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________________ योग-क्षेम में सक्षम संभूत विजय जी एवं भद्रबाहु स्वामी जी दोनों को अपने पट्ट पर स्थापित किया । अवस्था में ज्येष्ठ होने के कारण यह दायित्व प्रथमतः संभूतविजय जी ने संभाला। वी. नि. 148 (वि.पू. 322) में आचार्य यशोभद्रसूरि जी के कालोपरान्त संभूतविजय जी आचार्य पद पर आसीन हुए। उस समय वे लगभग 82 वर्ष के थे। आठ वर्षों तक इस दायित्व का वहन करने के पश्चात् भद्रबाहु स्वामी जी वी.नि. 156 (वि.पू. 314 ) में आचार्य बने । आचार्य संभूतविजय जी के शासनकाल में नन्द राज्य उत्कर्ष पर था। नंदों के 155 वर्षो के शासनकाल में 9 नंद हुए, जिसमें नौवें नंद के महामात्य पद पर शकडाल मंत्री सुशोभित थे। उनके सभी पुत्र-पुत्रियों ने संसार से विरक्त होकर संभूतविजय जी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। यह उस युग में अत्यंत प्रेरणा का स्रोत बनी। उनकी प्रतिबोधशक्ति एवं उपदेश - शैली बहुत तेजस्वी मानी जाती थी। एक बार चार विशिष्ट साधक मुनि आचार्य संभूत विजय जी के पास आए। एक ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने सर्प की बांबी पर, तीसरे ने कुएं की मुंडेर पर तपपूर्वक चातुर्मास करने का अभिग्रह धारण किया और गुरु आज्ञा से विहार किया। चौथे मुनि स्थूलभद्र ने गुरु आज्ञा से वह चातुर्मास पूर्व परिचिता गणिका कोशा वेश्या की चित्रशाला में किया। चारों मुनियों ने वे चातुर्मास सफलतापूर्वक कर संभूतविजय जी के विश्वास को सुदृढ़ रखा। उनके गुरुभाई आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी भी जैन संघ के समर्थ ज्योतिर्धर थे। आचार्य संभूतविजय जी के बाद भद्रबाहु स्वामी जी ने चतुर्विध संघ का दायित्व संभाला। आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी अर्थ की दृष्टि से अंतिम श्रुतधर थे। वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्यकाल में भूमि - भारत के विभिन्न प्रान्तों को भयंकर दुष्काल (सूखे) के वात्याचक्र से जूझना पड़ा। उचित भिक्षा आदि के अभाव में अनेक श्रुतसम्पन्न मुनि काल कवलित हो गए। आचार्य भद्रबाहु के अतिरिक्त संपूर्ण संघ में कोई भी 14 पूर्वधारी न बचा। उस समय आचार्य भद्रबाहु नेपाल की पहाड़ी में महाप्राणध्यान की विशिष्ट साधना करने के लिए चले गए। महाप्राणध्यान ऐसी विशेष साधना पद्धति है जिसके बल से 14 पूर्व ज्ञानराशि का मुहूर्त मात्र (48 मिनट) में परावर्तन कर लेने की क्षमता आ जाती है। इस साधना में 12 वर्ष लगते हैं। किंतु धर्मसंघ को अत्यधिक चिंता हुई कि यदि उन्होंने ज्ञानसंपदा को दुष्काल से बचे हुए योग्य मुनियों को प्रदान न किया गया, तो यह जिनशासन श्रुतविहीन हो जाएगा। अतः श्रमण संघाटक नेपाल पहुँचे। करबद्ध होकर श्रमणों ने भद्रबाहु स्वामी जी से प्रार्थना की संघ का निवेदन है कि महावीर पाट परम्परा 29
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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