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________________ अपने सांसारिक पुत्र के निमित्त से वह रत्न वोहरा लिया । निस्संदेह उनका आगमाध्ययन-ज्ञानसर्जन सुविशाल था। उनकी वक्तृत्व कला भी निस्संदेह प्रभावक थी। किंतु वे बस अपने रत्नों के प्रति आसक्ति का त्याग नहीं कर पा रहे थे। कालक्रम में वे आचार्य पद से विभूषित हुए। उनका आगमन एक बार धवलक नगर में हुआ। सुबह प्रवचन श्रवण कर गया सुघन श्रावक (वीशा पोरवाड) दोपहर में वंदन करने आया तो उसने उपकरण का पडिलेहण करते आचार्य रत्नाकर सूरि के सन्निकट रत्न पड़े देखे। उसका सम्यक् श्रावकत्व जागृत हो उठा। उनके जैसे विद्वान, बहुश्रुत आचार्यवृंद को उसने युक्तिपूर्वक सन्मार्ग पर लाने की प्रतिज्ञा की । उस विवेकी श्रावक ने पास जाकर उन्हें वंदना की और बोला कि मैं एक गाथा का अर्थ पूछना चाहता हूं। रत्नाकर सूरि जी ने स्वीकृति दी तो वह बोला - महावीर पाट परम्परा दोससय मूल जालं पुव्वरिसि विवज्जियं जइवंतं । अत्थं वहसि अनत्थं कीस अनत्थं तवं चरसि ? छह महीने तक बार-बार वह एक ही श्लोक का अर्थ उनसे पूछता रहा । अन्ततः रत्नाकर सूरि जी जैसी भद्रिक सरलात्मा का आत्मचिंतन जगा जिससे उन्हें अत्यंत आत्मग्लानि हुई। उनकी नजर अपने ही रत्नों पर गई और उन्होंने सोचा कि जब तक मैं यह 'जाल' अपने पास रखूंगा तब तक परिग्रह त्याग का अर्थ कैसे कर सकूंगा? उस दिन उन्होंने श्रावक को घंटों तक उस श्लोक का अर्थ समझाया और रत्नों का चूरा - चूरा कर दिया एवं माघ सुदि 7 वि.सं. 1371 के दिन शत्रुंजय तीर्थ पर हुई ऐतिहासिक प्रतिष्ठा के समय 25 श्लोकों आत्म- आलोचना व वैराग्यतरंगिणी युक्त संस्कृत भाषा में 'रत्नाकर पच्चीसी' की रचना की। 158
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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