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___ इस प्रकार धीरे-धीरे लोंकाशाह ने मूर्तिविरोधक लुकामत प्रवृत्त किया। लोंकाशाह ने स्वयं दीक्षा नहीं ली। लुकामत में वि.सं. 1533 में 'भाणा' नामक प्रथम साधुवेशधारी हुआ। इस परम्परा के कई वर्षों बाद लवजी ऋषि ने मुख पर मुंहपत्ती बांधने का साधु का नियम बनाया। उस समय चैत्य मानने वालों की संख्या 7 करोड़ की थी एवं अनेक गच्छों में बड़े-बड़े विद्वान धर्मप्रभावक आचार्य विद्यमान थे
- तपागच्छाचार्य रत्नशेखर सूरि जी - उपकेशगच्छाचार्य देवगुप्त सूरि जी - अंचलगच्छाचार्य जयसिंह सूरि जी - खरतरगच्छाचार्य जिनचंद्र सूरि जी
आगमगच्छाचार्य हेमरत्न सूरि जी - नागेन्द्रगच्छाचार्य गुणदेव सूरि जी - पूर्णिमियगच्छाचार्य साधुसिंह सूरि जी - मलधारीगच्छाचार्य गुणनिर्मल सूरि जी - सांडेरावगच्छाचार्य शांति सूरि जी - निवृत्तिगच्छाचार्य माणकचंद्र सूरि जी - पालीवालगच्छाचार्य यशोदेव सूरि जी - विद्याधरगच्छाचार्य हेमचंद्र सूरि जी आदि .
निश्चित रूप से किसी भी आचार्य को अंदेशा नहीं हुआ होगा कि लुंकामत भविष्य में इतना विशाल रूप धारण करेगा एवं स्थानकवासी संप्रदाय का रूप लेगा। . प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं : ___ प.पू. आचार्य रत्नशेखर सूरि जी महाराज द्वारा प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं आज अनेकों स्थलों पर यत्र-तत्र प्राप्त होती है। काल के प्रभाव से वे मूर्तियां भिन्न-भिन्न जगहों पर मिलती हैं। कुछ इस प्रकार हैं1) सुपार्श्वनाथ जी का पंचायती बड़ा मंदिर, जयपुर में प्राप्त कुंथुनाथ जी का पंचतीर्थी
प्रतिमा (लेखानुसार वैशाख वदि 5 वि.सं. 1502 में प्रतिष्ठित) 2) आदिनाथ जिनालय, थराद में प्राप्त विमलनाथ जी की धातु की प्रतिमा (लेखानुसार
माघ सुदि 13 वि.सं. 1503 में प्रतिष्ठित) चंद्रप्रभ जिनालय, कोटा में प्राप्त अजितनाथ जी की धातु की पाँचतीर्थी प्रतिमा (लेखानुसार फाल्गुन सुदि 9 वि.सं. 1506 में प्रतिष्ठित) शांतिनाथ जिनालय, हनुमानगढ़ में प्राप्त नमिनाथ जी की चौबीसी प्रतिमा (लेखानुसार ज्येष्ठ वदि 7 गुरुवार वि.सं. 1507 में प्रतिष्ठित)
महावीर पाट परम्परा
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