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58. आचार्य श्रीमद् विजय हीर सूरीश्वर जी
अकबर प्रतिबोधक हीर सूरि जी, प्रभावी धर्म प्रचार।
जगद्गुरु बिरुदधारी गुरुवर, नित् वंदन बारम्बार॥ मुगल काल में प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जिनशासन की दिव्य पताका फहराने वाले, शासनपति भगवान् महावीर के 58वीं पाट पर आए आचार्य विजय हीर सूरि जी की गणना जैन परम्परा के समृद्ध इतिहास में शासन प्रभावक आचार्य वृंदों में होती है। मुगल बादशाह अकबर को प्रतिबोधित कर उसे भी अहिंसाप्रेमी बनाने का श्रेय उन्हें जाता है। जन्म एवं दीक्षाः
पालनपुर के ओसवाल वंशीय श्रावक कुंराशाह एवं उनकी धर्मपत्नी नाथीबाई के तीन पुत्रसिंगा जी, सूरचंद और श्रीपाल व तीन पुत्रियाँ-रम्भा, रानी और विमला थीं। मार्गशीर्ष सुदि नवमी वि. स. 1583 (सन् 1526) को उत्तम नक्षत्रों-ग्रहों के योग एक अन्य बालक का जन्म हुआ। बालक का नाम 'हीर जी' रखा गया। बाल्यकाल से ही वह प्रखर बुद्धि का धनी था। एक दिन तपागच्छ के विद्वद् आचार्य दान सूरि जी का वहाँ पदार्पण हुआ जिससे उस बालक के हृदयं में धर्म के बीज अंकुरित हुए। ___ बालक की उम्र जब 10-12 साल की थी, तब पितृछाया का वियोग हो गया। हीर जी अपनी विवाहित बहनों के साथ पाटण रहने लगा। वि.सं. 1596 (सन् 1539) में दान सूरि जी पाटण पधारे। अपने भाई-बहनों की आज्ञा लेकर 13 वर्ष की उम्र में बालक हीर ने दीक्षा ली। उसी वर्ष कार्तिक वदी 2 को पाटण में उसकी दीक्षा सम्पन्न हुई। वह दान सूरि जी का शिष्य बना एवं नाम 'मुनि हीरहर्ष विजय' रखा गया। संयम जीवन व शासन प्रभावना :
दान सूरि जी के सानिध्य में मुनि हीरहर्ष विजय जी ने अहर्निश अनथक प्रयासों से जैन शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। एक दिन दान सूरि जी मुनिवर के पाण्डित्य की योग्यता
महावीर पाट परम्परा
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