SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समुतिसाधु सूरि' रखा गया। उनके कालधर्म के उपरांत तपागच्छ के नायक के रूप में इन्होंने अपने दायित्व का कुशल वहन किया। इनके आचार्य पद / गच्छनायक पद प्रदान महोत्सव का संपूर्ण आयोजन सेठ सायर कोठारी एवं श्रावक श्रीपाल ने किया। वटपल्ली नगर में श्री शामला पार्श्वनाथ जी की छत्रछाया में साधनारत् रहकर इन्होंने 3 महीने तक विधिपूर्वक सूरिमंत्र की समाराधना की। उसमें भी कोई एक सफेद वस्तु के भोजन से ही आयंबिल की कठोर तपस्या करते थे। इसके प्रभाव से अधिष्ठायक देव ने प्रत्यक्ष होकर शासन प्रभावना में गुरुदेव की सहायता की। एक बार आचार्यश्री जी का प्रवेश मंडपदुर्ग नामक नगर में हुआ। शाह जीउजी ने वहाँ आचार्यश्री समुतिसाधु सूरि आदि साधु-साध्वी वृंद का भव्यातिभव्य प्रवेश करवाया। उस सेठ को प्रतिबोध देकर आचार्यश्री ने वस्तुतः सही अर्थ में जिनधर्म से जोड़ा। सेठ ने 11 शेर वजन की सुवर्ण (सोने की) प्रतिमा एवं 22 शेर वजन की चांदी का भव्य प्रतिमाजी निर्मित कराई एवं सुमतिसाधु सूरि जी से प्रतिष्ठित कराई। ऐसी रोचक बातों का वर्णन पं. लावण्यसमय गणि जी कृत 'सुमतिसाधुसूरि विवाहलो' ग्रंथ में है। श्री सुमतिसाधु सूरि जी शांत प्रवृत्ति के तथा सादगी प्रिय थे। अपने गच्छ में किसी प्रकार का क्लेश उन्हें पसंद नहीं थे। उग्र तपस्या के प्रभाव से उनके पास संयम जीवन की विशिष्ट शक्तियां रही। महीने की पाँचों पर्वतिथि को वे आयंबिल करते थे। उन्होंने अनेक अवसर पर वर्धमान तप आयंबिल की ओली की दुष्कर आराधना की। ग्रामानुग्राम जिनशासन की महती प्रभावना कर अनेक शिष्यों को उन्होंने तैयार किया। साहित्य रचना : आचार्य सुमतिसाधु सूरीश्वर जी की अधिक कृतियां प्राप्त नहीं होती हैं। उनकी दो प्रमुख रचनाएं हैं - दशवैकालिक सूत्र आगम की लघु टीका एवं सोमसौभाग्यकाव्य जिसमें उन्होंने अपने पूर्वाचार्य श्री सोमसुंदर सूरि जी का जीवन चरित्र पद्यबद्ध तरीके से सुंदर रूप में प्रस्तुत किया है। संघ व्यवस्था : तपागच्छ में किसी प्रकार के अंतरंग भेद उत्पन्न न हो एवं विरोध के स्वर प्रकट न हो, महावीर पाट परम्परा 190
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy