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________________ 16. आचार्य श्रीमद् समन्तभद्र सूरीश्वर जी सरस्वती के सौम्य साधक, संस्कृत प्रभुत्व अधिकार। श्री समंतभद्र वनवासी नामे, नित् वंदन बारम्बार॥ संस्कृत भाषा के विलक्षण विद्वान आचार्य समन्तभद्र सूरि जी भगवान् महावीर के 16वें पट्टविभूषक थे। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में इनकी स्वीकार्यता है क्योंकि इनकी जीवन शैली अत्यंत उत्कृष्ट थी। प्रमुख रूप से वनों में विचरण करने से इनके समय में निग्रंथ गच्छ / चन्द्र गच्छ वनवासी गच्छ के नाम से प्रचलित हुआ। जन्म एवं दीक्षा : इनके प्रारंभिक जीवन के विषय में ऐतिहासिक साक्ष्यों का अभाव है। कुछ इतिहासविदों ने इनके विषय की श्वेताम्बर तथा दिगम्बर सामग्री का अनुशीलन कर फरमाया है कि वे दक्षिण भारत के उरगपुर नरेश के क्षत्रिय पुत्र थे। प्रथमतः उन्होंने दिगम्बर परम्परा में दीक्षा ग्रहण की। एक बार मुनि समन्तभद्र को भीषण भस्मक व्याधि ने आक्रान्त कर लिया, जिसके कारण वे जो भी कुछ खाते वह अग्नि में गिरे हुए कण की भाँति भस्म हो जाता। भूख असह्य हो गई। कोई उपचार न देखकर उन्होंने अनशन करने का सोचा किंतु गुरु ने उन्हें आज्ञा नहीं दी। दिगम्बर मुनि समन्तभद्र ने रोगोपचार हेतु मुनि मुद्रा का परित्याग कर दिया। वाराणसी आकर वे रोगमुक्त हुए। एक शिवलिंग पर तीर्थंकर स्तुति करने से काशी में चंद्रप्रभ स्वामी जी की प्रतिमा प्रकट हुई। तभी से उनकी काव्यशक्ति का विकास प्रारंभ हुआ। व्याधिमुक्त होने के बाद उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्र गच्छ के आचार्य चन्द्र सूरि जी के पास दीक्षा ली। समन्तभद्र को सुयोग्य जानकर चन्द्र सूरि जी ने उन्हें मुनि वेश प्रदान किया। शासन प्रभावना : मुनि समन्तभद्र जी ने आचार्य चन्द्र सूरीश्वर जी की निश्रा में रहते हुए आगम ग्रंथ-शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। उनकी काव्य शक्ति व प्रवचन शक्ति अच्छी थी। साधुता के प्रति उनके हृदय में बहुत अहोभाव था। वे प्रायः संघ-समाज से दूर रहकर स्वाध्याय, जाप आदि में लीन रहते थे। उनकी योग्यता देखते हुए उन्हें आचार्य पदवी प्रदान की गई। महावीर पाट परम्परा 70
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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