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________________ इसके अनेकों कारण हैं। वर्तमान में पारस्परिक संपर्क के जितने साधन हैं, उतने प्राचीनकाल में नहीं थे। एक नियमित क्षेत्र में विचरण करने वाले साधु-साध्वी जी भगवंतों ने कई बार अपने नेतृत्त्व के लिए नूतन गुरु भगवंतों का चयन कर लिया। जब श्रमण समुदाय अति विशालता को प्राप्त करता है एवं दूर-सुदूर जगहों में भी विचरण करता है, तब उसकी व्यवस्था का दायित्व बाँटने हेतु शाखाएं बन गई। कई बार एक आचार्य के कई शिष्य हैं, वे सभी आचार्य पद को प्राप्त हुए। उनके आगे शिष्यों ने अपने गुरु की परम्परा को आगे बढ़ाकर नई शाखा प्रचलित कर दी। मतभेद और मनभेद के कारण भी कई शाखाओं-प्रशाखाओं का जन्म हुआ। सिद्धांत और समाचारी विषयक मतभेदों में कई परम्पराएं भिन्न हुई हैं अथवा नेतृत्त्व हेतु नियुक्त आचार्य से व्यवहार अथवा आचार आदि भेदों के कारण भी अनेकों शाखा-प्रशाखाओं का जन्म हुआ। स्वगच्छ-दृष्टिराग के अभाव में यह व्यवस्था पोषक कही जा सकती है। इसका आदि (प्रारंभ) है किन्तु अन्त दृष्टिगोचर नहीं होता। कौन सही है, कौन गलत है - इस व्यायोह में पड़ना उद्देश्य नहीं है। । भगवान् महावीर की प्रभावशाली पाट परम्परा का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। यद्यपि भगवान् महावीर के जन्म ग्रह को भस्म ग्रह ने संक्रान्त कर लिया था, जिसके दुष्प्रभाव से प्रभु वीर के निर्वाण के दो हजार वर्षों तक जिनशासन की प्रगति में अन्तरायों की बात थी किंतु इतिहास साक्षी है कि पट्टाचार्यों ने अपनी दर्शन-ज्ञान-चारित्र सम्पन्नता के बल पर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघ के संरक्षण और संवर्धन का महत्त्वपूर्ण दायित्व कुशलतापूर्ण रूप में निभाया। पाट परम्परा, गुरु परम्परा, स्थविर परम्परा, युगप्रधान परम्परा (अपने काल में हुई विशिष्ट गुणों से युक्त आत्माएँ युगप्रधान कहलाती हैं) आदि के सम्यक् अनुशीलन से यह विदित होता है कि आचार्य सुधर्म स्वामी जी यह परम्परा. अनेक रूपों में विशिष्ट है। - संघ संचालन का दायित्व संघ की सारणा-वारणा-चोयणा-पडिचोयणा का दायित्व पट्टाचार्यों के पास सुरक्षित होता है। जिस तरह एक गुरु के पास अपने शिष्य हित के लिए यह अधिकार होते हैं, उसी प्रकार पट्टधर गुरु के पास चतुर्विध संघ के लिए यह अधिकार होते हैं। सारणा यानि स्मरण कराना xii
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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