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आचार्य हेमविमल सूरि जी की निश्रा में आत्मोन्नति को प्राप्त करते हुए वे व्याकरण, न्याय, काव्य, षड्दर्शन आदि में पारंगत बने । उनकी ज्ञान शक्ति को देखते हुए संवत् 1568 में लालपुर नगर में उपाध्याय पद से विभूषित किया गया एवं संवत् 1570 में उनकी योग्यता को जानते हुए डावल गाँव (स्तंभन तीर्थ ) में चतुर्विध संघ के आग्रह एवं साक्षी से आचार्य पदवी से अलंकृत किया गया तथा 'आचार्य आनंदविमल सूरि' नाम प्रदान किया गया। इस महोत्सव का सारा खर्च श्रावक सोनी जीवराज ने किया। गुरु आज्ञा से उन्होंने अनेकों प्रदेशों में स्वतंत्र विचरण कर जिनधर्म की पताका बहुमुखी दिशा में लहराई।
शत्रुंजय महातीर्थ पर जिनप्रासादों की जीर्ण अवस्था देखकर वे अत्यंत द्रवित हुए एवं जीर्णोद्धार की भावना अभिव्यक्त की। चित्तौड़गढ़ के ओसवाल वंशी करमाशा ने उनकी प्रेरणा से वि.सं. 1587 में गिरिराज शत्रुंजय का जीर्णोद्धार कराया ।
आनंदविमल सूरि जी महान तपश्चर्या के धनी थे। चौदह वर्ष पर्यन्त तक उन्होंने छट्ठ के पारणे आयंबिल की घोर तपस्या की। इसके उपरांत 181 उपवास, वीस स्थानक तप, 400 चौथवणी स्थानक तप, बीस विहरमानों के 20 छट्ठ तप, प्रत्येक कर्म के क्षय निमित्त विशिष्ट तपस्या की। भगवान् महावीर के 229 छट्ठ, नामकर्म सिवाय 7 कर्मों की उत्तर प्रकृति की संख्या प्रमाण 5, 9, 2, 28, 4, 2, 5 उपवास, चौदस - पूनम एवं चौदस - अमावस के छठ्ठ इत्यादि बहुत दुष्कर तपस्या की। अपने संगम जीवन में ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्मयोग एवं तपयोग के द्वारा स्व-पर कल्याण की भावना से उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की।
संघ व्यवस्था :
पूर्वकाल में भगवान् महावीर के 47वें पट्टधर आचार्य सोमप्रभ सूरि जी ने शुद्ध जल के अभाव में साधु-साध्वी जी का विचरण मारवाड़ आदि क्षेत्र में निषिद्ध (मना) किया था। आचार्य आनंदविमल सूरीश्वर जी ने अनुभव किया कि अब इस कारण से लोग कुमत को ग्रहण कर रहे हैं एवं अब जल का भी अभाव नहीं है। अतः उन्होंने इन क्षेत्रों में साधु-साध्वियों का विहार खुला किया। जैसलमेर आदि में 64 मंदिरों को ताले लगा दिए गए थे। गुरुदेव ने साधुओं को विहार की आज्ञा देकर उन तालों को तुड़वाकर जिनमंदिर पुन: पूजनीय अवस्था में लाए।
लोंकागच्छ (स्थानकवासी ) मत के ऋषि वीमा ( वानर), ऋषि गुणा, ऋषि जीवा आदि
महावीर पाट परम्परा
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