - मान-माया - लोभ रूपी कषायों को जीतने वाले पंन्यास जिन विजय जी भगवान महावीर की क्रमिक पाट परम्परा के 65वें पाट पर शोभायमान हुए। अपने जीवन काल में अनेकानेक तीर्थों की यात्रा कर गुरुदेवों की सेवा - वैयावृत्य कर प्रभु भक्ति व गुरु भक्ति का अनुमोदनीय परिचय दिया । जन्म एवं दीक्षा : · राजनगर ( अहमदाबाद) में श्रीमाली शा. धर्मदास नामक श्रावक रहता था। लाडकुंवर बाई नाम की उसकी पत्नी भी अत्यंत संस्कारशील थी। उनके सद्गार्हस्थ्य के प्रभाव से वि.सं. 1752 के आसपास एक पुत्र का जन्म हुआ। माता - पिता ने उसकी मुखाकृति खुशनुमा देख शिशु का 'खुशाल' रख दिया। नाम - खुशाल अपने व्यावहारिक शिक्षण में प्रखर था। जब उसकी उम्र 16 वर्ष की हुई तब पन्यास क्षमा विजय जी विहार करते-करते अहमदाबाद आए । उस समय शामलदास की पोल में रायचंद भाई नाम के गुरुभक्त श्रावक रहते थे। वे देश विदेश में जाते थे किंतु पैरों में जूता नहीं पहनते थे। हमेशा गरम पानी पीते थे। खुशाल ने यतिवर्ग की परिग्रह आसक्ति देखी थी। अतः उसे धर्म में इतनी रुचि नहीं आई। किंतु एक बार रामचंद भाई के कहने से खुशाल उनके साथ क्षमा विजय जी के पास आया । उनकी निष्परिग्रह वृत्ति, प्रवचन प्रभावना एवं मुख पर संयम का तेज देख उसका हृदय परिवर्तन हो गया। संसार की असारता को जान उसने दीक्षा लेने का प्रण लिया। माता-पिता की आज्ञा लेकर कार्तिक वदि 6 बुधवार वि.सं. 1770 के दिन उसकी दीक्षा सम्पन्न हुई एवं नाम मुनि जिन विजय रखा गया। - शासन प्रभावना : जिन विजय जी ने गुरु के समीप रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया तथा सेवा शुश्रूषा महावीर पाट परम्परा 245 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा आत्मा को निर्मल बनाया। जब संवत् 1774 में जब कर्पूर विजय जी ने ऐतिहासिक 700 जिनबिंबों की प्रतिष्ठा कराई, उस समय जिन विजय जी का दीक्षा पर्याय 4 वर्ष का था एवं वे भी ऐसे ऐतिहासिक क्षण के साक्षी बने थे। संवत् 1774 की विजयादशमी, शनिवार के दिन मुनि सुमति विजय जी की प्रेरणा से जिन विजय जी ने अपने दादागुरु पंन्यास श्री कर्पूर विजय जी का जीवन चरित्र स्वरूप रास रचा। संवत् 1775 में कर्पूर विजय का देवलोकगमन हुआ। तत्पश्चात् क्षमा विजय जी पट्टधर हुए। कुछ वर्षों बाद अपना अंतिम समय जानकर पंन्यास क्षमा विजय जी ने मुनि जिन विजय जी को सुयोग्य जानकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। शाश्वत गिरिराज सिद्धाचल (पालीताणा) एवं शंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा करने के बाद वे पाटण आए जहाँ से उनकी निश्रा में आबू तक का छ:री पालित संघ निकाला गया। तत्पश्चात् सादड़ी, राणकपुर, घाणेराव विचरते हुए नाडोल में चातुर्मास किया। बाद में नाडलाई, वरकाणा पार्श्वनाथ होते हुए चातुर्मासार्थ पाटण पधारे जहाँ से उनकी निश्रा में शंखेश्वर पार्श्वनाथ तक का संघ निकाला गया। इस प्रकार भावनगर, गिरनार, बडौदा, गंधार, जंबूसर, सूरत, अहमदाबाद आदि विस्तृत क्षेत्र में विचरण किया। अपने 29 वर्ष के छोटे से दीक्षा पर्याय में उन्होंने आचरण एवं विचरण से शासन की महती प्रभावना की। ___ इनके अनेक शिष्य थे। जैसे- उत्तम विजय जी, अमृत विजय जी, खीमा विजय जी इत्यादि। उस समय में इस संवेगी परंपरा के चारित्र से प्रभावित होकर किन्हीं पं. सुरचंद्रगणि जी के शिष्य पं. हेमचन्द्र गणि जी ने क्रियोद्धार कर संवेगीमार्ग स्वीकार किया। साहित्य रचना : पंन्यास जिन विजय जी एक कुशल व सरस रचनाकार थे। उनकी कुछ कृतियां इस प्रकार हैं- कर्पूर विजय जी रास - पाटण (वि.सं. 1774) - क्षमा विजय जी रास - वड़नगर (वि.सं. 1786) - जिनस्तवन चौबीसी - अहमदाबाद (वि.सं. 1786) - जिनस्तवन बावीसी - अहमदाबाद (वि.सं. 1786) - ज्ञानपंचमी स्तवन - पाटण (वि.सं. 1783) महावीर पाट परम्परा 246 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महाव्रत की 25 भावना की सज्झाय : ढाल 5, पर्युषण सज्झाय इत्यादि। कालधर्म : ___ गंधार, अमोद, जंबूसर विचरण करते हुए पंन्यास जिन विजय जी अपने शिष्य परिवार के साथ पादरा चातुर्मासार्थ पधारे। किसी भयंकर व्याधि से ग्रस्त हो जाने के कारण 8 दिवस की बीमारी के बाद श्रावण सुदि 10 मंगलवार वि.सं. 1799 के दिन इस देह को त्यागकर पादरा की पुण्यभूमि में काल कवलित हो गए। उस समय उनकी आयु मात्र 47 वर्ष की थी। उनके पार्थिव देह का अग्नि संस्कार नगर के बाहर सरोवर के पास चंदन से किया गया। वहाँ किसन नामक श्रावक प्रमुख ने स्तूप बनवाया। महावीर पाट परम्परा 247 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66. पंन्यास श्रीमद् उत्तम विजय जी गणि दर्शन ज्ञान चारित्र उपासक, सीमंधर स्वप्न साकार। लोकोत्तम श्री उत्तम विजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ चौबीसवें तीर्थाधिपति भगवान् महावीर स्वामी जी की संवेगी साधु भगवन्तों की जाज्वल्यमान पाट परम्परा के 66वें क्रम पर पंन्यास उत्तम विजय जी हुए। इनका विचरण क्षेत्र विस्तृत था। अपनी मेधावी प्रतिभा एवं ज्ञान गाम्भीर्य के गुण से इन्होंने कई शास्त्रार्थ किए, कई ग्रंथ रचे एवं अनेकों के जीवन को सन्मार्ग की ओर मोड़ा। जन्म एवं दीक्षा : अहमदाबाद में शामला पोल में सेठ बालचंद एवं उनकी पत्नी माणेक बाई के घर 3 पुत्री. एवं 1 पुत्र का अनुक्रम से जन्म हुआ। वि.सं. 1760 में जन्में प्रसन्न वदन पुत्र का नाम 'पूंजाशाह' रखा गया। जब पूंजाशाह 18 वर्ष का हो गया, तब माता-पिता की आज्ञा से जैन विधि विधान का ज्ञान प्राप्त करने वह खरतरगच्छ के पं. देवचन्द्र गणि जी के साथ रहने लगा। नवतत्त्व, जीव विचार, संग्रहणी, तीन भाष्य, क्षेत्र समास, पंच संग्रह, कर्मग्रंथ, दर्शन सत्तरी इत्यादि अनेकानेक ग्रंथों का रहस्यपूर्वक, विनयपूर्वक अध्ययन पूँजाशाह ने देवचंद्र जी के पास किया। अनेकों वर्ष वह उन्हीं के साथ रहा। वि.सं. 1794 में पं. देवचन्द्र जी के सदुपदेश से सूरत के सेठ कचरा कीका भाई ने रेलवे-बस द्वारा सम्मेतशिखर का यात्रा संघ लेकर जाने का सुनिश्चित किया। वे देवचन्द्र जी के पास आए और निवेदन किया कि विधि-विधान, पूजन, प्रवचन के लिए किसी पंडित पुरुष को भेज दें। योगानुयोग पं. देवचन्द्र जी ने पूँजाशाह को साथ ले जाने को कहा। पूँजाशाह भी यात्रा में गया। उन दिनों गाँव के मुखिया ने किसी कारण सम्मेत शिखर की चढ़ाई बंद कर दी थी। शाम को जब सभी तलहटी पर पहुँचे तो सभी निराश हुए। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई। पूँजाशाह जब रात को सोया था, तब स्वप्न में उसे एक देव ने दर्शन दिए। वह देव पूँजाशाह के मित्र - खुशालशाह का ही अगला भव था। देव पूँजाशाह को स्वप्न में ही नन्दीश्वर द्वीप महावीर पाट परम्परा 248 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मार्ग से महाविदेह क्षेत्र - सीमंधर स्वामी के पास ले गया। पूँजा ने सीमंधर स्वामी से पूछा कि मैं भव्य हूँ या अभव्य ? सम्यक्त्वी हूँ या मिथ्यात्वी ? एवं प्रभु ने अपनी मीठी वाणी में कहा तू भव्य है और आज ही तुझे समकित की प्राप्ति होगी । स्वप्न में यह बात सुनते ही पूँजाशाह का शरीर दिव्य ऊर्जा से भर गया। तभी संघपति कचरा कीका भाई वहाँ आए और पूँजाशाह को उठाया और कहा कि उठो! शिखरजी ऊपर जाने की आज्ञा मुखिया ने दे दी है, उस दिन पूंजाशाह ने 20 तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि सम्मेतशिखर जी पर पूजा की एवं कराई एवं स्वयं को प्रभु चरणों में समर्पित कर दिया। - वहाँ से वापसी में पटना में उनका दिगंबरों के साथ तथा आगरा में स्थानकवासियों के साथ वाद-विवाद हुआ जिसमें पूँजाशाह सफल (विजयी) रहे। किंतु उनकी माँ की ममता सदा उनके दीक्षा के मार्ग में कण्टक (कांटे) के समान बनी रही। उनकी माता ने उनसे वचन लिया कि जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक तू दीक्षा नहीं लेगा। मातृ सेवा को पूँजाशाह ने अपना धर्म समझा एवं उनके अन्त समय तक उनकी सेवा में भी रहा। उनकी माता की मृत्यु पश्चात् वैराग्य भाव से पोषित पूँजाशाह ने पंन्यास जिन विजय जी के पास चारित्र अंगीकार किया । वैशाख सुदि 6 वि.सं. 1796 में अहमदाबाद में यह दीक्षा सम्पन्न हुई एवं पूँजाशाह का नाम मुनि उत्तम विजय जी रखा गया। शासन प्रभावना : पन्यास जिन विजय जी एवं मुनि उत्तम विजय जी ज्ञानानुरागी थे। दोनों ने अति अल्प समय में देवचंद्र गणि जी के पास रहकर द्रव्यानुयोग, भट्टारक दया सूरि जी से भगवती सूत्र व नंदी. सूत्र, यति सुविधि विजय जी के पास मंत्रशास्त्र का अध्ययन किया । वि.सं. 1799 में पंन्यास जिन विजय जी के देहावसान पश्चात् उत्तम विजय जी ने मेहनत जारी रखी। उनके अध्य्यन एवं शासनकार्यों में सूरत के कचरा कीका भाई का आर्थिक सहयोग अनुमोदनीय रहा। संघवी फतेचन्द की पत्नी रतनबाई तथा संघवी ताराचंद जी ने मा.व. 2 गुरुवार वि.सं. 1821 को सूरत से गोड़ी पार्श्वनाथ ( वर्तमान पाकिस्तान) का संघ निकाला जिसमें उत्तमविजय जी (तपागच्छ संवेगी शाखा), पुण्यसागर जी (तपागच्छ सागरशाखा), हेमचन्द्र जी (आगमगच्छ), ज्ञानसागर जी (अंचलगच्छ) आदि सुसाधुओं की निश्रा रही। पंन्यास उत्तम विजय जी की निश्रा में सूरत, राधनपुर, लुंबड़ी में उपधान तप, सिद्धाचल, महावीर पाट परम्परा 249 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारेगाम भावनगर में प्रतिष्ठा आदि मंगलकार्य सम्पन्न हुए। अहमदाबाद, खेड़ा, भरूच, सूरत, गिरनार, जामनगर, बुरानपुर, चांपानेर, लूंबड़ी, पाटण, राधनपुर इत्यादि अनेकों जगह चातुर्मास किए। साहित्य रचना : पंन्यास उत्तम विजय जी ने कवित्व शैली में कृतियां रची। महावीर स्तवन - राधनपुर (वि. सं. 1809) ; संयमश्रेणि भगवान् महावीर स्तवन - सूरत (वि.सं. 1799) ; अष्टप्रकारी पूजा (वि.सं. 1823) ; पं. जिन विजय रास - सूरत (वि.सं. 1799) ; शत्रुजय तीर्थ का स्तवन - शत्रुजय (वि.सं. 1827)। कालधर्म : पंन्यास उत्तम विजय जी को आँखों की अत्यधिक पीड़ा हुई। सभी औषधियां निष्प्रभाव हुई। उपचार के लिए वे राजनगर (अहमदाबाद) पधारे। एक दिन उन्हें ताप (बुखार) आया। नौ दिन तक उन्हें असह्य वेदना हुई किंतु वे धर्मध्यान में लीन रहे। माघ सुदि 8 वि.सं. 1827 के दिन 67 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। संघ में शोक की लहर दौड़ पड़ी। गुरुभक्त श्रावकों ने पार्थिव देह का अग्नि संस्कार किया एवं हरिपुरा में स्मरणार्थ स्तूप निर्मित किया गया। उनके पट्टधर पंन्यास पद्म विजय जी हुए। ___ इनके शासनकाल में ही तेरापंथ संप्रदाय का उद्भव हुआ। स्थानकवासी आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य भीखण जी (भिक्षु जी) ने प्रमुख रूप से दान और दया के विषय में लौकिक और लोकोत्तर भेद रेखा खींची और चैत्र शुक्ला 9, वि.सं. 1817 (ईस्वी सन् 1760) के दिन स्थानकवासी परम्परा से संबंध विच्छेद कर उनसे अलग हो गए। ___ आचार्य भिक्षु ने इसी वर्ष केलवा गांव में आषाढ शुक्ला पूर्णिमा को अपने साथियों सहित नई दीक्षा ग्रहण की। जोधपुर के तत्कालीन दीवान फतेहचंद सिंघवी ने यह जाना कि वे तेरह (13) श्रमण हैं। राजस्थानी भाषा में तेरह को तेरा कहा जाता है। पास खड़े एक भोजक कवि ने पद की रचना की और उन्हें 'तेरापंथी' नाम से संबोधित किया। वहीं से तेरापंथ नाम का प्रचलन हो गया और जैनधर्म के नए संप्रदाय का उद्भव हुआ। महावीर पाट परम्परा 250 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67. पंन्यास श्रीमद् पद्म विजय जी गणि ___पुण्यश्लोक प्रभापुंज प्रदीप, परमेष्ठी प्राणाधार। उत्तम-शिष्य पद्म विजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ तीर्थभूमियों के स्पर्श से अपना सम्यग्दर्शन विशुद्ध करने वाले, स्तवन - सज्झाय - श्लोकों की रचना से अपना सम्यग्ज्ञान विशुद्ध करने वाले, यतियों के साम्राज्यकाल में भी अपनी निष्परिग्रह साधुवृत्ति से अपना सम्यक् चारित्र विशुद्ध करने वाले प्रभु वीर की परम्परा के क्रमिक 67वें पट्टधर पंन्यास पद्म विजय जी हुए। जन्म एवं दीक्षा : अहमदाबाद नगर में शामलदास की पोल में गणेशदास नाम का श्रीमाली श्रावक रहता था। उसकी पत्नी का नाम झमकुबाई था। भाद्रपद सुदि 2 वि.सं. 1792 के दिन उनके घर पुत्र का जन्म हुआ। नवजात शिशु का नाम पानाचंद रखा गया। जब बालक 6 वर्ष का था, तब उसकी माता का देहान्त हो गया था। अतः उसका लालन-पालन-पोषण उसकी मौसी - जीवीबाई ने किया। जीवीबाई परमनिष्ठ श्राविका एवं जीवविचार, नवतत्त्वप्रकरण आदि शास्त्रों में निष्णात् थी एवं उसने अपने भाणजे पानाचंद को भी धार्मिक संस्कारों से ओतप्रोत रखा। ___जब पानाचंद की आयु 13 वर्ष की थी. तब वह अपने मौसाजी के साथ पं. उत्तम विजय जी के व्याख्यान श्रवण हेतु जाता था। सुबह प्रवचन में प्रज्ञापना सूत्र वांचा जाता एवं दोपहर में ऋषभदेव चरित्र वांचा जाता था। उसमें महाबल मुनि के अधिकार का श्रवण करते-करते पानाचंद के हृदय में वैराग्य के बीज प्रस्फुटित हुए। उसने अपनी भावना को दृढ़ रखा एवं सुदि 5 (वसन्त पंचमी) वि.सं. 1805 के दिन चारित्र ग्रहण की भावना ने मूर्त रूप लिया। पाच्छावाड़ी, अहमदाबाद में यह दीक्षा सम्पन्न हुई एवं वे पंन्यास उत्तम विजय जी के शिष्य मुनि पद्म विजय जी घोषित हुए। शासन प्रभावना : मुनि पद्म विजय जी विद्यानुरागी थे। यतिवर्य सुविधि विजय जी से उन्होंने सूरत में शब्दशास्त्र, पंचकाव्य, छंद-अलंकार शास्त्र सीखे। गीतार्थ गुरुओं से अंग-उपांग आदि आगमों में दक्षता प्राप्त महावीर पाट परम्परा 251 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। सेठ ताराचंद संघवी की सहायता से उनके न्याय शास्त्र सीखने का प्रबंध हुआ। तपागच्छ श्रीपूज्य परम्परा के भट्टारक धर्मसूरि जी ने वि.सं. 1810 में राधनपुर में मुनि पद्म विजय जी को पंडित (पन्यास) पद प्रदान किया। उनकी निश्रा में अनेकों छरी पालित संघ निकाले गए। पडत पदवी पश्चात् राधनपुर से गिरनार, सिद्धपुर-पालनपुर से आलू, लीबड़ी से गोडीजी, अहमदाबाद से पालीताणा इत्यादि संघ को कुशल आयोजन हुआ। संवत् 1814 के सूरत चातुर्मास पश्चात् वे बुरहानपुर संघ की विनती स्वीकार कर वहाँ पधारे। वहाँ वाद-विवाद में उन्होंने मूर्तिपूजा विरोधी स्थानकवासी मत को निरूत्तर किया। संवत् 1815-16 के दो चातुर्मास उन्होंने बुरहानपुर किए। तत्पश्चात् खंभात पधारे एवं गुरुदेव उत्तम विजय जी के दर्शनार्थ शत्रुजय गए। पालीताणा में सेठ रूपचंद भीम ने सुंदर प्रासाद निर्मित किए जिनमें प्रतिष्ठा पद्म विजय जी ने कराई। घोघा में चंद्रप्रभ स्वामी देरासर प्रतिष्ठित किए। संवत् 1821 का चातुर्मास उन्होंने सिद्धपुर किया। वहाँ से अहमदाबाद - सूरत होते हुए पालीताणा पधारे जहाँ ताराचंद संघवी की भावनानुसार 195 जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। तत्पश्चात् वे सम्मेत शिखर की यात्रार्थ पधारे। मादाबाद निवासी सगालचंद ओसवाल द्वारा निर्मित भव्य जिनालय की प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। वि.सं. 1827 में पं. उत्तम विजय जी का कालधर्म हुआ। तब संवेगी परम्परा का दायित्व भी पद्म विजय जी पर आ गया। .. वि.सं. 1838 में लींबड़ी में चातुर्मास किया एवं भव्य रूप से उपधान कराया। संवत् 1839 का भी चातुर्मास उन्होंने लींबड़ी किया। तब 109 (75) मासक्षमणों की अनुमोदनीय तपश्चर्या हुई। रांदेर में भी स्थानकवासियों के साथ शास्त्रार्थ में सत्य मत प्ररूपक पं. पद्म विजय जी विजयी हुए। श्रावण वदि 8, सोमवार, वि.सं. 1821 के दिन उन्होंने प्रेरणा देकर सूत्रकृतांगनियुक्ति की प्रति सेठ कसलचंद द्वारा लिखवाई। वि.सं. 1854 में श्रीमाली जाति के लक्ष्मीचंद सेठ ने श्री सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा प्रतिष्ठा अहमदाबाद में माघ वदी 5 वि.सं. 1854 में पद्म विजय जी के हाथों कराई। तथा 472 अन्य जिनप्रतिमाएं व 49 सिद्धचक्र यंत्र भी भराए। इनके प्रवचन भी जैन आगम पर ही पूर्णतः आधारित होते थे। सूत्रकृतांग सूत्र, रायपसेणी सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वार सूत्र, बृहत्कल्प सूत्र इत्यादि आगम ग्रंथ वे प्रवचन में सरस शैली में वांचते थे। महावीर पाट परम्परा 252 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि.सं. 1857 में उन्होंने संघ को सम्मेतशिखर तीर्थ के जीर्णोद्धार की प्रेरणा दी, जिसके फलस्वरूप श्री खेमालाल शाह ने यह कार्य हाथ में लिया। रत्नत्रयी की आराधना करते-करते उन्होंने शासन की महती प्रभावना की। साहित्य रचना : पं. पद्म विजय जी बहुश्रुत विद्वान थे। उन्होंने 5500 नए श्लोकों की रचना की। उनकी कुछ कृतियां इस प्रकार हैं- चातुर्मासिक देववंदन माला ___ - जैन कथा रत्न कोष - उत्तम विजय जी रास - - नवपद पूजा - समरादित्य केवली रास (वि.सं. 1842) - जयानंद केवली रास (वि.सं. 1859) - नेमिनाथ चरित्र - चौबीसी, बीसी, स्तवन, सज्झाय इनके शिष्य ने पाली भाषा में अध्यात्मसार सार्थ प्रश्नोत्तर की रचना की। कालधर्म : पद्म विजय जी ने अपने जीवन में पालीताणा तीर्थ की 13 बार, गिरनार तीर्थ की 3 बार, शंखेश्वर जी तीर्थ की 21 बार, गोड़ी जी तीर्थ की 3 बार, तारंगा जी तीर्थ की 5 बार, आबू-सम्मेत शिखर तीर्थ की 1-1 बार यात्रा की। सत्तावन वर्ष का चारित्र पालते हुए अहमदाबाद में मस्तक के अर्धभाग की व्याधि समाधि भाव से सहतें एवं तदुपरान्त भी 28 दिनों तक उत्तराध्ययन सूत्र की आराधना करते-करते चैत्र सुदि 4 बुधवार वि.सं. 1862 के दिन शाम को प्रतिक्रमण के बाद वे समाधिमरण कर देह का त्याग कर देवलोक की ओर अग्रसर हुए। उनके पट्टधर पंन्यास रूप विजय जी हुए। महावीर पाट परम्परा 253 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68. पंन्यास श्रीमद् रूप विजय जी गणि 1) पृथ्वाचन संवेगी सुसाधु परम्परा, रमणीय रचनाकार। पंन्यासप्रवर श्री रूपविजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ पंन्यास पद्म विजय जी के शिष्य पंन्यास रूप विजय जी वीर शासन की संवेगी परम्परा के 68वें पट्टालंकार हुए। प्रभु भक्ति एवं साहित्य साधना इनके जीवन के प्रमुख अलंकार थे। उन्नीसवीं सदी के महान कवि एवं विद्वान् रूपविजय जी वैद्यक शास्त्रों में अति-निपुण थे। साहित्य रचना : श्रीमान रूप विजय जी ने अनेक शास्त्रों, पूजाओं एवं सज्झायों की रचना की। उनके द्वारा संवत् 1880 में विक्रम राजा के समय के अम्बड विषय का रास उपलब्ध है, जिसमें विक्रम राजा के पराक्रम, पंचदण्ड आदि अद्भुत बातें हैं। इसके अलावा भी उनकी अनेक कृतियां मिलती हैं पृथ्वीचंद्र गुणसागर जीवन चरित्र भाषांतर (वि.सं. 1880) 2) पद्मविजय गणि निर्वाण रास (वि.सं. 1892) विमलमंत्री रास (वि.सं. 1900) पंच कल्याणक पूजा (वि.सं. 1885) पंच ज्ञान पूजा (वि.सं. 1887) वीस स्थानक पूजा (वि.सं. 1884-85) पिस्तालीस (45) आगम पूजा (वि.सं. 1885) स्नात्र पूजा चैत्री पूनम का देववंदन आत्मबोध सज्झाय 11) मनः स्थिरीकरण सज्झाय इत्यादि। महावीर पाट परम्परा 254 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ व्यवस्था : पंन्यास रूप विजय जी ने समय में साध्वी संपदा का काफी अभाव रहा क्योंकि राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के कारण दीक्षाएं अधिक नहीं हो पा रही हैं। इनके 3 शिष्य प्रमुख रहे - कीर्ति विजय जी, उद्योत विजय जी एवं अमी विजय जी । पंन्यास अमी विजय जी की परंपरा में सौभाग्य विजय जी, रत्नविजय जी, भाव विजय जी, हर्ष सूरि जी, नीति सूरि जी आदि अनुक्रम से हुए। पट्टधर कीर्ति विजय जी की परम्परा भी विस्तृत हुई। कालधर्म : रूपविजय जी ने अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र के बल पर शासन की महती प्रभावना की । यतियों के साम्राज्य एवं साधुत्व की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने संवेगी परम्परा का कुशल संवहन किया। पंन्यास रूप विजय जी का कालधर्म वि.सं. 1905 (1910) के आसपास हुआ। उनके पाट पर श्री कीर्ति विजय जी स्थापित हुए। पाटण क्षेत्रवासी के मंदिर में श्रीमद् रूपविजय जी महाराज की मूर्ति / प्रतिमा स्थापित है। मुम्बई (तत्कालीन बम्बई ) में सुप्रसिद्ध श्री गोड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, ( पायधुनी) एवं भायखला के जिनमंदिर निर्माता परम प्रभुभक्त - गुरुभक्त श्री मोतीशाह सेठ भी पंन्यास रूपविजय जी के समकालीन हुए। महावीर पाट परम्परा 255 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69. पंन्यास श्रीमद् कीर्ति विजय जी गणि धर्म संस्कार कीर्ति प्रकाशित, भव्य आत्मोद्धार । धृतिमतियुक्त श्री कीर्ति विजय जी, नित् वंदन बारम्बार || अपने आचार एवं विचारों के प्रभाव से दिग्-दिगंत कीर्ति को प्राप्त पंन्यास कीर्ति विजय जी तपागच्छ की संवेगी परम्परा के 69 वें पट्टधर हुए । उनकी शारीरिक कान्ति, ज्ञान तेजस्विता एवं वाणी ओजस्विता से विविध क्षेत्रों में विचरण कर उन्होंने शासन की महती प्रभावना की । जन्म एवं दीक्षा : उनका जन्म वि.सं. 1816 में पालनपुर/खंभात के किन्हीं वीशा ओसवाल जाति के सुश्रावक के घर हुआ था। गृहस्थ अवस्था में उनका नाम कपूरचंद था। आत्मकल्याण की भावना से स्वयं को सर्जित कर 45 वर्ष की आयु में उन्होंने पालीताणा में पंन्यास रूप विजय जी के पास दीक्षा अंगीकार की एवं इनका नाम मुनि कीर्ति विजय रखा गया। शासन प्रभावना : संस्कारवान् होने से देशविरति से सर्वविरति में प्रवेश करने पर उनका साधु जीवन निर्मल रहा। वि.सं. 1880 का चातुर्मास उन्होंने अहमदाबाद की लुहार पोल में किया। तब उनके साथ कस्तूर विजय जी, उद्योत विजय जी, लक्ष्मी विजय जी, शांति विजय जी, चतुर विजय जी, लाभविजय जी, मणिविजय (दादा), मेघ विजयजी, मनोहर विजय जी, मोती विजय जी एवं वृद्धि विजय जी भी थे। रूप विजय जी के दाहिने हाथ के रूप में उन्होंने गुजरात, मारवाड़, मेवाड़ व मालवा में विचरण कर अनेक भव्यात्माओं को शासन के अनुरागी बनाया। इनका आयुष्य अल्प था । कीर्ति विजय जी के 15 शिष्य थे। कुछ इस प्रकार थेये अत्यंत तपस्वी थे। आयुष्य अल्प था। कस्तूर विजय जी 1) महावीर पाट परम्परा 256 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2) 3) 4) 5) उद्योत विजय जी - इनकी शाखा भिन्न निकली। जीव विजय जी - ये अनेक लोकप्रिय स्तवन, सज्झायों के सर्जक थे। सकल तीर्थ वंदना, अवधु सदा मगन में रहना आदि इनकी रचनाएं थीं। माता मरूदेवी के नंद, श्री आदीश्वर अन्तर्यामी आदि के रचनाकार संस्कृत गद्य में अट्ठाई व्याख्यान की रचना की । माणेक विजय जी लक्ष्मी विजय जी महावीर पाट परम्परा - - 257 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70. पंन्यास श्रीमद् कस्तूर विजय जी गणि कस्तूरी सम मधुर सुवासित, कस्तूर विजय तपाचार। मितभाषी-हितभाषी गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ शासनपति भगवान् महावीर की जाज्वल्यमान संवेगी तपागच्छ परम्परा के 70वें पाट पर पंन्यास कस्तूर विजय जी हुए। तपश्चर्या के मार्ग पर कर्मों की निर्जरा करना उनका प्रमुख ध्येय था। उनका स्वर्ग गमन अपने दादागुरु रूप विजय जी की वृद्धावस्था के समय हो गया था। जन्म एवं दीक्षा : उनका जन्म गुजरात के पालनपुर नगर में वि.सं. 1833 में किन्हीं सद्गृहस्थ जैन परिवार के घर . हुआ। स्थानकवासी एवं यतियों की सिद्धांत-समाचारी से इनका मोहभंग हुआ एवं रूपविजय जी - कीर्ति विजय जी के आचार से वे अत्यंत प्रभावित हुए। वि.सं. 1870 में इनकी दीक्षा सम्पन्न हुई। इनका नाम मुनि कस्तूर विजय रखा गया एवं वे कीर्ति जी के शिष्य घोषित हुए। शासन प्रभावना : साधुवेश में कस्तूर विजय जी ने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। वे तपयोगी थे - उग्र तपस्या द्वारा कर्मों को जलाकर शांति के पथ पर जीवन को सार्थक बनाने में रत् रहते थे। उनका अपनी इन्द्रियों पर असाधारण काबू था। गोचरी में बहुत कम द्रव्य वापरते थे। अपनी वृत्ति से उन्होंने भव्य जीवों को सम्यक् तप से जोड़ा। पंन्यास श्री मणि विजय जी दादा, इनके प्रभावक शिष्यों में से एक थे। कालधर्म : 33 वर्ष का चारित्र पर्याय पालते हुए 65 वर्ष की आयु में पं. श्री कस्तूर विजय जी का वि.सं. 1903 में बडोदरा (बड़ौदा) में कालधर्म हुआ। उनके दादागुरु श्री रूपविजय जी संभवतः वृद्धावस्था में अवनितल पर विचरण कर रहे थे। ऐसे तपस्वी संत का हृदयविदारक देवलोकगमन गुरु एवं संघ के लिए अपूरणीय क्षति रही। महावीर पाट परम्परा 258 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71. पंन्यास श्रीमद् मणि विजय जी गणि धर्मक्रान्ति के सक्षम सर्जक, मणि अकाट्य धार। महामना श्री मणिविजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ अपनी संयम साधना एवं प्रवचन प्रभावना के बल पर संवेगी साधुओं की परम्परा को विस्तृत कर शासन प्रभावक शिष्यों को तैयार करने वाले एवं यति परम्परा के उन्मूलन के शुभ भाव से विस्तृत क्षेत्रों में विहार कर पंन्यास श्री मणि विजय जी वीरशासन के क्रमिक 71वें पट्टधर हुए। जन्म एवं दीक्षा : - गुजरात प्रदेश के वीरमगाम एवं रामपुरा के 5 कोस दूर एक आधार नामक गाँव है। वहाँ श्रीमाली सेठ जीवनलाल एवं उनकी पत्नी गुलाबदेवी सुखपूर्वक सांसारिक जीवन व्यतीत करते थे। वि.सं. 1852 (ईस्वी सन् 1795) के भाद्रपद महीने में एक पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम मोतीचंद रखा गया। रूपचंद, मोतीचंद, नानकचंद और पानाचंद, इन चार संतानों के साथ पिता दशरथ की अनुभूति मानकर रहते थे। व्यापार के उद्देश्य से पूरा परिवार खेड़ा जिले के पेटली गाँव में आकर बस गया। पुण्ययोग से पंन्यास कीर्ति विजय जी वहाँ पधारे। जीवनलाल जी कुटुम्ब के साथ गुरुदर्शन एवं जिनवाणी श्रवण हेतु उपाश्रय में आए। कीर्ति विजय जी ने मनुष्य भव की दुर्लभता का वर्णन एवं इसे सार्थक बनाने का आह्वान अपने प्रवचन में किया। व्याख्यान के बाद मोतीचंद (सेठ का द्वितीय पुत्र) गुरु महाराज के पास आकर बैठ गया एवं कहा कि "गुरुदेव! मुझे संसार से पार उतारो। दीक्षा प्रदान करो।" गुरुदेव ने कहा कि माता-पिता की आज्ञा के बिना हम दीक्षा नहीं देते। कीर्ति विजय जी ने बालक की हाथ की रेखाएं देखी। बालक की तेजस्विता जिनशासन के प्रचार में सहायक होगी, ऐसा अनुभव उन्हें हो गया। सेठ जीवनलाल जब अपने घर जाने लगे तब गुरुदेव ने सेठ को कहा कि "तुम्हारे पुत्र की भावना दीक्षा लेने की है।" सेठ ने बात पर गौर नहीं किया। लेकिन घर आकर तो मोतीचंद के आचार और विचारों में आशातीत परिवर्तन आ चुका था। सेठ को तब कीर्ति विजय जी की बात का स्मरण हो आया। महावीर पाट परम्परा 259 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ समय पश्चात् कीर्ति विजय जी की निश्रा में अहमदाबाद से राधनपुर का संघ निकला। साधुता की भावना में दृढ़ता को प्राप्त कर चुका मोतीचंद माता-पिता की आज्ञा लेकर राधनपुर आया एवं विद्याभ्यास करने लगा। कीर्ति विजय जी के साथ विहार करते-करते तारंगा, आबू, सिरोही, नांदिया, राणकपुर, सादड़ी, घाणेराव आदि तीर्थो की स्पर्शना पर दर्शन और ज्ञान को दृढ़ कर मोतीचंद पाली आया। पाली के श्रावक-श्राविकाओं ने सुना कि मोतीचंद भाई दीक्षा लेने वाला है। संघ ने गुरु महाराज को बार-बार विनती की कि दीक्षा प्रदान का ऐसा अनमोल लाभ पाली संघ को प्रदान कीजिए। माता-पिता की भी आज्ञा ले ली गई। अंततः 25 वर्ष की आयु में मोतीचंद ने वि.सं. 1877 (ईस्वी 1820) में दीक्षा स्वीकार की। पंन्यास कीर्ति विजय जी महाराज ने उसका नाम - मुनि मणि विजय रखा एवं पंन्यास श्री कस्तूर विजय जी का शिष्य घोषित किया। शासन प्रभावना : मुनि मणिविजय जी ने साधु प्रतिक्रमण, पडिलेहण आदि क्रियाओं का विधिपूर्वक अभ्यास किया एवं दशवकालिक - आचारांग आदि का तलस्पर्शी अध्ययन किया। कस्तूर विजय जी और मणि विजय जी, दोनों ज्ञान-ध्यान एवं तपस्या में लीन रहते। पंन्यास कीर्ति विजय जी की आज्ञा से गुरु-चेले ने साथ विहार किया एवं वि.सं. 1877 का चातुर्मास मेड़ता में किया। _ वि.सं. 1878 (ईस्वी सन् 1821) का चातुर्मास राधनपुर एवं अगले तीन चातुर्मास अहमदाबाद में किए। अहमदाबाद के प्रथम चौमासे में मणि विजय जी एकासना ठाम चउविहार, उपवास आदि तपस्याएं करने लगे एवं एक साथ 16 उपवास किए। वि.सं. 1880 में एक महीने के एवं वि.सं. 1887 में 32 उपवास किए। वि.सं. 1890 का चातुर्मास उन्होंने बनारस (वाराणसी) किया एवं तत्पश्चात् सम्मेत शिखर महातीर्थ की यात्रा की। ज्येष्ठ सुदि 13 वि.सं. 1923 के दिन पंन्यास दयाविमल जी गणि ने अहमदाबाद में संघ साक्षी में मणि विजय जी को पंन्यास पदवी प्रदान की। मणि विजय जी ने सत्य प्ररूपणा कर के जिनशासन की महती प्रभावना की। वि.सं. 1912 में पंजाब से आए हुए ऋषि बूटेराय जी, ऋषि मूलचंद जी, ऋषि वृद्धिचंद जी, तीनों स्थानकवासी साधुओं का सम्यग्दर्शन सुदृढ़ कर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में संवेगी दीक्षा प्रदान कर जिनशासन के सुसाधुओं में श्लाघनीय अभिवृद्धि की। उनके नाम क्रमशः बुद्धिविजय जी, मुक्ति महावीर पाट परम्परा 260 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय जी, वृद्धिविजय जी रखा। मणिविजय जी एवं बुद्धिविजय जी की शिष्य परम्परा में अनेकानेक समर्थ शासनप्रभावक संत हुए जिन्होंने चहुँ दिशाओं में विचरण कर यतियों के साम्राज्य को भेदकर शासन की प्रभावना की। पंन्यास मणि विजय जी ने अहमदाबाद में लगातार 14 चातुर्मास किए। इसके अलावा खंभात, राधनपुर, अजमेर, बनारस, किशनगढ़, पालीताणा, पीरनगर (यह अब जलस्थ है), फलौदी, वीर कच्छ, जामनगर, लींबडी, बीकानेर, विशालपुर, भीष्मनगर आदि जगहों पर चातुर्मास करके शासन की अजोड़-बेजोड़ प्रभावना की। अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठा भी उनके करकमलों से सम्पन्न हुई। संघ व्यवस्था : ____ उस समय श्रावक समुदाय यतियों और श्रीपूज्यों के शिकंजे में पूर्ण रूप से जकड़ा था। जैन शास्त्रों में जो आचार्य के लक्षण कहे गये हैं, उसके प्रतिकूल आरंभ समारंभ करना, द्रव्यादि संग्रह करना, सचित्त आहार करना, पालकी में सवारी होना, स्वार्थपूर्ति हेतु मंत्रोच्चार करना इन यतियों का द्योतक था। निस्संदेह इनका ज्ञान बहुत था, लोगों को धर्म से जोड़ने की शक्ति भी खूब थी किंतु चारित्र सम्यक् न होने से चतुर्विध संघ की व्यवस्था प्रभावित थी। ____पन्यास मणि विजय जी ने यति परम्परा के उन्मूलन के लिए अपने शिष्यों को तैयार किया एवं पंजाब, सौराष्ट्र, मारवाड़ आदि में भेजकर संवेगी परम्परा का अनुमोदनीय विस्तार किया। उनके प्रमुख शिष्य इस प्रकार थे। 1) मुनि अमृत विजय जी 2) मुनि पद्म विजय जी 3) पंन्यास बुद्धि विजय जी (बूटेराय जी) 4) पंन्यास गुलाब विजय जी 5) मुनि हीर विजय जी 6) पंन्यास शुभ विजय जी 7) आचार्य सिद्धि सूरि जी बुद्धि विजय जी एवं सिद्धि सूरि जी का शिष्य परिवार अति विस्तृत हुआ। सिद्धि सूरि जी की दीक्षा मणि विजय जी के कालधर्म से कुछ माह पूर्व ही हुई। संवेगी परम्परा के 235 से अधिक वर्षों तक कोई आचार्य नहीं बन पाया था। बुद्धि विजय जी के समर्थ शिष्य विजयानंद सूरि जी की आचार्य पदवी वि.सं. 1943 में सम्पन्न हुई। सिद्धि सूरि जी की आचार्य पदवी वि.सं. 1957 में सम्पन्न हुई। महावीर पाट परम्परा 261 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास श्री मणि विजय जी दादा ने जिस धर्मोद्योत का बीड़ा उठाया, उनके समर्थ शिष्यों - प्रशिष्यों ने उनके संकल्प को शीघ्र ही पूर्ण किया । कालधर्म : मणि विजय जी की आयु जब 69 वर्ष के पार हो गई, तब उनका स्वास्थ्य प्रतिकूल रहने लगा। अपने शिष्यों को योग्य दायित्व प्रदान कर, वे वि.सं. 1921 से वि.सं. 1935 ( ईस्वी सन् 1864 से 1878) तक अहमदाबाद में ही रहे । 83 वर्ष की आयु में आसोज सुदि 8 वि.सं. 1935 ( ईस्वी सन् 1878) में 24 उपवासों की तपस्या करते हुए चउविहार उपवास में समाधिपूर्वक अहमदाबाद में कालधर्म को प्राप्त हुए। उनके देवलोकगमन से उनका विशाल शिष्य समुदाय शिरच्छत्र विहीन सा हो गया किंतु उनके संकल्पों की परिपूर्ति हेतु अग्रसर रहा। महावीर पाट परम्परा 262 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72. पंन्यास श्रीमद् बुद्धि विजय जी गणि सम्यक्त्व बोध बुद्धि धनी, सम्यक्त्व रूप आचार। बूटेराय जी बुद्धिविजय श्री, नित् वंदन बारम्बार ॥ सत्य की शोध, प्राप्ति एवं रक्षा जिनके जीवन का बहुमुखी लक्ष्य था, ऐसे सद्धर्म संरक्षक पंन्यासप्रवर श्रीमद् बुद्धि विजय जी (बूटेराय जी) शासनपति भगवान् महावीर स्वामी की अक्षुण्ण परम्परा में 72वें पट्टधर हुए। स्व पर कल्याण की शुभ भावना से उनका जीवन परिपूरित था। जन्म एवं दीक्षा : पंजाब की वीर प्रसूता भूमि पर सरहिंद से 5-6 मील दूर दुलूआ नामक गाँव था। वहाँ सिख धर्मानुयायी सरदार टेकसिंह की पत्नी कर्मोदेवी की कुक्षि से वि.सं. 1863 (ईस्वी सन् 1806) में. एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ । उसका नाम टलसिंह रखा गया किंतु बालक की शूरवीरता के कारण वह दलसिंह के नाम से जाना जाने लगा। कुछ वर्षों बाद टेकसिंह और कर्मोदेवी उस गाँव को छोड़कर बड़ा कोट साबरवान गाँव में आ बसे । इस गाँव के लोग बालक को ' बूटासिंह' बुलाने लगे। बूटा यानि हरा-भरा वृक्ष । सिंह यानि श्रेष्ठ । बूटासिंह सदा से ही धार्मिक प्रवृत्ति का था । गुरुद्वारे मंदिर में वह समय-समय पर जाया करता था। जब वह 15 - 16 वर्ष का था, तब उसका मन घर-संसार से उचाट हो गया। माता-पिता की आज्ञा से वह घर से निकल गया। उसे ऐसे गुरु की तलाश थी जो उसको सद्गुणों से संस्कारित कर सके। अनेकों वर्षों तक वह फकीरों, मठों, गुरुद्वारों, पहाड़ों में घूमता रहा किंतु कल्पनारूप त्याग, वह गुरु में नहीं मिला। एक बार उसे स्थानकवासी सम्प्रदाय के साधु नागरमल जी के दर्शन हुए। बूटासिंह ने अनेक तरह से उनको परखा एवं उनका चारित्र उसे बहुत पसंद आया। कुछ समय मुमुक्षु अवस्था में रहकर जैन साधु के आचारों को जानने के बाद वि.सं. 1888 (ईस्वी सन् 1831 ) में 25 वर्ष की आयु में दिल्ली में नागरमल जी के पास दीक्षा ग्रहण की एवं नाम बूटेराय ऋषि प्राप्त किया। महावीर पाट परम्परा 263 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनैः शनैः आचारांग आदि विशाल श्रुत साहित्य का अध्ययन करते जिनधर्म पर उनकी श्रद्धा प्रगाढ़ होती गई किंतु उन्हें नागरमल जी आदि स्थानकवासी संतों की जीवन शैली शास्त्रों के अनुरूप न लगी। उस समय पंजाब क्षेत्र में स्थानकमार्गी ऋषि एवं चैत्यवासी यति, ये दोनों ही जैनधर्म के त्यागीवर्ग में थे परन्तु संवेगी (तपागच्छ आदि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक) साधु जी का विहार न होने के कारण बूटेराय जी के सामने आगम-अनुकूल समाचारी पालन करने वाला कोई साधु-साध्वी न था। किंतु शास्त्राध्ययन से सत्य की पुष्टि बूटेराय जी को होती जा रही थी। मिथ्यामत विद्रोह के स्वर ऊँचे उठते जा रहे थे। बूटेराय जी की 'सत्यनिष्ठा से मूलचंद जी एवं वृद्धिचंद भी प्रभावित थे। एक बार उन तीनों का पदार्पण केसरिया जी तीर्थ पर हुआ जहाँ संघपति द्वारा उन्हें गुजरात की भव्य जिनमंदिर स्मारक संपदा एवं शुद्ध आचारवान् संवेगी साधु संपदा का ज्ञान हुआ। बूटेराय जी सुदेव-सुगुरु-सुधर्म की त्रिवेणी के प्रति अनुरक्त हो गए। वि.सं. 1908 में उन्होंने मुखपत्ती का डोरा तोड़ा। चैत्र सुदि 13, वि.सं. 1911 (ईस्वी सन् 1854) को वे पालीताणा तीर्थ पहुँचे। परमात्मा के दर्शन से उन्होंने जो अपार हर्ष का अनुभव किया, वह अवर्णनीय है। यहाँ भी कई पंडितों से ऋषि बूटेराय जी ने सम्यक् ज्ञान अर्जित किया। धीरे-धीरे संवेगी परम्परा के गुरु भगवंतों से उनका सामीप्य हुआ। अब उन्हें परम आनंद की अनुभूति हुई कि जिस सद्गुरु की खोज में इतने वर्षों से कर रहा था, वह आज पूरी हुई। वि.सं. 1912 (ईस्वी सन् 1855) में अहमदाबाद में मणि विजय जी के करकमलों से तपागच्छ की बड़ी संवेगी दीक्षा सम्पन्न हुई। बूटेराय जी मणि विजय जी के शिष्य बने एवं उनका नाम - मुनि बुद्धि विजय रखा गया। मूलचंद जी और वृद्धिचंद्र जी क्रमशः मुक्ति विजय जी एवं वृद्धिविजय जी के रूप में बुद्धि विजय जी के शिष्य बने। शासन प्रभावना : बुद्धि विजय जी परम त्यागी, शांत स्वभावी, स्वाध्याय रसिक एवं निरतिचार चारित्रपालक थे। संवेगी दीक्षा पश्चात् ज्ञानपिपासा को एकाकार देते हुए उन्होंने योगोह्वहनपूर्वक 45 आगमों का पंचांगी सहित (मूल, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि. टीका) अभ्यास पूर्ण किया। अहमदाबाद एवं भावनगर चातुर्मास करने के पश्चात् बुद्धिविजय जी ने ईस्वी सन् 1860 का चातुर्मास पाली (राजस्थान) में तथा 1861 का चातुर्मास दिल्ली में किया। तत्पश्चात् वे अपनी जन्मभूमि पंजाब पधारे। अपनी प्रतिबोधकुशलता के बल से अनेक श्रावक-श्राविकाओं महावीर पाट परम्परा 264 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की आस्था उन्होंने विशुद्ध सनातन जैनधर्म के प्रति दृढ़ की । ईस्वी सन् 1862 का चातुर्मास उन्होंने गुजरावालां किया एवं 1863 का रामनगर में । अग्रिम दिल्ली चातुर्मास के पश्चात् उनकी परम पावन निश्रा में दिल्ली में हस्तिनापुर तीर्थ का छःरी पालित संघ निकला । लाहौर, जालंधर, लुधियाना, सामाना आदि पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों में सम्यक् धर्म की सिंहगर्जना करते हुए वे विचरे । समय-समय पर उन्होंनें शास्त्रार्थ करके जिनवाणी को विजयी बनाया। विभिन्न क्षेत्रों की धर्मस्पर्शना करते हुए उनका पदार्पण पुनः गुजरात की धर्मधरा पर हुआ। जिस तरह स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित होकर सत्यधर्म एवं सद्गुरु की शोध करते हुए बुद्धि विजय जी का आशातीत आत्मोत्थान हुआ, उसी प्रकार आत्माराम जी आदि 16 स्थानकमार्गी, साधु भी सत्यशोध एवं सद्गुरु की खोज कर रहे थे। बुद्धि विजय जी के जीवन में स्वयं का प्रतिबिंब देखते हुए एवं उनकी प्रतिबोधकुशलता, आचारसंपन्न - जीवन, नि:स्पृह वृत्ति को देखकर उन्हें अपना गुरु धारण किया । वि.सं. 1932 ( ईस्वी सन् 1875) के आषाढ़ मास में अहमदाबाद में यह युगचर्चित संवेगी महादीक्षा का कार्यक्रम हुआ। श्री बुद्धि विजय जी ने आत्माराम जी को आनंद विजय नाम प्रदान किया एवं वासक्षेप डालकर एक सुयोग्य प्रतिभावान् शिष्य के गुरु बनने का श्रेय प्राप्त किया। • साहित्य रचना : सद्धर्म- संरक्षक बुद्धि विजय जी ने अपनी आत्मकथा में मुखवस्त्रिका विषयक चर्चाओं का प्रमुख उल्लेख किया, जो 'मुखपत्ती चर्चा' नाम से विख्यात हुई । वि.सं. 1919 ( ईस्वी सन् 1862) में गुजरावालां में पधारकर 24 तीर्थकर का एक 'चतुर्विंशतिस्तव' रचा। प्रतिष्ठित जिनमंदिर : बुद्धि विजय जी म.सा. ने अनेक स्थलों में सम्यग्दर्शन की दृढ़ता हेतु जिनमंदिर स्थापित किए 1) वैशाख वदि 13, वि.सं. 1920 में गुजरावालां में मूलनायक श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ जी जिनालय आसोज सुदि 10, वि.सं. 1922 में पपनाखां में प्रतिष्ठित श्री सुविधिनाथ परमात्मा का महावीर पाट परम्परा 2) 265 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3) जिनालय वैशाख वदि 3, वि.सं. 1923 में किला - दीदारसिंह में श्री वासुपूज्य स्वामी जी का जिनमंदिर 4) 5) 6) वैशाख वदि 7, वि.सं. 1924 में रामनगर में प्रतिष्ठित श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय वैशाख सुदि 6, वि.सं. 1926 में पिंडदादनखां में श्री सुमतिनाथ स्वामी प्राचीन जिनमंदिर जम्मूतवी में प्रतिष्ठित श्री महावीर स्वामी जिनालय । इसका जीर्णोद्धार इनकी ही क्रमिक पाट परम्परा पर आए समुद्र सूरि जी म. ने कराया । कालधर्म : सद्धर्म संरक्षक बुद्धि विजय (बूटेराय) जी के प्रमुख 7 शिष्य गणि मुक्ति विजय (मूलचंद ) जी, वृद्धिविजय जी, नित्य (नीति) विजय जी, आनंद विजय जी, मोती विजय जी, ' खांति विजय जी एवं आचार्य विजयानंद सूरि ( आत्माराम ) जी महाराज सप्तर्षि के नाम से प्रसिद्ध थे। - महावीर पाट परम्परा - त्याग-तपस्या एवं ध्यान के द्वारा बुद्धिविजय जी ने अहमदाबाद में सेठ दलपत भाई, भग्गूभाई के वंडे में एक अलग कमरें में ही जीवन की अंतिम घड़ियों तक निवास किया । वि.सं. 1932 से वि. सं. 1937 तक 6 चातुर्मास उन्होंने अहमदाबाद में किए । चैत्र वदि अमावस्या वि.सं. 1938 के दिन 13 दिन की बीमारी के बाद रात्रि के समय समाधिपूर्वक वहीं कालधर्म हो गया। साबरमती नंदी के किनारे चंदन की चिता में उनके नश्वर देह का अग्नि संस्कार किया गया। 266 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73. आचार्य श्रीमद् विजय आनंद सूरीश्वर जी (श्री आत्माराम जी) सम्यक् धर्म के युगप्रचारक, शुद्ध संयम अंगीकार। विजयानंद सूरि आत्मारामे, नित् वंदन बारम्बार॥ शासनपति भगवान् महावीर स्वामी की परमोज्ज्वल पाट परम्परा पर 73वें पट्टधर के रूप में आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरि जी (आत्माराम) जी एक समर्थ आचार्य हुए। स्वयं के सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की शुद्धि के सुदृढ़ पक्षधर होकर उन्होंने श्रुत परम्परा एवं शिष्य परम्परा का अनुदान देकर शासन की महती प्रभावना की। जन्म एवं दीक्षा : पंजाब प्रदेश के फिरोजपुर जिले के जीरा तहसील में छोटे से गाँव - लहरा में कपूर क्षत्रियवंशी गणेशचन्द्र की धर्मपत्नी रूपादेवी की कुक्षि से वि.सं. 1894 में क्षेत्रीय नववर्ष चैत्र सुदि एकम के दिन एक दिव्य नक्षत्र का जन्म हुआ। वह बालक मानो नवयुग का निर्माण करने अवरित हुआ हो। उसका नाम आत्माराम रखा गया। वह 'दित्ता' के नाम से भी प्रख्यात हुआ। पिता गणेशचन्द्र को एक विजयी योद्धा के रूप में प्रसिद्धि हासिल थी किंतु भारत की डूबती राजसत्ता एवं ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तार के कारण अब उनका जीवन अस्थिर बन गया था। उन्हें न जीवन की आशा थी, न ही मृत्यु का खौफ! रूपादेवी भी अपने पति के साथ थी। उन्हें केवल अपने पुत्र की चिंता थी। वि.सं. 1906 में अपने 12 वर्षीय पुत्र को उन्होंने जीरा में रहने वाले मित्र जोधामल को सौंप दिया। जोधामल जी जैनधर्मी थे। उन्होंने धर्मपिता की भाँति दित्ता/आत्माराम को सुसंस्कारों से पोषित किया। फलस्वरूप बालक भी जैन सिद्धांतों को आत्मसात् करने लगा एवं वैराग्य भावना से ओत-प्रोत हो गया। उन दिनों मालेरकोटला में स्थानकवासी जैन संत जीवनराम जी का पदार्पण हुआ था। महावीर पाट परम्परा 267 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवावस्था को प्राप्त बालक आत्माराम ने जैन मुनि दीक्षा अंगीकार करने का दृढ़ विचार किया। मार्गशीर्ष शुक्ला 5, वि.सं. 1910 के दिन मालेरकोटला में उन्होंने दीक्षा अंगीकार की एवं जैन मुनि आत्माराम बने। मुनि आत्माराम जी स्वभाव से स्वाध्याय प्रेम, सत्यनिष्ठ एवं कठोर चारित्र पालक थे। उनकी सत्य शोध की ज्ञान पिपासा विशाल थी । व्याकरण एवं आगम ज्ञान पढ़ते-पढ़ते उनका सत्य से साक्षात्कार बढ़ता चला गया। स्थानकवासी मत द्वारा जिनप्रतिमा (मूर्ति) का निषेध, आगमों के व्याख्या साहित्य का अस्वीकार, आगमविरुद्ध वेशभूषा आदि को दबाने का निरर्थक प्रयत्न हुआ, किंतु मुनि आत्माराम निर्भीक थे। आगरा में स्थानकवासी वृद्ध मुनि रत्नचंद्र जी ने सद्गुरु के रूप में आगमों के पाठों का रहस्य अनावरित किया एवं मूर्तिपूजा का माहात्म्य बताकर आत्माराम जी को भविष्य में सत्यमार्ग प्ररूपणा के लिए अपार आशीर्वाद दिया। गुरु आत्म ने स्थानकवासी अवस्था में ही रहकर जहाँ से भी ज्ञान मिला, वह ग्रहण किया एवं सम्यक् धर्म का प्रचार चालू किया। उनकी दृढ़ सत्यनिष्ठा, प्रतिबोधकुशलता एवं शासनरसिकता के प्रभाव से अनेक सहवर्ती मुनि भी उनके साथ जुड़ गए। वि.सं. 1931 में सुनाम से हाँसी जाते हुए उन्होंने एवं 16 अन्य साधुओं ने मुँह पर मुख्वस्त्रिका बाँधने की आगमविरुद्ध प्रथा छोड़ दी। तत्पश्चात् वरकाणा, राणकपुर, सिरोही, आबू, अचलगढ़, पालनपुर, भोयणी में स्थान-स्थान पर महाप्रभावक प्राचीन जिनप्रतिमाओं के दर्शन कर स्वयं के नयनों को पवित्र किया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए सभी साधु शाश्वत तीर्थ पालीताणा पधारे। सभी साधुओं ने कृतकृत्य होकर आनंद विभोर होकर श्री आदीश्वर दादा के दर्शन किए। मुनि आत्माराम जी की आँखें तो नम हो गई। उन्हें आत्म - ग्लानि होने लगी कि परमात्मा रूपी प्रतिमा का क्षण मात्र भी विरोध करना अज्ञानदशा का सूचक है एवं इतने वर्षों तक उन्हें इस सम्यक् धर्म से दूर रहना पड़ा। उन्होंने स्तवन की रचना की " अब तो पार भये हम साधो, श्री सिद्धाचल दर्श करीरे ।” अहमदाबाद में सद्धर्म संरक्षक श्री बुद्धि विजय जी म. के आगमानुकूल जीवन को देखकर एवं उनके जीवन की सत्यनिष्ठा के संघर्षों में स्वयं के प्रतिबिम्ब को देखकर मुनि आत्माराम जी एवं अन्य सभी मुनियों ने उनके चरणों में नतमस्तक होकर वि.सं. 1932 (ईस्वी सन् 1876) के आषाढ़ वदी 10 के दिन अहमदाबाद की सुविशाल जनमेदिनी के बीच श्वेताम्बर मूर्तिपूजक महावीर पाट परम्परा 268 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छ परम्परा में संवेगी दीक्षा ग्रहण की। वासक्षेप देते हुए वृद्ध गुरु श्री बुद्धिविजय जी म. ने आत्माराम जी का नामकरण - मुनि श्री आनंद विजय जी के रूप में किया। अन्य साधुओं के भी नाम परिवर्तित हुए। बिशनचंद जी लक्ष्मीविजय जी बने, निहालचंद जी हर्षविजय जी बने, रामलाल जी कमलविजय जी बने, इत्यादि। शासन प्रभावना : ___ मुनि श्री बुद्धिविजय जी (बूटेराय जी) एवं मुनि श्री आनंद विजय जी (आत्माराम जी) की अंत:करण की भावना थी कि पंजाब क्षेत्र में धर्म का पुनरूद्धार कर शुद्ध प्राचीन मूर्तिपूजक जैन परम्परा को पुनर्जीवित किया जाए। अहमदाबाद, भावनगर, जोधपुर चातुर्मास करने के बाद गुरु आज्ञा से आनंद विजय जी ने पंजाब की ओर प्रयाण किया। ___ उस समय उनका घोर विरोध किया गया, अन्य सम्प्रदाय के दृष्टिरागियों द्वारा उन्हें गोचरी - पानी - स्थानक आदि कुछ भी उपलब्ध नहीं कराया जाता था, किंतु मुनिश्री भी साहसी थे। वे कभी झुके नहीं। उन्होंने जिनमंदिरों के पुनरूद्धार चालू किए एवं परमात्मा को पूजने वाले सच्चे जैन श्रावक तैयार करने लगे। संपूर्ण भारत भर में उनकी धर्मक्रांति की विजय दुंदुभि बज उठी। मेड़ता में एक यति से उन्हें रोगोपहारिणी, अपराजिता आदि विद्यायें भी प्राप्त हुई। वि.सं. 1943 में उन्होंने शत्रुजय गिरिराज में चातुर्मास किया। भारत भर के संघों ने एक स्वर से उन्हें आचार्य पद ग्रहण करने की प्रार्थना की। जैन संघ में 235 वर्षों से तपागच्छ श्रमण परम्परा में आचार्य पद खाली रहा। समय की माँग एवं अति आग्रह के कारण मुनिश्री ने यह दायित्व स्वीकारा। मार्गशीर्ष वदि 5 के शुभ मुहूर्त में 40,000 लोगों की सुविशाल जनमेदिनी के मध्य आनंद विजय जी को हर्ष और उल्लास के साथ आचार्यपद प्रदान किया। अब वे आचार्य विजय आनंद सूरीश्वर जी (विजयानंद सूरि जी) के नाम से प्रख्यात हुए। यह संपूर्ण श्रमण परम्परा के लिए अत्यंत गौरव की बात बनी। वि.सं. 1944 (ईस्वी सन् 1887) में उन्होंने तेजस्वी युवक छगन को राधनपुर में दीक्षा प्रदान की जो मुनि वल्लभ विजय जी बने। गुरु आत्म का शिष्य-प्रशिष्य परिवार शनैःशनैः वृद्धि को ही प्राप्त होता रहा। अपने 42 चौमासों में उन्होंने पंजाब में 23, मारवाड़ में 6, उ. प्र. में 4, गुजरात में 5, सौराष्ट्र में 2 एवं दिल्ली मालवा में 1-1 चौमासे किये। पंजाब उनकी कृपा का विशेष केन्द्र था। पंजाबी गुरु भक्त उनसे पूछते थे कि गुरुदेव! आप हमें किसके महावीर पाट परम्परा 269 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहारे छोड़कर जाओगे? तब गुरु आत्म मुनि वल्लभ विजय जी की ओर इशारा करते थे। आचार्य विजयानंद सूरि जी समर्थ धर्मनायक, उत्कृष्ट विद्वान एवं प्रखर वक्ता की भाँति उत्तम चारित्र पालक थे। एक दिन में 300-350 गाथा तक वे कण्ठस्थ कर लेते थे। सभी 45 आगम उन्हें कण्ठस्थ थे। आगमों में जैसा वर्णित है, वैसे ही रात को सोते समय भी प्रमार्जना करके ही करवट बदलते थे, ऐसी चारित्र की सूक्ष्मता उनके रोम-रोम में थी । पालीताणा तीर्थ पर साधुत्व सुरक्षा एवं यति साम्यता के कारण पंन्यास सत्य विजय जी की भाँति उन्होंने पीली चादर धारण की। " सन् 1893 (वि.सं. 1949 ) में अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म परिषद् (Parliament of World Religions) के आयोजन का निश्चित हुआ। तब जैनधर्म का प्रतिनिधित्व करने का सम्मानजनक आमंत्रण आचार्य विजयानंद सूरि जी को मिला परंतु जैन साधु की आचार मर्यादा के कारण वहाँ जाना संभव न था। मुनि वल्लभविजय जी के सुझाव अनुसार उन्होंने अपनी ओर से स्वलिखित निबंध के साथ श्री वीरचंद राघवजी गांधी नामक सुश्रावक को तैयार कर उस परिषद् में जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भेजा। यह जिनशासन की विदेशों में महती प्रभावना का निमित्त बना। प. पू. विजय आनंद सूरि जी (आत्माराम ) जी का संपूर्ण जीवन सत्य की प्राप्ति उसकी सुरक्षा एवं उसके प्रचार में लगा । जंगमयुगप्रधान के रूप में उन्होंने जिनधर्म - जिनशासन के लिए अपना प्रत्येक श्वास समर्पित कर दिया। साहित्य रचना : आचार्य विजयानंद सूरि जी का साहित्य विश्वव्यापी बनाया जिसके माध्यम से उन्होंने जैन सिद्धांतों का सर्वत्र प्रचार-प्रसार किया। प्रमुख कृतियां 1) नवतत्त्व ( बिनौली में लेखन आरंभ और बड़ौत में पूर्ण, वि.सं. 1924) 2) जैन तत्त्वादर्श (गुजरावालां में सं. 1937 में प्रारंभ, होशियारपुर सं. 1938 में पूर्ण ) 3) अज्ञानतिमिर भास्कर ( अंबाला में सं. 1939 में प्रारंभ, खंभात में 1942 में पूर्ण ) 4) सम्यक्त्व शल्योद्धार ( अहमदाबाद, वि.सं. 1941 ) महावीर पाट परम्परा 270 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5) जैन मत वृक्ष (सूरत, वि.सं. 1942) 6) चतुर्थ स्तुति निर्णय प्रथम भाग (राधनपुर, वि.सं. 1944) 7) चतुर्थ स्तुति निर्णय द्वितीय भाग (पट्टी, वि.सं. 1948) 8) जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर (पालनपुर, वि.सं. 1945) १) चिकागो प्रश्नोत्तर (अमृतसर, वि.सं. 1949) 10) तत्त्वनिर्णयप्रासाद (जीरा में सं. 1951 में प्रारंभ, गुजरावाला में सं. 1953 में पूर्ण) 11) ईसाईमत समीक्षा 12) जैनधर्म का स्वरूप 13) आत्मबावनी (बिनौली, सं. 1927) 14) स्तवनावली (अंबाला, सं. 1930) 15) सतरह भेदी पूजा (अंबाला, सं. 1939) 16) बीसस्थानक पूजा (बीकानेर, सं. 1940) 17) अष्टप्रकारी पूजा (पालीताणा, सं. 1943) 18) नवपद पूजा (पट्टी, सं. 1948) 19) स्नात्र पूजा (जंडियाला गुरु, सं. 1950) प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं : आचार्य विजयानंद सूरि जी म. ने पंजाब में कई जिनमंदिरों की प्रतिष्ठा कराई1) वैशाख सुदी 6, वि.सं. 1948 के दिन अमृतसर में 2) मार्गशीर्ष सुदी 11, वि.सं. 1948 के दिन जीरा में 3) माघ सुदि 5, वि.सं. 1948 के दिन होशियारपुर में महावीर पाट परम्परा 271 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4) माघ सुदि 13, वि.सं. 1951 के दिन पट्टी में 5) मार्गशीर्ष सुदी पूर्णिमा, वि.सं. 1952 के दिन अंबाला शहर में 6) वैशाख सुदी पूर्णिमा, वि.सं. 1953 के दिन सनखतरा में कालधर्म : वि.सं. 1953 (सन् 1897) के चातुर्मास के लिए प.पू. विजयानंद सूरि जी गुजरावाला पध रे। वहाँ जैन गुरुकुल स्थापना की योजना थी किंतु आकस्मिक रूप से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। ज्येष्ठ सुदी 7 की रात्रि उनके श्वास का वेग बिगड़ गया। समूचे शिष्य परिवार से उन्होंने अंतिम मिच्छामि दुक्कडं किया, मुनि वल्लभ विजय जी को विद्या मंदिरों को स्थापित करने की बात स्मरण कराई एवं "लो भई! अब हम चलते हैं और सबको खमाते हैं" कहते-कहते 59 वर्ष 59 दिन की आयु में कालधर्म हो गया। संपूर्ण संघ में शून्यता व्याप्त हो गई। उनके कालधर्म के 5 वर्षों बाद पाटण में मुनि कमलविजय जी एवं 28 वर्षों बाद लाहौर में मुनि वल्लभ विजय जी को आचार्य पद प्रदान किया गया एवं गुरु आत्म के सुयोग्य पट्टधर के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। पंजाब देशोद्धारक के गुरु आत्म के आदेशों-उपदेशों को विजय वल्लभ सूरि जी महाराज ने पूर्णरूप से आत्मसात् किया। महावीर पाट परम्परा 272 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74. आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी आजीवन अरिहंतशरण समर्पित, शान्ति एकता प्रचार । जनवल्लभ विजय वल्लभ सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार ॥ सम्यक् दर्शन - ज्ञान और चारित्र को अखंड रखकर धर्मक्रांति के अग्रदूत बनकर सामाजिक नवचेतना लाने वाले प्रभु भक्ति, गुरुभक्ति एवं शासनभक्ति को समर्पित आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी भगवान् महावीर की अक्षुण्ण देदीप्यमान पाट परम्परा के 74वें पट्टविभूषक बने । अपने नाम अनुरूप वे लोकवल्लभ ( जनप्रिय) बने । जन्म एवं दीक्षा : उनका जन्म कार्तिक शुक्ला 2 (भाईदूज ) के दिन वि.सं. 1927 में गुजरात राज्य की बड़ौदा (बड़ोदरा) नगरी में हुआ। पिता का नाम दीपचंद भाई एवं माता का नाम इच्छाबाई था। इनका स्वयं का नाम छगनलाल था एवं वे कुल 4 भाई - 3 बहनें थे। किंतु माता - पिता की छत्रछाया उन्हें अधिक नसीब नहीं थी । पहले तो श्री दीपचंद भाई का देहावसान हुआ एवं बाद में इच्छा माँ भी मृत्यु शय्या पर लेट गयी। बालक छगन ने भद्रिकता से माँ से पूछा - "माँ तू मुझे किसके सहारे छोड़कर जा रही है?” तब माँ ने अपने लाडले छगन को स्नेहयुक्त स्वर में आश्वासन देते हुए कहा 44 'अरिहंत की शरण स्वीकार करना ! अनंत सुख के धाम में पहुँचाए, ऐसे शाश्वत धर्मधन को प्राप्त करना !" माता के वे अंतिम शब्द 10-12 वर्षीय छगन के हृदय पर अंकित हो गए। - एक बार आचार्य विजयानंद सूरि जी म. बड़ौदा पधारे। जानीसेरी उपाश्रय में उनका प्रवचन हुआ। छगन भी उपाश्रय में धर्मदेशना सुनने जाने लगा । विजयानंद सूरि जी तो व्याख्यान वाचस्पति थे। उनके धर्मोपदेश सभी को हृदयंगम हो जाते थे। एक दिन धर्मदेशना के बाद सभी चले गए किंतु छगन वहीं बैठा रहा । गुरुदेव ने पूछा - " तू अभी भी क्यों बैठा है ? तुझे क्या चाहिए ?" छगन की आँखें नम हो गई। गुरु आत्म ने पूछा कि क्या तुझे धन की आवश्यकता है? छगन ने कहा “हाँ!” गुरुवर ने कहा " हम तो साधु हैं, हम धन नहीं रखते। तू कल आना ! किसी महावीर पाट परम्परा 273 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ से कहकर दिलवा दूंगा। किंतु छगन बोला - मुझे पैसा नहीं चाहिए! आपके पास जो अखूट संयमधन है, शाश्वत धर्मधन है, मुझे वह चाहिए!" आत्माराम जी म. ने भाँप लिया कि इस बालक में भक्ति, शक्ति और बुद्धि का त्रिवेणी संगम है एवं यह जिनशासन का उज्ज्वल सितारा बनेगा। परिवार की सहमति बिना दीक्षा मुश्किल थी। ज्येष्ठ भ्राता खीमचंद, छगन के दीक्षा के निर्णय के विरोध में डटकर खड़े रहे किंतु कई महीनों के छगन के पुरुषार्थ के बाद भाई को भी झुकना पड़ा। वैशाख शुक्ल 13 वि.सं. 1944, गुरुवार अर्थात् 5 मई 1887 को राधनपुर में आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरि जी के वरदहस्तों से छगन की दीक्षा सम्पन्न हुई। उनका नाम मुनि वल्लभ विजय रखा गया एवं वे गुरु आत्म के शिष्य लक्ष्मीविजय जी के शिष्य मुनि हर्षविजय जी के शिष्य घोषित किए गए। मुनि वल्लभ विजय जी की बड़ी दीक्षा वि.सं. 1946 में पाली में सम्पन्न हुई एवं उसी वर्ष गुरु हर्षविजय जी का स्वर्गवास हो गया। शासन प्रभावना : मुनिवर्य हर्षविजय जी के अल्पकालीन सहवास में भी मुनि वल्लभ विजय जी की प्रतिभा का आशातीत विकास हुआ। तदुपरान्त आचार्य विजयानंद सूरि जी ही उनके शिक्षागुरु बने। दादागुरु के सानिध्य में उन्होंने कर्म, न्याय, व्याकरण, दर्शन, तर्क, इतिहास विषयक अनेकानेक ग्रंथों-शास्त्रों का अध्ययन किया। गुरु आत्म के दाएँ हाथ के रूप में मुनि वल्लभ विजय जी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही। गुरु आत्म की भावना थी कि मुनि वल्लभ विजय जी ही उनके बाद पंजाब में जैन धर्म की प्रभावना करने में सर्वाधिक समर्थ हैं। ऐसे महान् ज्योर्तिधर के सानिध्य में स्वाध्याय और सेवा का योग केवल 8-9 वर्ष का ही बना। वि.सं. 1953 में गुजरावाला (वर्तमान पाकिस्तान) में गुरु आत्म का कालधर्म हो गया। _ वि.सं. 1953 में पंजाब संघ के आगेवानों ने महाराजश्री को आचार्य पद से विभूषित करने की बात की, किंतु वल्लभ विजय पदवी के लिए अनासक्त रहे। वि.सं. 1957 में पाटण में वयोवृद्ध मुनि कमल विजय जी को आचार्य पद से अलंकृत किया गया। उनकी इच्छा वल्लभ विजय जी को उपाध्याय बनाने की थी किंतु उन्होंने विवेकपूर्वक इनकार कर दिया। लंबे प्रयासों के बाद अंततः वयोवृद्ध मुनि सुमतिविजय जी आदि की निश्रा में समस्त संघों के निवेदन के महावीर पाट परम्परा 274 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद मार्गशीर्ष सुदी 5, सोमवार, वि.सं. 1981 में लाहौर में प्रतिष्ठा के अवसर पर चतुर्विध संघ की साक्षी से आचार्य पद प्रदान किया गया एवं गुरु आत्म के पट्टधर के रूप में अलंकृत किया गया। आचार्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. ने विविध योगों द्वारा जिनशासन की महती प्रभावना की। उनमें तपयोग की विशिष्ट तेजस्विता थी। वे प्रायः एकासना ही करते थे एवं उसमें भी 8 द्रव्य ही वापरते थे। बारह तिथियों को वे मौन व्रत स्वीकार करते थे। शासन के कार्यों के लिए समय-समय पर उन्होंने दूध व दूध की वस्तुओं का त्याग आदि अनेक अभिग्रह किए। गुरु आत्म की इच्छा अनुरूप उन्होंने स्थान-स्थान पर शिक्षा व ज्ञान के केन्द्र स्थापित कराए। जैसे___ - श्री महावीर जैन विद्यालय (मुंबई, बड़ौदा, अहमदाबाद, पूना) - - श्री आत्मानंद जैन पाठशाला (अंबाला शहर, वेरावल, खुडाला) -- श्री आत्मानंद जैन हाईस्कूल (लुधियाना, मालेरकोटला, अंबाला, बगवाड़ा) - श्री आत्मानंद जैन लायब्रेरी (अमृतसर, पूना, जूनागढ़, वेरावल, अंबाला) - श्री हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञान मंदिर (पाटन, गुजरात) - श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर (वरकाणा, राजस्थान) - श्री आत्मानंद जैन कॉलेज (अंबाला, मालेरकोटला) - श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल (गुजरावाला, पाकिस्तान) इत्यादि अनेकानेक गुरुकुल, पाठशाला, स्कूल, कॉलेज, वाचनालय, औषधालय, गुरुदेव की पावन प्रेरणा से स्थापित किए गए। अनेकों व्यक्तियों ने उनके इस सुकृतों का घोर विरोध किया, किंतु गुरु वल्लभ न ही कभी विचलित हुए एवं न ही कभी अपने निर्मल संयम धर्म पर कोई आंच आने दी। युगवीर, समयज्ञ आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी ने शासन की प्रभावना के उद्देश्य से अनेक क्रांतियों का सूत्रपात किया। उन्होंने साध्वी समुदाय को सामूहिक रूप में प्रवचन एवं कल्पसूत्र महावीर पाट परम्परा 275 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वांचन की आज्ञा प्रदान की। इसी कारण साध्वी मृगावती श्री जी जैसी समर्थ साध्वी जी जन-जन में धर्मप्रचार की अग्रणी बनी। पंजाब प्रदेश में सौर (सूर्य की गणना अनुसार) मास परिवर्तन के कारण अनेक जैन हिन्दू मंदिरों-पंडितों के पास जाते थे। जैनों पर करुणा वर्षा कर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का विचार कर वि.सं. 1997 से गुजरावाला (पाकिस्तान) से प्रतिमास सूर्य संक्रांति के दिन संघ समक्ष महामांगलिक महोत्सव की शुरुआत की। भारत की स्वतंत्रता के समय उन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों तथा निर्दोष-शुद्ध स्वदेशी खादी वस्त्रों का भरपूर समर्थन किया था। भारत-पाक विभाजन के समय विजय वल्लभ सूरि जी का चातुर्मास गुजरावालां (पाकिस्तान) में था। भारत से नेमि सूरि जी आदि आचार्यों ने उन्हें सरकार द्वारा भिजवाए जा रहे अपवाद स्वरूप हवाई जहाज में बैठकर पुनः भारत लौटने का आग्रह किया किंतु गुरु वल्लभ ने यही कहा कि “जब तक एक भी जैन बच्चा यहाँ फंसा है, मैं अकेले भारत में नहीं आऊंगा।" यह गुरुदेव के पुण्य का ही प्रताप था कि सिख फौजियों की सहायता से गुरु वल्लभ न केवल सुरक्षित भारत आए बल्कि अनेक ट्रकों में सभी जैन भाई बहन, गुजरावाला का श्रुत साहित्य आदि भी साथ लेकर आए। यही नहीं, ऐसी त्रासदी से आर्थिक-सामाजिक-मानसिक रूप से पीड़ित मध्यम वर्ग के उत्थान के लिए समाज के धनकुबेरों को साधार्मिक वात्सल्य के सही अर्थ का उद्बोधन भी दिया। गुरु वल्लभ की उपदेश शैली भी गजब थी। अपने साधु-साध्वी जी परिवार को घंटों तक आगम-शास्त्रों की तलस्पर्शी रहस्योद्घाटक गूढ वाचनाएं देते थे। एवं हिन्दुओं, मुस्लिमों, सिखों को भी सरल भाषा में जैनधर्म का मर्म समझाकर उन्हें परमात्मा से जोड़ने में सफल रहे। जहाँ सद्धर्म संरक्षण की बात थी, वहाँ उन्होंने अन्यों से शास्त्रार्थ भी किए एवं जहाँ आवश्यकता पड़ी, वहाँ अपनी गीतार्थ दृष्टि से सर्वधर्मसमभाव रखकर मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर कार्य किए। कापरडाजी, पालीताणा, दिल्ली, अंबाला, हस्तिनापुर, बड़ौदा, रायकोट, मुंबई आदि अनेक स्थानों पर गुरुदेव के सदुपदेश से उपाश्रय - धर्मशालाएं निर्मित हुई। उनकी निश्रा में वि.सं. 1964 में दिल्ली से हस्तिनापुर, वि.सं. 1966 में राधनपर से पालीताणा वि.सं. 1976 में शिवगंज से केसरियाजी, वि. सं. 1980, 1997 में होशियारपुर से कांगड़ाजी आदि अनेक छ:री पालित संघ आयोजित हुए। महावीर पाट परम्परा 276 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य रचना : आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी भक्तियोग में डूबे आशु कवि थे। वे जिस भी मंदिर में जाते, नए-नए स्तवनों की रचना कर देते। होई आनंद बहार रे, नज़र टुक मेहर की करके, पों में पर्व पजुसन है, इत्यादि शताधिक स्तवन-सज्झाय-स्तुति उनकी रचनाएं हैं जो 'वल्लभ काव्य सुधा' में संकलित हैं। जैन भानु, दूंढकमतसमीक्षा, गप्पदीपिकासमीर, नवयुग निर्माता (गुरु आत्म का जीवन चरित्र) उनकी अनुपम कृतियां है। अनेकों पूजाओं की भी उन्होनें रचना की। 1) पंच परमेष्ठी पूजा 2) पंचतीर्थी पूजा 3) अष्टापद तीर्थ पूजा 4) आदिनाथ पंचकल्याणक पूजा 5) निन्यानवे प्रकारी पूजा 6) नंदीश्वर द्वीप पूजा 7) शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा 8) इक्कीस प्रकारी पूजा 9) ऋषिमण्डल पूजा 10) पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा 11) एकादश गणधर पूजा 12) द्वादश व्रत पूजा 13) महावीर पंचकल्याणक पूजा 14) विजयानंद सूरि पूजाष्टक 15) पंचज्ञान पूजा आदि प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं : गुरु वल्लभ ने अनेकों स्थानों पर जिनमंदिरों की प्रतिष्ठा की- जंडियाला गुरु (पंजाब) - वि.सं. 1957 - सूरत (गुजरात) - वि.सं. 1974 - समाना (पंजाब) - वि.सं. 1979 - लाहौर (पाकिस्तान) - वि.सं. 1981 बिनौली (उत्तर प्रदेश) - वि.सं. 1983 - अलवर (राजस्थान) - वि.सं. 1983 - चारूप, करचलिया (गुजरात) - वि.सं. 1985- अकोला (महाराष्ट्र) - वि.सं. 1988 महावीर पाट परम्परा 277 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जौहरी बाजार (मुंबई) - वि.सं. 1992 - खंभात (गुजरात) - वि.सं. 1994 - सढौरा (पंजाब) - वि.सं. 1995 - बड़ौत (उत्तर प्रदेश) - वि.सं. 1995 - रायकोट (पंजाब) - वि.सं. 2000 - सादड़ी (राजस्थान) - वि.सं. 2005 - बीजापुर (राजस्थान) - वि.सं. 2006 - महावीर जैन विद्यालय (मुंबई) आदि पालीताणा तीर्थ पर शांतिमूर्ति हँसविजय जी द्वारा प्रतिष्ठित गुरु आत्म (विजयानंद सूरि जी) की पंचधातु की प्रतिमा की पुनर्प्रतिष्ठा भी वि.सं. 2007 में गुरुवल्लभ के करकमलों से हुई। कालधर्म : सन् 1953 में गुरु वल्लभ ने अपने प्रशिष्य समुद्र विजय जी को मुंबई में आचार्य पद प्रदान कर अपना पट्टधर घोषित किया। गुरु आत्म की आज्ञा स्वरूप पीली चादर को उन्होंने चालू रखा। उनका स्वास्थ्य शनैःशनैः मंद होने लगा। उनको भावना थी कि स्वास्थ्य अच्छा होते ही वे पुनः पंजाब पधारें, लेकिन कर्मगति का यह स्वीकार न था। आसोज वदि 10, वि.सं. 2011 मंगलवार (23 सितंबर सन् 1954) रात्रि 2:32 मिनट पर पुष्य नक्षत्र में अर्हत् नामोच्चारण करते, सबको मौन आशीष देते हुए 84 वर्ष की आयुष्य में भायखला (मुंबई) में कालधर्म को प्राप्त हुए। उनकी अंतिम यात्रा में सभी धर्मो के लाखों लोग सम्मिलित जो उनके लोकगुरु होने का गौरव दर्शाती रही। महावीर पाट परम्परा 278 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75. आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी वाक् शक्ति का सुनियोजन, मृदुभाषी सद्व्यवहार। गुरु समुद्र जिनशासनरत्न, नित् वन्दन बारम्बार॥ __ मौन साधना के अविरल साधक, जप-तप और संयम में अनुरक्त आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी चरमतीर्थपति भगवान् महावीर स्वामी जी की पावन परम्परा के 75वें पट्टाचार्य हुए। उनका व्यक्तित्त्व न केवल समुद्र सम गंभीर था, बल्कि अनन्त गुणरत्नों को आत्मसात् किए हुए था। जन्म एवं दीक्षा : राजस्थान के पाली शहर में श्री शोभाचंद जी बागरेचा के घर धर्मपरायणा पत्नी धारिणी की कुक्षि से मार्गशीर्ष शुक्ला 11 (मौन एकादशी) वि.सं. 1948 के दिन एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ। उसका नाम सुखराज रखा गया। सुखराज के बड़े भाई का नाम पुखराज और बड़ी बहन का नाम छोगादेवी था। - सुखराज के बालवय में ही उसकी माँ रूग्णावस्था के कारण चल बसी। उनका लालन पालन उनकी बहन-बहनोई के घर बड़ौदा में हुआ किंतु कुछ वर्ष बाद ही उनकी बहन भी काल के गर्भ में समा गई। पिता शोभाचंद जी भी देवलोकवासी हो गए। अपनी आँखों के सामने माता-पिता और बहन की करुण मृत्यु देखकर सुखराज का हृदय संसार की असारता के चिंतन में निमग्न रहता। वि.सं. 1966 में पालीताणा तीर्थ पर पंन्यास कमल विजय जी एवं मुनि मोहन विजय जी के उपदेश से सुखराज के मन में वैराग्य का बीज प्रस्फुटित हुआ। उसी वर्ष आ. वल्लभ सूरि जी म. का चातुर्मास बड़ौदा में हुआ। आचार्यश्री एवं मुनि सोहन विजय जी के आचार-विचार-व्यवहार से संयम का रंग सुखराज के मन पर चढ़ गया। फलस्वरूप फाल्गुन वदि 6, वि.सं. 1967 रविवार को सूरत के गोपीपुरा में 19 वर्षीय सुखराज की दीक्षा आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी की निश्रा में हुई। वे उपाध्याय सोहन विजय जी के शिष्य कहलाए एवं उनका नाम 'मुनि समुद्र विजय' महावीर पाट परम्परा 279 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखा गया। उनकी बड़ी दीक्षा फाल्गुन सुदी 5 को भरूच में पंन्यास सिद्धि विजय जी की निश्रा में हुई। शासन प्रभावना : ____ मुनि समुद्र विजय के दीक्षोपरान्त उनका चरम एवं परम लक्ष्य-स्वाध्याय एवं गुरुसेवा रहा। उनके सांसारिक भाई-पुखराज ने भी दीक्षा ग्रहण की एवं उनका नाम सागर विजय जी रखा गया। समुद्र विजय जी की प्रतिभा अद्वितीय थी। उन्होंने शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। उनकी सरलता उनकी अमोघ शक्ति थी। उनको शासन प्रभावना की कुशलता का नए दायित्वों को आयाम देते हुए वि.सं. 1993 में गणि व पंन्यास पदवी तथा वि.सं. 2008 में उपाध्याय पदवी से अलंकृत किया गया। इसी श्रृंखला में मुंबई के थाना नगर में माघ शुक्ला 5 (वसंत पंचमी) वि.सं. 2009 के दिवस आत्मवल्लभ नगर के निर्माण मालारोपण प्रसंगे आ. विजय वल्लभ सूरि . जी म.सा. की पावन निश्रा में समुद्र विजय को आचार्य पद से विभूषित किया गया। इस मंगल अवसर पर गुरु वल्लभ ने उन्हें अपना पट्टधर घोषित किया। अगले ही वर्ष वल्लभ सूरि जी का काल हो गया एवं समूचे संघ का दायित्व नृतन आचार्य श्री पर आ गया। आचार्य विजय समुद्र सूरीश्वर जी म. ने जिनशासन की महती प्रभावना की एवं तीर्थंकर परमात्मा एवं गुरु भगवंत की आज्ञा अनुरूप धर्मप्रचार कर अनेक कार्यों को किया। उन्होंने जैसलमेर के नवाब को प्रतिबोधित किया। उनकी उपदेश लब्धि गजब थी। जैसलमेर नरेश को उपदेश देकर उन्होंने एकादशी और अमावस्या के दिन शिकार न करना तथा माँस-मदिरा न खाने की प्रतिज्ञा दिलवाई। पालनपुर का नवाब भी आचार्यश्री का परम भक्त था। वि.सं. 2016 में वे आगरा (उ.प्र.) पधारे एवं लोहामण्डी जेल में कैदियों को उपदेश देने पधारे। उनके मार्मिक और हृदयस्पर्शी प्रवचन के प्रभाव से कैदियों की आँखें आँसुओं से भर गई एवं उन्होंने शेष जीवन निर्दोष जीने का संकल्प लिया। __सन् 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था, तब 23 नवंबर 1962 के दिन लुधियाना में राष्ट्र धर्म का अनन्य उदाहरण प्रस्तुत करते हुए राष्ट्र रक्षा हेतु जीवन समर्पण का प्रेरणात्मक उद्बोधन दिया था। इससे देशप्रेम में उन्मत्त लोगों ने राष्ट्रकोष में काफी सोना दान दिया। महावीर पाट परम्परा 280 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हीं दिनों आचार्यश्री को ज्ञात हुआ कि पंजाब की कैरोसिंह सरकार ने स्कूल के विद्यार्थियों को नाश्ते में 2-2 अंडे देने के आदेश दिए हैं। अहिंसा धर्म का मूल है। समुद्र सूरि जी ने स्थान-स्थान पर इस आदेश के विरोध में सभाएं की एवं विस्तृत जनमत तैयार किया, सरकार को विरोध पत्र लिखे। फलस्वरूप पंजाब सरकार को अपना अधर्मपूर्ण आदेश वापिस लेना पड़ा। आचार्य समुद्र सूरि जी के सद्प्रयासों से जीरा (पंजाब) में पर्युषणों में सभी बूचड़खाने बंद रहे। ___13 फरवरी 1970 को पालीताणा में आ. समुद्र सूरि जी ने गिरिराज की मूल ढूंक में श्री विजयानंद सूरि जी (आत्माराम जी) की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी। उन्हीं की प्रेरणा से मुंबई में पायधुनी चौक का नाम 'विजय वल्लभ चौक' रखा गया। साधु-साध्वी जी के उत्थान को भी वे पूर्ण समर्पित रहे। उनकी निश्रा में बड़ौदा के जानीशेरी उपाश्रय में साध्वी सम्मेलन हुआ, जिसमें साध्वी भगवंतों की अध्ययन-अध्यापन व्यवस्था का विशेष अनुशीलन हुआ। गुरु वल्लभ के स्वप्न अनुरूप साधर्मिक भाईयों के उत्थान हेतु नालासोपारा (मुंबई) में साधर्मिक बंधुओं के निःशुल्क आवास हेतु ‘आत्म-वल्लभ नगर' का निर्माण भी उनकी प्रेरणा से हुआ। आचार्य श्री समुद्र सूरि जी ने मानव कल्याण हेतु विभिन्न संस्थाओं के गठन की प्रेरणा दी, जिसके सुप्रभाव से अनेकों जीव लाभान्वित हुए - जगरावां में श्री आत्मवल्लभ जैन औषधालय (वि.सं. 2022) - बीकानेर में विजय वल्लभ रिलीफ सोसायटी (वि.सं. 2025) - बड़ौदा में विजय वल्लभ अस्पताल (वि.सं. 2029) -- पाली में आत्म वल्लभ समुद्र जैन विहार (वि.सं. 2031) - पंजाब में लार्ड महावीर फाउंडेशन एवं महावीर जैन संघ इत्यादि। तप की तेजस्विता उनके मुखमंडल पर प्रत्यक्ष होती थी। वृद्धावस्था में भी वे अनेकों अभिग्रहों का पालन करते थे। जैसे- प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी तथा सुदी पंचमी को मौन साधना, गोचरी में 11 द्रव्यों से अधिक नहीं वापरना, शक्कर, गुड़, खांड आदि मिष्ठान्न का पूर्ण त्याग, अष्टमी चौदस को उपवास एवं अन्य तिथि त्याग, भूल से भी किसी को निष्प्रयोजन कटुवचन कहने पर एकासणा, इत्यादि अनेकों नियमों-अभिग्रहों का वे तन मन जीवनांत तक पालन करते रहे। महावीर पाट परम्परा 281 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आदर्श दादागुरु-गुरु वल्लभ के संपूर्ण जीवन पर आधारित विशालकाय ग्रंथ 'आदर्श जीवन' (जिसका लेखन कृष्णलाल वर्मा आदि ने किया) का सफल संपादन किया। वि.सं. 227 (ईस्वी सन् 1968) में शासनपति भगवान् महावीर स्वामी जी का 2500 वां निर्वाण कल्याणक शताब्दी समारोह दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर में आयोजित हुआ। इस निमित्त सभी सम्प्रदाय से संबंधित बंधुओं ने एकता का अभूतपूर्व परिचय दिया। आचार्य समुद्र सूरीश्वर जी की अध्यक्षता में चारों जैन सम्प्रदायों ने ऐतिहासिक रूप में समारोह आयोजित किया गया। इस अवसर पर आचार्यश्री जी को 'जिनशासनरत्न' अलंकरण से विभूषित किया गया। अनेकों शहरों से पूज्य श्री जी को अभिनंदन पत्र भेंट किए। वे अनेकों सुश्रावकों को 'भाग्यशाली' शब्द से संबोधित करते थे एवं सच में, जिसे भी वह 'भाग्यशाली' कहते थे, उसके भाग्य के द्वार खुल जाते थे। समता, सरलता और सहिष्णुता - उनके स्वभावी गुण थे। निष्कलंक - निरतिचार संयम द्वारा अनेकों भव्य जीवों को धर्म मार्ग में अग्रसर कर उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं : आचार्य विजय समुद्र सूरीश्वर जी ने सम्यक्त्व स्थिरता एवं सम्यक्त्व विशुद्धि के उद्देश्य से स्थान-स्थान पर जिनमंदिरों की प्राणप्रतिष्ठा कराई थी। जैसे- बोडेली (गुजरात) में वैशाख सुदी 7 वि.सं. 2012 को महावीर स्वामी जी की - पाटण (गुजरात) में माघ सुदी 3 वि.सं. 2013 को कोकालियावास मंदिर की - नाडोल (राजस्थान) में मार्गशीर्ष शुक्ला 6 वि.सं. 2016 को - रूपनगर (दिल्ली) में 27 जनवरी सन् 1961 को शांतिनाथ जिनालय की - हस्तिनापुर (उ.प्र.) में मार्गशीर्ष सुदी 10 वि.सं. 2021 को प्राचीन श्री शांतिनाथ जिनालय का जीर्णोद्धार - फालना (राजस्थान) में मार्गशीर्ष सुदी 6 वि.सं. 2026 को वल्लभ विहार मंदिर - वरली (मुंबई) में 2 फरवरी 1971 को इस प्रकार सूरत, पालीताणा, बिजोवा, वरकाणा, सादड़ी, भरतपुर, बड़ौत, जम्मू, अमृतसर, पट्टी, गंगानगर आदि अनेकों स्थलों पर जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया। "दर की . महावीर पाट परम्परा 282 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालधर्म : आचार्य समुद्र सूरीश्वर जी म. द्वारा 22 मई 1977 को मुरादाबाद (उ.प्र.) में श्री सुमतिनाथ जिनमंदिर की प्रतिष्ठा का मुहूर्त निश्चित हुआ किंतु गुरुदेव ने उसे परिवर्तित कर 1 मई 1977 करने का आदेश दिया। ___ 1 मई 1977 को मुरादाबाद में विधिविधानपूर्वक-उल्लास और उमंग के साथ जिनमंदिर की प्रतिष्ठा उनकी मंगल निश्रा में सम्पन्न हुई। उसके बाद ही उनका स्वास्थ्य ढीला पड़ता गया। सभी मुनिगण उनकी सेवा-शुश्रुषा में जुट गए किंतु अब उनका आयुष्य कर्म पूर्णता की ओर था। ज्येष्ठ वदी अष्टमी, वि.सं. 2034 तदनुसार 10 मई 1971 को प्रातः काल ब्रह्म वेला में सर्वजीवराशि को खमाते हुए इस लोक से महाप्रयाण कर गए। उनके देवलोकगमन से श्रीसंघ में शून्यता व्याप्त हुई एवं उनकी आज्ञानुसार आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी ने संघ संचालन का महत्त्वपूर्ण दायित्व स्वीकार कर गुरु भावना को पूर्ण किया। . . महावीर पाट परम्परा 283 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76. आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी ऊर्जाकेन्द्र गुरु इन्द्रदिन्न सूरि, परमारक्षत्रियोद्धार । चारित्र रत्न अहमिन्द्र धनी, नित् वन्दन बारम्बार ॥ करुणानिधान, शासनपति भगवान् श्री महावीर स्वामी जी की परमोज्ज्वल पाट परम्परा के 76वें पट्टप्रभावक, गच्छाधिपति आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी ने संयम साधना के अलौकिक सूर्य के रूप में जिनशासन की महती प्रभावना की एवं लाखों परमार क्षत्रियों को जैनधर्म से जोड़कर अपूर्व धर्मक्रांति का उद्योत किया। जन्म एवं दीक्षा : गुजरात की धर्मधरा पर बड़ौदा से पूर्वदिशा में परमार क्षत्रियों के सैकड़ों गाँव बसे हैं, जो कृषक (किसान), आदिवासी आदि के रूप में जीवन यापन करते हैं। सालपुरा गाँव में किसान रणछोड़भाई की धर्मपत्नी बालू बेन ने कार्तिक वदी 9, वि.सं. 1980 के दिन एकं पुत्ररत्न को जन्म दिया। सबके मन को मोहने वाले उस बालक का नाम 'मोहन' रखा गया। पास के गाँव डूमा की प्राइमरी पाठशाला में बालक मोहन की प्रारंभिक शिक्षा हुई। वह कुशाग्रबुद्धि का धनी था। सालपुरा से 22 कि.मी. दूर डभोई में सिद्धि सूरि जी के शिष्य पंन्यास रंगविजय जी के सामीप्य से मोहन को जैनधर्म के सिद्धांतों का पंच प्रतिक्रमण, तीन भाष्य आदि भी कण्ठस्थ कर लिए। बालक मोहन जब 11-12 साल का हो गया, तब लंबी बीमारी के कारण माँ दिव्य लोक सिधार गई। माँ के देहावसान का घाव अभी भरा नहीं था कि कुछ महीनों बाद पिताश्री भी परलोक के पथिक बन गए। कर्मविपाक से संवत् 1993 में पंन्यास रंग विजय जी का भी कालधर्म को प्राप्त हो गए। मोहन के कोमल हृदय पर संसार की असारता का गहरा आघात हुआ। मोहन जब 17 वर्ष का हो गया, तब परिवारजनों ने उसका विवाह करा दिया लेकिन विवाह महावीर पाट परम्परा 284 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के बाद मोहन प्रायः उदास रहने लगा। उसे संसार में नहीं, संयम में सुख की चाहना होने लगी। पूर्वभव के पुण्योदय से विजय वल्लभ सूरि जी के प्रशिष्य साहित्य प्रेमी मुनि विनय विजय से मोहन का सामीप्य बढ़ा जिन्होंने उसकी दीक्षा को भावना को पुष्ट किया। मोहन ने परिवार की आज्ञा भी यदा-कदा प्राप्त कर ली। ___ नरसंडा गाँव (जिला खेड़ा) गुजरात में फाल्गुन शुक्ल 5 वि.सं. 1998 के दिन मोहन भाई की दीक्षा मुनि विनय विजय जी की निश्रा में हुई और वे 'मुनि इन्द्र विजय' के नाम से विभूषित हुए। उनकी बड़ी दीक्षा महेन्द्र पंचांग के रचयिता आ. विकासचन्द्र सूरि जी की निश्रा में अगले वर्ष विजोवा (राज) में सम्पन्न हुई। ज्ञात इतिहास अनुसार, परमार क्षत्रियों में सर्वप्रथम जैन मुनि होने का गौरव मुनि इन्द्र विजय जी ने प्राप्त किया। शासन प्रभावना : - मुनि इन्द्र विजय जी ज्ञानार्जन के शिखर पर आरूढ़ होते गए। ढूंढोर, पालनपुर, राजकोट, पालीताणा आदि जगहों पर प्रारंभिक चातुर्मास श्री विनय विजय जी के साथ सम्पन्न हुए। तदुपरान्त उन्हें विजय वल्लभ सूरि जी एवं विजय समुद्र सूरि जी की कल्पतरु सम निश्रा प्राप्त हुई। उनका ज्ञानार्जन और अधिक बढ़ गया। गुरुदेवों के आचार-विचार आदर्शों का भी इन्द्र विजय जी पर अमिट प्रभाव पड़ा। अंग-उपांग आदि आगमों के योगोद्वहन किए। संवत् 2010 में मुंबई में लाल बाग के उपाश्रय में थुम्बा (राज) के प्रतापचन्द्र दीक्षित हुए एवं इन्द्र विजय जी के प्रथम शिष्य - ओंकार विजय जी बने। इन्द्र विजय जी की प्रखरता एवं योग्यता देखते हुए आचार्य समुद्र सूरि जी ने सूरत के वडाचौटा के उपाश्रय में चैत्र वदी 3, वि.सं. 2011 को इन्द्र विजय जी को गणि पदवी प्रदान की। उनकी शासन प्रभावना की अजोड़ शक्ति को देखते हुए उन्होंने ही माघ शुक्ला 5, वि.सं. 2027 को वरली (मुंबई) के अंजनश्लाका प्रतिष्ठा महोत्सव पर इन्द्रविजय जी को 'आचार्य' पद से विभूषित किया एवं 'आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि' नाम प्रदान किया। इस प्रसंग पर समुद्र सूरि जी ने फरमाया - 'गणि श्री इन्द्र विजय जी परमार-क्षेत्रियोद्धारक मुनिपुंगव हैं। वे मधुर वक्ता, श्री संघ निपुण एवं संयम पालन में शूर हैं। अतः उन्हें आचार्य पदवी देते हुए मुझे अतिशय आनंद का अनुभव हो रहा है।" पूना में समुद्र सूरि जी ने श्री इन्द्रदिन्न सूरि जी की घोषणा पट्टधर के रूप में की। महावीर पाट परम्परा 285 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी ने विविध रूपों से बृहद् शासन सेवा की। उनकी निश्रा में अनेक छ:री पालित संघ आयोजित हुए - • बटाला से कांगड़ा जी तीर्थ • आगरा से शौरीपुर तीर्थ - बोडेली से लक्ष्मणी तीर्थ • डीग्रस से भद्रावती तीर्थ • सरधना से हस्तिनापुर तीर्थ • दिल्ली से हस्तिनापुर तीर्थ • बड़ौदा से कावी तीर्थ • लोनार से अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ • बाडमेर से नाकोड़ा तीर्थ • नागौर से फलवृद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ उन्होंने बीकानेर, हिंगणघाट, थाणा, लाठारा, हस्तिनापुर, लुधियाना, कांगड़ा आदि स्थलों पर उपधान तप की भी आराधना कराई। उनकी प्रेरणा से लुधियाना (पंजाब) में साधर्मिक श्रावक-श्राविकाओं के लिए 750 घरों की आवासीय कॉलोनी - 'विजय इन्द्र नगर' का निर्माण हुआ। इसी प्रकार जयपुर में 'विजय समुद्र इन्द्र साधर्मिक कोष' की स्थापना हुई। भगवान् महावीर स्वामी जी का 2600 वां जन्मकल्याणक महोत्सव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की राजधानी - दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के मुख्य आतिथ्य में गुरुदेव की निश्रा में सम्पन्न हुआ। दिल्ली में गुरु समुद्र की भावना अनुरूप एवं साध्वी मृगावती श्री जी के अदम्य परिश्रम से निर्मित श्री विजय वल्लभ स्मारक की ऐतिहासिक प्रतिष्ठा भी आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि आदि सुविशाल श्रमण-श्रमणी वृंद की पावन निश्रा में सम्पन्न हुई थी। आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी अपने निरतिचार संयम के लिए सुविख्यात रहे। अपनी क्रिया के लिए वे सदा समयबद्ध थे। दो-दो बायपास सर्जरी होने पर भी वे वर्षीतप और वर्धमान तप की ओलियो की आराधना करते रहे। इसी कारण वे जनसामान्य में 'चारित्र चूड़ामणि' के अलंकरण से विख्यात हुए। अनुश्रुति है कि पावागढ़ की पुण्यधरा पर तपागच्छ अधिष्ठायक श्री माणिभद्र देव के प्रत्यक्ष दर्शन उन्हें हुए थे। परमार - क्षत्रियोद्धार : महावीर पाट परम्परा 286 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात के अनेकों प्रांतों में परमार क्षत्रिय बसे हैं जो काल के प्रभाव से जिनधर्म से विमुख हो गए। आचार्य इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी ने अनेकों वर्षों तक इन क्षेत्रों में रहकर जिनवाणी की अमोघ गर्जना की। पेडों के नीचे, चौराहों में - जहाँ पर भी संभव हुआ, वहाँ उन्हें अहिंसा धर्म के उपदेश से विकृति से संस्कृति में लाए एवं तदुपरान्त 12 वर्षों तक इस क्षेत्र में घर-घर, गली-गली, गाँव-गाँव घूमकर जिनधर्म से जोड़ा। उनके पुरुषार्थ के परिणाम स्वरूप इस क्षेत्र में 1,00,000 परमार क्षत्रिय भाई-बहन (जिनमें पटेल भी सम्मिलित है) नए जैन बने। वे स्वयं परमारक्षत्रिय थे। अतः किसे किस प्रकार से प्रतिबोधित किया जाए, इसका ज्ञान उन्हें सहज था। उनकी प्रेरणा से 60 गाँवों में नए जिनमंदिर बने और उतने ही गाँवों में जैन धार्मिक पाठशालाएं खोली गई। पावागढ़ तीर्थ का उद्धार और वहाँ जैन कन्या छात्रालय की स्थापना की प्रेरणा इस कार्य का प्रमुख चरण प्रमाणित हुआ। व्यसनमुक्ति, शाकाहार के उन्होंने विशेष आंदोलन चलाए। उनके परमारक्षत्रियोद्धार के स्वर्णसंकल्पी कार्य में कई परिषद, कई विघ्न आए किंतु उन्होंने समभाव से सब सहज किया। . उनकी पावन प्रेरणा से परमार क्षत्रियों की जिनधर्म - दीक्षा का क्रम अस्खलित रूप से बढ़ा। आचार्य रत्नाकर सूरि जी, आचार्य जगच्चन्द्र सूरि जी, आचार्य वीरेन्द्र सूरि जी, आचार्य अरुणप्रभ सूरि जी आदि अनेकानेक शासनप्रभावक मुनि भी उनके परमारक्षत्रियोद्धार का परिणाम रहा। उन्होंने 120 से अधिक परमार-क्षत्रिय भाई-बहनों को जिनशासन में दीक्षित किया। बोडेली और छोटा उदयपुर (गुजरात) का क्षेत्र उनकी कृपादृष्टि का विशेष पात्र बना। इसी कारण से वे ‘परमारक्षत्रियोद्धारक' के अलंकार से सुविख्यात हुए। उनकी अद्भुत धर्मक्रांति 20वीं शताब्दी के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित है। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं : आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी म. ने स्थान-स्थान पर संघ की आवश्यकता अनुसार भविष्योन्मुखी बन कई जिनमंदिरों की अंजनश्लाका प्रतिष्ठाएं करवाईं - - गुजरात में पावागढ़, बड़ौदा, मासररोड, खोड़सल, भमरिया, डूमा, शांतलावाड़ी, धरोलिया - महाराष्ट्र में अकोला, मुंबई - राजस्थान में बीकानेर, जजो, लूणकरणसर, नागौर, जयपुर, बेड़ा महावीर पाट परम्परा 287 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • हरियाणा में जगाधरी, अम्बाला उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद ( समाधि मंदिर), आगरा, गोपालपुरा, मुजफ्फरनगर • दिल्ली में विजय वल्लभ स्मारक स्थित जिनमंदिर गुरुमंदिर पंजाब में लुधियाना (सुंदर नगर, इन्द्र नगर ), फाजिल्का आदि । कालधर्म : - - — सन् 1995 में पालीताणा महातीर्थ की पुण्यधरा पर चतुर्विध संघ की उपस्थिति में आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी ने ऐतिहासिक धर्मसभा में 3 साधुओं को आचार्य पदवी प्रदान की रत्नाकर विजय जी बने आचार्य विजय रत्नाकर सूरि जी जगच्चंद्र विजय जी बने आचार्य विजय जगच्चंद्र सूरि जी नित्यानंद विजय जी बने आचार्य विजय नित्यानंद सूरि की इस अवसर पर उन्होंनें आचार्य विजय नित्यानंद सूरि जी को पंजाब का विशेष दायित्व सौंपकर महती कृपा की। जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए अपनी प्रियभूमि - गुरुभूमि - पंजाब क्षेत्र के अम्बाला शहर में पौष कृष्णा 6 तदनुसार 4 जनवरी 2002 के दिन कालधर्म को प्राप्त कर देवलोक के वासी बने। महायोगी का महाप्रयाण जिनशासन की एक अपूरणीय क्षति बना। महावीर पाट परम्परा 288 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77. आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी प्रसन्न वदन करुणा- नयन, शासनहित उग्र विहार । शासनप्रभावक सूरि नित्यानंद जी, नित् वन्दन बारम्बार || ज्ञानयोग-भक्तियोग-तपयोग - कर्मयोग के अविरल साधक, शांति - एकता - सद्भाव के अग्रणीय आराधक, गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी म. भगवान् महावीर स्वामी जी के 77वें पट्टालंकार हैं। जिनकी सुमधुर वाणी से सरस्वती और लक्ष्मी साक्षात् प्रवाहित होती है, ऐसे सद्धर्मधुरासंवाहक गुरुदेव जिनशासन के अगणित कार्यों का संपादन कर रहे हैं। जन्म एवं दीक्षा : जीरा (पंजाब) में लाला चिमनलाल जी का जन्म हुआ था। युवावस्था में धर्मपरायणा राजरानी जी से उनका विवाह सम्पन्न हुआ एवं वं दिल्ली आकर जीवनयापन करने लगे । अनिल एवं सुनील नामक उनके दो तेजस्वी पुत्र हुए। अनुक्रम से द्वितीय श्रावण वदि 4, वि.सं. 2015 को माँ राजरानी की कुक्षि से तृतीय पुत्र का जन्म हुआ एवं नाम प्रवीण रखा गया। उस समय मुनि प्रकाश विजय जी ने उन्हें हस्तिनापुर आकर गृहपति के पद पर बालाश्रम में कार्य करने का सुझाव दिया। फलतः लाला चिमनलाल जी सपरिवार हस्तिनापुर आ गए और निःस्वार्थ सेवा करने लगे। उनके तीनों पुत्र भी बालाश्रम में अध्ययन करते थे। पूरा परिवार प्रभु भक्ति में तल्लीन रहता था। लालाजी के वैराग्य रंग में पूरा परिवार ही रंग गया। भौतिक चकाचौंध से कोसों दूर पूरा परिवार श्रमण धर्म में प्रवेश करने को इच्छुक था। उन बालकों की आयु क्रमशः 13, 11 एवं 9 वर्ष थी। अनेकों लोगों बालदीक्षा का विरोध किया किंतु तीनों बालक संयम पथ पर चलने को अडिग रहे । फलस्वरूप मार्गशीर्ष शुक्ला 10 वि.सं. 2024 के दिन बड़ौत (उ.प्र.) में आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी म. की निश्रा में ऐतिहासिक दीक्षा महोत्सव सम्पन्न हुआ। लाला विलायतीराम जी बने मुनि नयचंद्र विजय जी लाल चिमनलाल जी बने मुनि अनेकान्त विजय जी श्रीमती राजरानी जी बनी साध्वी अमितगुणा श्री जी महावीर पाट परम्परा 289 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिल कुमार बने मुनि जयानंद विजय जी सुनील कुमार बने मुनि धर्मधुरंधर विजय जी प्रवीण कुमार बने मुनि नित्यानंद विजय जी 9 वर्षीय मुनि नित्यानंद विजय जी की ओजस्वी आभा से मुख मंडल देदीप्यमान था। गुरु समुद्र ने उन्हें सांसारिक पिता मुनि अनेकान्त विजय का शिष्य तथा स्वयं का प्रशिष्य घोषित किया। इस अवसर पर आचार्यश्री जी ने अपने प्रभावक उद्बोधन में कहा.- "बालमुनियों की सार संभाल करना कोई आसान काम नहीं है किंतु मुझे विश्वास है कि दूज के चंद्रमा के समान ये बालमुनि अपनी कला अवश्य विकसित करेंगे और एक दिन पूज्य गुरुदेवों का ही नहीं संपूर्ण जैन जगत् का नाम रोशन करेंगे।" शासन प्रभावना : मुनि नित्यानंद विजय जी बाल्यकाल से ही अमेय मेधा के धनी रहे। गुरु समुद्र सूरि जी की छत्रछाया में बालमुनियों का आशातीत विकास हुआ। संस्कृत-प्राकृत-काव्य-दर्शन इतिहास आदि अनेकों विद्याओं का उन्होंने गहन अध्ययन किया। उनका प्रवचन कौशल भी उत्थान की ओर था। मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में ही मुनि नित्यानंद विजय जी गुरु समुद्र के पत्र व्यवहार का कार्य भार संभालने लगे। सांसारिक पिताश्री एवं दीक्षागुरु मुनिपुंगव अनेकान्त विजय जी मौनपूर्वक दीर्घ तपश्चर्या में लीन रहे। पहले 51, फिर 61 उपवासों की तपस्या की। तृतीय चातुर्मास में उनकी भावना 71 उपवास की थी किंतु 64वें उपवास में पायधुनी के गोड़ी पार्श्वनाथ जिनालय के उपाश्रय में स्वास्थ्य बिगड़ने से 19.9.1970 को पारणा करना पड़ा एवं कुछ दिन बाद 24.9.1970 को वे काल कवलित हो गए। बालमुनियों को संयम धर्म संस्कारों से सुवासित करने में गुरु समुद्र ने स्नेहपूर्ण भूमिका निभाई। ___आचार्य समुद्र सूरि जी जब अस्वस्थ हुए, तब उन्होंने बालमुनियों की सार संभाल का दायित्व गणिवर्य श्री जनक विजय जी (आचार्य जनकचंद्र सूरि जी) को सौंपा। मुनि नित्यानंद विजय जी ने उनकी निश्रा में रहकर अहर्निश परिश्रम किया एवं गुरुसेवा एवं स्वाध्याय में लीन रहे। समुद्र सूरि जी के पट्टधर आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी के चरणसेवक के रूप में भी उन्होंने शासन प्रभावना के अनेक कार्य किए। उनकी योग्यता को नूतन आयाम देते हुए आचार्य इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी ने मुनि नित्यानंद विजय जी को वि.सं. 2044 में ठाणा (मुंबई) में गणि पदवी, महावीर पाट परम्परा 2900 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि.सं. 2047 में विजय वल्लभ स्मारक, दिल्ली में पंन्यास पदवी से अलंकृत किया। पालीताणा की भूमि पर वैशाख सुदी 2, वि.सं. 2050 के पावन दिवस पर चतुर्विध संघ की साक्षी से सुविशाल जनमेदिनी के मध्य आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरि जी ने पंन्यास नित्यानंद विजय जी को आचार्य पद के महिमावंत पद से विभूषित किया एवं पंजाब आदि उत्तर भारत में धर्मरक्षा - धर्मप्रचार का विशेष दायित्व दिया। विनय, विवेक और विश्वास की विशिष्ट त्रिपदी आचार्यश्री की कार्यशैली का अभिन्न अंग है। वडील गुरुदेवों के प्रति विनय उनकी लघुता का प्रतिबिम्ब है। आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी, जनकचंद्र सूरि जी, वसंत सूरि जी, जयानंद सूरि जी आदि को उन्होंने सदा पितृतुल्य माना। उनके सदाशीर्वाद से भगवान् महावीर की परम्परा के संरक्षण एवं संवर्धन में गुरुतर दायित्व निभा रहे हैं। आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी म. के सन् 2002 में देवलोकगमन से संघ में व्याप्त शून्यता की परिपूर्ति हेतु समुदाय - वडिल आचार्य जनकचंद्र सूरीश्वर जी म. के शुभाशीर्वाद, अनेकों श्रमण- श्रमणियों के आग्रह एवं विविध संघों की भावभीनी विनती को स्वीकार कर पौष सुदी 6 वि. सं. 2061 के शुभ दिन विजय वल्लभ स्मारक, दिल्ली की धन्य धरा पर आचार्य इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी के क्रमिक पट्टधर के रूप में उन्हें विभूषित किया गया तथा सामाना (पंजाब) में उनकी गच्छाधिपति पदवी हुई। आचार्य विजय नित्यानंद सूरि जी म. ने सम्मेतशिखर, अयोध्या, रत्नपुरी, ऋजुबालुका, हस्तिनापुर, श्रावस्ती, क्षत्रियकुण्ड आदि अनेक कल्याणक भूमियों के उद्धार करवाए हैं। इसी कारण अयोध्या तीर्थ में अंजनशलाका - प्रतिष्ठा महोत्सव में संघ द्वारा 'कल्याणक तीर्थोद्धारक' का बिरुद प्रदान किया गया। पीलीबंगा हनुमानगढ़, सूरतगढ़, नोहर भादरा आदि क्षेत्रों में वर्षों से बंद पड़े जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार का उन्होंने पुरुषार्थ किया। उनकी पावन निश्रा में अनेकों शिखरबद्ध जिनालयों की अंजनश्लाका प्रतिष्ठा, उपधान तप, छ:री षालित यात्रासंघ आयोजित हुए हैं। गुरु भावना अनुरूप अनेकों स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, गौशाला, आराधना भवन आदि के निर्माण की पावन प्रेरणा देकर समाजकल्याण एवं जनसेवा में मानवधर्म का आदर्श स्थापित किया। शांति, एकता एवं संगठन के अग्रदूत के रूप में भी आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी की प्रसिद्धि है। जालना (महाराष्ट्र) में दो गुटों के विवाद को आचार्यश्री जी ने मार्मिक प्रवचन के माध्यम से सुलझाया। इसी प्रकार अनेकों स्थानों पर उन्होंने द्वेष के दावानल को शांत महावीर पाट परम्परा 291 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर मैत्री भाव का संचार किया। 'शांतिदूत' उनका विशेषण नहीं, पर्यायवाची बन गया है। ___साधना का प्रभापुंज उनके मुखमंडल पर दैदीप्यमान होता है। महाप्रभावशाली सूरिमंत्र की भी विधिवत् पाँच पीठिकाओं की साधना उन्होंने की है। कई समय से वे निरंतर एकासने की तपस्या कर रहे हैं और उसमें भी वे 8 द्रव्यों से अधिक नहीं वापरते। अखंड संयम साधना में प्रवृत्त आचार्यश्री जी निरंतर आध्यात्मिक उन्नति के शिखर पर अग्रसर हैं। साहित्य रचना : प्रवचन प्रभावक आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी म. के जनप्रिय प्रवचनों - व्याख्यानों ने समाज में नवचेतना का संचार किया है। प्रवचन संबंधी उनकी पुस्तकें साहित्य जगत् में प्रकाशमान हैं। जैसे- नवपद पूजे, शिवपद पावे, आगम ज्ञान गंगा, भाव करे भव पार, श्रुत समुद्र की मणियां, सद्भाव साधना, जनकल्याणसकारी जैनधर्म, पुण्यपुरुष पेथड़शाह, दानवीर जगडूशाह, श्रमण महावीर, श्रुतशीलवारिधि, तनावों से मुक्ति पाने की कला इत्यादि अनेकों प्रवचन आधारित पुस्तकें, लघु पुस्तिकाएं, चित्रकथाओं का प्रकाशन आचार्य श्री जी के प्रबल पुरुषार्थ से हुआ। प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं : शांतिदूत आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी म. ने सैकड़ों स्थानों पर अंजनश्लाका - प्राणप्रतिष्ठा सम्पन्न कराई है। रियावड़ी गाँव (नागौर), दिल्ली, जंडियालागुरु, सरहिंद (पंजाब), भादरा (राजस्थान), सिरसा, रानियां, फरीदाबाद, देवकीकलां, जसनगर, पार्श्ववल्लभ इन्द्र धाम (कच्छ), ईडर, चिदम्बरम्, उतकोटा, पुरुषावाकम आदि अनेकों स्थलों पर जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। श्री हस्तिनापुर महातीर्थ की छत्रछाया में निर्मित अष्टापद जिनालय, श्री उवसग्गहरं महातीर्थ की छत्रछाया में निर्मित 7 शिखरबद्ध जिनालय, श्री ह्रींकार तीर्थ, खुडाला, जैतपुरा, जम्मू आदि भी अनेकों अतिशयकारी प्रतिष्ठोत्सवों से संघ में आश्चर्य और आनंद की अनुभूति है। वि.सं. 2072 (ईस्वी सन् 2016) में तपागच्छ के 18 समुदायों का विराट श्रमण सम्मेलन पालीताणा के पारणा भवन में आयोजित हुआ । उसमें भी आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी ने वल्लभ समुदाय के गच्छाधिपति के रूप में सफल प्रतिनिधित्व किया। महावीर पाट परम्परा 292 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान समय में विभिन्न गच्छो-विभिन्न समुदायों के अनेकानेक आचार्य भगवन्त चतुर्विध संघ का नेतृत्त्व कर रहे हैं। सभी का परम उद्देश्य जिनशासन की इस अखंड अक्षुण्ण धारा को वेगवान् बनाए रखना एवं शासन-नायक भगवान् श्री महावीर स्वामी के संदेशों-उपदेशों को सदा मौलिक रूप में प्रवाहित रखना है। ऐसे शासनप्रभावक आचार्यों में प.पू.आ. श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी म. का यशस्वी स्थान है। प्रभावशाली पूर्वाचार्यों के अहर्निश पुरुषार्थ से संपदा रूप प्राप्त चतुर्विध संघ की दशा एवं दिशा के उत्तरोत्तर उत्थान में उनका महनीय योगदान रहा है। वे इसी प्रकार नेतृत्त्व कुशलता से पाट परम्परा को आलोकित रखें एवं यह गुरु परम्परा युगों-युगों तक भगवान् महावीर एवं उनके शासन की प्रभावना कर चिरंजीवी बनाएं, यह जन-जन की आत्मीय कामना है। ... इस पंचम आरे के अंतिम आचार्य दुप्पस्सह सूरीश्वर जी तक यह पाट परम्परा सतत् प्रवहमान रहेगी, ऐसा सर्वज्ञ प्रभु महावीर का कथन है। गण-गच्छ-समुदाय की संकीर्णता से मुक्त संयम धर्म की सार्वभौमिकता से युक्त इस जिनशासन के धर्मसंघ का नेतृत्त्व सदा ही उच्चतम व्यक्तित्त्व की धनी विभूतियों ने किया है, कर रहे हैं और करते रहेंगे। नेतृत्त्व कुशलता के सुप्रभाव से ही भगवान् महावीर की वाणी युगों-युगों तक गुंजायमान रहेगी। ऐसी महिमाशाली, गौरवशाली गुरु पाट परम्परा को कोटिशः कोटिशः नमन.... महावीर पाट परम्परा 293 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रंथ सूची श्री नन्दीसूत्र आगम श्री देववाचक क्षमाश्रमण श्री कल्पसूत्र बालावबोध - आचार्य यतीन्द्र सूरीश्वर जी उपाध्याय धर्मसागर विजय जी तपागच्छ पट्टावली तपगच्छ पट्टावली - मुनि शिव विजय जी तपागच्छ का इतिहास- डॉ. शिवप्रसाद जी तपागच्छ श्रमण वंश वृक्ष पट्टावली पराग संग्रह पट्टावली समुच्चय - मुनि जैन परम्परा नो इतिहास जैन तत्त्वादर्श - आचार्य श्री विजयानंद सूरीश्वर जी जैन धर्म का मौलिक इतिहास आचार्य श्री हस्तीमल जी महावीर पाट परम्परा जयंतीलाल छोटालाल शाह पं. कल्याण विजय जी भगवान् पार्श्वनाथ परम्परा का इतिहास मुनि ज्ञानसुंदर विजय जी जैन धर्म के प्रभावक आचार्य - साध्वी संघमित्रा - दर्शन - ज्ञान - न्याय विजय जी मुनि दर्शन - ज्ञान - न्याय विजय जी - - नेमिचंद्र शास्त्री तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ऐतिहासिक रास संग्रह विजय धर्म सूरि जी, विद्याविजय जी प्रभावक चरित्र - आचार्य प्रभाचन्द्र जी वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना परिशिष्ट पर्व - आचार्य हेमचन्द्र सूरीश्वर जी जैन धातु प्रतिमा लेख - बुद्धिसागर जी जैन शिलालेख संग्रह हीरालाल जैन जैन साहित्य का बृहद् इतिहास - पार्श्वनाथ विद्यापीठ - - पं. कल्याण विजय जी 294 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवें तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी जी ने हम पर असीम करुणा की वर्षा करते हुए सम्यक् धर्म की प्ररूपणा की । उनके द्वारा प्रवाहित श्रुत परंपरा को उसी रूप में वेगवान बनाये रखने में उनकी शिष्य परंपरा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। परमात्मा ने साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूपी चतुर्विध संघ की स्थापना की । इस जिनशासन का संवहन करते हुए भगवान महावीर की पाट परंपरा विगत 2500 से अधिक वर्षों से अक्षुण्ण - अखण्ड रूप से प्रकाशमान रही है जिसने सदा ही जिनाज्ञा अनुसार संघ का नेतृत्व किया है। समय-समय पर वटवृक्ष की भांति विशालता को प्राप्त चतुर्विध संघ की अनेकों शाखाएँ - धाराएँ प्रस्फुटित हुई हैं । इस कारण अनेकों गच्छ, अनेकों समुदाय अस्तित्व में आये । प्रस्तुत पुस्तक में भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर गणधर सुधर्म स्वामी जी से लेकर 77वें पट्टधर एवं तपागच्छीय श्री वल्लभ सूरि जी म. समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वर जी म. के जीवन के प्रमुख बिंदुओं का सुन्दर संकलन - संग्रहण - लेखन किया गया है । जैन धर्म के गौरवशाली इतिहास सम्बन्धी जनमानस के कई स्वाभाविक प्रश्नों के समाधानों को भी अनावरित किया गया है। पंन्यासप्रवर श्री चिदानंद विजय जी म. के अथक परिश्रम के फलस्वरूप प्रस्तुत पुस्तक - महावीर पाट परंपरा बिंदु में सिंधु के समान पाठकगणों में सम्यक् दर्शन - सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की त्रिवेणी को सुदृढ़ करेगी , यही भावना... - विजय वसंत सूरि Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय के परिलेख में पंन्यास श्री चिदानन्द विजयजी धर्मपरायण संस्कृति से परिपूर्ण विश्वगुरु भारत में एक ओर जहाँ भौतिकता का तांडव हो रहा है, वहीं दूसरी ओर अहिरंत वाणी को क्रियात्मक रूप देने वाली अनेक विभूतियाँ आज भी इस धरा को आलोकित कर रही हैं। प्रखर प्रवचनकार, तत्वचिंतक पंन्यासप्रवर श्री चिदानंद विजयजी म. भी अपने सम्यक् साधुत्व से स्व-पर कल्याण में अग्रसर हैं। पंन्यास श्री जी का जन्म शिवपुरी नगर (म.प्र.) निवासी सुश्रावक श्री खजांचीलालजी लिगा की धर्म पत्नी श्रीमती कश्मीरावंतीजी की पावन कुक्षि से हुआ। बाल्यकाल से ही वे रचनात्मक और क्रियात्मक कलाओं में निष्णात रहे। चौबीस वर्ष की युवावस्था में उनके वैराग्य भाव को सर्वविरति धर्म का आश्रय मिला। ईस्वी सन 1984 में बडौदा (गुजरात) की धन्यधरा पर आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी म. के वरदहस्त से दीक्षा ग्रहण की। शिवपुरी के कपिलकुमार को मुनि चिदानन्द विजय नाम प्रदान किया गया एवं वे आचार्य विजय नित्यानंद सरीश्वरजी के प्रथम शिष्य बने / स्वाध्याय, सेवा और साधना ही उनके संयम जीवन के अध्याय हैं। आचार्य विजय धर्मधुरंधर सूरीश्वरजी के सानिध्य में रहकर उन्होंने विविध भाषाओं का अधिकार प्राप्त किया एवं आगम, न्याय, दर्शन आदि का तलस्पर्शी अध्ययन किया। आचार्य विजय जनकचंद्र सूरीश्वरजी म. के अन्तेवासी के रुप में अध्यात्म ध्यान साधना के नूतन आयाम देते हुए आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वरजी ने चतुर्विध संघ की साक्षी में जैतपुरा (राज.) में उन्हें 'पंन्यास' पदवी से अलंकृत किया। पंन्यास श्री जी की विवेचना शक्ति अद्भुत है, कठिन विषयों को भी वे सरलता से समझाने की प्रतिभा रखते हैं। ज्ञानयोग की गंभीरता उनके मुखमंडल पर देदीप्यमान होती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विचरण कर जिनशासन की महती प्रभावना उन्होंने की है। ऐसी विरल-विमल-विभूति के चरणों में.... ......कोटिशः कोटिशः नमन।