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रोग एवं युद्ध का भय तथा राक्षस, शत्रुसमूह, महामारी, चोर, पशु, शिकारी भूत पिशाच व डाकिनियों का उपद्रव शांत होता है। “ॐ नमो नमो ह्राँ ह्रीं हूँ ह्रः यः क्षः ह्रीं फुट् फुट् (फट् फट्) स्वाहा " मंत्र भी प्रयोग किया है। अंतिम गाथा में अपना नामोल्लेख करते हुए वे लिखते हैं
“यश्चैनं पठति सदा, श्रृणोति भावयति वा यथायोगम् । स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिः श्री मानदेवश्च ॥”
लघु शांति की तरह शाकंभरी नगरी में शाकिनी व्यंतरी के उपद्रव को शांत करने के लिए उन्होंने प्रसिद्ध 'तिजयपहुत्त' स्तोत्र की रचना की । तिजयपहुत्त स्तोत्र में 170 तीर्थंकर परमात्माओं की स्तवना है। यह 14 गाथाओं का है। स्तोत्र के पाठ "ॐ ह र हुं हः स र सुं सः, ह र हुं हः" के आधार पर ही महाप्रभावक सर्वतोभद्र यंत्र की संरचना की गई है।
कालधर्म :
जिनशासन की महती प्रभावना करते हुए मानतुंग सूरि जी को अपने पाट पर स्थापित कर उन्होंने गिरनार पर्वत पर जिनकल्प सदृश संलेखनापूर्वक अनशन स्वीकार किया । वि. सं. 261 ( वीर निर्वाण 731 ) में गिरनार तीर्थ पर वे स्वर्गवासी बने ।
महावीर पाट परम्परा
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