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59. आचार्य श्रीमद् विजय सेन सूरीश्वर जी
सवाई सूरि आचार्य श्री सेन, वाक्पटु सद्विचार।
अकबर प्रभावक - संघ सुधारक, नित् वंदन बारम्बार॥ शासन नायक भगवान् महावीर स्वामी जी की पाट परम्परा के 59वें क्रम पर आचार्य विजय सेन सूरि जी हुए। अपने व्यक्तित्त्व से बादशाह अकबर को प्रभावित कर जैनधर्म में उनकी आस्था को सुदृढ़ करने का एवं अपने गुरु विजय हीर सूरि जी की ख्याति को और अधिक विस्तृत कर शासन की प्रभावना करने का श्रेय इन्हें जाता है। जन्म एवं दीक्षाः
नाडलाई (मारवाड़) में फाल्गुन सुदि पूर्णिमा वि.सं. 1604 (सन् 1547) को पिता कुरांशाह (कुमेशाह) व माता. कुडभी देवी के सद्गार्हस्थ्य से उत्तम लक्षण वाले पुत्र का जन्म हुआ। सामुद्रिक शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों ने बालक के प्रबल यश नाम कर्म का कथन किया। माता-पिता ने पुत्र का नाम- 'जय सिंह कुमार' रखा। ____ जब बालक 7 वर्ष का था, तब उसके पिता ने अपनी धर्म पत्नी की आज्ञा से सं. 1611 में विजय दान सूरीश्वर जी म के पास दीक्षा ग्रहण की। माता-पुत्र दोनों संसार में अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे। एक दिन जयसिंह कुमार एवं उसकी माता ने विचार किया कि विजय दान सूरि जी के दर्शन हेतु सूरत जाए। कहा गया है- हल्के कर्मी जीव को उपदेश जल्दी लग जाता है। दान सूरि जी की देशना सुन जय सिंह कुमार व माता को वैराग्य हुआ एवं दोनों ने दीक्षा लेने का निश्चय किया।
ज्येष्ठ सुदि 11 संवत् 1613 (सन् 1556) को सूरत में माता-पुत्र की दीक्षा हुई। इनका दीक्षा का नाम- 'मुनि जयविमल विजय' दिया गया एवं वे हीर सूरि जी के शिष्य घोषित हुए हीर सूरि जी की निश्रा में रहते उन्होंने न्याय, व्याकरण, तर्क आदि ग्रंथों का अभ्यास किया। शासन प्रभावनाः
खंभात में फाल्गुन सुदि 10 वि.सं. 1626 (सन् 1569) में मुनि जयविमल विजय जी को
महावीर पाट परम्परा
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