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इस समय जिनकल्प का विच्छेद हो जाने से सभी जैन साधु-साध्वी जी श्वेत (सफेद) और सादे वस्त्र पहनते थे। किंतु वी.सं. 609 में रथवीरपुर में आचार्य कृष्णर्षि के शिष्य शिवभूति ने वस्त्र - पात्र छोड़कर नया मत स्थापित किया जो बोटिक मत कहलाया। यह दिगम्बर परम्परा में विकसित हुआ।
कपर्दी यक्ष की उत्पत्ति :
एक बार विहार करते-करते आचार्य वज्रसेन सूरि जी सौराष्ट्र के मधुमती (महुवा) नगर में पधारे। वहाँ कपर्दी नाम का वणकर रहता था। उसकी आड़ी व कुहाड़ी नामक 2 पत्नियां थीं। कपर्दी अभक्ष्य और अपेय में आसक्त होकर माँस मदिरा का सेवन करता था। एक दिन शराबी शालवी को दोनों स्त्रियों ने उपालम्भ दिया जिससे वह कपर्दी जंगल में जाकर चिंतन अवस्था में बैठ गया। इधर से आचार्य वज्रसेन सूरि जी जंगल में स्थंडिल भूमि पधार रहे थे। कपर्दी ने आचार्यश्री को वंदन किया। आचार्य श्री को आभास हो गया कि इस व्यक्ति की आयु अब अधिक नहीं है। उन्होंने उसे अल्पायु वाला जान उपदेश दिया कि तुम कुछ व्रत नियम लो जिससे कुछ कल्याण हो । कपर्दी ने कहा " आपको जो उचित लगे, वह पच्चक्खाण दो ।" वज्रसेन सूरि जी ने कहा " तू गंठसी पच्चक्खाण कर यानि जब भोजन करे तब उससे पहले कंदोरा की डोरी की गांठ छोड़ ‘णमो अरिहंताण' और जब भोजन कर लो तब पुनः गांठ लगा देना। जब तक गाँठ रहे कुछ खाना नही । गाँठ छोड़ने तक नवकार मंत्र कहकर खाना खा सकते हो।" कपर्दी ने गुरुवचन स्वीकार किया। भाग्ययोग से उसने उसी दिन से नियम पालन चालू किया किंतु उसी दिन सर्प के गरलयुक्त माँस भोजन से कपर्दी की मृत्यु हो गई । नियम के प्रभाव से वह मृत्यु के उपरान्त वह व्यंतर निकाय की योनि में देव बना ।
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कपर्दी के मरण के बाद उसकी दोनों स्त्रियों को यह प्रसंग पता चला। उन दोनों ने राजा के पास आचार्य वज्रसेन सूरि के विरुद्ध फरियाद की। राजा ने एक पक्ष की बातें सुन आचार्यश्री को पहरे में बिठवा दिया । व्यंतर निकाय में देव बने कपर्दी को यह ज्ञात हुआ कि मेरे परम उपकारी गुरु का इतना अपमान हो रहा है, वे संकट में हैं। कपर्दी व्यंतर ने शहर प्रमाण शिला विकुर्वी और लोक में आकाशवाणी करवाई कि आचार्य वज्रसेन सूरि जी अत्यंत संयमी, महा-उपकारी तथा निर्दोष हैं। राजा तथा प्रजा ने तत्क्षण ही आचार्य वज्रसेन सूरि जी से क्षमायाचना की तथा बहुमान पूर्वक सम्मान किया ।
महावीर पाट परम्परा
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