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________________ 36. आचार्य श्रीमद् सर्वदेव सूरीश्वर जी सिद्धपुरुष सूरि सर्वदेव जी, ऋद्धि सिद्धि भण्डार। नर-नरेन्द्र प्रतिबोध कुशल, नित् वंदन बारम्बार॥ चरमतीर्थपति भगवान् महावीर की मूल परम्परा का नाम उनके 36वें पट्टधररत्न आचार्य सर्वदेव सूरि जी से वट गच्छ (बड़गच्छ) हुआ। तब से इस गच्छ में विद्वान आचार्यों व श्रमणों की संख्या बढ़ती ही गई। परिणामस्वरूप चंद्रकुल वटवृक्ष की भाँति अनेक शाखाओं में विस्तृत हुआ व नागेन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर कुल इसके विस्तार के नीचे ढक से गए। जन्म एवं दीक्षा : छोटी आयु में ही इनकी दीक्षा आचार्य उद्योतन सूरि जी के पास हुई। उस समय इस समुदाय में आ. मानदेव, आ. अजितदेव, पं. आम्रदेव, पं. यशोदेव इत्यादि देवान्त (जिनके नाम के अन्त में देव शब्द आता हो) नाम वाले अनेक साधु भगवन्त हुए। इनका नाम सर्वदेव रखा गया। अल्प समय में ही इन्होंने गुरु के समीप रहकर शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। शासन प्रभावना : आचार्य उद्योतन सूरि जी ने वि.सं. 994 में टेली गाँव में बड़ के पेड़ के नीचे इन्हें आचार्य पदवी प्रदान की एवं इनका नाम आचार्य सर्वदेव सूरि रखा। सर्वानुभूति यक्ष के संकेतानुसार गच्छ की अनुज्ञा भी इन्हीं को दी। ___ सूरिमंत्र के प्रभाव से आ. सर्वदेव सूरि जी ऋद्धिधारी थे। एक बार वे अपने शिष्य परिवार के साथ विहार करते-करते भरूच नगर में पधारे। राजा तथा प्रजा ने आचार्यश्री के नगर पदार्पण पर भव्यातिभव्य आयोजन किया। उसी नगर में कान्हडीओ नामक एक योगी रहता था। वह योगी वशीकरण विद्या में निपुण था। नगर के सभी जहरीले सांपों को उसने अपने वश में कर लिया था। उससे भयभीत होकर सभी लोग उसका बहुमान करते थे किंतु सर्वदेव सूरि जी के भरूच आने पर लोग उनका सम्मान सत्कार करने लगे। इस बात से योगी के आत्मसम्मान को ठोकर लगी। अपने अहंकार में पुष्ट वह योगी 84 विषैले सांपों को लेकर उपाश्रय गया एवं आचार्यश्री जी को वाद के लिए ललकारने लगा। किंतु सर्वदेव सूरि जी हमेशा की भाँति करुणा महावीर पाट परम्परा 114
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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