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56. आचार्य श्रीमद् आनंदविमल सूरीश्वर जी
माणिभद्र संस्थापक सूरीश्वर, पैंतीस बोल प्रकार । आत्मानंदी आनंदविमल जी, नित् वंदन बारम्बार ॥
प्रभु वीर के श्रमण वर्ग में प्रविष्ट शिथिलाचार के समय में अपने ज्ञान, संयम एवं शुद्ध आचरण से क्रियोद्धार कर संघ को कुशल नेतृत्त्व देने में समर्थ एवं जिनके प्रभाव से माणिभद्र देव तपागच्छ के अधिष्ठायक देव बने, ऐसे भगवान् महावीर की 56वीं पाट पर विभूषित आचार्य आनंदविमल सूरि जी म.सा. को सदा स्मरण किया जाता है।
जन्म एवं दीक्षा :
मेवाड़ प्रदेश के ईलादुर्ग - ईडर नगर के श्रीमाल जाति के श्रावक मेघजी ( वसन्तमल) की भार्या माणेकदेवी के पावन कुक्षि से वि.सं. 1547 में पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम वाघ जी कुँवर (बोगामल) रखा गया। माता-पिता के वात्सल्य की छत्रछाया में बालक निरंतर वृद्धि को प्राप्त था।
जब बालक 5 वर्ष का हुआ, तब शासन के विविध कार्य करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हुए हेमविमल सूरि जी का पदार्पण ईडर में हुआ । पूज्यश्री की आचारसंपन्नता एवं प्रवचन प्रभावना से सभी आकृष्ट होते थे। उनके वैराग्यरस - पोषक उपदेश ने बालक बाघजी कुँवर के हृदय में भी उथल-पुथल मचा दी । हेमविमल सूरि जी विहार करके अन्यत्र पधार गए एवं कुछ महीने बाद पुन: ईडर आए। पूर्वभवों के उत्कृष्ट संस्कारों के योग एवं सद्गुरु के निमित्त से 5 वर्षीय बालक ने संयम स्वीकार करने का निश्चय किया। माता-पिता ने अपने एकमात्र पुत्र को बहुत समझाया, अनेक प्रलोभन दिए किंतु वह बालक मेरु की तरह अचल रहा । अंततः वि.सं. 1552 में पाँच साल की अल्पायु में वह बालक हेमविमल सूरीश्वर जी का शिष्य बना। गुरुदेव ने मुमुक्षु की जिह्वा में अमृत का आस्वाद जानकर व मेरू जैसी दृढ़ता उसका नाम 'मुनि अमृतमेरू' ( आनंदविमल) नाम प्रदान किया ।
शासन प्रभावना :
महावीर पाट परम्परा
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