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________________ है। स्तोत्र का प्रथम शब्द स्वयंभू होने से यह स्वयंभू स्तोत्र के नाम से जाना गया। स्तुति प्रधान होने पर भी न्याय एवं दर्शन के मौलिक बिंदुओं की अभिव्यक्ति तथा ऐतिहासिक बिंदुओं का समावेश रचनाकार आ. समन्तभद्र सूरि जी के बहुमुखी व्यक्तित्त्व को प्रदर्शित करता है। युक्त्यनुशासन - अर्थ गरिमा से परिपूर्ण इस दार्शनिक ग्रंथ में 64 पद्य हैं। विभिन्न दर्शनों के विविध विषयों का पर्याप्त विवेचन एवं स्व-पर मत के गुण दोषों का युक्तिपूर्ण निरूपण है। जिनधर्म के प्रति अगाध आस्था को प्रकट करने हेतु वे लिखते हैं - "जिन! त्वदीयं मतमद्वितीयम्" यानि हे जिनेश्वर! आपका मत ही अद्वितीय है। यह एक प्रौढ़, गंभीर व संक्षिप्त सूत्रात्मक रचना है। ‘युक्त्यनुशासन' शब्द की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं - '-'दृष्टागमाभयामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते" यानि युक्तिपूर्वक प्रत्यक्ष और आगम सम्मत अर्थप्रतिपादन का अनुशासित क्रम ही युक्त्यनुशासन है। स्तुति विद्या (जिन-स्तुति-शतक) - 116 पद्ययुक्त इस स्तवना प्रधान कृति में तीर्थंकर परमात्माओं का गुणोत्कीर्तन किया है। यह कृति उनकी विद्यता की परिचायक है। एक श्लोक में एक ही अक्षर द्वारा पूरा श्लोक बनाया है ततोतिता तु तेतीतः तोतृतोतीतितोतृतः ततोऽतातिततोतोते ततता ते ततो ततः॥" इस प्रकार उन्होंने अन्य श्लोक भी रचे एक श्लोक की रचना केवल 4 अक्षरों से ही हुई है येयायायाययेयाय नानाननाननानन। ममाममाममामामि ताततीतितीतितः॥ कई पद्य ऐसे हैं जो अनुलोम-प्रतिलोम शैली में लिखे हैं। एक श्लोक के अक्षरों को उल्टा कर के नया श्लोक बना है। जैसे रक्षमाक्षरवामेश शमीचारुरुचानुतः भो विभोनशनजोरुननेन विजरामय॥ (अनुलोम क्रम) महावीर पाट परम्परा
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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