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________________ 10) शांतिनाथ जिनालय, सुतार की शेरी, थराद में प्राप्त शीतलनाथ जी की धातुप्रतिमा (लेख अनुसार ज्येष्ठ सुदि 5 सोमवार वि.सं. 1617 में प्रतिष्ठित) 11) आदिनाथ जिनालय, शत्रुजय के देवकुलिका में अभिलेखानुसार वैशाख सुदि 2 वि.सं. 1620 में प्रतिष्ठित) इनके अतिरिक्त भी दानसूरि जी म.सा. के करकमलों द्वारा प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं अनेकों स्थानों पर उपलब्ध होती हैं। कालधर्म : विचरते-विचरते अन्त समय में वे पाटण के पास वड़ावली (वटपल्ली) गाँव में पधारे। निरन्तर उनका स्वास्थ्य क्षीण होता रहा। अनशन स्वीकार कर सम्यक् आराधना करते हुए वैशाख सुदि 12 विक्रम संवत् 1622 (ईस्वी सन् 1565) में वे कालधर्म को प्राप्त हुए। श्रावकवर्ग ने शोकाकुल हृदय से महोत्सव कर अग्निसंस्कार किया एवं स्मृति के स्तूप बनवाया एवं चरण पादुका पधराई। विजय दान सूरि जी के एक शिष्य विजय राज सूरि जी से तपागच्छ की रत्नशाखा का प्रादुर्भाव हुआ जबकि दूसरे शिष्य विजय हीर सूरि जी से तपागच्छ की मूल परम्परा आगे चली। महावीर पाट परम्परा 211
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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