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________________ आचार्य आर्यरक्षित के कई समर्थ शिष्य थे - दुर्बलिका पुष्यमित्र, फल्गुरक्षित, विंध्य, गोष्ठामाहिल, घृत पुष्यमित्र, वस्त्र पुष्यमित्र इत्यादि । आचार्य श्री ने दुर्बलिका पुष्यमित्र को अपने पाट पर स्थापित किया । वि.सं. 127 में दुर्बलिका पुष्यमित्र आचार्य बने तथा संघ का दायित्व किया। किंतु उनके गुरुभाई गोष्ठामाहिल तार्किक एवं वादी तथा महत्त्वकांक्षी मुनि थे। स्वयं को आचार्य न बनाए जाने के कारण वे दुर्बलिका पुष्यमित्र से ईर्ष्या करने करने लगे। आर्यरक्षित सूरि जी के कालधर्म पश्चात् गोष्ठामाहिल संघ में सम्मिलित नहीं हुआ। मोहनीय कर्म की प्रबलता तथा उग्र अहंकार के कारण गोष्ठामाहिल में मिथ्या अभिनिवेश उत्पन्न हुआ। आगमों में कर्मबंधन की प्रक्रिया को पढ़ते समय वह उलझ गया। गोष्ठामाहिल का अभिमत था कि आत्म प्रदेशों के साथ कर्म का केवल स्पृष्ट अवस्था में ही बंध होता है, अन्य रूप से नहीं। आगमों के वचन उसने स्वीकार नहीं किए। आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र के बार-बार समझाने पर भी गोष्ठामाहिल यही मानता रहा कि बद्ध तथा बद्ध-स्पृष्ट जैसे बंध नहीं होते। अतः उसने अपना नया मत चालू किया जो उस समय 'अबद्धिक मत' के नाम से जाना गया। गोष्ठामाहिल को जैन परम्परा में सातवां निन्हव माना गया है। विशिष्ट ध्यान साधना से आत्मा को भाषित कर आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र वि.सं. 147 ( ईस्वी सन् 90 ) में स्वर्ग संपदा के स्वामी बने। महावीर पाट परम्परा 67
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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