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67. पंन्यास श्रीमद् पद्म विजय जी गणि
___पुण्यश्लोक प्रभापुंज प्रदीप, परमेष्ठी प्राणाधार।
उत्तम-शिष्य पद्म विजय जी, नित् वंदन बारम्बार॥ तीर्थभूमियों के स्पर्श से अपना सम्यग्दर्शन विशुद्ध करने वाले, स्तवन - सज्झाय - श्लोकों की रचना से अपना सम्यग्ज्ञान विशुद्ध करने वाले, यतियों के साम्राज्यकाल में भी अपनी निष्परिग्रह साधुवृत्ति से अपना सम्यक् चारित्र विशुद्ध करने वाले प्रभु वीर की परम्परा के क्रमिक 67वें पट्टधर पंन्यास पद्म विजय जी हुए। जन्म एवं दीक्षा :
अहमदाबाद नगर में शामलदास की पोल में गणेशदास नाम का श्रीमाली श्रावक रहता था। उसकी पत्नी का नाम झमकुबाई था। भाद्रपद सुदि 2 वि.सं. 1792 के दिन उनके घर पुत्र का जन्म हुआ। नवजात शिशु का नाम पानाचंद रखा गया। जब बालक 6 वर्ष का था, तब उसकी माता का देहान्त हो गया था। अतः उसका लालन-पालन-पोषण उसकी मौसी - जीवीबाई ने किया। जीवीबाई परमनिष्ठ श्राविका एवं जीवविचार, नवतत्त्वप्रकरण आदि शास्त्रों में निष्णात्
थी एवं उसने अपने भाणजे पानाचंद को भी धार्मिक संस्कारों से ओतप्रोत रखा। ___जब पानाचंद की आयु 13 वर्ष की थी. तब वह अपने मौसाजी के साथ पं. उत्तम विजय जी के व्याख्यान श्रवण हेतु जाता था। सुबह प्रवचन में प्रज्ञापना सूत्र वांचा जाता एवं दोपहर में ऋषभदेव चरित्र वांचा जाता था। उसमें महाबल मुनि के अधिकार का श्रवण करते-करते पानाचंद के हृदय में वैराग्य के बीज प्रस्फुटित हुए। उसने अपनी भावना को दृढ़ रखा एवं सुदि 5 (वसन्त पंचमी) वि.सं. 1805 के दिन चारित्र ग्रहण की भावना ने मूर्त रूप लिया। पाच्छावाड़ी, अहमदाबाद में यह दीक्षा सम्पन्न हुई एवं वे पंन्यास उत्तम विजय जी के शिष्य मुनि पद्म विजय जी घोषित हुए। शासन प्रभावना :
मुनि पद्म विजय जी विद्यानुरागी थे। यतिवर्य सुविधि विजय जी से उन्होंने सूरत में शब्दशास्त्र, पंचकाव्य, छंद-अलंकार शास्त्र सीखे। गीतार्थ गुरुओं से अंग-उपांग आदि आगमों में दक्षता प्राप्त महावीर पाट परम्परा
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