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________________ कपर्दी देव ने आचार्यश्री के चरणों में प्रकट होकर कहा – “पूज्यवर मैंने जीवनपर्यन्त पाप ही पाप का सिंचन किया है। आपके निमित्त से नवकार के एक बार स्मरण मात्र से मैं इस देव ऋद्धि को प्राप्त हुआ। कृपा करके कोई कार्य बतलायें कि मैं पाप की निवृत्ति करूँ।" गुरुदेव ने कहा तुम्हारी इच्छा हो तो शाश्वत तीर्थ शत्रुजय की सेवा भक्ति कर सुलभबोधि का उपार्जन करो। गुरुवचन को स्वीकार कर कपर्दी यक्ष शत्रुजय तीर्थ के अधिष्ठायक देव बने। (कई इतिहासकार यह प्रसंग आचार्य वज्रसेन सूरि जी के बजाए आचार्य वज्रस्वामी से भी जोड़ते हैं) कालधर्म : मात्र 9 वर्ष की आयु में चारित्र अंगीकार कर 119 वर्ष का संयम जीवन व्यापन करने के बाद 128 वर्ष की आयु में वीर निर्वाण संवत् 620 (वि.सं. 150, ईस्वी सन् 93) में स्वर्गवासी हुए। इनके प्रभावक शिष्य मुनि चन्द्र यावत् आचार्य चन्द्र सूरि जी इनके सुयोग्य पट्टधर हुए। आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र उनके समकालीन हुए। . समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र : ज्ञानयोग तथा ध्यानयोग के विशिष्ट साधक आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने 17 वर्ष की आयु में वि.सं. 97 (ईस्वी सन् 40) में आचार्य आर्यरक्षित सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। उनसे उन्होंने 9 पूर्वो का अध्ययन किया। शास्त्रों के अनवरत मनन-चिंतन-पुनरावर्तन-तपोमयी दुष्कर ध्यान साधना के परिणामस्वरूप उनका शरीर अत्यंत कृश हो गया था। दुर्बलिका पुष्यमित्र - उनका यह नाम उनकी शारीरिक दुर्बलता के कारण था। एक बार बौद्ध भिक्षु आचार्य आर्यरक्षित के पास आए। उन्होंने बौद्धों की ध्यान प्रणाली की प्रशंसा की तथा जैन संघ की ध्यान साधना पर कटाक्ष किया। आचार्य आर्यरक्षित ने दुर्बलिका पुष्यमित्र को लक्षित किया तथा अप्रमत्त ध्यान साधक बताया। बौद्ध उपासक को शंका हुई कि मुनि के दौर्बल्य का कारण साधना नहीं बल्कि योग्य आहार का अभाव है। गुरु आज्ञा से दुर्बलिका पुष्यमित्र कई दिन बौद्ध उपासकों के साथ रहे। उनकी दिनचर्या, उत्कृष्ट साधना, संयम जीवन की फिर बौद्धों ने भी प्रशंसा की। महावीर पाट परम्परा
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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