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________________ 70. हरसोरा गच्छ 71. कोटिकगण गच्छ 72. वज्रीशाखा गच्छ 73. वाडियगण गच्छ ___74. उडुवाडियगण गच्छ 75. उत्तरवालसह गच्छ 76. उदेहगण गच्छ 77. आकोलिया गच्छ __78. लुणिया गच्छ 79. माजवगणा गच्छ 80. चारणगण गच्छ 81. सार्धपूनमिया गच्छ 82. स्त्रांगडिया गच्छ . 83. नींबजीया गच्छ 84. सांचोरा गच्छ प्राचीन समय में शिष्य अपने गुरुदेव के नाम से गच्छ प्रचलित कर लेते थे या क्रियोद्धार के भाव से अलग गच्छ स्थापित कर लेते थे इत्यादि। लेकिन किसी गच्छ का इतना पुण्य नहीं रहा कि शताब्दियों तक टिके। वर्तमान में मात्र तपागच्छ, खरतरगच्छ, अंचलगच्छ, विमल गच्छ एवं पायचंदगच्छ ही मूलतः दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि अन्यों में या तो शिष्य परम्परा धीरेधीरे शून्य हो गई अथवा तपागच्छ आदि में ही वापिस विलीन हो गई। तपागच्छ की परम्परा सबसे विराट व सदा से ही वृद्धिवंत रही है। उद्योतन सूरि जी से जिस बड़गच्छ की शाखा का प्रार्दुभाव हुआ, उसमें तपागच्छ की शाखा देदीप्यमान व जाज्वल्यमान परम्परा रही। कालधर्म : कुवलयमाला नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता आचार्य उद्योतन सूरि जी, इन उद्योतन सूरि जी से भिन्न थे एवं शताब्दी पूर्व हुए थे। आ. उद्योतन सूरि जी ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए मेघपाट के धवल नामक नगर में पधारे। वि.सं. 1010 के आसपास मालवा से शत्रुजय जाते हुए धवल नामक नगर में वृद्धावस्था के कारण आ. उद्योतन सूरि जी का समाधिपूर्वक कालधर्म हो गया। महावीर पाट परम्परा 113
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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