________________
अवन्ति में विराजित दशपूर्वधर आचार्य भद्रगुप्त से तपोयोगपूर्वक मुनि वज्र ने 10 पूर्वो की सुविशाल ज्ञानराशि को गंभीरतापूर्वक अति अल्प समय में ग्रहण किया। वी.नि. 548 (वि.सं. 78, ईस्वी सन् 21) में वे आचार्य पद से विभूषित किए गए। वे 500 श्रमणों के साथ विचरण करते थे। ___ आचार्य वज्रस्वामी का बाह्य रूप एवं आंतरिक रूप दोनों ही उत्तम कोटि के थे। पाटलिपुत्र के धन सेठ की पुत्री रूक्मिणी आचार्यश्री के रूप पर मोहित हो गई। उसने ठान ली कि मैं वज्रस्वामी के साथ विवाह करूँगी अन्यथा अग्निदाह (आत्महत्या) कर लूंगी। आचार्य वज्रस्वामी तो बाल ब्रह्मचारी, अखंड शील के स्वामी थे। रूक्मिणी (धन सेठ की पुत्री) के सब अनुनय-विनय व्यर्थ ही गए क्योंकि आचार्य श्री अपने ब्रह्मचर्य व्रत में अडिग-अडोल-अटल थे। आचार्य वज्रस्वामी ने अपनी आत्मस्पर्शी वाणी में रूक्मिणी को समझाया कि संयम रूपी धन की तुलना में ये विषय भोग तुच्छ हैं। यदि तुम मेरे में अनुरक्त हो, तो अनुरक्ति की दिशा मेरे द्वारा स्वीकृत ज्ञान, दर्शन युक्त चरित्र मार्ग में मोड़ो तथा अनुसरण करो। सहज सुमधुर उपदेशधारा से रूक्मिणी के अन्तर्नयन खुल गए। उसने वज्रस्वामी से दीक्षा ग्रहण की तथा श्रमणी समुदाय में सम्मिलित होकर आत्म कल्याण किया।
श्री आचारांग सूत्र के महापरिज्ञा अध्ययन से वज्रस्वामी जी ने गगनगामिनी विद्या को उद्धृत किया। इसके प्रभाव से जंबूद्वीप के मानुषोत्तर पर्वत तक निर्बाध गति से आकाश मार्ग से जाने की क्षमता आ जाती है। वज्रस्वामी के जीवनकाल में 2 बार दुष्काल की स्थिति बनी। प्रथम 12 वर्षीय दुष्काल के समय उनका पर्दापण पूर्व से उत्तरापथ की ओर हुआ। भर्यकर सूखे से त्राहि-त्राहि मच गई। तब संघ के आग्रह से वज्रस्वामी जी ने अपनी आकाशगामिनी विद्या के प्रयोग से संघ को उत्तर भारत से महापुरी (जगन्नाथपुरी) ले आए। यहाँ सुकाल की स्थिति थी एवं सभी जैन वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। वहाँ के जिनमंदिरों की भी आचार्यश्री ने अच्छी व्यवस्था कराई। महापुरी के बौद्ध धर्मानुयायी राजा ने पर्युषण पर्व में अनेक बाधाएं पहुँचाने का प्रयत्न किया किंतु वज्रस्वामी के विद्या प्रयोग से सब निरस्त हो गई। प्रजा सहित राजा भी वज्रस्वामी जी का भक्त बन गया। __वी.स. 578 (वि.सं. 108) के सन्निकट जावड़शाह ने शत्रुजय गिरिराज पर नया जिनप्रासाद निर्मित कराया। वज्रस्वामी जी जब शत्रुजय पधारे तक 21 दिन तक एक देव ने खूब उपद्रव किया था, लेकिन आचार्यश्री के विद्याबल से वह निरस्त हो गया। जावड़शाह ने शत्रुजय पर्वत
महावीर पाट परम्परा