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9) अरनाथ देरासर, बीजापुर में प्राप्त पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा (लेखानुसार माघ वदि 8
रविवार संवत् 1578 में प्रतिष्ठित)
आचार्यदेव हेमविमल सूरि जी म.सा. ने अनेकों प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कर जिनशासन की प्रभावना की। आज भी बूंदी, अहमदाबाद, पालीताणा, अजीमगंज, मेड़ता, बीकानेर, खेड़ा, वडोदरा, डभोई, खंभात, लूणकरणसर, उदयपुर, ईडर इत्यादि अनेकों स्थल पर प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं, जिन पर प्रतिमालेख में गुरुदेव द्वारा प्रतिष्ठा का उल्लेख है जो कालांतर से यत्र-तत्र पहुँची। कालधर्म :
आचार्य हेमविमल सूरीश्वर जी ने संवत् 1583 का चातुर्मास विशाला नगरी (वीसनगर) में किया। अपने प्रमुख शिष्य आनंदविमल सूरि जी को पट्टधर मान वे आश्वस्त भाव से वृद्धावस्था से संयम जीवन का परिपालन कर रहे थे। आश्विन मास में वे बीमार हो गए। उन्होंने आनंदविमल सूरि जी को कहा, “अब मेरे जीने का भरोसा नहीं है। तुम संघ की सार संभाल करो।" शिष्य ने उत्तर दिया कि मेरी इतनी शक्ति, इतना सामर्थ्य नहीं कि संपूर्ण गच्छ की व्यवस्था देख सकू व क्षमा माँगी। अतः उन्होंने संघ के समक्ष श्री सौभाग्यहर्ष जी को सूरि पद व पट्टधर प्रदान किया। आसोज सुदि 13 संवत् 1583 को आचार्य हेमविमल सूरि जी समाधि पूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए। सभी को उनके निधन का आघात लगा। नगरवासियों ने बड़े महोत्सव के साथ पूज्य श्री के देह का अग्नि संस्कार किया। इनके प्रथम पट्टधर आनंदविमल जी से तपागच्छ की मूल पंरपरा आगे चली और द्वितीय पट्टधर सौभाग्यहर्ष जी की शिष्य परम्परा लघु पौशालिक शाखा के नाम से विश्रुत हुई।
महावीर पाट परम्परा
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