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________________ की उनसे माँग की। सभी साधु-साध्वी जी भगवंतों ने सुनन्दा को समझाया कि जिस प्रकार गुरु को आहार, वस्त्र आदि वोहराने के बाद पुन: वापिस नहीं लिए जा सकते, उसी प्रकार पुत्र पर अब गुरु का ही अधिकार है। निरूपाय सुनन्दा राजा के पास पहुँची एवं न्याय माँगा। आचार्य सिंहगिरि को भी श्रमण परिवार सहित राजदरबार बुलाया गया। सारा वृत्तान्त राजा को सुनाया गया। राजा ने अंत में आज्ञा दी कि बालक स्वेच्छा से जिसको चाहेगा, वह उसी का होगा। एक ओर खिलौने और मिठाई से पुत्र को माँ आकर्षित करती रही, किंतु बालक वज्र उदासीन भाव से मौन बैठा रहा। तब पिता मुनि धनगिरि ने रजोहरण (ओघा) वज्र के सामने रखा। वज्र उछलते-उछलते आकर वह रजोहरण ग्रहण करता है और खुशी से नाच उठता है। न्याय मुनि धनगिरि को मिला। जिनशासन की जय-जयकार से राजसभा गूंज उठी। सुनन्दा ने आत्मचिंतन कर सोचा कि मेरे भाई और पति दीक्षित हैं । पुत्र भी दीक्षा के लिए संकल्पबद्ध है। अतः मुझे भी आत्मकल्याण हेतु इस पथ का अनुसरण करना चाहिए। यह सोचकर सुनन्दा ने भी आचार्य सिंहगिरि के पास दीक्षा ग्रहण की। बालक वज्र का पालन-पोषण श्राविकाएं करती रहीं। बालक वज्र जब 8 वर्ष का हो गया, तब वी. नि. 504 (वि.सं. 34 ) में आचार्य सिंहगिरि ने उसे दीक्षा प्रदान की एवं वज्र मुनि को अपना शिष्य घोषित किया। शासन प्रभावना : बालमुनि वज्र विनयं - विवेक और उपशम के गुणों से युक्त थे। सुविनीत मुनि वज्र ने गुरु के सन्निकट रहकर श्रुतज्ञान का गंभीर अध्ययन किया। उनकी प्रखर योग्यता के कारण वे गुरु के भी प्रिय पात्र बन गए । पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाने में भी वे कुशल बन रहे थे। एक बार एकान्त में उपकरणों को ही श्रमण मानकर वे उत्सुकतावश वाचना प्रदान करने लगे। आचार्य सिंहगिरि जब लौटे, तो मात्रा - बिंदु सहित शुद्ध शब्द एवं सरस- सरल शैली सुनकर उन्हें अत्यंत हर्ष हुआ। ज्ञानसंपन्न बालमुनि वज्र को उन्होंने अन्य साधुओं को वाचना प्रदान करने के लिए नियुक्त किया। सभी मुनि गुरु के इस निर्णय से अचंभित हो गए किंतु बाद में उन्हें इसका औचित्य पता लगा। एक बार बालमुनि वज्र के विवेक की परीक्षा लेने, उनके पूर्वभव के मित्र जृंभक देव ने कुतूहलवश उनके सामने अकल्प्य आहार प्रस्तुत किया। लेकिन वज्र मुनि जी अखंड संयम के धनी थे। अकल्प्य भोजन को उन्होंने स्पर्श तक नहीं किया। बालमुनि के आचार कौशल से देव अत्यंत प्रसन्न हुआ एवं वज्रमुनि को वैक्रिय विद्या एवं गगनगामिनी विद्या प्रदान की। गुरु ने भी बालमुनि को इसके योग्य जाना। महावीर पाट परम्परा 57
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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