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सारेगाम भावनगर में प्रतिष्ठा आदि मंगलकार्य सम्पन्न हुए। अहमदाबाद, खेड़ा, भरूच, सूरत, गिरनार, जामनगर, बुरानपुर, चांपानेर, लूंबड़ी, पाटण, राधनपुर इत्यादि अनेकों जगह चातुर्मास किए। साहित्य रचना :
पंन्यास उत्तम विजय जी ने कवित्व शैली में कृतियां रची। महावीर स्तवन - राधनपुर (वि. सं. 1809) ; संयमश्रेणि भगवान् महावीर स्तवन - सूरत (वि.सं. 1799) ; अष्टप्रकारी पूजा (वि.सं. 1823) ; पं. जिन विजय रास - सूरत (वि.सं. 1799) ; शत्रुजय तीर्थ का स्तवन - शत्रुजय (वि.सं. 1827)। कालधर्म :
पंन्यास उत्तम विजय जी को आँखों की अत्यधिक पीड़ा हुई। सभी औषधियां निष्प्रभाव हुई। उपचार के लिए वे राजनगर (अहमदाबाद) पधारे। एक दिन उन्हें ताप (बुखार) आया। नौ दिन तक उन्हें असह्य वेदना हुई किंतु वे धर्मध्यान में लीन रहे।
माघ सुदि 8 वि.सं. 1827 के दिन 67 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। संघ में शोक की लहर दौड़ पड़ी। गुरुभक्त श्रावकों ने पार्थिव देह का अग्नि संस्कार किया एवं हरिपुरा में स्मरणार्थ स्तूप निर्मित किया गया। उनके पट्टधर पंन्यास पद्म विजय जी हुए। ___ इनके शासनकाल में ही तेरापंथ संप्रदाय का उद्भव हुआ। स्थानकवासी आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य भीखण जी (भिक्षु जी) ने प्रमुख रूप से दान और दया के विषय में लौकिक और लोकोत्तर भेद रेखा खींची और चैत्र शुक्ला 9, वि.सं. 1817 (ईस्वी सन् 1760) के दिन स्थानकवासी परम्परा से संबंध विच्छेद कर उनसे अलग हो गए। ___ आचार्य भिक्षु ने इसी वर्ष केलवा गांव में आषाढ शुक्ला पूर्णिमा को अपने साथियों सहित नई दीक्षा ग्रहण की। जोधपुर के तत्कालीन दीवान फतेहचंद सिंघवी ने यह जाना कि वे तेरह (13) श्रमण हैं। राजस्थानी भाषा में तेरह को तेरा कहा जाता है। पास खड़े एक भोजक कवि ने पद की रचना की और उन्हें 'तेरापंथी' नाम से संबोधित किया। वहीं से तेरापंथ नाम का प्रचलन हो गया और जैनधर्म के नए संप्रदाय का उद्भव हुआ।
महावीर पाट परम्परा
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