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6. आचार्य श्रीमद् सम्भूत विजय जी
आचार्य श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी जी
प्रवचनप्रभावक संभूतविजय जी, भद्रिकता अपार।
भद्रस्वभावी भद्रबाहु जी, नित् वंदन बारम्बार॥ जिनशासन में श्रुतकेवली की परम्परा को देदीप्यमान करने वाले आ. यशोभद्र सूरि जी के सुयोग्य आचार्यद्वय शिष्यरत्न - आचार्य संभूत विजय जी एवं आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी जी भगवान् महावीर की परम्परा के छठे पट्टधर बने। वे दोनों संयम साधना एवं ज्ञान-आराधना के जाज्वल्यमान सूर्य थे। जन्म एवं दीक्षा :
आचार्य सम्भूतविजय का जन्म वीर निर्वाण संवत् 66 (ईसवी पूर्व 461) में माढर गौत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ एवं 42 वर्ष तक गृहवास में रहने के पश्चात् आचार्य यशोभद्र सूरि जी के उपदेश से वी.नि. 108 में श्रमण दीक्षा अंगीकार की। ___ आचार्य भद्रबाहु का जन्म वी.नि. 94 (वि.पू. 433) में प्राचीन (पाईण) गौत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। चूंकि उनकी भुजाएं अत्यंत लंबी एवं सुंदर थीं, इसी कारण वे 'भद्रबाहु' के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। गृहस्थावस्था में 45 वर्ष रहने के पश्चात् जिनधर्म के प्रति अगाध आस्था होने से वी.नि. 139 यशोभद्र सूरि जी के करकमलों से भागवती प्रव्रज्या ग्रहण की। (इतिहासविदों के अनुसार, प्रस्तुत आचार्य भद्रबाहु एवं सुप्रसिद्ध उवसग्गहरं स्तोत्र के रचयिता आचार्य भद्रबाहु से भिन्न हैं) आचार्य संभूतविजय एवं भद्रबाहु के दीक्षा पर्याय में 31 वर्षों का अंतर था। शासन भावना :
आचार्य यशोभद्र सूरीश्वर जी जैसे गीतार्थ गुरुदेव की कल्पवृक्ष-सम निश्रा में मुनिद्वय का उत्तरोत्तर विकास हुआ। दोनों ने आगमों का अहर्निश अध्ययन कर 14 पूर्वो का सार्थ ज्ञान अर्जित किया। दोनों की दीक्षा में काफी अंतर था। अतः भद्रबाहु स्वामी जी के संभूत विजय जी भी गुरुतुल्य थे। यशोभद्र सूरि जी ने भीम और कान्त गुणों से युक्त होने के कारण एवं संघ के
महावीर पाट परम्परा